Monday, February 24, 2014

सीबीआई में नियुक्ति पर बवाल

पिछले दिनों प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नियुक्ति समिति ने सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के पद पर श्रीमती अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके एक और विवाद खड़ा कर दिया है। उल्लेखनीय है कि यह नियुक्ति केन्द्रीय सर्तकता आयोग अधिनियम व दिल्ली पुलिस स्थापना कानून की अवज्ञा करके की गई है। इस कानून के अनुसार सी.बी.आई. में पुलिस अधीक्षक से लेकर विशेष निदेशक तक की नियुक्ति करने का अधिकार जिस समिति को दिया गया है, उसकी अध्यक्षता केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त करते हैं। इस समिति में दो सर्तकता आयुक्त, भारत के गृहसचिव व भारत के डी.ओ.पी.टी. विभाग के सचिव भी सदस्य होते हैं। सी.बी.आई. के निदेशक को सलाह लेने के लिए आमन्त्रित अतिथि के रूप में बुलाया जाता है। सी.बी.आई. के निदेशक की सलाह मानना इस समिति की बाध्यता नहीं है। पर इस समिति द्वारा जो नाम प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नियुक्ति समिति को भेजा जाता है, उससे मानना प्रधानमंत्री की समिति के लिए अनिवार्य है। अभी तक ऐसा ही होता आया है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विनीत नारायण फैसले के तहत सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के लिए यह निर्देश जारी किए थे।
पर अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके प्रधानमंत्री ने एक बार फिर इन नियमों की अवहेलना की है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की नियुक्ति के समय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की सलाह की उपेक्षा करके पी.जे. थामस को नियुक्त कर दिया था, जिस पर भारी बवाल मचा। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रूख को देखते हुए श्री थामस को इस्तीफा देना पड़ा। ठीक वैसी स्थिति अब पैदा हो गई है। केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने सी.बी.आई. के सह निदेशक पद के लिए बंगाल काडर के पुलिस अधिकारी आर.के. पचनन्दा का नाम प्रस्तावित किया था। जिसे डी.ओ.पी.टी. ने लौटाकर पुर्नविचार करने को कहा। जिसके बाद 26 दिसम्बर, 2013 को दूसरी बैठक में भी चयन समिति ने फिर से आरके पचनन्दा का नाम ही प्रस्तावित किया, अब यह सरकार की बाध्यता बन गया। पर सरकार ने इसकी परवाह नहीं की और किन्हीं दबावों में आकर अपनी मर्जी से सहनिदेशक की नियुक्ति कर दी। यहां प्रश्न की इस बात का नहीं है कि अर्चना रामासुन्दरम् योग्य हैं या नहीं। सवाल इस बात का है कि क्या प्रधानमंत्री का यह निर्णय कानून सम्मत है या नहीं, उत्तर है नहीं, तो फिर यह नियुक्ति अदालत की परीक्षा में कैसे खरी उतर पाएगी। अगर प्रधानमंत्री को आरके पचनन्दा के नाम पर आपत्ति थी, तो उन्हें इसके लिखितकारण बताकर समिति को पुर्नविचार करने के लिए कहना चाहिए था। पर ऐसा कोई आरोप सरकार ने पचनन्दा के विरूद्ध नहीं लगाया, इसलिए उनकी उम्मीदवारी की उपेक्षा का कोई कारण समझ में नहीं आता।
उल्लेखनीय है कि जब मुझे इस गैरकानून प्रक्रिया की भनक मिली, तो मैंने 7 फरवरी, 2014 को प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर ऐसा न करने की सलाह और चेतावनी दी। पर उसके बावजूद जब यह निर्णय हो गया, तो मुझे सार्वजनिक रूप से टेलीविजन चैनलों पर इसकी भत्र्सना करनी पड़ी और अब मैं इस मामले को सर्वोच्च अदालत में ले जाने की तैयारी कर रहा हूं।
मेरा प्रश्न इतना सा है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार गठित चयन समिति की कोई हैसियत सरकार के दिमाग में है या नहीं। अगर सरकार कानून का उल्लंघन करके सी.बी.आई. में अपनी पसंद के अधिकारी नियुक्त करना चाहती हैं, तो वह अदालत से कहकर उसके निर्देशों के विरूद्ध फैसला ले ले, क्योंकि फिर उसे केंद्रीय सर्तकता आयोग की जरूरत नहीं बचेगी। फिर तो वह सी.बी.आई. में मनमानी नियुक्ति कर सकती है। पर जब तक यह कानून प्रभावी है, इसका उल्लंघन गैर कानूनी माना जाएगा। इसलिए एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर ‘विनीत नारायण फैसले’ की पुर्नव्याख्या करवानी होगी।
 समझ में नहीं आता कि चुनावी वर्ष में, अपने कार्यकाल के अन्तिम कुछ हफ्तों में प्रधानमंत्री क्यों बार-बार ऐसी गलती दोहरा रहे हैं, जिस पर पहले भी उनकी फजीहत हो चुकी है। अब देखना यह है कि अदालत इस मामले में क्या निर्णय देती है।

