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Monday, March 25, 2019

सांसद की भूमिका क्या होती है?

इस देश की राजनीति की यह दुर्दशा हो गई है कि एक सांसद से ग्राम प्रधान की भूमिका की अपेक्षा की जाती है। आजकल चुनाव का माहौल है। हर प्रत्याशी गांव-गांव जाकर मतदाताओं को लुभाने में लगा है। उनकी हर मांग स्वीकार कर रहा है। चाहे उस पर वह अमल कर पाए या न कर पाए। 2014 के चुनाव में मथुरा में भाजपा उम्मीदवार हेमा मालिनी ने जब गांवों के दौरे किए, तो ग्रामवासियों ने उनसे मांग की कि वे हर गांव में आर.ओ. का प्लांट लगवा दें। चूंकि वे सिनेतारिका हैं और एक मशहूर आर.ओ. कंपनी के विज्ञापन में हर दिन टीवी पर दिखाई देती है। इसीलिए ग्रामीण जनता ने उनके सामने ये मांग रखी। इसका मूल कारण ये है कि मथुरा में 85 फीसदी भूजल खारा है और खारापन जल की ऊपरी सतह से ही प्रारंभ हो जाता है। ग्रामवासियों का कहना है कि हेमा जी ने ये आश्वासन उन्हें दिया था, जो आजतक पूरा नहीं हुआ। सही बात क्या है, ये तो हेमा जी ही जानती होंगी।

यह भ्रान्ति है कि सांसद का काम सड़क और नालियां बनवाना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में फंसने के बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सांसदों की निधि की घोषणा करने की जो पहल की, उसका हमने तब भी विरोध किया था। सांसदों का काम अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति संसद और दुनिया का ध्यान आकर्षित करना हैं, कानून बनाने में मदद करना हैं, न कि गली-मौहल्ले में जाकर सड़क और नालियां बनवाना। कोई सांसद अपनी पूरी सांसद निधि भी अगर लगा दे तो एक गांव का विकास नहीं कर सकता। इसलिए सांसद निधि तो बन्द कर देनी चाहिए। यह हर सांसद के गले की हड्डी है और भ्रष्टाचार का कारण बन गई है।

हमारे लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के कई स्तर हैं। सबसे नीची ईकाई पर ग्राम सभा और ग्राम प्रधान होता है। उसके ऊपर ब्लाक प्रमुख। फिर जिला परिषद्। उसके अलवा विधायक और सांसद। यूं तो जिले का विकास करना चुने हुए प्रतिनिधियों, अधिकारियों, विधायकों व सांसदों की ही नहीं, हर नागरिक की भी जिम्मेदारी होती है। परंतु विधायक और सांसद का मुख्य कार्य होता है,अपने क्षेत्र की समस्याओं और सवालों को सदन के समक्ष जोरदार तरीके से रखना और सत्ता और सरकार से उसके हल निकालने की नीतियां बनवाना। प्रदेश या देश के कानून बनाने का काम भी क्रमशः विधायक और सांसद करते हैं।

जातिवाद, सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीति का अपराधिकरण व भ्रष्टाचार कुछ ऐसे रोग हैं, जिन्होंने हमारी चुनाव प्रक्रिया को बीमार कर दिया है। अब कोई भी प्रत्याशी अगर किसी भी स्तर का चुनाव लड़ना चाहे, तो उसे इन रोगों को सहना पड़ेगा। वरना कामियाबी नहीं मिलेगी। इस पतन के लिए न केवल राजनेता जिम्मेदार है, बल्कि मीडिया और जनता की भी जिम्मेदारी कम नहीं। जो निरर्थक विवाद खड़े कर, चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति हमलावर रहते हैं। बिना ये सोचे कि अगर कोई सांसद या विधायक थाना-कचहरी के काम में ही फंसा रहेगा, तो उसे अपनी कार्यावधि के दौरान एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलेगी।, जिसमें वह क्षेत्र के विकास के विषय में सोच सके। जनता को चाहिए कि वह अपने विधायक और सांसद को इन पचड़ों में न फंसाकर उनसे खुली वार्ताऐं करें। दोनों पक्ष मिल-बैठकर क्षेत्र की समस्याओं की प्राथमिक सूची तैयार करे और निपटाने की रणनीति की पारस्परिक सहमति से बनाए। फिर मिलकर उस दिशा में काम करे। जिससे वांछित लक्ष्य की प्रप्ति हो सके।

