Monday, February 25, 2013

महाकुम्भ की व्यवस्था सराहनीय

इलाहाबाद का कुम्भ अब अपने अंतिम दौर में है। इस बार कुम्भ की व्यवस्थाओं को लेकर हर ओर उ0प्र0 शासन की वाहवाही हो रही है। हालांकि भाजपा नेता डा0 मुरली मनोहर जोशी ने कुम्भ के लिए केन्द्र सरकार से मिले सैंकड़ों करोड़ के अनुदान के दुरूपयोग की जांच का मुद्दा उठाया है। इतने बड़े आयोजन में इस तरह का आरोप लगना कोई असामान्य बात नहीं है। अगर घोटाला हुआ होगा तो जांच भी होगी और जांच होगी तो कुछ तथ्य बाहर भी आयेंगे। अभी हम उस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते।
व्यवस्था में खामियां देखने की आदत वाले लोग चाहें विपक्ष में हों या मीडिया में, सबने एक सुर से इलाहाबाद कुम्भ के आयोजन की खूब तारीफ की है। मौनी अमावस्या को रेलवे स्टेशन पर हुए हादसे को अगर एक अप्रत्याशित दुःखद घटना माना जाऐ तो बाकी सब मामलों में कुम्भ मेला अब तक पूरी तरह सफल रहा है। उ0प्र0 सरकार का आरोप है कि रेलवे स्टेशन का हादसा रेल मंत्रालय की लापरवाही से हुआ, जबकि रेल मंत्रालय इसके लिए मेला प्रशासन को जिम्मेदार ठहराता है। इसके अलावा कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई जहाँ जान और माल की हानि हुई हो। यह तारीफ की बात है। वरना करोड़ों लोगों के जमावाड़े को अनुशासित और नियन्त्रित रखना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। जिसके लिए मेला प्रभारी आजम खान, उ0प्र0 के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उ0प्र0 के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी विशेषरूप से बधाई के पात्र हैं। जिन्होंने रात-दिन बड़ी तत्परता से अपने अफसरों की टीम को निर्देश दिये और उनके काम पर निगरानी रखी।
इससे यह सिद्ध होता है कि कोई भी आयोजन क्यों न हो, अगर आयोजक कमर कस लें और संभावित समस्याओं के हल पहले ही ढूंड लें, तो इन सामाजिक उत्सवों और मेलों में कोई अप्रिय हादसे होए ही न। इसके लिए जरूरत होती है ऐसे अफसरों की टीम की, जिसे इस तरह के आयोजन का पूर्व अनुभव हो। जरूरत होती है ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था की जो निर्बाध गति से चलता रहे। इसके साथ ही जरूरत होती है ऐसी एजेंसियों की जो मेलों में जमा होने वाले कूड़े-करकट और गन्दगी को आनन-फानन में साफ कर दे ताकि वहाँ गन्दगी न फैले और बीमारी फैलने की संभावना न रहे। इसके साथ ही शहर में जब करोड़ों लोग बाहर से आते हैं, तो फल सब्जी, दूध, राशन आदि की मांग अचानक हजारों गुना बढ़ जाती है। ऐसे में दुकानदार दाम बढ़ाकर तीर्थयात्रियों को निचोड़ने में कसर नहीं रखते। पर इतने बड़े आयोजन के बावजूद इलाहाबाद के कुम्भ के कारण इलाहाबाद शहर में कहीं कोई अभाव नहीं रहा और दाम भी बाजिव रहे।  इन सब मामलो में इस बार के कुंभ की व्यवस्थाओं की काफी तारीफ हुई है।
