Sunday, December 18, 2011

विकास के साथ राजनीति

राजस्थान पत्रिका 18 Dec
यूरोप व अमेरीका की मंदी के बाद पूरी दुनिया की निगाहें भारत और चीन पर टिकी हैं। पर अब कहा जा रहा है कि मंदी भारत के दरवाजे पर भी दस्तक दे रही है। खाद्य पदार्थों की कीमत में आई गिरावट और ऑटोमोबाइल बाजार की मांग में गिरावट को इसका संकेत माना जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्ष और मीडिया इस कदर तूफान मचाता है कि मानो आसमान टूट पड़ा हो। वह यह भूल जाता है कि जहां मुद्रास्फिति डकैत होती हैं वहीं मुद्रविस्फिति हत्यारी होती है। लूटा हुआ आदमी तो फिर से खड़ा हो सकता है पर जिसकी हत्या हो जाए वह क्या करेगा ? इसलिए महंगाई को विकास का द्योतक माना जाता है। इसीलिए पिछले दिनों जब महंगाई बढ़ी और विपक्ष एवं मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया तो सरकार ने चेतावनी दी थी कि महंगाई कम करने के चक्कर में मंदी आने का डर है।
विपक्ष के पास भी अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है। वह जानता था कि सरकार की बात में दम है पर महंगाई के विरोध में शोर मचाना हर विपक्षी दल की राजनैतिक मजबूरी होती है। मजबूरन सरकार ने कुछ मौद्रिक उपाए किए जैसे बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई। ब्याज दर बढ़ने से लोग उधार कम लेते हैं जिससे मांग में कमी आती है और कीमतें गिरने लगती है। सरकार की मौद्रिक नीति के अपेक्षित परिणाम सामने आए,पर यह हमारी अर्थ व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहा।
 पिछले दिनों भारत पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक मजबूती का दावा करता रहा है। विदेशी मुद्रा के भण्डार भी भरे हैं। वैश्विक मंदी के पिछले वर्षों के झटकें को भी भारत आराम से झेल गया था। ये बात विदेशी ताकतों को गवारा नहीं होती इसलिए वे भी मीडिया में ऐसी हवा बनाते हैं कि सरकार रक्षात्मक हो जाए। कुल मिलाकर यह मानना चाहिए कि अगर मंदी की आहट जैसी कोई चीज है तो उसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने महंगाई पर शोर मचाकर विकास की प्रक्रिया को पटरी से उतारने का काम किया है। उदाहारण के तौर पर खाद्यान्न की महंगाई से किसको परेशान होना चाहिए था ? देश के गरीब आदमी को ? पर इस देश की 68 फीसदी आबादी जो गांव में रहती है, खाद्यान्न की महंगाई से उत्साहित थी क्योंकि उसे पहली बार लगा कि उसकी कड़ी मेहनत और पसीने की कमाई का कुछ वाजिब दाम मिलना शुरू हुआ। क्योंकि यह आबादी खाद्यान्न के मामले में अपने गांवों की व्यवस्था पर निर्भर है। शोर मचा शहरों में। शहरों के भी उस वर्ग से जो किसान और उपभोक्ता के बीच बिचैलिए का काम कर भारी मुनाफाखोरी करता है। उस शोर का आज नतीजा यह है कि आलू और प्याज 1 रूपया किलों भी नहीं बिक रहा है। किसानों को अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ी रही है। भारत मंदी के झटके झेल सकता है, अगर हम आर्थिक नीतियों को राजनैतिक विवाद में घसीटे बिना देश के हित में समझने और समझाने का प्रयास करें तो।
 वैसे भी मंदी तब मानी जाए जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो। पर देश का सम्पन्न वर्ग, जिसकी तादाद कम नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर से भी ऊंचा जीवन-यापन कर रहा है। जरूरत है साधन और अवसरों के बटवारें की। उसके दो ही तरीके हैं। एक तो साम्यवादी और दूसरा बाजार की शक्तियों का आगे बढ़ना। इससे पहले कि मंदी का हत्यारा खंजर लेकर भारतीय अर्थ व्यवस्था के सामने आ खड़ा हो, देश के अर्थशास्त्रियों को उन समाधानों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था मजबूत बने। वे एक सामुहिक खुला पत्र जारी कर सभी राजनैतिक दलों से अपील कर सकते हैं कि आर्थिक विकास की कीमत पर राजनीति न की जाए।

Monday, December 12, 2011

अभिव्यक्ति पर बंदिश

Rajasthan Patrika 11Dec
जबसे टेलिकॉम मंत्री कपिल सिबल ने फेस बुक पर सेंसर लगाए जाने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया गया है। श्री सिबल ने इससे पहले इंटरनेट कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसाफ्ट व फेस बुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी इन साइट्स पर से कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह व मोहम्मद साहब से जुड़ी अपमानजनक, भ्रामक व भड़काऊ सामग्री हटाए। पर इन अधिकारियों का जवाब था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को खतरा है तो वे उसे हटाने को तैयार हैं पर लोगों की राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात श्री सिबल को नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखलंदाजी माना जा रहा है। अब यहां कई प्रश्न खड़े होते हैं।

पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।

पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।

पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।

पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।

आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।

Monday, December 5, 2011

क्या दक्षिणी चीन में संघर्ष होगा ?


Rajasthan Patrika 4Dec

पिछले दिनों चीन और भारत के बीच हुए वाक युद्ध को गंभीरता से लिया जाए तो इस बात की संभावना बनती है कि निकट भविष्य में भारत और चीन के बीच संघर्ष विकसित हो सकता है। पर इससे पहले कि स्थिति बिगड़े दोनों ही देशों को दक्षिणी चीन सागर की हकीकत को समझना होगा। चीन इस बात से नाराज है कि भारत के तेल व प्राकृतिक गैस आयोग की विदेशी शाखा ओ.वी.एल. वियतनाम के साथ मिलकर इस सागर में तेल की खुदाई का काम तेजी से आगे बढ़ा रही है। पिछले दिनों जब भारत के विदेश मंत्री श्री एस.एम. कृष्णा हनोई गए थे तो वहां उनके और चीन के बीच इस विषय पर जो बयानबाजी हुई उससे चीन सहमत नहीं था। चीन इस क्षेत्र में अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहता है और इस बात से खफा है कि वियतनाम, फिलीपिन्स जैसे देश उसकी चेतावनी के बावजूद भारत और अन्य देशों के साथ मिलकर इस सागर में अपनी आर्थिक गतिविधियां बढ़ा रहे हैं। 

चीन यह भूल जाता है कि वह पाकिस्तान के साथ मिलकर पाक अधिकृत कश्मीर में न सिर्फ महंगे सामरिक प्रोजेक्ट खड़े कर रहा है बल्कि उसने अपनी फौजें भी वहां तैनात कर रखी हैं। पाक अधिकृत क्षेत्र उसी तरह विवादास्पद है जिस तरह दक्षिणी चीन सागर। क्योंकि इस समुद्र को लेकर अमरीका भी अपने ‘राष्ट्रीय हित’ का दावा कर चुका है जिसे चीन मानने को तैयार नहीं हैं और वह इसे निर्विवाद रूप से अपना अधिकार क्षेत्र मानता है। यह बात दूसरी है कि सागर में प्राकृतिक तेल निकालने का जो प्रयास आज चर्चा में आया है उसकी शुरूआत तो मई 2006 में हुई थी जब भारत और वियतनाम के बीच इस आशय का समझौता हुआ था। वैसे इस क्षेत्र से तेल निकाले का काम तो 2003 में ही शुरू हो गया था। तो अब चीन इतना शोर क्यों मचा रहा है ? 

Punjab Kesari 5Dec
जबकि यह बात अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में मानी गई है कि तट से 200 नाटिकल मील दूर तक का क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की दृष्टि से उसी देश का माना जाएगा जिसके तट से सागर लगा होगा। पर इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसे समुद्र से व्यावसायिक जल पोतों का आवागमन नहीं होगा। बल्कि उनके स्वतंत्रापूर्वक आने-जाने की आम सहमति है। इतना ही नहीं संचार से जुड़े तार बिछाने की भी छूट सब देशों को है। इसलिए चीन का फड़फड़ाना किसी के गले नहीं उतर रहा है। सामरिक परिस्थितियों के विशेषज्ञों का मानना है कि चीन चाहे फड़फड़ाए जितना वह इस सागर को लेकर कोई बड़ा विवाद खड़ा करने नहीं जा रहा है, जिसका कारण बड़ा साफ है। वियतनाम और भारत के साथ चीन का अरबों रूपए का द्विपक्षीय व्यापार है। वियतनाम के साथ तो चीन के आर्थिक संबंधों की एक लंबी कड़ी है। वियतनात उन अतिविशिष्ट देशों में हैं जहां चीन का विनियोग सबसे ज्यादा है। यह बात दूसरी है कि कुछ विशेषज्ञ भारत से चीन के खिलाफ कड़े कदम उठाने की अपेक्षा रखते हैं। वे कहते हैं कि वियतनाम का तो चीन के खिलाफ लड़ने का इतिहास है। छोटा होते हुए भी वियतनाम दबने वाला नहीं हैं। वियतनाम ही क्यों दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों का महासंघ (आसियान) भी चीन की दादागिरी से विचलित है और चाहता है कि भारत आसियान के पक्ष में सामरिक रूप से खड़ा रहे और चीन के इस सागर में बढ़ते साम्राज्यवादी दावों को खारिज करने में उनकी मदद करे। ऐसे में भारत को बहुत सोच-समझ कर कदम उठाने होंगे।

दरअसल भरत इस मामले में शुरू से सजग रहा है। भारत की नौसेना के 2007 के दस्तावेजों में समुद्र संबंधी भारतीय नीति में अरब सागर से दक्षिण चीन सागर तक के बीच भारतीय हितों को रेखांकित किया गया है। 1910 में भारत उन 12 देशों में से था जिन्होंने अमरीका के इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि दक्षिणी चीन सागर का मामला द्विपक्षीय मामला न होकर बहुपक्षीय मामला है। जुलाई 2011 में भी भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव ने साफ शब्दों में कहा कि भारत का इस सागर में आर्थिक हित है और भारत इसके स्वतंत्र समुद्री मार्ग होने की बात को समर्थन करता है। 

कारण साफ है कि सागर का यह हिस्सा प्रशांत महासागर और हिन्द महासागर के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है। एशिया प्रशांत देशों के बीच होने वाले भारत के व्यापार का आधे से ज्यादा हिस्सा इसी समुद्री मार्ग से होकर जाता है। इतना ही नहीं जापान और कोरिया जैसे देशों को उनकी ऊर्जा की आवश्यकतापूर्ति के लिए भारत से की जा रही तेल की आपूर्ति भी इसी मार्ग से होकर की जाती है। अगर चीन इस इलाके पर अपनी दादागिरी जमाता है तो भारत का इन देशों से व्यापार बुरी तरह प्रभावित होगा। इसलिए भारत ऐसा कभी नहीं होने देगा। 

भारत के नौसेना प्रमुख एडमिरल निर्मल वर्मा का यह सुझाव प्रशंसनीय है कि भारत और चीन को दक्षिण चीन सागर के संबंध में एक साझी नौसैनिक समिति का गठन कर देना चाहिए जिससे इस क्षेत्र में आए दिन उठने वाले विवादों का यह समिति गंभीरता से विचार कर समाधान निकाल सके। इससे अनावश्यक संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं होगी। यह ठीक वैसी ही समिति होगी जैसी भारतीय सेना और पाकिस्तानी सेना ने मिलकर घुसपैठ बनाई है जो युद्धविराम की स्थिति में यथासंभव विवादों का शांतिपूर्ण हल खोजती रहती है। आज पूरी दुनिया, विशेषकर विकसित राष्ट्र आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं और चीन एवं भारत भी अपनी आर्थिक प्रगति की दर को कायम रखने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे माहौल में नाहक संघर्ष एशिया के इन दोनों ही देशों की उभरती आर्थिक भूमिका को करारा झटका दे सकता है, जिसके लिए शायद दोनों ही देश तैयार नहीं होंगे।

