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Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र अभी और परिपक्व हो


अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को ज़ुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र के स्वस्थ के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गाँधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। 



आमतौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा। पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है। जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथा संभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं। ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुँच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएँ नहीं पहुँच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।   


सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।


आज भारत में जो परिस्थिति है उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधान मंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे। जबकि ज़मीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेज़ी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है। हालाँकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। 


70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चौड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेज़ी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6% निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11% रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करे। 

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, March 25, 2024

आम आदमी की पहुंच हो न्यायपालिका तक: डीवाई चंद्रचूड़


हाल ही में देश की शीर्ष अदालत द्वारा दिये गये कई अहम फ़ैसलों से देश में न्यायिक सक्रियता अचानक बढ़ने लग गई है। इसके पीछे देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ डी वाई चंद्रचूड़ की अहम भूमिका को देखा जा रहा है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ का एक राष्ट्रीय टीवी चैनल को दिया गया इंटरव्यू चर्चा में आया है। जब से जस्टिस चंद्रचूड़ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सम्भाला है तभी से देश की शीर्ष अदालत में कई परिवर्तन देखने को मिले हैं। ऐसे कई क्रांतिकारी कदम उठाए गए हैं जो वकीलों, याचिकाकर्ताओं, पत्रकारों और आम जनता के लिए फ़ायदेमंद साबित हुए हैं।
 



देश भर के नागरिकों को संदेश देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, सुप्रीम कोर्ट हमेशा भारत के नागरिकों के लिए मौजूद है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी सामाजिक स्थिति के हों, किसी भी जाति अथवा लिंग के हों या फिर किसी भी सरकार के हों। देश की सर्वोच्च अदालत के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं है। इस संदेश से उन्होंने देश भर के आम नागरिकों को यह विश्वास दिलाया है कि न्यायपालिका की दृष्टि में कोई भी मामला छोटा नहीं है। जस्टिस चंद्रचूड़ आगे कहते हैं कि, कभी-कभी मुझे आधी रात को ई-मेल मिलते हैं। एक बार एक महिला को मेडिकल अबॉर्शन की जरूरत थी। मेरे स्टाफ ने मुझसे देर रात संपर्क किया। हमने अगले दिन एक बेंच का गठन किया। किसी का घर गिराया जा रहा हो, किसी को उनके घर से बाहर किया जा रहा हो, हमने तुरंत मामले सुने। इससे यह बात साफ़ है कि देश की सर्वोच्च अदालत देश के हर नागरिक को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है।



सूचना और प्रौद्योगिकी का हवाला देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी संदेश दिया कि देश की सर्वोच्च अदालत अब केवल राजधानी दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट के ज़रिये अब देश के कोने-कोने में हर कोई अपने फ़ोन से ही सुप्रीम कोर्ट से जुड़ सकता है। आज हर वो नागरिक चाहे वो याचिकाकर्ता न भी हो देश की शीर्ष अदालत में हो रही कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख सकता है। इस कदम से पारदर्शिता बढ़ी है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, अदालतों पर जनता का पैसा खर्च होता है, इसलिए उसे जानने का हक है। पारदर्शिता से जनता का भरोसा हमारे काम पर और बढ़ेगा। 



टेक्नोलॉजी पर बात करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, टेक्नोलॉजी के जरिए आम लोगों तक इंसाफ पहुंचाना मेरा मिशन है। टेक्नोलॉजी के जमाने में हम सबको साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। हर किसी के पास महँगा स्मार्ट फ़ोन या लैपटॉप नहीं है। केवल इस कारण से कोई पीछे ना छूटे, इसके लिए हमने देश भर की अदालतों में ‘18000 ई-सेवा केंद्र’ बनाए हैं। इन सेवा केंद्रों का मकसद सारी ई-सुविधाएं एक जगह पर मुहैया कराना है। यह एक अच्छी पहल है जो स्वागत योग्य है। ज़रा सोचिए पहले के जमाने में जब किसी को किसी अहम केस की जानकारी या उससे संबंधित दस्तावेज चाहिए होते थे तो उसे दिल्ली के किसी वकील से संपर्क साध कर कोर्ट की रजिस्ट्री से उसे निकलवाना पड़ता था, जिसमें काफ़ी समय ख़राब होता था। परंतु आधुनिक टेक्नोलॉजी के ज़माने में अब यह काम मिनटों हो जाता है। 



