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Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, April 8, 2024

जल संकट के बढ़ते ख़तरे


बेंगलुरु में भीषण पेयजल संकट पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन रहा है। हाल ही में कर्नाटक के मुख्य मंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि बेंगलुरु को हर दिन 500 मिलियन लीटर पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है, जो शहर की दैनिक कुल मांग का लगभग पांचवां हिस्सा है। सीएम ने कहा कि बेंगलुरु के लिए अतिरिक्त आपूर्ति की व्यवस्था की जा रही है।


हालाँकि, पानी की कमी केवल बेंगलुरु तक ही सीमित नहीं है, और न ही यह केवल पीने के पानी की समस्या है। संपूर्ण कर्नाटक राज्य, साथ ही तेलंगाना और महाराष्ट्र के निकटवर्ती क्षेत्र भी पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। इसका अधिकांश संबंध पिछले एक वर्ष में इस क्षेत्र में सामान्य से कम वर्षा और इस क्षेत्र में भूमिगत जलभृतों की प्रकृति से है।

 


अरबों-खरबों रूपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। उसके बावजूद हालत ये है कि भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है।

 

दरअसल, ये सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीकि अपनाने के कारण हुआ है। वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे। हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है। जिसमें वर्षा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानि 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए कि आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है। जिसके अनेकों नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है। इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है। लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बनकर खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ इस बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेज़ी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था। आज सैकड़ों-हजारों फीट नीचे पानी चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रूपए का बिकेगा। क्योंकि रोका न गया, तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेज़ी से गिरता चला जाएगा।

 


आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि केंद्रीयकृत टंकियों से पाइपों के जरिये भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है। पर यह दावा अपने आपमें जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जबकि वर्षा का जल जब कुंडों, कुंओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो वह सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। साथ ही इन सबके भर जाने से भूजल स्तर ऊंचा बना रहता था। जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्चकोटि के पैदा होते थे। पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पाश्विक दोहन ने यह सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दी। पोखर और कुंड सूख गए, क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए है। वृक्ष काट दिए गए। जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक व रासायनिक कचरा व सीवर लाइन का गंदा पानी बिना रोकटोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है। जिससे ये नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जलसंकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा जल से भरा है। पर इसका 97.3 फीसदी जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसदी है। जिसमें से केवल 22.5 फीसदी जमीन पर है, शेष धु्रवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसदी खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानि दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसदी मीठे जल का भी केवल एक फीसदी हमारे लिए उपलब्ध है और उसका भी संचय और प्रबंधन अक्ल से न करके हम उसका भारी दोहन, दुरूपयोग कर रहे हैं और उसे प्रदूषित कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास मॉडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देखकर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी के संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।

Monday, April 1, 2024

मुख़्तार अंसारी की मौत से सबक़


माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सज़ा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख़्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफ़ियाओं को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का सामना करना पड़ा है। फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चली गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर उत्तर प्रदेश से एक एक करके सभी माफ़ियाओं का सफ़ाया करवा रही है या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक एक करके मौत के घाट उतार रहे हैं, तो ये अर्धसत्य होगा। क्योंकि आज देश का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें गुंडे, मवालियों, बलात्कारियों और माफ़ियाओं को संरक्षण न मिलता हो। फ़र्क़ इतना है कि जिसकी सत्ता होती है वो केवल विपक्षी दलों के माफ़ियाओं को ही निशाने पर रखता है अपने दल के अपराधियों की तरफ़ से आँख मूँद लेता है। ये सिलसिला पिछले पैंतीस बरसों से चला आ रहा है।



आज़ादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंदियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गईं। जब अपराधियों को ये समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औज़ार क्यों बनें? हम ख़ुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएँ? बस फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहु बल के ज़ोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे मवाली आज के राजनेता बन गये। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे। 



जब क़ानून बनाने वाले ख़ुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी क़ानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के ख़िलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधिकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएँ, बदलता कुछ भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर ये दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या कोई इस पर विश्वास करेगा? जबकि आए दिन महिलाएँ उत्तर प्रदेश में हिंसा और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं। पुलिस वाले होटल में घुस कर बेक़सूर व्यापारियों की हत्या कर रहे हैं और थानों में पीड़ितों की कोई सुनवाई नहीं होती। हाँ ये ज़रूर है कि सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं उन पर योगी सरकार में रोक ज़रूर लगी है। पर फिर भी अपराधों का ग्राफ़ कम नहीं हुआ। 



