Monday, August 3, 2015

हिंदू संस्कृति से इतना परहेज क्यों ?


याकूब मेमन की फांसी के बाद सुना है 25 हजार लोग उसके जनाजे में गए। ये वो लोग थे, जिनके शहर के वाशिंदों को 22 बरस पहले याकूब मेमन और उसके साथियों ने बिना वजह मौत के घाट उतार दिया था। दो-चार नहीं, दस-बीस नहीं, सैकड़ों लोगों के चिथड़े उड़ गए। उनमें हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, पारसी भी थे और दूसरे मजहब के लोग भी। इनका कोई कसूर नहीं था। बस, मुल्क के दुश्मनों, दहशतगर्दों और तस्करों ने ठान लिया कि हिंदुस्तान की हुकूमत को एक झटका देना है और इस तरह 1993 में मुंबई शहर में एक साथ दर्जनों जगह ब्लास्ट हुए। 
फिर भी इन हमलों के लिए दोषी याकूब मेनन की फांसी रूकवाने के लिए हिंदुस्तान के कई मशहूर लोगों ने तूफान खड़ा कर दिया। यहां तक कि सर्वोच्च अदालत को भी सुबह 3 बजे तक अदालत चलानी पड़ी। अपने को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले लोग याकूब मेमन की तरफदारी में सिर्फ इसलिए कूद पड़े कि उन्हें मुसलमानों की सहानुभूति मिले या उनके वोट मिले। वैसे, हकीकत यह भी है कि इस तरह का बबेला मचाने वालों को खाड़ी के देशों से मोटी रकम पेशगी दी जाती है। जिससे वो अखबारों, टीवी चैनलों और दूसरे मंचों पर उन सवालों को उठाए, जिनके लिए उन्हें विदेशी हुकूमत पैसा देती है। ये बात बार-बार उठी कि जब सरबजीत जैसे किसी हिंदू या सिक्ख को पाकिस्तान में फांसी दी जाती है, तब इन धर्मनिरपेक्षवादियों का खून क्यों नहीं खोलता ? अगर यह लोग वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं, तो इन्हें कश्मीर की घाटी से आतंकित करके निकाले गए हिंदूओं के लिए भी ऐसे ही चिल्लाना चाहिए था, पर, ये चुप रहे। 
    आज देश में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व मीडियाकर्मियों जैसे शोर मचाने वाले लोग दो खेमों में बंटे हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर आजाद भारत में 1947 से अपनी रोटियां सेंक रहे हैं, दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिन्हें भारत की सनातन सांस्कृतिक पहचान को लेकर भारी उत्तेजना है। इन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, वो देश की अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाएगी। पहले की तरह बहुसंख्यक समाज की भावनाओं और उनके मुद्दों को सांप्रदायिक कहकर दबाने की कोशिश नहीं करेगी। इसलिए लोगों में कुछ ज्यादा उत्साह है। इसमें मुश्किल तो हम जैसे लोगों की है। न तो हम धर्मनिरपेक्षवादियों की तरह खुद को हिंदू कहने से बचते हैं और न ही ‘गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं’ कहने वालों की हर बात से सहमत हैं। हम तो वो कहते हैं, जो समाज के हित में हमें ठीक लगता है। इसलिए हमें सारे मुसलमान गद्दार नजर नहीं आते और हिंदू धर्म के सारे झंडाबरदार हमें हिंदू संस्कृति के रक्षक नहीं लगते। धर्म का व्यापार उधर भी खूब चमकता है और इधर भी खूब चमकता है। इसलिए लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने की बजाय धर्म के ठेकेदार दूसरे धर्म वालों को दुश्मन बताकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और सांप्रदायिकता भड़काते हैं। 
