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Monday, February 12, 2024

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा कब तक चलेगा?


अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब हिदुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है। विपक्षी दल इस बात से चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिंदू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की ज़िद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। दूसरी तरफ़ धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिंदुओं को आकर्षित नहीं कर पाएँगे। इन धर्म निरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा। क्योंकि भावनाशील हिंदुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ़ जो आम जनता की ज़िंदगी से जुड़े ज़रूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएँ, इन पर ज़ोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएँगे। 



जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैंकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिंदुओं के मदिर तोड़ कर बनीं थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आजतक सनातन धर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए  संघर्षशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से वृहद् हिंदू समाज में एक नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएँगी। उधर मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है। जो दोनों ही पक्षों के लिये घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीक़े से इसका हल निकाल लें। हालाँकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की ही है कि वे इन दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें। 



मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा यह शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातन धर्मियों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदू पूरे वर्ष इन तीर्थों के दर्शन करने जाते रहे हैं। जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहाँ खड़े भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहाँ देख कर हर बार हमारे ज़ख़्म हरे हो जाते हैं। ये बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षों से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूँ। जो धर्म निरपेक्ष दल ये तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा? आज हिंदू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की माँग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसे माँगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। एक तरफ़ तो मक्का मदीना है जहां ग़ैर मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ़ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूरी छूट है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस ख़ौफ़नाक मंजर की याद दिलाएँ जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था। 



दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को बहुत लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोज़गार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिंदुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बँटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिंदू समाज की उदारता का प्रमाण था। जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहाँ से निकाला गया, उसके बाद भी ये आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।


भाजपा हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं। दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को ख़ुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौक़ा नहीं मिलेगा।  

Monday, January 22, 2024

कैसे सार्थक हो श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा?


हर राष्ट्र के इतिहास में कोई पल ऐसा आता है जो मील का पत्थर बन जाता है। आज पूरी दुनिया के सनातन धर्मी हिंदुओं के जीवन में वो क्षण आया है जब जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मस्थली व राजधानी अयोध्या जी पूरे वैभव के साथ विश्व के मानचित्र पर सदियों बाद पुनः प्रगट हुई है। इसलिए देश और विदेश में रहने वाले हिंदुओं के मन उल्लास से भरे हैं।यह सही है कि श्रीराम जन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद को हटाने में सदियों से हज़ारों लोगों ने बलिदान दिया और सैंकड़ों ने इस आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर पूरे अयोध्या नगर को जो भव्य रूप आज मिला है वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पनाशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 



इसलिए मोदी जी की आलोचना करने वालों की बात का भाजपा समर्थक हिंदू समाज पर वैसा असर नहीं पड़ रहा जैसी उनकी अपेक्षा रही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जिन मुद्दों को विपक्ष के नेता उठा रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण हैं। निःसंदेह देश के युवाओं के लिए बेरोज़गारी विकराल रूप धारण करके खड़ी हुई है। दस बरस पहले मोदी जी ने हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वायदा किया था। यानी अब तक बीस करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाना चाहिए था। जबकि आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। ऐसे ही अन्य मुद्दे भी हैं जिनको लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि मंदिर निर्माण पूरा हुए बिना ही इतना भव्य उद्घाटन करने का उद्देश्य केवल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इसलिए विपक्ष के नेता इसे राजनैतिक कार्यक्रम मान रहे हैं और इसलिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के न्योते पर 22 तारीख़ को अयोध्या नहीं गये। उनका कहना है कि भगवान श्री राम के दर्शन करने वे अपनी श्रद्धा अनुसार भविष्य में अवश्य जाएँगे। 



विपक्ष का यह आरोप सही है कि आज का कार्यक्रम लोकसभा के चुनाव की दृष्टि से आयोजित किया गया है। पर इसमें अनहोनी बात क्या है? लोकतंत्र में हर राजनेता जो कुछ करता है वो वोटों पर नज़र रख कर ही करता है। कांग्रेस के शासन काल में भी ऐसे अनेक बड़े आयोजन हुए या फ़ैसले लिये गये जिनकी उस समय यही उपयोगिता थी कि उनसे कांग्रेस को वोट जुटाने में मदद मिले। अभी पिछले ही हफ़्ते हिंदुओं के चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी  में जगन्नाथ जी के मंदिर के नये बने भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन बीजू जनता दल के नेता और उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने किया। निःसंदेह उनका यह प्रयास दुनिया भर के सनातन धर्मियों, विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को आह्लादित करने वाला है। पर परोक्ष रूप से उद्देश्य तो इसका भी उड़ीसा का चुनाव जीतना है, जो इस वर्ष के अंत में होने वाला है।



इस तरह की राजनैतिक टीका-टिप्पणियाँ तो हर दल अपने विरोधियों पर हमेशा करता ही आया है। भाजपा ने भी विपक्ष में रह कर हमेशा यही किया जो आज विपक्ष भाजपा के विरोध में कर रहा है। इसलिए इस राजनैतिक बहसबाजी में न पड़ कर आज हम अपना मंथन अयोध्या के धार्मिक पक्ष पर ही केंद्रित रखना चाहेंगे। क्योंकि आज हम सब ‘राममय’ भाव में आकंठ डूबे हुए हैं। अयोध्या का यह विकास भारत के सनातन धर्मियों की आस्था के साथ ही हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। पर उत्साह के अतिरेक में हमें अपनी भावनाओं को ग़लत दिशा में जाने से रोकना होगा। अन्यथा हमारी बयानबाज़ी और ट्विटरबाज़ी सनातन धर्म के लिए आत्मघाती होगी। जिस तरह ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के प्रभाव में आकर अशोभनीय तरीक़े से सनातन धर्म के आधारस्तम्भ परम श्रद्धेय शंकराचार्यों पर तथ्यहीन और छिछली टिप्पणियाँ की जा रही हैं, उनके घातक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। 


