Showing posts with label NDA. Show all posts
Showing posts with label NDA. Show all posts

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, February 19, 2024

लोकतंत्र में जानने का अधिकार

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज़्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्ज़ी से चुने गये सांसद या विधायक उनकी आवाज़ उठाएँगे और उनके ही हक़ में सरकार चलाएँगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी। 

‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बाँड्स के ज़रिये दिये जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफ़ी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक़ में नीतियाँ बनवाने की रिश्वत है। विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिये गये राजनैतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी।  परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ की जानकारी को साझा न करने के निर्णय को ग़लत ठहराया और ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आनेवाले तीन हफ़्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दिये गये चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए। 


विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों द्वारा इस फ़ैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहाँ हम किसी भी एक विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पार्टियों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनैतिक दलों के प्रत्याशी लोक सभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नक़द राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनैतिक दल जिन्हें ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।



वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जाँच एजेंसियों द्वारा कोई करवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहाँ एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनैतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वो किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए। परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पार्टियों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनैतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है। 



जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, अब चूँकि चुनाव आयोग को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनैतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रक़म मिली है। इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुँचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फ़ोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बाँट दे। ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा। 

कुल मिलाकर ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फ़ैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फ़ैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफ़ी मददगार साबित होगा।         

Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, January 22, 2024

कैसे सार्थक हो श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा?


हर राष्ट्र के इतिहास में कोई पल ऐसा आता है जो मील का पत्थर बन जाता है। आज पूरी दुनिया के सनातन धर्मी हिंदुओं के जीवन में वो क्षण आया है जब जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मस्थली व राजधानी अयोध्या जी पूरे वैभव के साथ विश्व के मानचित्र पर सदियों बाद पुनः प्रगट हुई है। इसलिए देश और विदेश में रहने वाले हिंदुओं के मन उल्लास से भरे हैं।यह सही है कि श्रीराम जन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद को हटाने में सदियों से हज़ारों लोगों ने बलिदान दिया और सैंकड़ों ने इस आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर पूरे अयोध्या नगर को जो भव्य रूप आज मिला है वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पनाशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 



इसलिए मोदी जी की आलोचना करने वालों की बात का भाजपा समर्थक हिंदू समाज पर वैसा असर नहीं पड़ रहा जैसी उनकी अपेक्षा रही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जिन मुद्दों को विपक्ष के नेता उठा रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण हैं। निःसंदेह देश के युवाओं के लिए बेरोज़गारी विकराल रूप धारण करके खड़ी हुई है। दस बरस पहले मोदी जी ने हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वायदा किया था। यानी अब तक बीस करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाना चाहिए था। जबकि आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। ऐसे ही अन्य मुद्दे भी हैं जिनको लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि मंदिर निर्माण पूरा हुए बिना ही इतना भव्य उद्घाटन करने का उद्देश्य केवल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इसलिए विपक्ष के नेता इसे राजनैतिक कार्यक्रम मान रहे हैं और इसलिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के न्योते पर 22 तारीख़ को अयोध्या नहीं गये। उनका कहना है कि भगवान श्री राम के दर्शन करने वे अपनी श्रद्धा अनुसार भविष्य में अवश्य जाएँगे। 



विपक्ष का यह आरोप सही है कि आज का कार्यक्रम लोकसभा के चुनाव की दृष्टि से आयोजित किया गया है। पर इसमें अनहोनी बात क्या है? लोकतंत्र में हर राजनेता जो कुछ करता है वो वोटों पर नज़र रख कर ही करता है। कांग्रेस के शासन काल में भी ऐसे अनेक बड़े आयोजन हुए या फ़ैसले लिये गये जिनकी उस समय यही उपयोगिता थी कि उनसे कांग्रेस को वोट जुटाने में मदद मिले। अभी पिछले ही हफ़्ते हिंदुओं के चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी  में जगन्नाथ जी के मंदिर के नये बने भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन बीजू जनता दल के नेता और उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने किया। निःसंदेह उनका यह प्रयास दुनिया भर के सनातन धर्मियों, विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को आह्लादित करने वाला है। पर परोक्ष रूप से उद्देश्य तो इसका भी उड़ीसा का चुनाव जीतना है, जो इस वर्ष के अंत में होने वाला है।