Sunday, November 27, 2011

जन आन्दोलन से उपजती हिंसा

Rajasthan Patrika 27Nov2011
प्रशांत भूषण की दफ्तर में पिटाई हो या केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार के गाल पर पड़ा थप्पड़, दोनों खतरे की घण्टी बजा रहे हैं। अगर जनान्दोलन का नेतृत्व करने वाले जनता को भड़काने के बयान देते रहेंगे, तो स्थिति कभी भी बेकाबू हो सकती है। क्योंकि जिस भीड़ पर नियन्त्रण करने की नेतृत्व में क्षमता न हो, उसे इसे हद तक उकसाना नहीं चाहिए कि हालात बेकाबू हो जाऐं। महात्मा गाँधी जैसा राष्ट्रीय नेता, जिनकी एक आवाज पर पूरा देश सड़क पर उतर आता था, उन तक को यह विश्वास नहीं था कि वे जनता को हिंसक होने से रोक पाऐंगे। इसलिए जब आन्दोलनकारियों ने चैरा-चैरी थाने में आग लगाकर पुलिस कर्मियों को जला दिया, तो महात्मा गाँधी ने बड़े दुखी मन से फौरन ‘असहयोग आन्दोलन‘ को वापिस ले लिया। हालांकि उनकी कांग्रेस पार्टी के कुछ हिस्सों में भारी निन्दा हुई, पर गाँधी जी का कहना था कि अभी हमारा देश सत्याग्रह के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि दोबारा आन्दोलन खड़ा करने में फिर कई वर्ष लग गए।

जब महात्मा गाँधी जैसी शख्सियत को भीड़ के आचरण पर भरोसा नहीं था, तो टीम अन्ना के सदस्य तो बापू के सामने बहुत छोटे कद के हैं। उनकी बात कौन सुनेगा? आज केन्द्रीय कृषि मंत्री के गाल पर थप्पड़ जड़ा है, कल राजनेताओं के समर्पित कार्यकर्ता या गुण्डे, टीम अन्ना के ऊपर वार कर सकते हैं। या फिर टीम अन्ना के समर्थक उन लोगों पर हमला कर सकते हैं, जो टीम अन्ना के तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते। इस तरह की हिंसा से प्रतिहिंसा पैदा होगी।

भारत जैसे विविधता के देश में, जहाँ भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक विषमता का भारी विस्तार है, वहाँ छोटी सी बात पर भीड़ का भड़कना और हिंसक हो जाना, या तोड़-फोड़ की गतिविधियों में लिप्त हो जाना, सामान्य बात होती है। ऐसी हालत में तीन परिणाम सामने आ सकते हैं। या तो हुक्मरान एकजुट होकर जनान्दोलन को लाठी और गोली से कुचल देंगे, अगर वे ऐसा न कर पाए और जनता इतनी बेकाबू हो गई कि सत्ता के हथियार भौंथरे सिद्ध होने लगे, तो कोई वजह नहीं है कि भारतीय सेना अपनी बैरकों से बाहर न निकल पड़े। यह कहना कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि यहाँ कभी सैनिक तानाशाही आ ही नहीं सकती, दिन में सपने देखने जैसा है। यह सही है कि भारतीय सेना, पाकिस्तान की सेना की तरह सत्ता के लिए जीभ नहीं लपलपाती, पर इसका मतलब यह नहीं कि सीमा पर लड़ने वाले अपनी देशभक्ति को गिरबी रख चुके हैं। अगर सेना को लगेगा कि राजनेताओं और जनान्दोलनों के नेताओं के टकराव से समाज में उथल-पुथल और अराजकता हो रही है, तो वह सत्ता की बागडोर संभालने में संकोच नहीं करेगी। हम सभी जानते हैं कि सेना की तानाशाही स्थापित हो जाने के बाद, भ्रष्टाचार का मुद्दा तो दूर, व्यवस्था की आलोचना मात्र करने की भी छूट लोगों को नहीं होती। अभिव्यक्ति की आजादी कुचल दी जाती है। फिर जन्म लेता है अधिनायक वाद, जिसके भ्रष्टाचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। दुख और चिंता की बात है कि टीम अन्ना के सभी सदस्य, जिनमें अन्ना हजारे भी अपवाद नहीं, बिना इस हकीकत को समझे लोगों की भावनाऐं भड़का रहे हैं। इसलिए उन्हें आगाह करने की आज बहुत जरूरत है।

दरअसल मैंने तो 4 जून, 2011 को ही एक खुला पत्र छापकर दिल्ली में बंटबाया था। जिसमे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरूद्ध माहौल बनाने के लिए बधाई देते हुए कुछ सावधानी बरतने की भी सलाह दी थी। उस पत्र में मैंने और मेरे मित्र समाजकर्मी पुरूषोत्मन मुल्लोली ने लिखा था कि, ‘रामदेव जी आपकी लड़ाई का सबसे बड़ा मुद्दा विदेशों में जमा धन है। आप कहते हैं कि चार सौ लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है। एक जिम्मेदार और देशभक्त नागरिक होने के नाते आपका यह कर्तव्य बनता है कि ऐसा दावा करने से पहले उसके समर्थन में सभी तथ्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करें। अगर आप इन तथ्यों को प्रकाशित नहीं करना चाहते तो कम से कम यह आश्वासन देश को जरूर दें कि इस दावे के समर्थन में आपके पास समस्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अन्यथा यह बयान गैर जिम्मेदाराना माना जाएगा और देश की आम जनता के लिए बहुत घातक होगा, जिसे आपने सुनहरा सपना दिखा दिया है।

विदेशों में जमा धन देश में लाकर गरीबी दूर करने का बयान आप दे रहे हैं और सपने दिखा रहे हैं, वैसा तो होने वाला नहीं है। पहली बात यह धन आप नहीं सरकार लायेगी, चाहें वह किसी भी दल की हो और उसे खर्च भी वही सरकार करेगी। तो आप कैसे उस पैसे से गरीबी दूर करने का दावा करते हैं? आप कहते हैं कि विदेशों से यह धन लाकर आप देश में विकास कार्यों की रफ्तार तेज करेंगे। शायद आप जानते ही होंगे कि इस तरह के अंधाधुंध व जनविरोधी विकास कार्यों से ही ज्यादा भ्रष्टाचार पनपता रहा है। फिर आप देश की जमीनी हकीकत को अनदेखा क्यों करना चाहते हैं? रामदेव जी अनेक मुद्दों पर आपके अनेक बयान बिना गहरी समझ के, जाने-अनजाने भावनाऐं भड़का रहे हैं। इससे आम जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। कृपया इससे बचें।

अन्ना हजारे जी और रामदेव जी, हम आप दोनों को एक साथ मानते हैं और इसलिए आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि आतंकवादी ताकतें, माओवादी ताकतें और साम्प्रदायिक ताकतें विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर इस देश में ‘सिविल वाॅर’ की जमीन तैयार कर चुकी हैं। जरा सी अराजकता से चिंगारी भड़क सकती है। इन ताकतों से जुड़े कुछ लोग आपके खेमों में भी घुस रहे हैं। इसलिए आपको भारी सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि आपकी असफलता जनता में हताशा और आक्रोश को भड़का दे और उसका फायदा ये देशद्रोही ताकतें उठा लें। इन परिणामों को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति बनायें तो देश और समाज के लिए अच्छा रहेगा। यह हमारा पहला खुला पत्र है। आने वाले दिनों में हम आपसे यह संवाद जारी रखेंगे। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें बिना सोचे-समझे बयानबाजी करके आप दोनों गुटों ने देश के सामने विषम परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं। जिनके खतरनाक परिणाम सामने आने वाले हैं।’

Sunday, November 20, 2011

भारत में अभी काफी दम है


जहाँ एक तरफ धनी देश एक के बाद एक, आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं, वहीं राहत की बात यह है कि एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाऐं और यूरोप के पड़ौसी देशों में आर्थिक प्रगति की दर काफी उत्साहजनक रही है। टर्की का सकल घरेलू उत्पाद 2010 में नौ फीसदी सालाना रहा। जो कि चीन की विकास दर के करीब था। इसी तरह 27 देशों के यूरोपीय संघ में से पौलेंड की आर्थिक प्रगति भी ठीक रही। पर जिस तरह का आर्थिक संकट यूनान व इटली में सामने आया, उससे यूरोपीय संघ के नेतृत्व के नीचे से जमीन सरक गई है। भारी घाटे की वित्तीय व्यवस्था से चलती यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने बैंकों का विश्वास डिगा दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए जिस तरह के राहत पैकेज पेश किए गए, वे नाकाफी रहे हैं। यूरोपीय बैंकों पर दबाब है कि वे बाहर के देशों में ऋण न देकर, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद करें। यहाँ तक कि जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े बैंक ‘कॉमर्स बैंक’ ने कहा है कि वह अपने देश के बाहर कोई ऋण नहीं देगा। अगर बैंक यह नीति अपनाते हैं, तो पहले से खाई में सरकती यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाऐं और भी गहरे संकट में फंस जाएंगी। 

यूरोपीय देशों के इस पतन का कारण वहाँ का, अब तक का, आर्थिक मॉडल और जीवनशैली रही है। इन देशों ने पहले तो पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद का सहारा लेकर, उपनिवेशों का शोषण किया और उनके आर्थिक संसाधनों का दोहन किया तथा अपनी अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाया। उपनिवेशवाद के बाद इन्होंने तकनीकि की श्रेष्ठता के आधार पर, दुनिया के व्यापार में अपना फायदा कमाया। 

पर जबसे एशियाई देशों की आर्थिक प्रगति ने जोर पकड़ा है, तबसे उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही इन देशों  में पनपे हैं। जिससे यूरोप की श्रेष्ठता बेमानी हो गई है। अब न तो यूरोप का तकनीकि ज्ञान चाहिए और न ही उनके बाजार से कोई ज्यादा उम्मीद है। इसलिए यूरोप के देश विश्व अर्थव्यवस्था में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। एक तरफ यह आर्थिक मार और दूसरी तरफ यूरोप वासियों का वैभवपूर्ण जीवन जीने का पुराना रवैया, दोनों में विरोधाभास है। ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया’, इसलिए वहाँ बज रहा है हर घर का बाजा। जनता में भारी हताशा और असुरक्षा घर कर गई है। मौज-मस्ती और सैर-सपाटों में लगे रहने वाले यूरोपवासी अब आए दिन सड़कों पर धरने, प्रदर्शन और घेराव कर रहे हैं। इस सबके बावजूद यूरोप के राजनेताओं और नौकरशाहों ने अपना विलासितापूर्ण खर्चीला व्यवहार पूरी तरह बदला नहीं है। हालांकि उसमें पहले के मुकाबले काफी गिरावट आयी है। फिर भी यूरोपीय देशों में सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले जर्मनी की चांसलर को यह कहना पड़ा कि इन देशों की सरकारों को आर्थिक अनुशासन के मामले में कड़ाई बरतनी पड़ेगी। 

दूसरी तरफ भारत की आर्थिक प्रगति ने दुनियाभर अपने झण्डे गाढ़े हैं। जो बात पश्चिम को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है, वह है भारत का लोकतंत्र के साथ उदारीकरण को अपनाना। जबकि चीन की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। भारतीय मॉडल की अपनी सीमाऐं हैं और अपने खतरे भी हैं। मसलन भारी भ्रष्टाचार, आधारभूत ढांचे की बेहद कमी और व्यापक गरीबी। जो कभी भी इस प्रक्रिया को पटरी से उतार सकती है। जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, दूरसंचार साधनों की प्रगति ने, जनता में भ्रष्टाचार के प्रति जागृति पैदा की है। जो धीरे-धीरे जनान्दोलनों का स्वरूप लेती जा रही है। आधारभूत ढांचे की कमी से निपटने के लिए भारत के उद्योगपति अपनी ही व्यवस्थाऐं खड़ी कर लेते हैं। गरीबी से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है और जब तक आर्थिक विकास के साथ आर्थिक बंटवारा भी समानान्तर रूप से साथ नहीं चलेगा, तब तक अनिश्चितता बनी रहेगी। 

इस सबके बावजूद भारतीय औद्योगिक घरानों ने जिस तरह दुनियाभर में अपने पंख फैलाए हैं, उससे पश्चिमी देश सकते में आ गए हैं। टाटा का रॉल्स रॉयस व जगुआर जैसी कम्पनियाँ खरीदना, लक्ष्मी मित्तल का स्टील साम्राज्य, इन्फोसिस का आई.टी. उद्योग में छा जाना, महेन्द्रा और हिन्दुजा जैसे घरानों का दुनियाभर में कारोबार फैलाना, कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारत का उद्यमी अब दुनिया में कहीं भी बड़े-बड़े विनियोग करने में सक्षम है। इतने महंगे दामों पर भारतीयों द्वारा विदेशी कम्पनियों को खरीदा गया है कि दुनिया के पैसे वाले और बड़े-बड़े बैंक हैरान रह गए हैं। 