     पर, ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति इन खेमों में ही बंटा हो। आज ही वाट्सअप पर मैंने एक पाकिस्तानी विद्वान का इंटरव्यू देखा, जो स्वयं कनाडा में रहते हैं। पर उनकी ससुराल भारत के गुजरात प्रांत में है। ये सज्जन कह रहे थे कि पाकिस्तान के मुसलमान और हिंदुस्तान के मुसलमान अशिक्षा के कारण कठमुल्लों के पीछे चलकर अपना बेड़ागर्क कर रहे हैं। जबकि हिंदू धर्म इतना विशाल हृदय है कि उनके हर शहर में आप 4 बजे लाउडस्पीकर पर अजान लगाकर पूरे शहर को जगाते हैं, फिर भी वे विरोध नहीं करते। जबकि उनका कहना था कि ऐसी जुर्रत अगर पाकिस्तान के किसी शहर में कोई हिंदू कर बैठे, तो उसे मार-मार कर खत्म कर दिया जाएगा और शहर में दंगा हो जाएगा। उनका कहना था कि कश्मीर पर हमारा कोई हक नहीं है। अगर ऐतिहासिक हक की बात करें, तो लाहौर जैसे शहर, जिन्हें भगवान राम के पुत्रों ने बसाया था, को वापिस लेने की मांग भारत भी कर सकता है। पर, ये वाहियात ख्याल है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि सिंधु नदी के इस पार रहने वाला हर आदमी हिंदुस्तानी है। चाहे वह पाकिस्तान में रहता हो, चाहे बांग्लादेश में। उनका यह जुमला तो मुझे बहुत ही जोरदार लगा कि ‘हमारे मुसलमान भाई बड़े भाई का कुर्ता और छोटे भाई का पाजामा पहनकर अपनी पहचान अलग रखते हैं और कार्टून नजर आते हैं।’ उनका मानना था कि हिंदुस्तान की पुरानी तहजीब हम सबकी जिंदगी का इतिहास है और उसे संजीदगी से समझना और उसका सम्मान करना चाहिए। अब ऐसी बात कोई मुसलमान भारत में क्यों नहीं करता, वह भी मीडिया पर। क्योंकि उसे डर है कि कोई कठमुल्ला फतवा जारी करके उसकी जान खतरे में डाल सकता है। इसलिए वह चुप रह जाने में ही अपनी भलाई समझता है। जिसका फायदा ऐसे धर्मांध छुठभइये नेता उठा लेते हैं, जो आवाम को लगातार हिंदूओं के खिलाफ भड़काकर समाज में वैमनस्यता और घृणा पैदा करते हैं। 
     हकीकत यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले किसी भी मुसलमान को खाड़ी के देशों में इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता। उनका अलग नाम रख दिया गया है। फिर भी ये मुसलमान अपनी पहचान खाड़ी के देशों से जोड़ना चाहते हैं। अगर वे भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं का सम्मान करना सीख लें, तो वे पाकिस्तान के मुसलमानों से कहीं ज्यादा आगे निकल जाएंगे। इसी तरह जरूरत इस बात की है कि हल्ला मचाने वाले धर्मनिरपेक्षता का सही मतलब समझें और समाज के हित में लिखते और बोलते वक्त ये ध्यान रखें कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यकवाद नहीं है। 

4 comments:

  1. इस देश में गद्दारो कि संख्या में आजादी के बाद इजाफा हुआ है । क्योकि जिन्होने हम सबको आजादी दिलाई वो तो शहीद हो गये और बचे खुचे वैसे ठिकाने लगा दिये गये । तो ये देश का दुर्भाग्य है ।

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  2. एक ही दिन दो ज़नाजे निकले एक मरकर भी इस देश को कश्मीर से कन्याकुमारी तक जोड़ गए और दूसरा जीते जी भी और मरने के बाद भी नफरत के बीज बो गया.

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  3. एक ही दिन दो ज़नाजे निकले एक मरकर भी इस देश को कश्मीर से कन्याकुमारी तक जोड़ गए और दूसरा जीते जी भी और मरने के बाद भी नफरत के बीज बो गया.

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  4. एक ही दिन दो ज़नाजे निकले एक मरकर भी इस देश को कश्मीर से कन्याकुमारी तक जोड़ गए और दूसरा जीते जी भी और मरने के बाद भी नफरत के बीज बो गया.

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