Monday, January 16, 2017

डायरी रिश्वत का सबूत कैसे है

     कैसा इत्तफाक है कि आज से ठीक 21 वर्ष पहले 16 जनवरी 1996 को देश की राजनीति को पहली बार पूरी तरह झकझोर देने वाले हवाला कांड की बारिकियों को आज मुझे फिर प्रस्तुत करना पड़ रहा है। सहारा डायरियों के मामले में प्रशांत भूषण की बात सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं मानी। न्यायालय का मत था कि केवल डायरी के आधार पर प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई जांच नहीं की जा सकती। साथ ही न्यायालय ने ‘विनीत नारायण केस’ का भी हवाला देते हुए कहा कि कहीं ऐसा न हो कि बाद में सब आरोपी बरी हो जाऐं।

     मुझे सहारा डायरियों के विषय में कोई जानकारी नहीं है इसलिए मैं उस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। किंतु हवाला केस का जिक्र जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने किया है, उससे मैं असहमत हूं। जैन डायरी हवाला कांड में आरोपी नेता सबूतों के अभाव में आरोप मुक्त नहीं हुए थे। बल्कि सी.बी.आई. की आपराधिक साजिश के कारण वे छूट गये। जिसमें मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की भूमिका भी संदेहास्पद रही। यह सारे तथ्य मेरी पुस्तक 'भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में प्रमाणों के सहित दिये गये। इस पुस्तक को vineetnarain.net वेवसाईट पर निशुल्क पढ़ा जा सकता है।

     जहां तक जैन डायरियों की वैधता का सवाल है। सुप्रीम कोर्ट ने इन डायरियों की अहमियत समझ कर ही दिसम्बर 1993 में इस मामले को जाँच के लिए स्वीकार किया था तथा सी.बी.आई. को इस मामले से जुड़े और तथ्यों का पता लगाने का आदेश दिया था।

     सुप्रीम कोर्ट ने इस डायरी को एक सीलबंद लिफाफे में रखकर न्यायालय के पास जमा करने के आदेश दिए। आपराधिक मामले की किसी जाँच के दौरान छापे में बरामद दस्तावेजों को सुरक्षा की दृष्टि से न्यायालय में जमा कराने की यह पहली घटना थी। इतना ही नहीं, इन दस्तावेजों को रखने वाले लॉकरों की चाबियों की सुरक्षा की भी सर्वोच्च न्यायालय ने माकूल व्यवस्था की थी। जाहिर है कि इन डायरियों का हवाला केस के लिए भारी महत्त्व था। तो फिर ये सबूत कैसे नहीं हैं ?

     इस केस की सुनवाई के दौरान सी.बी.आई. की सीमाओं को महसूस करते हुए व इस डायरी की अहमियत समझ कर ही सुप्रीम कोर्ट ने हवाला केस की जाँच को पाँच वकीलों की एक निगरानी समिति को सौंपने का लगभग मन बना लिया था। पर भारत सरकार के वकील की पैरवी और जाँच एजेंसियों की तरफ से ईमानदारी से ठीक जाँच करने का आश्वासन मिलने के बाद सी.बी.आई. व अन्य एजेंसियों को उपलब्ध तथ्यों के आधार पर जाँच करने के आदेश दिए थे। इसी से सिद्ध होता है कि ये डायरियाँ कितनी महत्त्वपूर्ण हैं।

     ये डायरियाँ साधारण नहीं हैं। हिसाब-किताब रखने व नियमित रूप से लिखी जाने वाली ये डायरियाँ बाकायदा 'खाता पुस्तकें ' हैं। ये डायरियाँ जैन बंधुओं के यहाँ अचानक डाले गए छापे में मिली थीं। किसी ने साजिशन वहाँ नहीं रखी थीं। राजनेताओं से जैन बंधुओं के संपर्क जगजाहिर हैं। जैन बंधु जैसे लोगों से धन लेना राजनीतिक दायरों में कोई नई बात नहीं है। चूंकि इतने ताकतवर लोगों से जैन बंधुओं का व्यक्तिगत संबंध है, इसलिए वे ख्वाब में भी उम्मीद नहीं कर सकते थे कि उनके यहाँ भी कभी सी.बी.आई. का छापा पड़ सकता है। इसलिए वे बेखौफ अपना कारोबार चला रहे थे कि अचानक आतंकवादियों के आर्थिक स्रोत ढ़ूढ़ते-ढ़ूंढ़ते सी.बी.आई. वाले उनके यहाँ आ धमके। जैन बंधुओं की किसी से दुश्मनी तो थी नहीं जो वे उसका नाम अपने खाते में दर्ज करते। जिससे उनका जैसा लेना-देना था, वैसी ही प्रविष्टियाँ इन खातों में दर्ज हैं। यहाँ तक कि कई जगह तो चेक से किए गए भुगतान भी दर्ज हैं, जो इन डायरियों की वैधता को स्थापित करता है। फिर विभिन्न दलों के कोई दर्जन भर राजनेता स्वीकार कर चुके हैं कि उनके नाम के सामने जैन खातों में दर्ज रकम ठीक लिखी गई है। ये रकमें उन्हें वाकई जैन बंधुओं से मिली थीं। सुरेंद्र जैन भी 11 मार्च 1995 में दिए गए अपने विस्तृत लिखित बयान में यह बात स्वीकार कर चुके हैं। 