टेक्नोलॉजी के अन्य फ़ायदे बताते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, 29 फ़रवरी 2024 तक वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये देश भर की अदालतों में लगभग 3.09 करोड़ केस सुने जा चुके हैं। इतना ही नहीं देश भर के क़रीब 21.6 करोड़ केसों का सारा डेटा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसके साथ ही क़रीब 25 करोड़ फ़ैसले भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यह देश की न्यायपालिका के लिए उठाया गया एक सराहनीय कदम है।


महिला सशक्तिकरण को लेकर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, फ़रवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट में 12 महिला वकीलों को वरिष्ठ वकील की उपाधि दी गई। अगर आज़ादी के बाद से 2024 की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट में केवल 13 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता थीं। यह एक बड़ी उपलब्धि है। इतना ही नहीं आज सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही महिला रजिस्ट्रार देश के कोने-कोने से आई हुई हैं। ये वो न्यायिक अधिकारी हैं जो ज़िला अदालत की वरिष्ठ न्यायाधीश होती हैं। वे अपने अनुभव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के कई जजों की सहायता कर रहीं हैं। इनके अनुभव पर ही सुप्रीम कोर्ट को देश भर की अदालतों के लिए योजनाएँ बनाने में मदद मिलती है जो न्यायिक प्रक्रिया को जनता के लिए लाभकारी बनाती है। इसके साथ ही हम इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि महिलाओं को कोर्ट में काम करते समय एक सुरक्षित व सम्मानित वातावरण भी मिले।


इस साक्षात्कार का सबसे रोचक पक्ष है जस्टिस चंद्रचूड़ की दिनचर्या का खुलासा। वे गत 25 वर्षों से रोज़ सुबह 3.30 बजे उठते हैं। फिर योग, ध्यान, अध्ययन और चिंतन करते हैं। वे दूध से बने पदार्थ नहीं खाते बल्कि फल सब्ज़ियों पर आधारित खुराक लेते हैं। हर सोमवार को व्रत रखते हैं। इस दिन साबूदाना की खिचड़ी या फिर अधिक मात्रा में रामदाना प्रयोग करते हैं। जोकी सबसे सस्ता, हल्का और सुपाच्य खाद्य है। रोचक बात ये है कि उनकी पत्नी, जिन्हें वे अपना सबसे अच्छा मित्र मानते हैं, इस दिनचर्या में उनका पूरा साथ निभाती हैं। आज के दौर में जब प्रदूषण व मिलावट के चलते हर आम आदमी ज़हर खाने को मजबूर है और तनाव व बीमारियों से ग्रस्त है, जस्टिस चंदचूड़ का जीवन प्रेरणास्पद है।


जस्टिस चंद्रचूड़ को शायद याद होगा कि 1997 से 2000 के बीच सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण पर मैंने कई बड़े खुलासे किए थे। जिनकी चर्चा दुनिया भर के मीडिया में हुई थी। जबकि भारत का मीडिया अदालत की अवमानना क़ानून के डर से ख़ामोश रहा। मुझे अकेले एक ख़तरनाक संघर्ष करना पड़ा। तब मेरी उम्र मात्र 42 वर्ष थी। इसलिए तब मेरा विरोध ‘अदालत की अवमानना क़ानून के दुरूपयोग’ को लेकर भी बहुत प्रखर था। इस पर मैंने एक पुस्तक भी लिखी थी जो अब मैं जस्टिस चंद्रचूड़ को इस आशा से भेजूँगा कि वो इस मामले पर भी सर्वोच्च अदालत की तरफ़ से निचली अदालतों को स्पष्ट निर्देश जारी करें। अदालतों की पारदर्शिता स्थापित करने में ये एक बड़ा कदम होगा। 

