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Monday, April 15, 2013

भूकम्प मुक्त शहरी विकास क्यों नहीं चाहती सरकार?

विज्ञान का जीवन से सीधा नाता है। यह जीवन को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। भारत में वैज्ञानिक समझ की हजारों वर्ष पुरानी परपंरा है। जिसे नरअंदाज करने के कारण हम बार-बार धोखा खा रहे हैं और पश्चिम की आयातित वैज्ञानिक सोच पर निर्भर रहकर अपना नुकसान कर रहे हैं। आज शहरी विकास हो, औद्योगिक विकास हो,बांधों का निर्माण हो या न्यूक्लियर रिएक्टर की स्थापना हो, बिना इस बात का ध्यान दिए की जा रही है कि उस क्षेत्र में भूकंप आने की संभावना कितनी प्रबल है घ् ऐसा नहीं है कि भूकंप आने की संभावना का पता न लगाया जा सके। देश में ही ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर भारत सरकार को एक दशक पहले ही इस समझ के बारे में प्रस्ताव दिया था। पर उनकी उपेक्षा कर दी गयी। नतीजा आज बार-बार भूकंपों में तबाही मच रही है। पर उससे बचने के ठोस और सार्थक उपायों पर आज भी सरकार की नजर नहीं है।

श्री सूर्यप्रकाश कूपर एक ऐसे ही वैज्ञानिक हैं, जिनकी खोज न केवल चैंकाने वाली होती है, बल्कि प्रकृति के रहस्यों को समझकर जीवन से जोड़ने वाली भी। पर सरकारी तंत्र का हिस्सा न बनने के कारण उनके सार्थक शोधपत्रों को भी वांछित तरजीह नहीं दी जाती। भूकंप के मामले में श्री कपूर का कहना है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया ने जो ‘सीजमिक जोन मैप ऑफ इण्डिया’ पिछले 15 सालों से जारी किया हुआ है और वही भूचाल के विषय में प्रमाणिक आधार माना जाता है, भारी दोषों से भरा है। उदाहरण के तौर पर इस नक्शे में भूचाल की संभावना वाले जो क्षेत्र इंगित किये गये हैं, वे कश्मीर, पंजाब और हिमाचल, उत्तर-पूर्वी राज्यों और उत्तरी गुजरात तक सीमित है। जबकि हमने इन क्षेत्रों के बाहर भी लाटूर, किल्लारी, कोइना, जबलपुर व भ्रदाचलम आदि में भूचालों की भयावहता को झेला है। सरकार की इस नासमझी का कारण यही नक्शा है, जो किसी ठोस सिद्धांत पर आधारित नहीं है। बल्कि तुक्के के आधार पर इसमें निष्कर्ष निकाले गये हैं। दूसरी तरफ भूचाल की सही संभावना जानने का एक ज्यादा प्रमाणिक मापदण्ड है। जिसका आधार है ‘ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू’। इस आधार पर जो नक्शा तैयार किया जाता है, वह भी ज्योलिजकल सर्वे ऑफ इण्डिया के द्वारा ही तैयार होता है। फिर भी इस जानकारी को भूचाल की प्रकृति समझने में प्रयोग नहीं किया जा रहा। जबकि इसकी भारी सार्थकता है।

