Monday, May 26, 2014

जनता ने छुट्टी पर क्यों भेजा कांग्रेस को

कांग्रेस की हैरतअंगेज हार से उसके दुश्मन ही हैरान है। चुनाव के नतीजों के बाद पता लगा कि कांग्रेस की कमजोरी का अंदाजा लगाने तक में विश्लेषक बुरी तरह से नाकाम रहे।
    इतने आश्चर्यजनक नतीजों के बाद यह विश्लेषण करना समय संगत होगा कि कांग्रेस के साथ ऐसा क्यों हुआ। सबसे पहले कांग्रेस के नेताओं के विश्लेषण पर नजर डाल लें। मसलन मिलिंद देवड़ा का ख्याल है कि राहुल गांधी की चुनावी टीम चुनाव के मामले में अनुभवशून्य थी और उसमें चुनावी राजनीति की समझ ही नहीं थी। देवड़ा के इस बयान से खास हलचल मची है। उनके स्वर में कुछ और स्वर भी मिल रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात भी उतनी महत्वपूर्ण है कि देवड़ा खुद राहुल गांधी के नजदीकी माने जाते थे। क्या यह संभव है कि देवड़ा की बात पर राहुल गांधी गौर न करते रहे हों। बहरहाल, कांग्रेस की अपनी प्रकृति और इतिहास के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टीम जो भी रही हो और जो भी कोई और टीम बनती, उसके सामने यही चुनौती रहती कि पिछले दो साल से कांग्रेस की छवि जिस तरह से लहूलुहान होती जा रही थी, उसकी मरहम पट्टी कैसे की जाए ?
    छवि प्रबंधन के विशेषज्ञ मानते हैं कि छवि नाश और छवि निर्माण का काम ही ऐसा है कि उसे पल प्रतिपल के आधार पर किया जाता है। पाॅलिसी पैरालिसिस हो या घोटालों के आरोप हों - किसी भी आरोप के प्रतिकार के लिए कांग्रेस कभी भी तत्पर नहीं दिखी। प्रशासनिक स्तर पर भी कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। हर दिन एक के बाद एक आरोपों के बाद हुआ यह कि यूपीए सरकार के सामने आरोपों का पहाड़ सा ढे़र खड़ा हो गया ? टीम कैसी भी होती- चाहे विशेषज्ञ होते या राजनीतिक कौशलपटु नेता होते, वे विपक्ष और मीडिया के सामने आरोपों की ढ़ेर सारी फाइलें निपटा ही नहीं सकते थे ? यानी चुनाव के एलान होने के समय स्थिति ऐसी थी कि छवि सुधार का कोई भी उपाय नहीं ढूढ़ा जा सकता था। यानी तब तक चिड़ियां खेत चुग गई थीं।
    अब खुद राहुल गांधी और उनकी टीम के रवैए की पड़ताल भी कर लें। वैसे राहुल गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने में ही इतनी दुविधा दिखाई दी कि विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने अपनी प्रचार सामग्री में कांग्रेस को बिना कैप्टन की टीम साबित कर दिया। यानी राहुल गांधी को कमान सौंपे जाने के बावजूद यह संदेश नहीं जा पाया कि कांग्रेस बिना कैप्टन की टीम नहीं है।
    और फिर कांग्रेस का चुनाव प्रचार बचाव की मुद्रा में चला। उसे सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी उपलब्धियां गिनाने के काम में आक्रामक तरीके से लगना था, लेकिन वह पारंपरिक तरीकों से बातें करती रही। जबकि देश का माहौल इतनी तेज तर्रारी का था कि पारंपरिक तरीके उदासी को बढ़ाते रहे।
    होने को तो हो यह भी सकता है कि कांग्रेस ने मान लिया हो कि हालात ऐसे है कि कुछ भी करना बेकार है। इस परिकल्पना के हिसाब से सोचें तो हमें याद रखना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में भी ऊपरी तौर पर कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत मजबूत नहीं दिखी थी। लेकिन दोनों बार जनता से उसे साकार बनाने का जनादेश मिला था। कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बोनस के तौर पर थे। इधर बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को बारी-बारी से मौके देने का चलन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज से भी हो सकता है कि कांग्रेस ने इस बार पूर्वानुमान किया हो और तय किया हो कि फिजूल में ज्यादा तत्परता दिखाने से क्या फायदा। इस थ्योरी को मानकर चलें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ही क्यों ? और लड़ा भी तो दूसरे दलों के साथ बड़े पैमाने पर गठबंधन का खेल क्यों नहीं खेला ? इन सवालों के जवाब इस तरह से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने एक चुनाव से अवकाश की बात सोची होगी। क्योंकि सवा सौ साल के इतिहास वाली पार्टी उस तरह से फैसला नहीं कर सकती। रही गठबंधनों की बात तो कांग्रेस की परेशानी ही उसके सहयोगी दल रहे हैं। इस तरह हम निष्कर्ष निराल सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी घोर से गठबंधन वाली मजबूरियों से भी काफी कुछ निजात पा ली है। यह भी देख लेना चािहए कि इस चुनाव में कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? अपनी क्षत-विक्षत छवि को लिए जी रही कांग्रेस को छवि लाभ के लिए विश्राम का मौका मिल गया ? अपनी उपलब्धियों को गिनाने में नाकाम रही कांग्रेस को यह समझाने का मौका मिलेगा क जनता की जो आकांक्षा होती है या उसकी अपेक्षाएं होती हैं, उन्हें पूरा करना कितना मुश्किल होता है। सबसे ज्यादा मजा कांग्रेस को तब आएगा जब वह नई सरकार के कामकाज पर यह टिप्पणी कर रही होगी कि यही तो हम कर रहे थे।