भारत के उद्योगपतियों में तीन तरह की नेतृत्व क्षमता देखी गई है। एक तो वे समूह हैं, जिनके नेतृत्व ने जोखिम उठाना ठीक नहीं समझा और परिवार के नियन्त्रण में अपने पारंपरिक साम्राज्य को नियन्त्रित रखा। नए विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया। ऐसे औद्योगिक घराने इस दौर में पीछे छूट गए। दूसरे वे हैं, जिन्होंने हवा के रूख को पहचाना और अपने साम्राज्य का विस्तार अनेक दिशाओं में किया, जैसे टाटा, महिन्द्रा आदि। तीसरे वे हैं, जो पिछले बीस सालों में अपने बलबूते पर उठे और दुनिया के नक्शे पर छा गए। जैसे इन्फोसिस, रिलायंस, अडानी, मित्तल आदि। इनमें भी दो तरह के समूह रहे हैं। एक वे, जिन्होंने व्यक्तिग योग्यता और सामूहिक प्रबन्धन को महत्व दिया और सही मायने में कॉरपोरेट संस्कृति को विकसित किया। दूसरे वे हैं, जिन्होंने इस देश की राजनैतिक व्यवस्था की कमजोर नब्ज पर अपनी उंगलियाँ रखीं और इस राजनैतिक व्यवस्था का पूरा इस्तेमाल अपनी प्रगति के लिए किया तथा आशातीत सफलता प्राप्त की। इस बात की परवाह किए बिना कि उनके तौर-तरीकों को लेकर देश में कई सवाल खड़े होते रहे हैं। 

कुल मिलाकर भारतीय उद्यमियों ने दुनिया को दिखा दिया कि उद्योग और व्यापार के मामले में हिन्दुस्तानी किसी से कम नहीं। अब तो दुनिया भी मानने लगी है कि भारत जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था और जिसे सैंकड़ों साल लूटा गया, वह एक बार फिर सोने की चिड़िया बनने की कगार पर है। भारत की इस नई बनती पहचान से हमें गर्व होना अस्वाभाविक बात नहीं। पर साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी भारत माँ के 60 करोड़ बच्चे अभी भी बदहाली की जिन्दगी जी रहे हैं। अगर इनकी आर्थिक प्रगति साथ-साथ नहीं हुई, तो इनका संगठित आक्रोश भारत के जमे जमाए उद्योग को उसी तरह उखाड़ सकता है, जैसे बंगाल के आम लोगों ने नैनो कार के प्लांट को बनने से पहले ही उठाकर बाहर फैंक दिया। 

इसलिए हमें दोनों पैरों पर चलना है, एक पैर से औद्योगिक विकास व दूसरे पैर से कृषि तथा कुटीर उद्योग से आम लोगों की आर्थिक प्रगति। इसके साथ ही भ्रष्टाचार से मुक्ति और सरकारी फिजूलखर्ची पर कड़ा अनुशासन। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चय ही भारत अगले 10-15 वर्षों में, दुनिया की सबसे सशक्त अर्थव्यवस्था बन सकता है।

Sunday, November 13, 2011

चाल और चरित्र की चिंता

Rajasthan Patrika 13 Nov
राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है। उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों मंे ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी।

आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन.डी.तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। उमा भारती और गोविन्दाचार्य के सम्बन्धों पर भाजपा में ही कई बार बयानबाजी हो चुकी है। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं।

घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भत्र्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।

प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया।

ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं।

मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो।

Sunday, November 6, 2011

ज़िम्मेदार बने देश का मीडिया

Rajasthan Patrika 6Nov2011
प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के नये बने अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के ताजा बयानों ने मीडिया जगत में हलचल मचा दी है। उनके तीखे हमलों से बौखलाए मीडियाकर्मी न्यायमूर्ति काटजू के विरूद्ध लामबंद हो रहे हैं। जरूरत श्री काटजू के बयान के निष्पक्ष मूल्यांकन की है। क्योंकि धुंआ वहीं उठता है, जहाँ आग होती है।

श्री काटजू का कहना है कि, ‘टी.वी. मीडिया क्रिकेट और फिल्म सितारों पर ज्यादा फोकस रखकर बुनियादी सवालों से जनता का ध्यान हटा रहा है। देश की समस्या गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार है। जिन पर मीडिया नाकाफी ध्यान देता है।’ श्री काटजू के इस आरोप में काफी दम है। आम दर्शक भी यह महसूस करने लगा है कि टी.वी. मीडिया गंभीर पत्रकारिता नहीं कर रहा है। पर यहाँ समस्या इस बात की है कि जो लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं, वे टी.वी. नहीं देखते। जो टी.वी. देखते हैं, उनकी इन सवालों में रूचि नहीं है। टी.वी. मीडिया महंगा माध्यम है। इसको चलाने के लिए जो रकम चाहिए, वह विज्ञापन से आती है। विज्ञापन देने वाले उन्हीं कार्यक्रमों के लिए विज्ञापन देते हैं, जो मनोरंजक हों और लोकप्रिय हों। इसलिए धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया पूरी तरह विज्ञापन दाताओं के शिकंजे में चला गया है। जो थोड़ी बहुत चर्चाऐं गंभीर मुद्दों पर की जाती हैं, उनकी प्रस्तुति का तरीका भी सूचनाप्रद कम और मनोरंजक ज्यादा होता है। इनमें शोर-शराबा और नौंक-झौंक ज्यादा होती है। इसलिए गंभीर लोग टी.वी. देखना पसन्द नहीं करते।

श्री काटजू का आरोप है कि टी.वी. मीडिया ज्योतिष और अंधविश्वास दिखाकर लोगों को दकियानूसी बना रहा है। जबकि भविष्य के परिवर्तन के लिए उसे तार्किक व वैज्ञानिक सोच को विस्तार देना चाहिए। ताकि समाज भविष्य के बदलाव के लिए तैयार हो सके। श्री काटजू का यह आरोप भी बेबुनियाद नहीं है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण कब-से पड़ रहे हैं, पर टी.वी. मीडिया को देखिए तो लगता है कि हर ग्रहण एक प्रलय लेकर आने वाला है। जबकि होता कुछ भी नहीं। आश्चर्य की बात है कि टी.वी. मीडिया के आत्मानुशासन के लिए बनी ‘न्यूज ब्राॅडकास्टिंग स्टैण्डडर््स आॅथोरिटी’ टेलीविजन के इस गिरते स्तर को रोक पाने में नाकाम रही है। इस कमेटी के अध्यक्ष जस्टिस जे.एस. वर्मा हैं।

श्री काटजू का आरोप है कि, ‘मीडियाकर्मी राजनीति, कानून, इतिहास, दर्शन, अन्र्तराष्ट्रीय सम्बन्ध जैसे गंभीर विषयों पर बिना जाने और बिना शोध किए रिपोर्ट लिख देते हैं। जिससे उनका हल्कापन नजर आता है।’ उनकी सलाह है कि पत्रकारों को गंभीर अध्ययन करना चाहिए। श्री काटजू को इस बात से भी शिकायत है कि मीडिया बम विस्फोट की खबरों को इस तरह से प्रकाशित करता है कि मानो हर मुसलमान आतंकवादी है। उनका मानना है कि हर धर्म में ज्यादा प्रतिशत अच्छे लोगों का है। इस तरह की रिपोर्टिंग से समाज में विघटन पैदा हो जाएगा। जबकि हमें समाज को जोड़ने का माहौल बनाना चाहिए। जस्टिस काटजू को इस बात से भी नाराजगी है कि मीडिया वाले बिना पूरी तहकीकात किए ही किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति को जरा देर में ध्वस्त कर देते हैं। जिससे समाज का बड़ा अहित हो रहा है। उनका मानना है कि उच्च पदों पर आसीन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ, चाहें वे न्यायाधीश ही क्यों न हों, मीडिया को लिखने का हक है, पर ईमानदार लोगों को नाहक बदनाम नहीं करना चाहिए। श्री काटजू चाहते हैं कि प्रिंट और टेलीविजन, दोनों माध्यमों को ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया’ के आधीन कर देना चाहिए और इसका नाम बदलकर ‘मीडिया काउंसिल ऑफ इण्डिया’ कर देना चाहिए। वे चाहते हैं कि उन्हें मीडिया को नियन्त्रित करने और सजा देने का अधिकार भी मिले।

उपरोक्त सभी मुद्दे कुछ हद तक सही हैं और कुछ हद तक विवादास्पद। विज्ञापन लेने की कितनी भी मजबूरी क्यों न हो, कार्यक्रमों और समाचारों का स्तर गंभीर बनाने की कोशिश होनी चाहिए। अन्यथा धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया केवल सनसनी फैलाने का माध्यम बनकर रह जाऐगा। श्री काटजू को मीडिया के खिलाफ कड़े कानून बनाने का हक तो नहीं मिलना चाहिए, पर ऐसी व्यवस्था जरूर बननी चाहिए कि गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता करने वाले अखबारों, चैनलों और पत्रकारों को सही रास्ते पर लाया जा सके। प्रेस की आजादी के नाम पर मीडिया का एक वर्ग अपनी कारगुजारियों से पूरे मीडिया को बदनाम कर रहा है। मीडिया के लोग खबरों और मुद्दों को उठाने में पूरी पारदर्शिता नहीं बरतते और विशेष कारणों से किसी मुदद् को जरूरत से ज्यादा उछाल देते हैं और वहीं दूसरे मुद्दे को पूरी तरह दबा देते हैं, जबकि समाज के हित में दोनों का महत्व बराबर होता है।

इस सबके साथ यह भी कहने में काई संकोच नहीं होना चाहिए कि न्यायपालिका के सदस्य समाज के हर वर्ग पर तीखी टिप्पणी करने में संकोच नहीं करते। जबकि न्यायपालिका में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके कोई कदम नहीं उठ रहे। जस्टिस काटजू अगर मीडिया के साथ ही न्यायपालिका को भी इसी तेवर से लताड़ें तो उनकी बात अधिक गंभीरता से ली जाऐगी। ‘अदालत की अवमानना कानून’ का दुरूपयोग करके न्यायाधीश पत्रकारों का मुंह बन्द कर देते हैं। जबकि अगर किसी पत्रकार के पास न्यायाधीश के दुराचरण ठोस परिणाम हों, तो उन्हें प्रकाशित करना ‘अदालत की अवमानना’ कैसे माना जा सकता है? प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष के नाते व पूर्व न्यायाधीश होने के नाते श्री काटजू का फर्ज है कि वे ‘अदालत की अवमानना कानून’ में वांछित संशोधन करवाने की मुहिम भी चलवाऐं।

