Monday, January 27, 2014

‘नई राजनीति’ को राष्ट्रपति की चेतावनी

अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं, देश की सशस्त्र सेना की परेड या राष्ट्रीय पर्वों पर शानो-शौकत से मनाए जाने वाले उत्सव किसी राष्ट्र की समृद्धि और सफलता की पहचान होते हैं। इनसे सेना और देशवासियों का उत्साह बढ़ता है। पर कुछ लोग यह सवाल करते हैं कि जब समाज का बहुत बड़ा वर्ग साधनहीन हो, तो उत्सव मनाना कहां तक उचित है। शायद इसी संदर्भ में भारत के महामहिम राष्ट्रपति डा.प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अराजकता की राजनीति पर प्रहार किया है। अगर देश में उत्सव और पर्व नहीं मनाए जाएंगे, तो राष्ट्र के जीवन में नीरसता आ जाएगी। अपने तीज-त्यौहार तो हर व्यक्ति मनाता है, चाहे वो संपन्न हो या विपन्न। क्योंकि इनको मनाने से जीवन में आनन्दरस की प्राप्ति होती है।
हाल के दिनों में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने नई राजनीति का दावा करते हुए धरने प्रदर्शन का जो स्वरूप प्रस्तुत किया, उससे हो सकता है कि आम आदमी की पुलिस के प्रति भड़ास को अभिव्यक्ति मिली हो। पर इससे समाधान कोई नहीं निकाल सका। स्वयं को अराजक कहने वाला मुख्यमंत्री यह भूल जाता है कि उसने अपने शपथ ग्रहण भाषण में दावा किया था कि मात्र 48 घंटे में भ्रष्टाचार से जुड़ी अपनी प्रजा की शिकायतों का निपटारा कर देगा। 48 घंटे तो दूर 30 दिनों के बाद भी निपटारे के आसार नजर नहीं आ रहे। मुख्यमंत्री बनने से पहले ही घर पर जनता दरबार लगा लिया। पर जब मुख्यमंत्री बनकर लगाया, तो होश ठिकाने आ गए। भीड़ से घबराकर, अपनी जान बचाने के लिए सचिवालय की छत पर दौड़कर चढ़ना पड़ा। मतलब साफ है कि भीड़ बुलाकर प्रशासनिक समाधान नहीं निकाले जा सकते। फिर रेल भवन के सामने धरना देकर नई राजनीति का दावा करने वाला यह मुख्यमंत्री क्या नहीं जानता था कि इस धरने का कोई औचित्य नहीं है और इससे कुछ नहीं हासिल होगा ?
हर कदम रणनीति के तहत उठाने वाला व्यक्ति मूर्ख नहीं हो सकता। उसने सोचा कि एक तो मीडिया में प्रसिद्धि मिलेगी और दूसरे आमआदमी से जो लम्बे चैड़े दावे किए गए थे, उन्हें पूरा किए बिना ही दोष केंद्र सरकार पर मढ़कर बच भागने का रास्ता निकल जाएगा। जनता भोलीभाली है। पुलिस से नाराज रहती है। वह इसी बात से बहक जाएगी कि हमारा मुख्यमंत्री सड़क पर गद्दे बिछाकर सोता है।
इस नई राजनीति का दंभ भरने वाले एंग्री यंग मैन मुख्यमंत्री क्या यह बताएंगे कि राजस्व का जो विभाग उनके सीधे नियंत्रण में है, उससे भ्रष्टाचार दूर करने में उन्हें क्या दिक्कत आ रही है ? क्योंकि कानून व्यवस्था व पुलिस के मामले में तो वे यह कहकर पल्ला झाड़ सकते हैं कि उनका पुलिस पर कोई नियंत्रण नहीं। पर दिल्ली में अरबों रूपये के सेल्स टैक्स की चोरी खुलेआम रोजाना हो रही है, इसे रोकने की पहल क्यों नहीं करते ? क्योंकि ऐसा करते ही पूरे दिल्ली की जनता एंग्री यंग मैन मुख्यमंत्री के खिलाफ खड़ी हो जाएगी। जो आज सेल्स टैक्स (वैट) दिए बिना ही अरबों का कारोबार करती है। इससे आम आदमी पार्टी का वोट बैंक खिलाफ हो जाएगा।
