Monday, December 30, 2013

अब होगी केजरीवाल की असली परीक्षा

अरविन्द केजरीवाल ने जिस रामलीला मैदान से देशव्यापी भ्रष्टाचार के विरूद्ध दो बरस पहले बिगुल बजाया था। वहीं दो बरस बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। पानी मुफ्त मिले या न मिले, बिजली के दाम घटें या न घटें, ये तो ऐसे वायदे हैं जो हर राजनेता चुनाव के पहले करता है। कुछ पूरे होते हैं, कुछ नहीं होते। तमिलनाडु में जयललिता टीवी और सोना बांटतीं हैं, अखिलेश यादव लैपटॉप और हरियाणा सरकार किसानों को पानी व बिजली। दिल्ली में जल की सीमित उपलब्धता को देखते हुए हो सकता है कि अरविन्द 700 लीटर मुफ्त जल हर परिवार को न दे पाएं। पर जिस मुद्दे पर वे चर्चा में आए और आज यहां तक पहुंचे, वही मुद्दा सबसे अहम है और वह है भ्रष्टाचार का। शपथ लेने के बाद भाषण में अरविन्द ने दिल्ली की जनता का आह्वान किया कि वो रिश्वत मांगने वालों को उनसे शिकायत करके पकड़वायें। अब यह नारा बहुत लुभावना है, पर हकीकत क्या है। एक मुख्यमंत्री और उसका सचिवालय दिनभर में भ्रष्टाचार की कितनी शिकायतें सुन सकता है और उन्हें निपटा सकता है। शिकायत दर्ज कराना, जांच करना और दोषी को सजा देना यह प्रतीकात्मक रूप से तो हो सकता है, लेकिन व्यापक रूप से करने के लिए जितनी बड़ी मशीनरी की जरूरत होगी, वो अभी दिखायी नहीं देती।
 डेढ़ करोड़ की दिल्ली की आबादी 70 विधानसभा क्षेत्रों में बंटी है और अगर हर विधानसभा क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों की रिश्वतखोरी बंद करनी है तो एक विधानसभा क्षेत्र में कम से कम एक हजार सतर्क निगहबान लोग चाहिए। ऐसे लोग जो किसी कीमत पर भ्रष्ट न हों और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कमर कस लें। यानि आम आदमी पार्टी को 70 हजार ऐसे स्वयंसेवक चाहिए, जो दिल्ली की डेढ़ करोड़ जनता की शिकायतों को फौरन सुनें और उनको हल कराने में जुट जाएं। ऐसे लोग कहां से आएंगे और बिना वेतन के कब तक काम कर पाएंगे ? अगर ऐसा हो जाता है कि तो वह वास्तव में जनक्रांति होगी।
जहां तक दिल्ली के मुख्यमंत्री के अधिकारों का सवाल है, तो पुलिस और दिल्ली विकास प्राधिकरण जैसे महत्वपूर्ण विभाग मुख्यमंत्री के अधीन नहीं हैं। पर जल, बिजली और वित्त विभाग तो हैं ही, जिन्हें केजरीवाल ने अपने अधीन रखा है।
अब वित्त विभाग के दायरे में बिक्री कर विभाग आता है। जो दिल्ली का सबसे भ्रष्ट विभाग है। उल्लेखनीय है कि चांदनी चैक के कटरों में ही पूरे उत्तर भारत का व्यापारी रोज आता है और अरबों रूपये की खरीद रोज होती है। ये सारी खरीद दो नंबर के खाते में होती है। चाहें सोने हों, चाहें कपड़ों, बिजली का सामान हो, मेवा हो, किराना हो, प्रसाधन सामिग्री हो या फिर अन्य उपभोग की वस्तुएं। ये माल अवैध तरीके से बसों, ट्रेनों, कारों के माध्यम से रोज दिल्ली से उत्तर भारत के शहरों और कस्बों में भेजा जाता है। जिस पर कोई बिक्री कर नहीं दिया जाता है। इस तरह दिल्ली सरकार के अधिकारियों एवं पुलिस वालों की मिलीभगत से अरबों रूपये के राजस्व की हानि होती है। चूंकि यह विभाग सीधे केजरीवाल के अधीन है, तो इसे दुरूस्त करना उनकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे दो लाभ होंगे, एक तो इस बात की परीक्षा हो जाएगी, अरविंद केजरीवाल के आह्वान पर दिल्ली की जनता न रिश्वत देगी, न लेगी, न सेल्स टैक्स चोरी करेगी, बल्कि हर सामान पर बिक्री कर चुकाकर पक्की रसीद लेगी। दूसरा लाभ ये होगा, इससे दिल्ली सरकार के कोष में एकदम से आमदनी कई गुना बढ़ जाएगी। फिर उस आमदनी से केजरीवाल गरीब वर्ग को सब्सिडी भी दे सकते हैं। हां, एक नुकसान जरूर होगा कि जैसे ही दिल्ली के बाजारों में अवैध कारोबार बन्द होगा और कर देकर क्रय और विक्रय किया जाएगा, वैसे ही महंगाई तेजी से बढ़ जाएगी। पर भ्रष्टाचार से लड़ने की यह कीमत तो केजरीवाल और दिल्ली की जनता को चुकानी होगी।
केजरीवाल के अब तक के वक्तव्यों में दो बातों पर लगातार जोर रहा है कि देश की बर्बादी के लिए भ्रष्टाचार मूल कारण है। वे और उनकी सरकार भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेगे और दोषियों को फौरन जेल में डाल देंगे। ऐसी घोषणाएं अरविंद ने खुले मंचों से बार-बार की हैं। अब उनकी परीक्षा का समय आ गया है। दिल्ली की जनता, मीडिया और विपक्षीय दल उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं कि केजरीवाल सरकार कितने भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं को आने वाले दिनों में जेल पहुंचाती है। विश्वासमत पारित हो या न हो केजरीवाल की टीम को इसकी परवाह नहीं है। उन्होंने जनता की अपेक्षाओं को इस तरह पकड़ा है कि अभी कुछ महीनों तक इसी प्रवाह में गाड़ी खिच जाएगी और लोकसभा चुनाव आ जाएगा। अरविंद के कॉलेज के साथी यह बताने में संकोच नहीं करते कि अरविंद का बचपन से सपना प्रधानमंत्री बनने का रहा है। आज जो हवा चल रही है और दिल्ली से अरविंद जो संदेश दे रहे हैं, उससे यह असंभव नहीं लगता कि आगामी लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी महानगरों और अन्य नगरों से इतने सांसद चुनकर ले आए कि अगली सरकार वे एक निर्णायक भूमिका निभा सकें। ऐसी स्थिति में जब चंद्रशेखर, आई0के0 गुजराल व देवगौड़ा जैसे प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो अरविंद केजरीवाल क्यों नहीं ? पर सवाल है कि जनलोकपाल विधेयक की लड़ाई और ये सारा तेवर क्या प्रधानमंत्री पद की प्राप्ति तक ही सिमट कर रह जाएगा या भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के केजरीवाल के दावे और बयान उन्हें अपना फर्ज बार-बार याद दिलाते रहेंगे और वे इसके लिए एक दिन भी इंतजार नहीं करेंगे। अगर केजरीवाल मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए पहले दिन से भ्रष्टाचार पर प्रभावी लगाम कस पाते हैं और जनता उनसे प्रेरणा लेकर भ्रष्टाचार न करने का संकल्प ले लेती है, तो वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक एतिहासिक उपलब्धि होगी। पर असल में क्या होता है यह आने वाले कुछ हफ्तों में साफ हो जाएगा।

Monday, December 23, 2013

अनूठा रहेगा केजरीवाल का प्रयोग

अगर जनमत संग्रह की बात मानें तो केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन रहे हैं, जिसके लिए उन्हें बधाई। क्योंकि एक ही साल में राजनैतिक दल बनाकर इस सफलता को पाना कोई सरल काम न था। पत्रकारों की छोड़िये राजनैतिक दल तक आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) की दिल्ली में आम लोगों के बीच लोकप्रियता का पूर्वानुमान नहीं लगा सके। दरअसल केजरीवाल लोगों को यह बात समझाने में सफल रहे कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। इसलिए चाहे उन्होंने असंभव को संभव बनाने के दावे किए हों या बढ़ चढ़कर अपनी उपलब्धियों के दावे किए हों, कुल मिलाकर यह साफ है कि वे आम आदमी को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। अब जब काफी उधेड़बुन के बाद केजरीवाल दिल्ली में सरकार गठन का निर्णय लेने जा रहे हैं, तब भी लोगों के मन में आशंका है कि वे कितने सफल हो पाएंगे ? कांग्रेस और भाजपा कुछ ज्यादा ही आक्रामक तेवर अपना रहे हैं। वे ये सिद्ध करना चाहते हैं कि केजरीवाल सरकार चलाने में विफल हो जाएंगे। जबकि केजरीवाल का यह पलटवार कि वे न सिर्फ सरकार बनाएंगे, बल्कि उसे अच्छी तरह चलाकर भी सिखाएंगे, इन राजनेताओं के मन में अपनी स्थिति को लेकर संशय पैदा कर रहा है। 

केजरीवाल यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे विफल हुए तो जमे हुए राजनैतिक दल उनकी बोटी नोंच लेंगे और अगर वे सफल हुए तो कई महानगरों में इनके प्रत्याशी लोकसभा का चुनाव जीत सकते हैं। इसलिए उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार कर ठीक किया है। हमने पिछले हफ्ते इसी कॉलम में लिखा था कि अगर केजरीवाल सरकार बनाते हैं और कुछ महीने के लिए ही सही कुछ अनूठा कर दिखाते हैं, तो उनको आगे बढ़ने के रास्ते खुलते जाएंगे। हो सकता है कि वे बिजली और पानी की कीमतों को लेकर अपने दावे निकट भविष्य में पूरे न कर पाएं, पर लोकप्रिय चाल चलन से नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह दिल्ली की गलियों और झुग्गियों में हड़कंप तो मचा ही सकते हैं। हमारे हुक्मरानों ने आजादी के बाद अपने को आम आदमी से इतना दूर कर लिया है कि केजरीवाल के छोटे-छोटे कदम भी उसे प्रभावित करेंगे, जैसे बिना लालबत्ती की गाड़ी में चलना। अगर मीडिया पहले की तरह केजरीवाल को प्रोत्साहित करता रहा, तो इन कदमों की चर्चा देशभर में होगी। जिससे पूरी राजनैतिक जमात में हड़कंप मचेगा। क्योंकि राजनेताओं की वीआईपी संस्कृति देश के हर हिस्से में आम लोगों की आंखों में किरकिरी की तरह चुभती है। पर वे इसे बदलने में असहाय हैं। यह पहल तो राजनेताओं को ही करनी चाहिए थी। वे चूक गए। अब केजरीवाल उन्हें नयी राह दिखाएंगे। 

जब से दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजे आए हैं, कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेता दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि केजरीवाल के तौर तरीकों ने पारंपरिक राजनीति की संस्कृति को एक झटका दिया है। विधायकों की खुली खरीद न होना इसका एक प्रमाण है। अलबत्ता वे यह कहने में नहीं चूक रहे कि आलोचना करना और सपने दिखाना आसान है बमुकाबले कुछ करके दिखाने के। इसलिए वे तमाम तरह की संभावित समस्याओं का हौवा खड़ा कर रहे हैं। केजरीवाल की यह बात सही है कि अगर मन में ईमानदारी हो और कुछ नया करने का जुनून तो सरकार चलाना कोई मुश्किल काम नहीं। खैर यह तो समय ही बताएगा कि वे अपने इस दावे में कहा तक सफल होते हैं। 

