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Monday, October 23, 2023

मोदी जी की राह आसान करेगा ‘इंडिया’ गठबंधन


जबसे पटना, बेंगलुरु और मुंबई में प्रमुख विपक्षी दलों की महत्वपूर्ण बैठकें हुईं और ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई तब से विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में एक उत्साह की लहर दौड़ गई थी। क्योंकि पिछले नौ वर्षों से राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विपक्षी दलों पर हावी रही है। पर पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कुछ दलों के प्रवक्ताओं ने एक दूसरे दल पर ऐसी तीखी टिप्पणियाँ की हैं जिससे गठबंधन में दरार पड़ सकती है। आगामी विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश की कुछ सीटों को लेकर कांग्रेस और समाजवादी दल की जो बयानबाज़ी हुई है वो भी ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालाँकि मध्य प्रदेश में कमल नाथ ने जो कड़ी मेहनत की है उससे हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही है। शायद इसी आत्मविश्वास के कारण कांग्रेस को समाजवादी पार्टी की कोई अहमियत नज़र नहीं आई। पर अगर यही रवैया रहा तो लोक सभा के चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन कैसे मज़बूती से लड़ पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी दल तीसरी बार भी मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने की राह आसान कर देंगे?
 



पिछले नौ वर्षों में विपक्ष ने तमाम हमले सत्तारूढ़ दल पर किए। पर फिर भी कामयाबी नहीं मिली। ज़्यादातर हमले मोदी जी की सार्वजनिक घोषणाओं, उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली पर हुए। जैसे मोदी जी की 2014 की घोषणाओं को याद दिलाना कि 2 करोड़ नौकरी हर साल मिलने का और 2022 तक सबको पक्के घर मिलने का वायदा क्या हुआ? 15 लाख सबके खातों में कब आएँगे? 100 स्मार्ट सिटी क्यों नहीं बन पाए? माँ गंगा मैली की मैली क्यों रह गई? विदेशों से काला धन वापस क्यों नहीं आया? इसके अलावा मोदी जी के अडानी समूह से संबंधों को लेकर भी संसद में और बाहर बार-बार सवाल पूछे गये। 


आम आदमी पार्टी ने मोदी जी की डिग्रियों को लेकर सवाल खड़े किए। आरबीआई की जानकारी के अनुसार पिछले नौ वर्षों में बैंकों का 25 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में चला गया। आम जनता के खून पसीने की कमाई की ऐसी बर्बादी और लाखों करोड़ के ऋण लेकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों के बारे में भी सवाल पूछे गये। मोदी सरकार पर सीबीआई, ईडी व आयकर एजेंसियों के बार-बार दुरूपयोग के आरोप लगातार लगते रहे। इन एजेंसियों की विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा कारवाई और चुनावों के पहले उन पर छापे और गिरफ़्तारियों को लेकर भी पूरा विपक्ष उत्तेजित रहा। किसान आंदोलन की उपेक्षा और सैंकड़ों किसानों की शहादत व गृह राज्य मंत्री के बेटे का लखीमपुर में आंदोलनकारी किसानों पर क़ातिलाना हमला भी मोदी सरकार पर हमले का सबब बना। ओलंपिक पदक विजेता महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण के आरोपों पर मोदी सरकार की चुप्पी और बाद में उन्हें पुलिस के ज़ोर पर धरने से हटाने को लेकर भी सरकार की बार-बार खिंचाई की गई। मणिपुर में भारी हिंसा के बावजूद प्रधान मंत्री का महीनों तक वहाँ न जाना भी बड़े विवाद का कारण बना हुआ है। ऐसे तमाम गंभीर सवालों पर प्रधान मंत्री का लगातार चुप रह जाना और एक बार भी संवाददाता सम्मेलन न करना, लोकतंत्र के करोड़ों मतदाताओं को आजतक समझ में नहीं आया।



