Showing posts with label UPA. Show all posts
Showing posts with label UPA. Show all posts

Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, January 22, 2024

कैसे सार्थक हो श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा?


हर राष्ट्र के इतिहास में कोई पल ऐसा आता है जो मील का पत्थर बन जाता है। आज पूरी दुनिया के सनातन धर्मी हिंदुओं के जीवन में वो क्षण आया है जब जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मस्थली व राजधानी अयोध्या जी पूरे वैभव के साथ विश्व के मानचित्र पर सदियों बाद पुनः प्रगट हुई है। इसलिए देश और विदेश में रहने वाले हिंदुओं के मन उल्लास से भरे हैं।यह सही है कि श्रीराम जन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद को हटाने में सदियों से हज़ारों लोगों ने बलिदान दिया और सैंकड़ों ने इस आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर पूरे अयोध्या नगर को जो भव्य रूप आज मिला है वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पनाशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 



इसलिए मोदी जी की आलोचना करने वालों की बात का भाजपा समर्थक हिंदू समाज पर वैसा असर नहीं पड़ रहा जैसी उनकी अपेक्षा रही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जिन मुद्दों को विपक्ष के नेता उठा रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण हैं। निःसंदेह देश के युवाओं के लिए बेरोज़गारी विकराल रूप धारण करके खड़ी हुई है। दस बरस पहले मोदी जी ने हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वायदा किया था। यानी अब तक बीस करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाना चाहिए था। जबकि आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। ऐसे ही अन्य मुद्दे भी हैं जिनको लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि मंदिर निर्माण पूरा हुए बिना ही इतना भव्य उद्घाटन करने का उद्देश्य केवल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इसलिए विपक्ष के नेता इसे राजनैतिक कार्यक्रम मान रहे हैं और इसलिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के न्योते पर 22 तारीख़ को अयोध्या नहीं गये। उनका कहना है कि भगवान श्री राम के दर्शन करने वे अपनी श्रद्धा अनुसार भविष्य में अवश्य जाएँगे। 



विपक्ष का यह आरोप सही है कि आज का कार्यक्रम लोकसभा के चुनाव की दृष्टि से आयोजित किया गया है। पर इसमें अनहोनी बात क्या है? लोकतंत्र में हर राजनेता जो कुछ करता है वो वोटों पर नज़र रख कर ही करता है। कांग्रेस के शासन काल में भी ऐसे अनेक बड़े आयोजन हुए या फ़ैसले लिये गये जिनकी उस समय यही उपयोगिता थी कि उनसे कांग्रेस को वोट जुटाने में मदद मिले। अभी पिछले ही हफ़्ते हिंदुओं के चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी  में जगन्नाथ जी के मंदिर के नये बने भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन बीजू जनता दल के नेता और उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने किया। निःसंदेह उनका यह प्रयास दुनिया भर के सनातन धर्मियों, विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को आह्लादित करने वाला है। पर परोक्ष रूप से उद्देश्य तो इसका भी उड़ीसा का चुनाव जीतना है, जो इस वर्ष के अंत में होने वाला है।



इस तरह की राजनैतिक टीका-टिप्पणियाँ तो हर दल अपने विरोधियों पर हमेशा करता ही आया है। भाजपा ने भी विपक्ष में रह कर हमेशा यही किया जो आज विपक्ष भाजपा के विरोध में कर रहा है। इसलिए इस राजनैतिक बहसबाजी में न पड़ कर आज हम अपना मंथन अयोध्या के धार्मिक पक्ष पर ही केंद्रित रखना चाहेंगे। क्योंकि आज हम सब ‘राममय’ भाव में आकंठ डूबे हुए हैं। अयोध्या का यह विकास भारत के सनातन धर्मियों की आस्था के साथ ही हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। पर उत्साह के अतिरेक में हमें अपनी भावनाओं को ग़लत दिशा में जाने से रोकना होगा। अन्यथा हमारी बयानबाज़ी और ट्विटरबाज़ी सनातन धर्म के लिए आत्मघाती होगी। जिस तरह ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के प्रभाव में आकर अशोभनीय तरीक़े से सनातन धर्म के आधारस्तम्भ परम श्रद्धेय शंकराचार्यों पर तथ्यहीन और छिछली टिप्पणियाँ की जा रही हैं, उनके घातक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। 


अयोध्या मामले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में लगातार पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील डॉ पी एन मिश्रा ने एक न्यूज़ चैनल को दिये साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि श्री राम जन्मभूमि के पक्ष में जो अदालत के निर्णय आए उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका द्वारिका पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की रही। उन्हीं के द्वारा दिये गये प्रमाणों को न्यायाधीशों ने अकाट्य माना और इसलिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के नाम का उल्लेख अपने लिखित आदेश में भी किया। डॉ मिश्रा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी के तर्कों को अदालत ने प्रामाणिक न मानते हुए ख़ारिज कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत से जो आदेश मिला उसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पर विडंबना देखिए कि सड़क छाप लोग श्रद्धेय शंकराचार्यों से पूछ रहे हैं कि उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? दूसरी तरफ़ श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी को इस तरह महिमा मंडित किया जा रहा है, मानो कि अदालत का फ़ैसला उन्हीं के कारण मिला हो। 


कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति या क़ानून का जानकार अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पढ़ कर तथ्य जान सकता है। इसलिए चाहे शंकराचार्यों की बात हो या रामभद्राचार्य जी जैसे अन्य संतों की बात हो, हमें अपने संतों प्रति ऐसी छिछली टिप्पणी करने से बचना चाहिए। यथासंभव सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई असहमति का बिंदु हो तो उसे मर्यादा में रहकर ही निवेदन करना चाहिए।


निःसंदेह मोदी जी के प्रयासों से आज भारत में हिंदू नव-जागरण हुआ है। जिसका प्रमाण है तीर्थों बढ़ती श्रद्धालुओं की अपार भीड़। पर इसके साथ ही सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों का अनेक मामलों में हनन भी हो रहा है। जिससे आस्थावान सनातन धर्मीं और शंकराचार्य जैसे निष्ठावान संत व्यथित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘गुरु, सचिव और वैद्य शासक को प्रसन्न करने के लिए यदि झूठ बोलते हैं तो वे उसका अहित ही करते हैं।’ आदरणीय शंकराचार्यों द्वारा आज की जा रही कुछ टिप्पणियों को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। वैसे भी बिना किसी संगठन के, बिना राजनैतिक कार्यकर्ताओं की फ़ौज के और बिना मीडिया के प्रोपेगंडा के 500 वर्ष पहले भगवान श्रीराम को भारत के हर घर में पहुँचाने का काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिख कर किया था। इसलिए भी भाजपा व संघ के नेतृत्व को गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए और भारत की सनातन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी आलोचना को उदारता से स्वीकार करना चाहिए और जहां उनकी कमी हो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। तभी सार्थक होगी भगवान श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा। फ़िलहाल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव पर सबको बधाई।    

Monday, October 2, 2023

आयाराम-गयाराम की बेला

लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनैतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। तीस बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है। पर पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लग रहा था कि शायद दो ध्रुवीय राजनीति शक्ल ले लेगी। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है। मगर विपक्षी दलों ने जिस तरह भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर लड़ना तय किया है उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।



उधर भाजपा का अपने सहयोगी दलों को रोक कर रखना मुश्किल होता जा रहा है। चंद्रबाबु नायडू के बाद एडीएमके का एनडीए से अलग होना बताता है कि एनडीए ख़ेमे में सब कुछ ठीक नहीं है। अब देखना होगा कि बीजेपी क्या रणनीति तय करती है। जिस तरह भाजपा अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को आगामी विधान सभा चुनावों में उतार रही है उसकी चिंता साफ़ नज़र आ रही है। इस बात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि आखिर इसकी ज़रूरत क्यों आन पड़ी? 


भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी जी के पक्ष में जानता खड़ी है और माहौल इतना ज़बरदस्त है तो भाजपा ऐसे कदम क्यों रही है? क्या वोटर अपने स्थानीय नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या स्थानीय नेता स्थानीय मुद्दों को सही से सुलझा नहीं पा रहे? क्या वे अपने शासन काल में जानता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाये? 



लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी घटना है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता। पिछले कुछ महीनों के विधान सभाओं के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा ने जिस कदर बड़े से बड़े स्टार नेताओं और प्रचारकों की फ़ौज लगाई थी, राज्यों के चुनावों में उसके मुताबिक़ नतीजे नहीं आए। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने यह सवाल उठाया जा रहा है कि वे पूर्ण बहुमत का आंकड़ा लाएगी कहाँ से? अगर भाजपा के स्थानीय नेताओं को राज्यों के आगामी चुनावों में टिकट भी नहीं मिल रहा है तो क्या वे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भाजपा के लिए प्रचार करेंगे  या वो भी राजनैतिक ख़ेमा बदल सकते हैं? 


विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना आसान नहीं है। जो-जो दल भाजपा के समर्थन में 2014 में जुड़े थे उनमें से कई दल अब भाजपा से अलग हो चुके हैं। ऐसे में यदि विपक्षी दल एकजुट हो कर भाजपा और उनके सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ एक-एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो जो ग़ैर भाजपाई वोट बंट जाते थे वो सभी मिल-जुल कर भाजपा के ख़िलाफ़ मुश्किल ज़रूर खड़ी कर सकते हैं। 



ऐसे में भाजपा को गठबंधन के लिए अपनी कोशिशें जारी रखना स्वाभाविक होगा। यह बात अलग है कि पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी क़ायम है। पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। इसलिये ऐसा माहौल बनाये रखना उनकी चुनावी मजबूरी है। 


सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं। बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चलता आया है। मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उस माहौल को हवा दी है। लेकिन इन छोटे-छोटे दलों का एनडीए गठबंधन से अलग होना उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाएगा। कितना ? इसका अंदाज़ा आनेवाले पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों से भी लग जाएगा।  भाजपा को घेरने वाले हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी। वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी। इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते हैं कि आज की परिस्थिति में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे? इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम तीसरी बार सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे। यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्थितियों के हिसाब से बताई जाती है। लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे-छोटे दल भाजपा की ओर पहले ही चले आएँ। अब स्थिति यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है। उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं।


