Monday, September 28, 2015

बैंकों को न मिले देश लूटने की छूट

पिछले सप्ताह ‘बैंकों का मायाजाल’ पर इस काॅलम में लिखे गए लेख पर पूरे देश से पाठकों के बहुत सारे फोन आए हैं, जो इस विषय को विस्तार से जानना चाहते हैं। इसलिए इस विषय को फिर ले रहे हैं। आज से लगभग तीन सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानि ‘बैंक आॅफ इग्लैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहें वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंग्लैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंग्लैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ, तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाउंड उधार मांगे। उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापिस नहीं करना था - (1) मनी चेंजर्स को इंग्लैंड के पैसे छापने के लिए एक केंद्रीय बैंक ‘बैंक आफ इंग्लैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा। जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे। पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानि महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया। जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वे इन केंद्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनायी और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमेरिका की तरफ पसारने शुरू किए। 

उस समय अमेरिका के प्रांतों की सरकारें अपनी-अपनी मुद्राएं बनाती थीं। परंतु इन बैंकरों ने इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वितीय पर दबाव डालकर इंग्लैंड के उपनिवेश अमेरिका पर दबाव डाला कि वहां की प्रांतीय सरकारें अपनी मुद्राएं न बनाएं और उन्हें जितना रूपया चाहिए, वे बैंकों से कर्ज के रूप में लें। इस शोषक व्यवस्था की स्थापना से अमेरिका में तरक्की की रास्ता रूक गया। प्रजा में अशांति हो गई और अमेरिका के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ दी और 1776 में अमेरिका आजाद हो गया।

      आजादी के बावजूद इन बैंकरों ने हार नहीं मानीं और नए हथकंड़े अपनाकर अमेरिका में एक के बाद एक दो केंद्रीय बैंकों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली और अपनी मुद्रा छापकर उसे अमेरिका में वैध मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया। इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैक्सन ने इस केंद्रीयकृत बैकिंग व्यवस्था को बंद करने की घोषणा कर दी और केंद्रीय बैंक बंद हो गया। लेकिन अपने जमा सोने के आधार पर प्रांतों के बैंक थोड़ा-थोड़ा पैसा जरूरत के हिसाब से बनाते रहे और अपने राज्यों में चलाते रहे। 1863 में जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा, तो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को पैसे की जरूरत पड़ी और वो इन बैंकरों से पैसा मांगने गए, तो इन्होंने बहुत ज्यादा ब्याज दर की मांग की। जिसको देने पर अब्राहम लिंकन राजी नहीं थे। उन्होंने अपने सचिव के सुझाव पर स्वयं ही मुद्रा छापने का निर्णय लिया और युद्ध जीत लिया। उनकी इस कामयाबी से तिलमिलाये बैंकरों ने 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या करवा दी। कुछ वर्षों तक अशांति रही और इस मामले में कोई स्पष्ट नीति नहीं आयी। पर 1907 तक इन बैंकरों ने एक अफवाह फैलाकर अमेरिका के छोटे बैंकों को असफल करवा दिया और समाधान के रूप में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की मांग की, जो 1913 में ‘फेडरल रिजर्व‘ के नाम से स्थापित हो गया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका पर कब्जा कर लेने के बाद इन लोगों ने पिछले 100 वर्ष में धीरे-धीरे दुनिया के सभी देशों में इसी तरह के केंद्रीय रिजर्व बैंक की स्थापना करवा दी और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा लिया। 

इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही। क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक आॅफ इंटरनेशनल सैटलमेंट’ बनाकर सारी दुनिया के केंद्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वो इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है, तो वे कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है। जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट। क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वो भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है, यानि सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और उद्योगपति। सब इस मकड़जाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं, जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं। यानि हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केंद्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रहे हैं। सरकारें कर्जें पर डूब रही हैं। गरीब आत्महत्या कर रहा है। महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है। 

4 comments:

  1. Modi ji Kab mukti dilayege is se

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  2. Modi ji Kab mukti dilayege is se

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  3. www.bankokamayajal.com
    Anyone can buy this book

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  4. सुरिन्दर जी मोदी जी तब मुक्ति दिलाएंगे जब आप मुक्ति के लिये लड़ोगे।

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