Monday, October 24, 2011

लोकपाल मुद्दे पर खुली बहस की ज़रुरत

टीम अन्ना की सदस्या किरण बेदी पर यात्रा भत्ते में से अवैध रूप से बचत करने का आरोप है। हालांकि यह आरोप मीडिया ने लगाया है, पर माना यही जा रहा है कि राजनेता किरण बेदी को भ्रष्ट सिद्ध करना चाहते हैं। उधर टीम अन्ना का कहना है कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के आरोपी ए.राजा की हीरा चोरी के मुकाबले किरण बेदी की खीरा चोरी नगण्य है। उनकी बात सही है, पर कानून यह फर्क नहीं मानता। दरअसल किरण बेदी सद्इच्छा के बावजूद एक ऐसी लापरवाही कर बैठी हैं, जिसका उन्हें काफी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उन्होंने पिछले वर्षों में अपने भाषणों के आयोजकों से हवाई जहाज की महंगी टिकट का पैसा वसूला मगर यात्रा की सस्ती टिकट पर। जिसमें भी उनको 75 फीसदी की रियायत एयरलाइंस ने इसलिए दी क्योंकि उन्हें ‘गैलेण्ट्री अवार्ड’ से नवाजा गया था। इस तरह उन्हें जो मुनाफा हुआ, उसे श्रीमती बेदी ने अपने निजी खाते में तो नहीं लिया पर अपनी धर्मार्थ संस्था में डाल दिया। जिससे वे जनहित के कार्य कर सकें। उनका कहना है कि इस तरह मैंने कोई अपराध नहीं किया। जबकि कानून के विशेषज्ञ और श्रीमती बेदी के समकालीन पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सरकारी नौकरी में रहते हुए ऐसा काम करने से नौकरी चली जाती लेकिन अभी भी उन्हें सजा मिल सकती है और उनकी पेंशन भी बन्द हो सकती है।
इससे पहले प्रशांत भूषण का विवादास्पद बयान कि यदि वहाँ की जनता चाहे तो कश्मीर को भारत से अलग होने देना चाहिए, या अरविन्द केजरीवाल का सरकार को पैसा लौटाए बिना, शर्त के विरूद्ध नौकरी छोड़ देना, कुछ ऐसे मामले हैं, जिनसे अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेतृत्व की नैतिकता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। टीम अन्ना इससे विचलित नहीं है। उनका कहना है कि सरकार जितनी कीचड़ हम पर उछालेगी, उतनी ही जनता की सहानुभूति हमें मिलेगी। पर दोनों तरह की बातें कही जा रही हैं। भ्रष्टाचार से आजिज जनता चाहती है कि उसे रोजमर्रा की जिन्दगी में भ्रष्टाचार और सरकारी लालफीताशाही का मुँह न देखना पड़े। उन्हें समझा दिया गया है कि लोकपाल बिल पास हो जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमला टीम अन्ना के किसी भी सदस्य पर हो, जनता की निगाह में वह सरकार का भड़ास निकालने का तरीका है।
दूसरी तरफ टीम अन्ना से मोहभंग होने वालों की भी कमी नहीं है। इन लोगों का कहना है कि जब छोटे-छोटे मौकों पर टीम अन्ना का नेतृत्व अपने आर्थिक लाभ के लिए समझौते किए बैठा है और उसे इसकी कोई ग्लानि नहीं है, तो भविष्य में क्या होगा, जब इनकी जैसी मानसिकता के लोग लोकपाल बनेंगे? इसलिए उन्हें लगता है कि टीम अन्ना का आन्दोलन दिशाहीन हो चुका है। अब केवल भावनाऐं भड़काने का और किसी तरह समाचारों में बने रहने का कार्य किया जा रहा है। मेगासेसे पुरूस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह और वरिष्ठ गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता राजगोपाल का टीम अन्ना की कोर समिति से इस्तीफा देना और कर्नाटक के लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े का अरविन्द केजरीवाल के हिसार चुनाव प्रचार में सक्रिय होने से नाराज होना, इस दिशाहीनता के प्रमाण के रूप में देखा जा रहा है। टीम अन्ना के शुभ चिंतकों का मानना है कि जहाँ अरविन्द केजरीवाल इस आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं, वहीं उनकी महत्वाकांक्षा, तानाशाही और आत्मकेन्द्रित रणनीति इस आन्दोलन के पतन का कारण बन रही हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध उत्तर भारत में जनमत तैयार करने का बाबा रामदेव व टीम अन्ना ने बहुत अच्छा काम किया है, जिससे कोई असहमत नहीं होगा। रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ और उसके बाद जिस तरह से संसद की प्रतिक्रिया अन्ना के पक्ष में सामने आई, उससे इस आन्दोलन का लक्ष्य प्राप्त हो गया था। इसके बाद कि प्रक्रिया सांसदों के हाथ में है। जिसके बिना कोई कानून नहीं बन सकता। पर सांसदों को बहस करने और कानून के मसौदे पर विचार करने से पहले ही अगर टीम अन्ना चुनाव के दंगल में उतर पड़ती है, तो उसकी नीयत पर सन्देह होना लाजमी है। जिस तरह की भाषा टीम अन्ना के सदस्य राजनेताओं के विरूद्ध प्रयोग कर रहे हैं, उससे उन्हें सलीम-जावेद के डायलाॅग की तरह जनता में वाह-वाही भले ही मिल रही हो, एक खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है। जो देश में अराजकता की हद तक जा सकती है।
Punjab Kesari 24 Oct 2011
यह सही है कि देश की जनता सरकारी व्यवस्थाओं में जबावदेही और पारदर्शिता चाहती है। इसलिए उसे जहाँ से भी आशा की किरण दिखती है, वहीं लग लेती है। पर ऐसी स्थिति में जन आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। अगर उनमें राजनैतिक परिपक्वता, जन आन्दोलनों का अनुभव और सŸााधीशों की प्रवृतिŸा की समझ नहीं है, तो वे जनता को गड्डे में गिरा सकते हैं। इससे इतनी हताशा फैलेगी कि वर्षों दूसरे जन आन्दोलनों को खड़ा करना आसान न होगा। वैसे भी देश के तमाम अनुभवी वकील, न्यायविद् व सर्वोच्च पदों पर रहने के बावजूद पूरी तरह ईमानदार रहे अधिकारियांे को भी जनलोकपाल विधेयक से सहमति नहीं है। उन्हें लगता है कि यह विधेयक बहुत बचकाना, धरातल की सच्चाई से दूर और शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा है। जिसका कोई परिणाम सामने आने वाला नहीं है। वे इस पूरे मामले पर भिन्न राय रखते हैं। चिन्ता की बात यह है कि न तो टीम अन्ना ने और न ही देश के मीडिया ने ऐसे अनुभवी लोगों की राय जानने की कोशिश की, जिन्होंने सŸाा में रहते हुए भ्रष्टाचार से लड़ाई की और बिना समझौता किए अपना कार्यकाल पूरा किया। इन लोगों का दावा है कि जनलोकपाल बिल न तो भ्रष्टाचार को दूर कर पाएगा और न ही भ्रष्टाचारियों को पकड़ पाएगा। इसलिए पूरे देश में इस मुद्दे पर एक खुली बहस की आवश्यकता है, जिसके बाद ही संसद को कोई निर्णय लेना चाहिए।

Sunday, October 16, 2011

मृग-तृष्णा हैं प्रथक राज्य

Rajasthan Patrika 16 Oct 2011
पृथक तेलांगना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आन्दोलन के कारण आन्ध्र प्रदेश की सरकार ठप्प पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबाद वासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। एक-एक करके हर वर्ग के लोग इस आन्दोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित्य नये धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलांगना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। यह केवल मृग तृष्णा है।

देश में जहाँ-जहाँ पृथक राज्य बने, वहाँ-वहाँ यही नारा दिया गया कि अलग राज्य बन जाने से क्षेत्र का विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। झारखण्ड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि खनिज संपदा से प्रचुर मात्रा में संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊँचाई को पार कर गया है। यहाँ के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। इनके जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि इनके मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैंकड़ों-हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।

मुझे याद है गोरखालैंड का वह आन्दोलन जब वहाँ 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। मैं उसका कवरेज करने वहाँ गया था। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आये दिन दार्जलिंग में बन्द हो रहे थे। बन्द की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आन्दोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुँचा। मेरे चारों ओर एल.एम.जी. का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने श्री घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किक आधार क्या है? उत्तर मिला, ‘‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चैकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की सम्पत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनायेगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गयी। बाद में उसी इलाके में काउंसिल के नेताओं के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।

हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण को देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास सम्भव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि अलग राज्य बनना, मतलब आम जनता की जेब पर डाका डालना। क्योंकि अलग राज्य बनेगा तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाईकोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमण्डल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इस सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर। जिसे झूठे आश्वासनों, लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
 
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनैतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की सम्भावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाऐं तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं। पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था।

जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आन्दोलन चलता है, जैसा आजकल तेलांगना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहाँ की जनता के अनुभव अखबारों और टी.वी. में प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाऐं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था। पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला। उन आन्दोलनों के दौर की खबरों के कोलाज और फिल्में दिखानी चाहिएं ताकि स्थानीय लोग अपने आन्दोलन से उस आन्दोलन की साम्यता देख सके और उन्हें समझ में आ जाए कि यह नाटक बहुत पुराना है। दूसरी तरफ आन्दोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। मीडिया में इतनी ज्यादा प्रतिस्पर्धा है कि किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता। क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।

Sunday, October 9, 2011

चौपट होते पर्यटन स्थल

Rajasthan Patrika 09 Oct 2011
केरल की राजनीति हमेशा चर्चा में रहती है। केरल के लोग जब राष्ट्रीय क्षितिज पर आते हैं, तो भी तरंगें पैदा करते हैं। पर आज बात केरल की राजनीति की नहीं, केरल के समुद्र तट पर उठने वाली तरंगों की करनी है। इन तरंगों की कोई सुध भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय नहीं ले रहा। नतीजतन आय का बहुत बड़ा स्रोत बेकार गंवाया जा रहा है।

हजारों साल से दुनियाभर के लोगों को भारत आकर्षित करता रहा है। तीर्थाटन, व्यापार या पर्यटन के लिए सैलानी दुनिया के हर कोने से भारत आते रहे हैं। उदारीकरण के दौर में जब भारत के झण्डे दुनिया में गढ़ रहे हैं, तो भारत के प्रति उत्सुकता और भी बढ़ रही है। पर ऐसा लगता है कि भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय आज भी बेसुध पड़ा सो रहा है। उसे देश के पर्यटन को बढ़ाने की कोई चिंता नहीं है।

मैं इन दिनों केरल के दौरे पर हूँ। मुझे यह जानकर भारी तकलीफ हुई कि भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय या जहाजरानी मंत्रालय ने आज तक केरल के खूबसूरत समुद्री तट का अन्तर्राष्ट्रीय सैलानियों के लिए रास्ता नहीं खोला है। दुनिया के छोटे-छोटे देशों में पानी के जहाज पर पर्यटकों को ले जाने के लिए क्रूज के अनेको विकल्प प्रस्तुत किए गये हैं, जिनसे इन देशों को अच्छा-खासा मुनाफा हो रहा है। केरल के समुद्र तट पर मुम्बई, गोवा से कोचीन और तिरूवंतपुरम होते हुए कन्याकुमारी जाने तक का समुद्री मार्ग इतना आकर्षक है कि अगर इस पर क्रूज की व्यवस्था की जाती, तो अब तक सैंकड़ों करोड़ रूपये का मुनाफा हो जाता। लोग केरल के तट से लक्षद्वीप या मालद्वीप जैसी जगह तो जाते ही, तट पर ही रूके रहने का भी आनन्द लेते। कोचीन पोर्ट ट्रस्ट पर आकर पता चला कि भारत का अपना कोई भी क्रूज नहीं है। जिससे स्थानीय लोगों में भी भारी आक्रोश है। क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी आमदनी और रोजगार को बढ़ाने वाला यह काम सरकार की अदूरदर्शिता के कारण आज तक नहीं किया गया।

विदेशी ही क्यों, देशी पर्यटक भी कोई कम उत्साही और साधन सम्पन्न नहीं हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत से यूरोप, दक्षिण पूर्वी एशिया, ईजिप्ट और तुर्की व चीन घूमने जाने वाले पर्यटकों की तादाद में पिछले कुछ वर्षों में भारी इजाफा हुआ है। एक उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। स्विट्जरलैंड के पर्यटन स्थल ‘इंटरलाकेन’ में दस वर्ष पहले हिन्दुस्तानी इक्के-दुक्के दिखाई देते थे। आज इस ‘हिल स्टेशन’ पर ऐसा लगता है, मानो यह शिमला हो। क्योंकि हर तरफ हिन्दुस्तानी ही नजर आते हैं। जब भारत के लोग इतना खर्चा करके विदेशों में नये-नये पर्यटन स्थलों की खोज में भटक रहे हैं, तो क्यों नहीं देश के पर्यटन स्थलों को तेजी से विकसित किया जाता? इससे न सिर्फ रोजगार बढ़ेगा, बल्कि देश का पैसा, विदेश जाने से रूकेगा और विदेशी पर्यटकों के आने से आमदनी भी बढ़ेगी। जितनी विविधता भारत में है, उतनी दुनिया के दो-चार देशों में ही है। एक तरफ कश्मीर के बर्फ से ढके पहाड़, दूसरी तरफ तट से टक्करें मारतीं समुद्री लहरें; पश्चिम में रेगिस्तान की खूबसूरत संस्कृति और पूर्वोत्तर भारत में जनजातीय संस्कृति के अनूठे नमूने किसी भी पर्यटक को विभोर करने में सक्षम हैं। पर पर्यटन की दृष्टि से हमारे यहाँ आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी है। जो कुछ अच्छा है, उसे निजी क्षेत्र ने विकसित किया है। स्थानीय नगरपालिकाऐं व प्रांतीय सरकारें अपने पर्यटन स्थलों को चैपट करने में कसर नहीं छोड़ते। राजनैतिक दखलअंदाजी के चलते, इन पर्यटन स्थलों पर अवैध निर्माण, प्रकृति से खिलवाड़, कूड़े के अम्बार, यात्री सुरक्षा की नाकाफी सुविधाऐं, कुछ ऐसे कारण हैं जो भारी मात्रा में पर्यटकों को हमारे देश की ओर आकर्षित नहीं कर पाते।

एक समग्र दृष्टि की जरूरत है। ऐसी पहल हो कि क्षेत्रीय प्रशासन से केन्द्रीय सरकार तक, निजी क्षेत्र से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र तक के लोग मिल-बैठकर भारत के पर्यटन स्थलों को समयबद्ध कार्यक्रम के तहत विकसित करने की योजनाऐं बनाऐं और उन्हें समय से पूरा करें, तो भारत की अर्थव्यवस्था में काफी लाभ हो सकता है।

मेरा खुद का अनुभव इस विषय में बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा से लगे ‘ब्रज क्षेत्र’ को सुन्दर स्वरूप देने के लिए मैं स्वंयसेवी स्तर पर गत् 7 वर्षों से सक्रिय हूँ। पर व्यवस्था का सहयोग इतना धीमा और थका देने वाला होता है कि कभी-कभी लगता है कि हमारे पर्यटन क्षेत्र विकसित होने से पहले ही अनियोजित विस्तार के कारण कूड़े के ढेर में बदल जाऐंगे। जैसा आज हो रहा है। इस तरह हम न सिर्फ वर्तमान को नष्ट कर रहे हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ी को भी निराश कर रहे हैं।

Monday, October 3, 2011

जापान में नाभिकीय ऊर्जा को ‘सायोनारा’ ?

