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Monday, December 4, 2023

संतों को किससे भय लगता है?


पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत वृंदावन के सुप्रसिद्ध संत श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के दर्शन करने गए। आजकल देश भर के वीआईपी और विराट कोहली जैसी सेलिब्रिटी, जो भी वृंदावन आता है वो महाराज के दर्शन करने अवश्य जाता है। इनमें से ज़्यादातर लोग इसलिए जाते हैं क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षों में महाराज श्री सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया में बहुत तेज़ी से वायरल हुए हैं। बाक़ी लोग उनका आशीर्वाद लेने जाते हैं और थोड़े से जिज्ञासु लोग उनसे ज्ञान लेने जाते हैं। माना जा सकता है कि भागवत जी भी प्रथम श्रेणी के ही दर्शनार्थी थे, जो आशीर्वाद या आध्यात्मिक ज्ञान लेने नहीं बल्कि महाराज के करोड़ों प्रशंसकों के बीच वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराने गये थे।



‘संतन के ढिग रहत है सबके हित की बात’ की भावना को चरितार्थ करते हुए महाराज ने भागवत जी को एक लंबा प्रवचन दे डाला। जिसका मूल आशय यह था कि संघ और भाजपा सहित देश के सभी राजनैतिक दल रेवड़ियाँ बाँट कर भारत का ‘विकास’ करने का जो दावा कर रहे हैं उससे भारत कभी सुखी और संपन्न नहीं बन सकता। बल्कि मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल और सामाजिक रूप से विभाजित राष्ट्र बन रहा है, जो देश के भविष्य के लिये बहुत घातक है। महाराज का ज़ोर इस बात पर था कि धर्मांधता, उत्तेजना, आक्रामकता और हिंसा को बढ़ाने वाले दल समाज का भला नहीं कर सकते। यह प्रवचन बड़ी तेज़ी से दुनिया भर में वायरल हो चुका है। इसे सुन कर भागवत जी निरुत्तर हो गये। क्या यह आशा की जा सकती है कि संघ में इस विषय पर आत्मविश्लेषण व चिंतन किया जाएगा? क्योंकि स्वयं महाराज प्रायः यह कहते हैं कि उनके प्रवचन को सुनने से कोई लाभ नहीं, जब तक उसे आचरण में न लाया जाए।



प्रेमानंद महाराज जी देश के एक अति शक्तिशाली राजनेता से इतने कड़े शब्दों में ऐसा इसलिए कह सके  क्योंकि उनका हृदय निर्मल है और उन्होंने जीवन में कठोर तप किया है और उन्हें किसी भी सरकार से किसी लाभ, उपाधि या सहायता की कोई अपेक्षा नहीं है। अब ज़रा परिदृश्य को बदलिए और देखिए उन तथाकथित संतों की ओर जो अध्यात्म का चोला ओढ़ कर वैभव, सत्ता और ग्लैमर का सुख भोग रहे हैं। किसी एक का नाम लेने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि इनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे सभी आत्मघोषित सद्गुरुओं, महामंडलेश्वरों, शंक्राचार्यों और मठाधीशों की पूछ अचानक बढ़ गई है। धर्म के नाम पर अरबों रुपये की संपत्ति जमा कर लेने वाले ऐसे सभी ‘मीडियाजीवी संत’ आजकल भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा दी गई एक्स, वाई या जेड श्रेणी की पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इनकी सुरक्षा पर इस देश के मेहनतकश करदाताओं के टैक्स का अरबों रुपया हर साल खर्च हो रहा है। जबकि करदाताओं को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। हिरण्यकश्यप के वध के बाद उसके खून में सनी आंतड़ियों की माला पहने रौद्र रूप में सामने खड़े नरसिंह भगवान को शांत करने गये सुकुमार बालक प्रह्लाद जी ने कहा, ‘भगवन मुझे आपके इस भयानक रूप से डर नहीं लगता, पर अपनी वासनाओं से डर लगता है जो मेरी आध्यात्मिक राह में बाधक हैं।’ सुरक्षा के घेरे में चलने वाले इन संतों ने अपने प्रवचनों अनेक बार श्रीमद् भागवत के इस प्रसंग का उल्लेख किया होगा? पर क्या इससे मिले ज्ञान पर कभी मंथन भी किया? हमने तो विरक्त संतों से यही सुना है कि लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के पीछे भागने वाले कभी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते।    



आप पूछ सकते हैं कि जब दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों को सरकार की तरफ़ से इस तरह की सुरक्षा दी जाती है तो इन मशहूर संतों को सुरक्षा क्यों न दी जाए? दोनों परिस्थितियों में अंतर है। बाक़ी लोग अपने सत्कर्मों या कुकर्मों के कारण लगातार मौत के भय में जीते हैं इसलिए वे सरकार से सुरक्षा माँगते हैं। जबकि स्वयं को संत मानने वाले उस आध्यात्मिक मार्ग के पथिक हैं जिसमें, ‘चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥’ आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले को मौत का क्या भय? गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गये हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।’ फिर मौत से क्या डरना? 