उधर हर चुनाव में प्रधान मंत्री का आक्रामक प्रचार और विपक्षियों को भ्रष्ट बता कर हमला करना। जबकि दूसरी तरफ़ प्रधान मंत्री द्वारा ही बार-बार भ्रष्ट बताए गये विपक्षी नेताओं को भाजपा में शामिल करवा कर उनके साथ सत्ता में भागीदारी करना भी एक बड़े विवाद का कारण रहा है। इस सबसे देश में ऐसा माहौल बना कि विपक्ष इसे अघोषित आपातकाल कहने लगा। किंतु स्थानीय राजनीति पर अपनी पकड़ छोड़ने को कोई क्षेत्रीय दल तैयार न था। इसलिए विपक्ष के दल जहाँ एक तरफ़ भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ आपस में भी एक दूसरे पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आए। यहीं कारण है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के समर्थन का दावा करने वाले विपक्ष के नेता अपने-अपने क्षेत्रों में तो कामयाब हुए पर राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार को चुनौती नहीं दे पाए। आज भी जनाधार वाले ये तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं। इसलिए केंद्र में सत्ता पाने का उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा। 



विपक्ष को इस अंधकार से निकालने की पहल कुछ तो प्रांतीय नेताओं ने की जिनके प्रयास से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, बिहार, राजस्थान, झारखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, महाराष्ट्र, जैसे राज्यों में विपक्ष की सरकारें बनीं। दूसरा काम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गांधी ने किया। जिन राहुल गांधी को भाजपा और संघ परिवार ने ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हीं राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में हर आम आदमी को गले लगा कर अपनी छवि में चार चाँद लगा दिये। बिना मीडिया से डरे, हर दिन सैंकड़ों संवाददाताओं के तीखे सवालों के सहजता से उत्तर दिये। संसद में मोदी सरकार पर इतना कड़ा हमला बोला कि उनकी संसद सदस्यता ही ख़तरे में पड़ गई। पर राहुल गांधी के इस नए तेवर ने और कर्नाटक विधान सभा में कांग्रेस की जीत ने राहुल गांधी को एक आत्मविश्वास दिया कि वे बाँहें फैला कर हर विपक्षी दल को ‘इंडिया’ गठबंधन में जोड़ सके। इसी से भारतीय लोकतंत्र में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। 


पर जिस ज़ोर-शोर से ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई थी वो गर्मी अब धीरे-धीरे शांत होती जा रही है, ऐसा प्रतीत होता है। पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल तृण मूल कांग्रेस पर कांग्रेस के नेता अधिरंजन चौधरी ने जो हमला बोला उससे इस गठबंधन में दरार पड़ने का संदेश गया। उधर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए कांग्रेस के द्वारा वायदा करने बावजूद सपा को 5-7 टिकटें नहीं दी गईं। जिसपर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त की। हर योद्धा जानता है कि युद्ध जीतने के लिए स्पष्ट लक्ष्य, सुविचारित रणनीति, टीम में एकता और अनुशासन, सामने वाले की व स्वयं की क्षमता का सही आँकलन और सही मौक़े पर सही निर्णय लेने की राजनैतिक समझ की ज़रूरत होती है। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन को वास्तव में अपना लक्ष्य हासिल करना है तो उसे सहयोगी दलों के पारस्परिक संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा अन्यथा ‘टीम इंडिया’ बनने से पहले ही बिखर जाएगी।   

Monday, August 3, 2020

भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ बने रहेंगे

64 वर्ष की आयु में अमर सिंह का सिंगापुर में देहांत हो गया। अमर सिंह जैसे बहुत लोग भारतीय राजनीति में हैं पर उनकी खासियत यह थी कि वे खुद को राष्ट्रीय प्रसारण में भी दलाल घोषित करने में नहीं हिचकते थे। सिंधिया परिवार, भरतिया परिवार, अम्बानी परिवार, बच्चन परिवार या यादव परिवार में फूट डलवाने का श्रेय अमर सिंह को दिया जा सकता है। उन पर आरोप था कि वे इन सम्पन्न, मशहूर व ताकतवर परिवारों में कूटनीति से फूट डलवाते थे और एक भाई का दामन थाम कर दूसरे का काम करवाते थे। शायद इसमें अपना फ़ायदा भी उठाते हों। 


