Monday, March 28, 2016

अखिलेश यादव की छवि सुधरी

 साइकिल पर उत्तर प्रदेश की यात्रा करके 2012 में समाजवादी पार्टी को भारी विजय दिलाने वाले युवा नेता अखिलेश यादव सत्ता संभालने के बाद लगभग 2 वर्ष तक ऐसा कुछ नहीं कर पाए, जिससे वे अपने मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतरते। जबकि उनमें उत्साह, ऊर्जा और सद्इच्छा की कमी नहीं थी। उनकी पार्टी के और परिवार के हालात कुछ ऐसे थे कि वे इन दोनों ही संदर्भों में बचपन वाले ‘टीपू’ ही समझे गए। बड़े-बुजुर्गों ने उन्हें स्वतंत्र फैसले नहीं लेने दिए, जिससे उन्हें कुछ करके दिखाने का मौका नहीं मिला। उधर संगठन के सम्मेलनों में और सार्वजनिक मंचों पर उनके पिता व सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव को लगातार नसीहतें देते रहे और उनके नकारा मंत्रियों को फटकारते रहे। इससे भी ऐसा संदेश गया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन जल्दी ही उन्हें इसका एहसास हो गया कि अगर राजनीति में लंबी पारी खेलनी है, तो अपनी शख्सियत को एक योग्य प्रशासक और नेता के रूप में स्थापित करना होगा।


नतीजतन वे बहुत सावधानी से और धीरे-धीरे टीपू के सांचे से निकलकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सांचे में ढलने लगे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि पिछले लोकसभा चुनाव में सभी दलों के जो युवा चुनाव जीते थे, उन युवा नेताओं में अखिलेश यादव का नाम आज सबसे ऊपर है। चाहे वे कांग्रेस के राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि हों, भाजपा के अनुराग ठाकुर, लोजपा के चिराग पासवान या हाल में बिहार विधानसभा चुनाव में जीतकर नेता बने लालू यादव के दोनों सुपुत्र। ऐसा किस्मत से नहीं हो गया। अखिलेश ने इसके लिए बड़ी सूझबूझ और दूरदृष्टि से शासन की बागडोर संभाली।

 पिछले दिनों मथुरा की सांसद और भाजपा के नेता हेमामालिनी मुझसे अखिलेश की सहृदयता और पाॅजीटिव सोच की तारीफ कर रही थीं। किसी विपक्ष के नेता से ऐसा प्रमाण पत्र मिलना वास्तव में अखिलेश की योग्यता का परिचय देता है। अखिलेश की जिस बात ने सबका मनमोहा है, वह है उनकी शालीनता और विनम्रता। आप युवा पीढ़ी के किसी भी नेता में यह गुण नहीं पाएंगे। वे चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में, उन्हें अपनी विरासत और अपनी हैसियत का अहंकार होता ही है। जबकि अखिलेश के पास इन सब युवा नेताओं से बड़ी ताकत है, देश के सबसे बड़े सूबे की बागडोर और एक मजबूत जनाधार। इसलिए भी उनकी विनम्रता मिलने वाले को प्रभावित करती है।

 पर्यावरण इंजीनियर होने के नाते और देश-विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा हासिल करने के कारण अखिलेश की दृष्टि संतुलित विकास की है। इसलिए उन्होंने अनेक कार्यक्रम और नीतियां अपनाकर उत्तर प्रदेश को पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भारत के अग्रणी राज्यों के साथ खड़ा कर दिया है। पहले लोग उत्तर प्रदेश को ‘उल्टा प्रदेश’ कहते थे। पर आज प्रदेश का व्यापारी समुदाय हो या आम जनता, वह मानती है कि प्रदेश का शासन काफी कुछ ढर्रे पर चल रहा है। जातिगत पक्षपात के आरोप क्षेत्रीय दलों पर प्रायः लगा करते हैं। सपा इससे अछूती नहीं है, पर बावजूद इसके जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश की जनता से भेदभाव हो, इसके उदाहरण थाना, प्रशासन स्तर पर कम ही देखने को मिलते हैं। जिससे ग्रामीण जनता को बहुत राहत मिली है।