अगर पाठकों को ये आत्मश्लाघा न लगे तो विनम्रता से यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि 1993-98 के बीच अलग-अलग जगहों पर मुझ पर कई बार जानलेवा हमले हुए। क्योंकि ‘जैन हवाला कांड’ को उजागर करके मैंने देश के सबसे ताकतवर लोगों और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों के विरुद्ध अकेले ही युद्ध छेड़ दिया था। पर प्रभु कृपा से मैं न तो डरा, न झुका और न बिका। उस दौर में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी एन शेषन और मैं देश भर में जनसभाओं को संबोधित करने जाते थे तो अक्सर मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता था कि ‘आप इतना ख़तरनाक युद्ध लड़ रहे हैं, आपको डर नहीं लगता?’ मेरा श्रोताओं को उत्तर होता था, ‘मारे कृष्णा राखे के, राखे कृष्णा मारे के’, श्री चैतन्य महाप्रभु के उक्त वचन से मुझे नैतिक बल मिलता था। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि बड़े-बड़े मंचों से धार्मिक प्रवचन करने वाले लोग कमांडो और पुलिस के घेरे में रह कर गर्व का अनुभव करते हैं। माया मोह त्यागने का उपदेश देने वालों की कथनी और करनी में इस भेद के कारण ही देश की आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पा रहा है। कुछ ऐसी ही बात प्रेमानंद जी महाराज ने डॉ मोहन भागवत जी से कही। 


पिछले चार दशकों में ये आम रिवाज हो गया है कि आपराधिक चरित्र के राजनेता, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, सरकारों द्वारा प्रदत्त पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इसका समय-समय पर समाज में विरोध भी हुआ और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएँ भी दायर हुई हैं। पर कोई सरकार इस कुरीति को रोकना नहीं चाहती क्योंकि उसे इन आपराधिक छवि के नेताओं का इस्तेमाल अपनी सत्ता बनाने और चलाने में करना होता है। हर दल के बड़े और मशहूर राजनेताओं को सरकार द्वारा सुरक्षा दिये जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि उनके जीवन पर हर समय ख़तरा रहता है। पर गुंडे मवालियों को सुरक्षा मिले या माया-मोह त्यागने का उपदेश देने वाले संतों को यह सुरक्षा मिले, तो यह बात गले नहीं उतरती। आपका क्या विचार है? 

Monday, October 3, 2022

अंग्रेजों के अत्याचारों पर ये खामोशी क्यों ?



पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों को लेकर दुनिया के तमाम देशों में चिंता काफ़ी बढ़ गई है। हर देश अपने तरीक़े से मुसलमानों की धर्मांधता से निपटने के तरीक़े अपना रहा है। खबरों के मुताबिक़ चीन इस मामले में बहुत आगे बढ़ गया है। वैसे भी साम्यवादी देश होने के कारण चीन की सरकार धर्म को हेय दृष्टि से देखती है। पर मुसलमानों के प्रति उसका रवैया कुछ ज़्यादा ही कड़ा और आक्रामक है। इसी तरह यूरोप के देश जैसे फ़्रांस, जर्मनी, हॉलैंड और इटली भी मुसलमानों के कट्टरपंथी रवैए के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपना रहे हैं। इधर भारत में मुसलमानों को लेकर कुछ ज़्यादा ही आक्रामक तेवर अपनाए जा रहे हैं। इस विषय पर मैंने पहले भी कई बार लिखा है। मैं अपने सनातन धर्म के प्रति आस्थावान हूँ। पर यह भी मानता हूँ कि धर्मांधता और कट्टरपंथी रवैया, चाहे किसी भी धर्म का हो, पूरे समाज के लिए घातक होता है। 


जहां तक भारत में हिंदू - मुसलमानों के आपसी रिश्तों की बात है, तो ये जानना बेहद ज़रूरी है कि हिंदू धर्म का और हमारे देश की अर्थ व्यवस्था का जितना नुक़सान 190 वर्षों के शासन काल में अंग्रेजों ने किया उसका पासंग भी 800 साल के शासन में मुसलमान शासकों ने नहीं किया। मुसलमान शासकों ने जो भी जुल्म ढाए हों, हमारे सनातनी संस्कारों को समाप्त नहीं कर पाए। जबकि अंग्रेजों ने मैकाले की शिक्षा प्रणाली थोप कर हर भारतीय के मन में सनातनी संस्कारों के प्रति इतनी हीन भावना भर दी कि हम आजतक उससे उबर नहीं पाए। मैं गत तीस वर्षों से देश-विदेश में धोती, कुर्ता, अंगवस्त्रम पहनता हूँ और वैष्णव तिलक भी धारण करता हूँ, तो अपने को हिन्दुवादी बताने वाले भी मुझे पौंगापंथी समझते हैं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुग़ल काल में गौ वध पर फाँसी तक की सज़ा थी, लेकिन अंग्रेजों ने भारत में गौ मांस के कारोबार को खूब बढ़ावा दिया और ग़ैर सवर्ण जातियों में सुअर के मांस को प्रोत्साहित किया। इससे अंग्रेज हुक्मरानों के उन दिनों मांस खाने के शौक़ को तो पूरा किया ही, बड़ी चालाकी से उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई भी पैदा कर दी।  



जहां तक मुसलमान शासकों के हिंदू और सिक्खों के प्रति हिंसक अत्याचारों का प्रश्न है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई जैसे हिंदू राजाओं के सेनापति मुसलमान ही थे, जो उनकी तरफ़ से मुग़लों और अंग्रेजों की फ़ौजों से लड़े। उधर अकबर, जहांगीर और औरंगज़ेब व दक्षिण में टीपू सुल्तान जैसे मुसलमान शासकों के सेनापति हिंदू थे, जो हिंदू राजाओं से लड़े। यानी मध्य युग के उस दौर में हिंदू-मुसलमानो के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता था। अगर आप यूट्यूब पर आजकल दिखाई जा रही 1947 के विभाजन की आप बीती कहानियाँ सुने तो आपको आश्चर्य होगा की भारत और पाकिस्तान के विभाजन पूर्व पंजाब में रहने वाले हिंदू और मुसलमानों के पारस्परिक रिश्ते कितने मधुर थे। ये खाई और घृणा अंग्रेजों ने अपनी ‘बाँटो और राज करो’ नीति के तहत जानबूझकर बड़ी कुटिलता से पैदा की। जिसकी परिणिति अंततः भारत के विभाजन से हुई। जिसका दंश दोनो देशों के लोग आजतक भोग रहे हैं। 


आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी लाख हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक ही बताएँ, पर आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता और इनकी आईटी सेल आजकल रात दिन हिंदुओं पर हुए मुसलमानों के अत्याचार गिनाते हैं। आश्चर्य है कि अंग्रेजों के हम भारतीयों पर दो सौ वर्षों तक लगातार हुए राक्षसी अत्याचारों और भारत की अकूत दौलत की जो लूट अंग्रेजों ने करके भारत को कंगाल कर दिया, उसका ये लोग कभी ज़िक्र तक नहीं करते, क्या आपने कभी सोचा ऐसा क्यों है?



आज हर उस व्यक्ति को जो स्वयं को देशभक्त मानता है इतिहासकार श्री सुन्दरलाल की शोधपूर्ण पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ अवश्य पढ़नी चाहिये, जिसे 1928 मार्च में प्रकाशित होने के चार दिन बाद ही अंग्रेज हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था और इसकी चार दिन में बिक चुकी 1700 प्रतियों को लोगों के घरों पर छापे डाल-डाल कर उनसे छीन लिया था। क्योंकि इस पुस्तक में अंग्रेजों के अत्याचारों की रोंगटे खड़े करने वाली हक़ीक़त बयान की गयी थी। जिसे पढ़कर हर हिंदुस्तानी का खून खौल जाता था। अंग्रेज सरकार ने पुस्तक के प्रकाशक, विक्रेताओं, ग्राहकों और डाकखानों पर ज़बरदस्त छापामारी कर इन पुस्तकों को छीनना शुरू कर दिया। देश के बड़े नेताओं ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई और लोगों से किसी भी क़ीमत पर ये किताब अंग्रेजों को न देने की अपील की। इस तरह अंग्रेज पूरी वसूली नहीं कर पाए। इस हिला देने वाली किताब की काफ़ी प्रतियाँ पाठकों के गुप्त पुस्तकालयों में सुरक्षित रख ली गईं। 



चूँकि मेरे नाना संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की विधान परिषद के उच्च अधिकारी थे, इसलिए उन्हें भी अपने अंग्रेज हुक्मरानों का डर था। उन्होंने यह किताब लखनऊ की अपनी कोठी के तहखाने में छिपा कर रखी थी। मेरी माँ और उनके भाई-बहन बारी-बारी से तहखाने में जाकर इसे पढ़ते थे। जितना पढ़ते उतनी उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और आक्रोश बढ़ता जाता था। ये बात बीसवीं सदी के चौथे दशक की है जब देश में कई जगह कांग्रेस ने सरकार चलाना स्वीकार कर लिया था। क्योंकि तब इस पुस्तक पर से प्रतिबंध हटा लिया गया था और इसे दोबारा प्रकाशित किया गया था। आज़ादी के बाद भारत सरकार के ‘नैशनल बुक ट्रस्ट’ ने इसे दो खंडों में पुनः प्रकाशित किया। तब से यह पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ बेहद लोकप्रिय है और इसकी हज़ारों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध है। इस पुस्तक को हर देश भक्त भारतीय को अवश्य पढ़ना चाहिए तभी सच्चाई का पता चलेगा वरना हम निहित स्वार्थों के प्रचार तंत्र के शिकार बन कर अपना विनाश स्वयं कर बैठेंगे। 


जहां तक बात मुसलमानों के कट्टरपंथी होने की है तो मेरा और मेरे जैसे लाखों भारतीयों का यह मानना है कि जिस तरह मुसलमानों में कुछ फ़ीसदी कट्टरपंथी हैं वैसे ही हिंदुओं में भी हैं। जिनका सनातन धर्मों के मूल्यों, वैदिक साहित्य और हिंदू जीवन पद्धति में कोई आस्था नहीं है। कई बार तो ये लोग धर्म की ध्वजा उठा कर सनातन धर्म का भारी नुक़सान भी कर देते हैं। जिसके अनेक उदाहरण हैं। इनसे हमें बचना होगा। दूसरी तरफ़ मुसलमानों को भी इंडोनेशिया जैसे देश के मुसलमानों से सीखना होगा कि भारत में कैसे रहा जाए? इंडोनेशिया के मुसलमान इस्लाम को मानते हुए भी अपने हिंदू इतिहास के प्रति उतना ही सम्मान रखते हैं। 

Monday, June 6, 2022

संघ को सोचना पड़ेगा



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा॰ मोहन भागवत जी के ताज़ा बयान का देश के धर्मनिरपेक्षवादियों, वामपंथियों, समाजवादियों व कांग्रेसियों द्वारा भरपूर स्वागत किया जा रहा है। उन्हें ख़ुशी है कि भागवत जी के इस बयान से देश में अमन चैन पैदा होगा। हिंसा रुकेगी और हिंदू मुसलमानों के बीच सौहार्द बढ़ेगा। इन विचारधाराओं के वो लोग जो कल तक सोशल मीडिया पर संघ और भाजपा के कट्टर हिंदुवाद को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, आज अचानक भागवत जी के बयान की खुलकर प्रशंसा कर रहे हैं। भागवत जी ने कहा कि अब संघ किसी मंदिर की मुक्ति के लिए आंदोलन नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि मस्जिदों के नीचे शिवलिंगों को खोजना बंद करें। हालांकि ज्ञानवापी मस्जिद व श्री कृष्ण जन्मस्थान मथुरा के विषय में उनके विचार भिन्न थे।