अयोध्या मामले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में लगातार पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील डॉ पी एन मिश्रा ने एक न्यूज़ चैनल को दिये साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि श्री राम जन्मभूमि के पक्ष में जो अदालत के निर्णय आए उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका द्वारिका पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की रही। उन्हीं के द्वारा दिये गये प्रमाणों को न्यायाधीशों ने अकाट्य माना और इसलिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के नाम का उल्लेख अपने लिखित आदेश में भी किया। डॉ मिश्रा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी के तर्कों को अदालत ने प्रामाणिक न मानते हुए ख़ारिज कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत से जो आदेश मिला उसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पर विडंबना देखिए कि सड़क छाप लोग श्रद्धेय शंकराचार्यों से पूछ रहे हैं कि उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? दूसरी तरफ़ श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी को इस तरह महिमा मंडित किया जा रहा है, मानो कि अदालत का फ़ैसला उन्हीं के कारण मिला हो। 


कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति या क़ानून का जानकार अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पढ़ कर तथ्य जान सकता है। इसलिए चाहे शंकराचार्यों की बात हो या रामभद्राचार्य जी जैसे अन्य संतों की बात हो, हमें अपने संतों प्रति ऐसी छिछली टिप्पणी करने से बचना चाहिए। यथासंभव सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई असहमति का बिंदु हो तो उसे मर्यादा में रहकर ही निवेदन करना चाहिए।


निःसंदेह मोदी जी के प्रयासों से आज भारत में हिंदू नव-जागरण हुआ है। जिसका प्रमाण है तीर्थों बढ़ती श्रद्धालुओं की अपार भीड़। पर इसके साथ ही सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों का अनेक मामलों में हनन भी हो रहा है। जिससे आस्थावान सनातन धर्मीं और शंकराचार्य जैसे निष्ठावान संत व्यथित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘गुरु, सचिव और वैद्य शासक को प्रसन्न करने के लिए यदि झूठ बोलते हैं तो वे उसका अहित ही करते हैं।’ आदरणीय शंकराचार्यों द्वारा आज की जा रही कुछ टिप्पणियों को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। वैसे भी बिना किसी संगठन के, बिना राजनैतिक कार्यकर्ताओं की फ़ौज के और बिना मीडिया के प्रोपेगंडा के 500 वर्ष पहले भगवान श्रीराम को भारत के हर घर में पहुँचाने का काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिख कर किया था। इसलिए भी भाजपा व संघ के नेतृत्व को गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए और भारत की सनातन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी आलोचना को उदारता से स्वीकार करना चाहिए और जहां उनकी कमी हो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। तभी सार्थक होगी भगवान श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा। फ़िलहाल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव पर सबको बधाई।    

Monday, January 15, 2024

अयोध्या: प्राण प्रतिष्ठा में विवाद क्यों?

आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान श्री राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर जो विवाद पैदा हुए हैं उसमें सबसे महत्वपूर्ण है शंकराचार्यों का वो बयान जिसमें उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। उनका विरोध इस बात को लेकर है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में वैदिक नियमों की अवहेलना की जा रही है। गोवर्धन पीठ (पुरी, उड़ीसा) के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का कहना है कि, मंदिर नहीं, शिखर नहीं, शिखर में कलश नहीं - कुंभाभिषेक के बिना मूर्ति प्रतिष्ठा?” प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्री राम के शीर्ष के ऊपर चढ़ कर जब राज मज़दूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा। बाक़ी शंकराचार्यों ने भी वैदिक नियमों से ही प्राण प्रतिष्ठा की माँग की है और ऐसे ही कई कारणों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने भी इस समारोह की आलोचना की है। इस विवाद के दो पहलू हैं जिन पर यहाँ चर्चा करेंगे। 



पहला पक्ष यह है कि ये चारों शंकराचार्य निर्विवाद रूप से सनातन धर्म के सर्वोच्च अधिकृत मार्ग निर्देशक हैं। सदियों से पूरे देश का सनातन धर्मी समाज इनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानता आया है। किसी धार्मिक विषय पर अगर संप्रदायों के बीच मतभेद हो जाए तो उसका निपटारा भी यही शंकराचार्य करते आये हैं। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये संन्यास की किस परंपरा से आते हैं। आदि शंकराचार्य ने ही इस भेद को समाप्त कर दिया था। जब उन्होंने, अहम् ब्रह्मास्मिका तत्व ज्ञान देने के बावजूद विष्णु षट्पदी स्तोत्रकी रचना की और भज गोविन्दमगाया। इसलिए पुरी शंकराचार्य जी का ये आरोप गंभीर है कि 22 जनवरी को होने वाला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम सनातन हिंदू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है। इसलिए हिंदुओं का वह वर्ग जो सनातन धर्म के सिद्धांतों में आस्था रखता है, पुरी शंकराचार्य से सहमत है। शंकराचार्य जी ने इस तरह किए जा रहे प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के भयंकर दुष्परिणाम सामने आने की चेतावनी भी दी है। 



उधर दूसरा पक्ष अपने तर्क लेकर खड़ा है। इस पक्ष का मानना है कि प्रधान मंत्री श्री मोदी ने एक प्रबल इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए और सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिये साधते हुए, इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और इस तरह भाजपा समर्थक हिंदू समाज को एक चिर प्रतीक्षित उपहार दिया है। इसलिए उनके प्रयासों में त्रुटि नहीं निकालनी चाहिए। इस पक्ष का यह भी कहना है कि पिछली दो सहस्राब्दियों में भारत में जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म, सिख धर्म या इस्लाम तभी व्यापक रूप से फैल सके जब उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ। जैसे सम्राट अशोक मौर्य ने बौद्ध धर्म फैलाया, सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म को अपनाया और फिर इसके विस्तार में सहयोग किया। कुषाण राजा ने पहले सनातन धर्म अपनाया फिर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसी तरह मुसलमान शासकों ने इस्लाम को संरक्षण दिया और अंग्रेज़ी हुक्मरानों ने ईसाईयत को। इसी क्रम में आज नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा राजसत्ता का उपयोग करके हिंदुत्व की विचारधारा को स्थापित कर रही है। इसलिए हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण भाग इनके साथ कमर कस के खड़ा है। पर इसके साथ ही देश में ये विवाद भी चल रहा है कि हिंदुत्व की इस विचारधारा में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है। जिसका उल्लेख हिंदू धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने साठ के दशक में लिखी अपनी पुस्तक आरएसएस और हिंदू धर्ममें शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर बहुत स्पष्टता से किया था। 



