Tuesday, May 17, 2011

सबक नहीं सीखे वामपंथी

Amar Ujala 17-03-2011
पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनाव के आज के परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि वामपंथी पार्टियों ने अपनी पुरानी गलतियों से शायद अब तक कुछ नहीं सीखा। माक्र्सवाद और माक्र्सवादी विचारधारा भले ही दुनिया के नक्शे में आज छोटा और असंगत हो गया हो, लेकिन भारत के वामपंथी नेताओं की सोच और कार्यशैली कमोवेश आज भी उसी पुराने ढर्रे पर चलती दिखायी दे रही है। इन नेताओं ने न तो पश्चिम बंगाल में मतदाताओं के रूझान और उनकी संवदेनाओं को संजीदगी से जानने व परखने की कोशिश की और न ही केरल में अन्दरूनी कलह और नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई पर काबू पाने में कोई दरियादिली दिखायी।

पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों में माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार और उसके क्रियाकलापों ने यह साबित कर दिया कि माक्र्सवादी विचारधारा आज भी अपने पार्टी कैडर के आगे जाने की हिम्मत नहीं करती। बल्कि आज भी वो अपनी पार्टी की उन पुरानी नीतियों की गुलाम है जो आज के दौर में तर्कसंगत नहीं रह गया है। पश्चिम बंगाल के शीर्षस्थ नेताओं की यह दलील कि साम्यवाद और सर्वहारा का वर्चस्व ही उनके लिए मूलमंत्र है, एक कोरी कल्पना ही बनकर रह गयी। तेजी से बदलते राष्टृीय परिपेक्ष्य तथा समाज की अनगिनत नई चुनौतियों के मद्देनजर पश्चिम बंगाल की सरकार ने उनके निराकरण और सर्वांगीण विकास की तरफ से जैसे आॅंख मूंद ली हों। ऐसे में ममता बनर्जी का उदय उस राजनैतिक खाई को पाटने में बड़ा ही कारगर साबित हुआ और आज पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत इस बात की गवाह है कि जनता सिर्फ खोखले वायदे पर अब बहुत दिनों तक भरोसा नहीं करती।

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ।

 यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।

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