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Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, February 1, 2021

पधारो म्हारे देस


पूरा साल कोविड के चक्कर में कहीं घूमने जाना नहीं हुआ। इस हफ़्ते हिम्मत करके जैसलमेर, जोधपुर में छुट्टी बिताने का सोचा। थार के रेगिस्तान में बसा जैसलमेर, आमतौर पर इन दिनों हज़ारों विदेशी सैलानियों से पटा रहता है। लेकिन इस बार एक साल से कोई विदेशी पर्यटक नहीं आया, जिससे पर्यटन पर आधारित यहाँ की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ चुकी है। तमाम छोटे बड़े होटल बंद पड़े थे या बंद होने की कगार पे थे। पिछले तीन महीनों में जैसे ही कोविड का डर लोगों के मन से दूर हुआ तो गुजरात, राजस्थान और दिल्ली आदि के पर्यटकों का सैलाब टूट पड़ा। उससे यहाँ के पर्यटन उद्योग को कुछ आक्सीजन मिली है। स्थानीय लोगों का कहना था कि पूरे कोविड काल में जैसलमेर और आसपास के इलाक़े में इस महामारी का कोई ख़ास असर नहीं था। न तो लोगों ने मास्क पहने और न सामाजिक दूरी बनाई। कमोबेश यही हालत सारे देश की रही है। कोविड का जो भी घातक असर देखने को मिला वो केवल मुंबई, इंदौर, दिल्ली जैसे नगरों और मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय परिवारों में ही देखा गया। हमारे मथुरा ज़िले के किसी भी गाँव में कोविड महामारी के रूप में नहीं आया। पर कोविड के आतंक से जिस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाए गए उससे अर्थव्यवस्था की रीढ़ पूरी तरह टूट गई। यही कारण है कि गरीब आदमी, मजदूर, किसान और छोटे दुकानदार और कारख़ानेदार हर शहर में ये प्रश्न करते हैं कि क्या वह सब ज़रूरी था? अगर यह माना जाए कि ऐसी कड़ी रोकथाम से ही भारत में कोविड पर क़ाबू पाया जा सका तो यह भी सही नहीं होगा। क्योंकि जब देश की बहुसंख्यक आबादी ने कोविड के प्रतिबंधों का पालन ही नहीं किया और फिर भी इस महामारी के प्रकोप से ईश्वर ने भारतवासियों की रक्षा की तो यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों में प्रतिरोधी क्षमता, पश्चिमी देशों के लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा है। क्योंकि हम बचपन से विपरीत परिस्थितियों से जूझ कर बड़े होते हैं और वे बहुत ज़्यादा सावधानियों के साथ। 



इस इलाक़े में आने से पहले, एक कल्पना थी कि चारों ओर रेत के टीले ही टीले होंगे। पर राजमार्ग के दोनों तरफ़ हरयाली और खेत देख कर आश्चर्य हुआ। पता चला ये कमाल है इंदिरा नहर का। जिसके आने के बाद से अब यहाँ बारिश भी साल में 10-12 बार हो जाती है। जबकि पहले बारिश सालों में एक बार होती थी। इससे ये सिद्ध होता है कि समुचित जल प्रबंधन से देश का कायाकल्प हो सकता था। आज़ादी के बाद खर्बों रुपया बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं पर खर्च हुआ। बावजूद इसके आज भी हम वर्षा के मात्र 10 फ़ीसदी जल का ही संचयन कर पाते हैं। जबकि 90 फ़ीसदी जल बह कर नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। जल संचयन के राजस्थान के इतिहास को सराहना पड़ेगा। जहां पानी की एक एक बूँद को सोने से भी ज़्यादा क़ीमती मानकर सहेजने की स्थानीय तकनीकी विकसित की गई जो आजतक कारगर हैं। जबकि पाइपलाइन से जल आपूर्ति की ज़्यादातर योजनाएँ समय से पहले ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई। जल के विषय में इतना शोर मच रहा है पर हम अनुभव से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। कुंडों, सरोवरों और तालाबों के जीर्णोद्धार के नाम पर कैसे काग़ज़ी घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं इस पर हम पहले भी काफ़ी लिख चुके हैं। आधुनिक जीवन शैली में हमारे बाथरूम पानी की आपराधिक बर्बादी करते हैं। जबकि जैसलमेर की सबसे धनी सेठों की ‘पटवों की हवेली’ में जिस पानी से नहाया जाता था, उसी को एकत्र करके कपड़े धुलते थे और कपड़े धुलने के बाद उसी पानी से फिर फ़र्श और गली धोए जाते थे। आज हम ऐसा नहीं कर सकते पर पानी की बर्बादी पर रोक लगाने की मानसिकता भी विकसित करने को तैयार नहीं हैं। जबकि हर शहर का भूजल स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है और जल संकट गहराता जा रहा है। 


