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Monday, February 10, 2020

शिकारा: कश्मीरी प्रेम कथा

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये । 
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। 
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। 
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है । 
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं  ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। 
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर  कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है  गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। 
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। 
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग  करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।

Monday, March 4, 2019

मीडिया अपने गिरेबान में झांके


40 बरस पहले जब हमने टीवी पत्रकारिता शुरू की, तो हमने कुछ मूल सिद्धांतों को पकड़ा था। पहला: बिना प्रमाण के कुछ भी लिखना या बोलना नहीं है। दूसरा: किसी के दिए हुए तथ्यों को बिना खुद परखे उन पर विश्वास नहीं करना। तीसरा: अगर किसी के विरूद्ध कोई विषय उठाना है, तो उस व्यक्ति का उन बिंदुओं पर जबाब या वक्तव्य अवश्य लेना। चैथा:  सभी राजनैतिक दलों से बराबर दूरी बनाकर केवल जनता के हित में बात कहना। जिससे लोकतंत्र के चैथा खंभा होने का दायित्व हम ईमानदारी से निभा सकें। आज 63 बरस की उम्र में भी विनम्रता से कह सकता हूँ कि जहां तक संभव हुआ, अपनी पत्रकारिता को इन चार सिद्धांतों के इर्द-गिर्द ही रखा। ये जरूर है कि इसकी कीमत जीवन में चुकानी पड़ी। पर इसके कारण जीवनभर जो दर्शकों और पाठकों का सम्मान मिलता आया है, वह मेरे लिए किसी पद्मभूषण से कम नहीं है।

ऐसा इसलिए उल्लेख करना पड़ रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा इस सिद्धांतों के विपरीत काम रहा है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता की सारी सीमाओं को लांघकर हमारे कुछ टीवी एंकर और संवाददाता एक राजनैतिक दल के जन संपर्क अधिकारी बन गए हैं। वे न तो तथ्यों की पड़ताल करते हैं, न व्यवस्था से सवाल करते हैं और न ही किसी पर आरोप लगाने से पहले उसको अपनी बात कहने का मौका देते हैं। इतना ही नहीं, अब तो अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की तरह वे ये कहने में भी संकोच नहीं करते कि जो मीडियाकर्मी या नेता या समाज के जागरूक लोग उनके पोषक राजनैतिक दल के साथ नहीं खड़े हैं, वे सब देशद्रोही हैं और जो साथ खड़े हैं, केवल वे ही देशभक्त हैं। मीडिया के पतन की यह पराकाष्ठा है। ऐेसे मीडियाकर्मी स्वयं अपने हाथों से अपनी कब्र खोद रहे हैं।

ताजा उदाहरण पुलवामा और पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के हवाई हमले का है। कितने मीडियाकर्मी सरकार से ये सवाल पूछ रहे हैं कि भारत की इंटेलीजेंस ब्यूरो, रॉ, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर पुलिस, मिल्ट्रिी इंटेलीजेंस व सीआरपीएफ के आला अफसरों की निगरानी के बावजूद ये कैसे संभव हुआ कि साढ़े तीन सौ किलो आरडीएक्स से लदे एक नागरिक वाहन ने सीआरपीएफ के कारवां पर हमला करके हमारे 44 जाँबाज सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए। बेचारों को लड़कर अपनी बहादुरी दिखाने का भी मौका नहीं मिला। कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई? कितनी युवतियां भरी जवानी में विधवा हो गई? कितने नौनिहाल अनाथ हो गए? मगर इन जवानों को शहीद का दर्जा भी नहीं मिला। इस भीषण दुर्घटना के लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे देश की एनआईए ने अब तक क्या जांच की? कितने लोगों को इसके लिए पकड़ा? ये सब तथ्य जनता के सामने लाना मीडिया की जिम्मेदारी है। पर क्या ये टीवी चैनल अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? या रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नौटंकीबाजों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे हैं? आखिर किस लालच में ये अपना पत्रकारिता भूल बैठे हैं?