एक सांसद या विधायक का कार्यकाल मात्र 5 वर्ष होता है। जिसका तीन चैथाई समय केवल सदनों के अधिवेशन में बैठने पर निकल जाता है। एक चैथाई समय में ही उन्हें समाज की अपेक्षाओं को भी पूरा करना है और अपने परिवार को भी देखना है। इसलिए वह किसी के भी साथ न्याय नहीं कर पाता। दुर्भाग्य से दलों के कार्यकर्ता भी प्रायः केवल चुनावी माहौल में ही सक्रिय होते हैं, अन्यथा वे अपने काम-धंधों में जुटे रहते हैं। इस तरह जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच खाई बढ़ती जाती है। ऐसे जनप्रतिनिधि को अगला चुनाव जीतना भारी पड़ जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि दल के कार्यकर्ताओं को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ स्थानीय लोगों की समस्याऐं सुलझाने में भी अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। इसी तरह हर बस्ती, चाहे वो नगर में हो या गांव में उसे प्रबुद्ध नागरिकों की समितियां बनानी चाहिए, जो ऐसी समस्याओं से जुझने के लिए 24 घंटे उपलब्ध हो। मुंशी प्रेमचंद की कथा पंच परमेश्वरके अनुसार इस समिति में गांव की हर जाति का प्रतिनिधित्व हो और जो भी फैसले लिए जाऐ, वो सोच समझ कर, सामूहिक राय से लिए जाऐ। फिर उन्हें लागू करवाना भी गांव के सभी लोगों का दायित्व होना चाहिए।

हर चुनाव में सरकारें आती-जाती रहती हैं। सब कुछ बदल जाता है। पर जो नहीं बदलता, वह है इस देश के जागरूक नागरिकों की भूमिका और लोगों की समस्याऐं। इस तरह का एक गैर राजनैतिक व जाति और धर्म के भेद से ऊपर उठकर बनाया गया संगठन प्रभावी भी होगा और दीर्घकालिक भी। फिर आम जनता को छोटी-छोटी मदद के लिए विधायक या सांसद की देहरी पर दस्तक नहीं देनी पड़ेगी। इससे समाज में बहुत बड़ी क्रांति आऐगी। काश ऐसा हो सके।