 उत्तराखंड के अलग होने के बाद उत्तर प्रदेश में पर्यटन उद्योग को भारी झटका लगा था। पर अखिलेश यादव ने बुद्धा सर्किट, ताज सर्किट, ब्रज सर्किट जैसे अनेक नए पर्यटक सर्किट शुरू कर और उसमें स्वयं रूचि ले उत्तर प्रदेश के पर्यटन को सुधारने का काफी प्रशंसनीय कार्य किया है। यह बात दूसरी है कि योजनाओं के क्रियान्वयन में संस्थागत कमियों के कारण गुणवत्ता का अभाव अभी भी दिखाई देता है, जिसे सुधारने की जरूरत है। वह तभी संभव है, जब कार्यदायी संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और योजनाओं के मानक लागू करने पर प्रशासनिक दबाव हो।

 दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। एक वर्ग है, जो मानता है कि कुछ भी कर लो पहले नंबर पर बसपा ही रहेगी। दूसरा वर्ग है, जो उम्मीद करता है कि अमित शाह की रणनीति उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को धु्रवीकरण में समेटकर भाजपा को सत्ता में ले आएगी। लेकिन जैसा हमने पिछले सप्ताह लिखा था कि आमजनता के स्तर पर उत्तर प्रदेश में भाजपा को लेकर आज की तारीख में कोई उत्साह नहीं है। आज की जमीनी हकीकत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में मुकाबला सपा और बसपा में ही होता नजर आ रहा है। दोनों का ही नेतृत्व सशक्त है। अखिलेश यादव और मायावती दोनों में से जो जनता की कल्पनाशीलता में आश्वस्त करता नजर आएगा, उसे जनता उत्तर प्रदेश का शासन सौंप देगी। अब वो जमाने लद गए, जब सत्तारूढ़ दल को हराकर ही जनता संतुष्ट होती थी। अनेकों राज्यों के उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ दल 2 या 3 बार लगातार जीतकर सत्ता में रहा है। इधर यह स्पष्ट है कि अखिलेश यादव का आत्मविश्वास बढ़ा है और वे हर वो काम कर रहे हैं, जिससे उनको अगले चुनाव में फिर से जनता का विश्वास हासिल हो। इसके लिए जरूरी है कि वे जमीनीस्तर पर नौकरशाही को जवाबदेह और प्रभावी बनाएं और फैसले तीव्र गति से लें, जिनका परिणाम जमीन पर नजर आए।
 

Monday, March 21, 2016

संघ का एजेण्डा बम-बम

 बिहार चुनाव के बाद औधे मुंह गिरी भाजपा को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के घटनाक्रम से एक नई लीज मिल गई है। राष्ट्रवाद और देशद्रोह के सवाल पर मतदाताओं को लामबंद करने की योजना पर काम हो रहा है। इस उम्मीद में कि देशभक्ति एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं बचती। कौन होगा जो खुद को देशद्रोहियों की कतार में खड़ा करना चाहेगा। जवाब है मुट्ठीभर माओवादियों को छोड़कर कोई नहीं। वे भी खुलकर तो अपने को देशद्रोही मानने को तैयार नहीं होंगे। पर हकीकत यह है कि उनकी विचारधारा किसी देश की सीमाओं में बंधी नहीं होती। वे तो दुनिया के शोषित पीड़ितों के मसीहा बनने का दावा करते हैं।
 

भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सोचना यह है कि आने वाले दिनों में बंगाल, असम, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, पांडुचेरी, उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव में देशभक्ति और देशद्रोह के मुद्दे को जमकर भुनाया जा सकता है। ऐसा सोचने के पीछे आधार यह है कि जेएनयू के मुद्दे पर जिस आक्रामक तरीके से सोशल मीडिया, प्रिंट व टीवी मीडिया मुखर हुआ, उससे लगा कि यह मुद्दा घर-घर छा गया है और इसी मुद्दे को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। यह सही है कि भारत के मध्यमवर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा देशभक्ति और देशद्रोह की इस बहस में उलझ गया है और अपने को देशभक्तों की जमात के साथ खड़ा देख रहा है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ये भावना केवल मध्यमवर्गीय समाज तक सीमित है। इसका असर फिलहाल गांवों में देखने को नहीं मिलता।
 
 वैसे भी भारत के मतदाता का मिजाज कोई बहुत छिपा हुआ नहीं है। चुनाव के पहले अगर मोदी जैसी आंधी चले या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर चले, तो मतदाता भावुक होकर जरूर बह जाता है। पर ऐसी लहर हमेशा नहीं बनती। इसलिए ये मानना कि केवल देशभक्ति के मुद्दे पर देश का मतदाता भारी मात्रा में भाजपा के पक्ष में मतदान करेगा, शायद कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी बात है। जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव में अहम भूमिका किसान, मजदूर और गांवों के मतदाताओं की होती है और इतिहास बताता है कि अपवादों को छोड़कर देश का आम समाज और मध्यमवर्गीय समाज अलग-अलग सोच रखता है।
 
 आज जहां शहर के मध्यमवर्गीय समाज में देशभक्ति व देशद्रोह की चर्चा हो रही है। पर गांवों में इस चर्चा में कोई रूचि नहीं है। मैं लगातार देश में भ्रमण और व्याख्यान करने जाता रहता हूं और प्रयास करके उन राज्यों के देहाती इलाके में भी जाता हूं, ताकि आमआदमी की नब्ज पकड़ सकूं। पिछले कुछ दिनों में जब से जेएनयू विवाद उछला है, तब से जिन राज्यों के गांवों का मैंने दौरा किया वहां कहीं भी इस मुद्दे पर कोई बहस या चर्चा होते नहीं सुनी। गांवों के लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को लेकर ही चिंतित रहते हैं। उन्हें आज भी नरेंद्र भाई मोदी से भारी उम्मीद है कि वे बिना देरी किए उनके खातों में 15-15 लाख रूपया जमा करवा देंगे, जो उन्होंने चुनाव के दौरान विदेशों से निकलवाने का वायदा किया था, पर अभी तक ऐसा नहीं हुआ। ये लोग अपनी पासबुक लेकर मुंबई जैसे बड़े शहर तक में बैंकों के पास जाते हैं और पूछते हैं कि हमारे खाते में 15 लाख रूपए आए या नहीं। प्रायः बैंक मैनेजर उनसे मजाक में कह देते हैं कि खाते में तो नहीं आए, आप जाकर मोदीजी से मांग लो। इससे ग्रामीणों को बहुत निराशा होती है। 2 साल के बाद भी जब कालेधन का हिस्सा उन्हें नहीं मिला, तब उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है।
 
 प्रधानमंत्री के लिए ये संभव ही नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को धता-बताकर विदेशी बैंकों में जमा भारत के कालेधन को एक झटके में देश में ले आएं। खुदा न खास्ता अगर वे ऐसा करने में सफल हो भी जाते हैं, तो भी पैसा नागरिकों के बैंक खाते में तो जाएगा नहीं। वो तो राजकोश में जाएगा, जिसका उपयोग विकास योजनाओं में किया जा सकता है। इसलिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण जनता को यह स्पष्टतः समझा दे कि विदेशों में जमा कालाधन जनता के बैंक खातों में आने वाला नहीं है। अगर ये धन देश में आ भी गया, तो विकास कार्यों में तो भले ही खर्च हो जाए। पर उसे निजी हाथों में नहीं सौंपा जा सकता। ऐसा करने से जो उनकी नकारात्मक छवि बन रही है, वो नहीं बनेगी।
 