जो भी हो, अगर फैसला सरकार के विरूद्ध आता है तो आरके पचनन्दा सी.बी.आई. के अतिरिक्त निदेशक नियुक्त किए जा सकते हैं और अगर फैसला सरकार के पक्ष में आता है, तो अर्चना रामासुन्दरम् इस स्थान को भर सकती हैं। फिलहाल वे तमिलनाडु काडर की पुलिस अधिकारी हैं। मैं समझता हूं कि इस जनहित याचिका पर अदालत का रूख सुने बिना अगर अर्चना रामासुन्दरम् सी.बी.आई. में पदभार ग्रहण कर लेती हैं और फिर फैसला उनके विरूद्ध आता है, तो उन्हें वापिस अपने राज्य लौटना होगा। शायद वे इतनी हड़बड़ी न दिखाएं और अदालत के फैसले का इंतजार करें।
जो भी हो सी.बी.आई. वैसे ही कम विवादों में नहीं रहती और फिर अगर उसकी नियुक्तियों को लेकर सरकार कठघरे में खड़ी हो जाए तो सरकार की क्या छवि बचेगी। इसलिए यह गम्भीर प्रश्न है। अब हमें जनहित याचिका दायर होने और उस पर सर्वोच्च न्यायालय क्या रूख लेता है, इसका इंतजार करना होगा।

Monday, February 17, 2014

केजरीवाल के रवैये से लोकतांत्रिक ढांचे को चोट पहुंची

केजरीवाल ने आखिरकार अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | दिल्ली में सरकार चला पाने में बुरी तरह से नाकामी के बाद केजरीवाल इतनी मुश्किल में फंस गए थे कि उन्हें किसी भी तरह के बहानों की सख्त ज़रूरत पड़ गई थी | और उन्होंने ऐसा बहाना ढूँढ ही लिया | और उन्होंने ऐसा ऐलान कर दिया जो किसी भी तरह से पूरा हो ही नहीं सकता था | अपने ऐलान में उनहोंने यह जोड़ दिया था कि अगर यह काम मैं नहीं कर पाया तो स्तीफा दे दूंगा | उनहोंने बहाना मिलाया था कि दिल्ली सरकार जन लोकपाल बिल लाएगी | यही ऐसा एलान था कि छोटी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को भी पता था कि केन्द्र शासित राज्य दिल्ली की सरकार कानूनी तौर पर यह प्रस्ताव ला ही नहीं सकती और वही हुआ और उसके बाद उन्होंने स्तीफा देकर अपनी बाकी सारी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | अब वे प्रचार में लग गए हैं कि सारे दल सारे मौजूदा नेता भ्रष्ट हैं इसीलिए उन्होंने जन लोकपाल बिल नहीं लाने दिया|

सच तो यह है कि केजरीवाल कि छवि दिन पर दिन खराब होती जा रही थी | दिल्ली का चुनाव लड़ने से पहले उनके किये सारे वादों कि एक-एक करके पोल खुलती जा रही थी | ऐसे में उनके पास इसे इलावा कोई विकल्प नहीं था की पूरी कि पूरी पोल खुल जाये उसके पहले ही वे किसी तरहर से मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठ कर भाग लें|

