Monday, December 30, 2013

अब होगी केजरीवाल की असली परीक्षा

अरविन्द केजरीवाल ने जिस रामलीला मैदान से देशव्यापी भ्रष्टाचार के विरूद्ध दो बरस पहले बिगुल बजाया था। वहीं दो बरस बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। पानी मुफ्त मिले या न मिले, बिजली के दाम घटें या न घटें, ये तो ऐसे वायदे हैं जो हर राजनेता चुनाव के पहले करता है। कुछ पूरे होते हैं, कुछ नहीं होते। तमिलनाडु में जयललिता टीवी और सोना बांटतीं हैं, अखिलेश यादव लैपटॉप और हरियाणा सरकार किसानों को पानी व बिजली। दिल्ली में जल की सीमित उपलब्धता को देखते हुए हो सकता है कि अरविन्द 700 लीटर मुफ्त जल हर परिवार को न दे पाएं। पर जिस मुद्दे पर वे चर्चा में आए और आज यहां तक पहुंचे, वही मुद्दा सबसे अहम है और वह है भ्रष्टाचार का। शपथ लेने के बाद भाषण में अरविन्द ने दिल्ली की जनता का आह्वान किया कि वो रिश्वत मांगने वालों को उनसे शिकायत करके पकड़वायें। अब यह नारा बहुत लुभावना है, पर हकीकत क्या है। एक मुख्यमंत्री और उसका सचिवालय दिनभर में भ्रष्टाचार की कितनी शिकायतें सुन सकता है और उन्हें निपटा सकता है। शिकायत दर्ज कराना, जांच करना और दोषी को सजा देना यह प्रतीकात्मक रूप से तो हो सकता है, लेकिन व्यापक रूप से करने के लिए जितनी बड़ी मशीनरी की जरूरत होगी, वो अभी दिखायी नहीं देती।
 डेढ़ करोड़ की दिल्ली की आबादी 70 विधानसभा क्षेत्रों में बंटी है और अगर हर विधानसभा क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों की रिश्वतखोरी बंद करनी है तो एक विधानसभा क्षेत्र में कम से कम एक हजार सतर्क निगहबान लोग चाहिए। ऐसे लोग जो किसी कीमत पर भ्रष्ट न हों और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कमर कस लें। यानि आम आदमी पार्टी को 70 हजार ऐसे स्वयंसेवक चाहिए, जो दिल्ली की डेढ़ करोड़ जनता की शिकायतों को फौरन सुनें और उनको हल कराने में जुट जाएं। ऐसे लोग कहां से आएंगे और बिना वेतन के कब तक काम कर पाएंगे ? अगर ऐसा हो जाता है कि तो वह वास्तव में जनक्रांति होगी।
जहां तक दिल्ली के मुख्यमंत्री के अधिकारों का सवाल है, तो पुलिस और दिल्ली विकास प्राधिकरण जैसे महत्वपूर्ण विभाग मुख्यमंत्री के अधीन नहीं हैं। पर जल, बिजली और वित्त विभाग तो हैं ही, जिन्हें केजरीवाल ने अपने अधीन रखा है।
अब वित्त विभाग के दायरे में बिक्री कर विभाग आता है। जो दिल्ली का सबसे भ्रष्ट विभाग है। उल्लेखनीय है कि चांदनी चैक के कटरों में ही पूरे उत्तर भारत का व्यापारी रोज आता है और अरबों रूपये की खरीद रोज होती है। ये सारी खरीद दो नंबर के खाते में होती है। चाहें सोने हों, चाहें कपड़ों, बिजली का सामान हो, मेवा हो, किराना हो, प्रसाधन सामिग्री हो या फिर अन्य उपभोग की वस्तुएं। ये माल अवैध तरीके से बसों, ट्रेनों, कारों के माध्यम से रोज दिल्ली से उत्तर भारत के शहरों और कस्बों में भेजा जाता है। जिस पर कोई बिक्री कर नहीं दिया जाता है। इस तरह दिल्ली सरकार के अधिकारियों एवं पुलिस वालों की मिलीभगत से अरबों