किंतु भागवत जी के इस बयान ने हिंदू जनमानस को विचलित कर दिया है। उनके इस बयान पर सोशल मीडिया में हिंदुओं की तीखी प्रतिक्रियाएँ भी आनी शुरू हो गई हैं। ‘सेव टेम्पल कैम्पेन’ नाम का संगठन, जो 40 हज़ार मस्जिदों से हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने की सूची लेकर बैठा है और लगातार उनके विषय में जानकारियाँ प्रकाशित करता रहता है, उसने तो इस बयान को हिंदुओं के साथ धोखा और अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम संगठनों के साथ करार बताया है। देश के हिंदू संत भी इस वक्तव्य से बहुत आहत हैं और इस विषय पर माननीय भागवत जी से गंभीर वार्ता करने की तैयारी कर रहे हैं। वृंदावन के सोहम आश्रम के विरक्त संत त्यागी बाबा का कहना है, भागवत जी के इस बयान से तो यह तय हो गया कि अब हिंदू राष्ट्र का हमारा स्वप्न अधूरा रह जाएगा और अब भारत कभी हिंदू राष्ट्र नहीं बन पाएगा। 


यहाँ यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि भागवत जी को अचानक संघ और भाजपा की धारा के विरुद्ध ये बयान क्यों देना पड़ा? पिछले 32 वर्षों से भाजपा, संघ और उसके अनुसांगिक संगठनों जैसे विहिप आदि ने देश भर में हिंदू राष्ट्र बनाने का एक सघन अभियान चलाया हुआ है। 1990 की विहिप की दिल्ली के बोट क्लब पर हुई उस विशाल रैली को याद करें जिसमें लगभग 10 लाख हिंदू दिन भर मंच से भाजपा व संघ के नेताओं का आह्वहन  सुनते रहे थे, हिंदू राष्ट्र बनाना हमको हिंदुस्तान हमारा। मशहूर सिने संगीतकार रविंद्र जैन का ये गाना, राम जी की सेना चली तो इतना प्रभावी हो गया कि लाखों हाथ अति उत्साह में त्रिशूल और भाले लेकर हवा में लहराने लगे। इसके बाद तो देश के हर गली मोहल्ले में संघ परिवार ने घर-घर जा कर हिंदू राष्ट्र बनाने की अलख जगानी शुरू कर दी। उनके ही इस प्रयास का ये परिणाम है कि आज भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व प्रधान मंत्री तीनों संघ परिवार से हैं। आज हिंदुओं का बहुसंख्यक हिस्सा ये तय कर चुका है कि अब भारत हिंदू राष्ट्र बन कर रहेगा। 


पिछले 8 वर्षों में देश में हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए जो सक्रियता संघ और भाजपा ने दिखाई उसका भारी असर पड़ा है। फिर वो चाहे गोरक्षा का मामला हो, मॉब लिंचिंग का मामला हो, मस्जिदों पर भगवा झंडे फहराने की कोशिशों का मामला हो, बॉलीवुड के मुसलमान सितारों की फ़िल्मों के बहिष्कार का मामला हो, तबलीकी जमात को भारत में कोरोना फैलने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का मामला हो, सदगुरु जग्गी वासुदेव का ‘सेव टेम्पल कैम्पेन’ के समर्थन में लगातार बयान देना हो, आर्यन खान को अंतरराष्ट्रीय ड्रग माफिया का सदस्य बता कर जेल में डालने का मामला हो, ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ जैसी फ़िल्म को संघ व भाजपा सरकार द्वारा प्रोत्साहित कर जनता के बीच लोकप्रिय बनाने में सक्रिय भूमिका निभाने का मामला हो या ज्ञानवापी मस्जिद व श्री कृष्ण जन्मभूमि के साथ ही देश भर की मस्जिदों व क़ुतुब मीनार जैसी इमारतों से हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने का मामला हो, इन सब मुद्दों ने हिंदू जनमानस को गहराई तक प्रभावित किया है। 


सबसे ज़्यादा असर तो हिंदुओं की युवा पीढ़ी पर पड़ा है। जिसके ज्ञान का स्रोत कुछ चुनिंदा टीवी चैनल और सोशल मीडिया है। रोज़गार के अभाव में ख़ाली बैठे ये युवा अब इतने उत्तेजित हो चुके है कि बात-बात पर हिंसक हो जाते हैं। कानपुर और बरेली के दंगे और पिछले वर्षों में इसी तरह के विषयों पर हुई हिंसक वारदातें इसका परिणाम हैं। देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को जैसे नारों ने आग में घी का काम किया है। सांप्रदायिक हिंसा के लिए पहले से बदनाम रहे मुसलमानों की भी युवा पीढ़ी इस माहौल में और ज़्यादा उत्तेजित और आक्रामक हुई है। आनेवाले समय में इस सब से देश की क़ानून व्यवस्था को बनाए रखना बहुत बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में सरकार चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। जिसका भरपूर लाभ विपक्षी दल आने वाले चुनावों में उठाएँगे। इसी ख़तरे को भाँप कर माननीय भागवत जी ने ये बयान दिया है। जिससे भाजपा की सरकारों को बचाया जा सके। 