90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफ़सरों व न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है। बावजूद इसके आजतक किसी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई रचीं नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफ़ारिशें आजतक धूल खा रही हैं। 


ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। ये तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज़्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फ़ीसद ही लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सज़ा दी जाए। यह सब होने के बावजूद भी समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के  व्यक्ति को अपराध करना अनुचित नहीं लगता। उसके लिए यह सहज प्रक्रिया होती है। 


जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज़ लोगों को काल के मुँह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख़्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज़ लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ़्त में आ गये। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए। इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सज़ा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि   को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ़ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आँखें खुल गयीं और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गये। पुराणों और इतिहास के ये सभी उदाहरण उन अपराधियों के लिए हैं जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पी कर आए हैं और जो कर रहे हैं वो अपने परिवार की ख़ुशी के लिये ही कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही उनका और समाज का भला होगा।      

Monday, February 19, 2024

लोकतंत्र में जानने का अधिकार

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज़्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्ज़ी से चुने गये सांसद या विधायक उनकी आवाज़ उठाएँगे और उनके ही हक़ में सरकार चलाएँगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी। 

‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बाँड्स के ज़रिये दिये जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफ़ी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक़ में नीतियाँ बनवाने की रिश्वत है। विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिये गये राजनैतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी।  परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ की जानकारी को साझा न करने के निर्णय को ग़लत ठहराया और ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आनेवाले तीन हफ़्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दिये गये चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए। 


विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों द्वारा इस फ़ैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहाँ हम किसी भी एक विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पार्टियों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनैतिक दलों के प्रत्याशी लोक सभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नक़द राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनैतिक दल जिन्हें ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।



वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जाँच एजेंसियों द्वारा कोई करवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहाँ एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनैतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वो किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए। परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पार्टियों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनैतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है। 



जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, अब चूँकि चुनाव आयोग को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनैतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रक़म मिली है। इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुँचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फ़ोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बाँट दे। ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा। 

कुल मिलाकर ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फ़ैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फ़ैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफ़ी मददगार साबित होगा।         

Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, January 8, 2024

रियुमोटाइड आर्थराइटिस: इलाज संभव है?

सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। पिछले तीन वर्षों से फ़ेसबुक पर एक विज्ञापन चल रहा है जिसमें दावा किया जाता है कि, चर्चित पत्रकार विनीत नारायण के घुटनों के दर्द का सफल इलाज। विज्ञापन देने वाले ने मेरे घुटनों के दर्द की कहानी बता कर अपनी दवा और इलाज का प्रमोशन किया है। मैं कितना चर्चित हूँ या गुमनाम हूँ यह विषय नहीं है। पर इस हिन्दी विज्ञापन के कारण आए दिन हिन्दी भाषी राज्यों के मेरे परिचितों के फ़ोन मुझे आते रहते हैं जो यह जानना चाहते हैं कि क्या वाक़ई इस इलाज से मेरे घुटने ठीक हो गये? मेरा जवाब सुन कर उन्हें धक्का लगता है क्योंकि वे इस विज्ञापन पर यक़ीन कर बैठे थे और कुछ ने तो इलाज भी शुरू कर दिया था। मेरा उनको जवाब होता है कि मैं ख़ुद हैरान हूँ इस विज्ञापन से। क्योंकि मैंने ऐसी किसी व्यक्ति से अपना इलाज कभी नहीं कराया। ये नितांत झूठा विज्ञापन है। अगर मुझे उस व्यक्ति का पता मिल जाए तो मैं उसके विरुद्ध क़ानूनी करवाई अवश्य करूँगा। 