रूपये के राजस्व की हानि होती है। चूंकि यह विभाग सीधे केजरीवाल के अधीन है, तो इसे दुरूस्त करना उनकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे दो लाभ होंगे, एक तो इस बात की परीक्षा हो जाएगी, अरविंद केजरीवाल के आह्वान पर दिल्ली की जनता न रिश्वत देगी, न लेगी, न सेल्स टैक्स चोरी करेगी, बल्कि हर सामान पर बिक्री कर चुकाकर पक्की रसीद लेगी। दूसरा लाभ ये होगा, इससे दिल्ली सरकार के कोष में एकदम से आमदनी कई गुना बढ़ जाएगी। फिर उस आमदनी से केजरीवाल गरीब वर्ग को सब्सिडी भी दे सकते हैं। हां, एक नुकसान जरूर होगा कि जैसे ही दिल्ली के बाजारों में अवैध कारोबार बन्द होगा और कर देकर क्रय और विक्रय किया जाएगा, वैसे ही महंगाई तेजी से बढ़ जाएगी। पर भ्रष्टाचार से लड़ने की यह कीमत तो केजरीवाल और दिल्ली की जनता को चुकानी होगी।
केजरीवाल के अब तक के वक्तव्यों में दो बातों पर लगातार जोर रहा है कि देश की बर्बादी के लिए भ्रष्टाचार मूल कारण है। वे और उनकी सरकार भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेगे और दोषियों को फौरन जेल में डाल देंगे। ऐसी घोषणाएं अरविंद ने खुले मंचों से बार-बार की हैं। अब उनकी परीक्षा का समय आ गया है। दिल्ली की जनता, मीडिया और विपक्षीय दल उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं कि केजरीवाल सरकार कितने भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं को आने वाले दिनों में जेल पहुंचाती है। विश्वासमत पारित हो या न हो केजरीवाल की टीम को इसकी परवाह नहीं है। उन्होंने जनता की अपेक्षाओं को इस तरह पकड़ा है कि अभी कुछ महीनों तक इसी प्रवाह में गाड़ी खिच जाएगी और लोकसभा चुनाव आ जाएगा। अरविंद के कॉलेज के साथी यह बताने में संकोच नहीं करते कि अरविंद का बचपन से सपना प्रधानमंत्री बनने का रहा है। आज जो हवा चल रही है और दिल्ली से अरविंद जो संदेश दे रहे हैं, उससे यह असंभव नहीं लगता कि आगामी लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी महानगरों और अन्य नगरों से इतने सांसद चुनकर ले आए कि अगली सरकार वे एक निर्णायक भूमिका निभा सकें। ऐसी स्थिति में जब चंद्रशेखर, आई0के0 गुजराल व देवगौड़ा जैसे प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो अरविंद केजरीवाल क्यों नहीं ? पर सवाल है कि जनलोकपाल विधेयक की लड़ाई और ये सारा तेवर क्या प्रधानमंत्री पद की प्राप्ति तक ही सिमट कर रह जाएगा या भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के केजरीवाल के दावे और बयान उन्हें अपना फर्ज बार-बार याद दिलाते रहेंगे और वे इसके लिए एक दिन भी इंतजार नहीं करेंगे। अगर केजरीवाल मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए पहले दिन से भ्रष्टाचार पर प्रभावी लगाम कस पाते हैं और जनता उनसे प्रेरणा लेकर भ्रष्टाचार न करने का संकल्प ले लेती है, तो वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक एतिहासिक उपलब्धि होगी। पर असल में क्या होता है यह आने वाले कुछ हफ्तों में साफ हो जाएगा।