जिस तरह के वक्तव्य पिछले दो दशकों में आरएसएस के सरसंघचालक और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दिये हैं उससे स्पष्ट है कि हिंदुत्व की उनकी अपनी परिकल्पना है, जिसके केंद्र में है हिंदू राष्ट्रवाद। इसलिए वे अपने हर कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। चाहे वो वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं और आस्थाओं के विपरीत ही क्यों न हो। आरएसएस और सनातन धर्म के बीच ये वैचारिक संघर्ष कई दशकों से चला आ रहा है। अयोध्या का वर्तमान विवाद भी इसी मतभेद के कारण उपजा है। 



फिर भी हिंदुओं का यह वर्ग इसलिए भी उत्साहित है कि प्रधान मंत्री मोदी ने हिंदुत्व के जिन लक्ष्यों को लेकर गांधीनगर से दिल्ली तक की दूरी तय की थी, उन्हें वे एक-एक करके पाने में सफल हो रहे हैं। इसलिए हिंदुओं का ये वर्ग मोदी जी को अपना हीरो मानता है। इस अति उत्साह का एक कारण यह भी है कि पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों ने धर्म के मामले में सहअस्तित्व को केंद्र में रख कर संतुलित नीति अपनाई। इस सूची में भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। जिन्होंने राज धर्मकी बात कही थी। पर मोदी जी दूसरी मिट्टी के बने हैं। वो जो ठान लेते हैं, वो कर गुजरते हैं। फिर वे नियमों और आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। इसीलिए जहां नोटबंदी, बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर वे अपना घोषित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए, वहीं दूसरे कुछ मोर्चों पर उन्होंने अपनी सफलता के झंडे भी गाड़े हैं। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा समारोह को अपनी तरह आयोजित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। क्योंकि ये उनके राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति का एक माध्यम है। देश की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना उनके इस कार्यक्रम का उद्देश्य नहीं है। 


रही बात परमादरणीय शंकराचार्यों के सैद्धांतिक मतभेद की तो बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदू समाज ने इन सर्वोच्च धर्म गुरुओं से वैदिक आचरण सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। उधर पिछले सौ वर्षों में शंकराचार्यों की ओर से भी वृहद हिन्दू समाज को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कारण: सनातन धर्म के शिखर पुरुष होने के नाते शंकराचार्यों की अपनी मर्यादा होती है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं कर सकते थे। इसका एक कारण यह भी है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज की न तो आध्यात्मिक गहराई में रुचि है और न ही उनकी क्षमता। उनके लिए आस्था का कारण अध्यात्म से ज़्यादा धार्मिक मनोरंजन व भावनात्मक सुरक्षा पाने का माध्यम है। पर अगर राजसत्ता वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना करना चाहती तो वह शंकराचार्यों को यथोचित सम्मान देती। पर ऐसा नहीं है। हिंदुत्व की विचारधारा भारत के हज़ारों वर्षों से चले आ रहे सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित नहीं है। यह एक राजनैतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम हैं और अपने लक्ष्य हैं। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन को खड़ा करने के लिए आरएसएस, विहिप व भाजपा ने हर संत और सम्प्रदाय का द्वार खटखटाया था। सभी संतों और सम्प्रदायों ने सक्रिय होकर इस आन्दोलन को विश्वसनीयता प्रदान की थी। यह दुर्भाग्य है कि आज शंकराचार्यों जैसे अनेक सम्मानित संत और विहिप, आरएसएस व भाजपा आमने सामने खड़े हो गये हैं।


Monday, December 25, 2023

क्यों जरुरी था अयोध्या का भव्य विकास?


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(ट्विटर) पर एक पोस्ट देखी जिसमें अयोध्या में रामलला के विग्रह को रज़ाई उढ़ाने का मज़ाक़ उड़ाया गया है। उस पर मैंने निम्न पोस्ट लिखी जो शायद आपको रोचक लग। वैष्णव संप्रदायों में साकार ब्रह्म की उपासना होती है। उसमें भगवान के विग्रह को पत्थर, लकड़ी या धातु की मूर्ति नहीं माना जाता। बल्कि उनका जागृत स्वरूप मानकर उनकी सेवा- पूजा एक जीवित व्यक्ति के रूप में की जाती है।


ये सदियों पुरानी परंपरा है। जैसे श्रीलड्डूगोपाल जी के विग्रह को नित्य स्नान कराना, उनका शृंगार करना, उन्हें दिन में अनेक बार भोग लगाना और उन्हें रात्रि में शयन कराना। ये परंपरा हम वैष्णवों के घरों में आज भी चल रही है। ‘जाकी रही भावना जैसी-प्रभु मूरत देखी तीन तैसी।’


इसीलिए सेवा पूजा प्रारंभ करने से पहले भगवान के नये विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इसका शास्त्रों में संपूर्ण विधि विधान है। जैसा अब रामलला के विग्रह की अयोध्या में भव्य रूप से होने जा रही है।



यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपना चुनावी एजेंडा तय करता है और उसे इस आशा में आगे बढ़ाता है कि उसके जरिये वह दल चुनाव की वैतरणी पार कर लेगा। ‘गरीबी हटाओ’, ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकें’ या ‘बहुत हुई महंगाई की मार-अबकी बार मोदी सरकार’ कुछ ऐसे ही नारे थे जिनके सहारे कांग्रेस और भाजपा ने लोक सभा के चुनाव जीते और सरकारें बनाई। इसी तरह ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे’ ये वो नारा था जो संघ परिवार और भाजपा ने 90 के दशक से लगाना शुरू किया और 2024 में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। इसलिए आगामी 22 जनवरी को अयोध्या के निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर में भगवान के श्री विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन किया जा रहा है। स्वाभाविक है कि मंदिर का निर्माण पूर्ण हुए बिना ही बीच में इतना भव्य आयोजन 2024 के लोक सभा चुनावों को लक्ष्य करके आयोजित किया जा रहा है। पर ये कोई आलोचना का विषय नहीं हो सकता। 



विगत 33 वर्षों में श्रीराम जन्मभूमि को लेकर जितने विवाद हुए उनपर आजतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। हर पक्ष के अपने तर्क हैं। पर सनातन धर्मी होने के कारण मेरा तो शुरू से यही मत रहा है कि अयोध्या, काशी और मथुरा में हिन्दुओं के धर्म स्थानों पर मौजूद ये मस्जिदें कभी सांप्रदायिक सद्भाव नहीं होने देंगी। क्योंकि अपने तीन प्रमुख देवों श्रीराम, श्री शिव व श्री कृष्ण के तीर्थ स्थलों पर ये मस्जिदें हिन्दुओं को हमेशा उस अतीत की याद दिलाती रहेंगी जब मुसलमान आक्रांताओं ने यहां मौजूद हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करके यहां मस्जिदें बनाईं थीं। अपने इस मत को मैंने इन 33 वर्षों में अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में प्रमुखता से प्रकाशित व प्रसारित भी किया। इसलिए आज अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हर आस्थावान हिन्दू के लिए हर्षोल्लास का विषय है।



हर्ष का विषय है कि प्रभु श्रीराम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की साक्षी रही अयोध्या नगरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भव्य स्तर पर विकसित करने का संकल्प लिया और उसी प्रारूप पर आज अयोध्या का विकास हो रहा है ताकि दुनिया भर से आने वाले भक्त और पर्यटक अयोध्या का वैभव देखकर प्रभावित व प्रसन्न हों। भगवान श्री राम की राजधानी का स्वरूप भव्य होना ही चाहिए।  


एक बात और कि जब मोदी जी प्रधान मंत्री बने और मुझे उनकी ‘ह्रदय योजना’ का राष्ट्रीय सलाहकार नियुक्त किया गया, तब से यह बात मैं सरकार के संज्ञान में सीधे और अपने लेखों के माध्यम से ये बात लाता रहा हूँ कि अयोध्या, काशी और मथुरा का विकास उनकी सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप होना चाहिए एकरूप नहीं। जैसे अयोध्या राजा राम की नगरी है इसलिए उसका स्वरुप राजसी होना चाहिए।  जबकि काशी औघड़ नाथ की नगरी है जहां कंकड़-कंकड़ में शंकर बसते हैं। इसलिए उसका विकास उसी भावना से किया जाना चाहिए था न कि काशी कॉरिडोर बनाकर। क्योंकि इस कॉरिडोर में भोले शंकर की अल्हड़ता का भाव पैदा नहीं होता बल्कि एक राजमहल का भाव पैदा होता है। ऐसा काशी के संतों, दार्शनिकों व सामान्य काशीवासियों का भी कहना है। इसी तरह मथुरा-वृन्दावन में जो कॉरिडोरनुमा निर्माण की बात आजकल हो रही है वह ब्रज की संस्कृति के बिलकुल विपरीत है। यह बात स्वयं  बालकृष्ण नन्द बाबा से कह रहे हैं, नः पुरो जनपदा न ग्रामा गृहावयम्, नित्यं वनौकसतात् वनशैलनिवासिनः (श्रीमदभागवतम, दशम स्कंध, 24 अध्याय व 24 वां श्लोक), बाबा ये पुर, ये जनपद, ये ग्राम हमारे घर नहीं हैं। हम तो वनचर हैं। ये वन और ये पर्वत ही हमारे निवासस्थल हैं। इसलिए ब्रज का विकास तो उसकी प्राकृतिक धरोहरों जैसे कुंड, वन, पर्वत और यमुना का संवर्धन करके होना चाहिए, जहां भगवान श्री राधा-कृष्ण ने अपनी समस्त लीलाएं कीं। पर आज ब्रज तेजी से कंक्रीट का जंगल बनता जा रहा है। इससे ब्रज के रसिक संत और ब्रज भक्त बहुत आहत हैं। हमारे यहां तो कहावत है, ‘वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय, डाल-डाल और पात पे राधे लिखा होय।’  



यहां एक और गंभीर विषय उठाना आवश्यक है। वह यह कि नव निर्माण के उत्साह में प्राचीन मंदिरों के प्राण प्रतिष्ठित विग्रहों को अपमानित या ध्वस्त न किया जाए, बल्कि उन्हें ससम्मान दूसरे स्थान पर ले जाकर स्थापित कर दिया जाए।यहाँ ये याद रखना भी आवश्यक है कि किसी भी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह की उपेक्षा करना, उनका अपमान करना या उनका विध्वंस करना सनातन धर्म में जघन्य अपराध माना जाता है। इसे ही तालिबानी हमला कहा जाता है। जैसा अनेक मुसलमान शासकों ने मध्य युग में और हाल के वर्षों में कश्मीर, बांग्लादेश व अफ़ग़ानिस्तान में मुसलमानों ने किया। इतिहास में प्रमाण हैं कि कुछ हिंदू राजाओं ने भी ऐसा विध्वंस बौद्ध विहारों का किया था।


अगर किसी कारण से किसी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को या उसके मंदिर को विकास की योजनाओं के लिए वहाँ से हटाना आवश्यक हो तो उसका भी शास्त्रों में पूरा विधि-विधान है। जिसका पालन करके उन्हें श्रद्धा पूर्वक वहाँ से नये स्थान पर ले ज़ाया जा सकता है।