शुक्रवार की रात जब उनका ड्रामा चल रहा था तब कमोवेश सारे टी वी चैनल बता रहे थे कि केजरीवाल जल्द ही कुर्सी छोड़ कर भागने वाले हैं | लेकिन केजरीवाल बैठकों का दौर चला रहे थे और अपने समर्थकों को एस.एम.एस भिजवा कर कह रहे थे कि पार्टी के दफ्तर के बाहर जमा हो जाओ | उन्हों ने दो – तीन घंटे हरचंद कोशिश की कि किसी तरह अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाये और यह दिखाते हुए स्तीफे का ऐलान करें कि जनता उनके साथ है और जनता के कहने पर ही स्तीफा दे रहें हैं | उन्हें उम्मीद थी कि लोकसभा चुनावों के लिए गली-गली से उन्होंने जो टिकटार्थियों की लिस्ट बना ली है वे लोग अपने अपने समर्थकों के साथ दफ्तर के बाहर जमा हो जायेंगे | लेकिन जब भीड़ जमा नहीं हुई और ऐसे कोई आसार भी नहीं दिखे तो उन्होंने रात 9:30 बजे स्तीफे का एलान कर दिया | और बड़े वीराने माहौल में मुख्यमंत्री की कुर्सी बलिदान करने वाली मुद्रा में अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया |

लेकिन यह पिण्ड इतनी आसानी से छूटने वाला नहीं है | पिछले चार महीनों में दिल्ली में जो तमाशा हुआ है उसमे लाखों लोगों को शामिल कराया गया था | उन्हें सपने दिखाए गए थे | कुछ भोले भाले लोगों को उम्मीदें बंधाई गयी थीं | कुछ चश्मदीद भी इस खेल में स्वभावतः शामिल हो गए थे | यानी तरह तरह के इन लोगों की नज़रों में नाकाम साबित हो जाने के बाद और इन लोगों की नज़रों में गिर जाने की चिंता केजरीवाल को सता रही होगी | वैसे वे इतने चतुर हैं कि इस स्तिथि से निपटने का भी कोई इंतज़ाम उन्होंने और उनकी चतुर मंडली ने सोच लिया होगा | पर यह इतना आसान नहीं है |

अब उनके पास एक ही विकल्प बचा है लोकसभा चुनावों में उतरने कि तय्यारियों के नाम पर अपने दर्शकों और श्रोताओं को कुछ महीने और उलझाये रखें | चर्चा में बने रहने के हुनर में पाटू हो चुके केजरीवाल को बड़े गजब का यकीन हैं कि वे एक ही मुद्दे पर और एक ही प्रकार से बार बार बातें बना सकते हैं | लेकिंग इस पर सवाल उठाने के पीछे तर्क यह है कि इतिहास में ऐसा बार बार होने का कोई उदहारण मिलता नहीं है | या तो मुद्दे बदले गए हैं या लोग | इस दलील के पक्ष में यह अनुमान लगाये जा सकता है कि लोकसभा चुनाव आते आते या तो मुद्दे बदले जाएंगे या केजरीवाल अपने बीच से कोई विकल्प या मुखौटा खड़ा कर देंगे | वैसे उनके पास एक विकल्प यह भी है कि कुछ महीनों बाद वे राजनीति का मैदान छोड़ कर अन्नानुमा किसी सामाजिक आंदोलन पर वापिस लौट जायें |


राजनीति में केजरीवाल काण्ड की समीक्षा करते समय हमें यह भी सोचना होगा कि इससे नफा नुक्सान क्या हुआ | पहली नज़र में दीखता है की आन्दोलनों के प्रति समाज की निष्ठा दिन प्रतिदिन कम होती चली गयी और लोकतान्त्रिक राजनीति के ढांचे को चोट ज़रूर पहुंची | यह कहने का आधार यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति की जितनी कमजोरियां थी उनको तो समझ बूझ कर ही हमने यानी विश्व ने अपना रखा था | भले ही लोकतंत्र की सीमायें हम भूल गए हों बस यहीं पर इस उठापटक के पक्ष में बात जाती है कि उसने हमें याद दिलाया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कोई पूर्णतः निरापद व्यवस्था नहीं है और विचित्र स्तिथ्ती यह है कि इससे बेहतर कोई विकल्प भी हम सोच नहीं पाते | 