पहले संघ और भाजपा के बीच सम्मानजनक दूरी रहती थी। संघ की घोषित नीति थी कि उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। वो केवल सामाजिक संगठन है। पर पिछले कुछ वर्षों में यह अंतर समाप्त हो गया है। अब भाजपा का संघ में विलय हो गया है। भाजपा वही करती है जो संघ चाहता है। इसलिए इस पूरे संघ व भाजपा परिवार के मुखिया होने के नाते माननीय भागवत जी को ये बयान देना पड़ा है। जिससे हालात बेक़ाबू होने से पहले संभल जाएं। पर भाजपा और संघ के शुभचिंतकों, हिंदू संतों और हिंदुओं के बहुसंख्यक हिस्से को इस बयान से भाजपा और संघ के अस्तित्व पर ख़तरा नज़र आ रहा है। इस वर्ग का मानना है कि जिस विचारधारा को लेकर संघ पिछले 100 वर्षों से चला, उसे ही इस तरह शिखर पर पहुँचने के बाद, नकार देने से संघ और भाजपा की सार्थकता क्या रह जाएगी? पिछले कुछ वर्षों में विकास के मुद्दों और सामाजिक सुरक्षा के सवालों को उठने से पहले ही संघ की इस विचारधारा ने हमेशा पीछे धकेला। हिंदू गर्व से कहता है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए वो महंगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को भी भूलने को तैयार है। ऐसे में भागवत जी का ये बयान तपते तवे  पर ठंडे पानी की बौछार जैसा है। यहाँ ये याद रखना असंगत न होगा कि पिछले दशकों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चलाने वाले प्रांतीय और राष्ट्रीय नेता जब सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार को नहीं रोक पाए और उसमें स्वयं भी लिप्त हो गए तो भ्रष्टाचार का मुद्दा ही समाप्त हो गया। इसी तरह इन परिस्थितियों में अब इस बात में कोई संदेह नहीं कि हिंदू राष्ट्र बनाने का मुद्दा भी समाप्त हो जाएगा। इस पर देश में हिंदुओं की क्या प्रतिक्रिया होती है और संघ परिवार उससे कैसे निपटता है, ये तो वक्त ही बताएगा। 

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है। 

Monday, July 8, 2019

संघ के स्वयंसेवकों से इतना परहेज क्यों?

पिछले दिनों विदेश में तैनात भारत के एक राजदूत से मोदी सरकार के अनुभवों पर बात हो रही थी। उनका कहना था कि मोदी सरकार से पहले विदेशों में सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि का आयोजन दूतावास के अधिकारी ही किया करते थे। लेकिन जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, तब से अप्रवासी भारतीयों के बीच सक्रिय संघ व भाजपा के कार्यकर्ता इन कार्यक्रमों के आयोजन में काफी हस्तक्षेप करते हैं और इन पर अपनी छाप दिखाना चाहते हैं। कभी-कभी उनका हस्तक्षेप असहनीय हो जाता है। सत्तारूढ़ दल आते-जाते रहते हैं। इसलिए दूतावास अपनी निष्पक्षता बनाए रखते हैं और जो भी कार्यक्रम आयोजित करते हैं, उनका स्वरूप राष्ट्रीय होता है, न कि दलीय।
इस विषय में क्या सही है और क्या गलत, इसका निर्णंय करने में भारत के नये विदेश मंत्री जयशंकर सबसे ज्यादा सक्षम हैं। क्योकि वे किसी राजनैतिक दल के न होकर, एक कैरियर डिप्लोमेट रहे हैं। कुछ ऐसी ही शिकायत देश के शिक्षा संस्थानों, अन्य संस्थाओं व प्रशासनिक ईकाईयों से भी सुनने में आ रही हैं। इन सबका कहना है कि संघ और भाजपा के कार्यकर्ता अचानक बहुत आक्रामक हो गए हैं और अनुचित हस्तक्षेप कर रहे हैं।
किसी भी शैक्षिक संस्थान, अन्य संस्थाओं या प्रशासनिक ईकाईयों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप गैर अधिकृत व्यक्तियों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। इसके दूरगामी परिणामी बहुत घातक होते हैं। क्योंकि ऐसे हस्तक्षेप के कारण उस संस्थान की कार्यक्षमता और गुणवत्ता नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।