Monday, December 23, 2013

अनूठा रहेगा केजरीवाल का प्रयोग

अगर जनमत संग्रह की बात मानें तो केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन रहे हैं, जिसके लिए उन्हें बधाई। क्योंकि एक ही साल में राजनैतिक दल बनाकर इस सफलता को पाना कोई सरल काम न था। पत्रकारों की छोड़िये राजनैतिक दल तक आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) की दिल्ली में आम लोगों के बीच लोकप्रियता का पूर्वानुमान नहीं लगा सके। दरअसल केजरीवाल लोगों को यह बात समझाने में सफल रहे कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। इसलिए चाहे उन्होंने असंभव को संभव बनाने के दावे किए हों या बढ़ चढ़कर अपनी उपलब्धियों के दावे किए हों, कुल मिलाकर यह साफ है कि वे आम आदमी को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। अब जब काफी उधेड़बुन के बाद केजरीवाल दिल्ली में सरकार गठन का निर्णय लेने जा रहे हैं, तब भी लोगों के मन में आशंका है कि वे कितने सफल हो पाएंगे ? कांग्रेस और भाजपा कुछ ज्यादा ही आक्रामक तेवर अपना रहे हैं। वे ये सिद्ध करना चाहते हैं कि केजरीवाल सरकार चलाने में विफल हो जाएंगे। जबकि केजरीवाल का यह पलटवार कि वे न सिर्फ सरकार बनाएंगे, बल्कि उसे अच्छी तरह चलाकर भी सिखाएंगे, इन राजनेताओं के मन में अपनी स्थिति को लेकर संशय पैदा कर रहा है। 

केजरीवाल यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे विफल हुए तो जमे हुए राजनैतिक दल उनकी बोटी नोंच लेंगे और अगर वे सफल हुए तो कई महानगरों में इनके प्रत्याशी लोकसभा का चुनाव जीत सकते हैं। इसलिए उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार कर ठीक किया है। हमने पिछले हफ्ते इसी कॉलम में लिखा था कि अगर केजरीवाल सरकार बनाते हैं और कुछ महीने के लिए ही सही कुछ अनूठा कर दिखाते हैं, तो उनको आगे बढ़ने के रास्ते खुलते जाएंगे। हो सकता है कि वे बिजली और पानी की कीमतों को लेकर अपने दावे निकट भविष्य में पूरे न कर पाएं, पर लोकप्रिय चाल चलन से नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह दिल्ली की गलियों और झुग्गियों में हड़कंप तो मचा ही सकते हैं। हमारे हुक्मरानों ने आजादी के बाद अपने को आम आदमी से इतना दूर कर लिया है कि केजरीवाल के छोटे-छोटे कदम भी उसे प्रभावित करेंगे, जैसे बिना लालबत्ती की गाड़ी में चलना। अगर मीडिया पहले की तरह केजरीवाल को प्रोत्साहित करता रहा, तो इन कदमों की चर्चा देशभर में होगी। जिससे पूरी राजनैतिक जमात में हड़कंप मचेगा। क्योंकि राजनेताओं की वीआईपी संस्कृति देश के हर हिस्से में आम लोगों की आंखों में किरकिरी की तरह चुभती है। पर वे इसे बदलने में असहाय हैं। यह पहल तो राजनेताओं को ही करनी चाहिए थी। वे चूक गए। अब केजरीवाल उन्हें नयी राह दिखाएंगे। 

जब से दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजे आए हैं, कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेता दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि केजरीवाल के तौर तरीकों ने पारंपरिक राजनीति की संस्कृति को एक झटका दिया है। विधायकों की खुली खरीद न होना इसका एक प्रमाण है। अलबत्ता वे यह कहने में नहीं चूक रहे कि आलोचना करना और सपने दिखाना आसान है बमुकाबले कुछ करके दिखाने के। इसलिए वे तमाम तरह की संभावित समस्याओं का हौवा खड़ा कर रहे हैं। केजरीवाल की यह बात सही है कि अगर मन में ईमानदारी हो और कुछ नया करने का जुनून तो सरकार चलाना कोई मुश्किल काम नहीं। खैर यह तो समय ही बताएगा कि वे अपने इस दावे में कहा तक सफल होते हैं। 