Monday, February 19, 2024

लोकतंत्र में जानने का अधिकार

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज़्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्ज़ी से चुने गये सांसद या विधायक उनकी आवाज़ उठाएँगे और उनके ही हक़ में सरकार चलाएँगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी। 

‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बाँड्स के ज़रिये दिये जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफ़ी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक़ में नीतियाँ बनवाने की रिश्वत है। विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिये गये राजनैतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी।  परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ की जानकारी को साझा न करने के निर्णय को ग़लत ठहराया और ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आनेवाले तीन हफ़्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दिये गये चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए। 


विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों द्वारा इस फ़ैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहाँ हम किसी भी एक विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पार्टियों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनैतिक दलों के प्रत्याशी लोक सभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नक़द राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनैतिक दल जिन्हें ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।



वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जाँच एजेंसियों द्वारा कोई करवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहाँ एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनैतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वो किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए। परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पार्टियों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनैतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है। 



जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, अब चूँकि चुनाव आयोग को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनैतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रक़म मिली है। इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुँचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फ़ोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बाँट दे। ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा। 

कुल मिलाकर ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फ़ैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फ़ैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफ़ी मददगार साबित होगा।         

Monday, November 27, 2023

क्रिकेट की ये दीवानगी कहाँ ले जायेगी ?


23 साल के राहुल ने कोलकाता में आत्महत्या कर ली। वो क्रिकेट के विश्व कप में भारतीय टीम की हार का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका। ये तो एक उदाहरण है। देश के अन्य हिस्सों में दूसरे नौजवानों ने हार के सदमे को कैसे झेला इसका पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपने देश की टीम के साथ देशवासियों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं और इसलिए जब परिणाम आशा के विपरीत आते हैं तो उस खेल के चाहने वाले हताश हो जाते हैं। खेलों में हार जीत को लेकर अक्सर प्रशंसकों के बीच हाथापाई या हिंसा भी हो जाती है। इसके उदाहरण हैं, दक्षिणी अमरीका के देश जहां फुटबॉल के मैच अक्सर हिंसक झड़पों में बदल जाते हैं। यूरोप और अमरीका में भी लोकप्रिय खेलों के प्रशंसकों के बीच ऐसी वारदातें होती रहती हैं।
 

अंतर्राष्ट्रीय खेलों में इसकी संभावना कम रहती है क्योंकि वहाँ खेलने वाली टीमों में जो बाहर से आती हैं, उनके प्रशंसकों की संख्या गिनी-चुनी होती है। इसलिए वो किसी हिंसक झड़प में फँसने से बचते हैं। यहाँ हम पिछले हफ़्ते अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट विश्व कप के लिये खेले गये फाइनल मैच के प्रभाव की विस्तार से चर्चा करेंगे और सोचेंगे कि आख़िर क्यों राहुल ने एक खेल के पीछे अपनी जान दे दी। 



हमें प्राथमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक शिक्षा के दौरान बार-बार ये बताया जाता है कि खेल, खेल की भावना से खेले जाते हैं। जिसमें हार और जीत इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितना कि खेल के दौरान अपने कौशल का प्रदर्शन करना। जो खिलाड़ी हमेशा बढ़िया खेलते हैं वो सबके चहेते बन ही जाते हैं। जैसे विराट कोहली की बैटिंग की प्रशंसा जितनी भारत में होती है उतनी ही पाकिस्तान सहित अन्य देशों में भी होती है। ब्राज़ील का मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी पेले पूरी दुनिया के फुटबॉल प्रेमियों का हीरो था। चिंता की बात यह है कि पैसे की हवस ने आज खेलों को भी एक उद्योग बना दिया है और खिलाड़ियों को इन उद्योगपतियों का ग़ुलाम। इस मामले में भारत में क्रिकेट पहले नंबर पर है। जिसे खिलाड़ी या खेलों के विशेषज्ञ नहीं बल्कि सत्ताधीश और पैसे की हवस रखने वाले नियंत्रित करते हैं। इसलिए क्रिकेट को इतना ज़्यादा बढ़ावा दिया जाता है। खेल के नाम पर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। कौन नहीं जानता कि क्रिकेट मैच के लिये सटोरिये लार टपकाए बैठे रहते हैं।बार-बार इस तरह के मामले उछले हैं जब क्रिकेट के सट्टे या मैच फिक्सिंग के आरोपों में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सदस्यों पर भी छींटे पड़े हैं। हमारे देश में बड़े-बड़े घोटालों की जाँच तो कभी तार्किक परिणीति तक पहुँचती ही नहीं है। केवल अख़बारों की सुर्ख़ियाँ और राजनैतिक लाभ का सामान बन कर रह जाती है। 