पर प्रश्न है कि क्या ऐसा पहली बार हो रहा? क्या पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में केंद्र या राज्यों में सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं का इसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होता था? ये हमेशा होता आया है। सरकारी अतिथिगृहों, सरकारी गाड़ियों व विदेश यात्राओं का दुरूपयोग व सरकारी खर्च पर अपने प्रचार के लिए बड़े-बड़े आयोजन और भोज करना आम बात होती थी। यहां तक कि कई राजनैतिक दल तो ऐेसे हैं, जिनके विधायक, सांसद और कार्यकर्ता अपने क्षेत्र में पूरी दबंगाई करते रहे हैं। पर तब ऐसी आपत्ति किसी ने क्यों नहीं की? इसलिए कि कौन सत्तारूढ़ दल का बुरा बने और अपनी अच्छी पोस्टिंग खो दे? इसके लालच में वे सब कुछ सहते आऐ हैं।
आज जो लोग दखल दे रहे हैं, उनका गुंडई और दबंगई का इतिहास नहीं है, बल्कि हिंदू विचारधारा के प्रति समर्पण और संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। सदियों से दबी इन भावनाओं को सत्ता के माध्यम से समाज के आगे लाने की उनकी प्रबल इच्छा उन्हें ऐसा करने पर विवश कर रही है। लेकिन इसके पीछे उनका अध्ययन, आस्था, देशप्रेम व भारत की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने का मूलभाव है।
ये सही है कि उत्साह के अतिरेक में संघ और भाजपा के कार्यकर्ता कभी-कभी रूखा व्यवहार कर बैठते हैं। इस पर उन्हें ध्यान देना चाहिए। मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि संघ के कार्यकर्ताओं के त्याग, देश और धर्म के प्रति निष्ठा पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता। पर उनमें से कुछ में व्याप्त आत्मसंमोहन और अंहकार विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों को भी विचलित कर देता है। जिसका नुकसान वृह्द हिंदू समाज को सहना पड़ता है। उनके इस व्यवहार से संघ की विचारधारा के प्रति सहानुभूति न होकर एक उदासीनता की भावना पनपने लगती है।
भारत में करोड़ों लोग भारतमाता और सनातन धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं और अपना जीवन इनके लिए समर्पित कर देते हैं। पर वे जीवनभर किसी भी राजनैतिक दल या विचारधारा से नहीं जुड़ते। तो क्या उनका तिरस्कार किया जाए या उनके काम में हस्तक्षेप किया जाए अथवा उनके कार्य की प्रशंसा कर, उनका सहयोग कर, उनका दिल जीता जाए?
अभी कुछ समय पहले की बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत जी ने यह कहा था कि जो लोग भी, जिस रूप में, हिंदू संस्कृति के संरक्षण या उत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं, उनका संघ के हर स्वयंसेवक को सम्मान और सहयोग करना चाहिए।
मेरा स्वयं का अनुभव भी कुछ ऐसा ही है भारत माता, सनातन धर्म, गोवंश आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था और वैदिक संस्कृति में मेरी गहरी आस्था है और इन विषयों पर गत 35 वर्षों से मैं प्रिंट और टेलीवीजन पर अपने विचार पूरी ताकत के साथ बिना संकोच के रखता रहा हूं और शायद यही कारण है कि 20 वर्ष पहले ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ के मुख्यालय में बैठे हुए गुलाम नवी आजाद ने राजीव शुक्ला से एकबार पूछा कि ‘‘क्या विनीत नारायण संघी है?’’ राजीव ने उत्तर दिया कि ‘न वो संघी हैं, न कांग्रेसी हैं। वो सही मायने में निष्पक्ष पत्रकार हैं और जो उन्हें ठीक लगता है, उसका समर्थन करते हैं और जो गलत लगता है, उसका विरोध करते हैं।’ विचारने की बात है कि हिंदू धर्म के लिए समर्पित किसी व्यक्ति को  नीचा दिखाकर, अपमानित करके, उनके अच्छे कार्यों में हस्तक्षेप करके संघ और भाजपा के कार्यकर्ता हिंदू धर्म का अहित ही करेंगे। भगवान राधाकृष्ण की लीलाभूमि ब्रज क्षेत्र में गत 17 वर्षों से हिंदू सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण और सौंदर्यीकरण में जुटी ‘द ब्रज फाउंडेशन’ की टीम का गत 2 वर्षों का अनुभव बहुत दुखद रहा है। जब ईष्र्या और द्वेषवश इस टीम पर अनर्गल आरोप लगाये गये और उनके काम में बाधाऐं खड़ी की गई। जबकि इस स्वयंसेवी संस्था के कार्यों की प्रशंसा प्रधानमंत्री श्री मोदी से लेकर हर हिंदू संत और ब्रजवासी करता है। संघ व भाजपा नेतृत्व को इस पर विचार करना चाहिए कि ब्रज में ऐसा क्यों हो रहा है?