इस तरह की राजनैतिक टीका-टिप्पणियाँ तो हर दल अपने विरोधियों पर हमेशा करता ही आया है। भाजपा ने भी विपक्ष में रह कर हमेशा यही किया जो आज विपक्ष भाजपा के विरोध में कर रहा है। इसलिए इस राजनैतिक बहसबाजी में न पड़ कर आज हम अपना मंथन अयोध्या के धार्मिक पक्ष पर ही केंद्रित रखना चाहेंगे। क्योंकि आज हम सब ‘राममय’ भाव में आकंठ डूबे हुए हैं। अयोध्या का यह विकास भारत के सनातन धर्मियों की आस्था के साथ ही हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। पर उत्साह के अतिरेक में हमें अपनी भावनाओं को ग़लत दिशा में जाने से रोकना होगा। अन्यथा हमारी बयानबाज़ी और ट्विटरबाज़ी सनातन धर्म के लिए आत्मघाती होगी। जिस तरह ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के प्रभाव में आकर अशोभनीय तरीक़े से सनातन धर्म के आधारस्तम्भ परम श्रद्धेय शंकराचार्यों पर तथ्यहीन और छिछली टिप्पणियाँ की जा रही हैं, उनके घातक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। 


अयोध्या मामले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में लगातार पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील डॉ पी एन मिश्रा ने एक न्यूज़ चैनल को दिये साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि श्री राम जन्मभूमि के पक्ष में जो अदालत के निर्णय आए उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका द्वारिका पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की रही। उन्हीं के द्वारा दिये गये प्रमाणों को न्यायाधीशों ने अकाट्य माना और इसलिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के नाम का उल्लेख अपने लिखित आदेश में भी किया। डॉ मिश्रा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी के तर्कों को अदालत ने प्रामाणिक न मानते हुए ख़ारिज कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत से जो आदेश मिला उसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पर विडंबना देखिए कि सड़क छाप लोग श्रद्धेय शंकराचार्यों से पूछ रहे हैं कि उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? दूसरी तरफ़ श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी को इस तरह महिमा मंडित किया जा रहा है, मानो कि अदालत का फ़ैसला उन्हीं के कारण मिला हो। 


कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति या क़ानून का जानकार अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पढ़ कर तथ्य जान सकता है। इसलिए चाहे शंकराचार्यों की बात हो या रामभद्राचार्य जी जैसे अन्य संतों की बात हो, हमें अपने संतों प्रति ऐसी छिछली टिप्पणी करने से बचना चाहिए। यथासंभव सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई असहमति का बिंदु हो तो उसे मर्यादा में रहकर ही निवेदन करना चाहिए।


निःसंदेह मोदी जी के प्रयासों से आज भारत में हिंदू नव-जागरण हुआ है। जिसका प्रमाण है तीर्थों बढ़ती श्रद्धालुओं की अपार भीड़। पर इसके साथ ही सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों का अनेक मामलों में हनन भी हो रहा है। जिससे आस्थावान सनातन धर्मीं और शंकराचार्य जैसे निष्ठावान संत व्यथित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘गुरु, सचिव और वैद्य शासक को प्रसन्न करने के लिए यदि झूठ बोलते हैं तो वे उसका अहित ही करते हैं।’ आदरणीय शंकराचार्यों द्वारा आज की जा रही कुछ टिप्पणियों को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। वैसे भी बिना किसी संगठन के, बिना राजनैतिक कार्यकर्ताओं की फ़ौज के और बिना मीडिया के प्रोपेगंडा के 500 वर्ष पहले भगवान श्रीराम को भारत के हर घर में पहुँचाने का काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिख कर किया था। इसलिए भी भाजपा व संघ के नेतृत्व को गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए और भारत की सनातन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी आलोचना को उदारता से स्वीकार करना चाहिए और जहां उनकी कमी हो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। तभी सार्थक होगी भगवान श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा। फ़िलहाल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव पर सबको बधाई।    

Monday, December 11, 2023

ईवीएम पर रोने से क्या होगा?