Punjab Kesari 03Oct 2011
जापान ने सुनामी की जो त्रासदी भोगी, उसका सबसे खतरनाक पहलू था, फूकुशिमा, दाई-ईची ‘न्यूक्लीयर पॉवर प्लांट’ का आपे से बाहर होना। इसकी गरमी से सुरक्षा कवच फट गए और नाभिकीय विकिरण ने दूर-दूर तक के इलाके खाली करवाने पर प्रशासन को मजबूर कर दिया। आज तक 86 हजार लोग बेघर शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं और उन्हें पता नहीं हैं कि वे अपने घर कभी लौट पाऐंगे भी कि नहीं। क्योंकि नाभिकीय विकिरण का असर अभी खत्म नहीं हुआ है। उधर ये पाॅवर प्लांट भी अभी तक पूरी तरह स्थिर नहीं हो पाया है। यानि खतरा बना हुआ है।

पिछले दिनों जापान ने 51 साल में पहली बार एक विशाल जन प्रदर्शन देखा। 60 हजार लोग नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। ये लोग नाभिकीय ऊर्जा का विरोध कर रहे थे। इनकी मांग थी कि इस ऊर्जा का प्रयोग यथाशीघ्र बन्द किया जाए। ताकि भविष्य में फिर नाभिकीय विकिरण का खतरा न झेलना पड़े। उल्लेखनीय है कि जापान ही दुनिया का वह अकेला देश है जिसने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अपने शहर हिरोशिमा व नागासाकी में परमाणु बम के भयावह असर को झेला था। इसलिए उसके नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर यह भी सही है कि 1960 से आज तक जापान में कोई जनप्रदर्शन नहीं हुआ। एक तो जापानी स्वभाव से ही शांतिप्रिय और मध्यमार्गीय हैं, दूसरे वे भारी देशभक्त और अपने कार्य के प्रति निष्ठावान हैं। इसलिए वे कभी हड़ताल या जनप्रदर्शन कर अपना समय और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाते। नाभिकीय ऊर्जा के विरूद्ध हुए इस प्रदर्शन में 60 हजार प्रदर्शनकारियों ने एक ही गन्तव्य पर जाने के लिए तीन मार्ग पकड़े। ताकि यातायात को असुविधा न हो। पूरा प्रदर्शन संगीतमय और बैनरों को लिए हुए था। कहीं तोड़-फोड़, गुण्डागर्दी या सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने की रिपोर्ट नहीं मिली। प्रदर्शन भी पूरे अनुशासन के साथ किया गया। इससे भारत के लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए।

ऐसा नहीं कि सारा जापान नाभिकीय ऊर्जा को फौरन तिलांजली देना चाहता है। ऐसे लोग बहुत कम हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर एकदम से नाभिकीय ऊर्जा संयत्र बन्द कर दिए जाऐं, तो जापान में बिजली का भारी संकट पैदा हो जाएगा। इसलिए वे क्रमशः इन संयत्रों को बन्द करने के पक्ष में हैं। इसका एक कारण यह भी है कि मित्सुबिसी, तोशिबा जैसी ऊर्जा उत्पादक कम्पनीयाँ लाखों लोगों को रोजगार देती हैं। अगर इन कम्पनियों के वि़द्युत उत्पादन संयत्र बन्द कर दिए गए तो भारी बेरोजगारी फैल जाएगी। इसलिए प्रदर्शनकारी परमाणु ऊर्जा के विरोध में होते हुए भी उसे एकदम नकारने के पक्षधर नहीं हैं। वे ये चाहते हैं कि सरकार तेजी से वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को विकसित करे। दरअसल 1960 के पहले जापान में जो वामपंथी ट्रेड यूनियन वगैरह थीं, वे सब आपसी झगड़ों और सरकारी दबाव में लगभग मृत प्रायः हो चुकी हैं और अब जो ट्रैड यूनियन हैं उनके सदस्य मूलतः इन्हीं विद्युत कम्पनियों के मुलाजिम हैं। इसलिए भी वे ज्यादा आक्रामक रवैया नहीं अपनाते। वैसे भी जापान के प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि सन् 2048 से पहले इन संयत्रों को बन्द करना संभव नहीं होगा।

पर इन सब घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि जापान जैसे विकसित देश की पढ़ी-लिखी और समझदार जनता नाभिकीय ऊर्जा के पक्ष में नहीं है। यह अनुभव भारत के लिए सबक सीखने का होना चाहिए। हाल ही में आये भूचाल ने जो तबाही सिक्किम राज्य में मचाई है, उसके बाद कई भू-गर्भ वैज्ञानिक उत्तर भारत में भारी भंूकम्प की संभावनाओं को लेकर काफी चिंतित हैं। उन्हें डर है कि उत्तर भारत की पोली मिट्टी, गगनचुंबी इमारतों को तो लील ही जाएगी, साथ ही नरौरा जैसे परमाणु संयत्र भी खतरे से अछूते नहीं रहेंगे। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण और जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य की चिंता करने वाले देश के सामाजिक कार्यकर्ता भारत सरकार की परमाणु नीति का लगातार विरोध करते आये हैं। उन्हें लगता है कि भारत सरकार, चाहें वह किसी भी दल की क्यों न हो, नाभिकीय ऊर्जा के मामले में देश का हित नहीं कर रही।

अमरीका से परमाणु ईधन संधि पर संसद में हुई बहस में वामपंथी दलों के अलावा भी बहुत से दलों ने सरकार का विरोध किया था। वामपंथी दलों ने तो सरकार का दामन ही छोड़ दिया। परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर सरकार अल्पमत में आ गई थी और उस पर आरोप है कि उसने अपनी गद्दी बचाने के लिए लम्बी-चैड़ी खरीद-फरोख्त की। जिसकी एक कड़ी अमर सिंह और दूसरी कड़ी सुधीन्द्र कुलकर्णी थे, जो फिलहाल तिहाड़ जेल में बन्द हैं। फिर भी सरकार के समान, इस मुद्दे पर विचार रखने वाले राजनैतिक दल गंभीरता से सोच नहीं रहे हैं। यह आत्मघाती स्थिति है।

Sunday, September 18, 2011

अन्ना हजारे फिर महात्मा गाँधी के खिलाफ बोले

Rajasthan Patrika 18 Sep
दिल्ली के रामलीला में जितने दिन अन्ना हजारे का अनशन चला, उतने दिन मंच पर उनके पीछे महात्मा गाँधी का एक बड़ा भारी फोटो लगा रहा। हजारे जी के मीडिया मैनेजरों ने उन्हें दूसरा महात्मा गाँधी बताकर खूब प्रचारित किया। नारे भी लगाए गए कि ‘अन्ना नहीं आंधी है, दूसरा महात्मा गाँधी है।’ टीम अन्ना का उत्साह इस कदर बढ़ गया कि देश में कई जगह उन्होंने महात्मा गाँधी की मूर्ति पर ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी भी पहना दी। कुल मिलाकर बात यह थी कि किसी तरह अन्ना हजारे को महात्मा गाँधी के बराबर खड़ा कर दिया जाए। पर हजारे जी की बातों को देखें तो असलियत कुछ और ही बयान कर रही है।

हजारे जी महात्मा गाँधी की शिक्षाओं और आचरण के विपरीत बोल रहे हैं। जिसका उन्हें पूरा हक है। पर फिर कम से कम गाँधी के समकक्ष उन्हें न रखा जाए। ताजा उदाहरण हजारे जी का वह बयान है, जो उन्होंने अपने गाँव रालेगण सिद्धि से जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। सुनने में यह बड़ा दमदार लगता है। पर क्या यह गाँधी की भाषा है? गाँधी जी जोर देकर बार-बार कहते थे कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’

अब हम हजारे जी के उस वक्तव्य का विश्लेषण करें, जो वे देश की अबोध और कुछ भावुक जनता को खुश करने के लिए बार-बार दे रहे हैं कि, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।’ जाहिर है कि यह महात्मा गाँधी के सिद्धांत और शिक्षाओं के विपरीत है। रही बात फाँसी के प्रभाव की, तो इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि तानाशाहों के राज्यों में, मसलन फ्रांस में, जब जेबकतरों को सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी जाती थी, तो वहाँ खड़ी भीड़ में दर्जनों जेबें कट रही होती थीं। इसलिए अपराध शास्त्र में फांसी की सजा को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। अदालत भी जब फांसी की सजा सुनाती है, तो केवल उन्हीं मामलों में, जहाँ यह महसूस करती है कि अपराधी ने इतना निकृष्ट अपराध किया है कि उसका जीना समाज के लिए अभिशाप बन सकता है। ऐसा दुर्लभ मामलों में भी दुर्लभतम मामलों में किया जाता है। पूरी दुनिया के सभी देशों में, जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं हैं, फांसी की सजा कई वर्षों में एकाध-बार दी जाती है। हजारे जी ऐसी अव्यवहारिक, भड़काऊ और गैर गाँधीवादी बात कहकर आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

आजादी की लड़ाई के दौरान जब देश के बड़े-बड़े नेता बार-बार वर्षों तक जेलों में रहे, तो उन्होंने जेल की अन्दर की दशा को देखा। कैदियों के मनोविज्ञान को समझा और इसलिए आजादी के बाद वर्षों तक सभी राजनेता अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जेल सुधार की बात करते रहे। अपराध शास्त्री सुधीर जैन बताते हैं कि आजादी से पहले अंगे्रजी हुकूमत का सोचना था कि किसी अपराधी को तीन उद्देश्यों से सजा दी जाए। (1) प्रतिशोध - उसने समाज के विरूद्ध जो अपराध किया है, उसका बदला उससे लिया जाए। (2) प्रतिरोध - उसे भविष्य में यह अपराध करने से रोका जाए। प्रतिरोध के भी दो भाग थे। एक था-वैयक्तिक प्रतिरोध और दूसरा-सामान्य प्रतिरोध। वैयक्तिक प्रतिरोध का मतलब था कि वह अपराधी दुबारा ऐसा जुर्म करने की हिम्मत न करे और सामान्य प्रतिरोध था कि उसकी सजा देखकर दूसरे डर जाएं और सबक सीखें। (3) प्रायश्चित - उसे कारागार में डालकर ऐसे हालात में रखा जाए कि वह बार-बार अपने अपराध का चिंतन करे और उसके मन में पश्चाताप पैदा हो।

आजादी के बाद इस सोच में बदलाव आया और जेल सुधार के कार्यक्रम में दो आयाम और जोड़े गए। एक था अपराधी का सुधार करना और दूसरा था उनका पुर्नवास करना। पहले के तहत अपराधी को अनेक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक उपायों से सुधरने और बेहतर इन्सान बनने का मौका देना। अपराधी सुधार का यह आयाम महात्मा गाँधी के उन्हीं विचारों से प्रेरित था कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ पुर्नवास के तहत अपराधी को समाज में फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि एक बार जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लग जाता है, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए ऐसे कार्यक्रम बनाए गए और ऐसी प्रचार सामग्री तैयार की गई, जिससे समाज की सोच को बदला जा सके। इसी प्रयास का परिणाम था कि जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चंबल के दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तो दस्युओं को ससम्मान समाज में पुनर्वासित किया गया। हालांकि ये दस्यु भ्रष्टाचार से भी कई गुना जघन्य हत्या और लूट जैसे बर्बर अपराधों में शामिल रहे थे, फिर भी इन्हें इनके प्रायश्चित का सम्मान करते हुए यथोचित सत्कार के साथ न सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बल्कि शासन व्यवस्था ने भी इनके पुर्नवास में तत्परता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि चंबल के क्षेत्र से दस्युओं का आतंक कमोबेश समाप्त हुआ और यह पूर्व दस्यु अपने रूतबे के कारण अपने ग्रामीण समाजों में अपराध रोकने और विवाद निपटाने में प्रमुख भूमिका निभाने लायक हुए। मुझे याद है, जब मेरे एक मित्र ठाकुर मुकुट सिंह जो इंग्लैंड से पढ़कर लौटे और अपने गाँव में ग्रामीण विकास के स्वंयसेवी कार्य में जुट गए थे, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने पुत्र की बारात लेकर चंबल गए और एक दस्यु परिवार की कन्या से उसका विवाह किया। अपराधियों के पुर्नवास का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है?