पिछले हफ़्ते की घटना को ही लीजिए। सवा लाख दर्शकों की क्षमता वाले स्टेडियम में प्रवेश पाने के लिए टिकटों की जमकर काला बाज़ारी हुई, ऐसे आरोप लग रहे हैं। अहमदाबाद के होटल वालों ने कमरों के किराए दस गुना बढ़ा दिये 5,000 रुपये रोज़ का कमरा 50,000 रुपये पर उठा। यही हाल हवाई यात्रा की टिकटों का भी रहा। कुल मिलाकर इस एक मैच से अरबों-खरबों का कारोबार हो गया। ये सारा मुनाफ़ा मुख्यतः अहमदाबाद के व्यापारियों की जेब में गया। उधर खिलाड़ियों को, चाहे जीतें या हारें, जो शोहरत मिलती है उसका फ़ायदा उन्हें तो मिलता ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उन खिलाड़ियों को दिखाकर विज्ञापन बना कर मोटा लाभ कमा लेती हैं। इस सारे मायाजाल में घाटे में तो आम दर्शक रहता है। जो बाज़ार की शक्तियों के प्रभाव में इस मायाजाल का शिकार बन जाता है। कुछ देर के मनोरंजन के लिए वो अपना क़ीमती समय और धन गँवा बैठता है। उसकी हालत वैसी ही होती है जैसी ‘न ख़ुदा ही मिला, न बिसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे।’ इस तरह के खेल से न तो उसका शरीर मज़बूत होता है और न ही दिमाग़। इसके मुक़ाबले तो फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, वॉलीबॉल जैसे खेल कहीं ज़्यादा सार्थक हैं। जिनको खेलने वालों को भी खूब श्रम करना पड़ता है और उनसे प्रेरणा लेकर अपने गाँव क़स्बे में इन खेलों को खेलने वाले युवाओं की सेहत बनती है। क्रिकेट के मुक़ाबले ये खेल काफ़ी सस्ते भी हैं। 


जब हम हर बात में अपने औपनिवेशिक शासक रहे अंग्रेजों की आलोचना करते हैं। यहाँ तक कि उनके रखे नाम ‘इंडिया’ की जगह 75 वर्ष बाद अपने देश को ‘भारत’ कह कर पहचनवाना चाहते हैं, तो हम अंग्रेजों के इस औपनिवेशिक खेल क्रिकेट के पीछे इतने दीवाने क्यों हैं? 


यह दावा किया जाता है कि भारत और कुछ  राज्यों की सत्ता हिंदुत्ववादी है। तो यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि हिंदुत्ववादी सरकारों ने अपने शासन के इन वर्षों में सनातनी संस्कृति के प्राचीन खेलों को कितना बढ़ावा दिया और अगर नहीं तो क्यों नहीं? मल्लयुद्ध, कबड्डी, कुश्ती, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी, नौका दौड़, मल्लखम्ब जैसे खेलों की लागत भी न के बराबर होती है और इनसे युवाओं में शक्ति और बुद्धि का भी संचार होता है। यह बात अहमदाबाद के हेमेंद्रचार्य संस्कृत गुरुकुलम ने सिद्ध कर दी है। उनके विद्यार्थी बाज़ारीकरण की शक्तियों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध सनातन संस्कृति पर आधारित शिक्षा और ऐसे पारंपरिक खेलों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसलिए वे भारत के किसी भी आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्यालय के छात्रों के मुक़ाबले हर क्षेत्र में कहीं ज़्यादा आगे हैं। 