जहाँ एक तरफ प्रशासन ने कुम्भ मेले के आयोजन में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं देश के नामी मठाधीशों ने अपने-अपने सम्प्रदाय के अखाड़े गाढ़कर कुंभ को काफी रंग-बिरंगा बना दिया। कुछ अखाड़े तो पाँच सितारा होटलों को भी मात कर रहे हैं। जहाँ सबसे ज्यादा विदेशी और अप्रवासी आकर ठहर रहे हैं। इतने विशाल आयोजन में बच्चों के अपहरण और महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार की काफी संभावना रहती है। लेकिन उ0प्र0 पुलिस की मुस्तैदी से ऐसी घटनाओं की यहाँ झलक देखने को नहीं मिली।
पिछले बारह सालों में देश का टी.वी. मीडिया कई गुना बढ़ गया है। इसलिए इस बार का विशेष आकर्षण यह रहा कि पचासों चैनलों ने रात-दिन इलाहाबाद कुम्भ के हर पल को खूब विस्तार से प्रस्तुत किया। इसका असर यह हुआ कि सीमांत भावना वाले वे लोग जो प्रायः ऐसे धार्मिक मेले उत्सवों में जाने से घबराते हैं, बड़ी तादाद में इलाहाबाद कुम्भ नहाने पहुँचे। खासकर युवाओं में इसका भारी क्रेज देखा गया। देश के कोने-कोने से युवा व अन्य लोग संगम पर डुबकी लगाने आये।
यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि देश के मन्दिरों व अन्य तीर्थस्थलों पर मेलों और पर्वों के समय बदइंतजामी के कारण अक्सर बड़ी-बड़ी दुर्घटनाऐं होती रहती हैं, जिनमें सैंकड़ों जाने चली जाती हैं। पर फिर भी स्थानीय प्रशासन कोई सबक नहीं सीखता। जिस तरह भारत सरकार ने आपदा प्रबन्धन बोर्ड़ बनाया है उसी तरह देश को एक उत्सव प्रबन्धन बोर्ड की भी जरूरत है। जिसमें ऐसे योग्य और अनुभवी अधिकारी विभिन्न राज्यों से बुलाकर तैनात किये जायें। यह बोर्ड मेले आयोजनों की आचार संहिता तैयार करें और कुछ मानक स्थापित करें। जिनकी अनुपालना करना हर जिले व राज्य में अनिवार्य किया जाये। इससे न सिर्फ हादसे होने से बचेंगे, बल्कि पूरे देश में उत्सवों के प्रबन्धन की कार्यक्षमता में गुणात्मक सुधार आयेगा। इसके साथ ही ऐसी परिस्थितियों में राज्य सरकारों को अनुभवहीन अधिकारियों के निर्णयों पर निर्भर रहना नहीं पड़ेगा। उनके पास हमेशा कुशल और अनुभवी सलाह मौजूद रहेगी। इसके साथ ही मेलों के आयोजन में काम आने वाले ढांचों को स्थायी, फोल्डिंग और व्यवहारिक बनाने की जरूरत है। जिससे साधनों का दुरूपयोग बचे और हर मेले के आयोजन में एक सुघड़ता दिखाई दे। फिलहाल इलाहाबाद कुंभ में भारी मात्रा में बांस, बल्ली और रस्सी का सहारा लिया गया है। जबकि इस सबके लिए प्री-फैब्रिकेटेड ढांचे तैयार किये जा सकते थे। कई दशकों से गणतंत्र दिवस की परेड की तैयार ऐसे ही बांस, बल्ली गाढ़कर की जाती थी। पर पिछले कुछ वर्षों से इसमें गुणात्मक परिवर्तन आया है। अब राजपथ पर लगने वाले स्टॉल प्री-फैब्रिकेटेड होते हैं। वे जल्दी लगते हैं। टिकाऊ और मजबूत होते हैं और जल्दी ही उन्हें समेटा जा सकता है। इससे पैसे की भी भारी बचत होगी।