कुल मिलाकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के भाजपा या विपक्षी गठबंधन से ध्रुविकरण की शुरुआत हो चुकी है। एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी। बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं। ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ। उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है। जब तक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता। इसीलिए आने वाले समय में भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना फ़िलहाल नहीं दिखती।


वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश ये ही स्थिति है। विभिन्न विपक्षी दलों ने बीजेपी से भिड़ने को अपना हिसाब भेजने का मन बना लिया है। लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया धीमी पड़ सकती है। खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है। आने वाले हफ़्तों में चुनावी रंग और ज़ोर से जमेगा। 

Monday, September 25, 2023

महिलाओं को पचास फ़ीसदी आरक्षण मिले


तैंतीस फ़ीसदी ही क्यों, पचास फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए होना चाहिए। इस पचास फ़ीसदी में से दलित और वंचित समाज की महिलाओं का कोटा भी आरक्षित होना चाहिए। आज़ादी के 75 वर्ष बाद देश की आधी आबादी को विधायिका में एक तिहाई आरक्षण का क़ानून पास करके पक्ष और विपक्ष भले ही अपनी पीठ थपथपा लें पर ये कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। जब महिलाएँ देश की आधी आबादी हैं तो उन्हें उनके अनुपात से भी कम आरक्षण देने का औचित्य क्या है? 


क्या महिलाएँ परिवार, समाज और देश के हित में सोचने, समझने, निर्णय लेने और कार्य करने में पुरुषों से कम सक्षम हैं? देखा जाए तो वे पुरुषों से ज़्यादा सक्षम हैं और हर कार्य क्षेत्र में नित्य अपनी सफलता के झंडे गाढ़ रहीं हैं। यहाँ तक कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान की पायलट तक महिलाएँ बन चुकी हैं। दुनिया की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीईओ तक भारतीय महिलाएँ हैं। अनेक देशों में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री पदों पर महिलाएँ चुनी जा चुकी हैं और सफलता पूर्वक कार्य करती रहीं हैं। अगर ज़मीनी स्तर पर देखा जाए तो उस मजदूरिन का ध्यान कीजिए जो नौ महीने तक गर्भ में बालक को रखे हुए भवन निर्माण के काम में कठिन मज़दूरी करती हैं और उसके बाद सुबह-शाम अपने परिवार के भरण पोषण का ज़िम्मा भी उठाती हैं। अक्सर इतना ही काम करने वाले पुरुष मज़दूर मज़दूरी करने के बाद या तो पलंग तोड़ते हैं या दारू पी कर घर में तांडव करते हैं।



हमारे देश की राष्ट्रपति, जिस जनजातीय समाज से आती हैं वहाँ की महिलाएँ घर और खेती के दूसरे सब काम करने के अलावा ईंधन के लिए लकड़ी बीन कर भी लाती हैं। जब हर कार्य क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से आगे हैं तो उन्हें आबादी में उनके अनुपात के मुताबिक़ प्रतिनिधित्व देने में हमारे पुरुष प्रधान समाज को इतना संकोच क्यों है ? जो अधिकार उन्हें दिये जाने की घोषणा संसद के विशेष अधिवेशन में दी गई वो भी अभी 5-6 वर्षों तक लागू नहीं होगी। तो उन्हें मिला ही क्या कोरे आश्वासन के सिवाय। 


इस संदर्भ में कुछ अन्य ख़ास बातों पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। आज के दौर में ग्राम प्रधान व नगर पालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए व महानगरों के मेयर पद के लिये जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं उनका क्या हश्र हो रहा है, ये भी देखने व समझने की बात है। देश के हिन्दी भाषी प्रांतों में एक नया नाम प्रचलित हुआ है, ‘प्रधान पति’। मतलब यह कि महिलाओं के लिए आरक्षित इन सीटों पर चुनाव जितवाने के बाद उनके पति ही उनके दायित्वों का निर्वाह करते हैं। ऐसी सब महिलाएँ प्रायः अपने पति की ‘रबड़ स्टाम्प’ बन कर रह जाती हैं। अतः आवश्यक है कि हर शहर के एक स्कूल और एक कॉलेज में नेतृत्व प्रशिक्षण का कोर्स चलाया जाए। जिनमें दाख़िला लेने वाली महिलाओं को इन भूमिकाओं के लिए प्रशिक्षित किया जाए, जिससे भविष्य में उन्हें अपने पतियों पर निर्भर न रहना पड़े। 



इसके साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालयों से ये निर्देश भी जारी हों कि ऐसी सभी चुनी गई महिलाओं के पति या परिवार का कोई अन्य पुरुष सदस्य अगर उनका प्रतिनिधत्व करते हुए पाए जाएँगे तो इसे दंडनीय अपराध माना जाएगा। उस क्षेत्र का कोई भी जागरूक नागरिक उसकी इस हरकत की शिकायत कर सकेगा। आज तो होता यह है कि ज़िला स्तर की बैठक हो या प्रदेश स्तर की या चुनी हुई इन प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण का शिविर हो, हर जगह पत्नी के बॉडीगार्ड बन कर पति मौजूद रहते हैं। यहाँ तक की चुनाव के दौरान और जीतने के बाद भी इन महिला प्रतिनिधियों के होर्डिंगों पर इनके चित्र के साथ इनके पति का चित्र भी प्रमुखता से प्रचारित किया जाता है। इस पर भी चुनाव आयोग को प्रतिबंध लगाना चाहिए। कोई भी होर्डिंग ऐसा न लगे जिसमें ‘प्रधान पति’ का नाम या चित्र हो। 


हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी बातों पर हमेशा से ज़ोर दिया गया है कि घर की महिला जब भी घर की चौखट से पाँव बाहर रखेगी तो उसके साथ घर का कोई न कोई पुरुष अवश्य होगा। इन्हीं रूढ़िवादी सोचों के चलते महिलाओं को घर की चार दिवारी में ही सिमट कर रहना पड़ा। परंतु जैसे सोच बदलने लगी तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिये जाने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं। आज महिलाएँ पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर चल रहीं हैं। इसलिए महिलाओं को पुरुषों से कम नहीं समझना चाहिए। इस विधेयक को लाकर सरकार ने अच्छी  पहल की है किंतु इसके बावजूद महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलने में वर्षों की देरी के कारण ही विपक्ष आज सरकार को घेर रहा है। 



वैसे हम इस भ्रम में भी न रहें कि सभी महिलाएँ पाक-साफ़ या दूध की धुली होती हैं और बुराई केवल पुरुषों में होती है। पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग प्रांतों में निचले अधिकारियों से लेकर आईएएस और आईपीएस स्तर तक की भी महिला अधिकारी बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाई गई हैं। इसलिए ये मान लेना कि महिला आरक्षण देने के बाद सब कुछ रातों रात सुधर जाएगा, हमारी नासमझी होगी। जैसी बुराई पुरुष समाज में है वैसी बुराइयों महिला समाज में भी हैं। क्योंकि समाज का कोई एक अंग दूसरे अंग से अछूता नहीं रह सकता। पर कुछ अपवादों के आधार पर ये फ़ैसला करना कि महिलाएँ अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाने में सक्षम नहीं हैं इसलिए फ़िलहाल उन्हें एक-तिहाई सीटों पर ही आरक्षण दिया जा रहा है ठीक नहीं है। ये सूचना कि भविष्य में उन्हें इनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दे दिया जाएगा सपने दिखाने जैसा है। अगर हमारी सोच नहीं बदली और मौजूदा ढर्रे पर ही महिलाओं के नाम पर ये ख़ानापूर्ति होती रही तो कभी कुछ नहीं बदलेगा।
    

Monday, September 18, 2023

सवालों के घेरे में टीवी चैनल


जब से इंडिया गठबंधन ने 14 मशहूर टीवी एंकरों के बॉयकॉट की घोषणा की है तब से पूरे मीडिया जगत में एक भूचाल सा आ गया है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा देश में पहली बार हुआ है। इन टीवी चैनलों के समर्थक और केंद्र सरकार विपक्ष के इस कदम को अलोकतांत्रिक बता रही है। उनका आरोप है कि विपक्ष सवालों से बच कर भाग रहा है। जबकि विपक्ष का कहना है कि भाजपा ने लंबे अरसे से एनडीटीवी चैनल का बहिष्कार किया हुआ था। जब तक कि उसे अडानी समूह ने ख़रीद नहीं लिया। इसके अलावा तमिलनाडु के अनेक ऐसे टीवी चैनल जो वहाँ के किसी राजनीतिक दल से नियंत्रित नहीं हैं और उनकी छवि भी दर्शकों में अच्छी है, उन सबका भी भाजपा ने बहिष्कार किया हुआ है। 


सवाल उठता है कि इस तरह सार्वजनिक बहिष्कार करके विवाद खड़ा करने के बजाए अगर विपक्षी दल एक मूक सहमति बना कर इन एंकरों का बहिष्कार करते तो भी उनका उद्देश्य पूरा हो जाता और विवाद भी खड़ा नहीं होता। पर शायद विपक्ष ने यह विवाद खड़ा ही इसलिए किया है कि वो देश के ज़्यादातर टीवी चैनलों की पक्षपातपूर्ण नीति को एक राजनैतिक मुद्दा बना कर जनता के बीच ले जाएँ। जिसमें वो सफल हुए हैं। 



इस विवाद का परिणाम यह हुआ है कि ‘गोदी मीडिया’ कहे जाने वाले इन टीवी चैनलों के समर्पित दर्शकों के बीच इन एंकरों की लोकप्रियता और बढ़ी है। जिससे इन्हें टीआरपी खोने का कोई जोखिम नहीं है। जहां तक बात उन दर्शकों की है जो वर्तमान सत्ता को नापसंद करते हैं, तो वो पहले से ही इन एंकरों के शो नहीं देखते थे, इसलिए उन पर इस विवाद का कोई नया असर नहीं पड़ेगा। पर इन टीवी चैनलों के मालिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। अगर वे अपने इन टीवी एंकरों के साथ खड़े नहीं रहते या इन्हें बर्खास्त कर देते हैं तो इसका ग़लत संदेश उनसे जुड़े सभी मीडिया कर्मियों के बीच जाएगा, क्योंकि ये टीवी एंकर इस तरह के इकतरफ़ा तेवर अपनी मर्ज़ी से तो नहीं अपना रहे। ज़ाहिरन इसमें उनके मालिकों की सहमति है। 