यही बात पाक अधिकृत कश्मीर पर हुए हवाई हमले के संदर्भ में भी लागू है। पहले दिन से मीडिया वालों ने शोर मचाया कि साढ़े तीन सौ आतंकवादी मारे गए। इन्होंने ये भी बताया कि महमूद अजहर के कौन-कौन से रिश्तेदार मारे गए। इन्होंने टीवी पर हवाई जहाजों से गिरते बम की वीडियो भी दिखाई। पर अगले ही दिन इनको बताना पड़ा कि ये वीडियो काल्पनिक थी। आज उस घटना को एक हफ्ता हो गया। साढ़े तीन सौ की बात छोड़िए, क्या साढ़े तीन लाशों की फोटो भी ये मीडिया वाले दिखा पाऐ ? जिनको मारने का दावा बढ़-चढ़कर किया जा रहा था। जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया मौके पर पहुंचा, तो उसने पाया कि हमारे हवाई हमले में कुछ पेड़ टूटे हैं, कुछ मकान दरके हैं और एक आदमी की सोते हुए मौत हुई है। अब किस पर यकीन करें? सारे देश को इंतजार है कि भारत का मीडिया साढ़े तीन सौ लाशों के प्रमाण प्रस्तुत करेगा। पर अभी तक उसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे। प्रमाण तो दूर की बात रही, इन घटनाओ से जुड़े सार्थक प्रश्न तक पूछने की हिम्मत इन मीडियाकर्मियों को नहीं है। ऐसा लगता है कि अब हम खबर नहीं देख रहे बल्कि झूठ उगलने वाला प्रोपोगंडा देख रहे हैं। जिससे पूरे मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग गया है।

तीसरी घटना हमारे मथुरा जिले की है। हमारे गांव जरेलिया का नौजवान पंकज सिंह श्रीनगर में हैलीकॉप्टर दुर्घटना मे शहीद हो गया। हम सब हजारों की तादात में उसकी शाहदत को प्रणाम करने उसके गांव पहुंचे और पांच घंटे तक वहां रहे। सैकड़ों तिरंगे वहां लहरा रहे थे। हजारों वाहन कतार में खड़े थे। सारा प्रशासन फौज और पुलिस मौजूद थी। जिले के सब नेता मौजूद थे। सैकड़ों गांवों की सरदारी मौजूद थी। वहां शहीद के सम्मान में गगन भेदी नारों से आकाश गूंज रहा था। इतनी बड़ी घटना हुई, पर किसी मीडिया चैनल ने इस खबर को प्रसारित नहीं किया। इस सब से शहीद पंकज सिंह के परिवार को ही नहीं, बल्कि लाखों ब्रजवासियों में भी भारी आक्रोश है। वे मुझसे प्रश्न पूछ रहे हैं कि आप खुद मीडियाकर्मी हैं, ये बताईये कि व्यर्थ की बातों पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया चैनल एक शहीद की अन्त्येष्टि के इतने विशाल कार्यक्रम की क्या एक झलक भी अपने समाचारों में नहीं दिखा सकते थे। जिस शहादत में मोदी जी खड़े दिखाई दें क्या वही खबर होती है? अब इसका मैं उन्हें क्या जबाब दूँ? शर्म से सिर झुक जाता है, इन टीवी वालों की हरकतें देखकर। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दें।

Monday, February 18, 2019

आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो

जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले से पूरा भारत आज दुखी है और आक्रोश में है। इस त्रासदी के समय हम सब प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के साथ हैं। देशवासी चाहते हैं कि आतंकी वारदात पर कड़़ी कार्यवाही हो। पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कड़ी कार्यवाही तो पहले भी होती रही है। प्रश्न है कि जब सुरक्षाबलों का काफिला चलता है, तो उस मार्ग को पहले सुरक्षित कर दिया जाता है। जब ढाई्र हजार जवानों का आधा किलोमीटर लंबा काफिला एक जगह से दूसरी जगह सड़क मार्ग से जा रहा था, तो क्या उस पर ड्रोन से नजर, हेलिकॉप्टर से निगरानी रखते हुए, सुरक्षा कवच नहीं होना चाहिए था? ताकि अगल-बगल से कोई अनाधिकृत गाड़ी या बारूद से भरी कार, बस द्वारा किसी तरह की संदिग्ध गतिविधि न हो। आश्चर्य है कि इतनी भारी मात्रा विस्फोटक का प्रयोग कैसे कर लिया गया? कैसे इन विस्फोटक अतिसंवेनशील क्षेत्र में आतंकवादी तक पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया ऐजेंसी क्या कर रही थी?
अब सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए। हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं कई वर्षों से लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।
आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं। पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। तीसरा कदम संसद को उठाना है द्य ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।
अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। राजनीतिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता।
नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा ह। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।
यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें।
देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें।