आजादी के बाद आज तक किसी भी दल का घोषणा पत्र उठाकर देख लो तो साफ हो जाएगा कि उसमें चैथाई वायदे भी पहले तीन चार साल में पूरे नहीं किए जाते। फिर ये राजनेता केजरीवाल से क्यों उम्मीद कर रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही जादू की छड़ी घुमा देंगे। शायद इसका कारण खुद आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) के नेतृत्व की वह बयानबाजी है, जिसमें कई बार शालीनता की सीमाओं को लांघकर अहंकारिक वक्तव्यों ने अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ा। उनके बड़बोलेपन ने ही आज उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया है, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ दिल्ली की आम जनता को सपने दिखाए, बल्कि उसे अति अल्प समय में पूरा करने का भी वायदा किया। इसलिए उन पर दवाब ज्यादा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) इतना शोर मचाने के बावजूद अभी तक कुछ भी हासिल न कर पायी है। पर इतना जरूर है कि एक नौजवान ने हिम्मत करके पूरी राजनैतिक व्यवस्था के सामने एक विकल्प तो खड़ा करके दिखा ही दिया है। हमें इस नौजवान का उत्साहवर्धन करना चाहिए और आशा करनी चाहिए कि वह हिन्दुस्तान की तस्वीर भले ही न बदल पाए, राजनेताओं को उनके तौर तरीके बदलने पर मजबूर जरूर करेगा। 

Monday, December 16, 2013

केजरीवाल जी, जिम्मेदारी से मत भागिए

सरकार न बनाने का केजरीवाल जो भी कारण बतायें या सरकार बनाने कि जो भी शर्तें रखें, एक बात तो साफ़ दीख रही है कि उनकी टीम ज़िम्मेदारी लेने से भाग रही है | दरअसल किसी कि आलोचना करना और उस पर ऊँगली उठाना सबसे सरल काम है | पर कुछ करके दिखाना बहुत मुश्किल होता है | ऊँगली उठाने वाले को केवल सामने वाले कि गलतियाँ ढूंढने का हुनर आना चाहिये, फिर वो टीवी चैनल पर शोर मचा सकता है, अख़बारों में लेख लिख सकता है और मौहल्लों कि जन सभाओं में जा कर ताली या वोट बटोर सकता है | पर काम करने वाले को हजारों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है | फिर भी अगर वो हिम्मत नहीं हारता और काम करके दिखने में जुटा रहता है तो भी उसके आलोचक कम नहीं होते | उसे सफलता मिले या न मिले वो बाद कि बात है | पर कहावत है कि ‘गिरते हैं शै सवार ही मैदान ए जंग में, वो क्या लड़ेंगे जो घुटनों के बल चले’ | अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव लड़ने का झोखिम तो बहादुरी से उठाया और अपेक्षा से ज्यादा सफलता भी हासिल की पर सरकार बनाने में वे जोखिम लेने से डर रहे हैं |
कारण साफ़ है | चुनाव लड़ते वक्त रणनीति होती है कि विरोधियों पर हमला बोलो और मतदाताओं को बड़े-बड़े सपने दिखाओ | केजरीवाल ने ये दोनों काम बड़ी कुशलता से करे हैं | पर अब परीक्षा कि घड़ी है| सरकार बना लेते हैं और वायदे पूरे नहीं कर पाते तो मतदाता इन्हें दौड़ा लेगा | अपने वायदे पूरे करना गधे के सिर पर सींग उगाने जैसा है | इसलिए कांग्रेस और भाजपा आआपा को बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हैं | इन्हें विश्वास है कि केजरीवाल सरकार बना कर जल्दी ही विफल हो जाएंगे | पर ऐसा हो यह ज़रूरी नहीं | अगर केजरीवाल सफल हो गए तो पूरे उत्तर भारत में पुराने दलों को चुनौती देंगे | अगर विफल हो गए तो एक बुलबुले कि तरह फूट जाएंगे |
आआपा का यह कहना गलत नहीं है कि ये दल कुछ समय बाद छल करके उसकी सरकार गिरा देंगे | पर योद्धा ऐसी आशंकाओं से डरा नहीं करते | अगर सरकार गिरने कि नौबत आ भी जायेगी तो केजरीवाल तब तक अपने जितने वायदे पूरे कर पाएंगे उन्ही के आधार पर संसदीय चुनाव लड़ सकते हैं | पर केजरीवाल को मालूम है कि बंद मुठ्ठी लाख की खुल गयी तो खाक  की | इसलिए वे अपनी लोकप्रियता के घोड़े पर चढ़ कर संसद में प्रवेश करना चाहते हैं | वे संसदीय चुनाव तक अपनी मुठ्ठी खोलना नहीं चाहते | इस सबसे न सिर्फ दिल्ली के मतदाताओं में असमंजस बना हुआ है बल्कि राजनैतिक पारिदृश्य में भी अनिश्चितता है |
इससे तो यही लगता है कि टीम केजरीवाल का मकसद केवल हंगामा खड़ा करना है | लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे तमाम उदहारण है जब व्यवस्था पर हमला करने वाले अपनी इसी भूमिका का मज़ा लेते हैं और अपनी आक्रामक शैली के कारण चर्चा में बने रहते हैं | पर वे समाज को कभी कुछ ठोस दे नहीं पाते, सिवाए सपने दिखने के | ऐसे लोग समाज का बड़ा अहित करते हैं| हाल के वर्षों में भारत और दुनियां के कई देशों में जहाँ-जहाँ ऐसे समूह वाचाल हुए वहां वहां सुधरा तो कुछ नहीं, जो चल रहा था वह भी पटरी से उतर गया | उन समाजों में हिंसा, अपराध, बेरोज़गारी व आर्थिक अस्थिरता पैदा हो गयी है | हालात बद से बदतर हो गए हैं| दरअसल हंगामा करने वाले समूह अंत में केवल अपना भला ही करते हैं | चाहे दावे वो कितने भी बड़े करें | अब लोकपाल विधेयक को ही ले लें, अन्ना सरकारी विधेयक से संतुष्ट हैं मगर आआपा इसे जोकपाल बता रही है | जबकि हम पिछले तीन वर्षों से डंके की चोट पर कहते आ रहे हैं कि केजरीवाल का जनलोकपाल भी देश में  भ्रष्टाचार कतई नहीं रोक पायेगा | क्यूंकि उनके इस विधेयक को बनाने वाले ही न केवल भ्रष्ट हैं बल्कि उन्होंने आज से २० वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के सबसे बड़े संघर्ष को सफलता की अंतिम सीढ़ी से नीचे गिराने की गद्दारी की थी | गाँधी की समाधी पर शपथ ले कर धरने देने वाले केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि दोहरे चरित्र के लोग अशुद्ध साधन जैसे हैं उनसे शुद्ध साध्य प्राप्त नहीं कर सकते |
पूरी दिल्ली उनके साथ न हो पर तिहाही दिल्ली का समर्थन जुटा कर अब जब केजरीवाल ने चुनावी मैदान में बाजी मार ही ली है तो सरकार बना कर अपने वायदे पूरे करने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए | जब प्यार किया तो डरना क्या | जनता समाधान चाहती है – कोरे वायदे और सपने नहीं | वह बहुत दिन तक धीरज नहीं रख पाती |

Monday, December 2, 2013

तरूण तेजपाल कांड का संदेश

तहलका की संवाददाता के आरोपों पर पत्रिका के संस्थापक संपादक तरूण तेजपाल को बलात्कार के आरोप में गोवा की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। क्रांइम ब्रांच की जांच के बाद यह तय होगा कि आरोपों में कितना दम हैं। अगर आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जाहिरन तरूण तेजपाल को अदालत से सजा मिलेगी।
इसलिए हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं पर यहां एक हादसे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जबसे महिला अत्याचार पर जागरूकता आई है और देश का महिला संगठन व मीडिया सक्रिय हुआ है तब से स्त्रियों को लेकर जो भी कानून बन रहे हैं उनसे समस्याओं का हल नहीं निकल रहा। अलबत्ता, शोर खूब मच रहा है। हमारा आशय यह बिलकुल नहीं है कि कानून न बने और महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। पर जिस भारत में नारी की पूजा होती रही हो, जहां नारियां शास्त्रार्थ किए हों, गणराज्य की राजनैतिक सभाओं में बराबरी का योगदान दिया हो और यहां तक कि कई बार देश में शासन भी किया हो, उस देश में नारी को अबला बताकर उसके शोषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती। पर अगर कानून ही हर समस्या का हल होते तो अब तब यह समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए थी लेकिन असलियत कुछ और है।
देश में निर्भया कांड के बाद बलात्कार को लेकर जो कानून बना क्या उससे बलात्कार की दर में 1 फीसदी भी कमी आई है ? उत्तर है नहीं। इसी तरह दहेज उत्पीड़न के लिए बने दहेज कानून की भी दशा है। इस कानून के बनने के बावजूद न तो दहेज का मांगना और देना कम हुआ और ना ही दहेज के कारण बहुओं पर होने वाले अत्याचारों पर कोई कमी आई है। ठीक वैसे ही जैसे हम सब जानते हैं कि रिश्वत लेना और देना जुर्म है पर क्या इस कानून के कारण रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या घटी है ?
जाहिर है सिर्फ कानून समस्या का हल नहीं हो सकते है। कानून का प्रभाव डराने या चेतावती देने तक सीमित होता है। किसी भी अपराध का कारण जाने बिना उसका समाधान कैसे हो सकता है ? यह तो वह बात हुई कि वायु में भारी प्रदूषण हो, लोग लगातार खांसते रहते हों और कानून बन जाए कि सार्वजनिक स्थलों पर खांसना बना है। कितनी हास्यादपद बात है।
ठीक ऐसे ही महिलाओं के प्रति जो अपराध होते हैं उनकी पृष्ठभूमि में है हमारी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, हमारी सांस्कृतिक विविधता और समाज में महिला सशक्तिकरण का अभाव। इन दृष्टिकोणों से समस्या को सुलझाए बिना आप महिलाओं के प्रति नित्य होने वाले करोडों अपराधों को नहीं रोक सकते, पर वह लंबी प्रक्रिया है। उसके लिए समाज को समर्पित सुधारक चाहिए। सार्थक शिक्षा चाहिए। आर्थिक प्रगति का उचित बटवारा चाहिए। पिछड़े समाजों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहिए। हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को समुचित वेतन की रोजगार चाहिए, जिसमें उसका परिवार पल सके। बिना इन सब समाधानों को खोजे हुए केवल कानून अपने आप में कुछ खास नहीं कर सकता।
महिलाओं की रक्षा के लिए हाल के वर्षों में बने कानूनों से उनकी कितनी रक्षा हुई है, इसका तो अभी कोई अध्ययन चर्चा में नहीं आया। पर ऐसे कारण सैकड़ों हैं जब इन कानूनों का सहारा लेकर कुछ महिलाओं ने अपने निर्दोष पति, उसके मित्र या उसके परिजनों को नाहक थानों और अदालतों में घसीटा हो। असली दुःख पाने वाली महिलाएं तो शायद थानों तक पहुंच भी नहीं पातीं। पर इन कानूनों का सहारा लेकर पुरूष समाज को ब्लैकमेल करने वाली महिलाएं भी अब काफी तेजी से दिखाई देने लगी हैं। ऐसी महिलाएं झूठे मुकद्दमों में फंसा कर बहुत से लोगों का जीवन बर्बाद कर रही हैं पर उनकी रोकथाम की अभी कोई व्यवस्था नहीं हैं। इससे असामाजिक तत्वों का हौसला बढ़ता जा रहा है।
इसलिए देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों पर पुर्नविचार करें। केवल महिला संगठनों के आंदालनों, मीडिया और संसद के शोर से प्रभावित होकर जो कानून बन गए हैं उनको कसौटी पर परखने की जरूरत है और आवश्यकता अनुसार बदलने की भी जरूरत है।
हम जानते हैं कि ऐसा मुददा छेड़ने पर कुछ महिला संगठन आक्रामक बयानबाजी कर सकते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि डंडे के जोर पर समाज नहीं बदला करते हैं। पीढ़ियां लग जाती हैं बदलाव लाने के लिए। बेहतर यह होगा कि वे इन सवालों पर बिना उत्तेजित हुए निष्पक्षता से पुर्नविचार करें। फिर खुद पहल करें और सरकार पर दबाव डाले जिससे इन कानूनों में सुधार हो सके। यह धीमी प्रक्रिया जरूर हैं पर इसके परिणाम दूरगामी और सार्थक होंगे।

Monday, November 25, 2013

झूठे दावे क्यों कर रहे हैं केजरीवाल ?