इस पूरे विवाद में मैंने एक लंबा ट्वीट (जिसे अब एक्स कहते हैं) लिखा, जिसे 24 घंटे में 35 हज़ार से ज़्यादा लोग देख चुके थे। इसमें मैंने लिखा, कि ये सब जो हो रहा है ये बहुत दुखद है। चूँकि मैं स्वयं एक पत्रकार हूँ इसलिए मुझे इस बात से बहुत कोफ़्त होती है कि आजकल सार्वजनिक विमर्श में प्रायः पत्रकारों की विश्वसनीयता पर बहुत अपमानजनक टिप्पणियाँ की जाती हैं। उसका कारण हमारे पेशे की विश्वसनीयता में आई भारी गिरावट है। सोचने वाली बात यह है कि आज से 30 वर्ष पहले जब मैंने भारत की राजनीति का सबसे ज़्यादा चर्चित और बड़ा ‘जैन हवाला कांड’ उजागर किया था, जिसमें कई प्रमुख राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े राजनेता और बड़े अफ़सर प्रभावित हुए थे, तब भारी राजनीतिक क्षति पहुँचने के बावजूद उन राजनेताओं ने मुझ से अपने संबंध नहीं बिगाड़े। उनका कहना था कि तुमने किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने के लिए या किसी राजनैतिक व आर्थिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से हम पर हमला नहीं बोला था। बल्कि तुमने तो निष्पक्षता और निडरता से पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप अपना काम किया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं है। उन सभी से आजतक मेरे सौहार्दपूर्ण संबंध हैं।



इस देश में खोजी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने 1986 में दूरदर्शन (तब निजी टीवी चैनल नहीं होते थे) पर ‘सच की परछाईं’ कार्यक्रम से की थी। ये अपने समय का सबसे दबंग कार्यक्रम माना जाता था। क्योंकि इस कार्यक्रम में मैं कैमरा टीम को लेकर देश कोने-कोने में जाता था और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की नीतियों के क्रियांवन में ज़मीनी स्तर पर हो रही कमियों को उजागर करता था।         


इसके बाद 1989 में जब देश में पहली बार मैंने स्वतंत्र हिन्दी टीवी समाचारों की वीडियो पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की तो उसके भी हर अंक ने अपनी दबंग रिपोर्टों के कारण देश भर में खलबली मचाई। बावजूद इसके किसी भी राजनेता द्वारा मेरा कभी सोशल बॉयकॉट नहीं किया गया। क्योंकि यहाँ भी मैंने निष्पक्षता का पूरी तरह ध्यान रखा। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो और चाहे आरएसएस से लेकर नक्सलवादियों तक की विचारधारा से जुड़े प्रश्न हों, अगर वो मुझे जनहित में ठीक लगे तो उन्हें कालचक्र  की रिपोर्ट में प्रसारित करने से कभी कोई गुरेज़ नहीं किया। इसलिए लोग आजतक कालचक्र को याद करते हैं।


पिछले 40 वर्षों की टीवी पत्रकारिता के अपने अनुभव और उम्र के 68वें वर्ष में शायद मेरा यह कर्तव्य है कि मैं टीवी चैनलों में काम कर रहे अपने सहकर्मियों को उनके हित में कुछ सलाह दे सकूँ। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हर केंद्र सरकार के पास अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और पीआईबी है। जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का काम जनता की आवाज़ बनना होता है। उन्हें सरकार से तीखे सवाल पूछने होते हैं और सरकार की योजनाओं में ख़ामियों को उजागर करना होता है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे पत्रकार नहीं माने जाएँगे। हाँ कोई भी रिपोर्ट या वार्ता में हर टीवी पत्रकार को कोशिश करनी चाहिए कि पूरी तरह निष्पक्षता बनी रहे। इसके साथ ही किसी भी टीवी एंकर को यह हक़ नहीं कि वो विपक्ष के नेताओं को अपमानित करे या उनसे अभद्र व्यवहार करे। टीवी की वार्ता में आने वाले सभी लोग उस एंकर के मेहमान होते हैं। इसलिए उनका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। तीखे सवाल भी शालीनता से पूछे जा सकते हैं। उसके लिए हमलावर होने की नौटंकी करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आजकल चल रही ऐसी नौटंकियों के कारण ही टीवी चैनलों की विश्वसनीयता तेज़ी से घटी हैं। 


इसी क्रम में मैं उन नामी टीवी पत्रकारों को भी बिन माँगीं सलाह देना चाहूँगा जो रात-दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हमलावर रहते हैं। तथ्यों को सामने लाना उनका कर्तव्य हैं। इसलिए वो ये ज़रूर करें। पर नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे कामों की उपेक्षा करके या उन कामों की प्रशंसा न करके वे ऐसे लगते हैं मानो वो विपक्ष का एजेंडा चला रहे हैं। उनका ये रवैया ग़लत है। इस तरह दोनों ख़ेमों के पत्रकारों को आत्म विश्लेषण करने ज़रूरत है। न तो हम ख़ेमों में बटें और न ही अपने दर्शकों को ख़ेमों में बाँटें। जो सही है उसे ज्यों की त्यों प्रस्तुत करें और फ़ैसला दर्शकों के विवेक पर छोड़ दें। 

Monday, February 27, 2023

राहुल गांधी की नई भूमिका क्या हो?


पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधान मंत्री वैश्विक मंच पर गर्व से घोषणा करते आए हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। किसी भी सफल लोकतंत्र का प्रमाण यह होता है कि उसमें पक्ष और विपक्षी दल सबल भूमिका में सक्रिय रहें। कमज़ोर विपक्ष या विपक्षहीन पक्ष लोकतंत्र के पतन का रास्ता तैयार करता है। इसके साथ ही न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, महालेखाकार व जाँच एजेंसियों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो और वे निडर होकर काम कर सकें। अनुभव ये बताता है कि हमारा देश में सत्ता पक्ष विपक्ष को कमज़ोर करने का हर संभव प्रयास करता है। पर स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड या अमरीका जैसे देशों में सत्तापक्ष की ओर से ऐसे अलोकतांत्रिक प्रयास प्रायः नहीं किए जाते। इसलिए उनका लोकतंत्र आदर्श माना जाता है।
 


किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए ज़रूरी होता है कि देश की गृह नीति ऐसी हो जिससे समाज में शांति व्यवस्था बनी रहे। सामुदायिक भेद-भाव या सांप्रदायिकता को बढ़ने का मौक़ा न दिया जाए। तभी आर्थिक प्रगति भी संभव होती है। विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति और सामाजिक कल्याण की नीतियों में निरंतरता बनी रहे इसके लिए विपक्ष को भी सरकार के साथ मिलकर रचनात्मक भूमिका निभानी होती है। 

भारत में मौजूदा राजनैतिक माहौल ऐसा बन गया है, मानो पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक न हो कर शत्रु हों। इस पतन की शुरुआत इंदिरा गांधी के ज़माने से हुई जब उन्होंने चुनी हुई प्रांतीय सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारें बैठाना शुरू कर दिया। इससे पारस्परिक वैमनस्य भी बढ़ा और राजनीति का नैतिक पतन भी हुआ। पर यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौर में ये काम नागालैंड, गोवा व मेघालय जैसे छोटे राज्य छोड़ कर और कहीं नहीं हुआ। इसी कारण उस दौर में देश की आर्थिक प्रगति भी तेज़ी से हुई। 


मौजूदा दौर में भाजपा के नेतृत्व ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुत अस्थिर कर दिया है। ये हर हथकंडा अपना कर चुनी हुई सरकारों को गिराने का काम कर रहा है। इससे न तो समाज में स्थायित्व आ रहा है और ना ही उमंग। हर ओर हताशा और असुरक्षा फैलती जा रही है। जिसका विपरीत प्रभाव उद्यमियों, सरकारी कर्मचारियों, युवाओं और महिलाओं पर पड़ रहा है। सरकार पर एक आरोप जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का भी लग रहा है, जो वह हर चुनाव के पहले कर रही है। ऐसे में जहां भाजपा 2024 के चुनावों में 360 संसदीय सीटें जीतने का लक्ष्य रख कर अपनी रणनीति बना रही है वहीं, विपक्ष में भी भारी हलचल है। भाजपा की तरफ़ से एक आरोप यह लगाया जाता है कि विपक्ष के पास प्रधान मंत्री के पद के लिए कोई एक सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है। 2004 में कांग्रेस ने चुनाव बिना प्रधान मंत्री के चेहरे के लड़ा था। पर बाद में डॉ मनमोहन सिंह के रूप में, 10 बरस तक एक ज्ञानी, शालीन, बेदाग़ प्रधान मंत्री दिया जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बिना प्रचार के चुपचाप काम करके नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। मुख्यतः ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर व अरविंद केजरीवाल जैसे दावेदारों की चर्चा अक्सर होती रहती है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर कि विपक्षी एकता का प्रधान मंत्री चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, विपक्षी दलों के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। जबकि राहुल गांधी ने आजतक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे भी प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं। 


विपक्ष के हर दल के नेता और उसके कार्यकर्ता अपने दिल में ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि वे एकजुट हो कर भाजपा के विरुद्ध खड़े नहीं होते तो 2024 में सरकार बनाने का उनका मंसूबा अधूरा रह जाएगा और तब उन्हें 2029 तक इंतज़ार करना होगा। इस बीच में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व आयकर विभाग इन नेताओं और उनके परिवारों के साथ क्या सलूक करेंगे इसका ट्रेलर वो गत आठ वर्षों से देख ही रहे हैं। फिर भी अगर वे नहीं चेते तो अपनी तुच्छ महत्वाकांक्षाओं के कारण भारत के लोकतंत्र को समाप्ति की ओर बढ़ता हुआ देखेंगे। इसलिए अब उनके पास सोचने विचारने का समय नहीं है। विपक्ष के लिये तो यह ‘करो या मरो’ की स्थिति है। जैसे भाजपा और संघ परिवार बारह महीने चुनावी मोड में रहता है और साम, दाम, दंड या भेद से सरकार बनाते हैं। आज भले ही प्रांतीय चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस, समाजवादी दल, भारत राष्ट्र समिति के नेता एक दूसरे पर बयानों के हमले कर रहे हों पर 2024 के चुनावों के लिए उनके ये बयान आत्मघाती हो सकते हैं। इसलिए इस दौर में राहुल गांधी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है।

