Monday, March 25, 2013

आतंकवाद, संजय दत्त और हवाला कारोबार


दिल्ली की एक अदालत ने जैन हवाला काण्ड की 1991 में जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा को इस केस में टाडा नहीं लगाने की ऐवज में 10 लाख रूपये की रिश्वत लेने के आरोप में सजा सुनाई है। उधर टाडा के आरोपी संजय दत्त को सर्वोच्च न्यायालय से सजा सु
यहाँ इस घटना का उल्लेख करना इसलिए सार्थक है कि दोनों घटनाऐं एक ही वर्ष में एक साथ घटीं थीं। हवाला काण्ड का उजागर होना और संजय दत्त पर मुम्बई बम विस्फोट की साजिश में शामिल होने का आरोप लगना। दोनों मामलों में पैसा या हथियार का स्रोत दाउद इब्राहिम था। दोनों आतंकवाद की घटनाओं से जुड़े मामले थे। अंतर इतना है कि एक में एक फिल्मी सितारा आरोपित था, जिसे 20 वर्ष बाद ही सही, उसके आरोप के मुताबिक सजा मिल गयी। जबकि दूसरे मामले में केवल 5 वर्ष बाद, 1998 में ही हवाला काण्ड में आरोपित देश के 115 बड़े नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, विपक्ष के नेता और आला अफसर बाइज्जत बरी हो गए। सबसे ज्यादा चैंकाने और निराश करने वाली बात यह रही कि मेरी जनहित याचिका में हवाला काण्ड के आतंकवाद वाले पक्ष पर सी0बी0आई0 को निर्देशित कर निष्पक्ष जाँच कराने की जो प्रार्थना की गयी थी, उसे बड़ी होशियारी से दरकिनार कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई कर रहे, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे0एस0 वर्मा ने इस केस को प्रारम्भ में सबूतों से युक्त अभूतपूर्व बताते हुए भी बाद में इसे खारिज करवाने की शर्मनाक भूमिका निभाई।

यहाँ मैं संजय दत्त को मिली सजा से अपनी असहमति व्यक्त नहीं कर रहा, बल्कि यह दर्ज कराना चाहता हूँ कि 25 मार्च, 1991 को जब दिल्ली पुलिस ने हिज्बुल मुजाहिदीन के डिप्टी चीफ ऑफ इंटेलीजेंस अशफाक हुसेन लोन और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के छात्र शाहबुद्दीन गौरी को हिज्बुल मुजाहिदीन की मदद के लिए भेजे जा रहे लाखों रूपयों और बैंक ड्राफ्टों के साथ पकड़ा था, तब यह आतंकवाद का ही मामला दर्ज हुआ था। उसी क्रम में आगे छापे पड़े और 3 मई, 1991 को जैन बंधुओं के अवैध खाते पकड़े गये, जिसमें देश के सर्वोच्च सत्ताधीशों को मिले भुगतानों का विस्तृत ब्यौरा था। इसलिए यह टाडा, फेरा, भ्रष्टाचार निरोधक कानून व आयकर कानून के तहत मामला था। सी0बी0आई0 ने टाडा और फेरा के तहत इसे दर्ज भी किया। पर बाद में टाडा वाले पक्ष की उपेक्षा कर दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय में बार-बार इस बात को मेरे द्वारा शपथपत्रों के माध्यम से उठाने के बावजूद जे0एस0वर्मा ने परवाह नहीं की। इस सारे घटनाक्रम का सिलसिलेवार और तथ्यों सहित विवरण मेरी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में है। पिछले हफ्ते सी0बी0आई0 के पूर्व डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा पर दिल्ली की निचली अदालत ने इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही न करने का आरोप लगाकर सजा सुनाई है। जबकि ओ0पी0शर्मा की हवाला केस फाइल में दर्ज टिप्पणीयों में बार-बार आरोपियों को टाडा के तहत गिरफ्तार करने की सिफारिश की गयी थी। उधर 16 जून, 1991 के बाद से इस मामले की जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 आमोद कंठ ने अगले साढ़े चार साल तक भी इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही नहीं की। बावजूद इसके हवाला आरोपियों को बचाने की ऐवज में वे लगातार तरक्कीयां लेते गए और अरूणाचल के पुलिस महानिदेशक तक बने। अब यह मामला एक बार फिर दिल्ली उच्च न्यायालय में खुलेगा। कुल मिलाकर यह साफ है कि हवाला केस के टाडा पक्ष को जानबूझकर दबा दिया गया और आरोपियों को बचने के रास्ते दे दिए गए।