Monday, May 19, 2014

मोदी को न समझने की भूल महेंगी पड़ी

    पिछले 10 वर्षों में पद्मश्री, राज्य सभा की सदस्यता या अपने अखबार या चैनल के लिए आर्थिक मदद की एवज में मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी के ऊपर लगातार हमले करता रहा। 2007 में एक स्टिंग ऑपरेशन भी किया गया। पर यह सब वार खाली गए क्योंकि इस तरह की पत्रकारिता करने वाले इस गलतफहमी में रहे कि जनता मूर्ख है और उनका खेल नहीं समझेगी। पर जनता ने बता दिया कि वह अपनी राय मीडिया से प्रभावित होकर नहीं बल्कि खुद की समझ से बनाती है। पिछले 10 वर्षों में जब-जब किसी मुद्दे पर मीडिया का एक बड़े वर्ग ने मोदी पर हमला बोला तो मैने 22 राज्यों में छपने वाले अपने साप्ताहिक लेखों में इन हमलावरों के खिलाफ कुछ प्रश्न खड़े किए। जिनका मकसद बार-बार यह बताना था कि उनके हर हमले से जनता के बीच मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। क्योंकि मोदी वो काम कर रहे थे जिनकी जनता को नेता से अपेक्षा होती है। नतीजा सबके सामने हैं। यह बात दूसरी है कि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले अब मोदी का गुणगान करने में नहीं हिचकेंगे। पर मोदी ने भी ऐसे लोगों की लगातार उपेक्षा कर यह बता दिया कि उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने का जुनून है और वो उसे पा कर ही रहेंगे।
    मोदी को लेकर साम्प्रदायिकता का जो आरोप लगाया गया उसे मुसलमानों की युवा पीढ़ी तक ने नकार दिया। 2010 में गुजरात के दौरे पर जब हर जगह मुसलमानों ने मोदी के काम के तरीके की तारीफ की तो मैंने लेख लिखा, ‘मुसलमानों ने मोदी को वोट क्यों दिया?’ हाल ही में वाराणसी की यात्रा में जब मैंने मुसलमानों से बात की तो पता चला कि पुराने विचारों के मुसलमान मोदी के खिलाफ थे वहीं युवा पीढ़ी ने मोदी के विकास के वायदों पर भरोसा जताया और उसका परिणाम सामने है। मोदी को कट्टर हिन्दूवादी बताने का अभियान चला रहे उन सभी लोगों को मैं यह बताना चाहता हूं कि उन्होंने आज तक हिन्दू धर्म की उदारता को समझने का प्रयास ही नहीं किया है। विविधता में एकता और हर जल को गंगा में मिलाकर गंगाजल बनाने वाली भारतीय संस्कृति न सिर्फ देश के लिए आवश्यक है बल्कि पूरी मानव जाती के लिए सार्थक है। जिसमें धर्माधता की मोई जगह नहीं। मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र मोदी अपने कड़े इरादे और कार्यशैली से भारत के मुसलमानों को भी तरक्की की राह पर ले जाएंगे। तब इन लोगों को पता चलेगा कि बिना मुस्लिम तुष्टिकरण के भी सबका भला किया जा सकता है।
    जब चुनाव परिणाम आ रहे थे तो मैं एक टीवी चैनल पर टिप्पणियां देने के लिए बुलाया गया था। उस वक्त कई साथी विशेषज्ञों ने प्रश्न किए कि मोदी ने जो बड़े-बड़े वायदे किए हैं, उन्हें कैसे पूरा करेंगे? मेरा जवाब था कि जिस तरह उन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद चुनाव में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है वह एक सोची-समझी लंबी रणनीति के कारण हो सका है। ठीक इसी तरह देश की हर बड़ी समस्या के समाधान के लिए मोदी ने चुनाव लड़ने से भी बहुत पहले से अपनी नीतियों के ब्लूप्रिंट तैयार कर रखे हैं। वे हर उस व्यक्ति पर निगाह रखे हुए है जो इन नीतियों के क्रियान्वयन में अच्छे परिणाम ला सकता है। मोदी किसी आईएएस या दल के नेताओं को भी अनावश्यक तरजीह नहीं देते। जिस कार्य के लिए जो व्यक्ति उन्हें योग्य लगता है उसे बुला कर काम और साधन सौप देते हैं। हाल ही में एक टीवी साक्षात्कार में मोदी ने कहा भी कि मैं कुछ नहीं करता केवल अनुभवी और योग्य लोगों को काम सौप देता हूं और वे ही सब काम कर देते हैं।
    अपनी सरकार के मंत्रिमण्डल और प्रमुख सचिवों की सूची वे पहले ही तैयार करे बैठे हैं। मंत्रिमण्डल का गठन होते ही उनकी रफ्तार दिखाई देने लगेगी। पर यहां एक प्रश्न हमें खुद से भी करना चाहिए। एक अकेला मोदी क्या कश्मीर से क्न्या कुमारी और कच्छ से आसाम तक की हर समस्या का हल फौरन दे सकते हैं। शायद देवता भी यह नहीं कर सकते। इसी लिए गंगा मैया की आरती करने के बाद मोदी ने पूरे देश के हर नागरिक का आह्वान किया कि वे अगर एक कदम आगे बढ़ाएंगे तो देश सवा सौ करोड़ कदम आगे बढ़ेगा। पिछले कुछ वर्षों में कुछ निहित स्वार्थों ने, जीवन में दोहरे मापदण्ड अपनाते हुए देश के लोकतंत्र को पटरी से उतारने की भरपूर कोशिश की। उन्हें देश विदेश से भारी आर्थिक सहायता मिली और उन्हें गलतफहमी हो गई कि मोदी के रथ को रोक देंगे। पर खुद उनका ही पत्ता साफ हो गया। उनका ही नहीं 10 साल से सत्ता में रही कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया। दरअसल इस देश की जनता को एक मजबूत इरादे वाले नेतृत्व का इंतजार था। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद आज तक देश को ऐसा नेतृत्व नहीं मिला। इसलिए देश मोदी के पीछे खड़ा हो गया। सांसद तो राजीव गांधी के मोदी से ज्यादा जीत कर आए थे। पर एक भले इन्सान होने के बावजूद राजीव गांधी राजनैतिक नासमझी, अनुभवहीनता, कोई राजनैतिक लक्ष्य का न होने के कारण अधूरे मन से राजनीति में आए थे। उन्हें स्वार्थी मित्र मण्डली ने घेर लिया था। इसलिए जल्दी विफल हो गए। जबकि नरेन्द्र मोदी के पास अनुभव, समझ, विश्वसनीयता, कार्यक्षमता और पूर्व निधारित स्पष्ट लक्ष्य है। इसलिए उनकी सफलता को लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। हां यह तभी होगा जब हर नागरिक राष्ट्रनिर्माण के काम में, बिना किसी पारितोषिक की अपेक्षा के, उत्साह से जुट़ेगा। ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना।’ वन्दे मातरम्।