आजादी के बाद आज तक किसी भी दल का घोषणा पत्र उठाकर देख लो तो साफ हो जाएगा कि उसमें चैथाई वायदे भी पहले तीन चार साल में पूरे नहीं किए जाते। फिर ये राजनेता केजरीवाल से क्यों उम्मीद कर रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही जादू की छड़ी घुमा देंगे। शायद इसका कारण खुद आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) के नेतृत्व की वह बयानबाजी है, जिसमें कई बार शालीनता की सीमाओं को लांघकर अहंकारिक वक्तव्यों ने अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ा। उनके बड़बोलेपन ने ही आज उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया है, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ दिल्ली की आम जनता को सपने दिखाए, बल्कि उसे अति अल्प समय में पूरा करने का भी वायदा किया। इसलिए उन पर दवाब ज्यादा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) इतना शोर मचाने के बावजूद अभी तक कुछ भी हासिल न कर पायी है। पर इतना जरूर है कि एक नौजवान ने हिम्मत करके पूरी राजनैतिक व्यवस्था के सामने एक विकल्प तो खड़ा करके दिखा ही दिया है। हमें इस नौजवान का उत्साहवर्धन करना चाहिए और आशा करनी चाहिए कि वह हिन्दुस्तान की तस्वीर भले ही न बदल पाए, राजनेताओं को उनके तौर तरीके बदलने पर मजबूर जरूर करेगा। 

Monday, December 16, 2013

केजरीवाल जी, जिम्मेदारी से मत भागिए

सरकार न बनाने का केजरीवाल जो भी कारण बतायें या सरकार बनाने कि जो भी शर्तें रखें, एक बात तो साफ़ दीख रही है कि उनकी टीम ज़िम्मेदारी लेने से भाग रही है | दरअसल किसी कि आलोचना करना और उस पर ऊँगली उठाना सबसे सरल काम है | पर कुछ करके दिखाना बहुत मुश्किल होता है | ऊँगली उठाने वाले को केवल सामने वाले कि गलतियाँ ढूंढने का हुनर आना चाहिये, फिर वो टीवी चैनल पर शोर मचा सकता है, अख़बारों में लेख लिख सकता है और मौहल्लों कि जन सभाओं में जा कर ताली या वोट बटोर सकता है | पर काम करने वाले को हजारों मुश्किलों का सामना करना पड़ता है | फिर भी अगर वो हिम्मत नहीं हारता और काम करके दिखने में जुटा रहता है तो भी उसके आलोचक कम नहीं होते | उसे सफलता मिले या न मिले वो बाद कि बात है | पर कहावत है कि ‘गिरते हैं शै सवार ही मैदान ए जंग में, वो क्या लड़ेंगे जो घुटनों के बल चले’ | अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव लड़ने का झोखिम तो बहादुरी से उठाया और अपेक्षा से ज्यादा सफलता भी हासिल की पर सरकार बनाने में वे जोखिम लेने से डर रहे हैं |
कारण साफ़ है | चुनाव लड़ते वक्त रणनीति होती है कि विरोधियों पर हमला बोलो और मतदाताओं को बड़े-बड़े सपने दिखाओ | केजरीवाल ने ये दोनों काम बड़ी कुशलता से करे हैं | पर अब परीक्षा कि घड़ी है| सरकार बना लेते हैं और वायदे पूरे नहीं कर पाते तो मतदाता इन्हें दौड़ा लेगा | अपने वायदे पूरे करना गधे के सिर पर सींग उगाने जैसा है | इसलिए कांग्रेस और भाजपा आआपा को बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हैं | इन्हें विश्वास है कि केजरीवाल सरकार बना कर जल्दी ही विफल हो जाएंगे | पर ऐसा हो यह ज़रूरी नहीं | अगर केजरीवाल सफल हो गए तो पूरे उत्तर भारत में पुराने दलों को चुनौती देंगे | अगर विफल हो गए तो एक बुलबुले कि तरह फूट जाएंगे |