इस आपबीते अनुभव के बाद क्या मुझ जैसे पत्रकार और आम नागरिक को देश की सर्वोच्च अदालत से यह प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं है कि आतंकवाद से जुड़े दो मामलों में न्यायालयों के मापदण्ड अलग-अलग क्यों हैं? 1993 के बाद के उस दौर में ईमेल, एस.एम.एस. या टी.वी. चैनल तो थे नहीं, जो मैं अपनी बात मिनटों में ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ की तर्ज पर दुनिया के कोने-कोने में पहुँचा देता। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और 1993 से 1998 तक छात्रों, पत्रकारों, वकीलों व नागरिकों के निमन्त्रण पर देश के कोने-कोने में जाकर उन्हें सम्बोधित करता रहा और इस केस को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में अकेले एक लम्बी लड़ाई लड़ी।

1996 में जब देश के इतिहास में पहली बार इतने सारे ताकतवर लोग एक साथ चार्जशीट हुए तो पूरी दुनिया के मीडिया में हड़कम्प मच गया। दुनियाभर से हर भाषा के टी.वी. चैनलों ने दिल्ली आकर मेरे साक्षात्कार लिये और विश्वभर में प्रसारित किये और यह मामला पूरी दुनिया में मशहूर हो गया। फिर भी इन्हीं लोगों ने इस तरह साजिश रची कि न्यायमूर्ति वर्मा ने बड़ी आसानी से अपनी ही लाइन से यू-टर्न ले लिया। दिसम्बर, 1998 से तो एक-एक करके सब बरी होते गए और देश में प्रचारित कर दिया कि इस मामले में कोई सबूत नहीं हैं। मेरी पुस्तक पढ़ने वाले यह जानकर हतप्रभ रह जाते हैं कि इतने सारे टी.वी. चैनल देश में होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि जो तथ्य सप्रमाण इस पुस्तक में दिए गए हैं, वे इनकी जानकारी तक नहीं पहुँचे?

चार हफ्ते बाद संजय दत्त एक बार फिर जेल के सीखचों के पीछे होंगे और अगले साढ़े तीन वर्षों में अपनी गलती पर चिंतन करेंगे। पर न्यायपालिका के इस फैसले के बावजूद देश के आतंकवादियों को हवाला के जरिए आ रही आर्थिक मदद पर कोई रोक नहीं लगेगी। क्योंकि ऐसे तमाम मामले आज भी सी0बी0आई0 की कब्रगाह में दफन हैं। जबकि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमरीका ने हवाला कारोबार पर इतनी प्रभावी रोक लगाई है कि वहाँ आज तक दूसरी आतंकवादी घटना नहीं हुई।

