Showing posts with label Corruption Anna Hazare Jan Lokpal Bill Corruption. Show all posts
Showing posts with label Corruption Anna Hazare Jan Lokpal Bill Corruption. Show all posts

Monday, September 12, 2016

केजरीवाल: बिछड़े सभी बारी-बारी



            सर्वोच्च न्यायालय ने अरविंद केजरीवाल की यह मांग मानने से इंकार कर दिया कि दिल्ली में मुख्यमंत्री उपराज्यपाल से ऊपर है। दिल्ली उच्च न्यायालय ऐसी याचिका पहले ही खारिज कर चुका है। अब इसका मतलब साफ है कि पिछले 3 वर्षों से अरविंद केजरीवाल दिल्ली के उपराज्यलपाल पर केंद्र का एजेंट होने का जो आरोप बार-बार लगा रहे थे, उसकी कोई कानूनी वैधता नहीं थी। क्योंकि न्यायपालिका ने मौजूदा प्रावधानों को देखते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि दिल्ली के मामले में उपराज्यपाल का निर्णय ही सर्वोपरि माना जाएगा।
            यह पहली बार नहीं है, जब अरविंद केजरीवाल को मुंह की खानी पड़ी है। जिस दिन से आम आदमी पार्टी वजूद में आयी है, उस दिन से उसके तानाशाह संयोजक अरविंद केजरीवाल नित्य नई नौटंकी करते रहते हैं। जिसका मकसद केवल अखबार और टेलीविजन की सुर्खिया बटोरना है। ठोस काम करने में अरविंद का दिल कभी नहीं लगा। टाटा समूह की अपनी पहली नौकरी से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल ने नाहक विवाद खड़ा करना सीखा है। काम करने वाले शोर नहीं किया करते। विपरीत परिस्थितियों में भी काम कर ले जाते हैं। अरविंद को अगर दिल्लीवासियों की चिंता होती, तो उनकी समस्याओं को हल करते। पर आज दिल्ली देश की राजधानी होने के बावजूद निरंतर नारकीय स्थिति की ओर बढ़ती जा रही है। हर दिन दिल्लीवासी शीला दीक्षित के शासन को याद करते हैं। अरविंद केजरीवाल को तो राष्ट्रीय नेता बनने की हड़बड़ी है| इसलिए कभी पंजाब, कभी बंगाल, कभी बिहार, कभी गुजरात, कभी गोवा जाकर नए-नए शगूफे छोड़ते रहते हैं। जाहिर है कि जिन राज्यों में जनता पारंपरिक राजनैतिक दलों से नाखुश है, उन राज्यों में सपने दिखाना केजरीवाल के लिए बहुत आसान होता है। वे आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे करते हैं, पर भूल जाते हैं कि दिल्लीवासियों से चुनाव के पहले उन्होंने क्या-क्या वादे किए थे और आज उनमें से कितने पूरे हुए? वैसे दावा करने को केजरीवाल सरकार सैकड़ों करोड़ रूपए के विज्ञापन छपवा चुकी है।
            नवजोत सिंह सिद्धू ने भी केजरीवाल के मुंह पर करारा तमाचा जड़ा है। जिस सिद्धू को अपनी पार्टी में लेने के लिए केजरीवाल पलक-पांवड़े बिछाए बैठे थे, उसने एक ही बयान में यह साफ कर दिया कि केजरीवाल की न तो कोई विचारधारा है, न उनमें जनसेवा की कोई भावना। कुल मिलाकर केजरीवाल का फलसफा ‘मैं और मेरे लिए’ के आगे नहीं जाता। सिद्धू को चाहिए कि अगर वे भाजपा और कांग्रेस से नाखुश हैं, तो पूरे पंजाब में अपने प्रत्याशी खड़े करें और केजरीवाल की तानाशाही से त्रस्त, परिवर्तन के हामी, सभी लोगों को अपने साथ जोड़ लें। इससे कम से कम केजरीवाल पंजाब की जनता को गुमराह तो नहीं कर पाएंगे।
            ऐसा नहीं है कि केजरीवाल की तरह स्वार्थी, दोहरे चरित्र वाला और झूठ बोलने वाला का कोई दूसरा नेता नहीं है। राजनीति में तो अब यह आम बात हो गई है। फर्क इस बात का है कि केजरीवाल ने पिछले 5 वर्षों में ताल ठोककर ये घोषणा की थी कि उनसे अच्छा कोई नेता नहीं, कोई दल नहीं और कोई कार्यकर्ता नहीं। कार्यकर्ताओं की तो छोड़ो केजरीवाल मंत्रीमंडल के एक-एक मंत्री धीरे-धीरे किसी न किसी घोटाले या चारित्रिक पतन के मामले में कानून की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। कहां गया केजरीवाल का वो दावा कि जब ये कहा गया था कि उनके दल में केवल ईमानदार और चरित्रवान लोगों को ही टिकट मिलेगा। हम तो केजरीवाल से हर टीवी बहस में ये लगातार कहते आए कि जिन आदर्शों की बात तुम कर रहे हो, वैसे इंसान खोजने बैकुंठ धाम जाना पड़ेगा। पृथ्वी पर तो ऐसा कोई मिलेगा नहीं। फिर भी केजरीवाल का दावा था कि लोकपाल का चयन उनके जैसे मेगासेसे अवार्ड जीते हुए लोग ही करें। तभी देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो पाएगा। ये तो गनीमत है कि केजरीवाल के विधायक और मंत्री ही बेनकाब हो रहे हैं।
            अगर कहीं बंदर के हाथ में उस्तरा लग जाता, तो क्या होता? सोचिए वो स्थिति कि केजरीवाल जैसे लोग एक ऐसा लोकपाल बनाते, जो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक के ऊपर होता और उसकी डिग्री केजरीवाल के कानून मंत्री रहे तोमर जैसी फर्जी पाई जाती। पर केजरीवाल के सुझाए कानून अनुसार वो लोकपाल देश में किसी को भी जेल भेज सकता था। केजरीवाल एंड पार्टी के ऐसे वाहियात और बचकाने आंदोलन का पहले दिन से मैंने पुरजोर विरोध किया। जब ये लोग अन्ना हजारे के साथ राजघाट धरने पर बैठे, तो मेंने इनके खिलाफ पर्चे छपवाकर राजघाट पर बंटवाए। ये बतलाते हुए कि इनकी निगाहें कहीं हैं और निशाना कहीं पर। उस वक्त कोई सुनने को तैयार नहीं था। दाऊद के एजेंट हो या भूमाफियाओं के दलाल, भ्रष्ट राजनेता हों या नंबर 2 की मोटी कमाई करने वाले फिल्मी सितारे। सबके सिर पर 2 तरह की टोपी होती थी, ‘मैं अन्ना हूं’ या ‘मैं आम आदमी हूं’। आज उन सबसे पूछो कि केजरीवाल के बारे में क्या राय है, तो कहने में चूकेंगे नहीं कि हमसे आंकने में बहुत बड़ी गलती हो गई।
            जस्टिस संतोष हेगड़े हों, अन्ना हजारे हों, प्रशांत भूषण हों, योगेंद्र यादव हों, किरण बेदी हों और ऐसे तमाम नामी लोग, जिन्होंने केजरीवाल के साथ कंधे से कंधा लगाकर लोकपाल की लड़ाई लड़ी, आज वे सब केजरीवाल के गलत आचरण के कारण उनके विरोध में खड़े हैं। बिछड़े सभी बारी-बारी। पंजाब की जनता को केजरीवाल का चरित्र अब तक समझ में आ जाना चाहिए, वरना दिल्लीवासियों की तरह वे भी रोते, कलपते नजर आएंगे।

Monday, October 26, 2015

केजरीवाल की नौटंकी

2011 में जब जनलोकपाल कानून की मांग को लेकर अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नाटक मंडली जोड़ी तभी इसके रंगढंग देखकर मुझे लगा कि देश की जनता के साथ एक बार फिर बड़ा भारी छल होने जा रहा है। इसलिए वर्षों की चुप्पी तोड़कर हर टीवी चैनल और अपने लेखों के माध्यम से मैंने इस नाटक मंडली पर करारा हमला बोला। अर्णव गोस्वामी और दूसरे टीवी एंकर हतप्रभ थे कि जब सारो देश, यहां तक कि कालेधन से चलने वाला बालीवुड तक इस नाटक में सड़़कों पर उतर रहा था, तो मुझ जैसा शख्स क्यों इनके विरोध में अकेला खड़ा था। कारण साफ था। मुझे अरविन्द की नीयत पर भरोसा नहीं था। हालांकि उस बेचारे ने मुझे भी किरन बेदी, आनंद कुमार, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, स्वामी अग्निवेश, मयंक गांधी जैसे लोगों की तरह अपने मंच पर आने का न्यौता दिया था। गनीमत है कि मैं उसके झांसे में नहीं आया वरना इन सब की तरह उसने मुझे भी इस्तेमाल कर टोपी पहना दी होती। एक आत्ममुग्ध तानाशाह की तरह अरविन्द हर उस पायदान को लात मारता जा रहा है जिस पर पैर रखकर वह ऊपर चढ़ा।