पुरानी कहावत है कि, ‘पूत के पांव पालने में’। केजरीवाल की आआपा अपने चुनाव प्रचार में झूठे दावे करने वाले एसएमएस भेज कर युवा पीढ़ी को गुमराह कर रही है। 13 नवंबर 2013 को ऐसा ही एक एसएमएस दिल्ली के  मतदाताओं को भेजा गया। जिसमें दावा किया गया कि आआपा ने भारत के इतिहास में पहली बार सीबीआई की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया। पहली बार राजनैतिक चंदे में पारदर्शिता का मुद्दा उठाया। पहली बार राजनीति के अपराधिकरण के खिलाफ आवाज उठाई और पहली बार चुने हुए उम्मीदावारों को मतदाता द्वारा वापिस बुलाने की मांग उठाई। आआपा के ये सभी दावे 101 फीसदी झूठे हैं। युवा पीढ़ी आधुनिक भारत का इतिहास नहीं जानती। इसलिए केजरीवाल और उनके साथी इस पीढ़ी को गुमराह कर रहे हैं जिससे उनकी छवि देश में एक महान क्रांतिकारी की बन सके। जबकि सच्चाई यह है कि सीबीआई की स्वायत्त्ता का मामला 1993 से लगातार हम उठाते आ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर मीडिया और संसद तक सीबीआई की स्वायत्तता का जिक्र सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फैसले के साथ ही अदालतों, संसद व मीडिया में किया जाता है।  यह बात पूरा देश जानता है। फिर केजरीवाल का यह झूठा दावा क्यों ? सबसे जोर-शोर से 1994 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने राजनैतिक दलों की आमदनी और खर्चे की पारदर्शिता के लिए कठोर कदम उठाए थे जिनकी चर्चा उसके बाद लगातार होती रही है। 1994 में ही दिल्ली के आईएएस अधिकारी के.जे. एलफांस की एनजीओ जनशक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर यह मांग की थी कि हर चुनावी दल को अपनी आमदनी-खर्चे का आडिट करवाकर चुनाव आयोग व आयकर विभाग को देना चाहिए। ऐसा न करने वाले दलों की मान्यता निरस्त कर दी जानी चाहिए। तब इस मामले पर देश में भारी शोर मचा था। फिर केजरीवाल इन मुद्दों को पहली बार उठाने का झूठा दावा क्यों कर रहे हैं ?

राजनीति में अपराधीकरण को रोकने की मांग पिछले 3 दशक में अनेक बार जोर-शोर से उठाई गई है। इस पर संसद के विशेष सत्र भी बुलाए गए हैं। फिर केजरीवाल क्यो झूठा दावा कर रहे हैं ? इसी तरह चुने हुए प्रत्याशियों को मतदाताओं द्वारा वापिस बुलाने के अधिकार की मांग 1975 में लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने उठाई थी। तब से अनेके संगठन और जागरूक नागरिक यह मांग अलग-अलग स्तर पर उठाते रहे हैं। फिर केजरीवाल झूठा दावा क्यों कर रहे हैं ?

भारतीय आयकर अधिकारियों के संघ ने एक खुला पत्र भेजकर केजरीवाल से पूछा है कि वे यह झूठा दावा क्यों कर रहे हैं कि वे आयकर विभाग में आयुक्त थे और करोड़ों कमा सकते थे। जबकि वे कभी भी आयुक्त पद पर नहीं रहे और ना ही उनके बैच का कोई व्यक्ति अभी तक आयुक्त बन पाया है। इतने ऐतिहासिक तथ्यों को छिपा कर और खुलेआम झूठे दावे करके केजरीवाल इतिहास के साथ छेड़छाड़ और भारत की जनता के साथ धोखाधड़ी कर रहे हैं। इतना ही नहीं जहां उन्हें लगता है कि उनसे भी बड़े संघर्ष उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ हो चुके हैं तो वे उसका जिक्र तक नहीं करना चाहते। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन ने यू-ट्यूब पर 2010 में एक फिल्म डाली जिसमें आजाद भारत के सभी घोटालों का संबंधित वर्ष के साथ उल्लेख किया गया है। पर आश्चर्य की बात यह है कि इस फिल्म में 1996 का देश का सबसे बड़ा घोटाला हवाला कांड गायब है। जिसमें देश के 115 राजनेताओं और अफसरों को आजाद भारत के इतिहास में पहली बार भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट किया गया। शायद केजरीवाल और डा0 योगेन्द्र यादव जैसे उनके साथी आत्मसम्मोहित हैं कि कहीं उनके आंदोलन की तुलना हमारे हवाला संघर्ष से हो गई तो उन्हें जवाब देना भारी पड़ जाएगा। केजरीबाल ने पिछले 36 महीने में भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर करोड़ा रूपया खर्च कर दिया। टीवी चैनलों पर हजारों घंटे अपना राग अलाप लिया। देश के हजारों युवाओं को इस आंदोलन में झोंक दिया और फिर भी उनका दल भ्रष्टाचार के नाम पर एक चूहे तक को नहीं पकड़ सका। जबकि बिना टीवी चैनलों के हुए, बिना पैसा खर्च किए, बिना बड़े-बड़े दावे किए, बिना लोकपाल कानून बने और बिना सीबीआई को स्वायत्तता मिले हमने 28 महीने में ही देश के 115 ताकतवर नेताओं को पकड़ावा दिया था।

साफ जाहिर है कि केजरीवाल और उनकी टीम का इरादा येन-केन-प्रकारेण अपना प्रचार करना और राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना रहा है। हाल में हुए स्टिंग आॅपरेशन ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। कुल मिलाकर केजरीवाल का आंदोलन अपनी अति महत्वाकांक्षओं को पूरा करने के लिए रहा है। इससे जनता को आज तक कोई लाभ नहीं मिला। केवल हताशा और निराशा फैली है। जब केजरीवाल और उनकी टीम इतनी भी ईमानदारी नहीं  िकवे ऐतिहासिक तथ्यों को बिना तोड़े-मरोड़े प्रस्तुत कर सकें तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि सत्ता में आने के बाद उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं होगा। असम गण परिषद के छात्र नेताओं आसाम की जनता को सपने दिखा कर आसाम का चुनाव जीता था। पर बाद में वहां लूट का तांडव शुरू हो गया। ऐसी ही दशा आआपा की भी हो सकती है, इसकी संभावना से कौन इंकार कर सकता है ?

यह दुःख की बात है कि इतना बड़ा आंदोलन खड़ा करके केजरीवाल ने अपने समर्थकों को निराश और हताश किया है।
 

Monday, November 11, 2013

सीबीआई फिर विवादों में

सर्वोच्च न्यायालय ने गौहाटी उच्च न्यायालय के सीबीआई संबंधी फैसले पर रोक लगा कर केन्द्र सरकार को तात्कालिक राहत तो दे दी। पर सीबीआई के अस्तित्व व कार्यप्रणाली को लेकर जो सवाल लगातार उठते रहे हैं वे पहले की तरह ही अनुत्तरित रह गए। गौहाटी के फैसले के बाद टीवी चैनलों, अखबारों और सर्वोच्च न्यायालय में एक बार फिर ‘विनीत नारायण फैसले’ का सहारा लेकर सीबीआई की स्थिति को पुनस्र्थापित करने का प्रयास किया गया। जब-जब सीबीआई की वैधता, पारदर्शिता या कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठते हैं तब-तब यही फैसला बहस का विषय बन जाता है। पर समाधान फिर भी नहीं निकलता। कारण स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को मानना या न मानना संसद की इच्छा पर निर्भर है। लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है। इसलिए ऐसे दर्जनों फैसले हैं जो सरकार के कानून मंत्रालय में धूल खाते हैं। जिन्हें लागू करने की या तो सरकार की ही मंशा नहीं होती या सरकार के संसदीय मंत्री जानते हैं कि उन्हें अन्य दलों से सहयोग नहीं मिलेगा।

फिर भी जब कभी अदालतें सीबीआई को लेकर कोई टिप्पणी करती हैं या आदेश देती हैं तो देश में उत्तेजना और उत्सुकता दोनो फैल जाती है। पर इस सबसे भी कोई स्थिति बदलती नहीं। इसलिए इस विषय पर गंभीर सोच की जरूरत है।
दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत सीबीआई का गठन भ्रष्टाचार के मामले जांचने के लिए किया गया था। तब से आज तक इसे पूर्ण संवैधानिक दर्जा नहीं मिला। क्यांेकि अनेक राज्य सीबीआई का दखल नहीं चाहते। उधर केन्द्र में सत्तारूढ होने वाली सरकारें भी सीबीआई के घोषित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कभी गंभीर नहीं रहीं। इसीलिए कभी इसे ‘भ्रष्टाचार का कब्रगाह‘ कभी ‘पिजरे में बंद तोता’ या कभी ‘बिना दांत का सरकारी श्वान’ बताकर सीबीआई का मखौल उड़ाया जाता है।
दूसरे छोर पर वे लोग हैं जो सीबीआई को पूरी स्वायतता देने और निरंकुश बनाने की वकालत करते हैं। उन्हें भ्रम है कि ऐसा करने पर सीबीआई भ्रष्टाचार का खात्मा कर देगी। यह बहुत बचकानी सोच है। पहली बात तो यह कि अगर सामाजिक और आर्थिक अपराध केवल कानूनों से रूक जाते तो देश में अपराध होते ही नहीं। क्योंकि आज देश में जितनी तरह के अपराध होते हैं उससे कहीं ज्यादा कानून उन्हें रोकने के लिए बने हुए हैं। निरंकुश बन कर सीबीआई भ्रष्टाचार भले ही दूर न कर पाए लेकिन स्वयं ब्लैकमेल करने और धमका कर पैसा ऐंठने की एक संस्था जरूर बन जाएगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं। इसलिए हमारे संविधान में विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के पारस्परिक नियंत्रण रखने के प्रावधान किए गए हैं।
सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार की जड़ में जो सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक कारण हैं उन्हें जाने बिना भ्रष्टाचार को खत्म करने की हर मुहिम बेमानी है। इन कारणों की तरफ ना तो कानून के विशेषज्ञों का ध्यान है, न सरकार का, न संसद का और न ही मीडिया का। किसी भी बीमारी के कारणों को जाने बिना उसका इलाज कैसे किया जा सकता है ? पर भारत में आज यही हो रहा है। सीबीआई का नाम ही इतना आकर्षक हो चुका है कि उसकी चर्चा आते ही आत्मघोषित विशेषज्ञ लंबी-चैड़ी टिप्पणियां और सलाह देने लगते हैं। जबकि इनके विचारों का जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं होता।
अगर देश की चिंता करने वाले देश को वाकई भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना चाहते हैं तो उन्हें सारे भारत के लोगों की दृष्टि बदलने का काम करना होगा, जो कोई आसान काम नहीं। भ्रष्टाचार ही क्यों, हर समस्या को लेकर आज देशभर में शोर मचाने और बयानबाजी करने का जो फैशन बढ़ता जा रहा है उससे देश मंे हताशा फैल रही है। आम जनता, जो मामूली रोजगार और दो-जून की रोटी की फिराक में जुटी रहती है, ऐसी बातें सुनकर विचलित हो जाती है। अगर यह रवैया ऐसे ही चलता रहा तो हम देश में बहुत जल्दी अराजकता पैदा कर देंगे, जिसे संभालना फिर सरकार ही नहीं, खुद को आम जनता का नेता बताने वालों, को भी मुश्किल होगा।
आज जरूरत इस बात की है कि देश की प्रमुख दस-बारह समस्याओं की सूची बना कर उनके समाधान खोजने की राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाएं। अगर सार्थक समाधान मिलते हैं तो उन्हें बिना किसी राजनैतिक राग-द्वेश के, व्यापक जनहित में लागू करने की पहल हर राजनैतिक दल या सामाजिक समूह द्वारा की जाए। इससे जनता में एक अच्छा संदेश जाएगा और चैराहों पर निरर्थक आलोचनाओं में लफ्फाजी करने वालों को कुछ ठोस करने का मौका मिलेगा। वो करने का जिससे समाज बदले और सुधरे।
सीबीआई को स्वायतता मिले या न मिले, उसकी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो या न हो पर यह जरूर है कि अगर देश की संवैधानिक संस्थाओं को लेकर जनता का विश्वास इसी तरह लगातार कम होता गया तो सामान्य जनजीवन चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, पर दूबे बनकर लौटे।