‘ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू’ का आधार वह नई वैज्ञानिक खोज है, जिसमें दुनिया के वैज्ञानिकों ने यह माना है कि पृथ्वी के केन्द्र (नाभि) में आठ किमी व्यास का एक ‘न्यूक्लियर फिशन रिएक्टर’ लगातार चल रहा है। जिसमें से लगातार भारी मात्रा में गर्मी पृथ्वी की सतह पर आती है और वायुमण्डल में निकल जाती है। पृथ्वी सूर्य से जितनी गर्मी लेती है, उससे ज्यादा गर्मी वापस आकाश में फैंकती है। जहाँ इस ऊर्जा की तीव्रता अधिक है, वहाँ ही ज्वालामुखी फटते हैं। जिनकी संख्या दुनिया में 550 से ऊपर है। इनमें वो ज्वालामुखी शामिल नहीं है जो शांत हैं। इसके अलावा लगभग एक लाख गरम पानी के चश्मे भी इसी ऊर्जा के कारण पृथ्वी की सतह पर जगह-जगह सक्रिय हैं, जिनसे गरम पानी के अलावा गर्मी और भाप वायुमण्डल में जाती है। इस ‘ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू मैप (नक्शे)’ को अगर ध्यान से देखा जाये और पिछले तीन हजार साल के बड़े भूकंपों के भारत के इतिहास पर नजर डाली जाये तो यह साफ हो जायेगा कि जहाँ-जहाँ ‘हीट फ्लो वैल्यू’ 70 मिली वॉट प्रति वर्गमीटर से ज्यादा है, वहीं-वहीं भारी भूकंप आते रहे हैं। कितनी सीधी सी बात है कि जब हमारे पास हीट फ्लो का प्रमाणिक नक्शा मौजूद है, वह भी सरकार की एजेंसी द्वारा तैयार किया गया, फिर हम क्यों उन इलाकों में शहरी विकास, औद्योगिक विकास, बड़े बांध व नाभिकीय रिएक्टरों का निर्माण करते हैं? क्या हमारी सरकार को अपने देश के लोगों की जान और माल की चिंता नहीं? सामान्य जानकारी है कि भूचाल तब आते हैं जब पृथ्वी के अन्दर की यह गर्मी जमा होकर तीव्रता के साथ पृथ्वी की सतह को फाड़ती हुई बाहर निकलती है, ठीक उसी तरह जैसे प्रेशर कुकर में अगर सेफ्टी वॉल्व से भाप न निकाली जाये तो कुकर फट जाता है।

स्वतंत्र आविष्कारक श्री कपूर का कहना है कि अगर गरम पानी के इन चश्मों या कुण्डों पर एक उपकरण, जिसे ‘वाईनरी साइकिल पावर प्लाण्ट’ कहते हैं, लगा दिये जायें, तो यह संयत्र उस गरमी की ही बिजली बना देगा। उससे दो लाभ होंगे, एक तो यह ऊर्जा विनाशकारी होने की वजाय दस हजार छः सौ मेगावाट तक बिजली का उत्पादन कर देगी और दूसरा इसकी जमावट पृथ्वी के भीतर कभी उस सीमा तक नहीं हो पायेगी कि वह भूकंप का कारण बने। सोचने वाली बात यह है कि इतनी सरल सी जानकारी देश के कर्णधारों को रास नहीं आती। वे पश्चिमी देशों की तरफ समाधान की तलाश में भागते हैं और अपनी मेधा को सामने नहीं आने देते। ऐसा नहीं है कि श्री कपूर की बात को हल्के तरीके से लिया जाये। स्वंय तत्कालीन विज्ञान एवं तकनीकि मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने सुनामी के बाद श्री कपूर के संभाषण ‘सिस्मोलॉजी डिवीजन’ की कॉन्फ्रेंस में करवाया था। यानि देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने इनकी बात को सुना और सराहा, फिर क्यों उस पर अमल नहीं किया जाता?

Monday, October 3, 2011

जापान में नाभिकीय ऊर्जा को ‘सायोनारा’ ?

Punjab Kesari 03Oct 2011
जापान ने सुनामी की जो त्रासदी भोगी, उसका सबसे खतरनाक पहलू था, फूकुशिमा, दाई-ईची ‘न्यूक्लीयर पॉवर प्लांट’ का आपे से बाहर होना। इसकी गरमी से सुरक्षा कवच फट गए और नाभिकीय विकिरण ने दूर-दूर तक के इलाके खाली करवाने पर प्रशासन को मजबूर कर दिया। आज तक 86 हजार लोग बेघर शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं और उन्हें पता नहीं हैं कि वे अपने घर कभी लौट पाऐंगे भी कि नहीं। क्योंकि नाभिकीय विकिरण का असर अभी खत्म नहीं हुआ है। उधर ये पाॅवर प्लांट भी अभी तक पूरी तरह स्थिर नहीं हो पाया है। यानि खतरा बना हुआ है।