Monday, February 11, 2013

अफजल गुरू को फांसी और मीडिया की भूमिका

आखिरकार भारतीय संसद के ऊपर हमले के आरोपी अफजल गुरू को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी। इस घटना की जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, वह नहीं फैली। हांलाकि टी0वी0 चैनलों ने इसकी पुरजोर कोशिश की। कारण यह कि मौहम्मद कसाब को मिली फांसी के बाद इस तरह की फांसी को लेकर लम्बे समय से चली आ रही उत्सुकता पहले ही खत्म हो चुकी थी। एक ही घटना पर बार-बार एक सी सनसनी नहीं पैदा की जा सकती। इसलिए जिन्होंने सोचा होगा कि इस तरह की फांसियों से अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग उत्तेजित होगा और बहुसंख्यक समुदाय का एक वर्ग इसका राजनैतिक लाभ उठायेगा, वे अपने मंसूबे में नाकामयाब रहे। क्योंकि दोनों ही वर्गों ने इसे एक अपराधी को मिलने वाली सामान्य सजा के रूप में लिया। कुछ राजनेताओं ने इसे देर से लिया गया सही निर्णय बताया। सही तो उन्हें इसलिए कहना पड़ा चूंकि वे इसकी मांग लम्बे समय से कर रहे थे। देर से लिया बताकर वे शायद सरकार की कमजोरी सिद्ध करना चाहते हैं। पर यह उनकी समझ की कमी है। अपराध का इतिहास बताता है कि फांसी से ज्यादा फांसी का डर आदमी को मार डालता है। मौहम्मद कसाब हो या अफजल गुरू, जब वे आतंकवादियों के षडयंत्र का हिस्सा बने, तो उनका दिमाग इस बात के लिए तैयार था कि घटना को अंजाम देते ही वे गोलियों का शिकार बन जाऐंगे। यानि वे मरने को तैयार थे। ऐसे में फौरन फांसी देकर कोई लाभ नहीं होता। उन्हें इतने समय तक जिंदा रखकर जो मानसिक यातना मिली होगी, उसने उन्हें हर पल मारा होगा। मरने के बाद तो आदमी को दुख और दर्द का कुछ पता ही नहीं चलता। पर मरने से पहले उसके दिल और दिमाग में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं, जो उसे बुरी तरह हिला देते हैं। इसके साथ ही उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार रखकर आतंकवादियों को यह संदेश दिया गया कि उनकी ऐसी गिरफ्तारी संभव है। इससे आतंकवाद का यह विषय लम्बे समय तक चर्चाओं में बना रहा। जिससे एक खास संदेश आतंकवादियों के बीच गया।
पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी कोई आतंकवादी या अण्डरवल्र्ड डान या कुख्यात अपराधी या डकैत मारा जाता है, तो मीडिया उसके मानवीय पक्षों को दिखाकर उसे नाहक शहादत देता है। इससे समाज का भारी अहित होता है। आतंकवादी घटनाऐं हों या माफिया आॅपरेशंस, इनका मकसद यही होता है कि सनसनी पैदा की जाये और उसकी चर्चा समाज में हो। ताकि लोगों में एक खौफ पैदा हो। इसलिए इस तरह के अपराधों से जुड़े लोग मीडिया के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। जिससे उन्हें यश मिले, चाहें वह अपयश ही क्यों न हो। फिर तो लोग उनके नाम से भी डरने लगते हैं। जब बन्दूक चलाये बिना फिरौती मिल जाये या रंगदारी मिल जाये तो बन्दूक चलाने की क्या जरूरत है। इसलिए मीडिया को इस विषय में आत्मचिंतन करना चाहिए। अफजल गुरू की फांसी के बाद जिस तरह के पुराने साक्षात्कार टी0वी0 चैनलों पर दिखाये गये, उससे नाहक अफजल गुरू के प्रति समाज के एक तबके का दिल जीतने की नाकाम कोशिश की गयी। इससे बचा जाये तो अच्छा है।
इस पूरे मामले में केन्द्रीय सरकार से एक भयंकर भूल हुई। जब उसके पास मौहम्मद कसाब जैसा अल्हड़, युवा, बेपढ़ालिखा, पाकिस्तानी आतंकवादी था और दूसरी तरफ अफजल गुरू जैसा पढ़ा-लिखा समझदार आतंकवादी था तो उसे इन दोनों के ऊपर अपराध शास्त्र विशेषज्ञों व मनोवैज्ञानिकों से गहन शोध करवाना चाहिए था। इससे आतंकवाद की मानसिकता को गहराई से समझने में सफलता मिलती। यह किसी से छुपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर अपराधशास्त्र के विशेषज्ञों से अभी तक कोई ठोस व उल्लेखनीय शोध नहीं करवाया गया है।
अफजल गुरू की फांसी का राजनैतिक लाभ किसी को मिलेगा या नहीं, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। पर इस बात की समझ जरूर विकसित होनी चाहिए कि आतंकवाद के सही कारण क्या हैं और क्या उनके निदान उपलब्ध हैं? अगर निदान उपलब्ध हैं तो उन्हें अपनाया क्यों नहीं जाता? ऐसे गंभीर विषयों पर समाज, संसद व मीडिया में लम्बी बहस की जरूरत है, जिससे हम इस समस्या से निजात पा सकें। पर देखने में यह आया है कि इन तीनों ही तबकों में इस तरह की कोई बात कभी नहीं होती। जहां होती है, वहां इकतरफा होती है। माक्र्सवादी विचारधारा के लोग आतंकवाद को आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम बताते हैं। धर्मांन्धता के चश्मे से समाज को देखने की आदत रखने वाले इसे जिहाद बताते हैं और स्वंय को राष्ट्रवादी बताने वाले इसे तुष्टीकरण का परिणाम बताते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जो व्यवहारिक धरातल पर खरे नहीं उतरते। उनसे केवल भावनाऐं भड़कायी जा सकती हैं। हिंसा पैदा की जा सकती है। प्रतिशोध की ज्वाला भड़कायी जा सकती है। पर आतंकवाद का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसलिए निष्पक्ष और गहन अध्ययन व लंबी बहस की बेहद जरूरत है।