Monday, May 5, 2014

क्या होंगी नई सरकार की चुनौतियां

 क्या राजनीतिक दल इतने चतुर हो गए हैं कि वे अब साफ-साफ वायदा भी नहीं करते ? इस बार के चुनाव का काम कुछ इस किस्म से हुआ है कि यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि नई सरकार के सामने चुनौतियां क्या होगी ?
 
 वैसे तो सभी दलों के लिए बड़ी आसान स्थिति है, क्योंकि किसी ने भी कोई साफ वायदा किया ही नहीं। हद यह हो गई है कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र सिर्फ एक नेग बनकर रह गए। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने चुनाव शुरू होने के बाद ही घोषणा पत्र की औपचारिकता निभाई। बहरहाल यहां घोषणा पत्र या वायदों की बात करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हम भावी सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों का पूर्वानुमान कर रहे हैं।
 
 कांग्रेस क्योंकि सत्ता में है और पिछले 10 साल से है। लिहाजा उसके पास अपनी उपलब्धियां गिनाने का मौका था और यह बताने का मौका था कि अगर वह फिर सत्ता में आयी, तो क्या और करेगी ? मगर वह यह काम ढंग से कर नहीं पायी। उसके चुनाव प्रचार अभियान का तो मतदाताओं को ज्यादा पता तक नहीं चल पाया। वैसे हो यह भी सकता है कि उसने यह तय किया हो कि लोग हमारे पिछले 10 साल के काम देखेंगे और वोट डालते समय उसके मुताबिक फैसला लेंगे, लेकिन उसका ऐसा सोचना प्रयासविहीनता की श्रेणी में ही रखा जाएगा।
 