मेरे ब्लॉग पर 2011 से 2014 तक के लेख देखिए या यू-ट्यूब पर जाकर वो दर्जनों टीवी शो देखिए, जो-जो बात इस नाटक मंडली के बारे में मैंने तब कही थी वो सब आज सामने आ रही हैं। लोग हैरान है अरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक अवसरवादिता और छलनीति का करिश्मा देखकर। आज तो उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के विरोधाभासों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई है। पर इससे उसे क्या ? अब वो सब मुद्दे अरविन्द के लिए बेमानी है जिनके लिए वो और उसके साथी सड़कों पर लोटे और मंचों पर चिंघाड़े थे। क्योंकि पहले दिन से मकसद था सत्ता हासिल करना, सो उसने कर ली। अब और आगे बढ़ना है तो संघर्ष के साथियों और उत्साही युवाओं को दरकिनार करते हुए अति भ्रष्ट राजनेताओं के साथ गठबंधन करने में केजरीवाल को कोई संकोच नहीं है। आज दिल्ली की जनता दिल्ली सरकार की नाकामियों की वजह से शीला दीक्षित को याद कर रही है। पर केजरीवाल की बला से। उसने तो झुग्गी-झोपड़ी पर अपना फोकस जमा रखा है। क्योंकि जहां से ज्यादा वोट मिलने हैं उन पर ध्यान दो बाकी शासन व्यवस्था और विकास जाए गढ्ढे में।

भ्रष्टाचार से तो इस देश में आजादी के बाद सबसे बड़ी लड़ाई बिना झंडे-बैनर और सड़कों पर आंदोलन के हमने नैतिक बल से लड़ी और 1996 में ही देश के दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और आला अफसरों को भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वाया और जैन हवाला कांड में चार्जशीट करवाया। पर सत्ता के पीछे नहीं भागे। आज भी ब्रज क्षेत्र में आम जनता के हित के लिए विकास का ठोस काम कर रहे हैं और संतुष्ट हैं। पर दुःख इस बात का होता है कि हमारे देश की जनता बार-बार नारे और मीडिया के प्रचार से उठने वाले आत्मघोषित मसीहाओं से ठगी जाती है। पर ऐसे ढोंगी मसीहाओं का कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

इस स्थिति से कैसे ऊबरे ये एक बड़ा सवाल हैं ? जिनके पास विचार हैं, ईमानदारी हैं, विश्वसनीयता है और देश के लिए काम करने का जज्बा हैं उनके पास साधन नहीं है। जिनके पास देशभर में पांच सितारा पंडाल खड़े करके, लाखों मीटर कपड़े के तिरंगे-झंडे बनवाकर, ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपियां बांटकर, हजारों वेतनभोगी युवाओं को स्वयंसेवक बता और 24 घंटे दर्जनों टीवी चैनलों को लपेट कर रखने की शक्ति और साधन हैं उनके पास ईमानदारी कैसे हो सकती है ? इसलिए जनता हर बार छली जाती हैं।

पिछले दिनों देश के कई हिस्सों में ऐसे लोगांे और युवाओं से फिर से मिलना हुआ जिन्हें मैं गत 3 दशकों से देखता रहा हूं। ये सब युवा बहुत शिक्षित हैं। अच्छे परिवारों से हैं और बाजार में इन्हें बढियां नौकरियां मिल सकती थी और आज भी मिल सकती हैं। पर इन्हें देश की चिंता हैं। ये रातदिन सोच रहे हैं, लिख रहे हैं और 1857 के गदर के सन्यासियों की तरह देशभर में घूम-घूम कर अलख जगा रहे हैं। ये ना तो विदेशी मदद लेते हैं और ना ही किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं। इनमें घोर आस्तिक भी हैं और कुछ नास्तिक भी। इन्हें भारतीय संस्कृति से गहरा प्रेम हैं। पर ये हैरान हैं कि भाजपा की सरकार भी विकास का वो माॅडल क्योंकि नहीं अपना रही जिसकी बात स्वदेशी जागरण मंच वर्षों से करता आया था। इनमें से ज्यादातर केजरीवाल के साथ तन, मन, धन से जुड़े थे। पर आज इनका मोह उससे भंग हो गया हैं और इनका कहना है कि केजरीवाल भी दूसरे नेताओं की तरह एक नौटंकीबाज ही निकला, जिसे ठोस काम करने में नहीं केवल सत्ता हथियाने, अपना प्रचार करने और नए-नए विवाद खड़े करके मीडिया में बने रहने की ही लालसा है। जबकि देश को ऐसे नेतृत्व की जरूरत हैं जो औपनिवेशिक शिकंजे से भारत को निकाल कर अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं के अनुरूप मजबूत राष्ट्र बना सके।

इन्हें विश्वास है कि लोकतंत्र, न्यायपालिका, मीडिया और कार्यपालिका के नाम पर खड़ा किया गया यह ढांचा अब ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा। क्योंकि देश के करोडों लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर पश्चिम की जो जूठन गत 200 वर्षों में परोसी गई है उसने भारत की जड़ों को खोखला कर दिया हैं। विकास का मौजूदा ढांचा देश की बहुसंख्यक आबादी को रोटी-कपड़ा-मकान व स्वास्थ्य-शिक्षा-रोजगार नहीं दे सकता। इसलिए देशभर में एक बड़ी बहस की जरूरत है। जिसकी ये सब तैयारी कर रहे हैं।

Monday, February 10, 2014

केवल कानूनों से नहीं रूक सकता भ्रष्टाचार

इस देश के हर आम और खास आदमी को पता है कि देश में हो रहे अपराधों को रोकने के लिए सैकड़ों कानून हैं। पुलिस और सी.बी.आई. है और नीचे से ऊपर तक न्यायिक तंत्र है, पर क्या इसके बावजूद अपराध घट रहे हैं ? फिर भी लोगों को लगातार बहाकाया जा रहा है कि सख्त कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि अपराध शास्त्र के शोध बताते हैं कि कानून से केवल 5 फीसद अपराध कम होते हैं। बाकी 95 फीसद अपराध कम करने के लिए दूसरे प्रयासों की जरूरत होती है।

 चूंकि भ्रष्टाचार भी एक अपराध है, तो हमें समझना होगा कि यह अपराध क्यों हो रहा है। इसको कैसे रोका जा सकता है ? जहां तक ताकतवर लोगों के भ्रष्टाचार का सवाल है, तो उसे अपराध शास्त्र की भाषा में ‘व्हाइट कालर क्राइम’ कहते हैं और इसकी परिभाषा यह है कि ‘वह अपराध, जिसे पकड़ा न जा सके’ यानि ताकतवार लोगों के भ्रष्टाचार को पकड़ना आसान नहीं होता। अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं। देशभर में राजनीति, प्रशासन, उद्योग और व्यापार से जुड़े ऐसे करोड़ों उदाहरण हैं, जहां बिना मेहनत के अकूत धन सम्पदा को जमा कर लिया गया है। इलाके के लोग जानते हैं कि यह संग्रह भ्रष्ट तरीकों से किया गया है। फिर भी इन अपराध करने वालों को पकड़ा नहीं जा पाता।
दरअसल भ्रष्टाचार के कारण दो हैं। एक-प्रवृत्ति और दूसरा-परिस्थिति। जितनी ही प्रवृत्ति और परिस्थिति ज्यादा प्रबल होगी, उतना ही उसे रोकने का कानून अप्रभावी होगा। प्रवृत्ति आती है, व्यक्ति के संस्कारों से और परिस्थितियां वो हालात हैं, जो एक आदमी को भ्रष्ट बनने का मौका देते हैं। अगर प्रवृत्ति सादा जीवन उच्च विचार की होगी, तो वह व्यक्ति भ्रष्ट आचरण करने से बचेगा। आज हम लोगों को यह बता रहे हैं कि खुशी पाने का तरीका है, रोज नई खरीददारी करते जाना। चाहे वह नई कारें का माॅडल हो या अन्य कोई सामान। बाजार की सभी शक्तियों, उनकी विज्ञापन एजेंसियों का एक ही मकसद है कि लोग खरीददारी करें। चाहे वो संपत्ति हो, उपकरण हों या सोना चांदी। इस तरह भूख और हवस को लगातार हवा दी जा रही है। जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा हो रहा है। नतीजा यह है कि लोग अनैतिक साधनों से अपनी इन कृत्रिम आवश्यकताओं को पूरा करने में संकोच नहीं करते और यही भ्रष्टाचार का कारण है।
इसके साथ ही समाज में नैतिक मूल्यों का तेजी से हृास हो रहा है। आज समाज के आदर्श कोई ज्ञानी, त्यागी या सिद्ध पुरूष नहीं हैं, बल्कि जिसके पास अकूत धन और ताकत है, उसी का समाज में बोलबाला है। वही धार्मिक, सामाजिक व शैक्षिक कार्यों को सहायता देता है और यश कमाता है। उसे देखकर हर व्यक्ति वैसा ही बनना चाहता है। फिर भ्रष्टाचार कैसे कम हो ? जो लोग सख्त कानून बनाकर भ्रष्टाचार रोकने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब सख्त कानूनों का विपरीत असर पड़ा है। फ्रांस के एक राजा ने मुनादी करवाई कि जेबकतरों को सरेआम फांसी दी जाएगी। अपेक्षा यह थी कि फांसी के डर से जेबकतरे जेबे नहीं काटेंगे। पर जब किसी अपराधी को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती थी, तो तमाशबीन लोगों की दर्जनों जेबें कट जाती थीं। मतलब साफ था कि फांसी पर लटकते हुए देखकर भी जेबकतरों के मन में डर पैदा नहीं होता था। यही बात भ्रष्टाचार विरोधी कानून की भी है। पिछले तीन बरस के हल्ले को छोड़कर अगर पीछे जाएं, तो पाएंगे कि मौजूदा कानून में ही एक क्लर्क से लेकर प्रधानमंत्री तक को पकड़ने की क्षमता थी। अगर उसका पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ, तो कानून की कमी के कारण नहीं, बल्कि उसको लागू करने वालों की प्रवृत्ति के कारण हुआ। फिर वो चाहे सी0बी0आई0 का पुलिस अधिकारी हो या सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश। नये कानून बनाकर भी यह परिस्थिति बदलने वाली नहीं है, क्योंकि लोग तो वही रहेंगे।
तो क्या कानून न बनाया जाए ? कानून की भी भूमिका केवल प्रतिरोध करने तक होती है, समाधान देने की नहीं। उस हद तक कानून की सार्थकता है, पर अगर भ्रष्टाचार से निपटना है, तो समाज में सादा जीवन व नैतिकता के मूल्यों पुर्नस्थापना करनी होगी। कोई प्रश्न कर सकता है कि संपन्न देशों में तो भौतिकता का स्तर ऊंचा है, फिर वहां आम आदमी के स्तर पर भ्रष्टाचार क्यों नहीं दिखाई देता। कारण स्पष्ट है कि वहां आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को सरकार पूरा कर देती है। चाहे उसे दूसरे देशों को लूटकर साधन जुटाने पड़ें, इसीलिए आदमी आसानी से भ्रष्टाचार करने का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं करता। पर फिर भी अपराध वहां कम नहीं होते।
इसलिए हम बार-बार यही दोहराते आए हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध केवल कानून बनाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। जो लोग कानून का मुद्दा पकड़कर तूफान मचा रहे हैं, वो भी मन में जानते हैं कि ये तो एक बहाना है, असली मकसद तो सत्ता पाना है। अब यह आम आदमी पर है कि वो नकाबों के पीछे की असलियत को देखे। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।