नाई गयी है। सितम्बर, 1993 की बात है, मैं और मेरे सहयोगी मुम्बई के नरीमन प्वाइंट स्थित वकील राम जेठमलानी के चैम्बर में पहुँचे। वहाँ फिल्मी सितारे और इंका नेता सुनील दत्त और उनका युवा बेटा संजय दत्त पहले से बैठे थे। श्री जेठमलानी ने दफ्तर आने में काफी देर कर दी तो हम लोग बैठे बतियाते रहे। संजय बहुत नर्वस था। लगातार चहल-कदमी कर रहा था। सुनील दत्त जी से पूर्व परिचय होने के कारण उन्होंने हमारे आने का कारण पूछा। तब तक मैं अपनी वीडियो मैग्जीन कालचक्र का वह अंक जारी कर चुका था, जिसमें कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का मैंने खुलासा किया था, जो बाद में जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर हुआ। पर राजनेताओं ने सैंसर बोर्ड से प्रतिबंध लगवाकर कालचक्र के इस अंक को बाजार में नहीं आने दिया था। इसलिए मैं श्री जेठमलानी से अपनी जनहित याचिका तैयार करवाने मुम्बई गया था। संजय दत्त की घबराहट देखकर मैंने संजय से कहा कि तुम्हारे अपराध से कहीं बड़ा संगीन अपराध करने वाले देश के अनेक बड़े नेताओं और अफसरों को तो मैंने ही पकड़ लिया है। अब देखना यह होगा कि अदालत उनका क्या करती है? इससे ज्यादा मैंने संजय को कुछ नहीं बताया और लंच करने उसी ईमारत की सीढ़ियों से उतरने लगा। मुझे याद है कि संजय दो मंजिल तक दौड़ता हुआ मेरे पीछे आया और बोला, ‘‘सर प्लीज बताईये कि ऐसा कौन सा मामला आपने उजागर किया है, जो मेरे ऊपर लगे आरोप से बड़ा है।’’ मैंने कहा कि अभी नहीं, समय आने पर तुम खुद जान जाओगे। उसके बाद संजय जेल चला गया। उसका सचिव पंकज मुझसे कभी-कभी फोन पर बात करता था। एक बार मैंने उसे भगवत्गीता व अन्य धार्मिक पुस्तकें संजय को ऑर्थर जेल में देने के लिए भी भेजीं। बाद में हवाला काण्ड को लेकर जो कुछ हुआ वह जगजाहिर इतिहास है।

Monday, March 18, 2013

आए थे हरी भजन को, ओटन लगे कपास

पहले संत दशकों तक जंगलों में तप करते थे। सिद्धि प्राप्त होने पर भी अपना प्रचार नहीं करते थे। स्वयं को छिपा कर रखते थे। चेले बनाने से बचते थे। तब संतो का जीवन न्यूनतम आवश्यकताओं के कारण प्रकृति के साथ संतुलनकारी होता था। पर जब से धार्मिक टी वी चैनल बढे हैं त
ब से धर्म का कारोबार भी खूब चल निकला है। अब कथावाचकों और धर्माचार्यों का यश रातों-रात विश्वभर में फैल जाता है। फिर चली आती है चेलों की बारात, लक्ष्मी की बरसात और लगने लगती है ‘गुरू सेवा‘ की होड़। नतीजतन हर चेला अपनी क्षमता से ज्यादा ‘गुरू सेवा‘ में जुट जाता है। भावातिरेक में गुरू के उपदेशों का पालन करने की भी सुध नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि चेले गुरू के जीवनकाल में ही गुरू के आदर्शो की अर्थी निकाल देते है। रोकने टोकने वाले को गुरूद्रोह का आरोप लगाकर धमका देते है। गुरू की आड़ में अपनी दबी हुई महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुट जाते हैं।

संत कहते है कि ‘पैसे वाला और सुन्दर स्त्री गुरू को ही शिष्य बना लेते है, खुद शिष्य नही बनते। परिणाम यह होता है कि विरक्त संतो के शिष्य भी ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं । शंकराचार्य जी ने सारे भारत का भ्रमण कष्टपूर्ण यात्रा मे किया और बेहद सादगी का जीवन जीया। आज आप अनेक शंकराचार्यों का वैभव देखकर आदिशंकराचार्य के मूल स्वरूप का अनुमान भी नहीं कर सकते। इसके अपवाद संभव हैं । सूली पर चढ़ने वाले और चरवाहों के साथ सादगी भरा जीवन जीने वाले यीशूमसीह की परंपरा को चलाने वाले पोप वेटिकन सिटी में चक्रवर्ती सम्राटों जैसा जीवन जीते हैं । गरीब की रोटी से दूध और अमीर की रोटी से खून की धार टपकाने वाले गुरू नानक देव जी गुरूद्धारों के सत्ता संघर्ष को देखकर क्या सोचते होंगे ? यही हाल लगभग सभी धर्मो का है।
 