Monday, October 3, 2016

आतंकवाद से निपटने के लिए और क्या करें



छप्पन इंच का सीना रखने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने वो कर दिखाया जिसका मुझे 23 बरस से इंतज़ार था | उन्होंने पाकिस्तान को  ही चुनौती नही दी बल्कि आतंकवाद से लड़ने की दृढ इच्छा शक्ति दिखाई है | जिसके लिए वे और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलहाकार अजीत डोभाल दोनों बधाई के पात्र हैं | यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को दुबई और लन्दन से आ रही अवैध आर्थिक मदद के खिलाफ हवाला काण्ड को उजागर कर सर्वोच्च न्यायलय में जनहित याचिका दायर की थी, तब किसी ने इस खतरनाक और लम्बी लड़ाई में साथ नहीं दिया | तब न तो आतंकवाद इतना बढ़ा था और न ही तब इसने अपने पैर दुनिया भर में पसारे थे | तब अगर देश के हुक्मरानों, सांसदों, जांच एजेंसियों और मीडिया ने आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में साथ दिया होता तो भारत को हजारों बेगुनाह और जांबाज़ सिपाहियों और अफसरों की क़ुरबानी नहीं देनी पड़ती | आज टीवी चैनलों पर जो एंकर परसन और विशेषज्ञ उत्साह में भर कर आतंकवाद के खिलाफ लम्बे चौड़े बयान दे रहे हैं वे 1993 से 1998 के दौर में अपने लेखों और वक्तव्यों को याद करें तो पायेंगे कि उन्होंने उस वक्त अपनी ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह नहीं किया |

हवाला काण्ड उजागर करने के बाद से आज तक देश विदेश के सैंकड़ों मंचों पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में मैं इन सवालों को लगातार उठाता रहा हूँ | मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद देश के दो दर्जन बड़े उद्योगपतियों ने मुझे मुम्बई बुलाया था वे सब बुरी तरह भयभीत थे | जिस तरह आतंकवादियों ने ताज होटल से लेकर छत्रपति शिवाजी स्टेशन तक भारी नरसंहार किया उससे उनका विश्वास देश की पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था पर से हिला हुआ था | वे मुझसे जानना चाहते थे कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाय| जो बात तब मैंने उनके सामने रखी वही आज एक बार फिर दोहराने की जरूरत है | अंतर इतना है कि आज देश के भीतर और देश के बाहर श्री नरेंद्र मोदी को आतंकवाद से लड़ने में एक मजबूत नेतृत्व के रूप में देखा जा रहा है | साथ ही देशवासियों और दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है | ऐसे में प्रधान मंत्री अगर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो उसका विरोध करने वालों को देशद्रोही समझा जायेगा और जनता ऐसे लोगों को सडकों पर उतर कर सबक सिखा देगी | हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तय्यारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती | देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है | प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें|

आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार | वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया | नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई | जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं | पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है | इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता | तीसरा कदम संसद को उठाना है | ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सज़ा सुनाई जा सके | जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा |

आज के माहौल में ऐसे कड़े कदम उठाना मोदी सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है | क्योंकि जनमत उसके पक्ष में है | आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है | भारत में ही नहीं पाकिस्तान तक में आम जनता का जीवन आतंकवादियों ने खतरे में डाल दिया है | कौन जाने कब, कहाँ और कैसे आतंकवादी हमला हो जाय और बेकसूर लोगों की जानें चली जाएं | इसलिए हर समझदार नागरिक, चाहे किसी भी देश या धर्म का हो, आतंकवाद को समाप्त करना चाहता है | उसकी निगाहें अपने हुक्मरानों पर टिकी हैं | मोदी इस मामले में अपने गुणों के कारण सबसे आगे खड़े हैं | आतंकवाद से निपटने के लिए वे सीमा के पार या सीमा के भीतर जो भी करेंगे सब में जनता उनका साथ देगी |
जामवंत कहि सुन हनुमाना | का चुप साध रह्यो बलवाना ||