ये सही है कि पिछले तीन वर्षों से मुझे घुटनों में दर्द की शिकायत है। जो कभी बढ़ जाता है तो कभी ग़ायब हो जाता है। ऐसा दर्द शरीर के अन्य जोड़ो में भी कभी-कभी होता रहता है। यह दर्द घुटनों के कार्टिलेज के घिसने वाला दर्द नहीं है, जो प्रायः हमारी उम्र के लोगों को हो जाता है। इस बीमारी का नाम है ‘रियुमोटाइड आर्थराइटिस’ जिसे आयुर्वेद में आमवात रोग कहते हैं। यह एक क़िस्म का गठिया रोग है। ये क्यों, किसे और कब होता है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं हैं। पर चिंता की बात यह है कि ये काफ़ी लोगों को होने लगा है। यहाँ तक कि किशोरों में भी अब यह रोग काफ़ी पाया जाने लगा है। इसमें अक्सर जोड़ो में सूजन आ जाती है। जो दो दिन से लेकर दस दिन तक चलती है और भयंकर पीड़ा देती है। रात में यह दर्द और बढ़ जाता है। कभी-कभी सारी रात जाग कर काटनी पड़ती है। 


मरता क्या न करता। इस रोग के शिकार दर-दर भटकते हैं। अगर आप यूट्यूब पर जाएँ तो रियुमोटाइड आर्थराइटिस का इलाज बताने वाले दर्जनों शो मिल जाएँगे, जो प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी, आयुर्वेद और एलोपैथी में इसका अचूक इलाज होने का दावा करते हैं। 



ये लेख मैं अपनी राम कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा बल्कि अपना अनुभव साझा करने के लिए लिख रहा हूँ जिससे, जिन्हें ये रोग है उन्हें कुछ दिशा मिल सके। पारंपरिक रूप से मेरा एलोपैथी में विश्वास नहीं रहा है। हालाँकि हर बीमारी के एलोपैथी के उत्तर भारत के मशहूर डॉक्टरों से मेरे व्यक्तिगत संपर्क रहे हैं, फिर भी मैं उनसे इलाज कराने से बचता रहा हूँ। 


इसलिए तीन वर्ष पहले जब मुझे पहली बार इस रोग ने हमला किया तो मैं भाग कर वृंदावन के मशहूर होमियोपैथिक डॉक्टर प्रमोद कुमार सिंह को दिखाने हवाई जहाज़ से पूना गया। क्योंकि उन दिनों वे निजी कारणों से पूना में थे। उन्होंने एक घंटे मुझ से सवाल-जवाब किए और एक पुड़िया होम्योपैथी की मीठी गोलियों की दी। जिसको खाने के चौबीस घंटों में मेरी सारी सूजन और दर्द चला गया। मैंने बड़ी श्रद्धा और विश्वास से छह महीने उनसे इलाज करवाया। हाँ उनके बताए दो काम मैं नहीं कर सका। एक तो नियमित प्राणायाम करना और दूसरा एक घंटे रोज़ धूप में बैठना। 



इन छह महीनों में स्थिति काफ़ी नियंत्रण में रही। लेकिन फिर भी कभी-कभी जोड़ों की सूजन बढ़ जाती थी। तो मैंने आयुर्वेद का इलाज कराने का निश्चय किया। हालाँकि डॉ प्रमोद कुमार सिंह पर मेरा विश्वास आज भी क़ायम है और वो पिछले हफ़्ते ही मुझसे कह रहे थे कि अगर मैं एक डेढ़ साल लग कर उनका इलाज कर लूँ तो वे मुझे पूरी तरह से ठीक कर देंगे। 


आयुर्वेद का इलाज कराने मैं जयपुर जा पहुँचा। वहाँ आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य रहे डॉ महेश शर्मा ने मेरा इलाज शुरू किया। छह महीने तक मैंने उनकी सभी दवाएँ नियम से लीं। साथ ही उनके बताए परहेज़ भी काफ़ी निष्ठा से किए। जिसका मतलब था कि खाने में गेहूं, चावल, मैदा, चीनी और दूध के पदार्थों का निषेध और दालों में केवल मूँग और मसूर की दाल। ग़ज़ब का फ़ायदा हुआ। मैं इतना ठीक हो गया कि चाट-पकौड़ी और दही बड़े तक खाने लगा। जब डॉक्टर साहब को उनकी प्रशंसा में यह बताया तो उनका कहना था कि, आम वात रोग राख में दबी चिंगारी की तरह होता है, आप ज़रा सी लापरवाही करेंगे तो फिर बढ़ जाएगा। छह महीने बाद उन्होंने मुझे दवा देना बंद कर दिया यह कह कर कि मेरी तरफ़ से इलाज पूरा हुआ। उसके बाद मैं काफ़ी समय तक ठीक रहा। परंतु शाकाहारी होते हुए कई बार ख़ान-पान का अनुशासन तोड़ देता था। परिणाम वही हुआ जो उन्होंने कहा था। बीमारी फिर बढ़ गई। 



