Monday, September 17, 2012

कीमत वृद्धि या साधनो का सही बंटवारा

डीजल और गैस के दामो को बढाकर सरकार अपने सहयोगियों और विरोधियो का हमला झेल रही है। सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार पर मच रहे शोर से घिरी सरकार ने इतनी विपरीत परिस्थितियो मे भी ऐसा जोखिम भरा कदम क्यो उठाया ? क्या उसे नही पता कि विपक्षी दल इसका भरपूर लाभ उठायेंगे? फिर भी अगर यह फैसला किया गया है तो जाहिर है कि इसके पीछे सरकार मे काफी सोच-विचार किया है। दरसल सब्सिडी के चलते 33,000 करोड रूपये का घाटा झेलना सरकार को भारी पड़ रहा था। यह सब्सिडी इस उम्मीद मे दी गयी थी कि इसका फायदा गरीब किसान मज़दूरो को होगा। पर ऐसा नही हो रहा था। सब्सिडी का फायदा बडे पैसे वालो, डीलरों और कालाबाजारियों को हो रहा था। इसलिए इसे बन्द किया गया। शायद यह सोचा गया कि इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से राहत जरूरतमंदो तक नही पहुंचती। इसलिए इसे जरूरतमंदो तक सीधा पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। इसलिए डीजल और गैस के दामो मे बढ़ोतरी की घोषणा को लेकर मच रहा शोर बेमानी है।
अब देखना यह होगा कि आने वाले महीनो मे सरकार ऐसी कौन सी योजनाए लाती है जिससे सब्सिडी मे जा रहा 33000 करोड रूपया सीधे आम आदमी की जेब मे जाए। गौर करने वाली बात यह है कि एक तरफ तो घोटालो को लेकर सरकार मीडिया और विपक्ष की लगातार मार झेल रही है। दूसरी तरफ वह लगातार ऐसे कार्यक्रमो को ला रही है जिनसे बडे बिचैलियो की जगह पैसा नीचे के तबके के पास पहुंचे। नरेगा जैसी योजनाए इसी का प्रमाण है। जिनसे, कुछ कमियो के बावजूद, देश के देहातो मे आम आदमी तक आर्थिक मदद पहुंचना शुरू हो गयी है। इसका मतलब यह नही है कि सरकार को शहरी मध्यम वर्ग की चिन्ता नही है। पर उसे पता है कि देश की आर्थिक प्रगति का ज्यादा लाभ इन्ही वर्गो को पहुंचा है। फिर भी यही वर्ग ज्यादा शोर मचाता है क्योकि उसकी अपेक्षाए असीम है और उसके पास शोर मचाने का समय और साधन है। यह वह वर्ग है जो कभी भी देश के गरीब किसान मजदूरो की बदहाली पर उत्तेजित नही होता। गांवो मे कितनी आरूषियो की हत्या रोज हो जाती है पर उनके लिए महीनो तक ऐसा बवंडर मचना तो दूर, उनकी खबर तक नही ली जाती।
जहां तक मुलायम सिंह यादव या ममता बनर्जी जैसे सहयोगी दलो की बयानबाजी का सवाल है तो यह साफ है कि ऐसे सभी दल असमंजस की स्थिति मे है। सबकी निगाह 2014 के चुनाव पर है। इसलिए हर मौके का फायदा उठाना ही होता है। इसमे कुछ गलत नही। पर इनकी मुश्किल यह है कि अगर ये भाजपा के संग जाते है तो इनका वोट बैक बिखर जाता है। कांग्रेस का भविष्य अभी स्पष्ट नही दिखता। ऐसे मे ये बयानबाजी करके अपनी पहचान बनाये रखना चाहते है पर विरोध इतना भी तीखा नही करते कि सरकार गिर जाए। सरकार के सामने बडी चुनौती है। अपनी खोयी साख को वापस लाना और विरोध के इस माहौल मे आम जनता तक अपनी नीतियो का लाभ पहुंचाना। एक आग का दरिया है और कूद के जाना है। डीजल और गैस के दामो मे बढोतरी एक ऐसी ही छलांग है। गिर पडे तो खाक मे मिल जायेगे और पार हो गये तो लोग देखते रह जायेगे।
दरअसल साझी सरकार की सबसे बडी विवशता यह होती है कि वो गरीब की जोरू और गांव की भाभी की तरह होती है। राह चलता उससे मजाक करता है। डां मनमोहन सिह काम करे तो अमेरिका के ऐजेंट। न काम करे तो नाकारा प्रधानमंत्री। सहयोगी दलो की सुने तो कोई निर्णय न ले सके। न सुने तो समर्थन वापस लेने की धमकी। सहयोगी दल अगर देशहित में दबाव बनायें तो समझ मे आता है। पर हर धमकी की परिणिति ज्यादा से ज्यादा पैसा खींचने की होती है। हर धमकी के बाद अपने राज्य के लिए  बडे़-बड़े पैकेज मांगे जाते हैं। मिल जाते है तो सारा विरोध ठंडा पड़ जाता है। नहीं मिलता तो शोर मचाया जाता है। इस सब का परिणाम यह हो रहा है कि देश कि आर्थिक प्रगति की गाड़ी पटरी से उतरती जा रही है। एक तो वैसे ही दुनिया में मंदी का दौर है। दूसरा चीन हमारे बाजारो पर कब्जा कर चुका है। तीसरा आतंकवादी संगठन नकली नोटो का जाल बिछा चुके हैं। ऐसे में इस तरह की राजनैतिक अस्थिरता देश के लिए बडी घातक सिद्ध हो रही है।
पर इसमें दोष सरकार का भी है। भ्रष्टाचार के मामलो में सरकार की कोताही जनता की नाराजगी का कारण बन रही है। पर सोचने वाली बात यह है कि सरकार के भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलने वाला मीडिया और विपक्ष क्या यह नहीं जानता कि सरकार के विकल्प के तौर पर जो भी दल खड़े हैं उनका दामन भ्रष्टाचार के दागों से अछूता नहीं है। ऐसे मे जल्दी चुनाव कराने की अधीरता मे जो दल जुटे हैं वे जनता को यह आश्वासन नहीं दे सकते कि मौजूदा सरकार को हटाकर जो सरकार बनेगी वह देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगी। ऐसे में यह साफ है कि यदि चुनाव होते है और मौजूदा सत्ताधारी दल सत्ता खो देता है तो भी देश में लूट, सत्ता के लिए आपसी संघर्ष और साझी सरकारों का जल्दी-जल्दी पतन ही होगा। वैसे तो दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों को कोई राष्ट्रीय मूड का पैमाना नहीं माना जा सकता, पर एक संकेत जरूर है कि इतने हमलो से घिरे सत्ताधारी दल के प्रति दिल्ली के युवाओं मे विश्वास है। इसे अपनी उपलब्धि न मानकर कांग्रेस को आत्मविश्लेषण करना चाहिए। अपनी कमियों पर ध्यान देकर आम जनता का विश्वास जीतना चाहिए। अपने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से लेकर विधानसभाओं तक के दागी सदस्यों को पद से हटाकर नैतिक सुधार के कामो मे लगाना चाहिए। दल के भीतर या दल से बाहर से योग्य और साफ लोगों को सामने लाकर बड़ी जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो जनता उसका साथ देगी अन्यथा उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देगी। चाहे उसे और भी ज्यादा भ्रष्ट सरकार को क्यों न झेलना पड़े। यह देश के हित मे नही होगा।     
 

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।