Monday, March 25, 2013

आतंकवाद, संजय दत्त और हवाला कारोबार


दिल्ली की एक अदालत ने जैन हवाला काण्ड की 1991 में जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा को इस केस में टाडा नहीं लगाने की ऐवज में 10 लाख रूपये की रिश्वत लेने के आरोप में सजा सुनाई है। उधर टाडा के आरोपी संजय दत्त को सर्वोच्च न्यायालय से सजा सु
यहाँ इस घटना का उल्लेख करना इसलिए सार्थक है कि दोनों घटनाऐं एक ही वर्ष में एक साथ घटीं थीं। हवाला काण्ड का उजागर होना और संजय दत्त पर मुम्बई बम विस्फोट की साजिश में शामिल होने का आरोप लगना। दोनों मामलों में पैसा या हथियार का स्रोत दाउद इब्राहिम था। दोनों आतंकवाद की घटनाओं से जुड़े मामले थे। अंतर इतना है कि एक में एक फिल्मी सितारा आरोपित था, जिसे 20 वर्ष बाद ही सही, उसके आरोप के मुताबिक सजा मिल गयी। जबकि दूसरे मामले में केवल 5 वर्ष बाद, 1998 में ही हवाला काण्ड में आरोपित देश के 115 बड़े नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, विपक्ष के नेता और आला अफसर बाइज्जत बरी हो गए। सबसे ज्यादा चैंकाने और निराश करने वाली बात यह रही कि मेरी जनहित याचिका में हवाला काण्ड के आतंकवाद वाले पक्ष पर सी0बी0आई0 को निर्देशित कर निष्पक्ष जाँच कराने की जो प्रार्थना की गयी थी, उसे बड़ी होशियारी से दरकिनार कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई कर रहे, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे0एस0 वर्मा ने इस केस को प्रारम्भ में सबूतों से युक्त अभूतपूर्व बताते हुए भी बाद में इसे खारिज करवाने की शर्मनाक भूमिका निभाई।

यहाँ मैं संजय दत्त को मिली सजा से अपनी असहमति व्यक्त नहीं कर रहा, बल्कि यह दर्ज कराना चाहता हूँ कि 25 मार्च, 1991 को जब दिल्ली पुलिस ने हिज्बुल मुजाहिदीन के डिप्टी चीफ ऑफ इंटेलीजेंस अशफाक हुसेन लोन और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के छात्र शाहबुद्दीन गौरी को हिज्बुल मुजाहिदीन की मदद के लिए भेजे जा रहे लाखों रूपयों और बैंक ड्राफ्टों के साथ पकड़ा था, तब यह आतंकवाद का ही मामला दर्ज हुआ था। उसी क्रम में आगे छापे पड़े और 3 मई, 1991 को जैन बंधुओं के अवैध खाते पकड़े गये, जिसमें देश के सर्वोच्च सत्ताधीशों को मिले भुगतानों का विस्तृत ब्यौरा था। इसलिए यह टाडा, फेरा, भ्रष्टाचार निरोधक कानून व आयकर कानून के तहत मामला था। सी0बी0आई0 ने टाडा और फेरा के तहत इसे दर्ज भी किया। पर बाद में टाडा वाले पक्ष की उपेक्षा कर दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय में बार-बार इस बात को मेरे द्वारा शपथपत्रों के माध्यम से उठाने के बावजूद जे0एस0वर्मा ने परवाह नहीं की। इस सारे घटनाक्रम का सिलसिलेवार और तथ्यों सहित विवरण मेरी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में है। पिछले हफ्ते सी0बी0आई0 के पूर्व डी0आई0जी0 ओ0पी0 शर्मा पर दिल्ली की निचली अदालत ने इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही न करने का आरोप लगाकर सजा सुनाई है। जबकि ओ0पी0शर्मा की हवाला केस फाइल में दर्ज टिप्पणीयों में बार-बार आरोपियों को टाडा के तहत गिरफ्तार करने की सिफारिश की गयी थी। उधर 16 जून, 1991 के बाद से इस मामले की जाँच कर रहे सी0बी0आई0 के डी0आई0जी0 आमोद कंठ ने अगले साढ़े चार साल तक भी इस मामले में टाडा के तहत कार्यवाही नहीं की। बावजूद इसके हवाला आरोपियों को बचाने की ऐवज में वे लगातार तरक्कीयां लेते गए और अरूणाचल के पुलिस महानिदेशक तक बने। अब यह मामला एक बार फिर दिल्ली उच्च न्यायालय में खुलेगा। कुल मिलाकर यह साफ है कि हवाला केस के टाडा पक्ष को जानबूझकर दबा दिया गया और आरोपियों को बचने के रास्ते दे दिए गए।