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ रहे कुछ लोगों ने बताया कि इस यात्रा से राहुल गांधी के व्यक्तित्व में भारी बदलाव आया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आजतक एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राहुल गांधी के बराबर इतनी लंबी पदयात्रा की हो और उसमें भी वह पूरी आत्मीयता के साथ समाज के हर वर्ग से दिल खोल कर मिला हो। इस ज़मीनी सच्चाई को देखने और समझने के बाद सुना है, राहुल गांधी निर्णय कर चुके हैं उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बनना बल्कि समाज के आम आदमी को हक़ दिलाने के लिए एक संवेदनशील भूमिका में रहना है। जहां वे जनता का दुख-दर्द सरकार तक पहुँचा सकें। अगर यह सच है तो ये राहुल गांधी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए अब लोकतंत्र मज़बूत करने में उनकी नयी भूमिका बन सकती है।  

जहां कांग्रेस ये मानती है कि वो देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे वरीयता दी जानी चाहिये वहीं ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस का नाम है ही नहीं। अनेक राज्यों में प्रांतीय सरकारें बहुत मज़बूत हैं और वहाँ कांग्रेस का वजूद लुप्तप्रायः है। जिन राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है उन राज्यों में भी उसकी स्थिति अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने की नहीं है। इसके अपवाद भी हैं पर कमोवेश यही स्थिति है। इस हक़ीक़त को समझ और स्वीकार करके अगर राहुल गांधी एक बड़ा दिल दिखाते हैं और देश के हर बड़े विपक्षी नेता से आमने-सामने बैठ कर देश की राजनैतिक स्थिति पर खुली चर्चा करते हैं, इस वायदे के साथ, कि वे प्रधान मंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो सभी विपक्षी दलों को जोड़ने में वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा  सकते हैं। यही भाव ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और स्टैलिन को भी रखना होगा। तब ही विपक्ष उन गंभीर मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दे पायेगा जिन पर वो विफल रही है। मसलन रोज़गार, महंगाई, किसानों व मज़दूरों की दशा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन आदि। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है, भाजपा सहित कोई भी दल बेदाग़ नहीं है। इसलिए उस मुद्दे को छोड़ कर अगर बाक़ी सवालों पर भाजपा को घेरा जाएगा तो उसके लिये चुनौती तगड़ी होगी। पर इसी प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत होगा और आम जनता को कुछ राहत मिलेगी। 

Monday, August 8, 2022

अपनी नागरिकता छोड़ क्यों रहे हैं भारतीय?


कुछ हफ़्तों पहले गृह मंत्रालय ने संसद में एक सवाल के उत्तर पे एक चौंका देने वाले आँकड़े बताए। आँकड़ों के अनुसार 2015 से 2021 के बीच 9 लाख 32 हजार 276 भारतीयों ने अपनी नागरिकता छोड़ी है। गृह मंत्रालय के अनुसार केवल साल 2021 में 163,370 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी। मंत्रालय के अनुसार इन भारतीयों नेनिजी वजहोंसे नागरिकता छोड़ने का फ़ैसला लिया। सवाल उठता है कि इतने बड़े पैमाने में भारतीय देश छोड़ कर क्यों जा रहे हैं?


गौरतलब है कि कोरोना काल में बहुत सारे बड़े उद्योगपति देश छोड़ कर कनाडा, अमेरिका, यूके, यूएई और  यूरोप आदि जैसे देशों में चले गए। इन धनकुबेरों के देश छोड़ने की एक बड़ी वजह कोरोना को बताया गया। हालांकि 2022 में भी इन उद्योगपतियों का देश छोड़ अन्य देश में बसने का सिलसिला जारी है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं। इसके साथ ही, अमीरों के देश से पलायन की मुख्य वजह टैक्स से जुड़े सख्त नियम बताये गये हैं। पिछले महीने एक ब्रिटिश कम्पनी की रिपोर्ट ने यह दावा किया था कि भारत से लगभग 8,000 करोड़पति 2022 में विदेशों में शिफ्ट हो सकते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि ये लोग उन देशों में जाना चाहते हैं जहां का पासपोर्ट ज्यादा ताकतवर माना जाता है।