Monday, February 4, 2013

राज्यों में मजबूत लोकपाल गठित करने कि जरूरत

सत्यव्रत चतुर्वेदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने जो प्रस्ताव सरकार को सौंपे, वे प्रशंसनीय हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लोकपाल के गठन और अधिकारों को लेकर जो कुछ इस समिति ने सुझाया है, वह काफी हद तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक मॉडल है, जिस पर संसद में आम सहमति होनी चाहिए। जहाँ तक लोकपाल के अधिकारों की बात है, उसे केवल मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। अन्यथा उसका कार्यक्षेत्र इतना बढ़ जाऐगा कि लोकपाल एक कागजी शेर बनकर रह जाऐगा। इतना ही नहीं अगर सरकार के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अधीन किया जाता है, तो इसे कम से कम 6 लाख जांच अधिकारियों को नियुक्त करना पड़ेगा। जिनका चयन, उनकी ईमानदारी की परीक्षा और उनको दिए जाने वाला वेतन, यह इतने जटिल सवाल हैं कि इनका हल असंभव है। इसलिए टीम अन्ना की यह मांग उचित नहीं। पर टीम अन्ना की इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए कि अगर उच्च पदासीन मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच के बाद लोकपाल को उनके विरूद्ध भ्रष्टाचार के समुचित प्रमाण मिलते हैं तो इन लोगों को मिलने वाली सजा के अलावा इनकी अवैध सम्पत्ति जब्त करने का अधिकार लोकपाल को मिलना चाहिए। तभी भ्रष्टाचारियों के मन में भय पैदा होगा।
लोकपाल और सीबीआई के संबन्धों पर जो सुझाव इस समिति ने दिए हैं, वे निश्चित रूप से एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं, जिनका परीक्षण किया जाना चाहिए। अगर परिणाम उत्साहजनक आते हैं, तो इस दिशा में और भी प्रगति की जा सकती है। जहाँ तक सीबीआई को पूरी स्वायत्तता देने की बात है, ऐसा किसी भी दल की कोई सरकार कभी नहीं मानेगी। लेकिन सीबीआई को सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किया जाना चाहिए। अभी सीवीसी को केवल सीबीआई के कामकाज पर निगरानी रखने का अधिकार मिला है, जो नाकाफी है। सीबीआई अभी भी सरकार के सीधे आधीन है। सीबीआइ और सीवीसी दोनों को ही वित्तीय स्वायत्तता नहीं है। इसलिए वे सरकार के रहमो करम पर निर्भर रहती हैं। जब तक इन्हें वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिलेगी, तब तक सरकार में बैठे अफसर चाहें जब इनकी कलाई मरोड़ते रहेंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल और सीवीसी के बीच कार्य का विभाजन किस तरह हो? जैसा कि हम शुरू से कहते आए हैं कि आदर्श स्थिति तो यह है कि लोकपाल केवल मंत्रियों और विधायिका के सदस्यों के भ्रष्ट आचरण की जांच करे और सीवीसी उच्च अधिकारियों से लेकर मझले स्तर तक के अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जांच करे। इस तरह दोनों के कार्यक्षेत्र स्पष्टतः विभाजित रहेंगे। सी0बी0आई0 को इन दोनों ही संस्थाओं के आदेशानुसार मामला दर्ज करने, जांच करने, समय-समय पर जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के प्रावधान किये जाऐं। जिससे लोकपाल व सी0वी0सी0 अपने-अपने कार्यक्षेत्र में मिलने वाली शिकायतों के अनुरूप सीबीआई को समुचित दिशानिर्देश दे सकें। इसके साथ ही लोकपाल की चयन समिति को ही सीवीसी के सदस्यों का भी चयन करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, स्पीकर लोकसभा व भारत के मुख्य न्यायाधीश मिलकर लोकपाल और सीवीसी के सदस्यों का चयन करें। एक लोकतांत्रिक देश में इससे अच्छी परंपरा और क्या हो सकती है। हां, इसमें एक सुधार अवश्य करना चाहिए। जिन व्यक्तियों का भी नाम इस समिति के संज्ञान में चयन के लिए लाया जाता है, उन व्यक्तियों के नाम और क्रियाकलापों की सूची लोकपाल और सीवीसी की वेबसाइट पर डाली जाऐं और देश की जनता को यह न्यौता दिया जाए कि वह अगले निर्धारित समय सीमा के भीतर इन व्यक्तियों में से यदि किसी के विरूद्ध भी भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण के कोई प्रमाण हों, तो  चयन समिति के सामने प्रस्तुत करें। इससे चयन प्रक्रिया में और भी पारदर्शिता आयेगी। कम से कम उन लोगों के नाम तो कभी भी विचारार्थ नहीं आयेंगे, जिनके आचरण पर पहले कभी कोई विवाद उठ चुका है।
इस पूरी लड़ाई में जो असली मुद्दा खो रहा है, वह है आम जनता के सामने हर दिन आने वाले भ्रष्टाचार जनित संकट। राशन की दुकान, थाना बिजली, अस्पताल, परिवहन व स्थानीय प्रशासन, ये ऐसे विभाग हैं जिनसे आम जनता का रोज नाता पड़ता है। इन्हीं के भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा दुखी है। लोकपाल बने या न बने, आम लोगों को कोई राहत मिलने वाली नहीं। उसके लिए तो लोकायुक्त ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि केन्द्र का लगभग सारा पैसा राज्यों को जाता है। इसलिए उस पैसे के इस्तेमाल पर कड़ी नजर रखना जरूरी है। पर चतुर्वेदी समिति की सिफारिशों में लोकायुक्त का चयन और उसके अधिकार तय करने का जिम्मा राज्य सरकारों पर टाल दिया गया है। जाहिर है ऐसा क्षेत्रीय दलों के दबाव के कारण किया गया है। क्योंकि पिछले सत्र में क्षेत्रीय दलों ने लोकायुक्त थोपे जाने का भारी विरोध किया था। लोकायुक्त के गठन के मौजूदा कानून के बावजूद गुजरात जैसे कई राज्यों ने लोकायुक्त के गठन में भारी कोताही बरती है। इसलिए देशवासियों को चाहिए कि वे अपने-अपने प्रांतों की सरकारों पर दबाव बनाकर प्रांतों में सशक्त लोकायुक्त के गठन को सुनिश्चित करें। जिससे उनके दैनिक जीवन में आने वाले अवरोधों के अपराधी पकड़े जा सकें।
अंत में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक, आर्थिक, मनौवैज्ञानिक व आपराधिक आचरण है। जिसका समाधान केवल कानून और लोकपाल जैसी संस्थाओं के गठन से कभी भी नहीं निकाला जा सकता, जब तक कि समाज खुद उठकर खड़ा न हो और अपने व सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध लगातार संघर्ष न करे। 