पर्यटन की दृष्टि से अब भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों ने एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया है। इसलिए इस वर्ग को भी पर्यटन के शिष्टाचार सीखने की ज़रूरत है। आप दुबई के रेगिस्तान में बने ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में जाएं तो आपको प्लास्टिक छोड़ ऊँटों की लीद भी देखने को नहीं मिलेगी। जबकि जैसलमेर के पास मशहूर ‘डेज़र्ट रिज़ॉर्ट’ सम नाम के क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हो गया है। हज़ारों टेंटों में पर्यटक यहाँ रात बिताते हैं पर पूरे क्षेत्र को प्लास्टिक की बोतलों, थैलों, शराब की बोतलों व दूसरे कचरों से पाट कर चले जाते हैं। ऊँट की लीद तो सारे इलाक़े में फैली पड़ी है। इस पर राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग को ध्यान देना चाहिए। 


हमारी इस यात्रा का ‘हाई पोईंट’ था भारत पाकिस्तान के बॉर्डर पर सीमा सुरक्षा बल की पोस्ट पर जा कर उनके जीवन को देखना। जिस गलवान घाटी में बर्फ़ की तहों के अंदर खड़े हो कर हमारे सैनिक सीमा की रक्षा करते हैं। उससे कम नहीं है थार के रेगिस्तान में 55 डिग्री सेल्सियस की तपती लू और कई दिनों चलने वाली काली आँधी में बीएसएफ़ के जवानों का पाकिस्तान के विरुद्ध मोर्चा लेना। इन जवानों और अफ़सरों के हौसले को सलाम हैं। रोचक बात यह पता चली कि जहां भारत ने 1751 किलोमीटर की पूरी सीमा पर कटीले तारों की मज़बूत बाड़, हर 100 मीटर पर सर्च लाइट के खम्बे और निरीक्षण कक्ष बना रखे हैं, वहीं अपनी आर्थिक तंगी के चलते पाकिस्तान ऐसा कुछ भी नहीं किया। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि पाकिस्तान गुरिल्ला युद्ध या आतंकवाद पनपाने का काम तो कर सकता है पर कोई बड़ा युद्ध लड़ने की उसकी औक़ात नहीं है। यह हमारे लिए संतोष की बात है। कुल मिलाकर ‘पधारो म्हारे देस’ का ये अनुभव बहुत रोचक रहा और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में देश की हालत और सुधरेगी और फिर हम सब भारतवासी आनंद और उमंग से वैसे ही जिएँगे जैसा सदियों से जीते आए हैं।        

Monday, July 1, 2019

आतंकवाद और गृहमंत्री अमित शाह

संसद में राष्ट्रपति अभिभाषण पर धन्यवाद  देते हुए, भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने जितना दमदार भाषण दिया, उससे आतंकवादियों के हौसले जरूर पस्त हुए होंगे। श्री शाह ने बिना लागलपेट के दो टूक शब्दों में आतंकवादियों, विघटनकारियों और देशद्रोहियों को चेतावनी दी कि वे सुधर जाऐं, वरना उनसे सख्ती से निपटा जाऐगा।


अब
तक देश ने अमित शाह को भाजपा के अध्यक्ष रूप में देश ने देखा है इस पद रहते हुए उन्होंने एक सेनापति के रूप में अनेक चुनावी महाभारत जिस कुशलता से लड़े और जीते, उससे देश की राजीनीति में उनकी कड़ी धमक बनी है। उनके विरोधी भी यह मानते हैं कि इरादे के पक्के, जुझारू और रातदिन जुटकर काम करने वाले अमित शाह जो चाहते हैं, उसे हासिल कर लेते हैं। इसलिए दिल्ली की सत्ता के गलियारों और मीडिया के बीच यह चर्चा होने लगी है कि अमित शाह शायद कश्मीर समस्या का हल निकालने में सफल हो जाऐं। हालांकि इस रास्तें में चुनौतियाँ बहुत हैं।