साफ जाहिर है कि कुछ ठोस कर नहीं सकते तो क्यों न ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ दिया जाए। पर महाराज गलत फंस गए। नौटंकी का सच सामने आ गया। कल तक जो लोग बड़े उत्साह से इस नई राजनीति के दावेदारों के लोक-लुभावने झूठे दावों से आकर्षित होकर इनकी तरफ बिना सोचे समझे भाग रहे थे, वे ठिठक गए। अब तो दिल्ली में चर्चा यह है कि ऐसा व्यक्ति अगर प्रधानमंत्री बन जायेगा, तो वह राष्ट्रपति भवन के सामने धरने पर बैठकर मांग करेगा कि देश की तीनों सशस्त्र सेनाओं को मेरे आधीन कर दो, वरना मैं सरकार इण्डिया गेट से चलाऊंगा। ऐसे देश का शासन नहीं चला करता। बदलाव के लिए क्रान्तिकारी राजनीति का दंभ भरने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन और रूस की क्रान्ति के बाद भी बड़े भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर वहां के समाज में भी कोई बदलाव नहीं आया।
उधर आम आदमी पार्टी का एक भी नेता ऐसा नहीं जिसने गत 10 वर्षों में बड़े भ्रष्टाचार के विरूद्ध कोई प्रभावशाली संघर्ष किया हो। इनका एक ही काम है, सबको गाली देना, सबके प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना, सबको चोर बताना और अपने को सबसे ज्यादा साफ और ईमानदार। पर एक कहावत है ‘घर घर चूल्हे माटी के’। आम आदमी पार्टी के तौर तरीके और इनके आत्मघोषित नेताओं के अहंकार और राजनैतिक अपरिपक्वता को देखकर अब इनके शुभचिंतकों का भी इनसे मोह भंग हो रहा है। उन्हें दिख रहा है कि राजनीति के आतंकवादियों की तरह व्यवहार करने वाली यह पार्टी देश में अराजकता और अस्थिरता पैदा कर देगी।यह मानने वालों की भी कमी नहीं कि आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति को एक ऐसे मुकाम पर ले जाएगी, जब न तो केंद्र में मजबूत सरकार बनेगी और न ही देश की समस्याओं का कोई हल निकलेगा। चूंकि हमें इनके चाल-चलन का बहुत लम्बा अनुभव रहा है, इसलिए हम शुरू से इनके दावों और असलियत के बीच के अंतर को जानते हैं। इसलिए हमने इन्हें कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। ये पूरे देश में चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं। पर क्या इससे भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा ? ऐसा कुछ नहीं होगा। केवल इनके संगठन का थोड़ा बहुत विस्तार होगा, जिसकी कीमत आम जनता को एक बार और धोखा खाकर चुकानी पड़ेगी। क्योंकि नारों से आगे बढ़कर ये जनता का कोई भला नहीं कर पाएंगे। उसे कुंए से निकालकर खाई में पटक देंगे। इसलिए राष्ट्रपति ने पहली बार इसी खतरे की ओर ध्यान दिलाया है और ऐसे लोगों को समझदारी से संघर्ष करने की नसीहत दी है।