बड़ी तादाद में फ़िल्मी हिरोइनों को राजनीति में या राजनैतिक दायरों में महत्व दिलवाने का काम भी अमर सिंह बखूबी करते थे। इसको लेकर अनेक विवाद उठे और सर्वोच्च न्यायालय तक गए। उनकी महारथ इतनी थी कि केंद्र में भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी तक अपने दल के नेताओं से ज़्यादा अमर सिंह को तरजीह देते थे। यह उस समय भाजपा के नेताओं में चिंता और चर्चा का विषय रहता था और इसी कॉलम में मैंने तब इस पर टिप्पणी भी की थी। 


सरकारें गिरने व बचाने में सांसदों व विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करवाने में भी अमर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पाठकों को अरुण जेटली के घर अमर सिंह की देर रात हुई वो गोपनीय बैठक याद होगी जो मीडिया की सक्रियता से चर्चा में आ गई थी। क्योंकि उस समय के राजनैतिक माहौल में दो विरोधी दलों के नेताओं का इस तरह मिलना बड़े विवाद का कारण बना था। 


पत्रकारिता में रहते हुए हम लोगों का हर क़िस्म के राजनेता से सम्पर्क हो ही जाता है। खबरों को जानने की उत्सुकता में ऐसे सम्पर्क महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। इस नाते अमर सिंह से मेरा भी ठीक-ठाक सम्पर्क था। पर 1995 में एक घटना ऐसी हुई जिसके बाद अमर सिंह ने मुझ से सम्बंध तो सौहार्दपूर्ण रखे पर यह समझ लिया कि मैं उनके मतलब का व्यक्ति नहीं हूँ। हालांकि यह भी उन्हीं की विशेषता थी। ‘जैन हवाला कांड’ में सर्वोच्च न्यायालय की सख़्ती के बाद सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय हुआ और अनेक दलों के बड़े राजनेताओं में हड़कम्प मच गया, तो अमर सिंह भी दूसरों की तरह करोड़ों रुपए की रिश्वत का प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए ताकि मैं इस मुद्दे को छोड़ दूँ। मेरे रूखे और कड़े रवैए से वे हताश हो गए और बाद में जगह जगह कहते फिरे कि विनीत नारायण .…… (मूर्ख) हैं, 100 करोड़ रुपए मिलते और केंद्र में मंत्रिपद


जिन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब वे ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद’ के अध्यक्ष थे। उस नाते मैंने उन्हें वृंदावन आने का न्योता दिया। क्योंकि तब मैं ब्रज सेवा में जुट गया था। सरकार व प्रशासन की मदद के बिना बड़े स्तर का कोई भी विकास कार्य आसानी से पूरा नहीं होता, उसमें बहुत बाधाएँ आती हैं, इसलिए मुझे लगा कि अमर सिंह को बुलाने से इन सेवा कार्यों में मदद मिलेगी। 


इस आयोजन के बाद मैं अमर सिंह से मिलने दिल्ली गया और कहा कि ब्रज (मथुरा) के विकास को लेकर मैंने कुछ ठोस योजनाएँ तैयार की हैं, उसमें आप मेरी मदद करें। अमर सिंह ने सत्कार तो पूरा किया पर टका सा जवाब दे दिया। आप अमिताभ बच्चन की तरह मेरी घनिष्ठ मित्र तो हैं नहीं। ‘हवाला कांड’ में मैं एक प्रस्ताव ले कर आपके पास आया था, पर आपने तो मुझे बैरंग लौटा दिया। तो अब आप मुझसे किसी मदद की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैं समझता हूं कि अमर सिंह जैसी स्थिति में शायद ही कोई साफ-साफ ऐसे कहने की हिम्मत करेगा। यह खासियत उनमें ही थी। 


अमर सिंह की एक फ़ितरत थी वो पैसे वाले लोगों के या अपने मित्रों के बड़े से बड़े काम चुटकियों करवा देते थे। इसकी वो पहले कोई क़ीमत तय नहीं करते थे। जैसा कि प्रायः इस तरह की दलाली करने वाले लोग किया करते हैं। उनका सिद्धांत था कि ज़रूरत पर मदद करो और सामने वाले से ये अपेक्षा रखो कि इस मदद के बाद वो हमेशा हर तरह की मदद करने को तत्पर रहेगा। अगर कोई इसमें कोताही कर दे तो उसे सबक़ सिखाना भी अमर सिंह को आता था। इस कारण उनके कई मित्रों से विवाद भी बहुत गम्भीर हुए। पर वह अलग मामला है।  