हम पहले भी लिख चुके हैं कि राजघाट पर जब हजारे जी 8 जून को एक दिन के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे, तो जिस तरह का नाच-गाना वहाँ हुआ और जैसा मजमा जुड़ा, उससे महात्मा गाँधी की समाधि की गरिमा कम हुई। माहौल ऐसा था, जैसे आई.पी.एल. का क्रिकेट मैच हो रहा हो और दर्शक मजा ले रहे हों।

रामलीला मैदान से भी अन्ना और टीम अन्ना के जो तेवर थे, उनमें दूर-दूर तक कहीं भी गाँधीवाद दिखाई नहीं दे रहा था। जिस तरह की भाषा वहाँ प्रयोग की गई, उसे सुनकर यही लगा कि अन्ना गाँधी कम शिवाजी ज्यादा लग रहे थे। इसका उल्लेख हमने इसी काॅलम में उस सप्ताह किया था।

कड़ी सजा तो भ्रष्टाचारियों को मिलनी ही चाहिए, परन्तु फांसी की बात से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं। उसी तरह जैसे ‘जनलोकपाल’ कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है।

Sunday, September 11, 2011

प्रियंका गाँधी का राजनैतिक भविष्य


Rajasthan Patrika 11 Sep

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक और रथयात्रा शुरू करने का ऐलान कर चुके हैं। वे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के प्रयासों से बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल को भुनाने की फिराक में हैं। उधर दिल्ली की राजनीति के गलियारों में इंका के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। श्रीमती सोनिया गाँधी का अस्वस्थ होना, पार्टी को भारी पड़ा है। इन लोगों का मानना है कि अन्ना के अनशन से उपजी स्थिति का सही इस्तेमाल करने में राहुल गाँधी असफल रहे हैं। राहुल गाँधी का मंत्री मण्डल में शामिल न होने के भी दो अलग मायने लगाये जा रहे हैं। कुछ मानते हैं कि राहुल उत्तर प्रदेश में सफल हुए बिना सत्ता का हिस्सा नहीं बनना चाहते। वे बनेंगे तो सीधे प्रधानमंत्री या फिर संगठन के लिए काम करते रहेंगे। दूसरा पक्ष मानता है कि राहुल में आत्मविश्वास की कमी है। शायद उन्हें लगता है कि मंत्री बनकर वे ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पायेंगे, जिससे उनका जनाधार बढ़े और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी मजबूत हो। इंका से बाहर के दलों में और राजनैतिक विश्लेषकों में यह बात काफी समय से चल रही है कि राहुल गाँधी का व्यक्तित्व, जमीन की समझ और आम लोगों के बारे में अनुभव इस स्तर का नहीं कि वे देश को नेतृत्व दे सकें। अभी उन्हें बहुत सीखना है, खासकर राजनीति के मामलों में। ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी प्रचारित करके इंका को बहुत लाभ नहीं मिलने वाला है। 

Punjab Kesari 12 Sep
इन परिस्थितियों में इंका के बड़े नेता भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी का व्यक्तित्व, समझ और लोगों पर प्रभाव राहुल गाँधी से कहीं ज्यादा अच्छा पड़ता है। पर खुलकर कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। दबी जुबान से ही काफी नेता यही चर्चा करते हैं। जहाँ तक प्रियंका का सवाल है, उन्होंने अपनी सीमित प्रेस मुलाकातों में बार-बार यही दोहराया है कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहतीं। अपने भाई व माँ की मदद भर करना चाहती हैं। पर इंका के रणनीतिकार, जो आज कई खेमों में बंटे हैं, दावा करते हैं कि अगले चुनाव से पहले प्रियंका गाँधी को सामने लाना पार्टी की मजबूरी होगा। क्योंकि सरकार के विरूद्ध आज बने माहौल में प्रियंका का ही व्यक्तित्व ऐसा है जो आम जनता को आकर्षित कर सकता है। 

उधर प्रियंका गाँधी को निजी तौर पर जानने वालों का दावा है कि वे अपने परिवार और छोटे बच्चों के साथ ही समय बिताना चाहती है। राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहतीं। अगर यह सच है तो भी प्रियंका के राजनीति में पदार्पण की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। उल्लेखनीय है कि जब राजीव गाँधी हवाई जहाज उड़ाते थे और 7 रेसकोर्स पर अपनी मम्मी के सरकारी आवास में सपरिवार रहते थे, तब यह चर्चा देश में बार-बार उठी कि राजीव गाँधी राजनीति में नहीं आना चाहते। इसलिए संजय गाँधी को सामने आना पड़ा। पर अन्त में अपने भाई की आकस्मिक मृत्यु व  माँ की हत्या के बाद उन्हें बे-मन से ही सही, राज-काज संभालना पड़ा। ठीक इसी तरह प्रियंका गाँधी कितना भी ना-नुकुर कर लें, अगर इंका के कार्यकर्ताओं ने और चुनाव के समय की देश की परिस्थिति ने उन्हें ऐसा मौका दिया तो वे शायद पीछे नहीं हटेंगी। 

Hind Samachar 12 Sep 11
इसमें एक ही अड़चन है। गत् गई महीनों से भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने देशभर में करोड़ो एस.एम.एस. भेज-भेजकर इंका और उसके नेतृत्व के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चला रखा है। जिसमें नेहरू परिवार के प्रति काफी विष-वमन किया जा रहा है। तमाम तरह के आरोपों के एस.एम.एस. ये लोग दिनभर भेजते रहते हैं। यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की बीमारी पर भी इनके एस.एम.एस. ये सन्देश दे रहे थे कि वे इलाज कराने नहीं, अपनी अकूत दौलत को ठिकाने लगाने गईं हैं। इसी क्रम में इन एस.एम.एस. के माध्यम से प्रियंका गाँधी के पति रॉबर्ट वढेरा पर अनेक घोटालों में लिप्त होने के भी आरोप लगातार लगाये जा रहे हैं। इन सब आरोपों का आधार है या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, पर इतना स्पष्ट है कि इनका मकसद प्रियंका गाँधी के राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना है। सच्चाई क्या है, प्रियंका गाँधी बेहतर जानती होंगी। अगर वे मन के किसी कोने में भी दबी हुई राजनैतिक महत्वकांक्षा पाले हुए हैं, तो वे इस सम्भावित परिस्थिति के प्रति सचेत होंगी। 

राहुल गाँधी हों या प्रियंका गाँधी, इंका सत्ता में हो या विपक्ष में, पर मूलभूत सवाल यह है कि इन दोनों की समझ देश की बुनियादी समस्याओं के बारे में कितनी गहरी है? जिस तरह की अपेक्षा और आक्रोश देश की आम जनता में अब पैदा हो चुका है, उनकी मांगे ढेर सारी होंगी और वे किसी भी छलावे में आने को तैयार नहीं होंगे। 122 करोड़ लोगों की महत्वकांक्षा को पश्चिमी विकास मॉडल से पूरा नहीं किया जा सकता। उनकी उपभोक्तावादी संस्कृति ने दुनिया का औपनिवेशिक शोषण कर, अपने देशों को बनाया। नव उपनिवेशवाद के दौर में बिना गुलाम बनाए भी दुनिया के देशों का जमकर आर्थिक दोहन किया। जिससे उनके देशों की प्रजा भोग-विलास का जीवन जी सकें। जबकि भारत के अधीन ऐसा कोई उपननिवेश नहीं है जो भारत की बढ़ती मांगों की तेजी से पूर्ति कर सके। ऐसे में अमीर गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। बढ़ रहा है आक्रोश और हिंसा और लोगों की अधीरता। जिसे पूरा करने के लिए विकास का देशी गाँधीवादी मॉडल ही फिर से अपनाना होगा। कागजों पर नहीं, जमीन पर। क्या प्रियंका गाँधी ने इस बारे में कोई अध्ययन, कोई यात्रा या कोई अन्य प्रयास किया है? जिससे उनकी समझ इन मुद्दों पर विकसित हो सके। अगर किया है तो उन्हें जनता के बीच विकास का नया मॉडल लेकर जाने में कोई संकोच नहीं होगा। तब जनता उनसे जुड़ा हुआ अनुभव करेगी। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें और समाज को दिक्कत आएगी। पर यह स्पष्ट है कि प्रियंका गाँधी अपने भाई के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द करके सत्ता पर काबिज नहीं होना चाहेंगी। जो कुछ नेहरू-गाँधी परिवार करेगा, सामूहिक सोच और समन्वय के साथ करेगा।

Sunday, September 4, 2011

जनक्रांति या मीडिया क्रांति


Rajasthan Patrika 4Sep2011
विश्वविख्यात लेखिका अरूंधति राय ने टीम अन्ना के आन्दोलन पर जो आक्रामक लेख लिखा है, उसके समर्थन में देशभर से लाखों ईमेल आये हैं। उल्लेखनीय है कि अरूंधती राय आज तक टीम अन्ना वाली सिविल सोसाईटी की ही सदस्या रही हैं। इस आन्दोलन के तौर-तरीकों और जनलोकपाल बिल के खिलाफ उनका इतना तीखा हमला करना, टीम अन्ना पचा नहीं पा रही है। उधर पूरे देश में यह चर्चा चल पड़ी है कि यह अन्ना की जनक्रांति थी या मीडिया की बनायी हुई क्रांति?

पिछले सप्ताह दिल्ली के ‘इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर’ में इस विषय पर तीखी बहस हुई। आठ वक्ताओं में से उन टी.वी. चैनलों के प्रमुख लोग थे जिन्होंने टीम अन्ना के समर्थन में रात-दिन एक कर दिया। इसके साथ ही अन्य वक्ताओं में प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, अरूणा रॉय और मैं स्वंय शामिल थे। श्रोताओं में पाँच सौ से अधिक पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र थे। वहाँ प्रशांत भूषण और टी.वी. चैनलों के मुखियाओं ने यह बात रखी कि जनलोकपाल बिल के समर्थन में यह आन्दोलन पूरी तरह से आत्मप्रेरित था और मीडिया ने उसमें केवल दृष्टा की ही भूमिका निभायी। उन्होंने यह भी दावा किया कि यह आन्दोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से बड़ा था और इसमें उस आन्दोलन की तरह राजनेताओं का कोई समर्थन नहीं था तथा मीडिया ने पूरी तटस्थता बरती। पर इसे सुनकर श्रोता आक्रामक हो गये। उन्होंने जे.पी. आन्दोलन को बिना संचार माध्यमों व राजनेताओं की मदद से हुआ कहीं बड़ा आन्दोलन बताया।

 
यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतने प्रबुद्ध श्रोताओं में से आधे से अधिक, टीम अन्ना के भारी विरोध में खड़े थे। उनके तेवर इतने हमलावर थे कि आयोजकों को उन्हें संभालना भारी पड़ रहा था। इससे यह संकेत साफ मिला कि टीम अन्ना जो यह दावा कर रही है कि देश के 122 करोड़ लोग उसके साथ हैं, वह सही नहीं है। वक्ताओं और लोगों का आरोप था कि मीडिया ने कृत्रिम रूप से आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाया। ‘टी.वी. एंकरपर्सन’ रिपोर्टर की भूमिका में कम और ‘एक्टिविस्ट’ की भूमिका ज्यादा निभा रहे थे। स्टूडियो में होने वाली वार्ताओं में टीम अन्ना के समर्थकों को सबकुछ बोलने की छूट थी और उनके विरोध के स्वर उठने नहीं दिए जाते थे।