Monday, October 28, 2013

दिशा से भटक गए केजरीवाल

जब दिल्ली प्रदेश भाजपा ने डा. हर्षवर्धन गुप्त को दिल्ली के विधानसभा चुनावों के लिए अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित त किया तो अरविन्द केजरीवाल का कहना था कि डा.हर्षवर्धन एक भ्रष्ट नेता हैं, चूंकि उन्होंने कभी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज नहीं उठाई। केजरीवाल यह बयान न सिर्फ हास्यापद है, बल्कि आम आदमी पार्टी के मानसिक दिवालियापन का परिचायक भी। दिल्ली की राजनीति में थोड़ी भी रूचि रखने वाले पत्रकार और आम लोग यह जानते हैं कि डा.हर्षवर्धन की छवि एक भले इंसान की है। दरअसल उनकी जैसी छवि वाले राजनेताओं का भारत की राजनीति में काफी टोटा है। अगर केजरीवाल का यह तर्क मान लिया जाए तो आम आदमी पार्टी की बुनियाद ही अनैतिक आचरण वालों के हाथों से हुई है। यह बात केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं कि 20 वर्ष पहले 1993 में देश की पूरी राजनैतिक व्यवस्था के खिलाफ भ्रष्टाचार और आतंकवाद को लेकर हवाला कांड की जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें केजरीवाल के अहम सहयोगियों ने अनैतिक भूमिका निभाकर इस लड़ाई को विफल करने का घिनौना कार्य किया था। यह बात केजरीवाल के लोकपाल बिल के आंदोलन से पहले ही मैंने उन्हें एक निजी वार्ता में समझायी थी। पर वे अपने उन साथियों की रक्षा में इतने रक्षात्मक हो गए कि मेरे सप्रमाण तर्क भी उन्हें अपना निर्णय बदलने पर बाध्य नहीं कर पाए। इसलिए मुझे उनके आंदोलन को लेकर शुरू से ही शंका रही, जो बाद में सही साबित हुई।

    केजरीवाल दावा करते हैं कि उन्होंने 20 वर्ष से भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लड़ी है। लोकपाल बिल बनवाकर वे देश से भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते थ। पर उनका तरीका और मांगें इतनी अव्यवहारिक थीं कि उनके मकसद को लेकर शुरू से ही जनता के मन में शक पैदा हो गया था। जो बाद में सच साबित हुआ। लोकपाल बिल आज कहां अंधेरे में खो गया वह केजरीवाल को भी पता नहीं। अन्ना हजारे को मोहरा बनाकर धरने पर बैठाने वाले केजरीवाल का अब अन्ना से कोई नाता नहीं बचा। उनका यह दावा कि देश की आमजनता भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रान्ति करने को तैयार बैठी है, एक मजाक है। क्योंकि न तो देश से भ्रष्टाचार खत्म हुआ है और न ही अन्ना हजारे और केजरीवाल हिमालय की कंद्राओं में जाकर छिप गए हैं। अगर गायब हो गई है, तो वह भीड़, जो रामलीला मैदान में जुटी थी। साफ जाहिर है कि अगर वह आत्मप्रेरित भीड़ थी, तो आज इनके साथ क्यों नहीं है ? क्योंकि वह प्रायोजित भीड़ थी और जो लोग उसमें गंभीरता से जुड़े थे, उन्हें इण्डिया अगेनस्ट करप्शन के नेतृत्व के बचकानेपन और अति महत्वाकांक्षी स्वभाव को देखकर मोहभंग हो गया। इसीलिए वे आज केजरीवाल या अन्ना के साथ नहीं खड़े हैं।

    केजरीवाल की पार्टी 47 फीसदी वोट लाने का दावा कर रही है, पर जिस सर्वेक्षण को आधार पर बनाकर यह दावा किया जा रहा है, उसे करने वाले योगेन्द्र यादव खुद आम आदमी पार्टी के एक कार्यकर्ता हैं। किसी भी सर्वेक्षण के बुनियादी सिद्धांतों के विरूद्ध है कि उसे करने वाले स्वयं लाभार्थी हों। निष्पक्ष सर्वेक्षण के लिए जो कोटा प्रणाली सैफोलाजी के लिए आवशयक होती है, उसका तो योगेन्द्र यादव ने कहीं प्रयोग ही नहीं किया। अपने ही दल का कार्यकर्ता सर्वेक्षण करे और भारी जीत का दावा करे, तो इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है।

    दरअसल केजरीवाल ने आज तक जो कुछ किया है, उसमें मकसद की ईमानदारी, गंभीरता और परिपक्वता का नितांत अभाव रहा है। हड़बड़ी में जल्दी से जल्दी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करना उनके आचरण का दुखद पक्ष हैं। दिल्ली में जहां गुजरात की तरह लोगों को लगातार बिजली मिल रही हो, वहां मीटर जोड़ने का नाटक करके अरविन्द केजरीवाल ने क्या सिद्ध किया ? अगर उनकी बात में दम था तो दिल्ली के हजारों उपभोक्ताओं ने उनके आह्वान पर अपनी बिजली क्यों नहीं कट जाने दी ? क्योंकि दिल्ली के मतदाताओं को शीला दीक्षित सरकार से बिजली को लेकर कोई शिकायत नहीं है।

    कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आम आदमी पार्टी लोकपाल आंदोलन की तरह एक बुलबुला है, जिसका सही स्वरूप चुनावों के बाद सामने आ जाएगा। लोकतंत्र के लिए एक दुखद अनुभव होता है कि जब भी कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाकर आगे बढ़ता है, तो समाज को धोखा ही मिलता है। अगर केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में जुटे रहते और इस तरह की गैरजिम्मेदाराना बयानबाजियां करके मीडिया की सुर्खियों में रहने का लोभ संवहरण कर पाते, तो उनकी भूमिका ऐतिहासिक बन सकती थी। पर अब तो भगवान ही मालिक है, उनका और उनके दल का। चुनाव लड़ने में कोई बुराई नहीं, पर जैसे दूसरे राजनेता सपने दिखाते हैं, वैसे ही केजरीवाल हवाई सपने दिखा रहे हैं और सोच रहे हैं कि दिल्ली का मतदाता मूर्ख है जो उनकी बातों में आ जाएगा।

Monday, September 30, 2013

राहुल गांधी के बयान से उठे बुनियादी सवाल ?

 
अपराधी प्रवृति के लोगों को नेता बनने से रोकने के मामले में जोर पकड़ लिया है। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था और उसके बाद अध्यादेश और फिर उसके बाद राहुल गांधी ने जिस तरह से जनाकांक्षाओं के अनुकूल बयान दिया उससे पूरे देश में हलचल है। पिछले दो दिन से मीडिया तो इस बयान को लेकर इतना उत्साहित है कि उसने एक ही सवाल को बार-बार दोहराने की झड़ी लगा दी है। मीडिया और विपक्ष के नेताओं का एक ही यह सवाल है कि राहुल गांधी तीन दिन से कहां थे और इसी से जुड़ा यह सवाल भी है कि जब केबिनेट से इस अध्यादेश का मसौदा पास हो रहा था, तब क्या राहुल गांधी को खबर नहीं मिली ?
 
यानि राहुल गांधी पर आरोप है कि उन्होने 72 घंटे की देर क्यों लगाई ? फिलहाल हम राहुल गांधी को छोड़ कर पहले सुप्रीम कोर्ट बनाम अध्यादेश की बात करेंगे। क्योंकि इससे कई सवालों के जवाब ढूंढने में मदद मिलेगी। संक्षेप में कहे तो सुप्रीम कोर्ट ने दागी नेताओं और भविष्य में दागी लोगों के राजनीति में आने पर पाबंदी के लिए बहुत ज्यादा आगे बढ़कर व्यवस्था कर दी थी। जब यह फैसला सुनाया गया तो इस पर देशभर में सामाजिक स्तर पर गंभीर सोच विचार नहीं किया गया। फैसला तो दिखने में बहुत दमदार था पर इसके राजनैतिक दुरूपयोग की संभावनाओं को तलाशने और दूर करने का काम किया जाना चाहिए था। जो नहीं किया गया। दरअसल हमारे यहां सर्वोच्च अदालत का आज भी इतना सम्मान है कि जनता उसके फैसलों को श्रद्धाभाव से ही स्वीकार करती है। लेकिन यह एक ऐसा मामला था जिसका आगा-पीछा सोचने की बहुत ही ज्यादा जरुरत थी। लेकिन इधर साल भर से नेताओं या पूरी राजनैतिक प्रणाली के इस तरह से धुर्रे उड़ाये जा रहे है कि जनता का नजरिया भी वैसा बनता जा रहा है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को भी खूब वाह-वाही मिली। ऐसा लगा की अपराधियों को राजनीति में घुसने के सभी दरवाजे अब बंद हो जायेंगे। टीवी चैनलों पर विशेषज्ञों ने बढ़-चढ़कर  इस फैसले का स्वागत किया। पूरे देश में फैसले के पक्ष में माहौल बन गया।
 