मेरे परिवेश में जितने भी लोग हैं वे मेरी मान्यताओं से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। उनका कहना है कि आज के युग में जब हवा-पानी, ख़ान-पान सब अशुद्ध हैं और खाद्य पदार्थों पर कीटनाशक दवाओं और रासायनिक उर्वरकों का भारी दुष्प्रभाव है तो होम्योपैथी, आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा के कड़े नियमों का पालन करना लगभग असंभव है। इन पद्धतियाँ में कोई कमी नहीं है। किंतु हमारी परिस्थिति, दिनचर्या और ख़ान-पान हमें इनके नियमों का पालन नहीं करने देते। इसलिए इनका पूरा व सही लाभ नहीं मिल पाता। इन सब मित्रों और परिवारजनों का आग्रह था कि मैं एलोपैथी डॉक्टर से इलाज करवाऊँ, तो मैंने दिल्ली के ‘इंडियन स्पाइनल इंजरिज़ अस्पताल’ के मशहूर डॉक्टर संजीव कपूर को दिखाया। जिन्हें मैं दो बरस पहले दिखा चुका था, पर इलाज नहीं किया था। ये उन्हें याद था। वे बोले, आप देश के प्रबुद्ध व्यक्ति हैं। आपके विचारों और लेखों का आमजन पर प्रभाव पड़ता है। फिर आप हमारी पद्धति पर शक क्यों करते हैं? हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ इलाज है और रियुमोटाइड आर्थराइटिस की हर अवस्था का हम इलाज कर सकते हैं। आप आश्वस्त रहिए हम आपका कष्ट दूर कर देंगे। अब मैंने उनका इलाज शुरू कर दिया है। उम्मीद है उनका दावा सही निकलेगा और मैं शेष जीवन इस कष्ट के बिना जी पाऊँगा जो मेरी भाग-दौड़ की सामाजिक ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है।   

Monday, January 1, 2024

ऑनलाइन शादी के ख़तरे


जब से सोशल मीडिया का नेटवर्क पूरी दुनिया में बढ़ा है तब से इसका प्रयोग करने वालों की संख्या भी करोड़ों में पहुँच गई है। इसका एक लाभ तो यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति से 24 घंटे संपर्क में रह सकता है। फिर वो चाहे आपसी चित्रों का आदान-प्रदान हो, टेलीफोन वार्ता हो या कई लोगों की मिलकर ऑनलाइन मीटिंग हो। इसका एक लाभ उन लोगों को भी हुआ है जो जीवन साथी की तलाश में रहते हैं। फिर वो चाहे पुरुष हों या महिलाएँ। हम सबकी जानकारी में ऐसे बहुत से लोग होंगे जिन्होंने इस माध्यम का लाभ उठा कर अपना जीवन साथी चुना है और सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहे हैं। पर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर एक पहलू यह है तो दूसरा पहलू ये भी है जहां सोशल मीडिया का दुरुपयोग करके बहुत सारे लोगों को धोखा मिला है और आर्थिक व मानसिक यातना भी झेलनी पड़ी है। 



भारत में किसी अविवाहित महिला का जीवन जीना आसान नहीं होता। उस पर समाज और परिवार का भारी दबाव रहता है कि वो समय रहते शादी करे। चूँकि आजकल शहरों की लड़कियाँ काफ़ी पढ़-लिख रही हैं और अच्छी आमदनी वाली नौकरियाँ भी कर रही हैं इसलिए प्रायः ऐसी महिलाएँ केवल माता-पिता के सुझाव को मान कर पुराने ढर्रे पर शादी नहीं करना चाहती। वे अपने कार्य क्षेत्र में या फिर सोशल मीडिया पर अपनी पसंद का जीवन साथी ढूँढती रहती हैं। इसके साथ ही ऐसी महिलाओं की संख्या कम नहीं है जो कम उम्र में तलाकशुदा हो गईं या विधवा हो गईं। इन महिलाओं के पास भी अपने गुज़ारे के लिए आर्थिक सुरक्षा तो ज़रूर होती है परन्तु भावनात्मक असुरक्षा के कारण इन्हें भी फिर से जीवन साथी की तलाश रहती है। इन दोनों ही क़िस्म की महिलाओं को दुनिया भर में बैठे ठग अक्सर मूर्ख बना कर मोटी रक़म ऐंठ लेते हैं। बिना शादी किए ही इनकी ज़िंदगी बर्बाद कर देते हैं। ऐसी ही कुछ सत्य घटनाओं पर आधारित बीबीसी की एक वेब सीरीज ‘वेडिंग.कॉन’ इसी हफ़्ते ओटीटी प्लेटफार्म आमेजन प्राइम पर जारी हुई है। यह सीरीज इतनी प्रभावशाली है कि इसे हर उस महिला को देखना चाहिए जो सोशल मीडिया पर जीवन साथी की तलाश में जुटी हैं। बॉलीवुड की मशहूर निर्माता-निर्देशक तनुजा चंद्रा ने बड़े अनुभवी और योग्य फ़िल्मकारों की मदद से इसे बनाया है। 