एक प्रश्न यह भी पूछा गया कि जो टी.वी. चैनल गंभीर से गंभीर टॉक शो में हर दस मिनट बाद कॉमर्शियल ब्रेक लेते हैं, उन्होंने इस आन्दोलन के दौरान बिना कॉमर्शियल ब्रेक लिए कवरेज कैसे किया? यह कैसे सम्भव हुआ कि ओम पुरी का भाषण हो, किरण बेदी का मंच पर नाटक हो या प्रशांत भूषण की प्रेस कॉन्फरेंस हो, सब बिना किसी अवरोध के घण्टों सीधे प्रसारित होते रहे? इस दौरान इन टी.वी. चैनलों को विज्ञापन न दिखाने की एवज में जो सैंकड़ों करोड़ की राजस्व हानि हुई, उसकी इन्होंने कैसे भरपाई की? क्या किसी ने यह धन इन्हें पेशगी में दे दिया था? जैसे अक्सर लोग अपने कार्यक्रमों को कवर कराने के लिए टी.वी. चैनलों से ‘एयर टाइम’ खरीदते हैं या यह माना जाए कि इस आन्दोलन का धुंआधार कवरेज करने वालों ने इतना मुनाफा कमा लिया कि उन्होंने भ्रष्टाचार के इस मुद्दे पर अपने मोटे घाटे की भी परवाह नहीं की? अगर यह सही है तो क्या यह माना जाए कि भविष्य में जब ऐसे दूसरे मुद्दे उठेंगे, तब भी ये टी.वी. चैनल अपने व्यवसायिक हितों को ताक पर रखकर इसी तरह, बिना कॉमर्शियल ब्रेक के, लगातार प्रसारण करेंगे? वक्ताओं ने एक चेतावनी यह भी दी कि अगर भविष्य में इन टी.वी. चैनलों ने, पहाड़, जमीन, जल, नदी, खनन आदि से जुड़े मुद्दों पर जनआन्दोलनों के संघर्षशील लोगों के साथ ऐसी ही उदारता न बरती, जैसी टीम अन्ना के साथ दिखाई दी, तो वे आन्दोलनकारी आक्रामक होकर टी.वी. संवाददाताओं के साथ हिंसक भी हो सकते हैं और उनके कैमरे आदि भी तोड़ सकते हैं। क्योंकि उनकी अपेक्षाऐं अब टी.वी. मीडिया से काफी बढ़ चुकी हैं।

अब जबकि टी.वी. मीडिया ने ‘प्रो-एक्टिव’ होकर, सामाजिक सारोकार को टी.आर.पी. बढ़ाने का जरिया मान लिया है, तो यह माना जाना चाहिए कि भविष्य में पाँच सितारा जिन्दगी, उपभोक्तावाद, भौंडे और अश्लील नृत्य या काॅमेडी शो जैसे कार्यक्रमों पर जोर न देकर ये टी.वी. चैनल समाज और आम आदमी से जुड़े मुद्दों को ही प्राथमिकता देंगे और उसके लिए अपने व्यवसायिक लाभ को भी छोड़ देंगे। अगर ऐसा होता है तो वास्तव में यह मानना पड़ेगा कि भारत में क्रांति की शुरूआत हो गयी है। जैसा कि ये टी.वी. चैनल पिछले कुछ हफ्तों से दावा कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो देशवासियों के मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि केवल टीम अन्ना के लिए ही कुछ टी.वी. चैनलों ने इतना उत्साह क्यों दिखाया? इसके पीछे क्या राज है, इसे जानने और खोजने की उत्सुकता बढ़ेगी।

उधर देश में भ्रष्टाचार के प्रति जो आक्रोश था, उसे संगठित करने का अभूतपूर्व कार्य बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने किया है। पर इस जागृति से उत्पन्न ऊर्जा को स्वार्थी तत्व, अपने राजनैतिक लाभ के लिए उपयोग न कर सकें, इसके लिए देशवासियों को सचेत रहना होगा। वरना आशा को हताशा में बदलने में देर नहीं लगेगी और वह अच्छी स्थिति नहीं होगी।

Monday, August 29, 2011

कैसे सुनिश्चित हो सरकार की जवाबदेही?

Punjab Kesari 29 Aug 2011
बहुसंख्यक गरीब लोगों के इस मुल्क में 122 करोड़ में मुठ्ठीभर खुशकिस्मत लोग हैं, जिन्हें सरकारी नौकरी मिलती है। चाहे राज्य सरकार में हों या केन्द्र सरकार में। सरकारी नौकरी को नियामत समझा जाता है। बंधी तनख्वाह, दूसरे भत्ते, बुढ़ापे में पैंशन और ताउम्र जलवा। गाँव-देहात में तो अगर बेटा पुलिस में सिपाही भर्ती हो जाए तो वह परिवार खुद को इलाके के पुलिस अधीक्षक से कम नहीं समझता। इसीलिए सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों में भारी उत्सुकता रहती है। फौज में भर्ती हो, आंगनबाड़ी में हो या सरकारी महकमों में, रिक्त पदों से कई गुना ज्यादा युवा आवेदन करते हैं। अक्सर उनकी बेकाबू भीड़ पर पुलिस को लाठी भी चलानी पड़ती है। ये तो निचले स्तर की नौकरियों की बात है। आई.ए.एस. जैसी नौकरियों के लिए बैठने वाले प्रत्याशियों की तादाद भी लाखों में होती है। जबकि हर साल नौकरी मिलती है चन्द हजारों को। दूसरी तरफ इस देश के करोड़ों युवा और उनके आर्थिक रूप से असुरक्षित परिवार हैं, जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में किसी तरह रो-रोकर जिन्दगी बसर करते हैं।

सोचने वाली बात यह है कि इन हालातों में जिन्हें सरकारी नौकरी मिल जाती है, वे क्यों कामचोरी, निकम्मापन, भ्रष्टाचार और कोताही करते हैं? क्यों तनख्वाह और भत्तों से उनका पेट नहीं भरता? क्यों आज जरूरत पड़ रही है ‘जनसेवा गारण्टी कानून’ की? साफ जाहिर है कि हर स्तर की नौकरशाही में काफी तादाद ऐसे लोगों की आ गई है, जो जनता से आज भी औपनिवेशिक साम्राज्य की रियाया की तरह बर्ताव करते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत 1947 से लोकतंत्र बन चुका है। वे भूल जाते हैं कि इस देश की जनता जब हुक्मरानों से नाराज होती है तो बड़े-बड़े ताकतवर सत्ताधीशों के तख्ते पलट देती है। फिर चाहें 1977 में श्रीमती गाँधी की सरकार हो या 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार। हाँ, सत्ता के इस फेरबदल में नौकरशाही का कुछ नहीं बिगड़ता। वे तो ‘आई एम सिक्योर्ड’ के मूड में मस्त रहते हैं। इसी लिए उनके अधीनस्थ कर्मचारी भी अलमस्त रहते हैं। पर अब ये चलने वाला नहीं।

जनता जाग चुकी है। टी.वी. चैनल हर वक्त कैमरा लिए दफ्तरों के बाहर तैनात रहते हैं। टी.आर.पी. बढ़ाने की होड़ में वे किसी की भी पतलून उतारने में संकोच नहीं करते। जनहित याचिकाऐं बड़े-बड़ों को गद्दी से उतार देती हैं या जेल पहुँचा देती हैं। ऐसे माहौल में यह जरूरी है कि नौकरशाही अपना रवैया बदले। इसी लिए सरकारें भी अब ऐसे कानून बना रही है, जिससे नौकरशाही की जनता के प्रति जबावदेही सुनिश्चित हो। ‘सिटिजन्स चार्टर’ नाम से यह परिकल्पना 1991 में इंग्लैण्ड में सामने आयी जब नौकरशाही को समयबद्ध तरीके से जनता की शिकायतों को दूर करने का कानून बनाया गया। न करने वालों के खिलाफ मौद्रिक सजा का प्रावधान भी सुनिश्चित किया गया। अब भारत की कई प्रांतीय सरकारें इस कानून को बना रही है। कानून तो पहले भी बहुत हैं। पर सफेद कागज पर काली स्याही से छपा कानून किताबी ही रहता है, जब तक उसे अंजाम तक न ले जाया जाए।

जबावदेही कानून को प्रभावी बनाने के लिए हर सरकार को अपनी व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करना होगा। दूसरी तरफ यह माहौल बना रहे तो नौकरशाही पर दबाव बनेगा। इसलिए ज्यादा जिम्मेदारी जनता, सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया की है कि वे फालतू के नाच-गाने और मनोरंजन से हटकर असली सवालों पर पाठकों और दर्शकों का ध्यान केन्द्रित करें और जनता के साथ गद्दारी करने वाले को निर्वस्त्र करते रहें। अन्ना हजारे के धरने के दौरान मीडिया कवरेज करने वालों ने पहली बार मीडिया की ताकत को पहचाना। उन्होंने यह महसूस किया कि जनहित के मुद्दे पर भी टी.आर.पी. बढ़ाई जा सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि यह जज्बा कायम रहे। पर इसमें फालतू की उत्तेजना न फैलने दी जाए। भड़काऊ और अराजक भाषा का प्रयोग न किया जाए। गंभीरता से, पर मजबूती से, जनता के साथ खड़े रहकर सरकारी तंत्र को जबावदेह बनाया जाए। उच्च पदों पर बैठे अधिकारी और मंत्री इस रवैये से नाराज होकर, जनता के प्रति बैर का नहीं सद्भाव का आचरण करें। जिससे गाड़ी के दो पहिए की तरह मुल्क विकास की पटरी पर आगे चले। अभी तक होता यह आया है कि निचले कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण और निकम्मेपन को ऊपर के अधिकारी या उनके राजनैतिक आका संरक्षण दे देते हैं। जिससे जनता हताश हो जाती है। पर दुनिया का सूचनतंत्र जुड़ चुका हो, त्रिपोली से लेकर काहिरा तक की खबरें हर मिनट लोगों तक पहुँचती हों, तो जनता का उठ खड़े होना, बेकाबू हो जाना और हिंसक हो जाना कभी भी सम्भव है।

समय आ रहा है जब राजनेताओं को भी बदलना होगा। जनता से संवाद कायम करना होगा। आपसी राजनैतिक झगड़ों से हटकर जनता के बुनियादी सवालों के हल ढूँढने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘जनसेवा गारण्टी कानून’ इस दिशा में एक और ठोस कदम होगा।

Sunday, August 21, 2011

अन्ना की क्रांति

Rajasthan Patrika 21 Aug 2011
अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरूद्ध जन आक्रोश के प्रतीक बन गए हैं। उनका और उनके साथियों का कहना है कि वे ‘जन लोकपाल बिल’ पास करवाकर ही मानेंगे। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि संसद जो तय करेगी, उन्हें मान्य होगा। इसमें विरोधाभास साफ है। असल में क्या होता है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा। पर देश में आज भी यह मानने वालों की कमी नहीं है कि जनलोकपाल बिल अपने मौजूदा स्वरूप में अपेक्षा पर खरा नहीं उतरेगा। इसमें शक नहीं कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ेंगे। अगर ऐसा होता है तो राष्ट्र के और समाज के हित में होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो लोगों में भारी निराशा फैलेगी। इसके साथ ही पिछले दिनों के घटनाक्रम को लेकर राजनीति के गलियारों में अनेक तरह की रोचक चर्चाऐं चल रही हैं।

Punjab Kesari 22 Aug 2011
अन्ना हजारे को मयूर विहार के घर से गिरफ्तार करना एक अजीब घटना थी। आन्दोलन से पहले ही, बिना किसी कानून को तोड़े, केवल उनके इरादे को भांपकर पुलिस की यह कार्यवाही ऐसी सामान्य घटना नहीं है जैसा प्रधानमंत्री ने संसद में अपने बयान में बताने की कोशिश की। विपक्ष के नेता ने प्रधानमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए हमला किया कि क्या प्रधानमंत्री पुलिस कमिश्नर की शख्सियत के पीछे छिपकर काम कर रहे हैं? वहीं यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि गत् आधी सदी से भारत की सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि वह अन्ना हजारे को इस तरह गिरफ्तार करके हीरो बना दे। इन लोगों का मानना है कि दाल में कुछ काला है। अपने समर्थन में इनके कई और तर्क हैं। मसलन ये पूछते हैं कि देश की बड़ी नेता सोनिया गाँधी भारत से कब, कहाँ और क्यों गईं, इसकी मीडिया को भनक तक नहीं लगी। अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने घुटने का इलाज करवाने मुम्बई गए थे, तो पल-पल की खबर लेने के लिए मीडिया अस्पताल के बाहर खड़ा था।