Monday, February 10, 2014

केवल कानूनों से नहीं रूक सकता भ्रष्टाचार

इस देश के हर आम और खास आदमी को पता है कि देश में हो रहे अपराधों को रोकने के लिए सैकड़ों कानून हैं। पुलिस और सी.बी.आई. है और नीचे से ऊपर तक न्यायिक तंत्र है, पर क्या इसके बावजूद अपराध घट रहे हैं ? फिर भी लोगों को लगातार बहाकाया जा रहा है कि सख्त कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि अपराध शास्त्र के शोध बताते हैं कि कानून से केवल 5 फीसद अपराध कम होते हैं। बाकी 95 फीसद अपराध कम करने के लिए दूसरे प्रयासों की जरूरत होती है।

 चूंकि भ्रष्टाचार भी एक अपराध है, तो हमें समझना होगा कि यह अपराध क्यों हो रहा है। इसको कैसे रोका जा सकता है ? जहां तक ताकतवर लोगों के भ्रष्टाचार का सवाल है, तो उसे अपराध शास्त्र की भाषा में ‘व्हाइट कालर क्राइम’ कहते हैं और इसकी परिभाषा यह है कि ‘वह अपराध, जिसे पकड़ा न जा सके’ यानि ताकतवार लोगों के भ्रष्टाचार को पकड़ना आसान नहीं होता। अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं। देशभर में राजनीति, प्रशासन, उद्योग और व्यापार से जुड़े ऐसे करोड़ों उदाहरण हैं, जहां बिना मेहनत के अकूत धन सम्पदा को जमा कर लिया गया है। इलाके के लोग जानते हैं कि यह संग्रह भ्रष्ट तरीकों से किया गया है। फिर भी इन अपराध करने वालों को पकड़ा नहीं जा पाता।
दरअसल भ्रष्टाचार के कारण दो हैं। एक-प्रवृत्ति और दूसरा-परिस्थिति। जितनी ही प्रवृत्ति और परिस्थिति ज्यादा प्रबल होगी, उतना ही उसे रोकने का कानून अप्रभावी होगा। प्रवृत्ति आती है, व्यक्ति के संस्कारों से और परिस्थितियां वो हालात हैं, जो एक आदमी को भ्रष्ट बनने का मौका देते हैं। अगर प्रवृत्ति सादा जीवन उच्च विचार की होगी, तो वह व्यक्ति भ्रष्ट आचरण करने से बचेगा। आज हम लोगों को यह बता रहे हैं कि खुशी पाने का तरीका है, रोज नई खरीददारी करते जाना। चाहे वह नई कारें का माॅडल हो या अन्य कोई सामान। बाजार की सभी शक्तियों, उनकी विज्ञापन एजेंसियों का एक ही मकसद है कि लोग खरीददारी करें। चाहे वो संपत्ति हो, उपकरण हों या सोना चांदी। इस तरह भूख और हवस को लगातार हवा दी जा रही है। जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा हो रहा है। नतीजा यह है कि लोग अनैतिक साधनों से अपनी इन कृत्रिम आवश्यकताओं को पूरा करने में संकोच नहीं करते और यही भ्रष्टाचार का कारण है।
