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Monday, November 19, 2012

बाला साहब के भगवा स्वरूप को क्यों भूल रहा है अंगे्रजी मीडिया

महाराष्ट्र के दिवंगत नेता बाला साहब ठाकरे को श्रृद्धान्जलि देने में अंगे्रजी टी वी और प्रिन्ट मीडिया पीछे नहीं रहा। उनकी भडकाऊ राजनीति, तानाशाही और हिंसक बयानबाजी का आलोचक रहा देश का अंगे्रजी मीडिया बाला साहब की मौत पर उनका गुणगान करता नजर आया। इसमें कोई अस्वभाविक बात नहीं है। मरणोपरान्त हर जाने वाले की प्रशस्ति में कसीदे काढ़े जाते हैं । पर महत्वपूर्ण बात यह है कि केसरिया चोगा पहनकर, गले में रूद्राक्ष की माला लटकाकर, छत्रपति शिवाजी महाराज की वैदिक ध्वजा फहराकर और सिंह के चित्र को दर्शाते हुए सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले बाला साहब देवरस ने एक प्रखर हिन्दूवादी छवि का निर्माण किया और उसे अन्त तक निभाया। इस छवि के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति को अपने इशारों पर नचाया। सत्ता में हों या बाहर अपना रूतबा कम नहीं होने दिया। पर उनके व्यक्तित्व के इस हिन्दूवादी पक्ष को अंग्रेजी मीडिया ने दिखाने की कोशिश नहीं की।
 
अंग्रेजी मीडिया अमूमन अपनी छवि धर्मनिरपेक्षता की बनाकर रखता है। इसलिए जब-जब बाला साहब ने  प्रखर हिन्दूवादी तेवर अपनाया तब तब मुख्यधारा का मीडिया बाला साहब के पीछे पड़ गया। पर अब उनकी मौत पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष क्यों भुला दिया गया ? यह सही है कि बाला साहब का व्यक्तित्व व वक्तव्य विरोधाभासों से भरे होते थे। पर उनकी इस हिन्दूवादी छवि ने उन्हें देशभर के उन हिन्दुओं का  चहेता बनाया जो प्रखर हिन्दुवादी नेतृत्व देखना चाहते हैं। छोटी छोटी घटनाओं से बाला साहब ने ऐसे कई संदेश दिये ।  जब मुंबई के मुसलमान जुम्मे की नमाज अदा करने के लिए हर शुक्रवार मुंबई की सड़कों पर मुसल्ला बिछाने लगे और मुंबई पुलिस इस नई मुसीबत से निपट नहीं पा रही थी तो बाला साहब ने हर शाम, हर मन्दिर के सामने, सड़क पर भीड़ जमा कर महाआरती करने का ऐलान कर दिया। नतीजतन दोनों पक्षों ने बिना हीलहुज्जत किये अपना फैलाव समेट लिया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के आकर बसने पर सबसे पहला विरोध बाला साहब ने ही किया था।
 
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व रहा है जिसने हिन्दु वोट बैंक को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन हमेशा इस तरह के सख्त कदम उठाने से परहेज किया। इतना ही नहीं पूरे देश में रामजन्मभूमि मुक्ति आंन्दोलन चलाने के बाद जब अयोध्या में विवादास्पद ढाँचा गिरा तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इसे शर्मनाक हादसा कहा। जबकि बालासाहब से जब पूछा गया कि इस ढ़ांचे को गिराने में शिवसैनिकों का हाथ था, तो उन्होंने तपाक से कहा कि उन्हें अपने सैंनिको पर गर्व है। दूसरी तरफ हिन्दू हक के हर मुद्दे पर कड़े तेवर अपनाने वाले बाला साहब ने आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव तक के मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़े रहने में संकोच नहीं किया। इंका के वरिष्ठ नेता सुनील दत के फिल्मी सितारे बेटे संजय दत को रिहा कराने में वे आगे आये। इससे यह तो साफ है कि बाला साहब ने जो ठीक समझा उसे ताल ठोक कर किया़। चाहें किसी को ठीक लगे या गलत। इसलिए उनकी छवि एक प्रखर हिन्दुवादी नेता की बनी।
 
मुसलमानों को लुभाने की नाकाम कोशिशों में जुटा भाजपा नेतृत्व आज भी ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हैं। इसलिए दुविधा कायम हैं ? दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काफी हद तक बाला साहब का अनुसरण करने की सफल कोशिश की है और उसका फल भी उन्हें मिला है। नरेन्द्र मोदी को भी मुख्यधारा के मीडिया ने धर्मनिरपेक्षता के तराजू में तोलकर बार-बार अपराधी करार दिया है। पर हर बार मीडिया के आंकलन से बेपरवाह मोदी ने अपना रास्ता खुद तय किया है।
 
बाला साहब को श्रद्धान्जली देने गये भाजपा के नेताओं को इस मौके पर आत्म मंथन करना चाहिए। क्या वे इसी तरह भ्रम की स्थिति में रहकर आगे बढ़ेंगें या अपनी विचारधारा में स्पष्टता लाकर अपनी रणनीति साफ करेंगे। आज तो वे कांग्रेस की दसवीं कार्बन कॉपी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते। उधर मीडिया को भी यह सोचना पडेगा कि इस लोकतांत्रिक देश में समाज के हर हिस्से और विभिन्न विचारधाराओं को एक रंग के चश्मों से देखना सही नहीं है। धर्मनिरपेक्ष से लेकर सांम्प्रदायिक लोगो तक और गांधीवादियों से लेकर नक्सलवादियों तक को अपनी बात कहने और अपनी तरह जीने का मौका भारत का लोकतंत्र देता है। इसलिए मीडिया की निष्पक्षता तभी स्थापित होगी जब वो समाज के विभिन्न रंगों की प्रस्तुति पूरी ईमानदारी से करे। एक कार्टून पत्रकार से महाराष्ट्र के शेर बनने तक की बाला साहब की यात्रा हममें से बहुतों की विचारधारा के अनुरूप नहीं थी पर इस यात्रा के ऐसे आयामों के महत्व को कम करके आंका नहीं जा सकता।