अब यह राजनीति की स्तर है कि जो व्यक्ति सरेआम अपने को दलाल कहता था उसकी हर राजनैतिक दल को कभी न कभी ज़रूरत पड़ी। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच जो सार्वजनिक लड़ाई हुई उसमें भी माना जाता है कि अमर सिंह ने यह सब भाजपा के इशारे पर किया। इस तरह वो पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में एक चर्चित चेहरा बने रहे। यह साधारण नहीं है कि सबकुछ सबको पता था फिर भी वे अपने काम या लक्ष्य में कामयाब थे। स्पष्ट है कि ईमानदारी के, पारदर्शिता के, जनता के प्रति जवाबदेही के दावे चाहे कोई भी दल करे पर सबको हर स्तर पर एक ‘अमर सिंह’की ज़रूरत होती है। ऐसे ‘अमर सिंह’ कांग्रेस के राज में भी खूब पनपे, जनता दल के राज में भी सफल रहे और भाजपा शासन में भी इनकी कमीं नहीं है। हां दलाली करने के स्वरूप और तरीक़ों में भले ही अंतर हो। सांसद और विधायक पहले भी ख़रीदे जाते थे और आज भी ख़रीदे जा रहे हैं। सरकारी ठेकों में पहले भी दलालों की भूमिका रहती थी और आज भी। 


ऐसे दलाल न तो जनता के हित में कभी कुछ करते हैं न तो देश के हित में कुछ करते हैं। वो जो कुछ भी करते हैं वो अपने या अपने दोस्तों के फ़ायदे के लिए ही करते हैं। फिर भी इन्हें राजनैतिक दल संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च स्तर पर राज्य सभा का सदस्य बनवा देते हैं। उस राज्य सभा का जिसमें समाज के प्रतिष्ठित, अनुभवी, ज्ञानी और समर्पित लोगों को बैठ कर बहुजन हिताय गम्भीर चिंतन करना चाहिए। जबकि ऐसे लोगों को वहाँ अपना धंधा चलाने का अच्छा मौक़ा मिलता है। इसलिए जब तक हमारी राजनीति छलावे, झूठे वायदों, दोहरे चरित्र और जोड़-तोड़ से चलती रहेगी तब तक भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ कभी नहीं मरेंगे। उन्हें श्रद्धांजलि। 

Monday, July 20, 2020

योगी महाराज की सुरक्षा से खिलवाड़ क्यों?

मौत तो किसी की भी, कहीं भी और कभी भी आ सकती है। पर इसका मतलब ये नहीं कि शेर के मुह में हाथ दे दिया जाए। भगवान श्रीकृष्ण गीता दसवें अध्याय में अर्जुन से कहते हैं:

‘तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।’ 

अर्जुन मैं ही सबको बुद्धि देता हूँ।

जिसका प्रयोग हमें करना चाहिए, इसलिए जान बूझकर किसी की ज़िंदगी से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के युवा एवं सशक्त मुख्यमंत्री की ज़िन्दगी से। 


बहुत पुरानी बात नहीं है जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माधव राव सिंधिया, लोक सभा के स्पीकर रहे बालयोगी, आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री रेड्डी और 1980 में संजय गांधी विमान हादसे में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए। चिंता की बात यह है कि ये दुर्घटनाएँ ख़राब मौसम के कारण नहीं हुई थी। बल्कि ये दुर्घटनाएँ विमान चालकों की ग़लतियों से या विमान में ख़राबी से हुई थीं। 


देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के ताक़तवर मुख्यमंत्री की आयु मात्र 48 वर्ष है। अभी उन्हें राजनीति में और भी बहुत मंज़िलें हासिल करनी हैं। बावजूद इसके उन्हें दी जा रही सरकारी वायु सेवा में इतनी लापरवाही बरती जा रही है कि आश्चर्य है कि अभी तक वे किसी हादसे के शिकार नहीं हुए? शायद ये उनकी साधना और तप का बल है, वरना उत्तर प्रदेश के उड्डयन विभाग व केंद्र सरकार के नागरिक विमानन निदेशालय ने योगी जी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी कॉलम में दो हफ़्ते पहले हम उत्तर प्रदेश सरकार की नागरिक उड्डयन सेवाओं के ऑपरेशन मैनेजर के कुछ काले कारनामों का ज़िक्र कर चुके हैं।