इस आपबीते अनुभव के बाद क्या मुझ जैसे पत्रकार और आम नागरिक को देश की सर्वोच्च अदालत से यह प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं है कि आतंकवाद से जुड़े दो मामलों में न्यायालयों के मापदण्ड अलग-अलग क्यों हैं? 1993 के बाद के उस दौर में ईमेल, एस.एम.एस. या टी.वी. चैनल तो थे नहीं, जो मैं अपनी बात मिनटों में ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ की तर्ज पर दुनिया के कोने-कोने में पहुँचा देता। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और 1993 से 1998 तक छात्रों, पत्रकारों, वकीलों व नागरिकों के निमन्त्रण पर देश के कोने-कोने में जाकर उन्हें सम्बोधित करता रहा और इस केस को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में अकेले एक लम्बी लड़ाई लड़ी।

1996 में जब देश के इतिहास में पहली बार इतने सारे ताकतवर लोग एक साथ चार्जशीट हुए तो पूरी दुनिया के मीडिया में हड़कम्प मच गया। दुनियाभर से हर भाषा के टी.वी. चैनलों ने दिल्ली आकर मेरे साक्षात्कार लिये और विश्वभर में प्रसारित किये और यह मामला पूरी दुनिया में मशहूर हो गया। फिर भी इन्हीं लोगों ने इस तरह साजिश रची कि न्यायमूर्ति वर्मा ने बड़ी आसानी से अपनी ही लाइन से यू-टर्न ले लिया। दिसम्बर, 1998 से तो एक-एक करके सब बरी होते गए और देश में प्रचारित कर दिया कि इस मामले में कोई सबूत नहीं हैं। मेरी पुस्तक पढ़ने वाले यह जानकर हतप्रभ रह जाते हैं कि इतने सारे टी.वी. चैनल देश में होने के बावजूद ऐसा क्यों है कि जो तथ्य सप्रमाण इस पुस्तक में दिए गए हैं, वे इनकी जानकारी तक नहीं पहुँचे?

चार हफ्ते बाद संजय दत्त एक बार फिर जेल के सीखचों के पीछे होंगे और अगले साढ़े तीन वर्षों में अपनी गलती पर चिंतन करेंगे। पर न्यायपालिका के इस फैसले के बावजूद देश के आतंकवादियों को हवाला के जरिए आ रही आर्थिक मदद पर कोई रोक नहीं लगेगी। क्योंकि ऐसे तमाम मामले आज भी सी0बी0आई0 की कब्रगाह में दफन हैं। जबकि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमरीका ने हवाला कारोबार पर इतनी प्रभावी रोक लगाई है कि वहाँ आज तक दूसरी आतंकवादी घटना नहीं हुई।

नाई गयी है। सितम्बर, 1993 की बात है, मैं और मेरे सहयोगी मुम्बई के नरीमन प्वाइंट स्थित वकील राम जेठमलानी के चैम्बर में पहुँचे। वहाँ फिल्मी सितारे और इंका नेता सुनील दत्त और उनका युवा बेटा संजय दत्त पहले से बैठे थे। श्री जेठमलानी ने दफ्तर आने में काफी देर कर दी तो हम लोग बैठे बतियाते रहे। संजय बहुत नर्वस था। लगातार चहल-कदमी कर रहा था। सुनील दत्त जी से पूर्व परिचय होने के कारण उन्होंने हमारे आने का कारण पूछा। तब तक मैं अपनी वीडियो मैग्जीन कालचक्र का वह अंक जारी कर चुका था, जिसमें कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का मैंने खुलासा किया था, जो बाद में जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर हुआ। पर राजनेताओं ने सैंसर बोर्ड से प्रतिबंध लगवाकर कालचक्र के इस अंक को बाजार में नहीं आने दिया था। इसलिए मैं श्री जेठमलानी से अपनी जनहित याचिका तैयार करवाने मुम्बई गया था। संजय दत्त की घबराहट देखकर मैंने संजय से कहा कि तुम्हारे अपराध से कहीं बड़ा संगीन अपराध करने वाले देश के अनेक बड़े नेताओं और अफसरों को तो मैंने ही पकड़ लिया है। अब देखना यह होगा कि अदालत उनका क्या करती है? इससे ज्यादा मैंने संजय को कुछ नहीं बताया और लंच करने उसी ईमारत की सीढ़ियों से उतरने लगा। मुझे याद है कि संजय दो मंजिल तक दौड़ता हुआ मेरे पीछे आया और बोला, ‘‘सर प्लीज बताईये कि ऐसा कौन सा मामला आपने उजागर किया है, जो मेरे ऊपर लगे आरोप से बड़ा है।’’ मैंने कहा कि अभी नहीं, समय आने पर तुम खुद जान जाओगे। उसके बाद संजय जेल चला गया। उसका सचिव पंकज मुझसे कभी-कभी फोन पर बात करता था। एक बार मैंने उसे भगवत्गीता व अन्य धार्मिक पुस्तकें संजय को ऑर्थर जेल में देने के लिए भी भेजीं। बाद में हवाला काण्ड को लेकर जो कुछ हुआ वह जगजाहिर इतिहास है।