इस माहौल में इस मुद्दे पर फिर संसद में चर्चा हुई। लेकिन लोकसभा मे जो चर्चा हुई वह इतनी जल्दबाजी में हो गई कि जनमत बनाने का काम ही नहीं हो पाया। जबकि अगर इस मुद्दे पर लंबी और खुली बहस होती और उसे दूरदर्शन पर देश देखता तो गंभीर राजनीतिज्ञों को अपने अंदेशे देशवासियों तक पहुंचाने में मदद मिलती। पर जल्दी में निपटी बहस से यह संदेश यह चला गया कि सारे नेता व प्रमुख विपक्षी दलों के नेता भी अपराधियों को राजनीति में आने से रोकना नहीं चाहते। उसके बाद तो ऐसा माहौल बन गया कि देश के बहुसंख्यक जनप्रतिनिधि सुप्रीम कोर्ट के आदेश या  व्यवस्था से सहमत नहीं हैं। इस तरह यह मामला केबिनेट से एक अध्यादेश के मसौदे के रुप में मंजूर होकर राष्ट्रपति के पास पहुंच गया। राष्ट्रपति भवन को यह अध्यादेश फौरन ही मंजूरी लायक नहीं लगा। तो उन्होंने प्रमुख दलों के नेताओं को बुलवाना शुरु कर दिया। यही से हलचल शुरु हो गई और इसी बीच राहुल गांधी का बयान आ गया।

अब हमारे सामने यह सवाल है कि इस मामले में इतनी जल्दबाजी क्यों हो रही है ? यह अलग बात है कि राहुल गांधी पर यह आरोप लग रहा है कि उन्होंने 72 घंटे की देर क्यों की ? दरअसल इतने गंभीर मामले पर जिसे इस देश की राजनीति का पुश्तैनी रोग कहा जा सकता है। अगर केवल एक कानून बना देने से राजनीति के अपराधीकरण का कोई समाधान निकलना होता तो कब का निकल जाता। अपराधियों से निपटने के लिए तो देश में आज भी तमाम कानून हैं, पर उनसे कोई हल नहीं निकल पाया। इस मामले की जटिलता और बारीकी पर अगर गौर किया जाए तो हमें यह याद करना होगा कि हमारी न्याय प्रणाली की एक प्रतिस्थापना है कि ‘चाहे सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक बेगुनाह को सजा न हो‘। यह उदारवादी प्रतिस्थापना ही दागी नेताओं पर रोक लगाने के मामले को जटिल बनाती है। हालांकि इस मुद्दे पर अकादमिक चर्चा नहीं हुई है। इसीलिए जनता के दिमाग में यह मामला स्पष्ट नहीं हो पाया है। जब सब कुछ तथाकथित ‘जनाकांक्षाओं‘ पर चलकर ही किया जाना है, चाहे वे कितनी भी अव्यवाहरिक क्यों न हों तो फिर देश में विद्वानों और विशेषज्ञों की बात को सुनने को राजी ही कौन है ?
 
अब अगर इस नई व्यवस्था के भविष्य पर पूरी गंभीरता और अपने समाज की सच्चाई के आधार पर नजर डालें तो पूरा अंदेशा है कि भविष्य की राजनीति सिर्फ इस बात पर होगी कि अपने विरोधी दल के नेताओं पर आपराधिक मामले कैसे बनाए जाएं। हमारा अब तक का अनुभव बता रहा है कि आखिर में सत्य की जीत भले ही होती हो लेकिन सच को परेशान कर ड़ालने के सारे मौंके हमारी न्यायिक व्यवस्था में मौजूद हैं। जिनका साधन सम्पन्न लोग आसानी से दुरुपयोग कर सकते हैं। राजनैतिक अपराधियों से निपटना भी तो अपराध शास्त्र का ही विषय है। पर विडम्बना देखिए कि कानून बनाने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी लगभग शून्य है। जनप्रतिनिधिओं और वकीलों के जरिये न्याय का सारा काम निपटाने से जो उथल-पुथल हो सकती हैं, वह हमारे सामने है। यानि अभी भी हम तय नहीं कर पा रहे हैं कि प्रजातंत्र में ‘कथित जनाकांक्षाओं‘ पर ही सब कुछ छोड दिया जाये या जन को निर्णय  लेने में सक्षम बनाने के लिए कुछ विशेषज्ञों की भी मदद ली जाए।

Monday, September 23, 2013

बाबा रामदेव का अपमान हर भारतीय का अपमान

लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर बाबा रामदेव का जो अपमान हुआ, वह हर भारतीय का अपमान है। चाहे कोई बाबा रामदेव से राजनैतिक या वैचारिक मतभेद क्यों न रखता हो फिर भी वह अपमान के इस तरीके को कभी सर्मथन नहीं देगा। बाबा रामदेव जब हीथ्रो हवाई अड्डे से आव्रजन की सभी औपचारिकताएं पूरी करके बाहर निकल आए, तब उन्हें दोबारा पूछताछ के लिए बुलाया गया और आठ घंटे तक बिठाकर रखा गया। अगले दिन फिर बुलाया और पूछताछ के बाद क्लीन चिट दे दी।
 
यहां कई प्रश्न उठते हैं। अगर उनके वीजा में कमी थी तो उन्हें पहले बाहर ही क्यों निकलने दिया ? वहीं अंदर हवाई अड्डे पर से वापिस भारत क्यों नहीं भेज दिया ? जो क्लीन चिट दूसरे दिन दी उसे पहले दिन देने में क्या दिक्कत थी ? बताया जाता है कि लंदन में किसी व्यक्ति को एक दिन में तीन घंटे से ज्यादा इस तरह पूछताछ के लिए रोकने की परंपरा नहीं है। फिर बाबा को यह मानसिक यातना क्यों दी गयी ? इससे उनके चाहने वालों को जो दिक्कत हुई सो अलग। उसके लिए तो वे अपनी सरकार से लड़ेंगे ही।
 
बाबा का कहना है अंग्रेज आव्रजन अधिकारी ने उन्हें बताया  कि बाबा के विरूद्ध रेड अर्लट जारी किया गया है। रेड अलर्ट किसी देश की सरकार द्वारा उन अपराधियों के खिलाफ जारी किया जाता है जो किसी देश में संगीन जुर्म करके फरार हो जाते हैं और दूसरे देशों की तरफ भाग जाते हैं। तो क्या बाबा के खिलाफ आर्थिक या किसी अन्य अपराध का ऐसा मामला सिद्ध हो चुका है, जिसमें भारत सरकार उन्हें गिरफ्तार करना चाहती हो पर वो फरार हो गये हों। ऐसा अभी तक कोई मामला सामने नहीं आया है जिसमें बाबा रामदेव के अपराध सिद्ध हो गए हों? फरार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जब बाबा रात-दिन देश भर में घूम-घूम कर अपनी जनसभाएं और योग शिविर कर रहे हैं। भारत सरकार को अगर उनकी तलाश है तो उन्हें किसी भी क्षण भारत में कहीं से भी पकड़ा जा सकता है। फिर रेड अर्लट का सवाल कहां से आया ?
 
उधर बाबा रामदेव का आरोप है कि यह सब यू.पी.ए अध्यक्षा के इशारे पर हुआ। इसका कोई प्रमाण तो बाबा ने नहीं दिया है। पर उन्होंने दावा किया है कि उनके लोग इस बात के प्रमाण जुटाने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए प्रमाण के सामने आने का इतंजार करना होगा। वैसे आम तौर पर एक देश की सरकार दूसरे देश की सरकार से इस तरह की असंवैधानिक मांग नहीं करती है क्योंकि आतंरिक सुरक्षा उस देश का गोपनीय मामला होता है।
 
बात असल में यह है कि अंगे्रजों के दिमाग से अभी भी हुकुमत की बू नहीं गयी। उन्हें भारत छोडे़ 66 वर्ष हो गये मगर वे आज भी भारतीयों को अपनी प्रजा मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसा अनुभव हर उस भारतीय को होता है जो कभी विलायत गया हो। जबकि दूसरी ओर हमारे देश में गोरी चमड़ी को आज भी सिर पर बिठाकर रखा जाता है। चाहे वो व्यक्ति वहां कितनी भी छोटी सामाजिक हैसियत का क्यों न हो ? इतने मूर्ख तो अंग्रेज अधिकारी नहीं कि वह बाबा रामदेव की हैसियत और लोकप्रियता के बारे में कुछ न जानते हों। इसके बावजूद उनके साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार करना भारतीय समाज का अपमान ही माना जाना चाहिए और इसकी भत्र्सना की जानी चाहिए।
 
हमारी याद में पिछले 45 दशकों में ऐसा कोई हादसा ध्यान नहीं आता जब किसी देश के सम्मानित या लोकप्रिय नागरिक का भारतीय हवाई अड्डों पर ऐसा अपमान हुआ हो। जबकि भारत के विशिष्ट व्यक्तिओं का अमरीका और इंग्लैण्ड के हवाई अड्डों पर अक्सर अपमान होता रहता है। फिर वे चाहे  सत्तारूढ़ दल के नेता हो, विपक्ष के नेता हों या किसी अन्य क्षेत्र के मशहूर व्यक्ति। इसलिए जरूरी है कि हमारा विदेश मंत्रालय और हमारे दूतावास इन मामलों को गंभीरता से लें और सम्बन्धित सरकारों से उनका रवैया बदलने को कहें। आज संचार क्रान्ति के युग में सूचनाओं का आदान प्रदान इतनी तेजी से होता है कि किसी भी मशहूर व्यक्ति के बारे सारी सूचनाएं गूगल व अन्य माध्यमों से क्षण भर में हासिल की जा सकती है, फिर ये पुरातन पंथी रवैया क्यों ?
 
वैसे यह जिम्मेदारी उन देशों के भारत स्थित दूतावासों की भी है, जो भारत की हर गतिविधि पर बारीकी से नजर रखते हैं, फिर वे यह तो जानते ही हैं कि बाबा रामदेव हो या शाहरूख खान, राहुल गांधी हो या ए.पी.जे अब्दुल कलाम, ये ऐसी शख्सियतें नहीं है जिन्हें विदेशों के हवाई अड्डों पर अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए घंटो सफाई देनी पड़े। पर इनके साथ कभी न कभी ऐसे हादसे होते रहे हैं। इसलिए भारत सरकार को अपने राजनैतिक मतभेद पीछे रखकर देशवासियों के सम्मान के लिए इस अपमानजनक व्यवहार को रुकवाना चाहिए।

Monday, September 16, 2013

बलात्कारियों को फाँसी देने से क्या होगा ?


आखिर चारों को फाँसी की सजा हो गयी। इस वीभत्स और भयानक हत्याकांड में अदालत को फैसला करने में सिर्फ नौ महीने लगे। इस कांड पर समाज की प्रतिक्रिया अपूर्व थी। यही कारण रहा कि अदालत को तेजी से न्याय करना पड़ा। वैसे मीडिया की भी इसमें बड़ी भूमिका रही। अगर समाज और मीडिया के बीच जुगलबंदी को देखें तो कह सकते है कि इस सामाजिक प्रतिक्रिया के पीछे मीडिया की ही भूमिका हमें ज्यादा दिखती है। वरना ऐसे हत्याकांडों और इससे भी ज्यादा अमानवीय और भयानक घटनाओं पर मीडिया अकसर इतनी तत्परता नहीं दिखा पाता। मसलन धर्म, जाति और नस्लभेद में होने वाली घटनाओं की तीव्रता इस हत्याकांड से कहीं ज्यादा होती है। बस फर्क यह है कि वे घटनाएं बहुत सारे नकाब ओढ़े होती हैं। खैर अभी चर्चा चार लड़कांे को फाँसी की है।

इस रेप और हत्याकांड में मीडिया के कारण सजा को लेकर बड़ी उत्सुकता बनायी गयी। जरा बारीकी से देखें तो अदालत पर समाज के दबाव को कोई भी इनकार नहीं कर सकता। फाँसी की सजा के बाद अब समाज में, खास तौर पर प्रबुद्ध समाज में और प्रबुद्ध समाज के विशेषज्ञ वर्ग में चर्चा शुरू हो गयी है और हो भी क्यों न। क्योंकि किसी भी अपराध के लिए सजा की मात्रा या प्रकार बहुत सोच-समझकर तय की जाती हैं। उनके मुताबिक ऐसे मामले में अधितम सजा यही हो सकती थी और उसके हिसाब से समाज ने उसी का दबाव बनाया और अदालत ने तेजी से काम करके जल्दी न्याय कर दिया। इस फैसले के बाद अब विश्लेषण की जरूरत पड़ रही है। क्या समाज से हत्या और बलात्कार खत्म करने में इस सजा के बाद मदद मिलेगी ?