Monday, January 20, 2014

कब तक चलेगी राहुल गांधी की दुविधा

17 जनवरी को एक बार फिर कांग्रेस की आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं को निराश किया। कुछ दिन पहले बंगाल के एक अंग्रेजी दैनिक में प्रमुखता से खबर छपी थी कि राहुल गांधी को जल्दी ही प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है। उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 10 साल के कार्यकाल में तीसरे संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए इस खबर को और पक्का कर दिया जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले चुनाव के बाद अगर यूपीए की सरकार आती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे। राहुल गांधी पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि हमारे पास बहुत काबिल युवा नेतृत्व है, जो देश की बागडोर संभाल सकता है। इस के बाद सत्ता के गलियारों में चर्चा जोरों पर थी कि 17 जनवरी के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित करके राहुल गांधी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाएगा और मनमोहन सिंह अपना इस्तीफा सौंप देंगे। इस खबर के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बनकर राहुल गांधी अच्छा चुनाव प्रचार कर पाएंगे। पर 17 जनवरी के अधिवेशन में श्रीमती सोनिया गांधी ने ऐसी सब अटकलों पर विराम लगा दिया।
 
भाजपा को इससे एक बड़ा हथियार मिल गया यह कहने के लिए कि नरेंद्र मोदी के कद के सामने राहुल गांधी का कद खड़ा नहीं हो पा रहा था, इसलिए वे मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। पर कांग्रेस के प्रवक्ता का कहना था कि उनके दल में  चुनाव परिणामों से पहले प्रधानमंत्री पद का कोई नया दावेदार का नाम तय करने की परंपरा नहीं रही है, इसलिए राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की गई। कारण जो भी हो राहुल गांधी की छवि आज तक एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन पायी है। फिर वो चाहे उनकी संकोचपूर्ण निर्णय प्रक्रिया हो, या ढीला ढाला परिधान। कभी लंबी दाढ़ी बढ़ी हुई, कभी क्लीन शेव। जो आज तक यह भी तय नहीं कर पाये कि उन्हें देश के सामने कैसा व्यक्तित्व पेश करना है। उनके नाना गुलाब का फूल, जवाहर कट जैकेट, शेरवानी और गांधी टोपी से जाने जाते थे। सुभाषचंद्र बोस फौजी वर्दी से, सरदार पटेल अपनी चादर से, मौलाना आजाद अपनी दाढ़ी व तुर्की टोपी से, इंदिरा गांधी अपने बालों की सफेद पट्टी व रूद्राक्ष की माला से पहचानी जाती थीं। पर राहुल गांधी ने अपनी ऐसी कोई पहचान नहीं बनाई। उनके भाषणों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई हड़बड़ाहट में बोल रहा हो। इससे न तो वे वरिष्ठ नागरिकों को प्रभावित कर पाते हैं और न ही युवाओं को।
 
कायदे से तो राहुल गांधी को यूपीए-2 में शुरू से ही उपप्रधानमंत्री का पद ले लेना चाहिए था। जिससे उन्हें अनुभव भी मिलता, गंभीरता भी आती और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी अपने आप बन जाती। लगता है कि राहुल गांधी इस भ्रम में रहे कि अपने पिता की तरह 1984 के चुनाव परिणामों की तर्ज पर वे भी पूर्ण बहुमत पाने के बाद ही प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। अब तो इसकी संभावना और भी कम हो गई है। ऐसे में राहुल गांधी लगता है कि अब तक बहुत घाटे में रहे। अगर ऐसा ही होना था तो शुरू से ही सोनिया गांधी को प्रियंका गांधी को आगे कर देना चाहिए था। प्रियंका गांधी काफी हद तक इस कमी को पूरा कर लेती। क्योंकि लोग उनके व्यक्तित्व में इंदिरा गांधी कि झलक देखते हैं। पर राबट वडेरा के विवाद उठाये जाने के बाद अब वह सम्भावना भी कम हो गयी। वैसे तो यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। हां यह जरूर है कि राहुल गांधी की दुविधा से नरेंद्र मोदी के लिए राह आसान बनी रही। अब उनके विरोध में कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं खड़ा है। आज तो हालत यह है कि देश में काफी तादाद में लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। इनमें वे लोग भी हैं, जो आम आदमी पार्टी जैसे दलों की तरफ टिकट की आस में भाग रह हैं।
 

कांग्रेस की नैय्या डांवाडोल दिखती रही है। और अब तक की स्तिथि की समीक्षा करें तो उसके पार लगने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। वैसे एक अनुभव सिद्ध तथ्य यह भी है कि आज की तेज़ रफतार राजनीति में कब क्या स्तिथियां बनती हैं इसका पूर्वानुमान लगाना भी जोखिम भरा होता है। लोकसभा चुनावों में अभी 4-5 महीने बाकी हैं इस बीच कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष अपनी ऊर्जा कैसे बनाये रखेगा सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है।

Monday, January 13, 2014

आम आदमी को निराश कर रहे हैं केजरीवाल

पहले तो इतनी हड़बड़ी थी कि शपथ लेने से पहले ही केजरीवाल ने जनता दरबार लगा लिया। फिर शपथ लेने के बाद जब नहीं संभला तो हड़बड़ाकर 10 दिन की मोहलत मांगी। 10 की बजाय 14 दिन बाद, खूब प्रचार-प्रसार के बाद, 11 जनवरी को जब दोबारा जनता दरबार शुरू किया तो फिर भगदड़ मच गई। मुख्यमंत्री को पुलिस के संरक्षण में जान बचाकर भागना पड़ा। यह एक नमूना है केजरीवाल की अधीरता और अपरिपक्वता का। जनता दरबार का इतिहास अगर आम आदमी पार्टी के नेताओं को पता होता, तो ऐसा बचपना न करते। देश के कई प्रधानमंत्रियों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जब जब जनता दरबार लगाए हैं, वे बुरी तरह विफल हुए हैं। कारण करोड़ों के इस देश में करोड़ों लोगों की हर समस्या का हल जनता दरबार नहीं हुआ करता। इसके लिए प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त और जिम्मेदार बनाना होता है। जिसके लिए अनुभव की जरूरत होती है। पर सस्ती लोकप्रियता पाने की हड़बड़ी में आम आदमी पार्टी के नेता एक के बाद एक ऐसे ही अपरिपक्व फैसले ले रहे हैं, जिससे दिल्ली की आम जनता के बीच तेजी से निराशा फैल रही है।