 गांवों की समस्याएं उनके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी हैं। जिनके समाधान हुए बिना ग्रामीण मतदाता प्रभावित होता नहीं दिख रहा। इसीलिए हर चुनाव में वो विपक्षी दल को समर्थन देता है। इस उम्मीद में कि, ‘तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही’। यह सही है कि देशभक्ति का मुद्दा बहुत अहम है। पर उससे भी ज्यादा अहम है गांवों की दशा सुधारना और रोजगार उपलब्ध कराना। जो बिना भारत की वैदिक ग्रामीण व्यवस्था की पुर्नस्थापना के कभी किया नहीं जा सकता। गांधीजी के ग्राम स्वराज का भी यही सपना था। विकास के आयातित मॉडल आजतक विफल रहे हैं। जिनसे देश की बहुसंख्यक आबादी का दुख दूर नहीं किया जा सका है। ऐसा किए बिना केवल देशभक्ति के नारे से विधानसभा चुनावों में वैतरणी पार हो पाएगी, उसमें हमें संदेह लगता है।   

Monday, March 14, 2016

अदालतें निर्णय लटकाती क्यों हैं ?

श्री श्री रविशंकर का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव होना था, हो गया। प्रधानमंत्री ने भी आकर आयोजकों की पीठ थपथपाई। सुना है कि दुनियाभर के कलाकारों ने सामूहिक प्रस्तुति देकर इंद्रधनुषीय छटा बिखेरी। पर, इसको लेकर जो विवाद हुआ, उसे टाला जा सकता था। अगर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को आपत्ति थी, तो जब इस कार्यक्रम के विरोध में जनहित याचिका दायर हुई थी, तभी निर्णय दे देना था। इतने महीने तक इसे लटकाया क्यों गया ? जब आयोजकों का करोड़ों रूपया इसके आयोजन में लग चुका, तब उनकी गर्दन पर तलवार लटकाकर, जो तनाव पैदा किया गया, उससे किसका लाभ हुआ? क्या पर्यावरण संबंधी चिंता का निराकरण हो गया ? क्या श्री श्री रविशंकर को आगे से ऐसा प्रयास न करने का सबक मिल गया ? क्या इससे यह तय हो गया कि भविष्य में अब कभी इस तरह के आयोजन पर्यावरण की उपेक्षा करके कहीं नहीं होंगे ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
दुर्भाग्य की बात है कि इस देश में न्यायपालिका का रवैया अनेक मुद्दों पर विवाद से परे नहीं रहता। जिसका बहुत गलत संदेश लोगों के बीच जाता है। दोनों पक्षों की सुनवाई हो जाने के बाद भी विभिन्न अदालतों में अक्सर सुना जाता है कि माननीय न्यायाधीश ने फैसला सुरक्षित कर दिया। सांप्रदायिक विवाद या ऐसे किसी मुद्दे को लेकर, जहां समाज में दंगा, उपद्रव या हिंसा होने की संभावना हो, फैसले को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है, जब तक कि स्थिति सामान्य न हो जाए। पर ज्यादातर मामले जिनमें फैसले लटकाए जाते हैं, उनमें ऐसी कोई स्थिति नहीं होती। मसलन, बड़े औद्योगिक घरानों के विरूद्ध कर वसूली के मामले में सुनवाई होने के बाद फैसला तुरंत क्यों नहीं दिया जाता ?
भारत के मुख्य न्यायाधीश तक सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत की अदालतों में नीचे से ऊपर तक कुछ न कुछ भ्रष्टाचार व्याप्त है और मौजूदा कानून भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में कुछ भी कर पाने में अक्षम है। केवल एक रास्ता है कि संसद में महाभियोग चलाकर ही ऐसे न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। अक्सर सुनने में आता है कि विभिन्न अदालतों में भ्रष्ट न्यायाधीशों के दलाल काफी खुलेआम