जो भी लोग भारत छोड़ विदेशों में नौकरी के सिलसिले में जाते हैं उन्हें वहाँ पर मिलने वाली सुख-सुविधाएँ इतनी प्रभावित करती हैं कि वे लौट कर भारत नहीं आना चाहते। कुछ लोग तो वहाँ काम करते-करते अपना घर तक बसा लेते हैं। परिवार बढ़ने के बाद जब उन्हें वहाँ की नागरिकता मिल जाती है तो उसकी तुलना वे भारत में मिलने वाली सुविधाओं के साथ करते हैं। विदेशों में जा कर बसे भारतीय वहाँ पर काम करने के माहौल, बच्चों की पढ़ाई, रहने के ढंग आदि को काफ़ी सकारात्मक मान कर अपनी जन्मभूमि से नाता तोड़ने पर मजबूर होते हैं। यह पहली बार नहीं है जब भारतीय लोग देश छोड़ कर विदेशों में बसने लगे हैं। ऐसा चलन तो दशकों से चल रहा है। परंतु हाल ही के वर्षों में यह कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। भारतीयों को नागरिकता देने वाले देशों में अमेरिका ने सबसे ज्यादा नागरिकता दी है। आज़ादी के 75 वर्षों में अगर बड़े पैमाने पर भारतीय मूलभूत सुविधाओं की खोज में देश छोड़ कर जाने को मजबूर हो रहे हैं तो यह एक चिंता का विषय है। 


एक सर्वे के मुताबिक़ व्यापारी वर्ग का मानना है कि भारत में उन्हें अपने व्यापार या कारोबार की सुरक्षा की चिंता है। यह सुरक्षा देश में विभिन्न करों और नियमों में आए दिन होने वाले बदलावों के कारण भी है। इसी असुरक्षा के कारण इन उद्योगपतियों को देश छोड़ने का निर्णय लेना पड़ रहा है। यदि भारत में उद्योगपतियों को उनके व्यापार के प्रति सुरक्षा की गारंटी मिल जाए तो शायद यह पलायन इतनी बड़ी संख्या में हो। एक ओर तो व्यापारिक सुरक्षा कारण है तो वहीं दूसरी ओर देश का क़ानून भी कुछ लोगों को नागरिकता छोड़ने पर मजबूर कर देता है। फिर आप चाहे उनको भगोड़े कहें या हाईप्रोफ़ाइल अपराधी, मेहुल चोकसि, विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे सैंकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे। 



शिक्षा के क्षेत्र में देश में मूलभूत ढाँचे का कमजोर होना भी देश से हो रहेब्रेन-ड्रेनका एक कारण है। देश का होनहार युवा तमाम कोशिशों के बावजूद, देश में आरक्षण और अन्य वजहों के चलते अपने हुनर को निखार नहीं पाता। किसान का पुत्र अगर पढ़ाई-लिखाई में तेज है तो वह खुद को अच्छी शिक्षा देने की होड़ में लग जाता है। ऐसे में उसका किसान पिता भी उसे रोकता नहीं है। बल्कि वो ज़रूरत पड़ने पर अपनी ज़मीन को गिरवी रख कर उसे पढ़ाता है। परंतु आरक्षण क़ानून के चलते जब उसे अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती तो वह हताश हो जाता है। ऐसे में अगर देश का युवा विदेश में पढ़ाई के लिए जाता है और उसके हुनर की क़द्र करते हुए वहीं पर अच्छी नौकरी भी मिल जाती है तो वो वहीं बस जाता है। इस तरह के पलायन में भी काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। यदि हम देश के युवा को अपने ही देश में अच्छी शिक्षा और नौकरी देना सुनिश्चित कर लेते हैं तो विदेशों की बड़ी से बड़ी कम्पनी अच्छे हुनर की तलाश में भारत में ही अपना ऑफ़िस खोलेगी। विदेशी कम्पनियों द्वारा निवेश होने पर सिर्फ़ पढ़े-लिखे श्रेष्ठ युवाओं को, बल्कि हर वर्ग के लोगों को उस कम्पनी में नौकरी भी मिलेगी। 


भारत में अभी तक एकल नागरिकता का ही प्रावधान है। क़ानून के जानकारों के मुताबिक़ दोहरी नागरिकता का प्रावधान भी पलायन का एक कारण है। भारत छोड़ कर जाने वाले लोगों की प्राथमिकता उन देशों में जा कर बसने की भी है जिन देशों में ऐसा क़ानून है। यदि कोई भी भारतीय अपनी नागरिकता और पासपोर्ट छोड़ देता है तो उसे भारत दोहरी नागरिकता दे कर ओसीआई कार्ड जारी कर देती है। इस कार्ड से केवल उस व्यक्ति को भारत में आने के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता। वो बेझिझक देश में सकता है। परंतु नागरिकता से जुड़े उसके कई अधिकार रद्द हो जाते हैं। दुनिया के कई देशों में अर्जेंटीना, इटली, पराग्वे आयरलैंड ऐसे देश हैं जहां पर दोहरी नागरिकता का प्रावधान है। भारत के नागरिकता छोड़ने के पीछे यह भी एक बड़ी वजह है।


कुल मिलाकर देखा जाए तो देश छोड़ने वालों ने निजी कारणों को ही देश छोड़ने की वजह बताई, लेकिन यदि इस पर गौर किया जाए तो मूलभूत सुविधाओं की कमी भी देश छोड़ने का एक महत्वपूर्ण कारण दिखाई देती है। आज़ादी के 75 वर्षों में कई सरकारें आईं और गईं लेकिन देश से पलायन करने की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही। इस बात को मौजूदा सरकार और आनेवाली सरकारों को गम्भीरता से लेना होगा नहीं तो देश से होनेवालेब्रेन-ड्रेनकी संख्या पर लगाम नहीं लग पाएगी। यदि ऐसा होता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं है।