पिछले दिनों जापान ने 51 साल में पहली बार एक विशाल जन प्रदर्शन देखा। 60 हजार लोग नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। ये लोग नाभिकीय ऊर्जा का विरोध कर रहे थे। इनकी मांग थी कि इस ऊर्जा का प्रयोग यथाशीघ्र बन्द किया जाए। ताकि भविष्य में फिर नाभिकीय विकिरण का खतरा न झेलना पड़े। उल्लेखनीय है कि जापान ही दुनिया का वह अकेला देश है जिसने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अपने शहर हिरोशिमा व नागासाकी में परमाणु बम के भयावह असर को झेला था। इसलिए उसके नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर यह भी सही है कि 1960 से आज तक जापान में कोई जनप्रदर्शन नहीं हुआ। एक तो जापानी स्वभाव से ही शांतिप्रिय और मध्यमार्गीय हैं, दूसरे वे भारी देशभक्त और अपने कार्य के प्रति निष्ठावान हैं। इसलिए वे कभी हड़ताल या जनप्रदर्शन कर अपना समय और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाते। नाभिकीय ऊर्जा के विरूद्ध हुए इस प्रदर्शन में 60 हजार प्रदर्शनकारियों ने एक ही गन्तव्य पर जाने के लिए तीन मार्ग पकड़े। ताकि यातायात को असुविधा न हो। पूरा प्रदर्शन संगीतमय और बैनरों को लिए हुए था। कहीं तोड़-फोड़, गुण्डागर्दी या सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने की रिपोर्ट नहीं मिली। प्रदर्शन भी पूरे अनुशासन के साथ किया गया। इससे भारत के लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए।

ऐसा नहीं कि सारा जापान नाभिकीय ऊर्जा को फौरन तिलांजली देना चाहता है। ऐसे लोग बहुत कम हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर एकदम से नाभिकीय ऊर्जा संयत्र बन्द कर दिए जाऐं, तो जापान में बिजली का भारी संकट पैदा हो जाएगा। इसलिए वे क्रमशः इन संयत्रों को बन्द करने के पक्ष में हैं। इसका एक कारण यह भी है कि मित्सुबिसी, तोशिबा जैसी ऊर्जा उत्पादक कम्पनीयाँ लाखों लोगों को रोजगार देती हैं। अगर इन कम्पनियों के वि़द्युत उत्पादन संयत्र बन्द कर दिए गए तो भारी बेरोजगारी फैल जाएगी। इसलिए प्रदर्शनकारी परमाणु ऊर्जा के विरोध में होते हुए भी उसे एकदम नकारने के पक्षधर नहीं हैं। वे ये चाहते हैं कि सरकार तेजी से वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को विकसित करे। दरअसल 1960 के पहले जापान में जो वामपंथी ट्रेड यूनियन वगैरह थीं, वे सब आपसी झगड़ों और सरकारी दबाव में लगभग मृत प्रायः हो चुकी हैं और अब जो ट्रैड यूनियन हैं उनके सदस्य मूलतः इन्हीं विद्युत कम्पनियों के मुलाजिम हैं। इसलिए भी वे ज्यादा आक्रामक रवैया नहीं अपनाते। वैसे भी जापान के प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि सन् 2048 से पहले इन संयत्रों को बन्द करना संभव नहीं होगा।

पर इन सब घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि जापान जैसे विकसित देश की पढ़ी-लिखी और समझदार जनता नाभिकीय ऊर्जा के पक्ष में नहीं है। यह अनुभव भारत के लिए सबक सीखने का होना चाहिए। हाल ही में आये भूचाल ने जो तबाही सिक्किम राज्य में मचाई है, उसके बाद कई भू-गर्भ वैज्ञानिक उत्तर भारत में भारी भंूकम्प की संभावनाओं को लेकर काफी चिंतित हैं। उन्हें डर है कि उत्तर भारत की पोली मिट्टी, गगनचुंबी इमारतों को तो लील ही जाएगी, साथ ही नरौरा जैसे परमाणु संयत्र भी खतरे से अछूते नहीं रहेंगे। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण और जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य की चिंता करने वाले देश के सामाजिक कार्यकर्ता भारत सरकार की परमाणु नीति का लगातार विरोध करते आये हैं। उन्हें लगता है कि भारत सरकार, चाहें वह किसी भी दल की क्यों न हो, नाभिकीय ऊर्जा के मामले में देश का हित नहीं कर रही।