Sunday, July 31, 2011

हंगामेदार होगा संसद का यह सत्र

Rajasthan Patrika 31 July
पहली अगस्त से शुरू होने वाला संसद सत्र भारी हंगामे का होगा। वामपंथी दलों सहित सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ लामबंद है। इतने सारे मुद्दे हैं कि सरकार के लिए गाड़ी खींचना आसान न होगा। मंहगाई की मार यानि आवश्यक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि, पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में बार-बार वृद्धि, डीजल के दामों में वृद्धि आदि किसानों की दिक्कतें बढ़ी हैं और आम मतदाता परेशान है। विपक्ष इसका पूरा फायदा उठायेगा। पाकिस्तान को सोंपी गई मोस्ट वान्टेड लिस्ट के मामले में सरकार ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। इस लापरवाही को अनदेखा नहीं किया जाएगा। बाबा रामदेव के धरने में, रामलीला मैदान में, शांतिपूर्वक बैठे लोगों पर केन्द्र सरकार की बर्बर कार्यवाही को लेकर जनता में नाराजगी है। उधर नई भूमि अधिग्रहण नीति-विधेयक मसौदा भी काफी विवादास्पद है। 

ममता बनर्जी का बंगाल के चुनाव में लगे रहना और रेल मंत्रालय का अनाथ होकर चलना व बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का होना रेलवे की लापरवाही का ठोस नमूना है। आतंकवाद, नक्सलवाद व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर नीति पर पुनर्विचार किया जाएगा। हांलाकि इस मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड एन.डी.ए. की सरकार से बेहतर रहा है। इसलिए विपक्ष के हमले में कोई नैतिक आधार नहीं होगा। अलबत्ता 2जी स्पैक्ट्रम में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका व कपिल सिब्बल द्वारा रिलायंस कंपनी को नाजायज तरीके से फायदा पहुँचाने से उत्पन्न स्थिति को विपक्ष यूं ही नहीं छोड़ देगा। विपक्षी खेमों में चर्चा है कि यूपीए 1 के दौरान कपिल सिब्बल द्वारा भारतवंशी कामगारों का डाटाबेस बनाने के काम को मैसर्स फीनिक्स रोज एलएलसी मैरीलैंड को ठेका देने में जो कथित धांधली और उक्त फर्म को अधिक धनराशि देने एवं फर्म द्वारा काम में लापरवाही से देश की संपदा को नुकसान हुआ है उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।

काले धन का मामला पूरी तरह राजनैतिक है। राम जेठमलानी से लेकर संघ और भाजपा काले धन को देश में वापस लाने के मामले में सरकारी उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में साफ नीयत नहीं रखता। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व मल्टी ब्रांड रिटेल में एफ.डी.आई यानि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने सम्बन्धी सरकार के प्रस्ताव का विरोध भी विपक्ष करने को तैयार है। यह दूसरी बात है कि वामपंथी व समाजवादी दलों को छोड़कर आर्थिक नीति के मामले में पक्ष और विपक्ष की सोच में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।