यह सही है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की विधान सभाओं के चुनावों के नतीजे चौकने वाले आए हैं। क्योंकि इन दोनों राज्यों में पिछले कुछ महीनों से हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही थी। इसलिये सारा विपक्ष हैरान है और हतोत्साहित भी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता और कमल नाथ इन परिणामों के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और चुनाव आयोग को दोषी ठहरा रहे हैं। अपने सैंकड़ों आरोपों के समर्थन में इन नेताओं के कार्यकर्ता तमाम साक्ष्य जुटा चुके हैं। इसी चुनाव में मध्य प्रदेश में डाक से आये मत पत्रों में 171 विधानसभाओं में कांग्रेस जीत रही है यह सूचना चुनाव आयोग के रिकॉर्ड से पता चली है। फिर मध्य प्रदेश में कांग्रेस कैसे हार गई। जिस इलाके के सारे मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था वो भी ये देखकर हैरान हैं कि उनके इलाके से भाजपा को इतने वोट कैसे मिल गये। ऐसे तमाम प्रमाणों को लेकर मध्य प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ता अपना संघर्ष जारी रखेंगे। ये बात दूसरी है कि चुनाव आयोग उनकी बात पर गौर करेगा या नहीं। जबकि भाजपा इन नतीजों से न केवल अतिउत्साहित है बल्कि विपक्ष की हताशा को वो ‘खिसयानी बिल्ली खम्बा नौचे’ बता रही है।  


पहले बात ईवीएम की कर लें 



बीते कुछ चुनावों में, देश के अलग अलग प्रान्तों में, यह देखा गया है कि इलाक़े की जनता की भारी नाराज़गी के बावजूद वहाँ के मौजूदा विधायक या सांसद ने पिछले चुनावों के मुक़ाबले काफ़ी अधिक संख्या से जीत हासिल की। ऐसे में चुनावी मशीनरी पर सवाल खड़े होना ज़ाहिर सी बात है। जो भी नेता हारता है वो ईवीएम या चुनावी मशीनरी को दोषी ठहराता है।  



ऐसा नहीं है कि किसी एक दल के नेता ही ईवीएम की गड़बड़ी या उससे छेड़-छाड़ का आरोप लगाते आए हैं। इस बात के अनेकों उदाहरण हैं जहां हर प्रमुख दलों के नेताओं ने कई चुनावों के बाद ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। चुनाव आयोग की बात करें तो वो इन आरोपों का शुरू से ही खंडन कर रहा है। आयोग के अनुसार ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही नहीं है। 1998 में दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधान सभा की कुछ सीटों पर ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। परंतु 2004 के आम चुनावों में पहली बार हर संसदीय क्षेत्र में ईवीएम का पूरी तरह से इस्तेमाल हुआ। 2009 के चुनावी नतीजों के बाद इसमें गड़बड़ी का आरोप भाजपा द्वारा लगा। ग़ौरतलब है कि दुनिया के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ परंतु ख़ास बात यह है कि अधिकतर देशों ने इसमें गड़बड़ी कि शिकायत के बाद वापस बैलट पेपर के ज़रिये ही चुनाव किये जाने लगे। अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे विकसित देश जिनकी टेक्नोलॉजी बहुत एडवांस है और जिन देशों में मानव संसाधन की कमी है उन देशों ने भी ईवीएम को नकार दिया है। इन सब देशों में चुनाव मत पत्रों के द्वारा ही कराये जाते हैं।


विपक्षी दल क्या करें ?



किसी भी समस्या की शिकायत करने से उसका हल नहीं होता। शिकायत के साथ समाधान का सुझाव भी दिया जाए तो उस पर चुनाव आयोग को गौर करना चाहिए। इस विवाद को हल करने के दो ही तरीके हैं एक तो यह कि बांग्लादेश की तरह सभी विपक्षी दल एक जुट होकर ईवीएम का बहिष्कार करें और चुनाव आयोग को मत पत्रों से ही चुनाव कराये जाने के लिए बाध्य करें। दूसरा विकल्प यह है कि चुनाव आयोग ऐसी व्यवस्था करे कि ईवीएम से निकलने वाली VVPAT की एक पर्ची को मतदाता को दे दिया जाए और दूसरी पर्ची को उसी पोलिंग बूथ में रखी मत पेटी में डलवा दिया जाये। मतगणना के समय ईवीएम और मत पत्रों की गणना साथ-साथ हो। ऐसा करने से यह विवाद हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा। साथ ही भविष्य में कोई दल सत्तारूढ़ दल पर चुनावों में धांधली की शिकायत नहीं कर पायेगा।