पर धर्माचार्यों के अस्तित्व, ऐश्वर्य, शक्ति व विशाल शिष्य समुदायों की उपेक्षा तो की नही जा सकती। उनके द्धारा की जा रही ‘गुरू सेवा‘ को रोका भी नही जा सकता। पर क्या उसका मूल्यांकन करना गुरूद्रोह माना जाना चाहिए ? अब एक संत ने कहा कि अपने नाम के प्रचार से बचो, अपने फोटो होर्डिग पोस्टरों और पर्चो में छपवाकर बाजारू औरत मत बनों। पर उनके ही शिष्य रातदिन  अपनी फोटो अखबारों और पोस्टरों में छपवाने मे जुटे हो, तो इसे आप क्या कहेगें ? संत कहते है कि प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण करो, उनका विनाश रोको। पर उनके शिष्य प्राकृतिक संसाधनों पर महानगरीय संस्कृति थोपकर उनका अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हो तो इसे क्या कहा जाये ? संत कहते है कि राग द्धेष से मुक्त रहकर सबको साथ लेकर चलो, तभी बडा काम कर पाओगे। पर चेले राग द्धेष की अग्नि मे ही रात-दिन जलते रहते हैं । उन्हे लक्ष्य से ज्यादा अपने अहं की तुष्टि की चिन्ता ज्यादा रहती है। ऐसे चेले भौतिक साम्राज्य का विस्तार भले ही कर लें, पर संत की आध्यात्मिक पंरपरा को आगे नही बढा पाते। संत के समाधि लेने के बाद उसके नाम के सहारे अपना कारोबार चलाते हैं । पर संत ह्नदय नवनीत समाना। संत का ह्नदय तो मक्खन के समान कोमल होता है। वे अपने कृपापात्रों के दोष नहीं देखते। इसका अर्थ यह नही कि उनके चेले हर वो काम करें जो संत की रहनी और सोच के विपरीत हो ?
 
जहां-जहां  धर्माचार्यों के मठ या आश्रम है वहीं-वहीं सेवा के अनेक प्रकल्प भी चलते हैं । जब तक ये सेवा भजन-प्रवचन तक सीमित रहती है, तब तक समाज में कोई समस्या पैदा नही होती। पर जब उत्साही चेले शिक्षा, स्वास्थ, ग्रामीण विकास, जल, जंगल व जमीन के  ‘विकास‘ की चिन्ता करने लगते है, तब उनके अधकचरे ज्ञान के कारण समाज को बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। यह सभी समस्यायें प्रोफेशनल और अनुभवी सोच के बिना हल करना संभव नही होता। आप अपने भजन से अस्पताल के लिए साधन तो आकर्षित कर सकते है। पर उस अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल योग्यता और अनुभव की जरूरत होगी। इसलिए बिना इस समझ के किया गया विकास प्रायः विनाशकारी होता है। वह प्रकृति के संसाधनों पर भार बन जाता है। ऐसी सेवा और ऐसे विकास से तो अपने परिवेश को उसके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर होगा। कम से कम गलत आदर्श तो स्थापित नही होगें। पर सुनता कौन है ? जब छप्पर-फाड़कर पैसा आता है, तब बुद्धि भ्रष्ट  हो जाती है। मदहोश होकर चेले अपने गलत निर्णयों को भी बुलडोजर की तरह बाकी लोगो पर थोपने लगते हैं। ऐसे में मठों मे सत्ता संघर्ष शुरू हो जाते हैं। आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इससे समाज का बडा अहित होता है। क्योंकि चेलों की मार्फत ‘गुरू आज्ञा‘ के सन्देश पाने वाले भेाले-भाले अनुयायी चेलो की वाणी को ही गुरूवाणी मानकर उसका पालन करने में जुट जाते हैं । यानि विनाश की गति और भी तेज हो जाती है। फिर सेवा कम और अंह तुष्टि ज्यादा होती है। ऐसे अनेक उदाहरण रोज दिखाई देते हैं।
 