दिल्ली के कालचक्र ब्युरो के शोर मचाने के बाद कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा नाम के इस ऑपरेशन मैनेजर का प्रवेश किसी भी हवाई अड्डे पर वर्जित हो गया है। जहाज उड़ाने का उसका लाईसेंस भी फ़िलहाल डीजीसीए से सस्पेंड हो गया है। मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर उसका प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। प्रवर्तन निदेशालय भी उसकी अकूत दौलत और 200 से भी अधिक फ़र्ज़ी कम्पनियों पर निगाह रखे हुए है। 


पर उसके कुकृत्यों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्यवाही है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताक़तवर मंत्री और अफ़सर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जुटे थे, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि प्रज्ञेश मिश्रा की ईमानदार जाँच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के क़िले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जाँच होने देंगे? जबकि योगी जी हर जनसभा में कहते हैं कि वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करते?


जैसे आज तक ये लोग योगी जी को गुमराह करके कैप्टन मिश्रा को पलकों पर बिठाये थे और इसकी कम्पनियों में अपनी काली कमाई लगा रहे थे, वैसे ही आज भी योगी जी को बहका रहे हैं कि ‘हमने मीडिया मेंनेज कर लिया है, अब कोई चिंता की बात नहीं।’ पर शायद उन्हें ये नहीं पता कि आपराधिक गतिविधियों के सबूत कुछ समय के लिए ही दबाये जा सकते हैं, पर हमेशा के लिये नष्ट नहीं किए जा सकते। अगले चुनाव के समय या अन्य किसी ख़ास मौक़े पर ये सब सबूत जनता के सामने आकार बड़ा बवाल खड़ा कर सकते हैं। जिसकी फ़िक्र योगी जी को ही करनी होगी।     


हवाई जहाज़ उड़ाने की एक शर्त ये होती है कि हर पाइलट और क्रू मेम्बर को हर वर्ष अपनी ‘सेफ़्टी एंड इमर्जन्सी प्रोसीजरस ट्रेनिंग एंड चेकिंग’ करवानी होती है। जिससे हवाई जहाज़ चलाने और उड़ान के समय उसकी व्यवस्था करने वाला हर व्यक्ति किसी भी आपात स्थिति के लिए चौकन्ना और प्रशिक्षित रहे। ऐसा ‘नागर विमानन महानिदेशालय’ की नियमावली 9.4, डीजीसीए सीएआर सेक्शन 8 सिरीज़ एफ पार्ट VII में स्पष्ट लिखा है। योगी जी के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा बिना इस नियम का पालन किए बी-200 जहाज़ धड़ल्ले से उड़ता रहा है। ऐसा उल्लंघन केवल खुद प्रज्ञेश मिश्रा ही नहीं बल्कि ऑपरेशन मैनेजर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के दो अन्य पाइलटों से भी करवाता रहा है और इस तरह मुख्यमंत्री व अन्य अतिवशिष्ठ व्यक्तियों की ज़िंदगी को ख़तरे में डालता रहा है। 


आश्चर्य है कि डीजीसीए के अधिकारी भी इतने संगीन उल्लंघन पर चुप बैठे रहे? ज़ाहिर है कि यह चुप्पी बिना क़ीमत दिए तो ख़रीदी नहीं जा सकती। इसका प्रमाण है कि 30 दिसम्बर 2019 को डीजीसीए की जो टीम जाँच करने लखनऊ गई थी उसने मिश्रा व अन्य पाइलटों के इस गम्भीर उल्लंघन को जान बूझकर अनदेखा किया। क्या डीजीसीए के मौजूदा निदेशक अरुण कुमार को अपनी इस टीम से इस लापरवाही या भ्रष्टाचार पर ये जवाब-तलब नहीं करना चाहिए?       