आआपा का यह कहना गलत नहीं है कि ये दल कुछ समय बाद छल करके उसकी सरकार गिरा देंगे | पर योद्धा ऐसी आशंकाओं से डरा नहीं करते | अगर सरकार गिरने कि नौबत आ भी जायेगी तो केजरीवाल तब तक अपने जितने वायदे पूरे कर पाएंगे उन्ही के आधार पर संसदीय चुनाव लड़ सकते हैं | पर केजरीवाल को मालूम है कि बंद मुठ्ठी लाख की खुल गयी तो खाक  की | इसलिए वे अपनी लोकप्रियता के घोड़े पर चढ़ कर संसद में प्रवेश करना चाहते हैं | वे संसदीय चुनाव तक अपनी मुठ्ठी खोलना नहीं चाहते | इस सबसे न सिर्फ दिल्ली के मतदाताओं में असमंजस बना हुआ है बल्कि राजनैतिक पारिदृश्य में भी अनिश्चितता है |
इससे तो यही लगता है कि टीम केजरीवाल का मकसद केवल हंगामा खड़ा करना है | लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे तमाम उदहारण है जब व्यवस्था पर हमला करने वाले अपनी इसी भूमिका का मज़ा लेते हैं और अपनी आक्रामक शैली के कारण चर्चा में बने रहते हैं | पर वे समाज को कभी कुछ ठोस दे नहीं पाते, सिवाए सपने दिखने के | ऐसे लोग समाज का बड़ा अहित करते हैं| हाल के वर्षों में भारत और दुनियां के कई देशों में जहाँ-जहाँ ऐसे समूह वाचाल हुए वहां वहां सुधरा तो कुछ नहीं, जो चल रहा था वह भी पटरी से उतर गया | उन समाजों में हिंसा, अपराध, बेरोज़गारी व आर्थिक अस्थिरता पैदा हो गयी है | हालात बद से बदतर हो गए हैं| दरअसल हंगामा करने वाले समूह अंत में केवल अपना भला ही करते हैं | चाहे दावे वो कितने भी बड़े करें | अब लोकपाल विधेयक को ही ले लें, अन्ना सरकारी विधेयक से संतुष्ट हैं मगर आआपा इसे जोकपाल बता रही है | जबकि हम पिछले तीन वर्षों से डंके की चोट पर कहते आ रहे हैं कि केजरीवाल का जनलोकपाल भी देश में  भ्रष्टाचार कतई नहीं रोक पायेगा | क्यूंकि उनके इस विधेयक को बनाने वाले ही न केवल भ्रष्ट हैं बल्कि उन्होंने आज से २० वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के सबसे बड़े संघर्ष को सफलता की अंतिम सीढ़ी से नीचे गिराने की गद्दारी की थी | गाँधी की समाधी पर शपथ ले कर धरने देने वाले केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि दोहरे चरित्र के लोग अशुद्ध साधन जैसे हैं उनसे शुद्ध साध्य प्राप्त नहीं कर सकते |
पूरी दिल्ली उनके साथ न हो पर तिहाही दिल्ली का समर्थन जुटा कर अब जब केजरीवाल ने चुनावी मैदान में बाजी मार ही ली है तो सरकार बना कर अपने वायदे पूरे करने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए | जब प्यार किया तो डरना क्या | जनता समाधान चाहती है – कोरे वायदे और सपने नहीं | वह बहुत दिन तक धीरज नहीं रख पाती |