Monday, February 18, 2013

अपनों ने मारा पोंटी को?

 
पोंटी चढ्डा और उनके भाई हरदीप चढ्डा के दोहरे हत्याकांड के लिए पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया है। जिनके अनुसार इन दोनों भाईयों की हत्या उनके अपने ही लोगों ने की है। जिनमें उनके विश्वसनीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों का नाम प्रमुखता से लिया गया है। यह बिल्कुल बॉलीवुड फिल्म की तरह की कहानी है। मुरादाबाद में चढ्डा परिवार ने अपनी कारोबारी जिन्दगी शुरू की, यह बात सन् 1967-68 के दौरान की होगी। हम भी उसी शहर में रहते थे। हम इस परिवार के बारे में जानते थे। मुरादाबाद के रामपुर रोड पर तब पोंटी चढ्डा के पिता ने अपनी पहली शराब की दुकान खोली थी। उसके कुछ दिन बाद चढ्डा टॉकिज के नाम से सिनेमाहॉल भी खोला। फिर ये शराब के कारोबार में घुस गये। देखते ही देखते पंजाब, हरियाणा, उ0प्र0, उत्तराखण्ड में इनका शराब का भारी कारोबार फैल गया। हाल के वर्षों में तो यह बात हर आदमी जानता था कि बसपा की सरकार हो या सपा की, पोंटी चढ्डा इन दोनों ही सरकारों के साथ हजारों करोड़ के कारोबार में शामिल था।
पर अंत में क्या मिला? जिस वैभव को जमा करने के लिए इस खानदान ने धरती और आकाश एक कर दिया, उसे भोगने से पहले इस खानदान के दो स्तंभ धराशायी हो गये। ऐसी कहानियां धर्म ग्रंथों से लेकर फिल्मों में बार-बार दोहराई जाती हैं। पर फिर भी हमें कोई सबक नहीं मिलता। बिना मेहनत किये अगर आसानी से हम धन, सम्पत्ति को दिन दूना और रात चैगुना करने का मौका मिले तो हममें से शायद बहुत कम होंगे जो इस लोभ से बच पायेंगे। आज की दुनिया का माहौल ऐसा बन गया है कि जिसके पास दौलत है, उसकी तूती बोलती है। फिर चाहें वो राजनीति में हो, उद्योग व्यापार में हो, धन के कारोबार में हो, नौकरशाही में हो या फिर मीडिया में। कोई नहीं पूछता कि तुमने इतना धन कैसे और कहां से कमाया? पैसे से समाज के लिए वे आदर्श समाप्त होते जा रहे हैं, जो कभी ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ की प्रेरणा दिया करते थे। इसलिए चारों तरफ होड़ लगी है, किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की। नैतिकता, समाज की संवेदनशीलता और समाज में अपनी छवि की परवाह किये बिना आदमी आगे बड़ रहा है। पहले एक हाजी मस्तान का नाम ऐसे उदाहरण के तौर पर लिया जाता था। आज हर शहर में हाजी मस्तानों की कतार लग गयी है। इसका सबसे ज्यादा बुरा असर नौजवानों पर पड़ रहा है। ये नये पनपते हाजी मस्तान अपने कारोबार में इन नौजवानों को प्रलोभन देकर खींच लेते हैं। फिर इनसे हर वो अवैध काम करवाते हैं जिसमें कभी भी पकड़े जाने या मारे जाने का खतरा होता है। इस तरह ये नौजवान अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। जिसका इनाम इनकी औकात से कई गुना ज्यादा मिलता है। शुरू में तो इनके घरवालों और परिजनों को आश्चर्य होता है कि अचानक उनका सपूत ऐसी मोटी कमाई किस धंधे में कर रहा है? पर जल्दी ही उसके रंग-ढंग से उन्हें संदेह होने लगता है। पर तब तक उन्हें भी मुफत की कमाई का मजा आने लगता है। इसलिए वे रोकते नहीं। एक दिन ऐसा भी आता है जब वही सपूत संगीन अपराध में पकड़ा जाता है या हत्या जैसे किसी जुर्म में शामिल होता है। पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों की भी ऐसी ही कहानी मिलेगी।
अब सवाल उठता है कि क्या पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों को सजा मिलने भर से समाज में ऐसे अपराधों के प्रति डर पैदा हो जायेगा? क्या इन लोगों को जल्दी सजा मिल पायेगी? क्या उस सजा से ऐसे अपराध होना बंद हो जायेंगे? उत्तर है, नहीं। तो फिर क्या किया जाये? अभी भारत की परिस्थितियां इतनी नहीं बिगड़ी हैं कि पानी सिर से गुजर जाये। छोटे कस्बों और देहातों का समाज अभी भी नैतिकता के मूल्यों से जुड़ा है। यह गंदगी तो महानगरीय संस्कृति के साथ उभरे उपभोक्तावाद ने पैदा की है। इसलिए पूरे देश के नेतृत्व को आत्ममंथन की जरूरत है।  अगर हम चाहते हैं कि समाज में शांति, नैतिकता और मेहनत के प्रति आस्था बनी रहे, तो हमें तेजी से पनप रही इन प्रवृत्तियों पर रोक लगानी होगी। अन्यथा हमारा समाज भी मैक्सिको के ड्रग माफिया जैसे नियन्त्रकों के हाथ में चला जायेगा और तब हम उसके सामने असहाय होंगे।
इसके लिए केवल सख्त कानून बनाने से ही काम नहीं चलेगा। मीडिया नीति भी बदलनी होगी। मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों की राय पर ध्यान देना होगा। धर्म गुरूओं को हीरे-जवाहरात और मुकुट मणियों के अलंकरण से मुक्त होकर गुरूनानक देव, कबीर और रैदास जैसे आचरण से समाज को सद्ज्ञान देना होगा। कुल मिलाकर समाज का हर वह व्यक्ति या वर्ग जो एशोआराम में डूबा है, उसे आत्ममंथन करना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ का ऐशोआराम बाकी समाज के लिए अभिशाप बन जाये।