Monday, February 4, 2019

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारार्थ कुछ प्रश्न

पिछले हफ्ते ट्वीटर पर मैंने सरसंघचालक जी से एक खुले पत्र के माध्यम से विनम्रता से कहा कि मुझे लगता है कि संघ कभी-कभी हिन्दू धर्म की परंपराओं को तोड़कर अपने विचार आरोपित करता है।  जिससे हिंदुओं को पीड़ा होती है। जैसे हम ब्रजवासियों के 5000 वर्षों की परंपरा में वृन्दावन और मथुरा का भाव अलग था, उपासना अलग थी व दोनों की संस्कृति भिन्न थी। पर आपकी विचारधारा की उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों का एक नगर निगम बनाकर इस सदियों पुरानी भक्ति परम्परा को नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया ?
इसका उत्तर मिला कि संघ का सरकार से कोई लेना देना नहीं है। देश की राजनीति, पत्रकारिता या समाज से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति क्या यह मानेगा कि संघ का सरकार से कोई संबंध नहीं होता ? सच्चाई तो यह है कि जहां-जहां भाजपा की सरकार होती है, उसमें संघ का काफी हस्तक्षेप रहता है। फिर ये आवरण क्यों ? यदि भाजपा संघ की विचारधारा व संगठन से उपजी है तो उसकी सरकारों में हस्तक्षेप क्यों न हो ? होना ही चाहिए तभी हिन्दू हित की बात आगे बढ़ेगी।
मेरा दूसरा प्रश्न था कि हम सब हिन्दू वेदों, शास्त्रों या किसी सिद्ध संत को गुरु मानते हैं, ध्वज को गुरु मानने की आपके यहां ये परंपरा किस वैदिक स्रोत से ली गई है ? इसका उत्तर नागपुर से मुकुल जी ने संतुष्टिपूर्ण दिया। विभिन्न संप्रदायों के झगड़े में न पड़के संघ ने केसरिया ध्वज को धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की प्रेरणा देने के लिये प्रतीक रूप में गुरु माना है। वैसे भी ये हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानित रहा है।
मेरा तीसरा प्रश्न था कि हमारी संस्कृति में अभिवादन के दो ही तरीके हज़ारों वर्षों से प्रचलित हैं ; दोनों हाथ जोड़कर करबद्ध प्रणाम (नमस्ते) या धरती पर सीधे लेटकर दंडवत प्रणाम। तो संघ में सीधा हाथ आधा उठाकर, उसे मोड़कर,  फिर सिर को झटके से झुकाकर ध्वज प्रणाम करना किस वैदिक परंपरा से लिया गया है ? इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं मिला। हम जानते हैं कि अगर बहता न रहे तो रुका जल सड़ जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संघ ने दशाब्दियों बाद नेकर की जगह हाल ही में पेंट अपना ली है। तो प्रणाम भी हिन्दू संस्कृति के अनुकूल ही अपना लेना चाहिए। भारत ही नहीं जापान जैसे जिन देशों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति का प्रभाव हैं वहां भी नमस्ते ही अभिवादन का तरीका है। माननीय भागवत जी को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि अभी जो ध्वज प्रणाम की पद्ति है, वो किसी के गले नहीं उतरती। क्योंकि इसका कोई तर्क नहीं है। जब हम बचपन मे शाखा में जाते थे तब भी हमें ये अटपटा लगता था।
मेरा चौथा प्रश्न था कि वैदिक परंपरा में दो ही वस्त्र पहनना बताया गया है ; शरीर के निचले भाग को ढकने के लिए 'अधोवस्त्र' व ऊपरी भाग को ढकने के लिए 'अंग वस्त्र' । तो ये खाकी नेकर/पेंट, सफेद कमीज़ और काली टोपी किस हिन्दू परंपरा से ली गई है ? आप प्राचीन व मध्युगीन ही नहीं आधुनिक भारत का इतिहास भी देखिए तो पाएंगे कि अपनी पारंपरिक पोशाक धोती व बगलबंदी पहन कर योद्धाओं ने बड़े-बड़े युद्ध लड़े और जीते थे। तो संघ क्यों नहीं ऐसी पोषक अपनाता जो पूर्णतःभारतीय लगे। मौजूदा पोषक का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
सोशल मीडिया पर वायरल हुए मेरे इन प्रश्नों के जवाब में मुझे आसाम से 'विराट हिन्दू संगठन' के एक महासचिव ने ट्वीटर पर जान से मारने की खुली धमकी दे डाली। ये अजीब बात है। दूसरे धर्मों में प्रश्न पूछने पर ऐसा होता आया है। पर भारत के वैदिक धर्म ग्रंथों में प्रश्न पूछने और शास्तार्थ करने को सदैव ही प्रोत्साहित किया गया है। मैं नहीं समझता कि माननीय डॉ मोहन भागवत जी को मेरे इन प्रश्नों से कोई आपत्ति हुई होगी ? क्योंकि वे एक सुलझे हुए, गम्भीर और विनम्र व्यक्ति हैं। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि मुझ जैसे कट्टर सनातनधर्मी की भी विनम्र जिज्ञासा पर उनके कार्यकर्ताओं को इतना क्रोध क्यों आ जाता है ? भारत का समाज अगर इतना असहिष्णु होता तो भारतीय संस्कृति आज तक जीवित नहीं रहती। भारत वो देश है जहां झरनों का ही नहीं नालो का जल भी मां गंगा में गिरकर गंगाजल बन जाता है। विचार कहीं से भी आएं उन्हें जांचने-परखने की क्षमता और उदारता हम भारतीयों में हमेशा से रही है।
संघ के कार्यकर्ताओं का इतिहास, सादगी, त्याग और सेवा का रहा है। पर सत्ता के संपर्क में आने से आज उसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। ये चिंतनीय है। अगर संघ को अपनी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखना है, तो उसे इस प्रदूषण से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना होगा। मुझे विश्वास है कि डॉ साहब मेरे इन बालसुलभ किंतु गंभीर प्रश्नों पर विचार अवश्य करेंगे। वंदे मातरम।

Monday, January 8, 2018

शिक्षा में क्रांतिः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्रन्तिकारी पहल