इसके साथ ही समाज में नैतिक मूल्यों का तेजी से हृास हो रहा है। आज समाज के आदर्श कोई ज्ञानी, त्यागी या सिद्ध पुरूष नहीं हैं, बल्कि जिसके पास अकूत धन और ताकत है, उसी का समाज में बोलबाला है। वही धार्मिक, सामाजिक व शैक्षिक कार्यों को सहायता देता है और यश कमाता है। उसे देखकर हर व्यक्ति वैसा ही बनना चाहता है। फिर भ्रष्टाचार कैसे कम हो ? जो लोग सख्त कानून बनाकर भ्रष्टाचार रोकने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब सख्त कानूनों का विपरीत असर पड़ा है। फ्रांस के एक राजा ने मुनादी करवाई कि जेबकतरों को सरेआम फांसी दी जाएगी। अपेक्षा यह थी कि फांसी के डर से जेबकतरे जेबे नहीं काटेंगे। पर जब किसी अपराधी को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती थी, तो तमाशबीन लोगों की दर्जनों जेबें कट जाती थीं। मतलब साफ था कि फांसी पर लटकते हुए देखकर भी जेबकतरों के मन में डर पैदा नहीं होता था। यही बात भ्रष्टाचार विरोधी कानून की भी है। पिछले तीन बरस के हल्ले को छोड़कर अगर पीछे जाएं, तो पाएंगे कि मौजूदा कानून में ही एक क्लर्क से लेकर प्रधानमंत्री तक को पकड़ने की क्षमता थी। अगर उसका पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ, तो कानून की कमी के कारण नहीं, बल्कि उसको लागू करने वालों की प्रवृत्ति के कारण हुआ। फिर वो चाहे सी0बी0आई0 का पुलिस अधिकारी हो या सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश। नये कानून बनाकर भी यह परिस्थिति बदलने वाली नहीं है, क्योंकि लोग तो वही रहेंगे।
तो क्या कानून न बनाया जाए ? कानून की भी भूमिका केवल प्रतिरोध करने तक होती है, समाधान देने की नहीं। उस हद तक कानून की सार्थकता है, पर अगर भ्रष्टाचार से निपटना है, तो समाज में सादा जीवन व नैतिकता के मूल्यों पुर्नस्थापना करनी होगी। कोई प्रश्न कर सकता है कि संपन्न देशों में तो भौतिकता का स्तर ऊंचा है, फिर वहां आम आदमी के स्तर पर भ्रष्टाचार क्यों नहीं दिखाई देता। कारण स्पष्ट है कि वहां आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को सरकार पूरा कर देती है। चाहे उसे दूसरे देशों को लूटकर साधन जुटाने पड़ें, इसीलिए आदमी आसानी से भ्रष्टाचार करने का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं करता। पर फिर भी अपराध वहां कम नहीं होते।
इसलिए हम बार-बार यही दोहराते आए हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध केवल कानून बनाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। जो लोग कानून का मुद्दा पकड़कर तूफान मचा रहे हैं, वो भी मन में जानते हैं कि ये तो एक बहाना है, असली मकसद तो सत्ता पाना है। अब यह आम आदमी पर है कि वो नकाबों के पीछे की असलियत को देखे। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।