गृहमंत्री श्री शाह ने अपने भाषण में यह साफ कहा कि आतंकवादियों को मदद पहुँचाने वालों या शरण देने वालों को भी बख्शा नहीं जाएगा। उल्लेखनीय है कि कश्मीर के खतरनाक आतंकवादी संगठनहिजबुल मुजाईदीनको दुबई और लंदन से रही अवैध आर्थिक मदद का खुलासा 1993 में मैंने ही अपनी विडियो समाचार पत्रिकाकालचक्रके 10वें अंक में किया था। इस घोटाले की खास बात यह थी कि आतंकवादियों को मदद देने वाले स्रोत देश के लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेताओं और बड़े अफसरों को भी यह अवैध धन मुहैया करा रहे थे। इसलिए सीबीआई ने इस कांड को दबा रखा था। घोटाला उजागर करने के बाद मैंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आतंकवादियों को रही आर्थिक मदद के इस कांड की जांच करवाने को कहा।

सर्वोच्च अदालत ने मेरी मांग का सम्मान किया और भारत के इतिहास में पहली बार अपनी निगरानी में इस कांड की जांच करवाई। बाद में यही कांडजैन हवाला कांडके नाम से मशहूर हुआ। जिसने भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया। पर मेरी चिंता का विषय यह है कि इतना सब होने पर भी इस कांड की ईमानदारी से जांच आज तक नहीं हुई और यही कारण है कि आतंकवादियों को हवाला के जरिये, पैसा आना जारी रहा और आतंकवाद पनपता रहा।

उन दिनों हॉंगकॉंग सेफार ईस्र्टन इकोनोमिक रिव्यूके संवाददाता नेहवाला कांडपर मेरा इंटरव्यू लेकर कश्मीर में तहकीकात की और  फिर जो रिर्पोट छपी, उसका निचोड़ यह था कि आतंकवाद को पनपाए रखने में बहुत से प्रभावशाली लोगों के हित जुड़े हैं। उस पत्रकार ने तो यहां तक लिखा कि कश्मीर में आतंकवाद एक उद्योग की तरह है। जिसमें बहुतों को मुनाफा हो रहा है।

उसके दो वर्ष बाद जम्मू के राजभवन में मेरी वहाँ के तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सैना से चाय पर वार्ता हो रही थी। मैंने उनसे आतंकवाद के बारे में पूछा, तो उन्होंने अंग्रेजी में एक व्यग्यात्मक टिप्पणी की जिसका अर्थ था किमुझे ‘‘घाटी के आतंकवादियों’’ की चिंता नहीं है, मुझे ‘‘दिल्ली के आतंकवादियों’’ से परेशानी है अब इसके क्या मायने लगाए जाए?

कल ही मैंने इस सारे मुद्दे पर चर टिप्पणियाँ ट्वीटर पर की है। जिसमें मैंने गृहमंत्री को आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध में सफलता की शुभकामनाओं के साथ इस बात का भी स्मरण दिलाया है किजैन हवाला कांडकी आज तक जांच नहीं हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि गृहमंत्री हवाला कारोबार को पूरी तरह से नियंत्रित करने का काम करेंगे। जिससे आतंकवाद की कमर टूट जाए। उल्लेखनीय है कि 9/11 की घटना के बाद अमरीका की खुफिया एजेंसियों और आयकर विभाग ने ऐसा सख्त जाल बिछाया कि वहाँ किसी भी आतंकवादी को हवाला के जरिये पैसा पहुँचाना नामुमकिन हो गया। नतीजतन अमरीका में 9/11 के बाद कोई उल्लेखनीय आतंकवादी घटना नहीं हुई।

अमित शाह जैसे कुशल सेनापति को किसी की सलाह की जरूरत नहीं होती। वे अपने निर्णय लेने  में स्वयं सक्षम हैं, पर फिर भी उन्हें ये सावधानी बरतनी होगी कि आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कोई निर्णंय लेने से पहले वे उन सभी लोगों से राय जरूर लें, जिनका इस समस्या से लड़ने में गत 30 वर्षों में कुछ कुछ महत्वपूर्णं योगदान रहा है। केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के पुराने निदेशक ही नहीं, जम्मू कश्मीर में नौकरी कर चुके स्वच्छ छबि वाले पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों से भी अमित शाह जी को बात करनी चाहिए। ताकि एक ऐसी रणनीति बने, जो कारगर भी हो और उसमें जानमाल की कम से कम हानि हो।

अगर अमित शाह 72 साल से लटकी हुई कश्मीर की समस्या को हल करवाने में सफल हो जाते हैं, तो वे एक बड़ा इतिहास रचेंगे।