शपथ के लिए मैट्रो में आना। मैट्रो के सारे कायदे कानून तोड़कर उसमें अव्यवस्था फैलाना। फिर टैंपो और बसों में दफ्तर आना और विश्वास मत प्राप्त होते ही बड़ी-बड़ी गाड़ियों को लपक लेना ऐसे ही बचकाने फैसले रहे हैं। गाड़ी लेनी ही थी तो पहले ही दिन क्यों नहीं ले ली ? सुरक्षा न लेने की जिद और सादी वर्दी में सुरक्षा के कवच, ये विरोधाभास कब तक चलेगा ? ऐसा नहीं है कि आम आदमी पार्टी से पहले देश में राजनेताओं ने अत्यंत सादगी और सच्चाई का जीवन न जिया हो। ऐसे तमाम उदाहरण हैं। भारत के गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता तक छोटे से फ्लैट में रहते रहे। कई मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री आज भी बिना लालबत्ती की गाड़ी के और बिना सुरक्षा के घर से दफ्तर पैदल आते-जाते हैं, जिसका कोई प्रचार नहीं करते। पर अनेक दूसरे झूठे दावों की तरह आम आदमी पार्टी के नेता इन मामलों में भी ऐसे ही झूठे दावे करते आ रहे हैं कि उन्होंने यह काम पहली बार किया।
अरविन्द केजरीवाल को याद होगा कि उन्होंने दिल्ली के आर्य समाज के कार्यालय में जनलोकपाल कानून पर चर्चा करने के लिए उन्होंने एक बैठक बुलाई थी। जिसमें हमने इस कानून की व्यवहारिकता पर सवाल उठाये थे। यह तब की बात है जब इनका जन लोकपाल आंदोलन ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था। हमने कहा था कि आपके बनाए जनलोकपाल कानून को लागू करने के लिए कम से कम 2 लाख नए कर्मचारियों की भर्ती करनी पड़ेगी। इस पर कम से कम 50 हजार करोड़ रूपया खर्चा आएगा। फिर ये गारंटी कैसे होगी कि ये 2 लाख कर्मचारी दूध के धुले हों और बने रहें। इसलिए हमने शुरू से अखबारों में अपने लेखों के माध्यम से और टी.वी. चैनलों में केजरीवाल, प्रशांत भूषण, अन्ना हजारे और इनके साथियों के साथ हर बहस में जनलोकपाल कानून की पूरी कल्पना का बार-बार बड़ी मजबूती से विश्लेषण करके इसकी अव्यवहारिकता को रेखांकित किया था। ये वो दौर था जब केजरीवाल की पहल पर दुनियाभर में इनके समर्थक ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपी लगाकर घूम रहे थे। उस वक्त इनसे जूझना ऐसा था मानो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया जाए। अतीत से बेखबर युवा पीढ़ी को भ्रमित करके केजरीवाल एंड पार्टी ने इतने सब्जबाग दिखा दिए हैं कि उन्हें इनके विरूद्ध सही बात सुनना भी उन्हें गंवारा नहीं होता। पर हम हमेशा वेगवती लहरों से जूझते आए हैं और बाद में समय ने यह सिद्ध किया कि हम सही थे और भीड़ की सोच गलत।
यह बात यहां इसलिए जरूरी है कि भ्रष्टाचारविहीन शासन का दावा करने वाले केजरीवाल के गत 3 सप्ताह के शासन में भ्रष्टाचार के विरूद्ध सिवाय बयानबाजी और नारेबाजी के कुछ ठोस नहीं हुआ। अब जनता को अगर स्टिंग ही करना पड़ेगा, तो जनता अपना काम कब करेगी और फिर मोटे वेतन लेने वाला प्रशासन क्या काम करेगा? जबकि केजरीवाल का दावा था कि वे 48 घंटे में शासन को जनता की शिकायतों के प्रति उत्तरदायी बना देंगे। जबकि हालत यह है कि वे शिकायतियों की भीड़ को संभालने की भी व्यवस्था भी नहीं बना पाए। सोचो अगर 122 करोड़ लोग जनलोकपाल को शिकायत भेजेंगे तो उन शिकायतों को जांचने और परखने और उनकी गंभीरता का मूल्यांकन करने में कितना लम्बा समय लगेगा ? कितनी दिक्कत आएगी ? इससे कितनी निराशा फैलेगी, इसका अंदाजा केजरीवाल को नहीं है। इस सबके बावजूद भी शिकायतों के मुकाबले समाधान नगण्य रहेंगे। यह पूरी सोच ही केवल आम जनता की दुखती नब्ज पर हाथ रखकर, उसे छलावे में डालकर, सब्जबाग दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने की है, जो आज हो रहा है। हालात इससे और बदतर होंगे, क्योंकि शिकायत करने वालों का जनसैलाब जब बढ़ेगा, तो केजरीवाल प्रशासन के लिए हर शिकायत को जांचना, समझना और समाधान देना दुश्कर होता जाएगा और इससे जनता में और हताशा फैलेगी।
माना कि आम आदमी पार्टी के नेता लोकसभा चुनाव पर दृष्टि रखकर हड़बड़ी में लोक लुभावने काम करने का माहौल बना रहे हैं। पर उससे जो हताशा फैल रही है, उसकी तरफ उनका कोई ध्यान नहीं है। आज आम आदमी और कांग्रेस के समर्थन ने केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया है। दो हफ्ते के भीतर ही दिल्ली के आम आदमी की छोटी-छोटी और जायज शिकायतें सुनने का प्रबंध भी नहीं हो पाया। जरा सोचिये कि उस आम आदमी की क्या मानसिक स्थिति होगी, जिसने अपनी भावनाएं आम आदमी पार्टी पर न्यौछावर कर दी थीं। दुख और चिंता इस बात की है कि आम आदमी का जो मोहभंग इतनी जल्दी हो गया है, तो अब उसके पास किसी पर विश्वास करने का कौन सा मौका बचेगा ? बीसियों साल से समाज की जटिल समस्याओं को समझने और उनके समाधान में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों के लिए क्या अब अपना काम करने में बड़ी मुश्किल खड़ी नहीं हो गई है ?
वक्त अभी भी नहीं गुजरा। अभी भी केजरीवाल अपने काम का तरीका सुधार सकते हैं। बशर्ते कि भावनाओं के आवेग को छोड़कर सबसे पहले राजनीतिक इतिहास और अब तक के राजनीतिक ज्ञान पर एक बार गौर कर लें और फिर जो भी घोषणा प्रेस के सामने करें उसका आगापीछा सोचकर करें। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए नहीं।