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसी संत या उनके शिष्यों के पास यदि अकूत दौलत बरस रही हो और वे समाज की सेवा भी करना चाहते हों या पर्यावरण को सुधारना चाहते हों तो उन्हें ऐसे लोगो की बात सुननी चाहिए जो उस क्षेत्र के विशेषज्ञ या अनुभवी हैं । एक तरह का सेतु बंधन हो। सही और सार्थक ज्ञान का समन्वय यदि समर्पित शिष्यों के उत्साह के साथ हो जाये तो बडे-बडे लक्ष्य बिना भारी लागत के भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इसकी विपरीत भारी संसाधन खपाकर छोटा सा भी लक्ष्य प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है। पर ऐसे चेलों रूपी बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ? यह कार्य तो संत या गुरू को ही करना होगा। उन्हे देखना होगा कि उनकी शरण मे आये सक्षम चेलों और उनके साथ रहने वाले समर्पित चेलों के बीच ताल-मेल कैसे बिठाएं ? एक फोडे़ को चीऱने के लिए गुरू को सर्जन की तरह अपने सभी शिष्यों की मानसिक शल्य चिकित्सा करनी होगी। तभी उनका सत्य संकल्प सही मायनों में पूरा होगा।

Monday, March 11, 2013

भाई-भतीजावाद नहीं चलेगा जजों की नियुक्ति में

न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाने की कोशिश में दो दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका के आधार पर सरकार से न्यायधीशों को नियुक्त करने का अधिकार छींन लिया था। तब इसे एक क्रान्तिकारी कदम माना गया था। पर आज अगर पीछे मुडकर देखें तो यह साफ हो जायेगा कि न्यायपालिका ने अपने इस अधिकार का सदुपयोग नहीं किया। इस व्यवस्था के दौरान देश के उच्च न्यायालयों में नियुक्त हुए न्यायधीशों की अगर पृष्ठभूमि की पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि ज्यादातर किसी न्यायधीश के परिवारजन है या किसी बड़े वकील के। इसमे न तो योग्यता का ध्यान रखा जाता है और न ही अनुभव  का। इस कदर भाई-भतीजावाद चलता है कि पूरे देश के वकीलों में इस व्यवस्था के खिलाफ भारी आक्रोश है। एक आईएएस अधिकारी को भारत सरकार मे सचिव बनने के लिए 58 साल पूरे होने का इंतजार करना पड़ता है। जबकि उच्च न्यायालय में अपने सपूतो को जज बनाकर न्यायपालिका 40-42 साल की उम्र में ही उन्हें  भारत सरकार के सचिव के समकक्ष खड़ा कर देती है। ताकत, जलवा और राजकीय अतिथि होने का लाभ अलग से मिलता है।
 
सोचा यह गया था कि इस व्यवस्था से न्यायपालिका के कामकाज में ज्यादा पारदर्शिता और ईमानदारी आयेगी। पर न्यायपालिका की जो छवि पिछले दो दशक में बनी है वो देश में किसी से छिपी नहीं है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के कई मुख्य न्यायाधीश यह बात खुलेआम कह चुके है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार व्याप्त है। ऐसे में सरकार का यह मानना कि न्यायधीशों की नियुक्ति की इस व्यवस्था को बदलना चाहिए, उचित लगता है। देश के कानून मंत्री अश्विनी कुमार के अनुसार सरकार जो व्यवस्था अब बनाने जा रही है उसमे न्यायधीशों के चयन के लिए जो समिति बनेगी उसमे भारत के मुख्य न्यायधीश के अलावा कानूनमंत्री, प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष व राष्ट्रपति के मनोनीत न्यायविद् रहेगें। नामों का प्रस्ताव पहले की तरह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ही करेगें। पर यहां भी एक पेंच है। प्राय: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश दूसरे राज्यों से आते है और बहुत कम समय के लिए उच्च न्यायालय में रहते हैं। या तो उनके तबादले हो जाते हैं या पदोन्नति होकर वे सर्वोच्च न्यायालय चले जाते हैं । ऐसे में इतने अल्प समय में वे कैसे यह तय कर पाते हैं कि उनके उच्च न्यायालय में प्रेक्टिस करने वाला कौन वकील न्यायधीश बनने के योग्य है ? होता यही है कि नातेदार, चाटुकार या सिफारिशी का ही नाम आगे भेज दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली उच्च न्यायालय के  मुख्य न्यायधीश अगर दक्षिण भारतीय मूल के थे तो उन्होने अपने इलाके के वकीलों के नाम प्रस्तावित कर दिये।
 