अपराध शास्त्री सुधीर जैन का कहना है कि अपराध शास्त्र की पढ़ाई में दण्ड के उद्देश्यों की कई व्यवस्थाएं हैं। पिछले 200 सालों में इसी पर विचार हुआ है और अलग-अलग राजनैतिक प्रणालियों में उनके मुताबिक दण्डशास्त्र विकसित हुआ है। हमारी प्रणाली लोकतंत्र है। साम्राज्यवादी व्यवस्था से मुक्त होकर हमारा लोकतंत्र बना है। अग्रेजों की दण्ड व्यवस्था के तीन उद्देश्य थे। प्रतिशोध, प्रतिरोध और प्रायश्चित। आजादी के बाद हमने इसमें दो उद्देश्य और जोडे़, सुधार और पुर्नवास। सुधार और पुर्नवास जैसे उददेश्यों पर भी समीक्षा होती रहती है। इसे लेकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ता काम भी करते रहते हैं और समाज में उनकी प्रशंसा भी होती रहती है। कहने की गर्ज यह है कि साम्राज्यवादियों की दण्ड व्यवस्था सिर्फ दण्डात्मक थी और हमारी व्यवस्था दण्ड और अपराधियों के उपाचार यानि दोंनों को मिलाकर दंडोपचारात्मक बनी है। ऐसे में अपराधियों को दण्ड दिया जाए या उनका सुधार किया जाए इसके बीच द्धन्द की स्थिति बनती है। कहीं ऐसा न हो जब यह वीभत्स और भयानक हत्याकांड समाज की स्मृति में धंुधला पड़ जाए, तब हम कुछ और बातें करने लग जाए। होने को तो यह भी हो सकता है कि हत्या और बलात्कार के लंबित पड़े दर्जनों  मामलों में हम फाँसी देने में ही हिचक जाएं। यह सोचकर कि लोकतंत्र में इतने सारे अपराधियों को फाँसी देने से भारत की दुनिया में क्या छवि बनेगी?

यानि फाँसी या उससे भी कड़ी किसी काल्पनिक सजा से भी हम समस्या के समाधान की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। अगर सोचते हैं तो यही सोच पाते हैं कि अपराधों पर नियंत्रण दण्ड से उतना नहीं हो सकता,जितनी उम्मीद हम अपराध निरोध की कोशिशों से करना चाहते हैं। मौजूदा मामले में भी यही लगता है कि हमने बलात्कारी से प्रतिशोध या बदला तो ले लिया। लेकिन इससे प्रतिरोध सुनिश्चित नहीं होता। प्रतिरोध भी दो प्रकार का होता है। विशिष्ट और सामान्य (सार्वभौमिक)। इसकी व्याख्या यह है कि हमने उस अपराधी को तो समाप्त कर दिया। यानि उसके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले अपराधों से हम मुक्त हो गए, यह विशिष्ट प्रतिरोध था। लेकिन उसे फाँसी पर चढ़ाकर दूसरे ऐसे और लोग ऐसा कांड करने से बचेंगे, यह सुनिश्चत नहीं होता। इसका इतिहास गवाह है कि जिन अपराधों में फाँसी दी गयी, वे अपराध रुके नहीं। आंकड़े तो यह भी बताते है कि तमाम कानूनों को लागू किए जाने के बावजूद समाज में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ ही रही है। यानि जरूरत ऐसे उपायों की है कि जहां ऐसी व्यवस्था हो जिससे हम अपराधिक प्रवृत्तियों को विकसित होने से रोक सकें। बस मुश्किल यही है कि इसके लिए काम कानूनी नहीं, सामाजिक स्तर पर ही हो सकता है। जो जरा मेहनत का काम है। इसलिए शायद सामाजिक कार्यकर्ता भी कानून व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, पुलिस सुधार और कड़े कानूनों जैसी मांगों को उठाना अपने लिए ज्यादा सुविधाजनक समझते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हम अपराधों के त्वरित समाधान की बजाए अपराधों के कारणों पर विचार करना शुरू करें, फिर समाधान ढूँढें। तभी समाज में अमन कायम होगा। उस दृष्टि से इन चारों की फाँसी से भी बलात्कारों के रुकने की संभावना दिखाई नहीं देती।

Monday, September 9, 2013

धर्म का धंधा सबसे चंगा

आसाराम की गिरफ्तारी के बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रही हैं। पर इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही। धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।
 
संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।
 
जैसे- जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।
 
आसाराम कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘ । 

Monday, September 2, 2013

आसाराम और उनका सच आमने सामने

आसाराम कांड ने एक से बड़े एक दिग्गजों को उनकी हैसियत बता दी है। यहाँ तक कि अपने चतुर सर्मथकों तक को बता दिया है कि उनकी क्या ताकत है। 10 दिन तक मीडिया भी गंभीरता के साथ आसाराम और उनके सच को उजागर करने में पूरी शिद्दत से लग रहा था। लेकिन कानून के हाथ आसाराम के पास तक नहीं पहुँच पाये। हाथ तो क्या कानून की परछाई तक आसाराम तक नही पहुँच पायी।
 
इस कांड का कोई ऐसा पारंम्परिक पक्ष नहीं है, जिस पर जोर-शोर से बहसें नहीं हुईं। लेकिन यह खुलकर समझाया नहीं जा सका कि आसाराम के पीछे ऐसी कौन सी ताकत है ? आसाराम के पास पैसे की ताकत, साम्प्रदायिक पक्ष की ताकत, राजनैतिक ताकत, अपने कर्मचारियों की फौज की ताकत या उनके पास जमा होने वाली भीड़ की ताकत, लगता है कि इन ताकतों की कोई काट पिछले 8-10 दिनों में ढूँढी नहीं जा सकी। इसलिए सवाल उठता है कि ऐसे झूठ के खिलाफ कौन सा तर्क या सच हो सकता है ? इसके शोध की जरुरत है।
 
यदि यही बात है कि आसाराम के आयोजनों में पहुँचने वाले भोले-भाले लोगों की संख्या ही उनकी ताकत है, तो हमें उनके श्रोताओं के अध्ययन की जरुरत पडे़गी जो सब कुछ देख कर भी जानना नहीं चाहते। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि देश में इस वक्त दोनों प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस कांड को लेकर फौरी तौर पर मुश्किल में नजर आ रहे हैं। भाजपा पर आसाराम को चतुराई के साथ बचाने के आरोप है और वारदात राजस्थान में होने के कारण वहाँ सत्तारुढ कांग्रेस पर आरोप है कि कुछ भी मुश्किलें रही हों राजस्थान पुलिस ने आसाराम को फौरन ही और सख्ती के साथ क्यों नहीं पकड़ा ? 10 दिनों मे इतनी बहसें हो जाने के बाद यह कोई भी समझ सकता है कि दोनों ही दलों के ऐसे रवैये का क्या कारण हो सकता है ?
 
सब जानते है कि कानूनी उपायों की क्या सीमाएं होती है ? हम सोचकर देखें कि अगर आसाराम को 10 दिन पहले सख्ती से पकड़ लिया जाता तो क्या होता ? हालांकि हमारे यहाँ इस तरह का सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं है। लेकिन जब ये सवाल उठ रहे हों कि राजस्थान पुलिस ने 10 दिन पहले ही आसाराम को क्यों नहीं पकड़ लिया, तो यह सवाल वाजिब है कि तब क्या होता ? इसका जवाब भी विद्धानों ने टीवी पर जारी बहसों में दिया है कि आसाराम ऐसी बुराई थे जो एक नकाब में थे और उसे बेनकाब करना जरूरी था। इन 10 दिनों में आसाराम खुलकर बेनकाब हो पाये। 10 दिन पहले उन्हें पकड़ा जाता तो उन्हें अपनी नकाबपोश छवि के कारण और उनके सर्मथकों के प्रोपेगंडा के कारण आसाराम को सहानभूति मिल जाने का भी एक बड़ा अंदेशा था। बात कुछ दार्शनिक किस्म की जरुर है लेकिन फौरी तौर पर महत्वपूर्ण इसलिए है कि आसाराम कोई एकल मुक्त बुराई नहीं लगते, बल्कि लगता है कि अभी कई आसारामों को जानने और समझने की जरुरत पड़ेगी और जब हम मुद्दे को सम्रग रुप में देखेंगे, तभी कुछ अच्छा होने की उम्मीद की जा सकती है। वरना टुकड़ों-टुकड़ों में ऐसे कांड बगैर किसी निर्णायक उपायों के आते जाते रहेंगे।
 
सनसनीखेज आसाराम कांड की कुछ पाश्र्व कथाएं भी बनी है। राजनैतिक क्षेत्र में देखें तो उमा भारती से लेकर मध्य प्रदेश के नेता विजय वर्गीय तक कई नेताओं ने आसाराम को बेकसूर साबित करने में खूब जोर लगाया। हालांकि माहौल बिगड़ता देख भाजपा वरिष्ठ नेताओं और प्रवक्ताओं ने आखिर में हालात संभालने में पूरा जोर लगा दिया।
 
एक सबसे जटिल और बारीक कथा आसाराम को बीमार बताने की भी कोशिश हैं। आसाराम के पुत्र ने शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में बताया कि आसाराम को एक न्यूरोलोजिकल बीमारी न्यूरेल्जिय है। अब उनके डाक्टरों और कानूनी विशेषज्ञों ने एक ऐसी बीमारी का जिक्र कर दिया है जिसकी व्याख्या और निर्धारण करने में पुलिस और फौरेन्सिक मनोवैज्ञानिकों को हफ्तों क्या महीनों लग जायेंगे।
 
अपराध शास्त्र खास तौर पर अपराध मनोविज्ञान के एक विशेषज्ञ का कहना है कि यह एक ऐसा सामान्य रोग है जिसका न तो विश्वसनीयता के साथ यांत्रिक परीक्षण संभव है और न ही इसका कोई विश्वसनीय कारण ज्ञात हो पाया है। अनुमान के आधार पर माना जाता है कि तनाव या विशाक्ता या अदृश्य संक्रमण या किसी यांत्रिक चोट के कारण नाड़ियों में दर्द हो जाता है जिसका नाम न्यूरोलोजी के विशेषज्ञों के न्यूरेल्जिय रख लिया है। इस रोग में जब किस नाड़ी मे दर्द होता है तो उसके लक्षण थोड़ी देर के लिए चेहरे पर आ जाते हैं। अब आसाराम को ऐसी बीमारी का रोगी बताया जाना पुलिस को मुश्किल मे डालने के लिए है। इस बीमारी का न तो विश्वसनीमय परीक्षण है और न कोई आसानी से प्रमाणित कर सकता है कि रोगी को यह रोग नहीं है।
 
यानि ऊँचे स्तर के आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि मामलों को जटिल बनाने के लिए देश में इतने नुक्ते विद्धमान हैं कि कोई सिद्ध या असिद्ध कर पाये या न कर पाये लेकिन उसे उलझाकर लटका जरुर जा सकता है। इस भूल भूलैया में भटकाव के इन रास्तों को सीधा सरल बनाने का काम भी हमारे सामने है। लेकिन इसके लिए व्यवस्थित सोच, विचार, शोध और दार्शनिक विर्मशों की जरुरत पडे़गी, जिसके लिए शायद हमारे पास वक्त नहीं।

