Monday, December 11, 2017

राम मंदिर अयोध्या में ही क्यों बने

अभी कुछ ही दिन पहले देश के कुछ जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका देकर प्रार्थना की है कि अयोध्या में राम मंदिर या मस्जिद ना बनाकर, एक धर्मनिरपेक्ष इमारत का निर्माण किया जाए। ये कोई नई बात नहीं है, जब से राम जन्भूमि आंदोलन चला है, इस तरह का विचार समाज का एक वर्ग खासकर वे लोग जिनका झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर है, देता आया है। जबकि मेरा मानना है कि इस सुझाव से समाज में सौहार्द नहीं बल्कि विद्वेष ही पैदा होगा। गत 20 वर्षों से राम जन्मभूमि के मुद्दे पर स्पष्ट मेरा ये मत रहा है कि केवल अयोध्या ही नहीं, मथुरा और काशी में जो श्रीकृष्ण और भगवान शिव से जुड़ी स्थलियां हैं, उन पर मस्जिद की मौजूदगी पिछले कुछ सदियों से पूरे विश्व के हिंदुओं के हृदय में कील की तरह चुभती है। जब तक ये मस्जिदें काशी, अयोध्या और मथुरा में रहेंगी, तब तक कभी भी साम्प्रदायिक सौहार्द पैदा नहीं हो सकता। क्योंकि ये मस्जिदें हमेशा उस अतीत की याद दिलाती रहेंगी, जब बर्बर आततायियों ने आकर हिंदू धर्मस्थलों को तोड़ा और उनके स्वाभिमान को कुचलने के लिए जबरदस्ती उन स्थलों पर मस्जिदों को निर्माण करवाया।



ये सही है कि ऐसी घटनाऐं इतिहास में हिंदू और मुसलमानों के ही बीच में नहीं बल्कि हिंदू-हिदूं  राजाओं के बीच में भी हुई और कई इतिहासकार इसके बहुत सारे प्रमाण भी देते हैं कि जब एक हिन्दू राजा दूसरे हिंदू राजा के खिलाफ जीतते थे, तब वे उसके स्वाभिमान के प्रतीको को तोड़ते-कुचलते हुए चले जाते थे। यहां तक की मंदिरों तक को तोड़ा जाता था। मगर ये भी सही है कि ऐसे मंदिर तोड़े गये, तो बाद के राजाओं ने उनके पुर्ननिर्माण भी कराये। लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि उनकी जगह किसी अन्य धर्म के धर्मस्थलों का निर्माण हुआ हो। जबकि काशी, मथुरा और अयोध्या में , जोकि हिंदुओं की आस्था के सबसे बड़े केंद्र हैं, वहां की धर्मस्थलियों के ऊपर विशाल मंस्जिदों का निर्माण करवाकर, मुगल राजाओं ने हिंदू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य का एक स्थायी बीजारोपण कर दिया है ।



जिस तरह की राजनीति इस मुद्दे को लेकर लगातार हो रही है, उससे साम्प्रदायिक सौहार्द होना तो दूर, साम्प्रदयिक विद्वेष और हिंसा यहीं लगातार बढ़ रही है।



मेरा किसी भी राजनैतिक दल से कभी कोई नाता नहीं रहा है। मैंने हर राजनैतिक दल से बराबर दूरी बनाकर रखी है। जो सही लगा उसका समर्थन किया और जो गलत लगा, उसकी आलोचना की। यही एक पत्रकार का धर्म है, ‘ज्यों की त्यों धर दिनी रे चदरिया’। समाज को दर्पण दिखाना हमारा काम है, न कि हम बहाव में बह जाए।



पर एक आस्थावान हिंदू होने के नाते मुझे व्यक्तिगत रूप से ये बात हमेशा कचोटती रही है कि क्यों जरूरी है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में ये मस्जिदें खड़ी रहें?



जबकि मुसलमानों का भी एक बहुत बड़ा पर खामोश हिस्सा ये मानता है कि इस दुराग्रह का कोई धार्मिक कारण नही है। इस दुराग्रह से मुसलमानों का कोई भला होने वाला नहीं है। इन मस्जिदों के वहां रहने व हट जाने से इस्लाम खतरे में पड़ जाने वाला नहीं है। पश्चिमी एशिया में आधुनिक तकनीकों से मस्जिदों को उनके पूरवर्ती स्थानों से हटाकर नये स्थानों पर पुर्नस्थापित किये गये हैं। तो ये कार्य जब मुस्लिम देशों में हो सकता है, तो भारत में बहुसंख्यक हिंदूओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए क्यों नहीं हो सकता ? इस विषय में मेरा मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय में माननीय न्यायाधीश बहुत गंभीरता से विचार करेंगे और बिना किसी राजनैतिक प्रभाव में आए, निर्णय देंगे, जिससे समाज का भला हो। जहां तक बात राम मंदिर के मुद्दे को भाजपा द्वारा राजनैतिक रूप से भुलाने की है जैसा कि आरोप विपक्षी दल भाजपा पर लगाते हैं, तो इसमें कुछ असत्य नहीं है ।  भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद् और संघ से जुड़ी संस्थाओं ने राम जन्मभूमि से जुड़े इस मुद्दे का प्रयोग अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिए किया है। पर साथ ही ये बात भी स्पष्ट है कि राजनीति की ये आवश्यक्ता होती है, कि ऐसे मुद्दों को पकड़े, जिससे व्यापक समाज की भावना जुड़ सके। तभी राजनैतिक वृद्धि होती है। संगठन का विस्तार होता है, जनाधार का विस्तार होता है और राजनीति ऐसे ही की जाती है, सत्ता प्राप्ति के लिए। तो अगर भाजपा ने राम मंदिर के मुद्दे को सत्ता प्राप्ति के लिए एक यंत्र के रूप में प्रयोग किया है, तो इसमें कोई अनैतिक कृत्य नही है। क्योंकि जिस तरह कांग्रेस ने गांधी जी को और वामपंथियों ने माक्र्स और माओ को प्रयोग किया और उनकी विचारधाराओं से बहुत दूर रहकर आचरण किया। तो अगर भाजपा इन मंदिरों के निर्माण के लिए संकल्पित है और प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ये चाहते हैं कि उनके शासनकाल में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो, तो ये एक बहुत ही सहज, स्वाभाविक आकांक्षा है। जिसमें बहुसंख्यकों की आकांक्षाऐं भी जुड़ी हुई हैं। तो मैं समझता हूं कि इस मुद्दे पर बहुत छीछालेदर  हो गई, दो दशक खराब हो गये, काफी खून-खराबा सदियों से होता आया है। विवाद अगर ये थमा नहीं और चलता रहा, तो न कभी सौहार्द होगा, न कभी शांति होगी और न ही सद्भभाव बढ़ेगा। इसलिए मैं तो मानता हूं कि मुस्लिम समाज के कुछ जागरूक पढ़े-लिखे लोगों को पहल करनी चाहिए और एक उदार भाई की तरह आचरण करते हुए, स्वयं आगे आकर कहना चाहिए कि, ‘मथुरा, काशी और अयोध्या आपके धर्मस्थल हैं, आप इन पर अपनी श्रद्धा के अनुसार मंदिरों को निर्माण करें और हमारी मंस्जिदों को एक वैकल्पिक जगह देकर इन्हें पुर्नस्थापित कर दें। जिससे हम लोग समाज में प्रेम और भाईचारे से रह सकें।’

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