केवल न्यायपालिका के एकाधिकार से न्यायधीशों की नियुक्ति की परंपरा ज्यादातर देशों में नहीं है। वहां वही व्यवस्था है जिसमें नियुक्ति पर सरकार का अधिकार रहता है। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था में खामियां नही है। पाठकों को याद होगा कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश के चुनाव सम्बन्धी विवाद वाली याचिका पर फ्लोरिडा के न्यायधीशों ने जो निर्णय दिया उस पर उगंलिया उठीं थीं। क्योंकि ये न्यायधीश रिपब्लिकन  पार्टी की सरकार द्धारा नियुक्त थे । इसी कमी को दूर करने के लिए अब प्रस्तावित व्यवस्था में नेता प्रतिपक्ष को भी अहम स्थान दिया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस व्यवस्था से न्यायधीशों की नियुक्ति में हो रही धांधली कम होगी। फिर भी ऐसा मानना नादानी होगा कि इस व्यवस्था से क्रान्तिकारी सुधार आ जायेगा। अभी कुछ वर्ष पहलें की बात है कि भारत के एक पूर्व न्यायधीश के कई घोटाले उजागर हुए थे पर भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नेता प्रतिपक्ष सोनिया गांधी को राजी कर उस पूर्व मुख्य न्यायधीश को भारत के मानव अधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। ऐसा भविष्य में नही होगा इसकी क्या गारंटी है ? पर ऐसे अपवाद रोज नही हुआ करते। अब जनता और मीडिया काफी जागरूक है। इसलिए ऐसे मामलों में शोर अवश्य मचेगा। उधर अपने अधिकार छिन जाने के बाद न्यायपालिका भी खामोश नही बैठेगी। मौका मिलते ही ऐसी नियुक्तियों  पर दखलंदाजी जरूर करेगी।
 
चाणक्य पण्डित ने कहा है कि व्यवस्था चाहे कोई भी बना ली जाये, तभी कामयाब होती है जब उसे चलाने वालों की मंशा साफ हो। अगर नई व्यवस्था में हर सदस्य यह तय कर ले कि न्यायपालिका के गिरते स्तर को सुधारनें की उसकी नैतिक जिम्मेदारी है तो फिर सही लोगों का चुनाव होगा। देखना होगा कि आने वाले दिनों मे नई व्यवस्था न्यायधीशों की नियुक्ति में क्या बदलाव लाती है।

Monday, March 4, 2013

यूं नहीं आयेगा यमुना में जल

पिछले डेढ़ वर्ष से ब्रज में यमुना में यमुना जल लाने की एक मुहिम उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में चलायी जा रही है। यमुना रक्षक दल नाम से बना संगठन इस मुहिम को भारतीय किसान यूनियन के एक टूटे हुए हिस्से के सहयोग से चला रहा है। इनकी मांग है कि यमुना में यमुना जल लाया जाये। जिसके लिए ये दिल्ली के हथिनी कुण्ड बैराज को हटाकर यमुना की अविरल धारा बहाने की मांग कर रहे हैं। यह मांग कानूनी और भावनात्मक दोनों ही रूप में उचित है कि यमुना में यमुना जल बहे। जबकि आज उसमें दिल्ली वालों का सीवर और प्रदूषित जल ही बह रहा है। मथुरा के हजारों देवालयों में श्रीविग्रह के अभिषेक के लिए हर प्रातः यही जल भरकर ले जाया जाता है। जिससे भक्तों और संतों को भारी पीड़ा होती है। यमुना स्नान करने वाले भी जल के प्रदूषित होने के कारण अनेक रोगों के शिकार हो जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यमुना का जल उसकी सहनशीलता से एक करोड़ गुना अधिक प्रदूषित है। यमुना एक मृत नदी घोषित हो चुकी है। वैसे भी देवी भागवत नाम के पौराणिक ग्रंथ में यह उल्लेख मिलता है कि कलियुग में गंगा और यमुना दोनों अदृश्य हो जायेंगी। इसलिए पूरा ब्रज क्षेत्र इस मांग का भावना से समर्थन करता है। पर प्रश्न यह है कि क्या हथिनी कुण्ड बांध को हटाये जाने की मांग ही यमुना के जीर्णोद्धार का मात्र और सही विकल्प है?