सौदे करते पाए जाते हैं। यहां तक कि अदालत के पुस्तकालयों के चपरासी तक ये बता देते हैं कि किस न्यायाधीश से फैसला लेने के लिए कौन-सा वकील करना फायदे में रहेगा। ऐसा सब न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता। पर जिन पर यह आरोप लागू होता है, उनका आजतक क्या बिगड़ा है ? आजादी के बाद भ्रष्टाचार के आरोप में कितने न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाया गया है ? उत्तर होगा नगण्य। ऐसे में फैसले लटकाने की प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई निहित स्वार्थ हो, तो क्या इस संभावना को नकारा जा सकता है ? इस तरह के न्यायाधीश अक्सर ऐसे फैसले जिनमें एक पक्ष को भारी आर्थिक लाभ होने वाला हो, अपने सेवाकाल की समाप्ति के अंतिम दो-तीन सप्ताहों में ही करते हैं। यह प्रवृत्ति अपने आपमें संशय पैदा करने वाली होती है।
श्री श्री रविशंकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। विभिन्न देशों व धर्मों की सरकारें उनका स्वागत अभिनंदन करती रही हैं। उनके शिष्यों का भी विस्तार पूरी दुनिया में है। जब ऐसे व्यक्ति को भी अदालत के कारण आखिरी समय तक सांसत में जान डालकर रहना पड़ा हो, तो इस देश के आमआदमी की क्या हालत होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। विपक्ष का आरोप है कि श्री श्री रविशंकर के इस आयोजन के लिए सरकार ने अपनी ताकत का दुरूपयोग किया। फौज, का इस्तेमाल कार्यक्रम की तैयारी के लिए करवाया। जनता के दुख-दर्दों पर ध्यान न देकर सरकार फिजूल खर्ची करवा रही है।
तो विपक्ष से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि कांग्रेस के शासनकाल में जम्मू कश्मीर के ऊधमपुर जिले में पटनीटाॅप के पहाड़ी क्षेत्र पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने योग के नाम पर कैसे विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था ? जबकि इन सारे भवनों का निर्माण फौज राज्य और वन विभाग के सभी कानूनों का उल्लंघन करके किया गया था। भारी सैन्यबल से सज्जित इस क्षेत्र में धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने हवाई अड्डे से लेकर पांच सितारा होटल और प्रतिबंधित वन क्षेत्र में लंबी-लंबी सड़कें तक कैसे बनवाईं, किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ? प्रधानमंत्री राजीव गांधी व सोनिया गांधी ने इस अवैध निर्माण का आतिथ्य लेने में क्यों संकोच नहीं किया ? इसी तरह राजीव गांधी के समय में उत्सवों की एक बड़ी श्रृंखला देश-विदेशों में चली, जिसमें उनके मित्र राजीव सेठी जैसे लोगों ने खूब चांदी काटी। तब किसी ने यह प्रश्न नहीं किया कि इन उत्सवों से आमआदमी को क्या लाभ मिल रहा है ? दरअसल हर दौर में ऐसा होता आया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसमें नया क्या है ?
इसलिए किसी ऐसे विवाद को लेकर चाहे अदालत की भूमिका हो या विपक्ष की, विरोध अगर सैद्धांतिक होगा और व्यापक जनहित में होगा, तो उसका हर कोई सम्मान करेगा। पर अगर विरोध के पीछे राजनैतिक या कोई अन्य स्वार्थ छिपे हों, तो वह केवल अखबार की सुर्खियों तक सीमित रहेगा, उससे कोई स्थाई परिवर्तन या सुधार कभी नहीं होगा।

Monday, March 7, 2016

देशद्रोह और राजद्रोह में क्या अंतर है ?