अमरीका से परमाणु ईधन संधि पर संसद में हुई बहस में वामपंथी दलों के अलावा भी बहुत से दलों ने सरकार का विरोध किया था। वामपंथी दलों ने तो सरकार का दामन ही छोड़ दिया। परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर सरकार अल्पमत में आ गई थी और उस पर आरोप है कि उसने अपनी गद्दी बचाने के लिए लम्बी-चैड़ी खरीद-फरोख्त की। जिसकी एक कड़ी अमर सिंह और दूसरी कड़ी सुधीन्द्र कुलकर्णी थे, जो फिलहाल तिहाड़ जेल में बन्द हैं। फिर भी सरकार के समान, इस मुद्दे पर विचार रखने वाले राजनैतिक दल गंभीरता से सोच नहीं रहे हैं। यह आत्मघाती स्थिति है।

Monday, March 21, 2011

होली के रंगों से या नाभकीय विकरणों से

Rajasthan Patrika 20 March11
अल्हड़पन और मस्ती का त्यौहार है होली। सादगी और पे्रमभरा। न रंग भेद, न जाति भेद और न ही धर्मभेद। होली ही क्यों, भारत के हर त्यौहार में जीवन को जीने का आनन्द है। चाहें पोंगल हो या बैशाखी, नवरात्रि हो या ईद, प्रेम से मिलना, एक-दूसरे के गले लग जाना, घर के बने स्वादिष्ट व्यंजनों का आदान-प्रदान करना और लोककलाओं व लोकसंस्कृति से भरपूर मेलों का आनन्द लेना। दरअसल यही था हमारा सम्पूर्ण जीवन चक्र। जिसमें खेती आधारित अर्थव्यवस्था, अध्यात्म आधारित मानसिकता और पर्यावरण आधारित जीवनशैली। पर आज यह सब हमसे तेजी से छीना जा रहा है, विकास के नाम पर। इसलिए इस वर्ष हम रंगों की नहीं नाभिकीय विकरणों की होली खेल रहे हैं। भारत में न सही, जापान में ही। पर सन्देशा हम सब के लिए भी है।
क्योंकि हमारे हुक्मरान विकास के मद में चूर हैं। अंधों की तरह हम पश्चिम के विकास माॅडल का अनुसरण कर रहे हैं। जिसका सबसे चमचमाता नमूना है, जापान और अमरीका। पिछले हफ्ते से जापान में प्रकृति के कहर का जो दिल दहला देने वाला टी.वी. कवरेज आ रहा है, उससे ज्यादा खतरनाक है नाभिकीय विस्फोटों से फैल रहे विकरणों का खौफनाक मंजर। जिसके चलते पूरे जापान से 3 लाख लोगों को घर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया गया है। पिद्दी से देश जापान के 55 लाख लोग कड़ाके की सर्दी में, बिना बिजली के, एक कम्बल में, एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध किये हुए रोते-चीखते एक-एक पल बिता रहे हैं। इनमें से ढेड़ लाख लोगों को तो किसी न किसी तरह के नाभिकीय विकरण ने अपनी चपेट में ले लिया है। टोक्यो की नाभिकीय बिजली कम्पनी ‘टोक्यो इलैक्ट्रिक पाॅवर कम्पनी’ ने भूचाल के भारी झटके झेलने के बाद आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी है। दुनियाभर के नाभिकीय वैज्ञानिक इस सदमें से उबर नहीं पा रहे हैं। सब कबूतर की तरह आॅंख बन्द करके यह बताने में जुटे हैं कि उनके देशों को इस खूनी होली से कोई खतरा नहीं।