Monday, August 26, 2013

आसाराम कांड से बाबा लोग बेचैन

आसाराम कांड ने देश के बाबा लोगों को बेचैन कर दिया है। हफ्ते भर से आसाराम के बहाने मीडिया में बहस जारी है। लेकिन यह बहस हमेशा की तरह फौरी तौर पर उस सनसनी तक ही सीमित है जिसकी उम्र आम तौर पर चार छह दिन से ज्यादा नहीं होती। फिर भी यह कांड इसलिए गंभीर विचार विषयों की मांग कर रहा है। क्योंकि यह धर्म, व्यापार, अपराध और राजनीति के दुश्चक्र का भी मामला है। वैसे धर्म का मामला तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता। किसी पंच या धार्मिक संगठन से भी कोई बात नहीं बनती। जो थोड़ा बहुत समाज सुधारक का प्रचार था वह भी जाता रहा।
 
रही बात व्यापार की तो यह सबके सामने है कि ऐसे कथित धार्मिक साम्राज्य बिना व्यापार के खड़े ही नहीं हो सकते और एक बार यह व्यापार चल पड़ता है तो दूसरी ताकतें खुद व खुद आने लगती हैं। इन्हीं में एक ताकत कानून की फिक्र न करने की भी ताकत है। आसाराम इसी की वजह से पकड़ में आते जा रहे हैं। बेखौफ होना हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता। पिछले सात दिनों में आसाराम के प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने आसाराम की छवि को जिस तरह से खौफनाक बनाया है उससे आसाराम का बचाव कम हुआ है और उन्हें मुश्किल में ड़ालने में काम ज्यादा हुआ है। आसाराम के प्रतिष्ठान के पास प्रशिक्षित प्रबंधकों की भी कमी है। वरना वे प्रबंधक जरुर सोच लेते कि एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के लिए छवि का क्या महत्व होता है। यानि इस कांड में आसाराम की छवि को जिस तरह खौफनाक बनाया है। उससे उसके प्रतिष्ठान के व्यापार पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा ? इसलिए उनके अनुयायी श्रद्धालु कम और ग्राहक ज्यादा थे।
 
तीसरा तत्व अपराध का है। मौजूदा मामला सीधे सीधे अपराधों का ही है। जैसा मीडिया पर दिखता है उससे साफ है कि उन्होंने हद ही कर दी है। एक के बाद एक होते कांड उनके अनुयायी भी सहन नहीं कर पायेंगे और फिर भारतीय मानस आत को बिल्कुल पंसद नहीं करता। अपराधों के मामले में तो वह तुरन्त प्रक्रिया करने लगते हैं। देश के लोगों के इस स्वभाव को आसाराम समझ नहीं रहे हैं। उन्हें अपने अनुयायियों की संख्या पर भ्रमपूर्ण घमंड है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि अन्ना कहां से कहां आ गए हैं और उनके अनुयायी कहां चले गये हैं।

रही बात राजनीति की तो आसाराम राजनीति से भी बाज नहीं आते। हो सकता है कि अनुयायियों की संख्या की बात का जिक्र करके वे राजनीतिक व्यवस्था भी इसलिए धमकाते रहते हो ताकि उनके काम में अड़चन डालने से कोई जरूरत न करे। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र के अनुयायियों की संख्या के बल पर ही बनी होती है। हालांकि आसाराम ने राजनीतिकों पर मखौल जैसी टिप्पणीयां करके एक कवच बनाने की कोशिश की थी। यानि उन्होंने आम तौर पर की जाने वाली प्रेपबद्धी की थी। अभी कुछ महीनों पहले उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसी खिल्लियां इसलिए उड़ायी जाती हैं कि अगर कानूनी तौर पर आसाराम जैसे लोगो पर कोई कार्यवाही हो तो कहा जा सके ये तो बदले की कार्यवाही है। खैर यह कोई नयी या बड़ी बात नहीं है।
 
नयी बात यह है आसाराम कांड ने उन जैसे तमाम बाबाओं को बेचैन कर दिया है। और शायद इसलिए दूसरे ऐसे बाबाओं का धु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। वरना साम्प्रदायिकता, धर्म या आस्था जैसे मामलों में प्रभावित पक्ष एक दम इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन आसाराम कांड के मामले में वे आसाराम से बचते नजर आ रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि आसाराम कांड को लेकर विज्ञाननिष्ठ और अंधविश्वास विरोधी शक्तियां काफी मजबूती से अपना पक्ष रखती नजर आ रही हैं। इसे सामाजिक व्यवस्था के लिए शुभ लक्षण माना जाना चाहिए। लेकिन वहां भी दिक्कत यह है कि तर्कशास्त्री अभी कोई अकादमिक पाक्य नही बना पाये है जो अंधविश्वास पर सीधे चोट कर सके और आम आदमी को आसानी से बता सके कि चमत्कार या इन्द्रीअतीत शक्तियों की बातों से वै कैसे ठगे जाते है या आम जन के जीवन पर कैसा बुरा प्रभाव पडता है। ये सारी बाते भले ही हमे साफ साफ न दिखती हो लेकिन इतना तो हो ही गया है कि अब समाज प्रतिवाद के लिए तैयार हो गया है बस अब जरूरत है ऐसे मामलों मे एक सार्थक संवाद की है।

Monday, August 19, 2013

संसद में अराजकता का जिम्मेदार कौन

 
देश के प्रतिष्ठित मीडिया हाउस हिन्दू ने पिछले दिनों टी.वी. पर जनहित में एक विज्ञापन प्रसारित किया। जिसमें एक शिक्षिका कक्षा में आकर विद्यर्थियों से कहती है कि आज हम संसद की कार्यवाही का अभिनय करेंगे। कक्षा में बायीं ओर बैठे छात्र सत्ता पक्ष के हंै और दायीं ओर बैठे छात्र विपक्ष के। सत्ता पक्ष में से एक उन्होंने प्रधानमंत्री बनाकर चर्चा शुरू करने का आदेश दिया। आदेश मिलते ही कक्षा में ज्योमेट्री बाक्स, पानी की बोतलें, कागज की गेंदें, चप्पल, जूते और कुर्सी एक दूसरे पर फेंके जाने लगे। विज्ञापन यहीं समाप्त हो गया, इस संदेश के साथ कि ‘सावधान देश आपको देख रहा है’। दरअसल देश की संसद और विधान सभाओं में यह दृश्य आम हो गया है जब हमारे कानून निर्माता ऐसा ही व्यवहार करते हैं, तो फिर बच्चों ने अभिनय में क्या गलती की?
पिछले दिनों राज्य सभा के सभापति ने उच्च सदन में सांसदों के ऐसे ही व्यवहार से क्षुब्ध होकर कहा कि क्या आप इसे ‘आराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं। इस पर सांसद काफी नाराज हो गये और अध्यक्ष के विरोध में स्वर गूंजने लगे। यहाँ तक कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसद एक सुर में बोल रहे थे। अगले दिन डा. हामिद अंसारी ने सांसदों को इस मुद्दे पर बातचीत करने की इजाजत दी और उनसे प्रश्न किया कि वे बतायें कि बार-बार संसद की कार्यवाही स्थगित क्यों करनी पड़ती है। जिसके बाद बडे शान्त वातावरण में सभी सांसदों में गम्भीर चर्चा की। सांसदों का कहना था कि ऐसी शब्दावली का प्रयोग करके अध्यक्ष ने सांसदों का अपमान किया है। उनके अनुसार अराजकता असमाजिक व्यवहार का परिचायक है। सबकी ओर से संसदीय राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने इस वार्तालाप को संसद की कार्यवाही से अलग करने की प्रार्थना अध्यक्ष महोदय से की।
दूसरी तरफ अध्यक्ष महोदय ने सांसदों को बताया कि कई देशों में ‘फेडरेशन आफ अनार्किस्ट’ बाकायदा औपचारिक संगठन हैं। लेकिन यह सही है कि भारत में इस शब्द का अर्थ असामाजिक व्यवहार ही माना जाता है। इस पूरे घटना क्रम से एक लाभ हुआ। संसद में और विधान सभाओं में बार-बार आने वाले व्यवधानों पर गम्भीर चर्चा शुरू हो गयी। इस चर्चा को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। वैसे तो संसदीय मर्यादा के व्यापक नियम हैं। पर जब हालात इतने बेकाबू हो जाये तो शायद बारीक कानूनों की जरूरत पड़ती है। मसलन संसद की कार्यवाही के दौरान कोई बिना अनुमति के खड़ा नहीं होगा। बोलेगा नहीं। दो सांसद आपस में खुसुर - पुसुर भी नहीं करेंगे। अगर बात करनी होगी तो सदन के बाहर जाकर करेंगे। देखने में यह कानून बड़े बचकाने लगेंगे मानो स्कूल के बच्चों के लिये बनाये जा रहे हों। पर जब हमारे सांसदों का व्यवहार ऐसा हो कि स्कूल के बच्चे उसका उपहास उड़ाये तो फिर वाकई बारीक कानूनों की शरण लेनी पड़ेगी।
जब ऐसी आचार संहिता को बनाने की बात आयेगी तो जाहिरन बहस लम्बी चलेंगी। कानून के बारे में कहा जाता है कि वकील ही उसकी व्याख्या करते हैं। हम जानते हैं कि वकील उसकी व्याख्या से कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं यानी एक ही कानून की व्याख्या कई तरह से हो सकती है। इसलिये संसद की आचार संहिता के प्रावधानों को अगर इतनी बारीकी तक ले जाना होगा तो भाषा के चयन पर भी काफी वक्त लगेगा। क्योंकि फिर जो उपनियम बनेंगे उन पर भी विमर्श का सिलसिला चालू हो जायेगा। इसलिये यह काम बड़ी सावधानी और धीरज के साथ करना होगा।
सोचने वाली बात यह है कि जब हमारे सांसद पढ़े-लिखे और समझदार हैं और व्यक्तिगत जीवन में बड़ी शालीनता से दूसरे दलों के सांसदों से व्यवहार करते हैं तो सत्र के दौरान यह अराजकता क्यों? क्या इसके लिये हमारी जनता भी जिम्मेदार है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जनता ही अपने सांसदों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा रखती हो और उनके उत्तेजक भाषणों पर वैसे ही ताली बजाती हो जैसे सलीम जावेद के लिखे डायलाग सुनकर बजाती है। फिर तो इस आचरण के लिये जनता को ही जिम्मेदार ठहराना होगा। अगर वो ऐसा आचरण करने वाले सांसद के व्यवहार से खुश नहीं है तो उसे बार-बार चुनकर संसद में क्यों भेजती है? उसका परित्याग क्यों नहीं करती? फिर तो यह माना जायेगा कि सांसद वही करते हैं जो उनके मतदाता उनके अपेक्षा करते हैं। इसलिये यह गम्भीर प्रश्न है, जिस पर लम्बी और गहरी चर्चा होनी चाहिये। हम अपने कानून के मन्दिरों को इस तरह निरर्थक बयान बाजी की भेंट चढ़ाकर देश की जनता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

चिन्ता की बात यह है कि भारत ही नहीं अब और भी देशों में सांसदों का ऐसा व्यवहार दिखाई देने लगा है। क्या यह माना जाये कि यह छूत की बीमारी उन्हें भारत से लगी है या यह माना जाये कि दुनिया के लोकतंत्रों में अब बातचीत नहीं शोर-शराबा और हंगामा ही लोगों का भविष्य निर्धारित करेगा। अगर ऐसा है तो यह सबके लिये चिन्ता का विषय होना चाहिये।

Monday, August 12, 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में अखिलेश यादव ने नया क्या किया?