Monday, July 18, 2011

आतंकवाद ने फिर उगला जहर

Punjab Kesari 18 July

मुम्बई में हुए धमाकों ने फिर याद दिला दिया कि आतंकवादी कुछ दिन चुप भले ही बैठ जाएं, पर अपनी नापाक करतूतों से बाज आने वाले नहीं हैं। ऐसे धमाकों के बाद हमेशा ही आरोप की अंगुलियाँ स्थानीय पुलिस और आई.बी. की तरफ उठायी जाती है। बेशक इन दो विभागों पर ही ज्यादा जिम्मेदारी होती है आम आदमी की सुरक्षा को सुनिश्चित करने की। इसलिए धमाके होते ही टी.वी. के ऐंकर पर्सन इन दोनों एजेंसियों की तरफ अंगुलियाँ उठाने लगते हैं। बेशक अगर ये एजेंसियाँ मुस्तैद रहें तो ऐसी वारदातों को काफी हद तक रोका जा सकता है। पर क्या केवल यही दो एजेंसियाँ 121 करोड़ लोगों के मुल्क में हर कस्बे, हर नगर, हर स्टेशन, हर बाजार पर इतनी कड़ी नजर रख सकती है? सम्भव ही नहीं है। 

दरअसल हर बार जब आतंकवादी घटना घटित होती है और मृतकों और घायलों के दिल दहला देने वाले दृश्य दिखाए जाते हैं, तो सभी बैचेन हो जाते हैं। राजनेता बयानबाजी में जुट जाते हैं और पत्रकार घटना का विश्लेषण करने में। पर आतंकवाद की जड़ पर कोई प्रहार नहीं करता। इस काॅलम में हमने बार-बार उन बुनियादी समस्याओं का जिक्र किया है, जिनका हल ढंूढे बिना आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। जरूरत है इन समस्याओं का हल ढूंढने की। पहली समस्या है आतंकवादियों को मिल रहा स्थानीय संरक्षण। दूसरी उन्हंे मिल रहा अवैध धन, जो हवाला कारोबारियों की मार्फत मुहैया कराया जाता है। तीसरा कारण है, आतंकवाद में पकड़े गए अपराधियों के खिलाफ लम्बी कानूनी प्रक्रिया। जिससे सजा का असर नहीं पड़ता। चैथी समस्या है, आतंकवाद से निपटने के लिए स्थानीय पुलिस को खुली छूट न देना, बल्कि आतंकवादियों को राजनैतिक संरक्षण देना।  