इसी तरह हर पाइलट को अपना मेडिकल लाइसेन्स का भी हर वर्ष नवीनीकरण करवाना होता है। जिससे अगर उसके शरीर, दृष्टि या निर्णय लेने की क्षमता में कोई गिरावट आई हो तो उसे जहाज़ उड़ाने से रोका जा सकता है। पर कैप्टन मिश्रा बिना मेडिकल लाइसेन्स के नवीनीकरण के  बी-200 जहाज़ धड़ल्ले से उड़ता रहा। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि कोई पाइलट हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज़ दोनो नहीं उड़ा सकता। क्योंकि दोनो की एरोडायनामिक्स अलग अलग हैं। पर प्रज्ञेश मिश्रा इस नियम की भी धज्जियाँ उड़ा कर दोनो क़िस्म के वीआईपी जहाज़ और हेलिकॉप्टर उड़ाता रहा है, जिससे मुख्यमंत्री उसके क़ब्ज़े में ही रहे और वो इसका फ़ायदा उठाकर अपनी अवैध कमाई का मायाजाल लगातार बढ़ाता रहे। 


नई दिल्ली के खोजी पत्रकार रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की 200 से भी अधिक फ़र्ज़ी कम्पनियों में से 28 कम्पनियों और उनके संदेहास्पद निदेशकों के नाम सोशल मीडिया पर उजागर कर दिए हैं और योगी जी से इनकी जाँच कराने की अपील कई बार की है। इस आश्वासन के साथ, कि अगर यह जाँच ईमानदारी से होती है तो कालचक्र ब्यूरो उत्तर प्रदेश शासन को इस महाघोटाले से जुड़े और सैंकड़ों दस्तावेज भी देगा। आश्चर्य है कि योगी महाराज ने अभी तक इस पर कोई सख़्त कार्यवाही क्यों नहीं की ? लगता है कैप्टन मिश्रा के संरक्षक उत्तर प्रदेश शासन के कई वरिष्ठ अधिकारी योगी महाराज को इस मामले में अभी भी गुमराह कर रहे हैं। 1990 में एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा था कि नौकरशाही घोड़े के समान होती है सवार अपनी ताक़त से उसे जिधर चाहे मोड़ सकता है।पर यहाँ तो उलटा ही नजारा देखने को मिल रहा है। देखें आगे क्या होता है ?

Monday, September 26, 2016

केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि चुनाव जैसे होंगे विस चुनाव

विधानसभा चुनावों के लिए राज्यों में चुनावी मंच सजना शुरू हो गए हैं। खासतौर पर उप्र और पंजाब में तो चुनावी हलचल जोरों पर है। उप्र में सभी राजनीतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की कमर भी कस दी है। लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ये चुनाव सिर्फ विधान सभा चुनाव तक सीमित नहीं दिख रहे हैं। मोदी सरकार के सामने बिल्कुल वैसी चुनौती है जैसे उसके लिए ये मघ्यावधि चुनाव हों। वाकई उसके कार्यकाल का आधा समय गुजरा है। इसी बीच उसके कामकाज की समीक्षाएं हो रही होंगी। हालांकि उप्र में चुनावी तैयारियों के तौर पर अभी थोड़ी सी बढ़त कांग्रेस की दिख रही है। गौर करने लायक बात है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उप्र में महीने भर की किसान यात्रा की अनदेखी मीडिया भी नहीं कर पाया।

हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के सामने एक अतिरिक्त चुनौती अपने काम काज या अपनी उपलब्धियां बताने की होती है। इस लिहाज से भाजपा और उप्र की अखिलेश सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। यानी उप्र में सपा और भाजपा को अपने सभी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के उठाए सवालों का सामना करना पड़ेगा।  उप्र में भाजपा भले ही तीसरे नंबर का दल है लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उससे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के नाते सवाल पूछे जाएंगे। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि उसके लिए यह चुनाव मध्यावधि जैसा होगा। रही बात समालवादी पार्टी की तो उसने तो अपनी उपलब्धियों की लंबी चौड़ी सूची तैयार करके पोस्टर और होर्डिग का अंबार लगा दिया है। ये बात अलग है सपा के भीतर ही प्रभुत्व की जोरआजमाइश ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। लेकिन जिस तरह से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जोश और विश्वास के साथ परिस्थियों का सामना किया उससे सपा की छवि को उतनी चोट पहुंच नहीं पाई। इधर उप्र विकास के कामों को फटाफट निपटाने जो ताबड़तोड़ मुहिम चल रही है उसे उप्र विधान सभा चुनाव की तैयारियां ही माना जाना चाहिए।