इस सिरीज़ में जिन महिलाओं के साथ हुए हादसे दिखाए गए हैं उनमें से एक विधवा महिला तो अपनी मेहनत की कमाई का लगभग डेढ़ करोड़ रुपया उस व्यक्ति पर लुटा बैठी जिसे उसने कभी देखा तक न था। इसी तरह एक दूसरी महिला ने पचास लाख रुपये गवाए तो तीसरी महिला ने बाईस लाख रुपये। चिंता की बात यह है कि ये सभी महिलाएँ खूब पढ़ी-लिखी, संपन्न परिवारों से और प्रोफेशनल नौकरियों में जमी हुई थीं। शादी की चाहत में सोशल मीडिया पर ये ऐसे लोगों के जाल में फँस गईं जिन्होंने अपनी असलियत छिपा कर शादी की वेब साइटों पर नक़ली प्रोफाइल बना रखे थे। ये ठग इस हुनर में इतने माहिर थे कि उनकी भाषा और बातचीत से इन महिलाओं को रत्ती भर भी शक नहीं हुआ। वे बिना मिले ही उनके जाल में फँसती गईं और उनकी भावुक कहानियाँ सुन कर अपने खून-पसीने की कमाई उनके खातों में ट्रांसफ़र करती चली गई। इन महिलाओं को कभी यह लगा ही नहीं कि सामने वाला व्यक्ति कोई बहरूपिया या ठग है और वो बनावटी प्यार जता कर इन्हें अपने जाल में फँसा रहा है। इनमें से दो व्यक्ति तो ऐसे निकले जो तीस से लेकर पचास महिलाओं को धोखा दे चुके थे। तब कहीं जा कर पुलिस उन्हें पकड़ पाई। 


आश्चर्य की बात यह है कि सभ्रांत परिवार की यह पढ़ी-लिखी महिलाएँ इस तरह ठगों के झाँसे में आ गईं कि पूरी तरह लुट जाने के पहले उन्होंने कभी अपने माता-पिता तक से इस विषय में सलाह नहीं ली और न ही उन्हें अपने आर्थिक लेन-देन के बारे में कभी कुछ बताया।


जब इन्हें यह अहसास हुआ कि वे किसी आधुनिक ठग के जाल में फँस चुकी हैं तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इस अप्रत्याशित परिस्थिति ने उन्हें ऐसा सदमा दिया कि कुछ तो अपने होशोहवास ही गँवा बैठी। उनके माता-पिता को जो आघात लगा वो तो बयान ही नहीं किया जा सकता। फिर भी इनमें से कुछ महिलाओं ने हिम्मत जुटाई और पुलिस में शिकायत लिखवाने का साहस दिखाया। फिर भी ये ज़्यादातर ठगों को पकड़वा नहीं सकीं। साइबर क्राइम से जुड़े पुलिस के बड़े अधिकारी और साइबर क्राइम के विशेषज्ञ वकील ये कहते हैं कि मौजूदा क़ानून और संसाधन ऐसे ठगों से निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। इनमें से भी जो ठग विदेशों में रहते हैं उन तक पहुँचना तो नामुमकिन है। क्योंकि ऐसे ठगों का प्रत्यर्पण करवाने के लिए भारत की दूसरे देशों से द्विपक्षीय प्रत्यर्पण संधि नहीं है। देसी ठगों को भी पकड़ना इतना आसान नहीं होता क्योंकि वह फ़र्ज़ी पहचान, फ़र्ज़ी आधार कार्ड, फ़र्ज़ी पैन कार्ड, फ़र्ज़ी टेलीफोन नंबर का प्रयोग करते हैं और अपने मक़सद को हासिल करने के बाद इन सबको नष्ट कर देते हैं। 