 
हमने इसी कॉलम में कई वर्ष पहले उल्लेख किया था कि यमुना को पुनः जागृत करने के लिए अनेक कदम उठाने होंगे। हथिनी कुण्ड से जल प्रवाहित करना एक भावुक मांग अवश्य हो सकती है, पर यह इस समस्या का समाधान कदापि नहीं। अखबार में फोटो छपवाने या टी.वी. पर बयान देने के लिए यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की एक लम्बी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यमुना की गन्दगी के कारणों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और सॉलिड वेस्ट के आकार, प्रकार, सृजन व उत्सृजन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की यह गन्दगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है तो इन शहरों में उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढाँचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं? दिल्ली तक पैदल मार्च करना ठीक उसी तरह है कि यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले पर उन्हीं के आश्रम में भण्डारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्माकॉल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। रोकने के लिए जरूरी होगा मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े धोकर और डिटर्जेंट से बर्तन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या में और अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?
 
ब्रज यात्रा के दौरान हमने अनेक बार यमुना को पैदल पार किया है और यह देखकर कलेजा मुँह को आ गया कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पॉलीथिन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बॉक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाला हर आदमी कर रहा है। जितना बड़ा आदमी या जितना बड़ा आश्रम या जितना बड़ा गैस्ट हाउस या जितना बड़ा कारखाना, उतना ही यमुना में ज्यादा उत्सर्जन।
 
दूसरी तरफ गंगोत्री के बाद विकास के नाम पर हिमालय का जिस तरह नृशंस विनाश हुआ है, जिस तरह वृक्षों को काटकर पर्वतों को नंगा किया गया है, जिस तरह डाइनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा गया है और बड़े-बड़े निर्माण किये गये हैं, उससे यमुना का जल संग्रहण क्षेत्र लगातार संकुचित होता गया। इसलिए स्रोत से ही यमुना जल की भारी कमी हो चुकी है। यमुना में जल की मांग करने से पहले हमें हिमालय को फिर से हराभरा बनाना होगा। दूसरी तरफ मैदान में आते ही यमुना कई राज्यों के शहरीकरण की चपेट में आ जाती है। जो इसके जल को बेदर्दी से प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि भारी कू्ररता से इसमें पूरे नगर का रासायनिक व सीवर जल प्रवाहित करते हैं। इस सबके बावजूद यमुना इन राज्यों को इनके नैतिक और कानूनी अधिकार से अधिक जल प्रदान कर उन्हें जीवनदान कर रही है। पर दिल्ली तक आते-आते उसकी कमर टूट जाती है। यमुना में प्रदूषण का सत्तर फीसदी प्रदूषण केवल दिल्ली वासियों की देन है। जब तक यमुना जल के प्रयोग में कंजूसी नहीं बरती जायेगी और जब तक उसमें गिरने वाली गन्दगी को रोका नहीं जायेगा, तब तक यमुना में जल प्रवाहित नहीं होगा। हथिनी कुण्ड बैराज खोल दिया जाये या तोड़ दिया जाये, दोनों ही स्थितियों में यमुना में यमुना जल निरंतर बहने वाला नहीं है। यह एक भावातिरेक में उठाया गया मूर्खतापूर्ण कदम होगा। यमुना रक्षक दल के इस आव्हान से भावनात्मक रूप से जुड़ने वाले ब्रज के संतों और ब्रजवासियों को भी इस बात का अहसास है कि इस आन्दोलन ने मुद्दा तो सही उठाया पर समस्या का समाधान देने की इसके नेतृत्व के पास क्षमता नहीं है। इसलिए लोगों को यह आशंका है कि इतनी ऊर्जा और धन इस यमुना आन्दोलन में झौंकने के बाद चंद लोगों की राजनैतिक महत्वाकांक्षा भले ही पूरी हो जाये पर कोई सार्थक हल नहीं निकलेगा। ईश्वर करे कि उनकी यह आशंका निमूल साबित हो और यमुना में यमुना जल बहे। बाकी समय बतायेगा।