इस देश में क्रिकेट प्रेमियों की तादाद बहुत ज़्यादा है। क्रिकेट मैच के दौरान देश की धमनियों में रक्त रुक जाता है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि जिन्हें इस खेल का क, ख, ग, भी नहीं पता वे भी इस खेल के दीवाने हुए रहते हैं। अपने काम और व्यवसाय से ध्यान हटा कर मैच का स्कोर जानने के लिये उत्सुक रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को मेरे ये विचार गले नहीं उतरेंगे। किंतु यदि वे इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करें तो पायेंगे कि उनमें इस खेल के प्रति आकर्षण का कारण उनकी स्वाभाविक उत्सुकता नहीं है, बल्कि वे बाज़ारीकरण की शक्तियों के शिकार बन चुके हैं। यह ठीक ऐसे ही है जैसे काले रंग का शीतल पेय जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जिसके उत्पादन का फार्मूला गोपनीय रखा गया है और माना जाता है कि उसमें सैक्रीन, रासायनिक रंग, पेट्रोलियम जेली और कार्बन डाइआक्साइड मिली होती है, जो सब हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन के प्रभाव से हम इन शीतल पेयों को गर्व से पीते हैं। जबकि हम जानते हैं कि दूध, छाछ, फलों के रस या नारियल पानी इन काले-पीले शीतल पेयों से कहीं ज़्यादा स्वास्थ्यवर्धक होता है। यही हाल हमारे क्रिकेट प्रेमियों का भी है जिनके दिमाग़ को बाज़ार की शक्तियों ने सम्मोहित कर लिया है। इसलिये कोलकाता के युवा राहुल की आत्महत्या ने मुझे ये लेख लिखने पर बाध्य किया। आपका क्या विचार है? 

Monday, September 4, 2023

पहाड़ों पर भारी भूस्खलन: ठेकेदारों के शिकंजे में सत्ताधीश


हिमाचल प्रदेश में पाँच सौ से ज़्यादा सड़कें भूस्खलन के कारण नष्ट हो गई हैं। जो सरकार अपने कर्मचारियों को महंगाई भत्ता नहीं दे पा रही उस पर 5000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ गया है। अरबों रुपये की निजी संपत्ति बाढ़ में बह गई है। सैंकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। ये सब हुआ हिमालय को बेदर्दी और बेअक्ली से काट-काट कर चार लेन के राजमार्ग बनाने के कारण। परवानु-सोलन राजमार्ग के धँसने की एवज़ में हिमाचल सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पर उच्च न्यायालय में 650 करोड़ का हर्जाना माँगा है। प्राधिकरण के निदेशक ने इस मामले में अपनी गलती स्वीकारी है और ये माना है कि पहाड़ों में सड़क बनाने का पूर्व अनुभव न होने के कारण प्राधिकरण से ये गलती हुई है। 