Monday, December 2, 2013

तरूण तेजपाल कांड का संदेश

तहलका की संवाददाता के आरोपों पर पत्रिका के संस्थापक संपादक तरूण तेजपाल को बलात्कार के आरोप में गोवा की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। क्रांइम ब्रांच की जांच के बाद यह तय होगा कि आरोपों में कितना दम हैं। अगर आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जाहिरन तरूण तेजपाल को अदालत से सजा मिलेगी।
इसलिए हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं पर यहां एक हादसे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जबसे महिला अत्याचार पर जागरूकता आई है और देश का महिला संगठन व मीडिया सक्रिय हुआ है तब से स्त्रियों को लेकर जो भी कानून बन रहे हैं उनसे समस्याओं का हल नहीं निकल रहा। अलबत्ता, शोर खूब मच रहा है। हमारा आशय यह बिलकुल नहीं है कि कानून न बने और महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। पर जिस भारत में नारी की पूजा होती रही हो, जहां नारियां शास्त्रार्थ किए हों, गणराज्य की राजनैतिक सभाओं में बराबरी का योगदान दिया हो और यहां तक कि कई बार देश में शासन भी किया हो, उस देश में नारी को अबला बताकर उसके शोषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती। पर अगर कानून ही हर समस्या का हल होते तो अब तब यह समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए थी लेकिन असलियत कुछ और है।
देश में निर्भया कांड के बाद बलात्कार को लेकर जो कानून बना क्या उससे बलात्कार की दर में 1 फीसदी भी कमी आई है ? उत्तर है नहीं। इसी तरह दहेज उत्पीड़न के लिए बने दहेज कानून की भी दशा है। इस कानून के बनने के बावजूद न तो दहेज का मांगना और देना कम हुआ और ना ही दहेज के कारण बहुओं पर होने वाले अत्याचारों पर कोई कमी आई है। ठीक वैसे ही जैसे हम सब जानते हैं कि रिश्वत लेना और देना जुर्म है पर क्या इस कानून के कारण रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या घटी है ?
जाहिर है सिर्फ कानून समस्या का हल नहीं हो सकते है। कानून का प्रभाव डराने या चेतावती देने तक सीमित होता है। किसी भी अपराध का कारण जाने बिना उसका समाधान कैसे हो सकता है ? यह तो वह बात हुई कि वायु में भारी प्रदूषण हो, लोग लगातार खांसते रहते हों और कानून बन जाए कि सार्वजनिक स्थलों पर खांसना बना है। कितनी हास्यादपद बात है।
ठीक ऐसे ही महिलाओं के प्रति जो अपराध होते हैं उनकी पृष्ठभूमि में है हमारी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, हमारी सांस्कृतिक विविधता और समाज में महिला सशक्तिकरण का अभाव। इन दृष्टिकोणों से समस्या को सुलझाए बिना आप महिलाओं के प्रति नित्य होने वाले करोडों अपराधों को नहीं रोक सकते, पर वह लंबी प्रक्रिया है। उसके लिए समाज को समर्पित सुधारक चाहिए। सार्थक शिक्षा चाहिए। आर्थिक प्रगति का उचित बटवारा चाहिए। पिछड़े समाजों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहिए। हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को समुचित वेतन की रोजगार चाहिए, जिसमें उसका परिवार पल सके। बिना इन सब समाधानों को खोजे हुए केवल कानून अपने आप में कुछ खास नहीं कर सकता।
महिलाओं की रक्षा के लिए हाल के वर्षों में बने कानूनों से उनकी कितनी रक्षा हुई है, इसका तो अभी कोई अध्ययन चर्चा में नहीं आया। पर ऐसे कारण सैकड़ों हैं जब इन कानूनों का सहारा लेकर कुछ महिलाओं ने अपने निर्दोष पति, उसके मित्र या उसके परिजनों को नाहक थानों और अदालतों में घसीटा हो। असली दुःख पाने वाली महिलाएं तो शायद थानों तक पहुंच भी नहीं पातीं। पर इन कानूनों का सहारा लेकर पुरूष समाज को ब्लैकमेल करने वाली महिलाएं भी अब काफी तेजी से दिखाई देने लगी हैं। ऐसी महिलाएं झूठे मुकद्दमों में फंसा कर बहुत से लोगों का जीवन बर्बाद कर रही हैं पर उनकी रोकथाम की अभी कोई व्यवस्था नहीं हैं। इससे असामाजिक तत्वों का हौसला बढ़ता जा रहा है।
इसलिए देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों पर पुर्नविचार करें। केवल महिला संगठनों के आंदालनों, मीडिया और संसद के शोर से प्रभावित होकर जो कानून बन गए हैं उनको कसौटी पर परखने की जरूरत है और आवश्यकता अनुसार बदलने की भी जरूरत है।
हम जानते हैं कि ऐसा मुददा छेड़ने पर कुछ महिला संगठन आक्रामक बयानबाजी कर सकते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि डंडे के जोर पर समाज नहीं बदला करते हैं। पीढ़ियां लग जाती हैं बदलाव लाने के लिए। बेहतर यह होगा कि वे इन सवालों पर बिना उत्तेजित हुए निष्पक्षता से पुर्नविचार करें। फिर खुद पहल करें और सरकार पर दबाव डाले जिससे इन कानूनों में सुधार हो सके। यह धीमी प्रक्रिया जरूर हैं पर इसके परिणाम दूरगामी और सार्थक होंगे।