Monday, December 23, 2013

अनूठा रहेगा केजरीवाल का प्रयोग

अगर जनमत संग्रह की बात मानें तो केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन रहे हैं, जिसके लिए उन्हें बधाई। क्योंकि एक ही साल में राजनैतिक दल बनाकर इस सफलता को पाना कोई सरल काम न था। पत्रकारों की छोड़िये राजनैतिक दल तक आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) की दिल्ली में आम लोगों के बीच लोकप्रियता का पूर्वानुमान नहीं लगा सके। दरअसल केजरीवाल लोगों को यह बात समझाने में सफल रहे कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। इसलिए चाहे उन्होंने असंभव को संभव बनाने के दावे किए हों या बढ़ चढ़कर अपनी उपलब्धियों के दावे किए हों, कुल मिलाकर यह साफ है कि वे आम आदमी को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। अब जब काफी उधेड़बुन के बाद केजरीवाल दिल्ली में सरकार गठन का निर्णय लेने जा रहे हैं, तब भी लोगों के मन में आशंका है कि वे कितने सफल हो पाएंगे ? कांग्रेस और भाजपा कुछ ज्यादा ही आक्रामक तेवर अपना रहे हैं। वे ये सिद्ध करना चाहते हैं कि केजरीवाल सरकार चलाने में विफल हो जाएंगे। जबकि केजरीवाल का यह पलटवार कि वे न सिर्फ सरकार बनाएंगे, बल्कि उसे अच्छी तरह चलाकर भी सिखाएंगे, इन राजनेताओं के मन में अपनी स्थिति को लेकर संशय पैदा कर रहा है। 

केजरीवाल यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे विफल हुए तो जमे हुए राजनैतिक दल उनकी बोटी नोंच लेंगे और अगर वे सफल हुए तो कई महानगरों में इनके प्रत्याशी लोकसभा का चुनाव जीत सकते हैं। इसलिए उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार कर ठीक किया है। हमने पिछले हफ्ते इसी कॉलम में लिखा था कि अगर केजरीवाल सरकार बनाते हैं और कुछ महीने के लिए ही सही कुछ अनूठा कर दिखाते हैं, तो उनको आगे बढ़ने के रास्ते खुलते जाएंगे। हो सकता है कि वे बिजली और पानी की कीमतों को लेकर अपने दावे निकट भविष्य में पूरे न कर पाएं, पर लोकप्रिय चाल चलन से नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह दिल्ली की गलियों और झुग्गियों में हड़कंप तो मचा ही सकते हैं। हमारे हुक्मरानों ने आजादी के बाद अपने को आम आदमी से इतना दूर कर लिया है कि केजरीवाल के छोटे-छोटे कदम भी उसे प्रभावित करेंगे, जैसे बिना लालबत्ती की गाड़ी में चलना। अगर मीडिया पहले की तरह केजरीवाल को प्रोत्साहित करता रहा, तो इन कदमों की चर्चा देशभर में होगी। जिससे पूरी राजनैतिक जमात में हड़कंप मचेगा। क्योंकि राजनेताओं की वीआईपी संस्कृति देश के हर हिस्से में आम लोगों की आंखों में किरकिरी की तरह चुभती है। पर वे इसे बदलने में असहाय हैं। यह पहल तो राजनेताओं को ही करनी चाहिए थी। वे चूक गए। अब केजरीवाल उन्हें नयी राह दिखाएंगे। 

जब से दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजे आए हैं, कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेता दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि केजरीवाल के तौर तरीकों ने पारंपरिक राजनीति की संस्कृति को एक झटका दिया है। विधायकों की खुली खरीद न होना इसका एक प्रमाण है। अलबत्ता वे यह कहने में नहीं चूक रहे कि आलोचना करना और सपने दिखाना आसान है बमुकाबले कुछ करके दिखाने के। इसलिए वे तमाम तरह की संभावित समस्याओं का हौवा खड़ा कर रहे हैं। केजरीवाल की यह बात सही है कि अगर मन में ईमानदारी हो और कुछ नया करने का जुनून तो सरकार चलाना कोई मुश्किल काम नहीं। खैर यह तो समय ही बताएगा कि वे अपने इस दावे में कहा तक सफल होते हैं। 

आजादी के बाद आज तक किसी भी दल का घोषणा पत्र उठाकर देख लो तो साफ हो जाएगा कि उसमें चैथाई वायदे भी पहले तीन चार साल में पूरे नहीं किए जाते। फिर ये राजनेता केजरीवाल से क्यों उम्मीद कर रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही जादू की छड़ी घुमा देंगे। शायद इसका कारण खुद आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) के नेतृत्व की वह बयानबाजी है, जिसमें कई बार शालीनता की सीमाओं को लांघकर अहंकारिक वक्तव्यों ने अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ा। उनके बड़बोलेपन ने ही आज उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया है, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ दिल्ली की आम जनता को सपने दिखाए, बल्कि उसे अति अल्प समय में पूरा करने का भी वायदा किया। इसलिए उन पर दवाब ज्यादा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) इतना शोर मचाने के बावजूद अभी तक कुछ भी हासिल न कर पायी है। पर इतना जरूर है कि एक नौजवान ने हिम्मत करके पूरी राजनैतिक व्यवस्था के सामने एक विकल्प तो खड़ा करके दिखा ही दिया है। हमें इस नौजवान का उत्साहवर्धन करना चाहिए और आशा करनी चाहिए कि वह हिन्दुस्तान की तस्वीर भले ही न बदल पाए, राजनेताओं को उनके तौर तरीके बदलने पर मजबूर जरूर करेगा। 

Monday, November 25, 2013

झूठे दावे क्यों कर रहे हैं केजरीवाल ?

पुरानी कहावत है कि, ‘पूत के पांव पालने में’। केजरीवाल की आआपा अपने चुनाव प्रचार में झूठे दावे करने वाले एसएमएस भेज कर युवा पीढ़ी को गुमराह कर रही है। 13 नवंबर 2013 को ऐसा ही एक एसएमएस दिल्ली के  मतदाताओं को भेजा गया। जिसमें दावा किया गया कि आआपा ने भारत के इतिहास में पहली बार सीबीआई की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया। पहली बार राजनैतिक चंदे में पारदर्शिता का मुद्दा उठाया। पहली बार राजनीति के अपराधिकरण के खिलाफ आवाज उठाई और पहली बार चुने हुए उम्मीदावारों को मतदाता द्वारा वापिस बुलाने की मांग उठाई। आआपा के ये सभी दावे 101 फीसदी झूठे हैं। युवा पीढ़ी आधुनिक भारत का इतिहास नहीं जानती। इसलिए केजरीवाल और उनके साथी इस पीढ़ी को गुमराह कर रहे हैं जिससे उनकी छवि देश में एक महान क्रांतिकारी की बन सके। जबकि सच्चाई यह है कि सीबीआई की स्वायत्त्ता का मामला 1993 से लगातार हम उठाते आ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर मीडिया और संसद तक सीबीआई की स्वायत्तता का जिक्र सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फैसले के साथ ही अदालतों, संसद व मीडिया में किया जाता है।  यह बात पूरा देश जानता है। फिर केजरीवाल का यह झूठा दावा क्यों ? सबसे जोर-शोर से 1994 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने राजनैतिक दलों की आमदनी और खर्चे की पारदर्शिता के लिए कठोर कदम उठाए थे जिनकी चर्चा उसके बाद लगातार होती रही है। 1994 में ही दिल्ली के आईएएस अधिकारी के.जे. एलफांस की एनजीओ जनशक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर यह मांग की थी कि हर चुनावी दल को अपनी आमदनी-खर्चे का आडिट करवाकर चुनाव आयोग व आयकर विभाग को देना चाहिए। ऐसा न करने वाले दलों की मान्यता निरस्त कर दी जानी चाहिए। तब इस मामले पर देश में भारी शोर मचा था। फिर केजरीवाल इन मुद्दों को पहली बार उठाने का झूठा दावा क्यों कर रहे हैं ?