Monday, February 3, 2014

भाजपा में सुगबुगाहट

 देशभर में भाजपा व संघ के कार्यकर्ताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर भारी उत्साह है। वहीं भाजपा का पुराना नेतृत्व इस उत्साह के अनुरूप सक्रिय नहीं है। इसके दो कारण माने जा रहे हैं, एक तो यह कि भाजपा का पारंपरिक नेतृत्व अचानक आयी मोदी की बाढ़ से असहज है। उसे लगता है कि मोदी की सफलता का अर्थ उनका राजनीति में दरकिनार होना होगा। इसका कारण वे नरेंद्र मोदी की कार्यशैली बताते हैं। इसलिए वे स्वयं और अपने समर्थकों को उस तरह चुनाव की तैयारी में नहीं लगा रहे, जैसा भाजपा के पक्ष में बन रहे आज के माहौल में उन्हें लगाना चाहिए था। कोई भी लड़ाई आधे मन से जीती नहीं जा सकती। चाहे हम अपनी संभावित सफलता का कितना ही ढिढ़ोरा पीट लें।
 शायद नरेंद्र मोदी कैंप को इस मानसिकता का पूर्वाभास है, इसलिए मिशन मोदी के कर्णधारों ने बूथ के विश्लेषण से लेकर प्रत्याशियों के चयन तक की समानान्तर प्रक्रिया विकसित कर ली है। जिससे भाजपा के पारंपरिक नेतृत्व पर बोझ बने बिना अपनी चुनावी लड़ाई जमकर लड़ी जा सके। यह बात दीगर है कि इस लड़ाई को लड़ने के लिए मतदाता को बूथ तक लाने का जैसा मैनेजमेंट चाहिए और जैसे समर्पित युवा चाहिए, उन्हें टीम मोदी अभी सक्रिय नहीं कर पायी है। ऐसे युवाओं का कहना है कि उनके जैसे लाखों युवा मोदी के अभियान में सक्रिय होना चाहते हैं, पर उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिल रहे। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के स्वयंसेवी लोग जगह-जगह मलिन और निर्धन बस्तियों में मेज-कुर्सी लगाकर सदस्यता अभियान चला रहे हैं और तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बावजूद इसके कि अरविंद केजरीवाल का रेलभवन के सामने का धरना मध्यम वर्ग और पढ़े-लिखे समाज को पसंद नहीं आया। इसलिए दिल्ली में जैसा लोकप्रियता का ग्राफ चढ़ रहा था, वह गिरने लगा है। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार की नीतियों से अप्रभावित अन्य राज्यों के आम आदमी केजरीवाल की कारगुजारियों से उत्साहित हैं और भारी तादाद में सदस्य बन रहे हैं। टीम मोदी के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए।
 जुड़ने के प्रति जो आकर्षण है, उसका मूल कारण है कि राजनैतिक सोच रखने वाले देश के अनेकों लोगों को यह लगता है कि पारंपरिक राजनैतिक दलों में नए व्यक्तियों और नए विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वहां तो पुराने थके हुए गुटबाज नेताओं का ही वर्चस्व रहता है। जबकि (आआपा) में फिलहाल हर व्यक्ति को अपनी भूमिका नजर आ रही है। भविष्य में आम आदमी पार्टी (आआपा) की परिणति पारंपरिक दलों की तरह होगी या नहीं होगी, नहीं कहा जा सकता। पर आज तो पढ़े-लिखे लोग भी यह मान रहे हैं कि अन्य दलों का नेतृत्व अहंकारी है और वहां किसी की कोई सुनवाई नहीं होती।
 इस सबके बावजूद भाजपा में टिकटार्थियों की लाइनें लगना शुरू हो गई हैं। जिन राज्यों में हाल ही में भाजपा को प्रभावशाली सफलता मिली, वहां लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए बहुत से लोग इच्छुक हैं। उन्हें लगता है कि मोदी की बहती गंगा में वह भी हाथ धो लें। पर मोदी की टीम उम्मीदवारों के चयन में बहुत सचेत है। वह झूठे दावे करने वालों और वफादारी का नाटक करने वालों को पसंद नहीं करते। उन्हें तलाश है ऐसे चेहरों की जो मोदी के भारत निर्माण अभियान में ठोस और सक्रिय भूमिका निभा सकें। जो गुटबाजी से दूर हों और जिन्हें मोदी के नेतृत्व पर पूरा यकीन हो। ऐसे लोगों का चयन आसान नहीं होगा, क्योंकि ऐसे लोगों को समाज के निहित स्वार्थ कोई न कोई षडयंत्र चलाकर मुख्य धारा से दूर रखते हैं। जिससे उनकी दुकान फीकी न पड़ जाये। पर यह तो जौहरी की योग्यता पर है कि वह गुदड़ी में से भी हीरे पहचान कर ले आये।
 जहां तक आआपा के प्रभाव का प्रश्न है, यह सही है कि आआपा ने अपनी जमीनी पहचान बनाकर सभी प्रमुख राजनैतिक दलों में सुगबुगाहट पैदा कर दी है। पर वैचारिक अस्पष्टता और अराजक तौर तरीकों के कारण आआपा बदनाम भी कम नहीं हुई है। अपने सामने नेपाल का उदाहरण स्पष्ट है। वहां के माओवादी नेता अरविंद केजरीवाल की भाषा और तेवर में बोला करते थे। किस्मत से उन्हें सरकार भी बनाने का मौका मिला, पर उनके राज में नेपाल का जो बंटाधार हुआ कि वह खुद भी मैदान छोड़कर भागते नजर आये और नेपाल को पहले से बदतर हालत में लाकर खड़ा कर दिया। इसी तरह आआपा के नेताओं की अनुभवहीनता, अपरिपक्वता, अहंकार और आत्मश्लाघा से यह स्पष्ट हो गया है कि इनके पास नारों के अलावा देने को कुछ भी नहीं है। इस सबके बावजूद भारत का मतदाता किस ओर बैठेगा, नहीं कहा जा सकता।