जब भी कभी कोई प्रतियोगिता होती है तो उसका संचालन करने वाले शक के घेरे में न आएँ इसलिए उस प्रतियोगिता के हर कृत्य को सार्वजनिक रूप से किया जाता है। आयोजक इस बात पर ख़ास ध्यान देते हैं कि उन पर पक्षपात का आरोप न लगे। इसीलिए जब भी कभी आयोजकों को कोई सुझाव दिये जाते हैं तो यदि वे उन्हें सही लगें तो उसे स्वीकार लेते हैं। ऐसे में उन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगता। ठीक उसी तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र में होने वाली सबसे बड़ी प्रतियोगिता चुनाव हैं। उसके आयोजक यानी चुनाव आयोग को उन सभी सुझावों को खुले दिमाग़ से और निष्पक्षता से लेना चाहिए।  चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, इसे किसी भी दल या सरकार के प्रति पक्षपात होता दिखाई नहीं देना चाहिए। यदि चुनाव आयोग ऐसे सुझावों को जनहित में लेती है तो मतदाताओं के बीच भी एक सही संदेश जाएगा, कि चुनाव आयोग किसी भी दल के साथ पक्षपात नहीं करता। 


चुनाव लोकतंत्र की नींव होते हैं। किसी देश का भविष्य चुनाव में जीतने वाले दल के हाथ में होता है। चाहें उसे कुल मतदाताओं के एक तिहाई ही मत क्यों न मिले हों। पर उसकी नीतियों का असर सौ फीसदी मतदाताओं और उनके परिवारों पर पड़ता है। इसलिए चुनाव आयोग का हर काम निष्पक्ष और पारदर्शी होना चाहिए। हमारा संविधान भी चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष किये जाने के निर्देश देता है। 1990 से पहले देश के आम मतदाता को चुनाव आयोग जैसी किसी संस्था के अस्तित्व का पता नहीं था। उन वर्षों में धीरे-धीरे चुनावों के दौरान हिंसा, फर्जी मतदान और माफ़ियागिरी का प्रभाव तेजी से बढ़ गया था। उस समय मैंने अपनी कालचक्र विडियो मैगजीन में एक दमदार टीवी रिपोर्ट बनाई थी, ‘क्या भारत पर माफ़िया राज करेगा?’ पर 1990 में टी एन शेषन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त बनें तो उन्होंने कड़ा डंडा चलाकर चुनावों में भारी सुधार कर दिया था। तब उन्होंने सत्तापक्ष को भी कोई रियायत नहीं दी। पर चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में भारत का चुनाव आयोग लगातार विवादों में रहा है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को भी टी एन शेषन की जरुरत महसूस हुई। ऐसे में चुनाव आयोग को अपनी छवि सुधारकर संदेह से परे होना चाहिए। 

Monday, October 2, 2023

आयाराम-गयाराम की बेला

लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनैतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। तीस बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है। पर पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लग रहा था कि शायद दो ध्रुवीय राजनीति शक्ल ले लेगी। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है। मगर विपक्षी दलों ने जिस तरह भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर लड़ना तय किया है उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।



उधर भाजपा का अपने सहयोगी दलों को रोक कर रखना मुश्किल होता जा रहा है। चंद्रबाबु नायडू के बाद एडीएमके का एनडीए से अलग होना बताता है कि एनडीए ख़ेमे में सब कुछ ठीक नहीं है। अब देखना होगा कि बीजेपी क्या रणनीति तय करती है। जिस तरह भाजपा अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को आगामी विधान सभा चुनावों में उतार रही है उसकी चिंता साफ़ नज़र आ रही है। इस बात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि आखिर इसकी ज़रूरत क्यों आन पड़ी? 


भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी जी के पक्ष में जानता खड़ी है और माहौल इतना ज़बरदस्त है तो भाजपा ऐसे कदम क्यों रही है? क्या वोटर अपने स्थानीय नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या स्थानीय नेता स्थानीय मुद्दों को सही से सुलझा नहीं पा रहे? क्या वे अपने शासन काल में जानता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाये? 



लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी घटना है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता। पिछले कुछ महीनों के विधान सभाओं के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा ने जिस कदर बड़े से बड़े स्टार नेताओं और प्रचारकों की फ़ौज लगाई थी, राज्यों के चुनावों में उसके मुताबिक़ नतीजे नहीं आए। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने यह सवाल उठाया जा रहा है कि वे पूर्ण बहुमत का आंकड़ा लाएगी कहाँ से? अगर भाजपा के स्थानीय नेताओं को राज्यों के आगामी चुनावों में टिकट भी नहीं मिल रहा है तो क्या वे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भाजपा के लिए प्रचार करेंगे  या वो भी राजनैतिक ख़ेमा बदल सकते हैं? 


विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना आसान नहीं है। जो-जो दल भाजपा के समर्थन में 2014 में जुड़े थे उनमें से कई दल अब भाजपा से अलग हो चुके हैं। ऐसे में यदि विपक्षी दल एकजुट हो कर भाजपा और उनके सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ एक-एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो जो ग़ैर भाजपाई वोट बंट जाते थे वो सभी मिल-जुल कर भाजपा के ख़िलाफ़ मुश्किल ज़रूर खड़ी कर सकते हैं। 



ऐसे में भाजपा को गठबंधन के लिए अपनी कोशिशें जारी रखना स्वाभाविक होगा। यह बात अलग है कि पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी क़ायम है। पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। इसलिये ऐसा माहौल बनाये रखना उनकी चुनावी मजबूरी है। 


सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं। बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चलता आया है। मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उस माहौल को हवा दी है। लेकिन इन छोटे-छोटे दलों का एनडीए गठबंधन से अलग होना उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाएगा। कितना ? इसका अंदाज़ा आनेवाले पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों से भी लग जाएगा।  भाजपा को घेरने वाले हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी। वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी। इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते हैं कि आज की परिस्थिति में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे? इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम तीसरी बार सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे। यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्थितियों के हिसाब से बताई जाती है। लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे-छोटे दल भाजपा की ओर पहले ही चले आएँ। अब स्थिति यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है। उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं।


कुल मिलाकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के भाजपा या विपक्षी गठबंधन से ध्रुविकरण की शुरुआत हो चुकी है। एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी। बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं। ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ। उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है। जब तक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता। इसीलिए आने वाले समय में भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना फ़िलहाल नहीं दिखती।


वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश ये ही स्थिति है। विभिन्न विपक्षी दलों ने बीजेपी से भिड़ने को अपना हिसाब भेजने का मन बना लिया है। लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया धीमी पड़ सकती है। खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है। आने वाले हफ़्तों में चुनावी रंग और ज़ोर से जमेगा। 

Monday, September 25, 2023

महिलाओं को पचास फ़ीसदी आरक्षण मिले


तैंतीस फ़ीसदी ही क्यों, पचास फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए होना चाहिए। इस पचास फ़ीसदी में से दलित और वंचित समाज की महिलाओं का कोटा भी आरक्षित होना चाहिए। आज़ादी के 75 वर्ष बाद देश की आधी आबादी को विधायिका में एक तिहाई आरक्षण का क़ानून पास करके पक्ष और विपक्ष भले ही अपनी पीठ थपथपा लें पर ये कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। जब महिलाएँ देश की आधी आबादी हैं तो उन्हें उनके अनुपात से भी कम आरक्षण देने का औचित्य क्या है? 


क्या महिलाएँ परिवार, समाज और देश के हित में सोचने, समझने, निर्णय लेने और कार्य करने में पुरुषों से कम सक्षम हैं? देखा जाए तो वे पुरुषों से ज़्यादा सक्षम हैं और हर कार्य क्षेत्र में नित्य अपनी सफलता के झंडे गाढ़ रहीं हैं। यहाँ तक कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान की पायलट तक महिलाएँ बन चुकी हैं। दुनिया की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीईओ तक भारतीय महिलाएँ हैं। अनेक देशों में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री पदों पर महिलाएँ चुनी जा चुकी हैं और सफलता पूर्वक कार्य करती रहीं हैं। अगर ज़मीनी स्तर पर देखा जाए तो उस मजदूरिन का ध्यान कीजिए जो नौ महीने तक गर्भ में बालक को रखे हुए भवन निर्माण के काम में कठिन मज़दूरी करती हैं और उसके बाद सुबह-शाम अपने परिवार के भरण पोषण का ज़िम्मा भी उठाती हैं। अक्सर इतना ही काम करने वाले पुरुष मज़दूर मज़दूरी करने के बाद या तो पलंग तोड़ते हैं या दारू पी कर घर में तांडव करते हैं।



हमारे देश की राष्ट्रपति, जिस जनजातीय समाज से आती हैं वहाँ की महिलाएँ घर और खेती के दूसरे सब काम करने के अलावा ईंधन के लिए लकड़ी बीन कर भी लाती हैं। जब हर कार्य क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से आगे हैं तो उन्हें आबादी में उनके अनुपात के मुताबिक़ प्रतिनिधित्व देने में हमारे पुरुष प्रधान समाज को इतना संकोच क्यों है ? जो अधिकार उन्हें दिये जाने की घोषणा संसद के विशेष अधिवेशन में दी गई वो भी अभी 5-6 वर्षों तक लागू नहीं होगी। तो उन्हें मिला ही क्या कोरे आश्वासन के सिवाय। 