राजनीति में अपराधीकरण को रोकने की मांग पिछले 3 दशक में अनेक बार जोर-शोर से उठाई गई है। इस पर संसद के विशेष सत्र भी बुलाए गए हैं। फिर केजरीवाल क्यो झूठा दावा कर रहे हैं ? इसी तरह चुने हुए प्रत्याशियों को मतदाताओं द्वारा वापिस बुलाने के अधिकार की मांग 1975 में लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने उठाई थी। तब से अनेके संगठन और जागरूक नागरिक यह मांग अलग-अलग स्तर पर उठाते रहे हैं। फिर केजरीवाल झूठा दावा क्यों कर रहे हैं ?

भारतीय आयकर अधिकारियों के संघ ने एक खुला पत्र भेजकर केजरीवाल से पूछा है कि वे यह झूठा दावा क्यों कर रहे हैं कि वे आयकर विभाग में आयुक्त थे और करोड़ों कमा सकते थे। जबकि वे कभी भी आयुक्त पद पर नहीं रहे और ना ही उनके बैच का कोई व्यक्ति अभी तक आयुक्त बन पाया है। इतने ऐतिहासिक तथ्यों को छिपा कर और खुलेआम झूठे दावे करके केजरीवाल इतिहास के साथ छेड़छाड़ और भारत की जनता के साथ धोखाधड़ी कर रहे हैं। इतना ही नहीं जहां उन्हें लगता है कि उनसे भी बड़े संघर्ष उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ हो चुके हैं तो वे उसका जिक्र तक नहीं करना चाहते। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन ने यू-ट्यूब पर 2010 में एक फिल्म डाली जिसमें आजाद भारत के सभी घोटालों का संबंधित वर्ष के साथ उल्लेख किया गया है। पर आश्चर्य की बात यह है कि इस फिल्म में 1996 का देश का सबसे बड़ा घोटाला हवाला कांड गायब है। जिसमें देश के 115 राजनेताओं और अफसरों को आजाद भारत के इतिहास में पहली बार भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट किया गया। शायद केजरीवाल और डा0 योगेन्द्र यादव जैसे उनके साथी आत्मसम्मोहित हैं कि कहीं उनके आंदोलन की तुलना हमारे हवाला संघर्ष से हो गई तो उन्हें जवाब देना भारी पड़ जाएगा। केजरीबाल ने पिछले 36 महीने में भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर करोड़ा रूपया खर्च कर दिया। टीवी चैनलों पर हजारों घंटे अपना राग अलाप लिया। देश के हजारों युवाओं को इस आंदोलन में झोंक दिया और फिर भी उनका दल भ्रष्टाचार के नाम पर एक चूहे तक को नहीं पकड़ सका। जबकि बिना टीवी चैनलों के हुए, बिना पैसा खर्च किए, बिना बड़े-बड़े दावे किए, बिना लोकपाल कानून बने और बिना सीबीआई को स्वायत्तता मिले हमने 28 महीने में ही देश के 115 ताकतवर नेताओं को पकड़ावा दिया था।

साफ जाहिर है कि केजरीवाल और उनकी टीम का इरादा येन-केन-प्रकारेण अपना प्रचार करना और राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना रहा है। हाल में हुए स्टिंग आॅपरेशन ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। कुल मिलाकर केजरीवाल का आंदोलन अपनी अति महत्वाकांक्षओं को पूरा करने के लिए रहा है। इससे जनता को आज तक कोई लाभ नहीं मिला। केवल हताशा और निराशा फैली है। जब केजरीवाल और उनकी टीम इतनी भी ईमानदारी नहीं  िकवे ऐतिहासिक तथ्यों को बिना तोड़े-मरोड़े प्रस्तुत कर सकें तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि सत्ता में आने के बाद उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं होगा। असम गण परिषद के छात्र नेताओं आसाम की जनता को सपने दिखा कर आसाम का चुनाव जीता था। पर बाद में वहां लूट का तांडव शुरू हो गया। ऐसी ही दशा आआपा की भी हो सकती है, इसकी संभावना से कौन इंकार कर सकता है ?

यह दुःख की बात है कि इतना बड़ा आंदोलन खड़ा करके केजरीवाल ने अपने समर्थकों को निराश और हताश किया है।
 

Monday, April 1, 2013

क्यों विफल होते है भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ?

अमृतसर में अन्ना हजारे ने जनता से पूछा है कि वह बताये कि भ्रष्टाचार से लडाई कैसे लडी जाए ? यह तो ऐसी बात हुई कि भगवान श्री कृष्ण कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से कहे कि तुम मुझे गीता का उपदेश दो। जनता तो बेचारी भ्रष्टाचार की शिकार है। उसे तो खुद समाधान की तलाश है। अगर उसके पास समाधान होता तो देश मे अन्ना हजारे मशहूर कैसे होते ? दरअसल समाधान अन्ना हजारे के पास भी नही है और उनका मकसद समाधान ढूँढना भी नही है। मकसद है समाज मे असन्तोष पैदा करना और दुनिया को यह बताना कि भारत मे प्रजातंत्र विफल हो गया है। वैसे भ्रष्टाचार के विरोध मे उठने वाली जो भी मुहिम प्रचार के साथ उठायी जाती है और जिसका मकसद सत्तारूढ दल को ही निशाना बनाना होता है। उस मुहिम का एक ही लक्ष्य होता है जो सत्ता मे है उन्हे हटाओं और हमे सत्ता सौंपो या हमारे चेलों को सत्ता सौंपो। यह बात दूसरी है ऐसी मुहिम चलाने के बाद जो दल सत्ता मे आता है वो भी भ्रष्टाचार दूर नही कर पाता। वायदे केवल कोरे वायदे बनकर रह जाते हैं। भ्रष्टाचार कभी खत्म नही होता। उसकी मात्रा घटती बढ़ती रहती है।

दरअसल भ्रष्टाचार के विरूद्ध हर मुहिम के असफल होने के कई कारण होते है। जिनमे से सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि भ्रष्टाचार के कारणों की ही सही समझ अभी तक विकसित नही हुई है। हम ढोल की पोल बजा रहे है। जिसे आम जनता भ्रष्टाचार मानती है, वो तो बहुत सतही नमूना है। असली भ्रष्टाचार तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कर जाते है या उद्योगपति करते है और बाकी देश को पता ही नही चलता। पर भीड़ की उत्तेजना को बढ़ाकर ‘डेमोगोग‘ समाज मे प्रायः अशान्ति पैदा करते हैं। भ्रष्टाचार की मुहिम लेकर चलने वाले अन्ना हजारे खुद यह दावा नही कर सकते जो लोग उन्हे बार-बार मैदान मे खींचकर लाते है उनके दामन भ्रष्टाचार के रंग मे नही रंगे है। पूरी तरह भ्रष्टाचार विहीन समाज कभी कोई हुआ ही नही। उसके स्वरूप अलग अलग हो सकते है। इसलिए भ्रष्टाचार से लडाई के तरीके भी अलग-अलग होंगे। पर जब तक भ्रष्टाचार के कारणों की सही समझ न हो, जब तक इस लड़ाई के लड़ने वाले के दिल राग-द्धेष से मुक्त न हों, जब तक इस लडाई का मकसद किसी एक दल को फायदा पहुचाना और दूसरे को नुकसान पहुंचाना न हो तब तो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम जोर पकड़ती रहती है। जैसा इण्डिया अगेस्ट करप्शन के साथ हुआ। पर जैसे ही इस मुहिम का नेतृत्व करने वाले के चरित्र का दोहरापन उजागर होता है वैसे ही ऐसी मुहिम ठंडी पड़ जाती है।

कहने को तो हर आदमी भ्रष्टाचार विहीन व्यवस्था चाहता है। पर तकलीफ उठाकर भ्रष्टाचार से लड़ने वाले बिरले ही हाते है। पर वे इसलिए विफल हो जाते है क्योंकि उन्हे समाज के किसी भी ताकतवर वर्ग का समर्थन नही मिलता। ऐसे योद्धा जान हथेली पर लेकर लड़ते है और गुमनामी के अधेरे मे खो जाते हैं और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के हीरो असलियत में अनेकों समझौते किये हुए पाये जाते हैं। इसलिए वे मशहूर तो हो जाते हैं सफल नहीं।  अभी तो यह भी तय नही कि भ्रष्टाचार समाज शास्त्र का विषय है, अपराध शास्त्र का, मनोविज्ञान का या दर्शन शास्त्र का। जब रोग का स्वरूप ही नही पता तो उसका निदान देने वाला डॉक्टर कहां से आयेगा। नतीजा यह है कि  2500 साल पहले यूनान के शहरों में भ्रष्टाचार के विरूद जनता की जो राय होती थी वह आज भी वैसे की वैसी है। फिर भी न कुछ बदला न कुछ खत्म हुआ। दुनिया अपनी चाल से चल रही है।