Monday, February 11, 2013

अफजल गुरू को फांसी और मीडिया की भूमिका

आखिरकार भारतीय संसद के ऊपर हमले के आरोपी अफजल गुरू को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी। इस घटना की जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, वह नहीं फैली। हांलाकि टी0वी0 चैनलों ने इसकी पुरजोर कोशिश की। कारण यह कि मौहम्मद कसाब को मिली फांसी के बाद इस तरह की फांसी को लेकर लम्बे समय से चली आ रही उत्सुकता पहले ही खत्म हो चुकी थी। एक ही घटना पर बार-बार एक सी सनसनी नहीं पैदा की जा सकती। इसलिए जिन्होंने सोचा होगा कि इस तरह की फांसियों से अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग उत्तेजित होगा और बहुसंख्यक समुदाय का एक वर्ग इसका राजनैतिक लाभ उठायेगा, वे अपने मंसूबे में नाकामयाब रहे। क्योंकि दोनों ही वर्गों ने इसे एक अपराधी को मिलने वाली सामान्य सजा के रूप में लिया। कुछ राजनेताओं ने इसे देर से लिया गया सही निर्णय बताया। सही तो उन्हें इसलिए कहना पड़ा चूंकि वे इसकी मांग लम्बे समय से कर रहे थे। देर से लिया बताकर वे शायद सरकार की कमजोरी सिद्ध करना चाहते हैं। पर यह उनकी समझ की कमी है। अपराध का इतिहास बताता है कि फांसी से ज्यादा फांसी का डर आदमी को मार डालता है। मौहम्मद कसाब हो या अफजल गुरू, जब वे आतंकवादियों के षडयंत्र का हिस्सा बने, तो उनका दिमाग इस बात के लिए तैयार था कि घटना को अंजाम देते ही वे गोलियों का शिकार बन जाऐंगे। यानि वे मरने को तैयार थे। ऐसे में फौरन फांसी देकर कोई लाभ नहीं होता। उन्हें इतने समय तक जिंदा रखकर जो मानसिक यातना मिली होगी, उसने उन्हें हर पल मारा होगा। मरने के बाद तो आदमी को दुख और दर्द का कुछ पता ही नहीं चलता। पर मरने से पहले उसके दिल और दिमाग में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं, जो उसे बुरी तरह हिला देते हैं। इसके साथ ही उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार रखकर आतंकवादियों को यह संदेश दिया गया कि उनकी ऐसी गिरफ्तारी संभव है। इससे आतंकवाद का यह विषय लम्बे समय तक चर्चाओं में बना रहा। जिससे एक खास संदेश आतंकवादियों के बीच गया।
पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी कोई आतंकवादी या अण्डरवल्र्ड डान या कुख्यात अपराधी या डकैत मारा जाता है, तो मीडिया उसके मानवीय पक्षों को दिखाकर उसे नाहक शहादत देता है। इससे समाज का भारी अहित होता है। आतंकवादी घटनाऐं हों या माफिया आॅपरेशंस, इनका मकसद यही होता है कि सनसनी पैदा की जाये और उसकी चर्चा समाज में हो। ताकि लोगों में एक खौफ पैदा हो। इसलिए इस तरह के अपराधों से जुड़े लोग मीडिया के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। जिससे उन्हें यश मिले, चाहें वह अपयश ही क्यों न हो। फिर तो लोग उनके नाम से भी डरने लगते हैं। जब बन्दूक चलाये बिना फिरौती मिल जाये या रंगदारी मिल जाये तो बन्दूक चलाने की क्या जरूरत है। इसलिए मीडिया को इस विषय में आत्मचिंतन करना चाहिए। अफजल गुरू की फांसी के बाद जिस तरह के पुराने साक्षात्कार टी0वी0 चैनलों पर दिखाये गये, उससे नाहक अफजल गुरू के प्रति समाज के एक तबके का दिल जीतने की नाकाम कोशिश की गयी। इससे बचा जाये तो अच्छा है।
इस पूरे मामले में केन्द्रीय सरकार से एक भयंकर भूल हुई। जब उसके पास मौहम्मद कसाब जैसा अल्हड़, युवा, बेपढ़ालिखा, पाकिस्तानी आतंकवादी था और दूसरी तरफ अफजल गुरू जैसा पढ़ा-लिखा समझदार आतंकवादी था तो उसे इन दोनों के ऊपर अपराध शास्त्र विशेषज्ञों व मनोवैज्ञानिकों से गहन शोध करवाना चाहिए था। इससे आतंकवाद की मानसिकता को गहराई से समझने में सफलता मिलती। यह किसी से छुपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर अपराधशास्त्र के विशेषज्ञों से अभी तक कोई ठोस व उल्लेखनीय शोध नहीं करवाया गया है।
अफजल गुरू की फांसी का राजनैतिक लाभ किसी को मिलेगा या नहीं, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। पर इस बात की समझ जरूर विकसित होनी चाहिए कि आतंकवाद के सही कारण क्या हैं और क्या उनके निदान उपलब्ध हैं? अगर निदान उपलब्ध हैं तो उन्हें अपनाया क्यों नहीं जाता? ऐसे गंभीर विषयों पर समाज, संसद व मीडिया में लम्बी बहस की जरूरत है, जिससे हम इस समस्या से निजात पा सकें। पर देखने में यह आया है कि इन तीनों ही तबकों में इस तरह की कोई बात कभी नहीं होती। जहां होती है, वहां इकतरफा होती है। माक्र्सवादी विचारधारा के लोग आतंकवाद को आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम बताते हैं। धर्मांन्धता के चश्मे से समाज को देखने की आदत रखने वाले इसे जिहाद बताते हैं और स्वंय को राष्ट्रवादी बताने वाले इसे तुष्टीकरण का परिणाम बताते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जो व्यवहारिक धरातल पर खरे नहीं उतरते। उनसे केवल भावनाऐं भड़कायी जा सकती हैं। हिंसा पैदा की जा सकती है। प्रतिशोध की ज्वाला भड़कायी जा सकती है। पर आतंकवाद का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसलिए निष्पक्ष और गहन अध्ययन व लंबी बहस की बेहद जरूरत है।

