Monday, June 8, 2015

मैगी पर बवाल-रसोई में उबाल

जब देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था, तब मैंने 1989 में देश की हिंदी टीवी समाचारों की पहली वीडियो मैगजीन कालचक्र जारी कर खोजी टीवी पत्रकारिता की भारत में शुरूआत की थी। उस समय हमारी इस वीडियो मैगजीन का उद्देश्य था कि जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले हर उस खाद्य या प्रसाधन, उत्पाद की जांच करना, जिसका बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यापक प्रचार प्रसार करती हैं। इसी क्रम में हमने एक खोजी रिपोर्ट जारी की थी ‘मैगी खाने के खतरे’। तब देश में निजी टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल वीडियो लाइब्रेरी के जरिये लोग हमारी समाचार वीडियो कैसेट किराए पर लेकर अपने वीसीआर पर देखते थे। इसलिए हर व्यक्ति तक यह सूचना नहीं पहुंची। अगर तब से किसी टीवी चैनल ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता, तो हालात आज इतने बेकाबू न होते।
 
दरअसल, खाद्य और प्रसाधन के जितने उत्पादन आज बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेच रही हैं। लगभग ये सब जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इनके मूल्य, इनकी लागत से 50 गुना ज्यादा होते हैं। इनके जो गुण बताकर इन्हें बेचा जाता है, वे ज्यादातर फर्जी होते हैं। इनमें ऐसे तमाम रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं और जिन्हें दुनिया के आर्थिक रूप से संपन्न देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। एक तो भारत में ऐसे अपराधों के विरूद्ध कड़े कानून नहीं हैं। दूसरा इन कानूनों को लागू करने वाले का आचरण पारदर्शी नहीं है। इसलिए मोटी रिश्वत लेकर हानिकारक पदार्थों को आसानी से बाजार में आने दिया जाता है। इस मामले में मोदी सरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिए, जिससे जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले पदार्थों के निर्माताओं और विक्रेताओं को पकड़े जाने पर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो। फिर वह चाहें बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देशी कंपनियां।
 
इस मामले में हमारी अपनी कमी का भी उल्लेख करना जरूरी है। आज हम विज्ञापन की चकाचैंध में इतने बह जाते हैं कि अपनी छोड़ अपने बच्चों की सेहत तक का हमें ख्याल नहीं रहता। पिछले दो दशक में देश की कितनी करोड़ माताओं ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों को मैगी बनाकर खिलायी होगी। माताएं क्यों नौकरीपेशा नौजवान जो पराए शहर में बिन ब्याहे रहते हैं, अक्सर मैगी खाकर अपना रात्रि भोज पूरा कर लेते हैं। ऊपर से कोकाकोला या पेप्सीकोला जैसे हानिकारक पेय पीकर मस्त हो जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि भारत की गर्म जलवायु में जब घर का बना ताजा खाना सुबह से शाम तक में सड़ने लगता है, तो ये पैकेट बंद खाद्य कैसे सड़े बिना रह जाते हैं। जाहिर है कि इनमें ऐसे प्रिजरवेटिव और रसायन मिलाए जाते हैं, जो इन्हें हफ्तों और महीनों सड़ने नहीं देते। पर यही प्रिजरवेटिव और रसायन हमारी आंत में जाकर उसे जरूर सड़ा देते हैं, कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर देते हैं। पर इस जंक फूड को खाने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचते कि हम क्या खा रहे हैं ? क्यों खा रहे हैं ? इसका हमारे स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? देखा जाए तो शहरों के ज्यादातर लोग आज फास्ट फूड के नाम पर जहर खा रहे हैं और सोच रहे हैं कि हम आधुनिक हो गए। जबकि हमारे गांव में रहने वाले परिवार दकियानूसी हैं, क्योंकि वहां आज भी चूल्हे पर ताजा दाल, सब्जी और रोटी पकाकर खायी जाती है। अगर पेयजल के प्रदूषण की समस्या को दूर कर लिया जाए, तो हमारे गांव में रहने वाले भाई-बहिन स्वास्थ्य के मामले में हर शहरी हिंदुस्तानी से 10 गुना बेहतर मिलेंगे। इस चुनौती को कहीं भी परखा जा सकता है। फिर हम क्यों जान-बूझकर मूर्खता कर रहे हैं ?
 
मजे की बात यह है कि जिन देशों में फास्ट फूड के नाम पर जंक फूड पनपा था, वहां आज सभ्य समाज ने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया है। पहले जब हम यूरोप या अमेरिका के डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में रसोई का सामान खरीदने जाते थे, तो हर चीज बंद डिब्बों में सजा-संवारकर बेची जाती थी। पर अब स्वास्थ्य की चिंता से उन देशों के लोगों ने खेतों से आयी ताजा सब्जी और अनाज खरीदना शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के हर शहर की एक सब्जी मंडी होती है, जहां ताजा सब्जियों के ढ़ेर लगे होते हैं। इन देशों के महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में भी सब्जियों के ढ़ेर उसी तरह लगे दिखाई देते हैं। यानि काल का पहिया जहां से चला, वहीं पहुंच गया।
 
मैगी नूडल्स को लेकर मचा बवाल निराधार नहीं है। समय आ गया है कि हम जागें। हवा प्रदूषित हो चुकी है, जल प्रदूषित हो चुका है, खाद्यान कीटनाशक दवाओं और रसायनिक उर्वरकों से जहरीले होते जा रहे हैं। ऐसे में हमें अपने पारंपरिक खाने की ओर लौटना होगा। जिसमें संपूर्णता है, सदियों की अपनाई हुई प्रमाणिकता है और हमारे स्वास्थ्य को दुरूस्त रखने की क्षमता है। हमें अपनी परंपराओं के प्रति सम्मान पैदा करना होगा। जिससे हमारे बच्चे मैगी और पेप्सी जैसे हानिकारक पदार्थों की जगह पौष्टिक भोजन में फिर से रूचि लेने लगें, वरना यह विवाद भी कुछ दिनों की अखबारी सुर्खियां बटोर कर ठंडा पड़ जाएगा और हम फिर से मैगी खाने में फक्र का अनुभव करेंगे।

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