 जो देश के विखंडन की बात करे, आतंकवाद का समर्थन करें, सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करे निःसंदेह वह देशद्रोही है और उसे देश के कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए। पर देशद्रोह और राजद्रोह में अंतर है। अंग्रेज सरकार ने आजादी की मांग करने वाले सरदार भगत सिंह जैसे युवा देशभक्तों पर राजद्रोह के मुकदमें चलाए थे। पर आजाद भारत में राजद्रोह के आरोप लगाकर किसी को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। क्योंकि चुनी हुई सरकार भी केवल एक तिहाई मतों से ही सत्ता में आती है। यानि दो तिहाई मतदाताओं का उसे समर्थन प्राप्त नहीं होता। जाहिर है कि ऐसे मतदाता चुनी हुई सरकार से मतभेद रखते हैं। इसलिए लोकतंत्र में उन्हें अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने की छूट होती है। इसलिए सरकार का विरोध करना राजद्रोह होता है। राजद्रोह को देशद्रोह नहीं माना जा सकता और देशद्रोह करने वाले को माफ नहीं किया जा सकता।


आज देशद्रोह को लेकर देश में एक बहस चल रही है। जहां राजद्रोह और देशद्रोह के भेद को गड्ड-मड्ड कर दिया गया है। आम लोग दोनों में अंतर नहीं कर पा रहे। पर जो लोग इस फर्क को समझते हैं, उन्हें कोई भ्रांति नहीं है। वे मानते हैं कि भारत की संप्रभुता और सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना है कि जो खान माफिया खनन के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का नृशंसता से, रात-दिन अवैध खनन कर रहा है और उन इलाकों में रहने वाले जनजातीय लोगों के जीने के साधन छीनकर उन्हें महानगरों की गंदी बस्तियों में धकेल रहा है, क्या वे देशद्रोही नहीं है ? जो बिल्डर माफिया निर्बल वर्ग की जमीनों का ‘लैंड यूज’ बदलवाकर उन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर अरबों के कारोबार कर रहा है, क्या वे देशद्रोही नहीं है ? जो उद्योगपति बैंकों से लाखों रूपया कर्जा लेकर डकार जाते हैं, ब्याज देना तो दूर मूल तक वापिस नहीं करते और इस देश के आम लोगों की मेहनत की कमाई को हड़प कर गुलछर्रे उड़ाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं ? सीमा पर जान की बाजी लगाने वाले सेना के नौजवानों के लिए खरीदे जाने वाले सामान और आयुध की खरीद में जो अरबों रूपये का कमीशन डकार जाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं ? सारे देश में गरीब किसानों के नौजवान बेटों से पुलिस में या स्कूल में अध्यापक की नौकरी देने के लिए जो रिश्वत लेते हैं, क्या ये लोग देशद्रोही नहीं हैं ? भारत के मुख्य न्यायाधीश तक ये बात सार्वजनिक रूप से मान चुके हैं कि अदालतों में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार व्याप्त है, तो क्या भ्रष्टाचार करने वाले जज देशद्रोही नहीं हैं ?

पर देशद्रोह के नाम पर आज देश में जो बहस चल रही है, उनमें ये सवाल नहीं उठाए जा रहे। इसलिए इस बहस का कोई दूरगामी परिणाम निकलने वाला नहीं है। यह भी एक और भावनात्मक मुद्दा बनकर कुछ ही दिनों में पानी के बुलबुले की तरह फूट जाएगा। क्योंकि बुनियादी सवाल खड़े किए बिना, उन पर बहस किए बिना, उनका समाधान खोजे बिना, ये मतभेद खत्म नहीं होगा। यह बात सरकार और उसके समर्थन में खड़े हर आदमी को समझ लेनी चाहिए, चाहे वो किसी भी दल का क्यों न हो। क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न आ जाए, उसके तौर-तरीके हालात में बहुत बुनियादी बदलाव नहीं ला पाते। इस विषय में वामपंथी दल भी कोई अपवाद नहीं है।