कांग्रेस ने जिस तरह से उप्र के चालीस जिलों से होकर कि सान यात्रा निकाली है उससे अचानक हलचल मच गई है। दो महीने पहले तक कांग्रेस मुक्त भारत का जो अभियान भाजपा चला रही थी वह भी ठंडा पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में जान फूंक दी। अब तो कांग्रेस के बड़े नेता भी प्रशांत किशोर के सलाह मशविरे को तवज्जो देते दिख रहे हैं। वैसे तो विधान सभा चुनाव अभी छह महीने दूर हैं  लेकिन  कांग्रेस की मेहनत देखकर लगने लगा है कि उसे हल्के में नहीं लिया जा पाएगा। उसने दूसरे बड़े दलों से गठजोड़ लायक हैसियत तो अभी ही बना ही ली है।  

रही बात इस समय दूसरे पायदान पर खड़ी बसपा की तो बसपा के बारे में सभी लोग मानते हैं कि उसके अपने जनाधार को हिलाना डुलाना आसान नहीं है। उसके इस पक्के घर में कितनी भी तोड़फोड़ हुई हो लेकिन जल्दी ही वह बेफर्क मुद्रा में आ गई। पिछले दिनों उसकी बड़ी बड़ी रैलियों से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। हां कार्यकर्ताओं के मनोबल पर तो फर्क पड़ता ही है। वास्तविक स्थिति के पता करने का उपाय तो हमारे पास नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पहुंची चोट का असर उस पर जरूर होगा। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आगे चलकर बसपा गठबंधन के जरिए अपना रास्ता आसान बना ले।

कुलमिलाकर उप्र में मचने वाला चुनावी घमासान चौतरफा होगा। इस चौतरफा लड़ाई में अभी सभी प्रमुख दल अपने बूते पर खड़े रहने का दम भर रहे हैं। कोई संकेत या सुराग नहीं मिलता कि कौन सा दल किस एक के  खिलाफ मोर्चा लेगा। लेकिन केंद्र की राजनीति के दो प्रमुख दल कांग्र्रेस और भाजपा का आमने सामने होना तय है। इसी तरह प्रदेश के दो प्रमुख दल सपा और बसपा के बीच गुत्थमगुत्था होना तय है। लेकिन उप्र के एक ही रणक्षेत्र में एक ही समय में दो तरह के युद्ध तो चल नहीं सकते। सो जाहिर है कि चाहे गठबंधन की राजनीति सिरे चढ़े और चाहे सीटों के बंटवारे के नाम पर हो अंतरदलीय ध्रुवीकरण तो होगा ही। बहुत संभव है कि इसीलिए अभी कोई नहीं भाप पा रहा है कौन किसके कितने नजदीक जाएगा। 

अपने बूते पर ही खड़े रहने की ताल कोई कितना भी ठोक ले लेकिन चुनावी लोकतंत्र में दो ध्रवीय होने की मजबूरी बन ही जाती है। इस मजबूरी को मानकर चलें तो कमसे इतना तय है कि उप्र का चुनाव या तो सपा और बसपा के बीच शुद्ध रूप् से प्रदेश की सत्ता के लक्ष्य को सामने रख कर होगा या कांग्रेस और भाजपा के बीच 2019 को सामने रखकर होगा। पहली सूरत में राष्टीय स्तर के दो बड़े दलों यानी भाजपा और कांग्रेस को तय करना पड़ेगा कि सपा या बसपा में से किसे मदद पहुंचाएं। दूसरी सूरत है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच साधे ही तूफानी भिड़त होने लगे। देश में जैसा माहौल है उसे देखते हुए इसका योग बन सकता है लेकिन उप्र कोई औसत दर्जे का प्रदेश नहीं है। दुनिया के औसत देश के आकार का प्रदेश है। लिहाजा इस चुनाव का लक्ष्य प्रदेश की सत्ता ही होगा। जाहिर है घूमफिर कर लड़ाई का योग सपा और बसपा के बीच ही ज्यादा बनता दिख रहा है। बाकी पीछे से केंद्र के मध्यावधि चुनाव जैसा माहौल दिखता रहेगा।