इसका अर्थ यह नही कि भ्रष्टाचार से लड़ा न जाए। पर जब भ्रष्टाचार का कारण आर्थिक विकास का मॉडल हो, धर्माचार्यो का आचरण हो, समाज का वर्ग विभाजन हो, प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो, इन संसाधनों पर आाम आदमी के नैसर्गिक अधिकारों की उपेक्षा हो तो आप किससे कैसे और कहां तक लड़ेंगे ? जब हम पड़ोसी के घर भगतसिंह पैदा होने की कामना करेंगे, तो बदलाव कैसे आयेगा ? इसलिए जब-जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठती है, तो हम जैसे लोगो को, जो तकलीफ उठाकर ऐसी लम्बी लडाई लड़ चुके है, ऐसी आवाज उठाने वालों के मकसद को लेकार तमाम संशय होते हैं। जिनका समाधान न तो अन्ना के पास हैं और न उस जनता के पास जिससे वे समाधान पूछ रहे हैं।

Monday, February 4, 2013

राज्यों में मजबूत लोकपाल गठित करने कि जरूरत

सत्यव्रत चतुर्वेदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने जो प्रस्ताव सरकार को सौंपे, वे प्रशंसनीय हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लोकपाल के गठन और अधिकारों को लेकर जो कुछ इस समिति ने सुझाया है, वह काफी हद तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक मॉडल है, जिस पर संसद में आम सहमति होनी चाहिए। जहाँ तक लोकपाल के अधिकारों की बात है, उसे केवल मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। अन्यथा उसका कार्यक्षेत्र इतना बढ़ जाऐगा कि लोकपाल एक कागजी शेर बनकर रह जाऐगा। इतना ही नहीं अगर सरकार के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अधीन किया जाता है, तो इसे कम से कम 6 लाख जांच अधिकारियों को नियुक्त करना पड़ेगा। जिनका चयन, उनकी ईमानदारी की परीक्षा और उनको दिए जाने वाला वेतन, यह इतने जटिल सवाल हैं कि इनका हल असंभव है। इसलिए टीम अन्ना की यह मांग उचित नहीं। पर टीम अन्ना की इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए कि अगर उच्च पदासीन मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच के बाद लोकपाल को उनके विरूद्ध भ्रष्टाचार के समुचित प्रमाण मिलते हैं तो इन लोगों को मिलने वाली सजा के अलावा इनकी अवैध सम्पत्ति जब्त करने का अधिकार लोकपाल को मिलना चाहिए। तभी भ्रष्टाचारियों के मन में भय पैदा होगा।
लोकपाल और सीबीआई के संबन्धों पर जो सुझाव इस समिति ने दिए हैं, वे निश्चित रूप से एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं, जिनका परीक्षण किया जाना चाहिए। अगर परिणाम उत्साहजनक आते हैं, तो इस दिशा में और भी प्रगति की जा सकती है। जहाँ तक सीबीआई को पूरी स्वायत्तता देने की बात है, ऐसा किसी भी दल की कोई सरकार कभी नहीं मानेगी। लेकिन सीबीआई को सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किया जाना चाहिए। अभी सीवीसी को केवल सीबीआई के कामकाज पर निगरानी रखने का अधिकार मिला है, जो नाकाफी है। सीबीआई अभी भी सरकार के सीधे आधीन है। सीबीआइ और सीवीसी दोनों को ही वित्तीय स्वायत्तता नहीं है। इसलिए वे सरकार के रहमो करम पर निर्भर रहती हैं। जब तक इन्हें वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिलेगी, तब तक सरकार में बैठे अफसर चाहें जब इनकी कलाई मरोड़ते रहेंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल और सीवीसी के बीच कार्य का विभाजन किस तरह हो? जैसा कि हम शुरू से कहते आए हैं कि आदर्श स्थिति तो यह है कि लोकपाल केवल मंत्रियों और विधायिका के सदस्यों के भ्रष्ट आचरण की जांच करे और सीवीसी उच्च अधिकारियों से लेकर मझले स्तर तक के अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जांच करे। इस तरह दोनों के कार्यक्षेत्र स्पष्टतः विभाजित रहेंगे। सी0बी0आई0 को इन दोनों ही संस्थाओं के आदेशानुसार मामला दर्ज करने, जांच करने, समय-समय पर जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के प्रावधान किये जाऐं। जिससे लोकपाल व सी0वी0सी0 अपने-अपने कार्यक्षेत्र में मिलने वाली शिकायतों के अनुरूप सीबीआई को समुचित दिशानिर्देश दे सकें। इसके साथ ही लोकपाल की चयन समिति को ही सीवीसी के सदस्यों का भी चयन करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, स्पीकर लोकसभा व भारत के मुख्य न्यायाधीश मिलकर लोकपाल और सीवीसी के सदस्यों का चयन करें। एक लोकतांत्रिक देश में इससे अच्छी परंपरा और क्या हो सकती है। हां, इसमें एक सुधार अवश्य करना चाहिए। जिन व्यक्तियों का भी नाम इस समिति के संज्ञान में चयन के लिए लाया जाता है, उन व्यक्तियों के नाम और क्रियाकलापों की सूची लोकपाल और सीवीसी की वेबसाइट पर डाली जाऐं और देश की जनता को यह न्यौता दिया जाए कि वह अगले निर्धारित समय सीमा के भीतर इन व्यक्तियों में से यदि किसी के विरूद्ध भी भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण के कोई प्रमाण हों, तो  चयन समिति के सामने प्रस्तुत करें। इससे चयन प्रक्रिया में और भी पारदर्शिता आयेगी। कम से कम उन लोगों के नाम तो कभी भी विचारार्थ नहीं आयेंगे, जिनके आचरण पर पहले कभी कोई विवाद उठ चुका है।
इस पूरी लड़ाई में जो असली मुद्दा खो रहा है, वह है आम जनता के सामने हर दिन आने वाले भ्रष्टाचार जनित संकट। राशन की दुकान, थाना बिजली, अस्पताल, परिवहन व स्थानीय प्रशासन, ये ऐसे विभाग हैं जिनसे आम जनता का रोज नाता पड़ता है। इन्हीं के भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा दुखी है। लोकपाल बने या न बने, आम लोगों को कोई राहत मिलने वाली नहीं। उसके लिए तो लोकायुक्त ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि केन्द्र का लगभग सारा पैसा राज्यों को जाता है। इसलिए उस पैसे के इस्तेमाल पर कड़ी नजर रखना जरूरी है। पर चतुर्वेदी समिति की सिफारिशों में लोकायुक्त का चयन और उसके अधिकार तय करने का जिम्मा राज्य सरकारों पर टाल दिया गया है। जाहिर है ऐसा क्षेत्रीय दलों के दबाव के कारण किया गया है। क्योंकि पिछले सत्र में क्षेत्रीय दलों ने लोकायुक्त थोपे जाने का भारी विरोध किया था। लोकायुक्त के गठन के मौजूदा कानून के बावजूद गुजरात जैसे कई राज्यों ने लोकायुक्त के गठन में भारी कोताही बरती है। इसलिए देशवासियों को चाहिए कि वे अपने-अपने प्रांतों की सरकारों पर दबाव बनाकर प्रांतों में सशक्त लोकायुक्त के गठन को सुनिश्चित करें। जिससे उनके दैनिक जीवन में आने वाले अवरोधों के अपराधी पकड़े जा सकें।
अंत में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक, आर्थिक, मनौवैज्ञानिक व आपराधिक आचरण है। जिसका समाधान केवल कानून और लोकपाल जैसी संस्थाओं के गठन से कभी भी नहीं निकाला जा सकता, जब तक कि समाज खुद उठकर खड़ा न हो और अपने व सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध लगातार संघर्ष न करे। 