पर उन्हें यूँ ही लापरवाही से उखाड़ कर कूड़े में फेंका नहीं जा सकता। ये सनातन धर्म के विरुद्ध कृत्य माना जाएगा। हर हिंदू इस पाप को करने से डरता है। 

Monday, February 6, 2023

शालिग्राम शिला तराशी नहीं जाती


अगर आस्था और श्रद्धा के बिना सत्ता पाने के उद्देश्य से व वोट बटोरने के लिए धर्म में राजनीति का प्रवेश हो तो ये कितना घातक हो सकता है इसके उदाहरण पिछले कुछ वर्षों से निरंतर देखने को मिल रहे हैं। जिससे संत और भक्त समाज बहुत व्यथित हैं। पर सत्ता के अहंकार में सत्ताधीश किसी की भावना और आस्था की कोई परवाह नहीं करते। फिर वो चाहे किसी भी धर्म के झंडाबरदार होने का दावा क्यों न करें।
 


ताज़ा विवाद अयोध्या के श्री राम मंदिर के लिए प्रभु श्री राम और सीता माता की मूर्ति निर्माण के लिए नेपाल से लाई गयीं विशाल शिलाओं के कारण पैदा हुआ है। वैदिक शास्त्रों को न मानने वाले राष्ट्रीय स्वयं संघ व भाजपा का नेतृत्व हिंदू भावनाओं का नक़दीकरण करने के लिये अपने मनोधर्म से नई-नई नौटंकियाँ करते रहते हैं। जिन शिलाओं को इतने ताम-झाम, ढोल-ताशे और मीडिया प्रचार के साथ नेपाल से अयोध्या लाया गया है उन शिलाओं को शालिग्राम बता कर उनका सारे रास्ते पूजन करवाया गया। पर अयोध्या पहुँचने पर अयोध्या का संत समाज इसके विरुद्ध खड़ा हो गया है। संत आहत हैं और आक्रोशित हैं। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार शालिग्राम की शिला साक्षात विष्णु जी का स्वरूप मानी गई है। देवी भागवत पुराण, शिव पुराण व ब्रह्म वैयवर्त आदि पुराणों में शालिग्राम शिला की विधिवत सेवा व पूजा का विवरण आता है। इसलिए शालिग्राम शिला पर कभी भी छैनी-हथौड़ी नहीं चलाई जा सकती। ये घोर अपराध है। इसलिए अयोध्या के संतों ने घोषणा कर दी है कि वे इन शिलाओं पर छैनी-हथौड़ी नहीं चलने देंगे। 

दूसरी ओर एक विवाद यह है कि ये शिलाएँ शालिग्राम की हैं ही नहीं। क्योंकि शालिग्राम की शिलाओं का आकार प्रायः काफ़ी छोटा होता है। जिन्हें हथेली पर धारण किया जा सकता है। वैसे बड़ी शिलाएँ भी होती हैं। इन शिलाओं पर भगवान विष्णु से संबंधित अनेक चिन्ह अंकित होते हैं। जैसे शंख, चक्र, गदा व पद्म आदि। इसके अलावा इन शिलाओं के रूप, रंग और आकार-प्रकार के अनुरूप इनके विविध नाम भी होते हैं। जैसे दशावतार के नामों पर आधारित दस तरह की शालिग्राम शिलाएँ नेपाल की काली गण्डकी नदी के तल में पाई जाती  हैं। इसके अलावा इन शिलाओं के अन्य नाम व प्रकार भी होते हैं जैसे: केशव, हैयग्रीव, हिरण्यगर्भ, चतुर्भुज, गदाधार, नारायण, लक्ष्मीनारायण, रूपनारायण, माधव, गोविंद, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, श्रीधर, पद्मनाभ, दामोदर, सुदर्शन व वासुदेव आदि। अब जिन विशाल शिलाओं को शालिग्राम बता कर नेपाल से अयोध्या लाया गया है वे शास्त्रों के अनुसार किस श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं यह बताने का दायित्व भी श्रीराम मंदिर निर्माण समिति के सदस्यों का है। 

अगर ये शिलाएँ शालिग्राम की नहीं हैं केवल गण्डकी नदी के किनारे उपलब्ध पत्थर मात्र ही हैं तो इन्हें शालिग्राम बता कर हिंदुओं को क्यों मूर्ख बनाया जा रहा है? अगर ये शालिग्राम हैं तो फिर इन्हें तराश कर मूर्ति बनाना घोर पाप कर्म होगा। 

गोवर्धन की तलहटी में पौराणिक संकर्षण कुंड पर संकर्षण भगवान के 34 फुट ऊँचे काले ग्रेनाइट के विशाल विग्रह के निर्माण का निर्णय 2016 में जब द ब्रज फाउंडेशन ने लिया तो उसके वरिष्ठ अधिकारी आंध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति देवस्थान गये। वहाँ शास्त्रानुसार प्रशिक्षित 22 योग्य शिल्प-शास्त्रियों के नेतृत्व में तिरुमाला की पहाड़ियों पर विष्णुतत्व की 50 टन की एक विशाल शिला को खोज कर बड़ी-बड़ी क्रेनों की मदद से उसे पहाड़ों से नीचे लाए। वहाँ तिरूपति में उन योग्य शिल्प शास्त्रियों ने संकर्षण भगवान या बलराम जी के दिव्य विग्रह का एक वर्ष तक निर्माण किया। जिन्हें फिर ट्रेलर पर लाद कर तिरूपति से गोवर्धन (मथुरा) लाया गया। 

यहाँ ये  उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि तिरुमाला की पहाड़ियों पर लक्ष्मी तत्व और विष्णु तत्व की विशाल शिलाएँ पाई जाती हैं। उन्हीं को तराश कर लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम या राधा-कृष्ण के विग्रहों का निर्माण किया जाता है। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सदस्यों को शायद इस तथ्य की जानकारी नहीं थी। अगर होती तो नाहक ये विवाद न खड़ा होता। क्योंकि तब सही शिलाएँ तिरूपति से आ जाती। 