Monday, February 4, 2013

राज्यों में मजबूत लोकपाल गठित करने कि जरूरत

सत्यव्रत चतुर्वेदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने जो प्रस्ताव सरकार को सौंपे, वे प्रशंसनीय हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लोकपाल के गठन और अधिकारों को लेकर जो कुछ इस समिति ने सुझाया है, वह काफी हद तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक मॉडल है, जिस पर संसद में आम सहमति होनी चाहिए। जहाँ तक लोकपाल के अधिकारों की बात है, उसे केवल मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। अन्यथा उसका कार्यक्षेत्र इतना बढ़ जाऐगा कि लोकपाल एक कागजी शेर बनकर रह जाऐगा। इतना ही नहीं अगर सरकार के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अधीन किया जाता है, तो इसे कम से कम 6 लाख जांच अधिकारियों को नियुक्त करना पड़ेगा। जिनका चयन, उनकी ईमानदारी की परीक्षा और उनको दिए जाने वाला वेतन, यह इतने जटिल सवाल हैं कि इनका हल असंभव है। इसलिए टीम अन्ना की यह मांग उचित नहीं। पर टीम अन्ना की इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए कि अगर उच्च पदासीन मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच के बाद लोकपाल को उनके विरूद्ध भ्रष्टाचार के समुचित प्रमाण मिलते हैं तो इन लोगों को मिलने वाली सजा के अलावा इनकी अवैध सम्पत्ति जब्त करने का अधिकार लोकपाल को मिलना चाहिए। तभी भ्रष्टाचारियों के मन में भय पैदा होगा।
लोकपाल और सीबीआई के संबन्धों पर जो सुझाव इस समिति ने दिए हैं, वे निश्चित रूप से एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं, जिनका परीक्षण किया जाना चाहिए। अगर परिणाम उत्साहजनक आते हैं, तो इस दिशा में और भी प्रगति की जा सकती है। जहाँ तक सीबीआई को पूरी स्वायत्तता देने की बात है, ऐसा किसी भी दल की कोई सरकार कभी नहीं मानेगी। लेकिन सीबीआई को सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किया जाना चाहिए। अभी सीवीसी को केवल सीबीआई के कामकाज पर निगरानी रखने का अधिकार मिला है, जो नाकाफी है। सीबीआई अभी भी सरकार के सीधे आधीन है। सीबीआइ और सीवीसी दोनों को ही वित्तीय स्वायत्तता नहीं है। इसलिए वे सरकार के रहमो करम पर निर्भर रहती हैं। जब तक इन्हें वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिलेगी, तब तक सरकार में बैठे अफसर चाहें जब इनकी कलाई मरोड़ते रहेंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल और सीवीसी के बीच कार्य का विभाजन किस तरह हो? जैसा कि हम शुरू से कहते आए हैं कि आदर्श स्थिति तो यह है कि लोकपाल केवल मंत्रियों और विधायिका के सदस्यों के भ्रष्ट आचरण की जांच करे और सीवीसी उच्च अधिकारियों से लेकर मझले स्तर तक के अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जांच करे। इस तरह दोनों के कार्यक्षेत्र स्पष्टतः विभाजित रहेंगे। सी0बी0आई0 को इन दोनों ही संस्थाओं के आदेशानुसार मामला