केरल और पश्चिम बंगाल में जहां लंबे समय तक जनता ने वामपंथी सरकार का काम देखा है, वहां की जनता यह कहने में कोई संकोच नहीं करती कि इन सरकारों ने आम आदमी की हैसियत में कोई सुधार नहीं किया, उसकी बदहाली दूर नहीं की। इतना ही नहीं इन सरकारों ने लोकतांत्रिक मूल्यों का भी सम्मान नहीं किया। नतीजतन वामपंथी सरकारों के विरूद्ध गुस्साई युवा पीढ़ी को नक्सलवाद का सहारा लेना पड़ा।

इस परिप्रेक्ष्य में जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया का, रिहाई के बाद का, भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। जहां एक तरफ उसने अपना वही तेज-तर्रार तेवर कायम रखा है और अपने तर्कों से स्वयं को निर्दोष बताते हुए मोदी सरकार की खुलकर खिंचाई की है, वहीं कन्हैया ने क्रांति का अपना लक्ष्य जोरदारी से उठाया है। जिससे उस पर लगे देशद्रोह के आरोप की धार भौंथरी हुई है। पर प्रश्न ये है कि मुट्ठी हवा में लहराकर मनुवाद का विरोध करने वाले वामपंथी कभी कठमुल्लेपन का और शरीयत का ऐसा ही जोरदार विरोध करते नजर क्यों नहीं आते, उनके इस इकतरफा रवैए से क्षुब्ध होकर ही वृह्द हिंदू समाज उन्हें देशद्रोही करार दे देता है। उधर वामपंथ की विचारधारा अपने जन्मस्थलों में ही असफल सिद्ध हो चुकी है। भारत में भी इसका प्रदर्शन कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया। इसके बावजूद क्या वजह है कि कन्हैया जैसे नौजवान केवल वामपंथ के रटे रटाए नारे लगाते हैं। पर उनके पास जनसमस्याओं के हल के लिए कोई ठोस समाधान उपलब्ध नहीं है। वे तो यह भी गारंटी नहीं ले सकते कि अगर कभी उनकी सरकार आ गई, तो उनके पास समाधान और विकास का कारामद ब्लू प्रिंट तैयार है ? ऐसा कोई ब्लू प्रिंट है ही नहीं, होता तो अब तक उसके परिणाम दुनिया में दिखाई देते। एक असफल विचारधारा को मरे सांप की तरह गले में लटकाने से कोई क्रांति नहीं होने जा रही।

रही बात व्यवस्था से लड़ने के लिए हिंसा अपनाने की, तो वैदिक संस्कृति का प्रमुख ग्रंथ भगवद् गीता ही हिंसक युद्ध की वकालत करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि आताताइयों, अत्याचारियों और देशद्रोह करने वालों से युद्ध लड़ना और उन्हें मार डालना, पुण्य प्राप्ति का मार्ग है, पाप का नहीं। माक्र्सवाद और गीतावाद के रास्ते अलग हो सकते हैं, पर लक्ष्य दोनों का समाज को सुखी और संपन्न बनाना है। अपने प्रयोग में विफल रहे माक्र्सवादियों को चाहिए कि अब कुछ दिन सनातन वैदिक ज्ञान और गीतावाद का प्रयोग करके देखें। उस ज्ञान का जिसका प्रकाश हर विषय पर समाधान देता है। पर उसे समझने और अपनाने का कोई ईमानदार प्रयास कभी हुआ नहीं। दूसरी तरफ दुनियाभर के देश खुलेआम या चोरी-छिपे सनातन वैदिक ज्ञान को आधार बनाकर भविष्य की संभावित जीवन पद्धति पर शोध कर रहे हैं। जबकि भारत में हम आज भी इस बहुमूल्य ज्ञान का उपहास उड़ा रहे हैं। इसे समझकर, विवेकपूर्ण तरीके से अपनाकर ही हम अपने समाज का भला कर सकते हैं।