 उधर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा चाहती तो यूपीए सरकार के कामकाज की समीक्षा करते हुए अपना प्रचार अभियान चला सकती थी। लेकिन पिछले दो साल से यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जिस तरह के आंदोलन और अभियान चलाए गए, उसके बाद उसे लगा कि इसी को इस चुनाव के मुद्दे बनाए जाएं और उसने ऐसा ही किया। इसलिए गुजरात मॉडल का ही प्रचार किया।
 
 चुनाव से पहले देश सुधारने के दावे तो सभी दल करते हैं। पर इस बार नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में घूम-घूमकर जिस तरह की अपेक्षाएं बढ़ाई हैं, उनसे उनके आलोचकों को यह कहने का मौका मिल गया है कि ये सब कोरे सपने हैं। सत्ता हाथ में आई, तो असलियत पता चलेगी। भारत को चलाना और विकास के रास्ते पर ले जाना कोई फूलों की शैय्या नहीं, कांटों भरी राह है। ये लोग गुजरात माॅडल को लेकर भी तमाम तरह की टीका-टिप्पणियां करते आए हैं। खासकर यह कि गुजरात के लोग परंपरा से ही उद्यमी रहे हैं। वहां हजारों साल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता आया है। इसलिए गुजरात की तरक्की में नरेंद्र मोदी को कोई पहाड़ नहीं तोड़ने पडे़। पर भारत के हर राज्य की आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियां भिन्न है।
 
 अब बात आती है कि नई सरकार आते ही कर क्या पायेगी ? यहां पर तीन स्थितियां बनती हैं। पहली-मोदी की सरकार बन ही जाएं, दूसरी-कांग्रेस दूसरे दलों के समर्थन से सरकार बना ले, तीसरी-क्षेत्रीय दल 30-40 प्रतिशत सीटें पाकर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बना लें। इन तीनों स्थतियों में सबसे ज्यादा दिलचस्प और बहुत ही कौतुहल पैदा करने वाली स्थिति मोदी के प्रधानमंत्री बनने की होगी। मोदी को आते ही देश को गुजरात बनाने का काम शुरू करना होगा, जो इस लिहाज से बड़ा मुश्किल है कि गुजरात जैसा आज है, वैसा गुजरात सदियों से था। पर देश को गुजरात बनाने में सदियां गुजर सकती हैं और फिर सवाल यह भी है कि देश को गुजरात बनाने की ही जरूरत क्यों है ? क्यों नहीं हर राज्य अपने-अपने क्षेत्र की चुनौतियों के लिहाज से व अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के लिहाज से विकास क्यों न करें ? खैर, ये तो सिर्फ एक बात है और ऐसी बात है, जो कि चुनाव प्रचार अभियान के दौरान सपने बेचते समय कही गई थीं। लेकिन उससे ज्यादा बड़ी चुनौती मोदी के सामने यह खड़ी होगी कि वह भ्रष्टाचार और कालेधन के मोर्चे पर क्या करते हैं ? इसके लिए बड़ी सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है, ये दोनों काम विकट और जटिल हैं। जिनके बारे में दुनिया के एक से बढ़कर एक वीर कुछ नहीं कर पाए। रही महंगाई की बात तो कहते हैं कि महंगाई को काबू करें, तो उद्योग व्यापार मुश्किल में आ जाते हैं और बिना उद्योग, व्यापार के विकास की कल्पना फिलहाल तो कोई सोच नहीं पाता। यही कारण है कि मोदी के आलोचकों को उनकी सफलता को लेकर संदेह है। पर इन लोगों को मोदी के प्रधानमंत्री के दावे को लेकर भी संदेह था। अब जब इस दावे को हकीकत में बदलने या ना बदलने में मात्र दो हफ्ते शेष हैं, तो ऐसा लगता है कि इन आलोचकों ने मन ही मन मोदी की विजय स्वीकार कर ली है। इसलिए अब वे उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद विफल होने के कयास लगा रहे हैं। यही मोदी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती है। आलोचकों की उन्हें परवाह नहीं होगी। पर मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चिंता उन्हें जरूर बैचेन करेगी। वही उनके जीवट की सही परीक्षा होगी।
 
 अलबत्ता, अगर सारे आंकलनों को धता बताते हुए भारत का मतदाता कांग्रेस के पक्ष में मतदान करता है, तो अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। अगर कांग्रेस की सरकार बनीं तो उसके सामने अपनी पुरानी योजना, परियोजनाओं को ही आगे बढ़ाने की चुनौती होगी। उसके लिए मनरेगा जैसी योजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का काम होगा। और इस बार भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जो मुश्किलें उसके सामने आईं हैं, उन्हें ठीक-ठाक करने का बड़ा भारी काम चुनौती के रूप में सामने होगा। इंतजार की घड़ियां अब जल्द ही खत्म होने वाली हैं।