वृंदावन के 500 वर्ष पुराने सुप्रसिद्ध श्री राधारमण मंदिर में भगवान राधा-रमण जी का जो छोटा सा सुंदर विग्रह है वो श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की अर्चित शालिग्राम शिला से स्वप्रकट विग्रह है। उसे छैनी-हथौड़ी से तराशा नहीं गया है। मंदिर के सेवायत गोस्वामीगण बताते हैं कि शालिग्राम जी की शिला पर अगर छैनी-हथौड़ी चले तो वह फ़ौरन टूट कर बिखर जाती है। अगर ये बात सही है तो फिर नेपाल से आई उन विशाल शिलाओं पर जब छैनी-हथौड़ी चलेगी तो वे टूट कर बिखर जाएँगी। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर ये दावा ग़लत सिद्ध होगा कि वे शालिग्राम की शिलाएँ हैं। 

श्री राम मंदिर निर्माण की पूरी यात्रा भाजपा की सत्तालोलुपता से गुथी रही है। पिछले तीन दशकों में भाजपा और संघ परिवार ने नये-नये शगूफ़े छोड़ कर हिंदू भावनाओं को भड़काने और वोट भुनाने का बार-बार काम किया है। चाहे वो शिला पूजन हो और चाहे मंदिर के लिए चंदा उघाने का। 

जबकि दूसरी तरफ़ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव ने मात्र चार वर्षों में, बिना किसी से चंदा उगाहे, शास्त्रानुसार, यादगिरी गुट्टा में पौराणिक लक्ष्मी-नरसिंह देव गुफा पर तिरूपति बाला जी जैसा विशाल मंदिर और उसके चारों ओर वैदिक नगर बसा दिया। मुख्य मंत्री केसीआर का हर काम चाहे निजी हो या सार्वजनिक बड़े भव्य स्तर पर शास्त्र पारंगत पुरोहितों और आचार्यों के निर्देशन में वैदिक अनुष्ठानों से प्रारंभ होता है। पर इसका वे कोई प्रचार नहीं करते। उनका कहना है कि भगवान के प्रति श्रद्धा और धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास, दिखावे की, प्रचार की या राजनैतिक लाभ लेने की क्रिया नहीं होती। ये तो भगवत कृपा प्राप्त करने और अपनी आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने के लिये आस्था होती है। पर संघ और भाजपा ने धर्म का ऐसा राजनीतीकरण किया है कि न तो उन्हें प्राण प्रतिष्ठित देव विग्रहों पर अयोध्या और काशी में बुलडोज़र चलाने में कोई संकोच होता है और न ही गोवर्धन (मथुरा) संकर्षण भगवान के प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पाँच वर्षों से मल-मूत्र से घिरे जलाशय में उपेक्षित खड़ा रखने में। फिर भी दावा यह कि ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’।     

Monday, March 28, 2022

योगी जी! ऐसे सुधरेंगी धर्मनगरियाँ

योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।  


धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं। 


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 


माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।


पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।


चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।  

Monday, December 2, 2019

क्या हिंदू और मुसलमान मिलकर नहीं रह सकते ?

हाल ही में रामजन्मभूमि पर आए निर्णंय के बाद देश के बहुसंख्यक मुसलमानों ने जिस शांति और सदभाव का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। सारी आकांक्षाओं को निर्मूल करते हुए, अल्पसंख्यक समुदाय ने इस फैसले के विरूद्ध कोई भी उग्र प्रदर्शन या हिंसक वारदात न करके, ये बता दिया है कि साम्प्रदायिक वैमनस्य समाज में नहीं होता बल्कि राजनैतिक दलों के दिमाग की साजिश होती है। कोई भी दल इसका अपवाद नहीं है। इतिहास में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि अगर ‘रामजन्भूमि मुक्ति आन्दोलन’ को राजनैतिक रंग न दिया जाता, तो ये मामला तीन दशक पहले सुलझने की कगार पर था। 
दरअसलआम आदमी को अपनी रोजी, रोटी और रोजगार की चिंता होती है। ये चिंता भारत के बहुसंख्यक लोगों को आजादी के 72 वर्ष बाद भी सता रही है। जब पेट भरे होते हैं, तब धर्म और राजनीति सूझती है। जो राजसत्ताऐं अपनी प्रजा की इन बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पातीं, वही धार्मिक उन्माद का सहारा लेती हैं। जिससे जनता असली मुद्दों से ध्यान हटाकर इन सवालों में उलझ जाऐ।

हिंदुस्तान की संस्कृति में, जब से मुसलमान यहां आऐ, तब से दो धाराऐं साथ साथ चली हैं। एक तो वो जिसमें दो विपरीत विचारधाराओं के धर्मावलंबियों ने एक-दूसरे को आत्मसात कर लिया और एक-दूसरे की जीवनशैली, आचार-विचार और रीति-रिवाजों को प्रभावित किया। भारत की बहुसंख्यक जनता इसी मानसिकता की है। ये आजादी के बाद योजनाबद्ध तरीके से पनपाई गई प्रवृत्ति नहीं है। इसकी जड़े सदियों पुरानी है।