भारत के प्रधानमंत्री ने भी संसद में घोषणा की कि हमारे नाभिकीय संयत्रों की सुरक्षा की समीक्षा की जा रही है। भावा परमाणु केन्द्र, मुम्बई देश की आर्थिक राजधानी के बीचों-बीच स्थित है। जिसके रिएक्टर समुद्र तट पर हैं। जापान का मंजर देखकर महाराष्ट् विधानसभा के सदस्य इतने आतंकित हो गये कि उन्होंने भावा परमाणु केन्द्र के अध्यक्ष को विधानसभा में बुलवाकर यह आश्वासन लिया कि मुम्बई ऐसे खतरे के प्रति तैयार है। प्रधानमंत्री हों या परमाणु केन्द्र के अध्यक्ष, इनके ये वक्तव्य ठीक ऐसे ही लगते हैं जैसे देश में किसी बड़ी आतंकवादी घटना के बाद घोषणा की जाती है कि देशभर में रेड अलर्ट जारी कर दिया गया है। चप्पे-चप्पे पर पुलिस की नजर है। हर संदिग्ध व्यक्ति को देखा-परखा जा रहा है। पर हम और आप जानते हैं कि बाकी देश की क्या चले, राजधानी दिल्ली तक में रेड अलर्ट का कोई मायना नहीं होता। इसलिए यह भ्रम पालना कि परमाणु रिएक्टरों और बड़े बांधों से हम सुरक्षित हैं, हमारी मूर्खता होगी। भूचाल और सुनामी कभी भी, कहीं भी आ सकती है और इसलिए तबाही का यह मंजर जापान तक सीमित नहीं रहेगा।
जापान ने तो फिर भी भूकम्परोधी तकनीकि को इतना विकसित कर लिया है कि 5.8 के रिएक्टर स्केल के स्तर पर झटके झेलने के बावजूद टोक्यो की गगनचुंबी इमारतें हिलकर रह गयीं, गिरी नहीं। पर घोटालों के विशेषज्ञ भारत में जहाँ लवासा से आदर्श सोसाईटी तक हर जगह निर्माण का मतलब है, नियमों को ताक पर रखना, वहाँ अगर ऐसे भूकम्प आ जायें तो रोज बनती एक से एक इन गगनचुंबी इमारतों की हालत क्या होगी, सोच कर बदन सिहर जाता है। पर हर दिन अखबार में आप विज्ञापन देखते हैं कि आपके अपने नगर की सबसे ऊँची इमारत में फ्लैट बुक कराईये।
महात्मा गाँधी से लेकर देश का हर पर्यावरणविद्, आम किसान और वनवासी, सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और गाहे-बगाहे देश का मीडिया हुक्मरानों की पर्यावरण के प्रति बढ़ती संवेदन शून्यता के खिलाफ आवाज उठाता रहता है। पर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती। मीडिया में एक कहावत है कि ‘हर मुद्दा ठण्डा पड़ जाता है’। हो सकता है, कुछ दिन बाद जापान की इस त्रासदी को हम वैसे ही भूल जायें जैसे गुजरात के भूकम्प या दक्षिण पूर्वी एशिया में आयी सुनामी को भूल गये और जिन्दगी यूं ही ढर्रे पर चलती रहे। पर यह न तो हमारे लिए अच्छा होगा और न ही हमारे आने वाली पीढ़ियों के लिए।
आज सूचना के बढ़ते तंत्र ने पूरी दुनिया को जोड़ दिया है। हम सबको इसका लाभ उठाना चाहिए। पूरी दुनिया से एकसाथ इस विनाशकारी विकास के विरूद्ध आवाज उठनी चाहिए। हम सबको अपने-अपने हुक्मरानों की व लाभ पिपासु बहुराष्ट्रिय कम्पनियों की पैशाचिक मानसिकता के विरूद्ध साझी लड़ायी लड़नी चाहिए। फिर हम चाहें हिन्दू हों, ईसाई हों, मुसलमान हों, कम्यूनिस्ट हों। आपसी भेदों को भूलकर जिन्दगी को उस ढर्रे की तरफ वापस लौटाने के लिए माहौल बनाना चाहिए जब ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का सिद्धांत सर्वमान्य था। तभी हमारी जिन्दगी में खुशियाँ, नाचगान, उत्सव-मेले लौट पायेंगे। तभी हम अबीर गुलाल से होली खेलने का मजा लूट पायेंगे। सम्पन्नता, विकास और मस्ती के नाम पर जो माॅडल हमें दिया जा रहा है, वह रावण की स्वर्णमयी लंका है, जिसका नाश अवश्यम्भावी है। अगर हम कछुए की मानिंद बैठे रहे तो फिर रंगों की नहीं नाभिकीय विकरणों की होली के लिए हमें हर समय तैयार रहना चाहिए।