देश का मीडिया, उ.प्र. के विपक्षी दल, आई.ए.एस. आफिसर्स एसोसिएशन के सदस्य और कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन को लेकर काफी उत्तेजित हैं और उ.प्र. के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं दुर्गा शक्ति नागपाल ने कोई बयान न देकर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। पर इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया जो आजाद भारत के इतिहास में अन्य प्रान्तों के मुख्यमंत्री आज तक न करते आये हों। दरअसल ऐसी दुर्घटनायें इस नौकरी में नये आये उन लोगों के साथ होती हैं जो इस नौकरी के मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। आई.ए.एस. का गठन न तो भारत के आम लोगों का विकास करने के लिये हुआ था और न ही शासन के शिंकजे से स्वतंत्र रहकर पूरी निष्पक्षता से प्रशासन करने के लिये। अंग्रेज शासन ने लोहे का ढ़ांचा मानी जाने वाली आई.ए.एस. का गठन आम जनता से राजस्व वसूलने और उसे दबाकर अपनी सत्ता कायम रखने के लिये किया था। आजादी के बाद इसके दायित्वों में तो भारी विस्तार हुआ पर अपनी इस औपनिवेशिक मानसिकता से यह नौकरी कभी बाहर नहीं निकल पाई। आज भी आई.ए.एस. के अधिकारी राजनैतिक आकाओं के एजेन्ट का काम करते हैं। जिले में तैनाती ही उनकी होती है जो प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का हित साधने का अलिखित आश्वासन देते हैं। ऐसा न करने वालों को प्रायः गैर चमकदार पदों पर भेज दिया जाता है। इसलिये आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी न तो स्वतंत्र चिन्तन करते हैं और न ही स्वतंत्र फैसले लेते हैं। उन्हें पता है कि ऐसा करने पर वे महत्वपूर्ण पद खो सकते हैं। बिरले ही होते हैं जो समाज की सेवा और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा के अपने दायित्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। ज्यादातर अधिकारी अपनी नौकरी के कार्यकाल में किसी न किसी पक्ष की पूंछ पकड़ लेते हैं। इससे उन्हें कभी बहुत लाभ का और कभी सामान्य जीवन जीना पड़ता है।

यही कारण है कि आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी पूरी जिन्दगी लकीर पीटते रह जाते हैं। न तो कुछ उल्लेखनीय कर पाते हैं और न ही समाज को उसका हक दिला पाते हैं। इस नौकरी में आते ही यह बात प्रशिक्षण के दौरान दिमाग में बैठा दी जाती है कि तुम समाज की क्रीम हो। क्रीम तो दूध के ऊपर तैरती है, कभी भी नीचे के दूध के साथ घुलती-मिलती नहीं। इसके साथ ही इस नौकरी में यह बताया जाता है कि तुम्हारा काम अपने राजनैतिक आकाओं के इरादों के अनुसार व्यवहार करना है। जो युवा यह बात नौकरी के प्रारम्भ में समझ लेते हैं वे बिना किसी झंझट के अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। पर जो दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व है और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं वे अपनी नौकरी को शुरू के वर्षों में तो कभी-कभी मीडिया की चर्चाओं में आ जाते हैं। मध्यमवर्गीय समाज के हीरों बन जाते हैं। पर बाद के वर्षों में उनमें से ज्यादातर परिस्थिति को समझकर या तो मौन हो जाते हैं या समझौते कर बैठते हैं।

उधर प्रोफेसर रामगोपाल यादव व अखिलेश यादव का यह कहना कि केन्द्र चाहे तो आई.ए.एस. के अधिकारियों को उ.प्र. से वापिस बुला सकता है। उनकी सरकार बिना इन अधिकारियों के भी चल जायेगी, लोगों को बहुत नागवार गुजरा है। इस पर मीडिया में तीखे बयान और टिप्पणियाँ आये हैं। पर सपा नेताओं के बयान इतने गैर जिम्मेदाराना नहीं कि इन्हें मजाक में दरकिनार कर दिया जाये। हमारा अनुभव बताता है और अनेक आकादमिक अध्ययनों में बार-बार यह सिद्ध किया है कि आई.ए.एस. ने देश को काहिल और निकम्मा बनाने का काम किया है। अनावश्यक अहंकार, फिजूलखर्र्ची, श्रेष्ठ विचारों और सुझावों की उपेक्षा कर अपने गैर व्यावहारिक विचारों को थोपना और बिना जनता के प्रति उत्तरदायी बनें उसके संसाधनों की बर्बादी करना इस नौकरी से जुड़े लोगों का ट्रैक रिकार्ड रहा है। अपवाद यहाँ भी है पर इस बारे में कोई मुगालता नहीं कि अगर इस नौकरी से जुड़े लोग ईमानदारी, निष्पक्षता, मितव्यता, संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से आचरण करते तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जाता। जनता राजनेताओं को हर बीमारी की जड़ बताकर कठघरे में खड़ा कर देती है, जबकि विद्वान लोगों का मानना है कि राजनेताओं को भी बिगाड़ने का काम भी इसी जमात ने किया है। इसलिये इस पूरी नौकरी के औचित्य, चयन और प्रशिक्षण पर देश में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।

Monday, August 5, 2013

छोटे राज्यों की कवायद

दशकों से उठ रही तेलांगना की मांग आखिर सरकार ने मान ली। पर इसके साथ ही एक नया हंगामा देश भर में खड़ा हो गया है। गोरखालैण्ड, हरितप्रदेश, पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड, विदर्भ जैसे तमाम छोटे राज्यों की मांग अब जोर पकड़ने लगी है। छोटे राज्यों के पक्ष और विपक्ष दोनों में काफी तर्क हैं। छोटा राज्य प्रशासनिक दृष्टि से संभालना आसान होता है। अब उत्तर-प्रदेश को लें तो गाजियाबाद में रहने वाले को आजमगढ़ के रहने वाले से क्या व्यवहार हो सकता है। राज्य की कल्पना, भाषा और संस्कृति की समरूपता के आधार पर होती है तो उसकी एक पहचान बनती है। गुजरात को महाराष्ट्र से और आंध्रप्रदेश को तमिलनाडु से अलग करने का ऐसा ही आधार था।
दरअसल छोटे राज्यों में योजनाओं को जनआधारित बनाना सरल होता है। जनता की शासन तक पहुँच और पकड़ भी ज्यादा प्रभावी होती है। क्षेत्रवाद और जातिवाद के चलते होने वाली विषमतायें कम होने की संभावना रहती है। पर सवाल है कि क्या केवल छोटे राज्य की इच्छा मात्र कर लेने से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य उतना बड़ा बने जितना उसकी आर्थिक सामथ्र्य हो। अगर कोई राज्य अपने आर्थिक संसाधनों पर निर्भर रहकर जी सकता है और आगे बढ़ सकता है तो उसे बनाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये। पर अगर राज्य का निर्माण तो हो जाये लेकिन उसके प्रशासनिक और विकासात्मक खर्चों की कोई व्यवस्था न हो। इन खर्चों के लिये उस राज्य को केन्द्र पर निर्भर रहना पड़े तो यह कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं होगा। एक राज्य का निर्माण मतलब उस क्षेत्र पर अचानक भारी प्रशासनिक खर्चों का दबाव। राज्य बनेगा तो राजधानी बनेगी। जिसमें सचिवालय, विधान सभा, उच्चन्यायालय और तमाम प्रशासनिक भवन बनाये जायेंगे। जिसमें लाखों करोड़ रुपया खर्चा आयेगा। अगर वह क्षेत्र पहले से ही आर्थिक रूप से अविकसित है तो इस अनावश्यक बोझ से उसके भावी विकास की संभवना भी धूमिल पड़ जायेगी।

जहाँ तक बात है कि छोटे राज्यों से विकास ज्यादा अच्छा होता है। तो यह कोई शाश्वत सत्य नहीं। खनिज सम्पदा से भरपूर झारखण्ड राज्य भ्रष्टाचार के कारण तबाह हो रहा है। वहाँ जितनी भी सरकारें बनी सब पर खनिज सम्पदा की भारी लूट के आरोप लगे हैं। अब अगर राज्य के संसाधनों की ऐसी खुली लूट होनी है तो बिहार के साथ जब झारखण्ड था तब क्या बुरा था? इसलिये यह तर्क दिया जाता है कि अगर राज्य की सरकार और उसकी नौकरशाही ईमानदार है, जनोन्मुख नीतियाँ बनाती है और नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह निष्ठा से करती है तो बड़ा राज्य भी अपने सभी क्षेत्रों का ध्यान रख सकता है। किन्तु छोटा राज्य बने पर उसकी भ्रष्ट सरकार और भ्रष्ट नौकरशाही हो तो ऐसे छोटे राज्य का क्या लाभ?
दरअसल हमारे देश में जो भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर जगह-जगह असन्तोष और जनआन्दोलन खड़े हो रहे हैं, इनके मूल में है हमारे विकास का मॉडल। हम योजनायें तो बहुत बनाते हैं। लोगों को सपने भी बहुत दिखाते हैं। सफल लोकतंत्र होने का दावा भी करते हैं। हमारे चुनावों में केन्द्र और प्रान्त की सरकारें बिना खूनी क्रान्ति के बदल जाती हैं। पर लोगों की हालत नहीं बदलती। सरकार किसी भी बदल की आ जाये नौकरशाही उस पर हावी रहती है। योजनायें जनता को सुख पहुँचाने के लिये नहीं बल्कि कमीशन का प्रतिशत बढ़ाने के लिये बनायी जाती है। इसलिये कुछ नहीं बदलता! लोगों में असन्तोष बढ़ता है तो स्थानीय नेता उनका नेतृत्व पकड़ लेते हैं। फिर उन्हें राहत दिलाने के नाम पर सपनों के सब्जबाग दिखाते हैं। जनता बहकावे में आकर उनके पीछे चल पड़ती है। इस उम्मीद में कि कहीं से कुछ तो राहत मिले। पर जब इन नेताओं को परखने का समय आता है तो पता चलता है कि नई बोतल में पुरानी शराब ही थी। फिर निराशा हाथ लगती है। इसलिये जरूरत इस बात की है कि छोटे राज्यों की मांग पर अपनी ऊर्जा खर्च करने की बजाय देश के जागरूक नागरिक व्यवस्था पारदर्शी और जिम्मेदार बनाने की कोशिश करें। पिछले वर्ष टीम अन्ना ने एक कोशिश की थी पर वह अपने उद्देश्य से भटक गई। जबकि ऐसे आन्दोलन को देश भर में लगातार चलाकर दबाव बनाने की जरूरत है।
 
कोई कानून या कोई नई सरकार ऐसा जादू नहीं कर सकती जो मौजूदा व्यवस्था में सम्भव न हो। इसलिये मौजूद निजाम को ही ठीक ढ़र्रे पर लाने की जरूरत है। होता यह है कि हर आन्दोलन अच्छे मकसद से शुरू होता है। पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें और अहम् के टकराव उसे दिशा विहीन कर देते हैं। हर बार आम जनता छली जाती है। इसलिये आसानी से वह किसी आन्दोलन के उद्देश्यों पर यकीन नहीं करती। इस विषम चक्र को भी तोड़ने की जरूरत है। कुछ लोग तो ऐसे हों जो अपने उसूलों पर चलते हुये लगातार जनता को आगाह और जागरूक करते रहें।