दर्ज करने, जांच करने, समय-समय पर जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के प्रावधान किये जाऐं। जिससे लोकपाल व सी0वी0सी0 अपने-अपने कार्यक्षेत्र में मिलने वाली शिकायतों के अनुरूप सीबीआई को समुचित दिशानिर्देश दे सकें। इसके साथ ही लोकपाल की चयन समिति को ही सीवीसी के सदस्यों का भी चयन करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, स्पीकर लोकसभा व भारत के मुख्य न्यायाधीश मिलकर लोकपाल और सीवीसी के सदस्यों का चयन करें। एक लोकतांत्रिक देश में इससे अच्छी परंपरा और क्या हो सकती है। हां, इसमें एक सुधार अवश्य करना चाहिए। जिन व्यक्तियों का भी नाम इस समिति के संज्ञान में चयन के लिए लाया जाता है, उन व्यक्तियों के नाम और क्रियाकलापों की सूची लोकपाल और सीवीसी की वेबसाइट पर डाली जाऐं और देश की जनता को यह न्यौता दिया जाए कि वह अगले निर्धारित समय सीमा के भीतर इन व्यक्तियों में से यदि किसी के विरूद्ध भी भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण के कोई प्रमाण हों, तो  चयन समिति के सामने प्रस्तुत करें। इससे चयन प्रक्रिया में और भी पारदर्शिता आयेगी। कम से कम उन लोगों के नाम तो कभी भी विचारार्थ नहीं आयेंगे, जिनके आचरण पर पहले कभी कोई विवाद उठ चुका है।
इस पूरी लड़ाई में जो असली मुद्दा खो रहा है, वह है आम जनता के सामने हर दिन आने वाले भ्रष्टाचार जनित संकट। राशन की दुकान, थाना बिजली, अस्पताल, परिवहन व स्थानीय प्रशासन, ये ऐसे विभाग हैं जिनसे आम जनता का रोज नाता पड़ता है। इन्हीं के भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा दुखी है। लोकपाल बने या न बने, आम लोगों को कोई राहत मिलने वाली नहीं। उसके लिए तो लोकायुक्त ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि केन्द्र का लगभग सारा पैसा राज्यों को जाता है। इसलिए उस पैसे के इस्तेमाल पर कड़ी नजर रखना जरूरी है। पर चतुर्वेदी समिति की सिफारिशों में लोकायुक्त का चयन और उसके अधिकार तय करने का जिम्मा राज्य सरकारों पर टाल दिया गया है। जाहिर है ऐसा क्षेत्रीय दलों के दबाव के कारण किया गया है। क्योंकि पिछले सत्र में क्षेत्रीय दलों ने लोकायुक्त थोपे जाने का भारी विरोध किया था। लोकायुक्त के गठन के मौजूदा कानून के बावजूद गुजरात जैसे कई राज्यों ने लोकायुक्त के गठन में भारी कोताही बरती है। इसलिए देशवासियों को चाहिए कि वे अपने-अपने प्रांतों की सरकारों पर दबाव बनाकर प्रांतों में सशक्त लोकायुक्त के गठन को सुनिश्चित करें। जिससे उनके दैनिक जीवन में आने वाले अवरोधों के अपराधी पकड़े जा सकें।
अंत में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक, आर्थिक, मनौवैज्ञानिक व आपराधिक आचरण है। जिसका समाधान केवल कानून और लोकपाल जैसी संस्थाओं के गठन से कभी भी नहीं निकाला जा सकता, जब तक कि समाज खुद उठकर खड़ा न हो और अपने व सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध लगातार संघर्ष न करे।