Monday, January 6, 2014

हताशा नहीं उत्साह की जरूरत

पिछले कुछ वर्षों से देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, मानो भारत गड्ढे में जा रहा हो। हर ओर केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला, गरीबों से हमदर्दी का नाटक और राहत, सब्सिडी, बेरोजगारी भत्ते जैसे झुनझुने थमाकर देश को नाकारा बनाया जा रहा है। जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है। 1947 में जब देश आजाद हुआ, तब वाकई हमारे पास न तो संसाधन थे, न आधारभूत ढांचा, न इतना योग्य युवा वर्ग और न ही बहुत सारे उद्यमी। औपनिवेशिक साम्राज्य के शिकंजे में जकड़ा भारत मध्ययुगीन जीवन जी रहा था। लेकिन आज आजादी के 66 साल बाद भारत दुनिया के खास देशों की कतार में खड़ा है। आज हमारे पास आधारभूत ढांचा है, विज्ञान और तकनीकि की समझ और एक से एक काबिल लोगों का भंडार है। उद्योगपतियों की एक लंबी कतार है, जो दुनिया के दूसरे देशों में भी निवेश कर रही है और पढ़ा-लिखा उत्साही युवा वर्ग ऊर्जा से भरपूर है। ऐसे में अब सोचने की जरूरत है कि हम केवल कमियां खोजते रहे या समाज में आगे बढ़ने की ललक पैदा करें। 

जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, इससे सब दुखी हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि हम दूसरे के भ्रष्टाचार को देखकर दुखी होते हैं, लेकिन जब अपनी बारी आती है, तो अपनी सुविधा का त्याग करने की कीमत पर भ्रष्टाचार से परहेज नहीं करते। दो दशक तक सत्ता के शिखर पर भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मैंने अनुभव किया कि समाज का कोई वर्ग, मीडिया और न्यायपालिका तक, इससे अछूते नहीं हैं। इसके साथ ही यह भी जानकर आश्चर्य हुआ कि दुनिया का शायद ही कोई देश हो, जो भ्रष्टाचार से पूरी तरह अछूता हो। जिस साम्यवादी चीन की प्रशंसा करते बुद्धिजीवियों के मुंह नहीं थकते, उसी चीन में सत्ता के शीर्ष पर भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए यह समझ बनीं कि जहां एक ओर भ्रष्टाचार से लड़ाई जारी रखी जाए। वहीं कुछ सकारात्मक करके भी दिखा जाए। आज इसी बात की सबसे ज्यादा जरूरत है। 

इस लेख के पाठकों से मैं यह प्रश्न पूछना चाहता हूं कि वे अखबार पढ़ते हैं, टीवी समाचार देखते हैं और फिर व्यवस्था की बुराई करते हैं। पर आपमें से कितने लोग ऐसे हैं, जो अपने घर के दरवाजे के बाहर से लेकर देश के बाकी हिस्सों तक अपनी क्षमता के अनुसार बिगड़ी व्यवस्थाओं को सुधारने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं ? हमारे घर में कूड़ा हो, तो पड़ोसी साफ करने नहीं आता। हमें ही करना होता हैै। तो हमारे समाज और देश में कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसे ठीक करने कोई पाकिस्तान से तो आयेगा नहीं ? मुझे लगता है कि जहां देश में उंगली उठाने वाले ज्यादा आक्रामक और भड़काऊ हो रहे हैं। वहीं व्यवस्थाओं को सुधारने वालों को भी एकजुट होकर एक वैकल्पिक मंच तैयार करना चाहिए और सार्थक समाधानों को लागू करवाने के लिए व्यवस्था और अपने परिवेश पर दवाब बनाना चाहिए। इसके दो लाभ होंगे एक तो हमारी इच्छा के अनुरूप हमारे परिवेश में बदलाव का माहौल बनेगा, दूसरा हमारी अतिरिक्त ऊर्जा का सदुपयोग राष्ट्र के निर्माण में होगा। जिससे समस्याएं भी घटेंगी और हमारा जीवन भी और सुखी होगा। 
यह जिम्मेदारी गम्भीर मीडियाकर्मियों की, बुद्धजीवियों की, अधिकारियों की और राजनेताओं की है कि वे उंगली उठाना छोड़कर समाधानों को लेकर शोर मचाएं और अपनी बात मनमाने के लिए दवाब बनाएं। ऐसा करने से एक हवा बनेगी, माहौल गर्म होगा और व्यवस्था पर भी दवाब बनेगा। ऐसा दवाब जिसमें बिना लागत के निरंतरता की संभावना होगी। जिससे स्थायी समाधान खोजे जा सकते हैं। 

कभी हम लोकनायक जयप्रकाश नारायण से देश के हालात सुधारने की उम्मीद करते हैं। कभी हम वीपी सिंह के लिए कहते हैं ‘‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकरीर है’’, कभी हम टीएन शेषन को देश का मसीहा मान बैठते हैं और बार हमारा मोहभंग होता है, फिर निराशा होती है। 10-20 वर्ष फिर एक मसीहा के इंतजार में गुजर जाते हैं। अब हम सोच रहे हैं कि केजरीवाल जादू की छड़ी घुमा देंगे। जबकि वे शपथ ग्रहण में खुद ही कह चुके हैं कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। यह हमें तय करना है कि हम सुबह से रात तक अपनी ऊर्जा का कैसा उपयोग करते हैं। रोजी रोटी के लिए तो सभी दौड़ते हैं। पर अपने परिवेश को सुधारने के लिए जो भी प्रयास हम करते हैं, उससे पूरे समाज को एक शुभ संकेत मिलता है, प्रेरणा मिलती है और आगे का मार्ग दिखायी देता है। दुख की बात यह है कि आज यह काम न तो हमारा राजनैतिक नेतृत्व कर रहा है और न ही बौद्धिक नेतृत्व। टेलीविजन चैनलों पर सारा समय गाली-गलौज देने में निकल जाता है, मानो देश में कुछ शुभ घट ही न रहा हो। यह आत्मघाती रवैया है। इससे बचना चाहिए और हमें अपने देश को, अपने समाज को, अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए एक सकारात्मक सोच को अपनाना चाहिए। इसी में हम सब का भला है।