अदालत में गलती मान लेने से इस भयावह त्रासदी का समाधान नहीं निकलेगा। क्योंकि इसी तरह का दानवीय निर्माण उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा के मार्ग को ‘फोर लेन’ बनाने के लिए बदस्तूर जारी है। पर्यावरणविदों की चेतावनियों की उपेक्षा करके या उनका मज़ाक़ उड़ा कर या उन्हें विकास विरोधी बता कर सत्ताधीश, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, अपने खेल जारी रखते हैं। हिमाचल केडर के सेवानिवृत आईएएस व पर्यावरणविद अवय शुक्ला अपने अंग्रेज़ी लेख, ‘हिमाचल - प्लानिंग फॉर मोर डिजास्टर्स’ में लिखते हैं कि इस पूरे खेल में राजनेता, अफ़सर व ठेकेदारों की मिलीभगत है। वे लिखते हैं कि ऐसी त्रासदी से, इस गठजोड़ को दोहरा लाभ मिलता है। पहले इन सब निर्माण कार्यों में जम कर घोटाले होते हैं और फिर विनाश के बाद पुनर्निर्माण में। ख़ामियाजा तो भुगतना पड़ता है देश की आम जनता को जिसके खून पसीने की कमाई टैक्स के रूप में वसूल कर उसी के विनाश की नीतियाँ बनाई जाती हैं। वैसे वो लोग भी कम दोषी नहीं जो पर्यटन व्यवसाय या अपने लाभ के लिए पहाड़ों पर बड़े-बड़े भवन बनाते आ रहे हैं। जिसमें न तो पहाड़ की परिस्थितिकी का ध्यान रखा जाता है और न पहाड़ों पर परम्परा से चली आ रही भवन निर्माण पद्दति का। पहाड़ों में कभी दुमंज़िले से ज़्यादा घर नहीं बनते थे। ये घर भी स्थानीय पत्थर से उन पहाड़ों पर बनाए जाते थे जिन्हें स्थानीय लोग पक्का पहाड़ कहते हैं। मतलब इन पहाड़ों पर कभी भूस्खलन नहीं होता। 



अब तो आप भारत के किसी भी पहाड़ी पर्यटन स्थल पर हज़ारों बहूमज़िली इमारतें, होटल व अपार्टमेंट देखते हैं जिनमें लिफ्ट लगी होती हैं। इनका निर्माण पहाड़ के सुरम्म्य वातावरण में एक बदनुमा दाग की तरह होता है। इनके निर्माण में लगने वाली सामग्री ट्रकों में भर कर मैदानों से पहाड़ों पर ले जाई जाती है। जिससे और भी प्रदूषण बढ़ता है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है। पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बदल फटने के बाद उत्तराखण्ड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहाँ व अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का यह तांडव जारी है। 



आज पूरे देश में अनावश्यक रूप से, बहुत तेज़ी से, बिजली की खपत दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़  रही है। इसलिए उसके उत्पादन को और बढ़ाने का काम जारी है। पर इंजीनियरों का विज्ञान यहाँ भी प्रकृति से मार खा जाता है। हिमाचल की ‘हरजी जल विद्युत योजना’ को जिस गोविंद सागर से जल की आपूर्ति मिलती है उसमें इन सड़कों के निर्माण में पैदा हुए मलबों से इतनी गाद जमा हो गई है कि अब हरजी प्लांट में कई महीनों के लिए बिजली का उत्पादन बंद कर दिया गया है। 



फिर भी हिमाचल की सरकार ने कोई सबक़ नहीं सीखा। वहाँ के उप-मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि पलचन (मनाली) से कुल्लू तक 30 किलोमीटर की नदी को बांधा जाएगा। जिसके लिये उन्होंने 1650 करोड़ की डीपीआर तैयार करवा ली है और केंद्र से इसके लिये आर्थिक सहायता माँगी है। अप-मुख्यमंत्री को इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ब्यास नदी, लखनऊ की गोमती व अहमदाबाद की साबरमती की  तरह हल्के जल प्रवाह वाली शांत नदी नहीं है, जिसे तटबंधों से बांधा जा सके। ये तो पहाड़ों से निकलती हुई, चट्टानों से टकराती हुई, जल के रौद्र प्रवाह को सहती हुई बहती है। जिसमें पहाड़ों पर होने वाली अचानक तेज़ वर्षा के कारण भारी मात्र में जल आ जाता है। ऐसी नदी को तटबंधों से कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? ये तटबंध तो ब्यास नदी के एक दिन के आक्रोश में बह कर कहाँ-के-कहाँ जाएँगे कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। ये ठीक वैसी ही मूर्खता है जैसी हाल ही के वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की रेत में करोड़ों रुपया खर्च करके एक नहर खोदी जो पहली ही वर्षा में बह गई। या काशी की गंगा में रेत के टापू पर करोड़ों रुपये खर्च करके पर्यटकों के लिए ‘टेंट सिटी’ बनाई। जिसके एक ही अंधड़ में परखच्चे उड़ गये।   


चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जाँच समितियाँ या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को। हाल के हफ़्तों में और उससे पहले उत्तराखण्ड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही काँप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो माना जायेगा कि उनका हर दावा और हर वक्तव्य जनता को केवल मूर्ख बनाने के लिए है।  

Monday, July 24, 2023

बज गयी 2024 की रणभेरी


पक्ष और विपक्ष अपने-अपने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल तैयार करने में जुट गये हैं। दिल्ली और बैंगलुरु में दोनों पक्षों ने अपना अपना कुनबा जोड़ा है। जहां नए बने संगठन ‘इंडिया’ में 25 दल शामिल हुए हैं वहीं एनडीए 39 दलों के साथ आने का दावा कर रहा है। अगर इन दावों की गहराई में पड़ताल करें तो बड़ी रोचक तस्वीर सामने आती है। 


पिछले चुनाव में एनडीए में अब शामिल हुए इन 39 दलों को मिले वोट जोड़ें तो इस गठबंधन को देश भर में 23 से 24 करोड़ के बीच वोट मिले थे। जबकि ‘इंडिया’ के मौजूदा गठबंधन को 26 करोड़ वोट मिले थे। पर ये वोट इतने सारे दलों में आपसी मुक़ाबले के कारण बंट गये। जिससे इनकी हार हुई। अगर ये गठबंधन ईडी, सीबीआई व आईटी की धमकियों के बावजूद एकजुट बना रहता है और मुक़ाबला आमने-सामने का होता है तो जो परिणाम आयेंगे वो स्पष्ट हैं। 


दूसरा पक्ष ये है कि जहां एनडीए आज 60 करोड़ भारतीयों पर राज कर रही है वहीं ‘इंडिया’ संगठन 80 करोड़ भारतीयों पर आज राज कर रहा है और इसके शासित राज्य भी एनडीए से कहीं ज्यादा हैं। 



जहां तक परिवारवाद का आरोप है तो दोनों संगठनों में परिवारवाद प्रबल और समान है। अंतर ये है कि जहां एनडीए में शामिल 39 दलों में परिवारवादी नेताओं का कोई जनाधार नहीं है। उनमें से ज़्यादातर दल ऐसे हैं जिनमें एक भी विधायक तक नहीं है। जबकि ‘इंडिया’ संगठन में जो परिवारवाद है उसके सदस्य दशकों तक राज्यों का शासन चलाने के अनुभवी और बड़े जनाधार वाले नेता हैं। जहां बीजेपी के नेताओं ने शुरू में दावा किया था कि वो कांग्रेस मुक्त भारत बनायेंगे वहाँ आज एनडीए स्वयं ही कांग्रेसयुक्त संगठन बन चुका है। जिसमें कई केंद्रीय मंत्री व मुख्यमंत्री वो हैं जो कांग्रेस के स्थापित नेता थे पर ईडी, सीबीआई की धमकियों से डरकर बीजेपी में शामिल हुए हैं।


आने वाले चुनाव में जहां ‘इंडिया’ संगठन को टिकट बाँटने में कम दिक़्क़त आएगी क्योंकि उनके सब दावेदार जनाधार वाले हैं और कई चुनाव जीत चुके हैं। वे वहीं से लें टिकट। अलबत्ता उन्हें अपने अहम और महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। जबकि एनडीए में शामिल ज़्यादातर दल ऐसे हैं जो आजतक एक विधायक का चुनाव भी नहीं जीते पर अब लोकसभा के लिये ये सभी अपनी औक़ात से ज्यादा टिकट माँगेंगे। तब बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। 



बीजेपी का जो इतिहास रहा है कि शिव सेना जैसे जितने भी दलों ने उसका साथ दिया उन सबको बीजेपी ने या तो अपमानित किया या उनको हड़प ही गयी। ऐसे में अबकी बार फिर से एनडीए में शामिल हुए दल हमेशा अपना अस्तित्व खोने के डर से ग्रस्त रहेंगे। उन्हें इस बात का भी सामना करना पड़ेगा कि आरएसएस उन्हें अपने रंग में रंगने का भरपूर प्रयास करेगा। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो ‘इंडिया’ संगठन के बनने से बीजेपी और एनडीए संगठन के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। जिसको देखकर अब 2024 का चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है।


