Monday, March 3, 2014

फिर गठबंधन की मजबूरियों पर टिकी राजनीति

यानी गठबंधन की राजनीती से अभी भी छुटकारा मिलता नही दिखता | गठजोड़ की मजबूरियां पिछले दो दशकों से जतायी जा रही हैं | पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लगता था कि दो ध्रुवीय राजनीति फिर से शक्ल ले लेगी | लेकिन खास तौर पर अभी सिर्फ दो महीने पहले ऐसा दीखता था कि छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है | मगर उदित राज और पासवान के दलों से भाजपा ने जिस तरह का समझौता किया उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा महत्वपूर्ण समझी जा रही है |

यहाँ हमें यह भी देखना पड़ेगा कि भाजपा को आखिर इसकी इतनी ज़रूरत क्यों पड़ी | भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी का माहौल इतना ज़बरदस्त था तो इन गठबंधनों से उसने अपनी कमजोरी उजागर क्यों की | कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी चीज़ है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता | दो तीन महीने के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा के सामने यह सवाल उठाया जाता रहा है कि अकेले वह 272 का आंकड़ा लाएगी कहाँ से | अबतक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से ज्यादा से ज्यादा 230 हद से हद 240 को पार करने की बात किसी ने नहीं बताई | यानी बिना दूसरे दलों के समर्थन के बगैर बहुमत के जादूई आंकड़े को छूने की कोई स्तिथि बनती दीखती ही नहीं थी | ऐसे में अगर भाजपा ने गठबंदन के लिए कोशिशें जारी रखीं तो यह स्वाभाविक ही है | यह बात अलग है कि पिछले दो तीन महीने के चुनावी प्रचार में भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा कि देश में मोदी कि लहर है | ऐसा माहौल बनाये रखना भारतीय लोकतंत्र की चुनावी परंपरा में हमेशा होता आया है | सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं | बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चला और मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उसे हवा दी | लेकिन इन छोटे छोटे दलों से गठबंधन के काम ने उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाया है | हालांकि भाजपा को नुक्सान की बात कहना उतना सही भी नहीं होगा | क्योंकि बात यहाँ लहर या माहौल के नुक्सान की तो हो सकती है पर वास्तविक स्तिथि को देखें तो इससे कितना ही कम सही लेकिन कुछ न कुछ फायदा ज़रूर होगा |

क्योंकि भाजपा को घेरने वाले लोग हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी | और वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी | इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते रहते हैं कि आज की परिस्तिथी में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे | इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे | यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्तिथियों के हिसाब से बताई जाती है लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे छोटे दल मसलन पासवान या उदित राज भाजपा की ओर पहले ही चले आये | अब स्तिथी यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है | उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं |

कुलमिलाकर छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का भाजपा की ओर ध्रुविकरण की शुरुआत हो गयी है | एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी | बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं | ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं ? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता | अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ | महीनों से चल रही उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है | जबतक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता | इसीलिए हफ्ते – दोहफ्ते भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती |

वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश येही स्तिथि है | मसलन लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपना हिसाब भेज दिया है | लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया रुकी सी पड़ी है | खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है | हफ्ते-दोहफ्ते में चुनावी रंग जमेगा | 

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