इसके अलावा देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और फेल होती सरकारी मशीनरी, ऑनर किलिंग व दिल्ली में लगातार बढ़ती आपराधिक घटनाऐं और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की असफलता जैसे मुद्दे भी विपक्ष उठाएगा। पर इन सब मामलों में कोई एक सरकार या दल जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि सबका हाल लगभग एक सा रहा है। मौके-मौके की बात है। वही अपराध जब अपनी सरकार के दौरान होते हैं तो राजनैतिक दल सारी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपनी चमड़ी मोटी कर लेते हैं। वही घटनाऐं जब उनके विपक्षी दल के सत्ता में रहने के दौरान होती हैं, तो उसका पूरा राजनैतिक लाभ लिया जाता है।
 
सबसे रोचक विषय तो लोकपाल बिल रहेगा। जहाँ टीम अन्ना ने सरकारी बिल को मनलोकपाल (मनमोहन सिंह) कहकर इसका मजाक उड़ाया है और सरकार पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया है, वहीं यह बात भी सही है कि सरकारी लोकपाल बिल काफी लचर है और जनता की अपेक्षाओं खरा नहीं उतरता। इसलिए टीम अन्ना इस मामले को लेकर जनता को उत्तेजित करने का प्रयास करेगी। अगर उसे पहले की तरह टी.वी. चैनलों का असामान्य समर्थन मिला तो वह सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकती है। विपक्षी दल इस मामले में लामबंद हो चुके हैं। वे सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए संसद में इस मामले पर भी सरकार को घेरेंगे। यह बात दूसरी है कि जब टीम अन्ना विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से मिली तो उसे किसी दल ने भी उसके जन लोकपाल बिल के समर्थन में कोई आश्वासन नहीं दिया। निजी बातचीत में तो हर दल का नेता पत्रकारों से यही कहता रहा कि टीम अन्ना की मांग और तरीका दोनों ही नाजायज हैं। वे कहते हैं, ‘यह सत्याग्रह नहीं, दुराग्रह है।’ पर संसद में राजनैतिक लाभ लेने की दृष्टि से विपक्षी दल इस मुद्दे पर टीम अन्ना के साथ खड़े होने का नाटक जरूर करेंगे।

जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, एक के बाद एक घोटालों में केन्द्र सरकार के मंत्रियों की जो भूमिका रही है, उससे सरकार की छवि गिरी है। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया की काफी सक्रिय भूमिका रही है। जिसने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘एक्टिविस्ट’ की तरह सरकार पर हमला बोल रखा है। ऐसे माहौल में भाजपा के लिए येदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाये रखना घाटे का सौदा होता। इसलिए कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की दूसरी रिपोर्ट आते ही आनन-फानन में अपने सिपहसलार से इस्तीफा मांग लिया गया और संसद में सत्तापक्ष को हावी न होने देने की जमीन तैयार कर ली गयी। हांलाकि यह सवाल फिर भी उठेगा कि इन्हीं लोकायुक्त की पहली रिपोर्ट के बाद डेढ़ बरस पहले भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व क्यों कान में उंगली दिए बैठा रहा?

उधर सत्तापक्ष कर्नाटक के बाद अब गुजरात की ओर रूख करेगा और नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की जाएगी। उधर अगले वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं, इसलिए सत्तापक्ष को भाजपा का समर्थन भी चाहिए। यह रस्साकशी उन्हीं समीकरणों को बिठाने के लिए की जाएगी। जिसमें दो ही विकल्प बनते हैं, या तो दोनों दल आपस में भिड़कर मध्यावधि चुनाव की स्थितियाँ पैदा कर दें और या गुपचुप समझौता कर जनता के सामने नूरा-कुश्ती लड़ते रहें। इन हालातों में चुनाव यदि होता है तो जाहिर है इंका को घाटा होगा। पर यह भी स्पष्ट है कि कोई भी दल, यहाँ तक कि एन.डी.ए. एकजुट हो जाता है, तो भी शायद बहुमत लाने की स्थिति में नहीं होगा। इसलिए चुनाव से किसी का लाभ नहीं होने जा रहा। कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र में शोर तो खूब मचेगा पर आम जनता के हाथ कुछ नहीं लगेगा।