इस सिरीज़ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह करोड़ों भारतीय महिलाओं को बहुत गहराई से ये समझाने में सफल रही है कि शादी के मामले में सोशल मीडिया की सूचनाओं को और इसके माध्यम से संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को तब तक सही न माने जब तक उनकी और उनके परिवार की पृष्ठभूमि की किसी समानांतर प्रक्रिया से जाँच न करवा लें। कोई कितना भी प्रेम क्यों न प्रदर्शित करे, अपने वैभव का कितना भी प्रदर्शन क्यों न करे उसे एक पैसा भी शादी से पहले किसी क़ीमत पर न दें। शादी के बाद भी अपने धन और बैंक अकाउंट को अपने ही नियंत्रण में रखें, उसे नये रिश्ते के व्यक्ति के हाथों में न सौंप दें वरना जीवन भर पछताना पड़ेगा। जिन महिलाओं के पास ओटीटी प्लेटफार्म की सुविधा नहीं है अपने मित्रों या रिश्तेदारों के घर जा कर इस सिरीज़ को अवश्य देखें और अपने साथियों को इसके बारे में बताएँ। ताकि भविष्य में कोई महिला इन ठगों के जाल में न फँसे।  

Monday, December 11, 2023

ईवीएम पर रोने से क्या होगा?


यह सही है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की विधान सभाओं के चुनावों के नतीजे चौकने वाले आए हैं। क्योंकि इन दोनों राज्यों में पिछले कुछ महीनों से हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही थी। इसलिये सारा विपक्ष हैरान है और हतोत्साहित भी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता और कमल नाथ इन परिणामों के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और चुनाव आयोग को दोषी ठहरा रहे हैं। अपने सैंकड़ों आरोपों के समर्थन में इन नेताओं के कार्यकर्ता तमाम साक्ष्य जुटा चुके हैं। इसी चुनाव में मध्य प्रदेश में डाक से आये मत पत्रों में 171 विधानसभाओं में कांग्रेस जीत रही है यह सूचना चुनाव आयोग के रिकॉर्ड से पता चली है। फिर मध्य प्रदेश में कांग्रेस कैसे हार गई। जिस इलाके के सारे मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था वो भी ये देखकर हैरान हैं कि उनके इलाके से भाजपा को इतने वोट कैसे मिल गये। ऐसे तमाम प्रमाणों को लेकर मध्य प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ता अपना संघर्ष जारी रखेंगे। ये बात दूसरी है कि चुनाव आयोग उनकी बात पर गौर करेगा या नहीं। जबकि भाजपा इन नतीजों से न केवल अतिउत्साहित है बल्कि विपक्ष की हताशा को वो ‘खिसयानी बिल्ली खम्बा नौचे’ बता रही है।  


पहले बात ईवीएम की कर लें 



बीते कुछ चुनावों में, देश के अलग अलग प्रान्तों में, यह देखा गया है कि इलाक़े की जनता की भारी नाराज़गी के बावजूद वहाँ के मौजूदा विधायक या सांसद ने पिछले चुनावों के मुक़ाबले काफ़ी अधिक संख्या से जीत हासिल की। ऐसे में चुनावी मशीनरी पर सवाल खड़े होना ज़ाहिर सी बात है। जो भी नेता हारता है वो ईवीएम या चुनावी मशीनरी को दोषी ठहराता है।  



ऐसा नहीं है कि किसी एक दल के नेता ही ईवीएम की गड़बड़ी या उससे छेड़-छाड़ का आरोप लगाते आए हैं। इस बात के अनेकों उदाहरण हैं जहां हर प्रमुख दलों के नेताओं ने कई चुनावों के बाद ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। चुनाव आयोग की बात करें तो वो इन आरोपों का शुरू से ही खंडन कर रहा है। आयोग के अनुसार ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही नहीं है। 1998 में दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधान सभा की कुछ सीटों पर ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। परंतु 2004 के आम चुनावों में पहली बार हर संसदीय क्षेत्र में ईवीएम का पूरी तरह से इस्तेमाल हुआ। 2009 के चुनावी नतीजों के बाद इसमें गड़बड़ी का आरोप भाजपा द्वारा लगा। ग़ौरतलब है कि दुनिया के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ परंतु ख़ास बात यह है कि अधिकतर देशों ने इसमें गड़बड़ी कि शिकायत के बाद वापस बैलट पेपर के ज़रिये ही चुनाव किये जाने लगे। अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे विकसित देश जिनकी टेक्नोलॉजी बहुत एडवांस है और जिन देशों में मानव संसाधन की कमी है उन देशों ने भी ईवीएम को नकार दिया है। इन सब देशों में चुनाव मत पत्रों के द्वारा ही कराये जाते हैं।


विपक्षी दल क्या करें ?