इस संदर्भ में कुछ अन्य ख़ास बातों पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। आज के दौर में ग्राम प्रधान व नगर पालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए व महानगरों के मेयर पद के लिये जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं उनका क्या हश्र हो रहा है, ये भी देखने व समझने की बात है। देश के हिन्दी भाषी प्रांतों में एक नया नाम प्रचलित हुआ है, ‘प्रधान पति’। मतलब यह कि महिलाओं के लिए आरक्षित इन सीटों पर चुनाव जितवाने के बाद उनके पति ही उनके दायित्वों का निर्वाह करते हैं। ऐसी सब महिलाएँ प्रायः अपने पति की ‘रबड़ स्टाम्प’ बन कर रह जाती हैं। अतः आवश्यक है कि हर शहर के एक स्कूल और एक कॉलेज में नेतृत्व प्रशिक्षण का कोर्स चलाया जाए। जिनमें दाख़िला लेने वाली महिलाओं को इन भूमिकाओं के लिए प्रशिक्षित किया जाए, जिससे भविष्य में उन्हें अपने पतियों पर निर्भर न रहना पड़े। 



इसके साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालयों से ये निर्देश भी जारी हों कि ऐसी सभी चुनी गई महिलाओं के पति या परिवार का कोई अन्य पुरुष सदस्य अगर उनका प्रतिनिधत्व करते हुए पाए जाएँगे तो इसे दंडनीय अपराध माना जाएगा। उस क्षेत्र का कोई भी जागरूक नागरिक उसकी इस हरकत की शिकायत कर सकेगा। आज तो होता यह है कि ज़िला स्तर की बैठक हो या प्रदेश स्तर की या चुनी हुई इन प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण का शिविर हो, हर जगह पत्नी के बॉडीगार्ड बन कर पति मौजूद रहते हैं। यहाँ तक की चुनाव के दौरान और जीतने के बाद भी इन महिला प्रतिनिधियों के होर्डिंगों पर इनके चित्र के साथ इनके पति का चित्र भी प्रमुखता से प्रचारित किया जाता है। इस पर भी चुनाव आयोग को प्रतिबंध लगाना चाहिए। कोई भी होर्डिंग ऐसा न लगे जिसमें ‘प्रधान पति’ का नाम या चित्र हो। 


हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी बातों पर हमेशा से ज़ोर दिया गया है कि घर की महिला जब भी घर की चौखट से पाँव बाहर रखेगी तो उसके साथ घर का कोई न कोई पुरुष अवश्य होगा। इन्हीं रूढ़िवादी सोचों के चलते महिलाओं को घर की चार दिवारी में ही सिमट कर रहना पड़ा। परंतु जैसे सोच बदलने लगी तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिये जाने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं। आज महिलाएँ पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर चल रहीं हैं। इसलिए महिलाओं को पुरुषों से कम नहीं समझना चाहिए। इस विधेयक को लाकर सरकार ने अच्छी  पहल की है किंतु इसके बावजूद महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलने में वर्षों की देरी के कारण ही विपक्ष आज सरकार को घेर रहा है। 



वैसे हम इस भ्रम में भी न रहें कि सभी महिलाएँ पाक-साफ़ या दूध की धुली होती हैं और बुराई केवल पुरुषों में होती है। पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग प्रांतों में निचले अधिकारियों से लेकर आईएएस और आईपीएस स्तर तक की भी महिला अधिकारी बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाई गई हैं। इसलिए ये मान लेना कि महिला आरक्षण देने के बाद सब कुछ रातों रात सुधर जाएगा, हमारी नासमझी होगी। जैसी बुराई पुरुष समाज में है वैसी बुराइयों महिला समाज में भी हैं। क्योंकि समाज का कोई एक अंग दूसरे अंग से अछूता नहीं रह सकता। पर कुछ अपवादों के आधार पर ये फ़ैसला करना कि महिलाएँ अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाने में सक्षम नहीं हैं इसलिए फ़िलहाल उन्हें एक-तिहाई सीटों पर ही आरक्षण दिया जा रहा है ठीक नहीं है। ये सूचना कि भविष्य में उन्हें इनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दे दिया जाएगा सपने दिखाने जैसा है। अगर हमारी सोच नहीं बदली और मौजूदा ढर्रे पर ही महिलाओं के नाम पर ये ख़ानापूर्ति होती रही तो कभी कुछ नहीं बदलेगा।