मुगलकाल में ही ऐसे सैंकड़ों मुसलमान हुए, जिन्होंने हिंदू संस्कृति को न केवल सराहा, बल्कि अपने को इसमें आध्यात्मिक रूप से ढाल लिया। एक उदाहरण नजीर अकबरावादी का है। जो कहते हैं, ‘‘क्या-क्या कहूँ मैं तुमसे कन्हैया का बालपन, ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन’’। एक दूसरी रचना जिसका शीर्षक है ‘हरि जी सुमिरन’। इसमें वे लिखते हैं ‘‘श्रीकृष्ण जी की याद दिलों जां से कीजिए, ले नाम वासुदेव का अब ध्यान कीजिए, क्या वादा बेखुमार दिलों जां से पीजिए, सब काम छोड़ नाम चतुर्भुज का लीजिए’‘। आम मुसलमान ही नहीं, खुद मुगलिया खानदान की ताज बेगम जो आगरा के महल छोड़कर मथुरा के गोकुल गाॅव में आ बसीं थीं, वो लिखती हैं, ‘‘ नंद के दुलाल कुर्बान तेरी सूरत पे, हूँ तो मुगलानी, हिंदुआनी ह्वै रहुँगी मैं’’। रसखान को किसने नहीं पढ़ा ? ये ब्रजवासी मुसलमान संत लिखते हैं, ‘‘ रसखान कबौं इन नैंनन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारूँ।...जो पसु हौं तौ कहा बस मेरौ, बसुँ नित्य नन्द के धेनु मझारन’’। ये धारा आज भी अविचल है।

हमारे ब्रज में भगवान की पोशाक बननी हो या बिहारीजी का फूल बंगला या ठाकुरजी की शोभायात्रा में शहनाई वादन-सब काम मुसलमान बड़ी श्रद्धा और भाव से करते हैं। यहां तक कि यहाँ मुसलमान फलवाला आपका अभिवादन भी, ‘‘राधे-राधे’’ कहकर करता है। भारत रत्न बिसमिल्लाह खाँ नमाजी मुसलमान होते हुए भी मैहर की देवी के उपासक थे और उनके मंदिर में बैठकर साधना किया करते थे। दूर क्यों जाऐं, भारत के राष्ट्रपति रहे डाॅ. ऐपीजे कलाम भगवतगीता का नियमित पाठ करते थे रामेश्वरम् में उनके परिवार को आज भी मंदिर से महाप्रसाद का पत्तल रोज मिलता है, क्योंकि उनके पूर्वजों ने जान जोखिम में डालकर एक गहरे सरोवर में से अभिषेक के समय फिसलकर डूब गई, भारी देवप्रतिमा को निकाला था। ये थी उनकी श्रद्धा। मुझे लगता है कि ऐसी भावना वाले मुसलमानों से अगर उदारमना हिंदू प्रेममयी भाषा में निवेदन करें कि वे काशी और मथुरा से भी मस्जिदों को बिना संघर्ष के हटाने को राजी हो जाऐं, तो इसके सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं।

जो दूसरी धारा बही, वह थी कट्टरपंथी इस्लाम की थी। जिसके प्रभाव में मुसलमान आक्रंाताओं ने हजारों मंदिर तोड़े और हिंदूओं को जबरन मुसलमान बनाया। इसके पीछे धार्मिक उन्माद कम, राजनैतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा थी। शासक अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए या प्रजा में भय उत्पन्न करने के लिए इस तरह के अत्याचार किया करते थे। पर ऐसा केवल मुसलमान शासकों ने किया हो यह सच नहीं है। दक्षिण भारत में शैव राजाओं ने वैष्णवों के और वैष्णव राजाओं ने शैवों के मंदिरों को हमलों के दौरान नष्ट किया। इसी तरह हिंदू राजाओं ने बौद्ध मंदिर और विहार भी तोड़े। रोचक तथ्य ये है कि जिन मराठा शासक शिवाजी महाराज ने मुगलों को चने चबवाये, उनके वफादारों में कई योद्धा मुसलमान थे। ठीक वैसे ही जैसे झांसी की रानी का सेनापति एक मुसलमान था। टीपू सुल्तान के वफादार सेना नायकों में कई  हिंदू थे। 

इसलिए एक हजार वर्ष के मुसलमान शासनकाल में भी भारत की बहुसंख्यक आबादी हिंदू ही बनी रही। पर पिछले कुछ दशकों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कट्टरपंथी इस्लाम को थोपने की एक गहरी साजिश पश्चिमी ऐशिया के कुछ देशों से की जा रही है। जिसका बुरा असर मलेशिया, इंडोनेशिया और टर्की जैसे सैक्युलर मुलसमान देशों की जनता पर भी पड़ने लगा है। इस मानसिकता को हम तालिबानी मानसिकता कह सकते हैं।

चिंता की बात ये है कि हिंदू समाज में भी कुछ तालिबानी प्रवृत्तियां उदय हो रही हैं। जिससे इस्लाम को खतरा हो न हो, हिंदूओं को बहुत  खतरा है। हिंदू परंपरा से उदारमना होते हैं। सम्प्रदायों को लेकर भिड़ते नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। हमारे दर्शन में निरीश्वरवाद, निर्गुण से सगुण उपासना तक का विकल्प मौजूद है। आपको एक ही परिवार में कोई सगुण उपासक मिलेगा, कोई ध्यानी-ग्यानी और कोई हठयोगी। इन सबका एक छत के नीचे प्रेम से रहना, बताता है कि हम कितने सहजरूप में विविधता को स्वीकार लेते हैं। क्योंकि हम ईसाईयों और मुसलमानों की तरह एक ही ग्रंथ और एक ही पैगम्बर को मानकर उसे दूसरों पर थोंपते नहीं है। यही कारण है कि इकबाल ने लिखा है, ‘‘यूनान रोम मिस्र सब मिट गऐ जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा, सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’’। हमें ऐसा ही हिंदुस्तान बनाना है, जहाँ हम सब मिलकर प्रेम से रहें और आगे बढें।

Monday, November 11, 2019

श्रीराम मन्दिर आंदोलन के प्रणेता याद आते हैं

आज हम हिन्दुओं के सदियों पुराने ज़ख्मों पर मरहम लगा है इस ऐतिहासिक अवसर पर उन हज़ारों सन्तों   भक्तों को हमारी भावभीनी श्र्द्धांजली जिन्होंने पिछली सदियों में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि की मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया। 

उल्लास के इस इस अवसर पर राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए इस वर्तमान आंदोलन को शुरू करने में तीन प्रमुख हस्तियों के योगदान को विशेष रूप से याद करना आवश्यक है  