आतंकवादियों को मिल रहे स्थानीय प्राश्रय पर आज तक चोट नहीं की गई है। भारत के कई सौ छोट-बड़े शहरों में धर्म स्थलों और तंग गलियों में रहने वाले लोगों के पास अवैध जखीरा भरा पड़ा है। भारत की खुफिया ऐजेंसियाँ सरकार को बार-बार चेतावनी देती रहीं है। इस जखीरे को बाहर निकालने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए। जो किसी भी राजनैतिक दल के नेताओं में दिखाई नहीं देती। देश के कस्बों और धर्म स्थलों से अवैध जखीरा निकालने का जिम्मा यदि भारत की सशस्त्र सेनाओं को सौंप दिया जाए तो काफी बड़ी सफलता हाथ लग सकती है। यह एक कारगर पहल होगी। पर राजनैतिक दखलअंदाजी ऐसा होने नहीं देगी। अगर ऐसा हो तो साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद से निपटने वाले सैन्य बलों और पुलिस बलों को मानवाधिकार आयोग के दायरे से मुक्त रखा जाए। वरना होगा यह कि जान पर खेल कर आतंकवादियों से लड़ने वाले जांबाज बाद में अदालतों में धक्के खाते नजर आएंगे। 

इसके साथ ही यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि आतंकवादियों को वित्तीय मदद पहुँचाने का काम हवाला कारोबारियों द्वारा किया जाता है। देश में हवाला कारोबार से जुड़े कई खतरनाक कांड सी.बी.आई. की निगाह में आए हैं। पर शर्म की बात है कि इन कांडों की पूरी तहकीकात करने के बजाय सी.बी.आई. लगातार इन्हें दबाने का काम करती आई है। ऐसा क्यों होता है? लोकतंत्र में जनता को यह हक है कि वह जाने कि जिन खुफिया या जाँच एजेंसियों को आतंकवाद की जड़ें खोजने का काम करना चाहिए, वे आतंकवादियों को गैर कानूनी संरक्षण देने का काम क्यों करती आईं हैं? उन्हें सजा क्यों नहीं दिलवा पाती? क्या इसके लिए राजनेता जिम्मेदार हैं? जो खुद भी हवाला कारोबारियों से जुडें हैं और डरते हैं कि अगर हवाला काण्डों की जाँच हुई तो उनका राजनैतिक भविष्य दांव पर लग जाएगा। 

देश की संसद पर आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार ठहराये गए अफजल गुरू का मामला हो या मुम्बई हमलों के एकमात्र जिंदा बचे आतंकी हमलावर अजमल कसाब का मामला। हमारी अदालतों में कानून की इतनी धीमी और लम्बी प्रक्रिया चलती है कि अपराधिकयों को या तो सजा ही नहीं मिलती और अगर मिलती भी है तो इतनी देर के बाद कि उस सजा का कोई असर समाज पर नहीं पड़ता। जरूरत इस बात की है कि आतंकवाद से जुड़े हर मामले को निपटाने के लिए अलग से तेज अदालतों का गठन हो और हर आतंकवादी के मुकदमें की सुनवाई 6 महीने की समयसीमा के भीतर समाप्त कर दी जाए। जिसके बाद उसे सजा सुना दी जाए।  

इसके साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को आतंकवाद से निपटने की पूरी छूट दी जाए। उनके निर्णयों को रोका न जाए। अगर हर जिले का पुलिस अधीक्षक यह ठान ले कि मुझे अपने जिले से आतंकवाद का सफाया करना है तो वह ऐसे अभियान चलाएगा जिनमें उसे जनता का भारी सहयोग मिलेगा। आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले बेनकाब होगें। जिले में जमा अवैध जखीरे के भंडार पकड़े जाएंगे। पर कोई भी प्रांतीय सरकार अपने पुलिस अधिकारियों को ऐसी छूट नहीं देती। पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए जब के. पी.एस. गिल को पंजाब के मुख्य मंत्री बेअंत सिंह ने तलब किया तो गिल की शर्त थी कि वे अपने काम में सीएम और पीएम दोनों का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्हें छूट मिली और दुनिया ने देखा कि पंजाब से आतंकवाद कैसे गायब हो गया। मानव अधिकार की बात करने वाले ये भूल जाते हैं कि हजारों लोगों की जिंदगी नाहक तबाह करने वाले के भीतर मानवीयता है ही नहीं। घोर पाश्विकता है। ऐसे अपराधी के संग क्या सहानुभूति की जाए? 

अगर इन चारों समस्याओं का हल ईमानदारी से लागू किया जाए, तो काफी हद तक आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि देश के जागरूक नागरिक, मीडिया और वकील मिलकर सरकार पर दबाव डालें कि वे इन कदमों को उठाने में हिचक महसूस न करें। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हमें कभी भी, कहीं भी आतंकी हमले के शिकार बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।