भगवान श्रीकृष्ण के गुरू संदीपनि मुनि के गुरूकुल की छत्रछाया में आगामी 28 अप्रैल से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ उज्जैन से विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक क्रांति का शंखनाद् करने जा रहा है। मैकाले की ‘गुलाम बनाने वाली शिक्षा’ ने गत 200 वर्षों से भारत को इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि हम उससे आज तक मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के बोर्ड शिक्षा व्यवस्था में कोई नवीनता लाने को तैयार नहीं है। सब लकीर के फकीर बने हैं। पिछले 70 साल में हर शिक्षाविद् ने ये बात दोहराई कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली के कारण हमारी युवा पीढ़ी परजीवी बन रही है। उसमें जोखिम उठाने, हाथ से काम करने, उत्पादक व्यवसाय खड़ा करने, अपने शरीर और परिवेश को स्वस्थ रखने व अपने अतीत पर गर्व करने के संस्कार नहीं हैं। उस अतीत पर, जिसने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था। वे आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त होकर, सरकार की बाबूगिरी को जीवन का लक्ष्य मानते हैं। ये बात दूसरी है कि सरकारी नौकरियाँ नगण्य है और आवेदकों की संख्या करोड़ों में। इससे युवाओं में हताशा, कुंठा, हीन भावना और हिंसा पनप रही हैं।
संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों का लंबे समय से यह मानना रहा है कि जब तक भारत की शिक्षा व्यवस्था भारतीय परिवेश और मानदंडों के अनुकूल नहीं होगी, तब तक माँ भारती अपना खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त नहीं कर पायेंगी। इसके लिए एक समानान्तर शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने की आवश्यक्ता है। जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, उत्पादक, संस्कारवान व प्रखर प्रज्ञा के युवाओं को तैयार करे।
इस दिशा में अहमदाबाद के उत्तम भाई ने अभूतपूर्व कार्य किया है। हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला, साबरमती में विशुद्ध गुरूकुल शिक्षा प्रणाली से शिक्षण और विद्यार्थियों का पालन पोषण कर उत्तम भाई ने विश्व स्तर की योग्यता वाले मेधावी छात्रों को तैयार किया है। जिसके विषय में इस कालम में गत वर्षों में मैं दो लेख पहले लिख चुका हूं। जिन्हें पढ़कर, देशभर से अनेक शिक्षाशास्त्री और अभिाभावक साबरमती पहुंचते रहे हैं।
उज्जैन के सम्मेलन में इस गुरूकुल के प्रभावशाली अनुभवों और उपलब्धियों के अलावा देश के अन्य हिस्सों में चल रहे, ऐसे ही दूसरे गुरूकुलों के साझे अनुभव से प्रेरणा लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पूरे देश में लाखों गुरूकुलों की स्थापना की तैयारी कर रहा है। जिसका एक अलग शिक्षा बोर्ड सरकारी स्तर पर भी बने, ऐसा लक्ष्य रखा गया है। जिससे इस गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था के घालमेल की संभावना न रहे। इस अनुष्ठान में वेद विज्ञान गुरूकुलम् (बंगलुरू), प्रबोधिनी गुरूकुलम्, हरिहरपुर (कर्नाटक), मैत्रेयी गुरूकुलम् (मंगलुरू), सिद्धगिरि ज्ञानपीठ (महाराष्ट्र), आदिनाथ संस्कार विद्यापीठ (चेन्नई), श्री वीर लोकशाह संस्कृत ज्ञानपीठ गुरूकुल (जोधपुर), महर्षियाज्ञवल्क्यज्ञानपीठ (गुजरात) व नेपाल के 6 गुरूकुल भी भाग ले रहे हैं। उज्जैन में इस सागर मंथन के बाद, जो अमृत कलश निकलेगा, वह पुनः स्थापित होने जा रही, भारत की गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का आधार बनेगा।
अनादिकाल से भारतीय शिक्षा पद्धति नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी व विक्रमशिला जैसे गुरूकुलों के कारण विश्वविख्यात रही हैं। जहां सहस्त्रों छात्र और सैकड़ों आचार्य एक साथ रहकर, अध्ययन व शिक्षण करते थे। वैदिक सनातन परंपरा के साथ ही बौद्ध और जैन मतों के गुरूकुलों का भी प्रचलन रहा। 1823 तक देश के प्रत्येक ग्राम में बड़ी संख्या में पाठशालाऐं होती थीं, जिनमें सभी वर्गों के लोगों को जीवनोपयी शिक्षा दी जाती थी। आवासीय व्यवस्था व समग्र शिक्षा से मजे हुए युवा तैयार होते थे। जो जीवन के हर क्षेत्र में अपना श्रेष्ठ योगदान करते थे।
बाद में लार्ड मैकाले ने यह अनुभव किया कि भारत की इस सशक्त शिक्षा व्यवस्था को नष्ट किये बिना भारतीयों को गुलाम नहीं बनाया जा सकता। इसलिए उसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था हम पर थोपी, जिसने हमें हर तरह से अंग्रेज़ियत का गुलाम बना दिया और हम आज तक उस गुलामी से मुक्त नहीं हुए।
'भारतीय शिक्षण मंडल' शिक्षा के भारतीय प्रारूप को पुनर्स्थापित करने का कार्य कर रहा है। जिससे एक बार फिर भारत के गांवों में ही नहीं, नगरों में भी, गुरूकुल शिक्षा पद्धति स्थापित हो जाऐ। जिससे बालकों का सर्वांगीर्णं विकास हो। उज्जैन में होने जा रहे गुरूकुल शिक्षा के इस कुंभ में देशभर से शिक्षाविद् और आचार्यगण भाग लेंगे। अगर इस मंथन में गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था के प्रारूप पर आम सहमति बनती है, तो भारतीय शिक्षण मंडल इस प्रस्ताव को माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के पास लेकर जायेगा और उनसे गुरूकुल शिक्षा का एक अलग निदेशालय या बोर्ड गठित करने को कहेगा।
चूंकि मैंने स्वयं कई बार साबरमती में हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला की गतिविधियों को वहां रहकर निकट से देखा है और उसके छात्रों के प्रदर्शन को भी देखा है, इसलिए मुझे इस सम्मेलन से बहुत आशा है। काश इसमें सहमति बने, जो शायद वहां सरसंघाचलक डा. मोहन भागवत जी की उपस्थिति और सदिच्छा  के कारण संभव होगी। इससे भारत की किशोर आबादी को बहुत लाभ होने वाला है। क्योंकि आज शिक्षा का इतना व्यवसायीकरण हो गया है कि अब शिक्षा संस्थानों में छात्रों का भविष्य नहीं बनता बल्कि उनका वर्तमान भी उनसे छीन लिया जाता है। बिरले ही हैं, जो अपनी मेधा और पुरूषार्थ से आगे बढ़ पाते हैं। जो शिक्षा संस्थान आज भी देश में अच्छी शिक्षा देने का दावा करते हैं, उनके  छात्र भी भौतिक दृष्टि से भले ही सफल हो जाऐं, पर उनके व्यक्तित्व का विकास समग्रता में नहीं होता।