इस क़तार में सबसे आगे खड़े हैं ; स्वर्गीय श्री दाऊ दयाल खन्ना जी, जो मुरादाबाद से लम्बे समय तक विधायक और श्री चन्द्रभान गुप्ता की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे। उन्होंने सबसे पहले 1983 में एक विस्तृत तार्किक आलेख तय्यार करके तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को प्रस्तुत किया। जिसमें अयोध्या, काशी और मथुरा को अवैध रूप से बनी मस्जिदों से मुक्त करके भव्य मंदिर बनाने को  हिंदू समाज को सौंपे जाने की माँग की थी। 

इंदिरा जी ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया तब खन्ना जी ने श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति समिति बना कर इस आंदोलन की शुरुआत 1983 में की और अपने जीवन के अंत तक  कांग्रेसी रहते हुए ही इस आंदोलन से जुड़े रहे जल्दी ही विहिप और बाद में भाजपा  और संघ भी इस आंदोलन से पूरी ऊर्जा के साथ जुड़ गए  

दूसरे महान व्यक्ति जिनके ऐतिहासिक योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, वो थे प्रातः स्मरणीय विरक्त संत ‘राम जन्मभूमि मुक्ति समिति’ के ‘मार्गदर्शक मंडलके अध्यक्ष श्रद्धेय स्वामी वामदेव जी महाराज। जिन्होंने साधुओं की अपनी विशाल विरक्त मंडली के साथ पूरे भारत के कोने कोने में जाकर सभी साधु संतों को श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया। उनके संदर्भ में एक हृदय विदारक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा जिसकी जानकारी देश में दो चार संतों के अलावा किसी को नहीं है। 

जब अक्तूबर 30,1990 को कार सेवा करने बड़ी श्रद्धा से देश के कोने कोने से अयोध्या पहुँचे लाखों निहत्थे कारसेवकों पर पुलिस ने फ़ाइरिंग करके सैंकड़ों को शहीद कर दिया था तो उस भयानक रात अयोध्या में मौत का सन्नाटा था। गलियों में जहां तहाँ भक्तों के शव बिखरे पड़े थे। ऐसे आतंक के माहौल में आंदोलन के सभी नेता जहां तहाँ छिपे थे। 

पर एक देवता जो सारी रात अकेला उन लाशों के बीच लाठी लेकर घूमता रहा , वो थे बूढ़े, अशक्त और अस्वस्थ श्रद्धेय स्वामी वामदेव जी महाराज। ब्रहम्मुहूर्त में जब वे आश्रम में नहीं दिखे तो घबराहट में साथ के साधुओं ने उनको खोजना शुरू किया तो स्वामी जी गली में लाठी लिये खड़े मिले चौंककर सबने पूछा महाराज ! आप यहाँ क्या कर रहे हैं ?उनका उत्तर सुनकर निश्चय ही आपके  नेत्र सजल हो जाएँगे। वे बोले , “भगवानमैं रात भर इन शहीदों के शवों की रक्षा करता रहा , जिससे गली के कुत्ते इन भक्तों के पवित्र शवों को अपना ग्रास बना सकें 

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने स्वामी वामदेव जी से तब कहा था, “आप विहिप को छोड़ दीजिए, मैं कल ही आपको राम जन्मभूमि दे दूंगा! “स्वामी जी ने कहाआप लोकसभा मे आज ये घोषणा कीजिए, मैं कल ही विहिप छोड़ दूंगा।” 

नरसिंह राव जी ने एक बार उनसे कहा “आप सुरक्षा गार्ड ले लें।स्वामी जी बोले “गर्भ मे जिसने परीक्षित की रक्षा की थी, वे ही मेरा रक्षक है“। अयोध्या में ढाँचा गिरने के बाद वे सीधे हरिद्वार आए ,उनका कमरा तैयार नहीं था, तो वे मौनी बाबा के तखत पर ही लेट गए। बाबा ने पूछा महाराजआपका काम  अधूरा रह गया मंदिर कब बनेगा ? “ स्वामी वामदेव जी का उत्तर था, “मेरे तीन संकल्प थे; 1. जन्मभूमि से पराधीनता का चिन्ह मिटे। 2. भगवा वस्त्रधारी और श्वेतवस्त्रधारी संप्रदाय के भेद को भूलकर एक मंच पर  जायँ। 3. देश  का हिंदू जाग जाय। राम कृपा  से तीनों संकल्प पूरे हुए, अब मंदिर कब बनेगा ये रामलला जाने।रामलला ने आज ये भी पूरा कर दिया। स्वामी वामदेव जी का चित्र कार सेवकों के हुए नरसंहार की टीवी रिपोर्ट जो हमने 1990 में अयोध्या में बनाई थी उसे कालचक्र को यूटूब (Kalchakra Vol. 3) पर देखा जा सकता है। 

इस क्रम में तीसरा नाम श्री अशोक सिंघल जी का है। जो श्री दाऊ दयाल खन्ना जी से मिलने मुरादाबाद  में उनके घर गए और उनके इस आंदोलन को समर्थन देने का वायदा किया और फिर जीवन के अंत तक श्रीराम मंदिर के लिए लड़ते रहे। 

आज ये तीनों विभूतियाँ निश्चित रूप से भगवान श्री राम के नित्य निवास ‘साकेतधाम’ के पार्षद हैं और वहीं आकाश से इस निर्णय को एकमत से देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों, विशेषकर न्यायमूर्ति श्री रंजन गोगोई और उनके मुसलमान साथी न्यायमूर्ति श्री अब्दुल नज़ीर साहब को आशीर्वाद दे रहे हैं। इस हर्षोल्लास की घड़ी में हम इन तीनों महान विभूतियों सहित ही उन सभी दिव्य भक्तों के श्रीचरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं, जिन्होंने किसी भी रूप में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मुक्ति के इस आंदोलन में थोड़ा सा भी योगदान किया।