किसी भी समस्या की शिकायत करने से उसका हल नहीं होता। शिकायत के साथ समाधान का सुझाव भी दिया जाए तो उस पर चुनाव आयोग को गौर करना चाहिए। इस विवाद को हल करने के दो ही तरीके हैं एक तो यह कि बांग्लादेश की तरह सभी विपक्षी दल एक जुट होकर ईवीएम का बहिष्कार करें और चुनाव आयोग को मत पत्रों से ही चुनाव कराये जाने के लिए बाध्य करें। दूसरा विकल्प यह है कि चुनाव आयोग ऐसी व्यवस्था करे कि ईवीएम से निकलने वाली VVPAT की एक पर्ची को मतदाता को दे दिया जाए और दूसरी पर्ची को उसी पोलिंग बूथ में रखी मत पेटी में डलवा दिया जाये। मतगणना के समय ईवीएम और मत पत्रों की गणना साथ-साथ हो। ऐसा करने से यह विवाद हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा। साथ ही भविष्य में कोई दल सत्तारूढ़ दल पर चुनावों में धांधली की शिकायत नहीं कर पायेगा।


जब भी कभी कोई प्रतियोगिता होती है तो उसका संचालन करने वाले शक के घेरे में न आएँ इसलिए उस प्रतियोगिता के हर कृत्य को सार्वजनिक रूप से किया जाता है। आयोजक इस बात पर ख़ास ध्यान देते हैं कि उन पर पक्षपात का आरोप न लगे। इसीलिए जब भी कभी आयोजकों को कोई सुझाव दिये जाते हैं तो यदि वे उन्हें सही लगें तो उसे स्वीकार लेते हैं। ऐसे में उन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगता। ठीक उसी तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र में होने वाली सबसे बड़ी प्रतियोगिता चुनाव हैं। उसके आयोजक यानी चुनाव आयोग को उन सभी सुझावों को खुले दिमाग़ से और निष्पक्षता से लेना चाहिए।  चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, इसे किसी भी दल या सरकार के प्रति पक्षपात होता दिखाई नहीं देना चाहिए। यदि चुनाव आयोग ऐसे सुझावों को जनहित में लेती है तो मतदाताओं के बीच भी एक सही संदेश जाएगा, कि चुनाव आयोग किसी भी दल के साथ पक्षपात नहीं करता। 


चुनाव लोकतंत्र की नींव होते हैं। किसी देश का भविष्य चुनाव में जीतने वाले दल के हाथ में होता है। चाहें उसे कुल मतदाताओं के एक तिहाई ही मत क्यों न मिले हों। पर उसकी नीतियों का असर सौ फीसदी मतदाताओं और उनके परिवारों पर पड़ता है। इसलिए चुनाव आयोग का हर काम निष्पक्ष और पारदर्शी होना चाहिए। हमारा संविधान भी चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष किये जाने के निर्देश देता है। 1990 से पहले देश के आम मतदाता को चुनाव आयोग जैसी किसी संस्था के अस्तित्व का पता नहीं था। उन वर्षों में धीरे-धीरे चुनावों के दौरान हिंसा, फर्जी मतदान और माफ़ियागिरी का प्रभाव तेजी से बढ़ गया था। उस समय मैंने अपनी कालचक्र विडियो मैगजीन में एक दमदार टीवी रिपोर्ट बनाई थी, ‘क्या भारत पर माफ़िया राज करेगा?’ पर 1990 में टी एन शेषन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त बनें तो उन्होंने कड़ा डंडा चलाकर चुनावों में भारी सुधार कर दिया था। तब उन्होंने सत्तापक्ष को भी कोई रियायत नहीं दी। पर चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में भारत का चुनाव आयोग लगातार विवादों में रहा है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को भी टी एन शेषन की जरुरत महसूस हुई। ऐसे में चुनाव आयोग को अपनी छवि सुधारकर संदेह से परे होना चाहिए।