Monday, August 6, 2012

अन्ना एण्ड कम्पनी का असली चेहरा सामने आया

जैसा अन्देशा था वही हुआ। अन्ना एण्ड कम्पनी ने अपना असली चेहरा दिखा दिया। भ्रष्टाचार से लड़ाई तो एक बहाना था। शुरू से अन्ना एण्ड कम्पनी के खास लोगों की निगाह अपने-अपने मंसूबे हासिल करने की थी। जनलोकपाल के नाम पर तो देश को यूंही बेवकूफ बनाया गया। इसीलिए पहले ऐसा जनलोकपाल बिल लाये, जिसे किसी ने ठीक नहीं कहा। पर वह जिद पर अड़े रहे कि जो नया कानून बने उसमें कोमा और विराम भी हमारी मर्जी से लगाया जाये। चूंकि मकसद कुछ और था दिखावा कुछ और। इसलिए किसी भी बात पर अन्ना एण्ड कम्पनी कभी राजी ही नहीं हुई। इनका हाल उस जिद्दी बच्चे की तरह था, जो पहले जिद करता है कि ’पैन्ट दिलाओ’। जब पैन्ट दिलवादी तो कहेगा। ’काली नहीं नीली चाहिए थी’। जब बदलकर नीली दिलवाई तो कहेगा सूती नहीं रेशमी पैन्ट चाहिए थी। कुछ भी दे दो पर सन्तोष नहीं। सन्तोष तो तब होता जब देश के दूसरे सामाजिक आन्दोलनों की तरह अन्ना एण्ड कम्पनी भी अपनी बात पर टिकी रहती।     लड़-झगड़कर अधिक से अधिक अपनी बात मनवाती और जो बात न मानी जाती उसके लिए भविष्य में संघर्ष करना। पर अन्ना एण्ड कम्पनी को जनलोकपाल के नाम पर देश के लोगों को मूर्ख बनाकर शोहरत और पैसा बटोरना था। सो उसमें वे पूरी तरह कामयाव रहे। ठगा तो आम हिन्दुस्तानी गया। पहले भ्रष्टाचार को पूरा खत्म करने का सपना दिखाया। अब पूरे देश को ठीक करने का सपना दिखा रहे है।
अन्ना एण्ड कम्पनी के आन्दोलन के शुरू होने से बहुत पहले अरविन्द केजरी वाल को बहुत लोगों ने समझाया कि दोहरेचरित्र वाले लोगों को साथ लेकर तुम लड़ाई नहीं जीत पाओगें पर अरविन्द के कान पर जू तक नहीं रेंगी। भ्रष्टाचार से लड़ना होता तो सही सलाह समझमें आती। यहां तो खेल ही दूसरा था। इस धोखाधड़ी का देश पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। अब बहुत दिनों तक जनता ऐसे किसी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं पर आसानी से विश्वास नहीं करेगी। दूसरी बात यह है कि अन्ना एण्ड कम्पनी का आन्दोलन करोड़ो रूपया पानी की तरह बहाकर किया गया। एक ही मिनट में सारी दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में अन्ना की टोपी, तिरंगा झंडा और आई ए सी के फलैक्स कैसे प्रगट हो जाते थे। आन्दोलन शुरू भी नहीं हुआ पर धरना स्थल पर पचासों टीवी ओबी वैन आकर पहले से ही खडी़ हो जाती थी। अब महिलाओं से जुड़ा सवाल हो या मजदूरों किसानों के हक की बात या पर्यावरण का सवाल ऐसे सभी आन्दोलनों को अन्ना एण्ड कम्पनी के इस छद्म आन्दोलन से भारी झटका लगा है। अब ऐसे आन्दोलनकारियों को अन्ना एण्ड कम्पनी की तरह मोटी रकम खर्च करके जनहित के मुददे उठाने पड़ेगे। वरना उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देगा। दूसरी समस्या यह आयेगी। कि अब जनता आनदोलन के कार्यों को गम्भीरता से नहीं लेगी। उन पर शक करेगी।
पूर्व सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने अन्ना के मंच पर भाषण किया कि जाति और धर्म से हटकर योद्वा की तरह युद्व लड़ा जाये तो हर कामयाबी मिल सकती है। जनरल को यह पता नहीं कि अन्ना एण्ड कम्पनी ने ही ऐसे ऐजेन्ट बैठाये है जो भ्रष्टाचार के विरूद्व अनेक सर्घषों को बड़ी कुटिलता से विफल करते आये हैं। ऐसे लोगों के साथ जनरल वीके सिंह देश की कितनी सफाई कर पाते हैं। यह जल्द ही सामने आ जायेगा।

राजनीति में जाना कोई गलत बात नहीं हैं। पर राजनीति के नियम सुधार आन्दोलन के नियमों से बहुत फर्क होते हैं। यहां कार्यकर्ताओं की एक विशाल फौज की जरूरत होती है। एक विचारधारा के प्रति समर्पण होता है। देश को दिशा देने के लिए आवश्यक अनुभव और परिपक्वता की जरूरत होती है जो अन्ना एण्ड कम्पनी में दूर-दूर तक नहीं है। इनका आचरण बताता है कि हर सदस्य अलग दिशा की तरफ भाग रहा है। मंच पर खड़े होकर गाली देना आसान है। पर कुछ करके दिखाना बहुत टेढ़ी खीर है। पर चलांे अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया है। सब सामने आ जायेगा। हमने तो पिछले साल ही कहा था कि अन्ना एण्ड कम्पनी देश को गुमराह कर रही है। अराजकता फैला रही है। अब रहा-सहा सच भी सामने आ जायेगा। भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ाना बहुत जरूरी है। पर उसके लिए राजनैतिक पार्टी की नहीं निष्काम सेवा भावना की जरूरत होती है। धीरज चाहिए ऐसी लड़ाई को लम्बे समय तक लड़ने के लिए, जिसका अन्ना एण्ड कम्पनी के पास भारी अभाव है। इसलिए न हासिल कर पाये, न कर पायेंगे।

Sunday, September 18, 2011

अन्ना हजारे फिर महात्मा गाँधी के खिलाफ बोले

Rajasthan Patrika 18 Sep
दिल्ली के रामलीला में जितने दिन अन्ना हजारे का अनशन चला, उतने दिन मंच पर उनके पीछे महात्मा गाँधी का एक बड़ा भारी फोटो लगा रहा। हजारे जी के मीडिया मैनेजरों ने उन्हें दूसरा महात्मा गाँधी बताकर खूब प्रचारित किया। नारे भी लगाए गए कि ‘अन्ना नहीं आंधी है, दूसरा महात्मा गाँधी है।’ टीम अन्ना का उत्साह इस कदर बढ़ गया कि देश में कई जगह उन्होंने महात्मा गाँधी की मूर्ति पर ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी भी पहना दी। कुल मिलाकर बात यह थी कि किसी तरह अन्ना हजारे को महात्मा गाँधी के बराबर खड़ा कर दिया जाए। पर हजारे जी की बातों को देखें तो असलियत कुछ और ही बयान कर रही है।

हजारे जी महात्मा गाँधी की शिक्षाओं और आचरण के विपरीत बोल रहे हैं। जिसका उन्हें पूरा हक है। पर फिर कम से कम गाँधी के समकक्ष उन्हें न रखा जाए। ताजा उदाहरण हजारे जी का वह बयान है, जो उन्होंने अपने गाँव रालेगण सिद्धि से जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। सुनने में यह बड़ा दमदार लगता है। पर क्या यह गाँधी की भाषा है? गाँधी जी जोर देकर बार-बार कहते थे कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’

अब हम हजारे जी के उस वक्तव्य का विश्लेषण करें, जो वे देश की अबोध और कुछ भावुक जनता को खुश करने के लिए बार-बार दे रहे हैं कि, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।’ जाहिर है कि यह महात्मा गाँधी के सिद्धांत और शिक्षाओं के विपरीत है। रही बात फाँसी के प्रभाव की, तो इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि तानाशाहों के राज्यों में, मसलन फ्रांस में, जब जेबकतरों को सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी जाती थी, तो वहाँ खड़ी भीड़ में दर्जनों जेबें कट रही होती थीं। इसलिए अपराध शास्त्र में फांसी की सजा को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। अदालत भी जब फांसी की सजा सुनाती है, तो केवल उन्हीं मामलों में, जहाँ यह महसूस करती है कि अपराधी ने इतना निकृष्ट अपराध किया है कि उसका जीना समाज के लिए अभिशाप बन सकता है। ऐसा दुर्लभ मामलों में भी दुर्लभतम मामलों में किया जाता है। पूरी दुनिया के सभी देशों में, जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं हैं, फांसी की सजा कई वर्षों में एकाध-बार दी जाती है। हजारे जी ऐसी अव्यवहारिक, भड़काऊ और गैर गाँधीवादी बात कहकर आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

आजादी की लड़ाई के दौरान जब देश के बड़े-बड़े नेता बार-बार वर्षों तक जेलों में रहे, तो उन्होंने जेल की अन्दर की दशा को देखा। कैदियों के मनोविज्ञान को समझा और इसलिए आजादी के बाद वर्षों तक सभी राजनेता अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जेल सुधार की बात करते रहे। अपराध शास्त्री सुधीर जैन बताते हैं कि आजादी से पहले अंगे्रजी हुकूमत का सोचना था कि किसी अपराधी को तीन उद्देश्यों से सजा दी जाए। (1) प्रतिशोध - उसने समाज के विरूद्ध जो अपराध किया है, उसका बदला उससे लिया जाए। (2) प्रतिरोध - उसे भविष्य में यह अपराध करने से रोका जाए। प्रतिरोध के भी दो भाग थे। एक था-वैयक्तिक प्रतिरोध और दूसरा-सामान्य प्रतिरोध। वैयक्तिक प्रतिरोध का मतलब था कि वह अपराधी दुबारा ऐसा जुर्म करने की हिम्मत न करे और सामान्य प्रतिरोध था कि उसकी सजा देखकर दूसरे डर जाएं और सबक सीखें। (3) प्रायश्चित - उसे कारागार में डालकर ऐसे हालात में रखा जाए कि वह बार-बार अपने अपराध का चिंतन करे और उसके मन में पश्चाताप पैदा हो।

आजादी के बाद इस सोच में बदलाव आया और जेल सुधार के कार्यक्रम में दो आयाम और जोड़े गए। एक था अपराधी का सुधार करना और दूसरा था उनका पुर्नवास करना। पहले के तहत अपराधी को अनेक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक उपायों से सुधरने और बेहतर इन्सान बनने का मौका देना। अपराधी सुधार का यह आयाम महात्मा गाँधी के उन्हीं विचारों से प्रेरित था कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ पुर्नवास के तहत अपराधी को समाज में फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि एक बार जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लग जाता है, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए ऐसे कार्यक्रम बनाए गए और ऐसी प्रचार सामग्री तैयार की गई, जिससे समाज की सोच को बदला जा सके। इसी प्रयास का परिणाम था कि जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चंबल के दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तो दस्युओं को ससम्मान समाज में पुनर्वासित किया गया। हालांकि ये दस्यु भ्रष्टाचार से भी कई गुना जघन्य हत्या और लूट जैसे बर्बर अपराधों में शामिल रहे थे, फिर भी इन्हें इनके प्रायश्चित का सम्मान करते हुए यथोचित सत्कार के साथ न सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बल्कि शासन व्यवस्था ने भी इनके पुर्नवास में तत्परता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि चंबल के क्षेत्र से दस्युओं का आतंक कमोबेश समाप्त हुआ और यह पूर्व दस्यु अपने रूतबे के कारण अपने ग्रामीण समाजों में अपराध रोकने और विवाद निपटाने में प्रमुख भूमिका निभाने लायक हुए। मुझे याद है, जब मेरे एक मित्र ठाकुर मुकुट सिंह जो इंग्लैंड से पढ़कर लौटे और अपने गाँव में ग्रामीण विकास के स्वंयसेवी कार्य में जुट गए थे, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने पुत्र की बारात लेकर चंबल गए और एक दस्यु परिवार की कन्या से उसका विवाह किया। अपराधियों के पुर्नवास का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है?

