Sunday, March 18, 2012

समय बरबाद कर रहे हैं नेतृत्व और चिंतक

संसद और टी.वी. की बहस को देखकर क्या आपको लगता है कि हमारा राजनैतिक नेतृत्व और बुद्धिजीवी देश की समस्याओं के समाधान की तरफ आगे बढ़ रहे हैं या हम फिजूल की नोंक-झोंक में कीमती समय बरबाद कर रहे हैं ? देश में पैदा हो रहे इन हालातों के लिये पक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रूप से जिम्मेदार हैं। जहाँ काँग्रेस नेतृत्व अपने लम्बे अनुभव के बावजूद विपक्ष और जनता से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा, वहीं विपक्ष और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के खिलाफ हर मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा शोर मचाकर लोगों में हताशा पैदा कर रहा है।
सात फीसदी की आर्थिक विकास दर को हासिल करने का लक्ष्य लेकर प्रणव मुखर्जी ने जो बजट प्रस्तुत किया, वह ‘हैण्डस अप बजट’ था। यानि सरकार ने यह तय कर लिया कि मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक हालात में वह कोई दखलंदाजी नहीं करेगी। क्योंकि ऐसा करने पर विपक्ष के भड़कने का पूरा खतरा था। दूसरी तरफ कड़े कदम से मतदाताओं के बीच आक्रोश पैदा हो सकता था। जो 2014 के लोकसभा चुनावों के लिये घातक होता। वैसे इस सरकार के पास बजट प्रस्तुत करने का एक मौका फिर 2013 में आयेगा, लेकिन उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मंदी की आहट को ध्यान में रखकर कुछ कदम भले ही उठाये गये हों, पर इस बजट को कामचलाऊ बजट से ज्यादा कुछ नहीं का जा सकता।
काँग्रेस अपनी इस हालत के लिये कहाँ तक जिम्मेदार है ? उत्तरांचल को लीजिये। हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाने के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है ? जिस आदमी ने उत्तरांचल में काँग्रेस को खड़ा किया उसे तो 2002 में ही मुख्यमंत्री बना देना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। अबकी बार फिर रावत के साथ धोखा हुआ। पंजाब और उत्तर प्रदेश में काँग्रेस की आशा के विपरीत परिणाम  आने के बाद उत्तरांचल ने कुछ आंसू पोंछे थे। पर इस नाटक ने वहाँ भी काँग्रेस की छवि खराब करने का काम किया हैं।  नेतृत्व को सोचना होगा कि पुराने रवैये से अब महत्वाकांक्षी जनता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें तो मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि राहुल गांधी फेल हो गये। आखिर 11 फीसदी मत कांग्रेस को मिला है। उस राज्य में जहां गांव कस्बे और जिले स्तर पर कांग्रेस के नेताओं का चेहरा गायब हो चुका था। संगठन के नाम पर कुछ भी नहीं है। कार्यकर्ता जैसी कोई चीज वहां नहीं हैं प्रदेश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में नहीं है जो आम आदमी व खासकर युवाओं को आश्वस्त कर सकें। जिसके पास सोच, क्षमता और आत्मविश्वास है। सब कुछ इतना लचर पचर था, फिर क्यों नेतृत्व ने इसे संजीदगी से सुधारा नहीं ? सुल्तानपुर रायबरेली के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया कि केवल चुनावी उत्सवों पर दर्शन देने से जनता नेताओं को स्वीकार नहीं करेगी। अब जनता को अपने बीच में से उठने वाले नेता चाहियें। जिनसे उनका सम्वाद बना रहे। क्या श्रीमती सोनिया गांधी ने या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कुछ संकेत दिये हैं, जिनसे यह पता चले कि उनके दरबार में गंभीर और अनुभवी लोगों के सद्विचार सुनने का रास्ता खुला है ? 8-10 चुने हुए सम्पादकों से बात करना और समर्पित बुद्धजीवियों के विचार जानना सम्वाद नहीं कहा जा सकता। छोटे-छोटे लाभ के लालच में सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोग न तो जनता की नब्ज पर उंगली रख पाते हैं और न ही नेतृत्व को सही राय दे पाते हैं। पर दुर्भाग्य से आज दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में यही संस्कृति प्रचलित हो गयी है। इसलिये दोनों क्षेत्रीय स्तर पर पिट रहे है। ंनतीजन नीतिश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी व जयललिता जैसे नेता सफलता के नये झण्डे गाड़ रहे हैं। इसलिये इन दोनों ही दलों को अपनी कार्यशैली में भारी बदलाव लाना होगा।
आज अगर भाजपा सशक्त और आश्वस्त होती तो मध्यावधि चुनाव करवा सकती थी। पर उसे पता है कि उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी ही है। इसलिये सरकार के विरूद्ध शोर चाहें जितना भी मचाये, सरकार गिराने का कोई इरादा नहीं है। इसलिये मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना दिखायी नहीं देती। क्षेत्रीय दलों के सांसद भी समय से पहले चुनावों के खिलाफ हैं। हां यह जरूर है कि क्षेत्रीय दलों के ताकतवर होने से केन्द्र सरकार कमजोर हुई है। कभी ममता बनर्जी, कभी करूणानिधि, कभी मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब सरकार को अपनी शर्तों पर झुकाते रहेंगे और इनकी शर्तें मानना सरकार की मजबूरी होगी।
पर विपरीत परिस्थिति में जो अपना रास्ता बना ले उसे ही नेता कहा जाता है। देश के इस राजनैतिक माहौल में हर उस नेता को और उनसे जुड़े बुद्धजीवियों को आत्मचिंतन करना चाहिये कि हम समस्या का पोस्टमार्टम करते रहेंगे या मरीज का इलाज भी करेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम समस्या का कारण न बनें, समाधान बनें। क्योंकि हमारा देश आज भी काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के शिकंजे से बचा हुआ है। इसलिये हमारे उठ खड़े होने की संभावना उन देशों से ज्यादा है जिनका नेतृत्व और अर्थव्यवस्थायें बाहरी शक्तियों के आगे समर्पित हैं। युवाओं की बढ़ती तादाद और महत्वाकांक्षा किसी भी दल या नेता के साथ हमेशा खड़ी रहने वाली नहीं हैं। चांहे वो अखिलेश यादव हों या सुखविन्दर सिंह बादल। इन्हें कुछ मिलेगा तो ये साथ खड़े रहेंगे। नहीं मिलेगा तो ये विरोध में ही नहीं जायेंगे बल्कि सड़कों पर भी उतर आयेंगे। वह भयावह स्थिति होगी। जिससे हमें बचना है और मजबूती और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है।

No comments:

Post a Comment