Monday, August 19, 2013

संसद में अराजकता का जिम्मेदार कौन

 
देश के प्रतिष्ठित मीडिया हाउस हिन्दू ने पिछले दिनों टी.वी. पर जनहित में एक विज्ञापन प्रसारित किया। जिसमें एक शिक्षिका कक्षा में आकर विद्यर्थियों से कहती है कि आज हम संसद की कार्यवाही का अभिनय करेंगे। कक्षा में बायीं ओर बैठे छात्र सत्ता पक्ष के हंै और दायीं ओर बैठे छात्र विपक्ष के। सत्ता पक्ष में से एक उन्होंने प्रधानमंत्री बनाकर चर्चा शुरू करने का आदेश दिया। आदेश मिलते ही कक्षा में ज्योमेट्री बाक्स, पानी की बोतलें, कागज की गेंदें, चप्पल, जूते और कुर्सी एक दूसरे पर फेंके जाने लगे। विज्ञापन यहीं समाप्त हो गया, इस संदेश के साथ कि ‘सावधान देश आपको देख रहा है’। दरअसल देश की संसद और विधान सभाओं में यह दृश्य आम हो गया है जब हमारे कानून निर्माता ऐसा ही व्यवहार करते हैं, तो फिर बच्चों ने अभिनय में क्या गलती की?
पिछले दिनों राज्य सभा के सभापति ने उच्च सदन में सांसदों के ऐसे ही व्यवहार से क्षुब्ध होकर कहा कि क्या आप इसे ‘आराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं। इस पर सांसद काफी नाराज हो गये और अध्यक्ष के विरोध में स्वर गूंजने लगे। यहाँ तक कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसद एक सुर में बोल रहे थे। अगले दिन डा. हामिद अंसारी ने सांसदों को इस मुद्दे पर बातचीत करने की इजाजत दी और उनसे प्रश्न किया कि वे बतायें कि बार-बार संसद की कार्यवाही स्थगित क्यों करनी पड़ती है। जिसके बाद बडे शान्त वातावरण में सभी सांसदों में गम्भीर चर्चा की। सांसदों का कहना था कि ऐसी शब्दावली का प्रयोग करके अध्यक्ष ने सांसदों का अपमान किया है। उनके अनुसार अराजकता असमाजिक व्यवहार का परिचायक है। सबकी ओर से संसदीय राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने इस वार्तालाप को संसद की कार्यवाही से अलग करने की प्रार्थना अध्यक्ष महोदय से की।
दूसरी तरफ अध्यक्ष महोदय ने सांसदों को बताया कि कई देशों में ‘फेडरेशन आफ अनार्किस्ट’ बाकायदा औपचारिक संगठन हैं। लेकिन यह सही है कि भारत में इस शब्द का अर्थ असामाजिक व्यवहार ही माना जाता है। इस पूरे घटना क्रम से एक लाभ हुआ। संसद में और विधान सभाओं में बार-बार आने वाले व्यवधानों पर गम्भीर चर्चा शुरू हो गयी। इस चर्चा को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। वैसे तो संसदीय मर्यादा के व्यापक नियम हैं। पर जब हालात इतने बेकाबू हो जाये तो शायद बारीक कानूनों की जरूरत पड़ती है। मसलन संसद की कार्यवाही के दौरान कोई बिना अनुमति के खड़ा नहीं होगा। बोलेगा नहीं। दो सांसद आपस में खुसुर - पुसुर भी नहीं करेंगे। अगर बात करनी होगी तो सदन के बाहर जाकर करेंगे। देखने में यह कानून बड़े बचकाने लगेंगे मानो स्कूल के बच्चों के लिये बनाये जा रहे हों। पर जब हमारे सांसदों का व्यवहार ऐसा हो कि स्कूल के बच्चे उसका उपहास उड़ाये तो फिर वाकई बारीक कानूनों की शरण लेनी पड़ेगी।
जब ऐसी आचार संहिता को बनाने की बात आयेगी तो जाहिरन बहस लम्बी चलेंगी। कानून के बारे में कहा जाता है कि वकील ही उसकी व्याख्या करते हैं। हम जानते हैं कि वकील उसकी व्याख्या से कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं यानी एक ही कानून की व्याख्या कई तरह से हो सकती है। इसलिये संसद की आचार संहिता के प्रावधानों को अगर इतनी बारीकी तक ले जाना होगा तो भाषा के चयन पर भी काफी वक्त लगेगा। क्योंकि फिर जो उपनियम बनेंगे उन पर भी विमर्श का सिलसिला चालू हो जायेगा। इसलिये यह काम बड़ी सावधानी और धीरज के साथ करना होगा।
सोचने वाली बात यह है कि जब हमारे सांसद पढ़े-लिखे और समझदार हैं और व्यक्तिगत जीवन में बड़ी शालीनता से दूसरे दलों के सांसदों से व्यवहार करते हैं तो सत्र के दौरान यह अराजकता क्यों? क्या इसके लिये हमारी जनता भी जिम्मेदार है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जनता ही अपने सांसदों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा रखती हो और उनके उत्तेजक भाषणों पर वैसे ही ताली बजाती हो जैसे सलीम जावेद के लिखे डायलाग सुनकर बजाती है। फिर तो इस आचरण के लिये जनता को ही जिम्मेदार ठहराना होगा। अगर वो ऐसा आचरण करने वाले सांसद के व्यवहार से खुश नहीं है तो उसे बार-बार चुनकर संसद में क्यों भेजती है? उसका परित्याग क्यों नहीं करती? फिर तो यह माना जायेगा कि सांसद वही करते हैं जो उनके मतदाता उनके अपेक्षा करते हैं। इसलिये यह गम्भीर प्रश्न है, जिस पर लम्बी और गहरी चर्चा होनी चाहिये। हम अपने कानून के मन्दिरों को इस तरह निरर्थक बयान बाजी की भेंट चढ़ाकर देश की जनता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

चिन्ता की बात यह है कि भारत ही नहीं अब और भी देशों में सांसदों का ऐसा व्यवहार दिखाई देने लगा है। क्या यह माना जाये कि यह छूत की बीमारी उन्हें भारत से लगी है या यह माना जाये कि दुनिया के लोकतंत्रों में अब बातचीत नहीं शोर-शराबा और हंगामा ही लोगों का भविष्य निर्धारित करेगा। अगर ऐसा है तो यह सबके लिये चिन्ता का विषय होना चाहिये।

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