हम पहले भी लिख चुके हैं कि राजघाट पर जब हजारे जी 8 जून को एक दिन के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे, तो जिस तरह का नाच-गाना वहाँ हुआ और जैसा मजमा जुड़ा, उससे महात्मा गाँधी की समाधि की गरिमा कम हुई। माहौल ऐसा था, जैसे आई.पी.एल. का क्रिकेट मैच हो रहा हो और दर्शक मजा ले रहे हों।

रामलीला मैदान से भी अन्ना और टीम अन्ना के जो तेवर थे, उनमें दूर-दूर तक कहीं भी गाँधीवाद दिखाई नहीं दे रहा था। जिस तरह की भाषा वहाँ प्रयोग की गई, उसे सुनकर यही लगा कि अन्ना गाँधी कम शिवाजी ज्यादा लग रहे थे। इसका उल्लेख हमने इसी काॅलम में उस सप्ताह किया था।

कड़ी सजा तो भ्रष्टाचारियों को मिलनी ही चाहिए, परन्तु फांसी की बात से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं। उसी तरह जैसे ‘जनलोकपाल’ कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है।

Sunday, June 19, 2011

देश के गाँधीवादी अन्ना हज़ारे के साथ क्यों नहीं दीख रहे?

जबसे टी.वी. मीडिया ने सक्रिय होकर अन्ना हजारे के उपवास को सफल बनाया है, तबसे अन्ना हजारे के सहयोगी बहुत उत्साहित हैं। इस उत्साह में वे बार-बार अन्ना हजारे की तुलना महात्मा गाँधी से कर रहे हैं। यह सही है कि अन्ना ने अपना जीवन अपने गाँव के सुधार के लिए समर्पित कर दिया। साथ ही वे भ्रष्टाचार के सवाल पर कुछ खास लोगों के खिलाफ महाराष्ट्र में सत्याग्रह करते रहे हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे बापू के समकक्ष ठहराये जा सकते हैं।

हमने 4 और 8 जून को अन्ना हजारे, बाबा रामदेव व इन दोनों के सहयोगियों को दो खुले पत्र लिखे थे। जिनकी प्रतियाँ हमने दिल्ली के मीडिया जगत में भी बंटवायी। इन पत्रों में हमने इन दोनों से ही भ्रष्टाचार विरोधी इनकी मुहिम को लेकर कुछ बुनियादी सवाल पूछे थे। जिसका उत्तर हमें आज तक नहीं मिला। इस बीच अन्ना ने सप्रंग की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखकर कई नये सवाल खड़े कर दिये हैं।

अन्ना ने इस पत्र में श्रीमती  सोनिया गाँधी से शिकायत की है कि उनके लोगों ने अन्ना को ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ’ से जुड़ा हुआ बताया है। इसे अन्ना ने निश्चित रूप से अपमानजनक माना है। अन्ना से पूछा जाना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से उन्हें इतना परहेज क्यों है? क्या संध ने देशद्रोह का कोई काम किया है, जिसका प्रमाण उनके पास है? अगर है तो उन्हें देश के सामने प्रस्तुत करना चाहिए ताकि आस्थावान हिन्दू और भारत के नागरिक ऐसे ‘देशद्रोहियों’ के खिलाफ इस लड़ाई को मजबूती से लड़ सकें।

यह तो पता नहीं है कि श्रीमती  सोनिया गाँधी को अन्ना ने पत्र में क्या लिखा है? क्योंकि उसकी प्रति शायद उन्होंने सार्वजनिक नहीं की है। लेकिन इस विषय में जो समाचार छपे हैं, उससे ऐसा लगता है कि अन्ना सोनिया जी से अपने गाँधीवादी होने का प्रमाणपत्र चाहते हैं। अन्ना इसे अन्यथा न लें, तो यह उनकी मानसिक कमजोरी का परिचायक है।

अन्ना के सहयोगियों का दावा है कि वे दूसरे महात्मा गाँधी हैं। अन्ना खुद को भी गाँधीवादी मानते हैं और देश में आजादी की दूसरी लड़ाई का शंखनाद कर चुके हैं। ऐसे में देश जानना चाहता है  कि केवल संघ से जुड़ा कह देने भर से वे इतने तिलमिला क्यों गये? बापू ने तो सहनशीलता की मिसाल कायम की थी। अन्ना इतने कमजोर क्यों हैं कि किसी के कुछ भी कह देने से उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है?

एक सवाल देश को और झकझोर रहा है। जिसका उत्तर उन्हें देश को देना ही होगा। अन्ना जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक देश में ऐसे हजारों समर्पित व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने देश के गरीब किसानों, भूमिहीनों, आदिवासियों व श्रमिकों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज भी वे उसी जीवट से, निःस्वार्थ भाव से, निष्काम भावना से, तकलीफ सहकर, देश के विभिन्न हिस्सों में गाँधी जी के आदर्शों पर जीवन जी रहे हैं।

इन गाँधीवादियों ने बिना किसी यश की कामना के, बिना सत्ता की ललक के, बिना अपने त्याग के पुरूस्कार की अपेक्षा के, पूरा जीवन होम कर दिया। ये हजारों लोग बापू के शब्दों में जिन्दा शहीद हैं। क्या वजह है कि ये सब लोग अन्ना के इस नये अवतार में कहीं भी उनके इर्द-गिर्द नहीं दिखाई दे रहे हैं? क्या ये माना जाए कि अन्ना का मौजूदा स्वरूप, कार्यकलाप और वक्तव्य देश के समर्पित गाँधीवादियों का विश्वास नहीं जीत पाया है या अन्ना को उन पर विश्वास नहीं है? अगर अन्ना को गाँधी जी के मूल्यांे और विचारधारा में तिलभर भी आस्था है, तो उनका पहला प्रयास देशभर के गाँधीवादियों को ससम्मान अपने साथ खड़ा करने का होना चाहिए।
गत् 8 जून को दिल्ली के राजघाट पर, बापू की समाधि पर, अन्ना और उनके सहयोगियों ने जिस तरह का आचरण किया, जो भाषण दिये, जो शब्दावली प्रयोग की, उसका दूर-दूर तक बापू की शब्दावली और विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था। अन्ना और उनके साथियों ने बापू की गरिमा का भी ध्यान नहीं रखा। जो लोग उनके समर्थन में वहाँ जुटे, उन्होंने जिस तरह का हल्कापन और फूहड़पन अन्ना के समर्थन में प्रदर्शित किया, उसे देखकर ऐसा दूर-दूर तक नहीं लगा कि ये लोग आज़ादी की दूसरी लड़ाई में, शमां पर मर मिटने वाले परवाने हैं। टेलीविजन चैनलों के कैमरों को देखकर, जिस तरह का नाच-कूद वहाँ हुआ, उसे देखकर फिरोजशाह कोटला मैदान में होने वाले क्रिकेट के 20-20 मैच के दीवाने दर्शकों की छवि सामने आ रही थी। हमें वहाँ यह देखकर बहुत तकलीफ हुयी। निश्चित रूप से इन लोगों के इस आचरण से बापू की आत्मा को ठेस लगी होगी।

इस सबसे तो यही लग रहा है कि अन्ना बापू का अभिनय करने की चेष्ठा कर रहे हैं, पर उनके अभिनय की पटकथा परदे के पीछे से कोई और लिख रहा है।

अन्ना ने 4 लोग साथ लेकर यह कैसे मान लिया कि वे 120 करोड़ हिन्दुस्तानियों के भाग्य नियंता हैं? मीडिया के एक हिस्से के सहयोग से उन्होंने जो माहौल बनाया है, उससे यह कतई दिखाई नहीं दे रहा कि देश की जनता को राहत की कोई किरणें मिलेंगी, सिवाय हताशा और निराशा के बढ़ने के। हमें लगता है कि उन्हें अपनी सोच और रणनीति में बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है।

Sunday, June 12, 2011

आन्दोलन से उठे सवाल

Rajasthan Patrika 12 June11
कौन नहीं चाहता कि देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो व कौन नहीं चाहता कि जनता के धन को लूटने वालों को सख्त सजा मिले? सभी राजनैतिक दल अगर ईमानदारी से प्रयास करते तो इन समस्याओं से निज़ात मिल सकती थी। राजनेताओं की इस कोताही से पैदा हुए शून्य को भरने का काम सिविल सोसाइटी के सदस्य करते रहे हैं। हर प्रांत में और लगभग हर मुद्दे पर। चाहें जंगल और पहाड़ काटने का सवाल हो या नदियाँ प्रदूषित करने का या किसानों की भूमि अधिग्रहण का या महिलाओं पर बड़े लोगों के अत्याचार का या पुलिसिया जुल्म का या न्यायपालिका के निकम्मेपन का। अनेक नामों से, अनेक विचारधाराओं के बैनरतले, देश के अलग-अलग हिस्सों के जागरूक नागरिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा से आवाज उठाते रहे हैं। इसलिए यह सोचना कि जो अब हो रहा है, वह अनूठा है या यह सोचना कि जिन पाँच लोगों ने देश के 122 करोड़ लोगों के भविष्य के लिए लोकपाल विधेयक तैयार करने का जिम्मा लिया है, वही सिविल सोसाइटी है-ठीक नहीं होगा। वैसे भी पिछले दिनों की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि वो चाहें बाबा रामदेव हों या अन्ना हजारे वाली सिविल सोसाइटी, दोनों ही गुटों के कई कार्यकलापों और भाषणों ने समाज में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। जबकि दावा यह किया जा रहा है कि देश की विशेषकर भ्रष्टाचार की हर बीमारी का इलाज इनके पास है। 