पूर्व प्रधानमंत्री व अन्य बड़े नेता भी अगर बाहर इलाज के लिए जाते हैं तो वह खबर बनती है। इनका सवाल है कि सोनिया गाँधी के इस तरह चले जाने के बावजूद, क्या वजह है कि सारा मीडिया इस मामले में पूरी तरह खामोश है? लगता है कि मीडिया को इंका ने पूरी तरह मैनेज कर रखा है। अगर यह बात है तो फिर क्या वजह है कि कुछ टी.वी. चैनल रात-दिन अन्ना के आन्दोलन में पत्रकारिता से हटकर सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं? लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए आव्हान कर रहे हैं। मानो सारा मीडिया इस ‘क्रांति’ में कूद पड़ा हो। अगर सोनिया गाँधी के मामले में मीडिया मैनेज हो सकता है तो क्या अन्ना के आन्दोलन के मामले में मीडिया को मैनेज नहीं किया जा सकता? इन लोगों को लगता है कि सरकार पर टी.वी. चैनल जो हमला रात-दिन बोल रहे हैं, उन्हें इंका की शह है। इनका तीसरा तर्क यह है कि तिहाड़ जेल में रिहाई के आदेश मिल जाने के बावजूद अन्ना हजारे जेल के अन्दर कैसे बैठे रह गए? जबकि जेल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब रिहाई के आदेश के बावजूद कोई कैदी बाहर न निकाला गया हो। चाहें वो गाँधी, पटेल, नेहरू हों या क्रांतिकारी, सबको बाहर जाना पड़ा। जेल में बैठे रहकर अन्ना ने जो अनशन किया, उससे उन्हें तो नैतिक बल मिला ही होगा, पर आगे के लिए एक गलत परम्परा बन गई। अब कोई भी आरोपित व्यक्ति अन्ना की तरह रिहाई के बाद जेल से बाहर जाने को मना कर सकता है। अन्ना हजारे को जेल के नियमों के विरूद्ध यह विशेषाधिकार क्या सरकार की इच्छा के बगैर सम्भव था? उन्हें रिहाई के बाद एक राष्ट्रीय विजय जुलूस के रूप में व ढेरों पुलिस गाड़ियों, कर्मचारियों व पुलिस कर्मियों के संरक्षण में पूर्व घोषित रूट से ले जाया गया। सारा मंजर ऐसा था मानो सरकार और आन्दोलनकारी किसी साझी समझ के साथ काम कर रहे हैं। जेल की नियमावली में यह साफ लिखा है कि जेल के भीतर कैद लोग अनुमति के बिना अपनी फोटो नहीं खींच सकते। जिस तरह अन्ना के वीडियो सन्देश बाहर लाकर प्रसारित किए गए, उससे जेल मेन्यूअल के नियमों का साफ उल्लंघन हुआ है। इससे लोगों के मन में भी शंका है कि यह क्या हो रहा है? इसी तरह रामलीला मैदान पहुँचते ही टीम अन्ना का विरोधाभासी वक्तव्य देना, ऐसे संकेत कर रहा है मानो अन्दर ही अन्दर कोई समझौता हो गया है, जिसकी घोषणा करने से पहले कुछ माहौल गरमाया जा रहा है।

टीम अन्ना ने यह दावा किया है कि उनका आन्दोलन पूरी तरह शांतिप्रिय है और अरब देशों की तरह बिना जान-माल की हानि किए हो रहा है। जबकि खुद अन्ना के तेवर गाँधी के कम और शिवाजी के ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में बिना जान-माल की हानि किए, पूरी जनता को कैसे नियन्त्रित किया जा रहा है या इस आन्दोलन का प्रारूप ही यह रखा गया है, इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। दूसरी तरफ सामान्यजन मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह स्वस्फूर्त है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। लोग परेशान थे। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख्त कार्यवाही चाहते थे, जो हो नहीं रही थी। इसलिए अन्ना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। इन लोगों का यह दावा है कि यह परिवर्तन की लड़ाई है और देश में हर स्तर पर परिवर्तन लाकर रहेगी। इसीलिए इसे ये अन्ना की क्रांति या अगस्त क्रांति कह रहे हैं। 

उधर विपक्ष भी इस स्थिति का पूरा लाभ उठा रहा है। पर रोचक बात यह है कि अन्ना के समर्थन में खड़ा विपक्ष, अन्ना के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर तो उत्तेजित है, लेकिन अन्ना को यह आश्वासन नहीं दे रहा कि वे उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन करेगा। ऐसे में जब यह बिल संसद के सामने मतदान के लिए आयेगा, तब विपक्षी दलों की या सभी सांसदों की क्या मानसिकता होगी, आज नहीं कहा जा सकता। इसलिए अन्ना की इस मुहिम को अभी क्रांति कहना जल्दबाजी होगा। अभी तो समय इस बात का है कि अन्ना की मुहिम, जिसे मीडिया और साधन सम्पन्न लोगों का खुला समर्थन प्राप्त है, के तेवर और दिशा पर निगाह रखी जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आग अब बुझे नहीं। जब तक कि समाज में कुछ ठोस परिवर्तन दिखाई नहीं देते।

Sunday, August 14, 2011

गोपनीयता के पक्ष में तर्क क्या सही है?

Rajasthan Patrika 14 Aug
श्रीमती सोनिया गाँधी की बीमारी को लेकर देशभर में उत्सुकता बनी हुई है। आधिकारिक सूचना न होने के कारण तमाम तरह की अटकलों का बाजार गर्म है। गम्भीर किस्म की असाध्य माने जानी वाली बीमारी तक का कयास लगाया जा रहा है। राष्ट्रीय नेताओं के जीवन के कुछ पक्षों की क्या इस तरह की गोपनीयता लोकतंत्र में सही ठहरायी जा सकती है? इस पर कई सवाल खड़े होते हैं। गोपनीयता के पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में सुना वह सी.एन.एन. के उस अमरीकी संवाददाता का था, जो 9/11 के आतंकी हमले के दौरान अमरीका के राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास व्हाईट हाउस को कवर कर रहा था। सी.एन.एन. के एंकर पर्सन ने उससे बार-बार पूछा कि व्हाईट हाउस में क्या हो रहा है? पर वह बताने से कतराता रहा। यह वो वक्त था जब वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें ध्वस्त हो चुकी थीं। पेंटागाॅन पर हमला हो चुका था। यात्रियों का एक हवाई जहाज आतंकियों ने ध्वस्त कर दिया था। पूरे अमरीका में अफरा-तफरी मची थी। इस आपातकालीन दौर में सुपरपावर अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश कहीं टी.वी. पर नजर नहीं आ रहे थे। टी.वी. चैनल अटकलें लगा रहे थे कि वे जान बचाने के लिए या तो बंकर में घुस गये हैं या अपने अत्यंत सुरक्षित विमान में अमरीका के आसमान में चक्कर लगा रहे हैं या हमले में मारे जा चुके हैं। ऐसी अनिश्चितता के समय में जाहिर है कि व्हाईट हाउस को देखने वाले संवाददाता से कुछ आधिकारिक और असली खबर की अपेक्षा होती। पर जब उससे एंकर पर्सन ने झुंझलाकर पूछा कि तुम गत् 18 वर्षों से व्हाईट हाउस के भीतर की खबरें देते रहे हो तो अब क्यों कुछ नहीं बताते? संवाददाता का उत्तर था कि, ‘‘क्योंकि मैं 18 वर्षों से व्हाईट हाउस कवर करता रहा हूँ, इसीलिए मैं वह सबकुछ लोगों को नहीं बता सकता, जो मैं जानता हूँ। यह देशहित में नहीं होगा।’’ इस घटना के बाद मैंने बहुत चिंतन किया। मेरी वृत्ति एक ऐसे बेखौफ खोजी पत्रकार की रही, जिसने तथ्य हाथ में आने के बाद बड़े से बड़े ताकतवर लोगों को बेनकाब करने में एक मिनट की देरी नहीं की। मुझे लगा कि सब जानने का मतलब, सब बताना नहीं है। कई बार राष्ट्रहित में चुप भी रह जाना होता है।

आज के दौर में जब टी.वी. चैनलों और एस.एम.एस. के माध्यम से झूठ को सच बताने का सिलसिला आम हो चला है, बे्रकिंग न्यूज के नाम पर अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया जाता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है, तब तो यह और भी जरूरी है कि जिनके पास महत्वपूर्ण सूचनाऐं हैं, वे सोच-समझकर उन्हें लीक करें। ऐसा नहीं है कि राजनेताओं के विषय में ही गोपनीयता बरती जाती हो, औद्योगिक जगत के मामलों में तो यह अभ्यास पूरी दुनिया में आम है। भारत में ही जब धीरूभाई अंबानी सघन चिकित्सा कक्ष में थे, तो कहते हैं कि उनकी मृत्यु की घोषणा, अंबानी समूह ने और अंबानी बंधुओं ने अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक फैसले लेने के बाद की। अमरीका के मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत आज भी रहस्य बनी हुई है। इंग्लैंड की राजकुमारी डायना स्पैंसर्स की पैरिस की सुरंग में कार दुर्घटना में हुई मौत पर आज भी कयास लगाये जाते हैं। जॉन एफ.कैनेडी की हत्या की गुत्थी अमरीका की सरकार आज तक सुलक्षा नहीं पायी या सुलझाना नहीं चाहा।

इसलिए इस तर्क में भी वजन कम नहीं कि लोकतंत्र में अपने राजनेताओं के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं को जानने की जिज्ञासा ही नहीं, जनता का हक भी होता है। पर लोकशाही में भी जो सत्ताधीश हैं, उनकी वृत्ति राजशाही जैसी हो जाती है। वे सामान्य घटना को भी रहस्यमय बनाकर रखते हैं।

हमारे देश में ऐसी अनेक दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं, जिन्हें रहस्य के परदे के पीछे छिपा दिया गया है।  जनता इन घटनाओं की असलियत आज तक नहीं जान पायी। सरकार ने भी जानने की कोशिश के नाटक तो बहुत किए, पर हकीकत कभी सामने नहीं आयी। शुरूआत हुई नेताजी सुभाषचन्द बोस के गायब होने से। वे विमान दुर्घटना में मरे या अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें किसी संधि के तहत भारत से बाहर किसी देश में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ‘ताशकंद’ (रूस) में किन परिस्थितियों में असामायिक मौत हुई, इसे देश नहीं जान पाया। मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर जनसंघ के वरिष्ठ नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव रेल में सफर करते समय मिला, उनकी हत्या कैसे हुई, इस रहस्य पर आज तक परदा पड़ा है। बिहार में एक जनसभा में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की विस्फोट में हत्या, नागरवाला कांड के अभियुक्त की मौत, देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी व राजीव गाँधी की हत्या के कारणों पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा। उधर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की हत्या, नेपाल के राजवंश की हत्या, बंग बंधु मुजिबुर्रहमान की बांग्लादेश में हत्या, दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिनकी इबारत आज तक पढ़ी नहीं गई।

क्या ये माना जाए कि इन देशों की जाँच ऐजेंसियां इतनी नाकारा हैं कि वे अपने राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजाओं की हत्याओं की गुत्थियां तक नहीं सुलझा सकतीं? या यह माना जाए कि इन महत्वपूर्ण राजनैतिक हत्याओं के पीछे जो दिमाग लगे होते हैं, वे इतने शातिर होते हैं कि हत्या करवाने से पहले ही, हत्या के बाद की स्थिति का भी पूरा नियन्त्रण अपने हाथ में रखते हैं। नतीजतन आवाम में असमंजस की स्थिति बनी रहती है। कहावत है, ‘‘हर घटना विस्मृत हो जाती है’। इसी तरह शुरू में उत्सुकता, बयानबाजी व उत्तेजना के प्रदर्शन के बाद आम जनता धीरे-धीरे इन दुर्घटनाओं को भूल जाती है और अपने रोजमर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती है। लगता है कि सत्ता और विपक्ष, दोनों की रजामंदी सच पर राख डालने में होती है। इसलिए विपक्ष भी एक सीमा तक शोर मचाता है और फिर खामोश हो जाता है। शायद वह जानता है कि अगर सत्तापक्ष की गठरी खुलेगी तो उसकी भी खुलने में देर नहीं लगेगी। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता और जो सच होता है, वह दिखाया नही जाता। फिर भी हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है।