जिस तरह भाजपा को विपक्ष के ‘इंडिया’ नाम के संगठन से आपत्ति हो रही है उसका असल कारण विपक्ष की एकजुटता है। वरना जब दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना की एक क्षेत्रीय पार्टी ने अपना नाम बदल कर उसे ‘भारत राष्ट्र समिति’ कर दिया तो भाजपा या एनडीए के किसी भी सहयोगी दल ने इस पर आपत्ति नहीं जताई। इस विपक्षी एकजुटता को भाजपा आगामी लोकसभा चुनावों में एक गंभीर चुनौती मान रही है। 


जब 2014 में मोदी जी लोकसभा चुनावी मैदान में उतरे थे तब ऐसी कोई भी चुनौती उनके सामने नहीं थी। ‘इंडिया’ संगठन बनने के बाद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विपक्षी दल ना सिर्फ़ एकजुट होते दिखाई दे रहे हैं बल्कि एनडीए के ख़िलाफ़ युद्ध करने को चुनावी बिगुल बजा रहे  हैं। 



भाजपा के कुछ नेता ‘इंडिया’ संगठन के अंग्रेज़ी नाम को लेकर भी काफ़ी असहज दिखाई दिये हैं। इतना असहज कि इंडिया नाम को अंग्रेजों की देन बता कर उसका विरोध भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर से भी इंडिया को हटा कर भारत रख दिया है। विपक्ष ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यदि इंडिया नाम से इतनी आपत्ति है तो क्या सरकार द्वारा चलाई जाने वाली उन सभी योजनाओं के नाम भी बदले जाएँगे जहां ‘इंडिया’ का उपयोग किया गया है? मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया व स्टैंड अप इंडिया आदि। क्या भाजपा अपने सोशल मीडिया हैंडल का नाम BJP4India को भी बदलेगी? यदि अन्य राजनैतिक पार्टियों के नाम को खंगाला जाए तो आपको ऐसी कई पार्टियाँ मिलेंगी जिनके नाम में भारत, भारतीय, इंडिया, इण्डियन शब्द अवश्य मिलेगा। तो फिर इस बेतुके विवाद को क्यों खड़ा किया जा रहा है? 


असल में भाजपा और एनडीए को जिस बात से अधिक परेशानी है, वो विपक्षी दलों का एक ऐसा ऐलान है जिसका सामना भाजपा को आने वाले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा। ग़ौरतलब है कि विपक्षी नेताओं ने इस बात की घोषणा कर दी है कि वो आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा और एनडीए के हर एक चुनावी प्रत्याशी के ख़िलाफ़ ‘इंडिया’ संगठन अपने सभी दलों का समर्थित एक प्रत्याशी ही उतारेंगे जो उस संसदीय क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय होगा। ज़ाहिर सी बात है कि इससे विपक्षी दलों में बंटने वाले वोट एकजुट हो जाएँगे और भाजपा को काफ़ी नुक़सान हो सकता है। 

      

आगामी महीनों में चार राज्यों में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। उनके परिणाम देश की दिशा तय करेंगे। उसके बाद भी लोक सभा चुनाव में जहां बीजेपी के नेता हिंदू मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण करवाने की हर संभव कोशिश करेंगे वहीं ‘इंडिया’ संगठन बेरोज़गारी, महंगाई, दलितों पर अत्याचार और समाज में बँटवारा कराने के आरोप लगाकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करेगा। विपक्ष मोदी जी से 2014 में किए गए वायदों के पूरा न होने पर भी पर सवाल करेगा। जबकि बीजेपी भारत को विश्व गुरु बनाने जैसे नारों से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी। अब देखना ये होगा कि मतदाता किसकी तरफ़ झुकता है।