1970 से आज तक देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लगातार कई जनान्दोलन हुए और लड़ाईयाँ लड़ी गयीं। पर इन दोनों गुटों ने मीडिया का पूरा उपयोग करके देशभर में उम्मीद जगा दी कि देश से भ्रष्टाचार को ये मिटा देंगे और विदेशों में जमा धन वापस ले आयेंगे। इसके लिए इन्हें बधाई दी जानी चाहिए। 27 फरवरी, 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान में इन सबने मिलकर एक ऐतिहासिक रैली की। जिससे यह सन्देश गया कि अब देश उठ खड़ा होगा और इन लोगों के सद्प्रयास से देशवासियों को इन बुराईयों से मुक्ति मिलेगी।

आश्चर्य की बात है कि अन्ना हजारे ने 27 फरवरी को उसी मंच से जन्तर मन्तर पर अपने उपवास और धरने की कोई घोषणा नहीं की। जबकि उन्होंने उसी समय में अपने करीबी लोगों से दिल्ली में अपने भावी उपवास की चर्चा की थी। अगर उसी मंच पर यह घोषणा भी की होती तो सबके साझे प्रयास से देश में बड़ा भारी माहौल बनता। यह चर्चा नहीं होती कि अन्ना हज़ारे और रामदेव अलग-अलग चल रहे हैं और स्वार्थी तत्व इस स्थिति का फायदा नहीं उठा पाते। अपने इस आचरण के लिए अन्ना हजारे देश की जनता के प्रति जबावदेह हैं। बाबा रामदेव के धरने वाले दिन और उसके बाद राजघाट के अपने धरने के दिनों में बाबा रामदेव को लेकर अन्ना हजारे गुट ने बार-बार विरोधाभाषी बयान दिये हैं। जिससे यह मुहिम कमजोर पड़ी है।

इनके धरने की उपलब्धि यही रही कि इन लोगों ने सरकार के साथ मिलकर लोकपाल विधेयक को समयबद्ध कार्यक्रम के तहत बनाना तय किया। इनका समूह यह दावा करता रहा है कि जनलोकपाल विधेयक को इन लोगों ने कई वर्षों की कड़ी मेहनत से, गहरी कानूनी समझ से, दूरदृष्टि से, सभी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए तैयार कर रखा था। जिसे इन लोगों ने देश के सामने भी प्रस्तुत किया। यह बात दूसरी है कि देश के अनेक न्यायविद्, संविधान विशेषज्ञ, व्यवस्था को समझने वाले ईमानदार अधिकारी और भ्रष्टाचार से लम्बी लड़ाई लड़ चुके जागरूक लोग नहीं मानते कि लोकपाल बिल भ्रष्टाचार के हर मर्ज की दवा है।

जो भी हो, अपने विधेयक को सरकारी समिति के सामने प्रस्तुत करने के बाद अब इन पाँचों की इस समिति में कोई भूमिका नहीं बचती। फिर ये बार-बार मीटिंग का नाटक क्यों किया जा रहा है? क्यों मीडिया का इस्तेमाल करके, मुद्दे से हटा जा रहा है? आखिर इनका एजेण्डा क्या है? हमारा सुझाव है कि अब इन पाँच लोगों को सरकारी मीटिंगों का सिलसिला यहीं खत्म कर देना चाहिए। अगर सरकार में इनका विश्वास है तो यह इनके विधेयक को गम्भीरता से लेगी और अगर विश्वास नहीं है तो ये लोग बैठक से कुछ नहीं कर सकते। अन्ना हज़ारे और उनकी टीम बार-बार सरकार के मंत्रियों की कड़ी शब्दों में भत्र्सना कर रही है। फिर क्यों बैठक में जाना चाहती है?

हाँ, इनके विधेयक के सम्बन्ध में कुछ सुझाव हैं जिनके बिना भ्रष्टाचार से लड़ाई में कामयाबी नहीं मिल सकती। मसलन (1) लोकपाल अगर भ्रष्ट आचरण करे तो उसके लिए इसी विधेयक में अनुकरणीय सख्त सजा का प्रावधान कर देना चाहिए। (2) सिविल सोसाइटी को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए। क्योंकि सिविल सोसाइटी के अधिकतम लोग विदेशी पैसे से और विदेशी नीतियों के अनुसार काम करते हैं। जो प्रायः हमारे देश के हित में नहीं होतीं। (3) संयुक्त राष्ट्र संगठन की इकाईयाँ, विश्व बैंक, विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और विदेशी बहुराष्ट्रीय बैंकों के भारत में कार्यकलापों को भी लोकपाल के दायरे में लाना अत्यंत आवश्यक है। नौकरशाही व राजनेताओं पर अनुचित दबाव डालकर ये संस्थाऐं हमारे देश में नीतिगत परिवर्तन करवाती हैं। जिसके कारण कई बड़े घोटालों में इनकीे गम्भीर भूमिका पायी गयी है।

उधर बाबा रामदेव बिना सबूत के कहते हैं कि चार सौ लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है। ऐसा दावा करने से पहले उसके सबूत जनता के सामने प्रस्तुत करने चाहिऐं। अगर वे इन तथ्यों को प्रकाशित नहीं करना चाहते तो कम से कम यह आश्वासन देश को जरूर दें कि इस दावे के समर्थन में उनके पास समस्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अन्यथा यह बयान गैर जिम्मेदाराना माना जाएगा और देश की आम जनता के लिए बहुत घातक होगा, जिसे वे सुनहरा सपना दिखा रहे हैं।

विदेशों में जमा धन देश में लाकर गरीबी दूर करने का बयान देकर बाबा रामदेव जो सपना दिखा रहे हैं, वैसा होने वाला नहीं है। पहली बात यह धन वे नहीं सरकार लायेगी, चाहें वह किसी भी दल की हो और उसे खर्च भी वही सरकार करेगी। तो बाबा कैसे उस पैसे से गरीबी दूर करने का दावा करते हैं? बाबा रामदेव कहते हैं कि विदेशों से यह धन लाकर देश में विकास कार्यों की रफ्तार तेज करेंगे। शायद वे जानते ही होंगे कि इस तरह के अंधाधुंध व जनविरोधी विकास कार्यों से ही ज्यादा भ्रष्टाचार पनपता रहा है। फिर वे देश की जमीनी हकीकत को अनदेखा क्यों करना चाहते हैं? वे गरीबी दूर करने की बात करते हैं और खुद का एजेण्डा तो योग व आयुर्वेद को भी व्यापार की तरह चलाने का है। फिर गाँव और गरीब को वे कैसे आत्मनिर्भर बनायेंगे? वे तो भारत की सनातन संस्कृति का ही निगमीकरण कर रहे हैं और धन का केन्द्रीयकरण कर रहे हैं। इससे गरीबी कैसे मिटेगी? उन्हें देश को समझाना चाहिए। जिससे कोई भ्रम न रहे।

रामदेव जी अनेक मुद्दों पर आपके अनेक बयान बिना गहरी समझ के, जाने-अनजाने देते रहे हैं जिससे जनता की भावनाऐं भड़की हैं। इससे आम जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। उन्हें इससे बचना चाहिए। रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ उसकी जितनी भत्र्सना की जाए कम है। पर जिस तरह बाबा रामदेव ने उस माहौल से बचकर भागने की नाकाम कोशिश की, उससे यह सिद्ध हो गया कि जनान्दोलन का उन्हें न तो कोई अनुभव है और न कोई तैयारी। हम इन्हीं लेखों के माध्यम से बाबा को गत् 2 वर्षों से चेतावनी देते आये हैं कि देश की राजनैतिक जटिलताओं को समझे बिना परिवर्तन की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। पर उन्होंने इस चेतावनी को गम्भीरता से नहीं लिया। ताजा घटनाक्रम इसका प्रमाण है।

हम अन्ना हजारे जी और बाबा रामदेव को एकसाथ मानते हैं और इसलिए उनको यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि आतंकवादी ताकतें, माओवादी ताकतें और साम्प्रदायिक ताकतें विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर इस देश में ‘सिविल वाॅर’ की जमीन तैयार कर चुकी हैं। जरा सी अराजकता से चिंगारी भड़क सकती है। इन ताकतों से जुड़े कुछ लोग इनके खेमों में भी चालाकी से घुस रहे हैं। इसलिए इनको भारी सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि इनकी असफलता जनता में हताशा और आक्रोश को भड़का दे और उसका फायदा ये देशद्रोही ताकतें उठा लें। इन परिणामों को ध्यान में रखकर ही अगर ये लोग अपनी रणनीति बनायें तो देश और समाज के लिए अच्छा रहेगा।