    कैसा विरोधाभास है कि पैसा देने वाला स्वीकार कर रहा है, पैसा लेने वाले स्वीकार कर रहे हैं, नकदी और विदेशी मुद्रा छापे में बरामद हो रही है, फिर भी इस पूरे अवैध लेन-देन का नंबर दो में हिसाब रखने वाली खाता पुस्तकों को भ्रष्टाचार के मुकदमों में नाकाफी सबूत बता कर मुकदमा खारिज कर दिया गया। टाडा, फेरा आदि के मुकदमे तो साजिशन कायम ही नहीं हुए ।

     इन खाता पुस्तकों में दर्ज बहुत-सी रकम तो 1989 व 1991 के आम चुनावों की पूर्व-संध्या को जैन बंधुओं ने बांटी थी। कौन-सा राजनीतिक दल है, जो अपनी आमदनी-खर्च का सही हिसाब रखता हो, इसलिए जो राजनेता इस कांड को अपने विरुद्ध षड्यंत्र बताते आए हैं, दरअसल तो उन्होंने देश के साथ बहुत बड़ी गद्दारी की है, क्योंकि अपने स्वार्थ में उन्होंने आतंकवाद को वित्तीय मदद मिलने की जाँच को ही दबवा दिया और आतंकवाद की जड़ तक पहुँचने का रास्ता बंद कर दिया।

    इसके अलावा, यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि उग्रवादियों को विदेशी स्तोत्रों से धन मिलने के मामले की जाँच के दौरान ही हवाला कारोबारी शंभूदयाल शर्मा ने जाँचकर्ताओं को बताया कि वह जैन बंधुओं से लेन-देन करता था। तभी जैन बंधुओं के यहाँ छापा पड़ा। पर क्या वजह है कि डायरियाँ बरामद होने के बाद जैन बंधुओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, जबकि सामान्य तौर पर यह बहुत स्वाभाविक बात थी, सी.बी.आई. को यह अधिकार किसने दिया कि वह शाहबुद्दीन गोरी और अशफाक हुसेन लोन को तो टाडा का अपराधी माने, किंतु जैन बंधुओं, उनसे पैसा पाने वाले राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को छोड़ दें? जबकि मुम्बई बम विस्फोट कांड में सी.बी.आई. ने बहुत-से लोगों को इससे कहीं कम सबूत के आधार पर ही टाडा में गिरफ्तार कर लिया था?

      यहाँ यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि कश्मीर के आतंकवादियों को मदद पहुंचाने वाले, जिन दो नौजवानों अशफाक हुसेन लोन और शाहबुद्दीन गौरी को, लाखों रुपए के साथ 25 मार्च 1991 में पकड़ा गया था, उनके खिलाफ चार्जशीट में सी.बी.आई. वालों ने साजिशन 3 मई 1991 को हुई जब्तियों व डायरियों का जिक्र नहीं किया, क्यों? जाहिर है कि ऐसा करके सी.बी.आई. को आगे भी जाँच करनी पड़ती, जिसमें देश के बड़े-बड़े नेताओं के यहाँ 1991 में ही छापे पड़ जाते और उनमें से बहुतों को जेल जाना पड़ता। ऐसी हिम्मत सी.बी.आई. में तब नहीं थी।

     कुल मिला कर बात साफ है कि जैन डायरियाँ कुछ मामलों में पूरा सबूत हैं और कुछ में आगे जाँच की जरूरत है। पर यह सरासर गलत है कि इस मामले में कोई सबूत ही नहीं है, इसलिए नेता छूटते गए।

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