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Monday, June 6, 2016

सोच बदलने की जरूरत

नरेन्द्र भाई मोदी के अधीन काम करने वाले अफसर हर वक्त अपने पंजों पर खड़े रहते है। क्योंकि उन्हें हर काम लक्ष्य से पहले और अच्छी गुणवत्ता का चाहिए। देश की सांस्कृतिक धरोहरों के जीर्णोंद्धार, संरक्षण और संवर्धन के लिए मोदी सरकार ने कई योजनाएं शुरू की है। पर अफसरशाही की दकियानूसी के चलते पुराने काम के ढर्रे में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। पहले भी फाइलें ज्यादा दौड़ती थी और जमीन पर काम कम होता था। आज भी वहींे हालत है। इसका एक कारण तो यह है कि केन्द्र सरकार के अनुदान का क्रियान्वयन प्रान्तीय सरकारें करती है। जिन पर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरा कारण यह है कि अलग-अलग राज्यों में भ्रष्टाचार के स्तर अलग-अलग है। किसी राज्य में 100 में 70 फीसदी खर्च होता है। बाकी कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खप जाता है। जबकि ऐसे भी राज्य हैं जहां 70 से 80 फीसदी रूपया केवल कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खपता है। बचे 20 फीसदी में से 10 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है यानि 100 रूपये में से 16 रूपया ही जमीन तक पहुंचता है।
    1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने यही बात कहीं थी। तब उनके इस वक्तव्य को बहुत हिम्मत का काम माना गया था। क्योंकि आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने इस हकीकत को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। दुख की बात यह है कि आज 32 साल बाद भी हालात बदले नहीं है। सवाल है क्या मोदी जी को इसकी जानकारी नहीं है ? क्या उनके पास इसका कोई हल नहीं है ? क्या इस हालत को बदलने की उनमें इच्छाशक्ति नहीं है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है। जानकारी भी होगी, हल भी है और इच्छाशक्ति भी है। केवल रूकावट है तो नौकरशाही के औपनिवेशिक रवैये की। जो वैश्वीकरण के इस दौर में भी यह मानने को तैयार नहीं कि उससे बेहतर सोच और समाधान आम लोगों के पास भी हो सकते है। इसलिए नौकरशाही कोई भी नये विचार को अपनाने को तैयार नहीं है। एक दूसरा कारण केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लटकती तलवार भी है। जो हर ऐसे नवीन कदम या पहल पर निहित स्वार्थ का आरोप लगाकर जोखिम उठाने वाले अफसर को तलब कर सकता है। इसलिए कोई अफसर नये प्रयोगों का जोखिम उठाना नहीं चाहता।
    पर मोदी जी के बारे में गुजरात के दिनों में यह शोहरत थी कि वे किसी भी अच्छा काम करने वाले को कहीं से भी ढूंढकर पकड़ लाते है और फिर अपनी नौकरशाही को उस व्यक्ति के अनुसार कार्य करने की हिदायत देते है। नतीजतन काम बढ़िया भी होता है और उसकी गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता।
    सरकार के अलावा निजी क्षेत्र में या निजी रूप में अद्भुत कार्य कर चुके लोगों की कमी नहीं है। देश के विकास में अपने बूते पर योगदान देने वालों की संख्या अच्छी खासी है। ये वो लोग हैं जिन्होंने कई दशाब्दियों से सामाजिक स्तर पर विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभिनव प्रयोगों, निस्वार्थ कर्मयोग और समाज के प्रति संवेदनशीलता के साथ बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं। पर ऐसे लोगों को नौकरशाही का तंत्र नापसन्द करता है। क्योंकि उसे उनकी सफलता देखकर अपना अस्तित्व खतरे में नजर आता है। इसलिए जरूरी है कि मोदी जी कुछ पहल करें।
    प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हर ऐसे व्यक्ति के बारे में सूचना का भण्डार है और अगर उसमें कुछ कमी है तो वे अपने प्रभाव से उस सूचना को कहीं से भी मंगा सकते है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रधानमंत्री ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी, स्वयंसेवकों को अपने पास बुलायें और उनसे उनके अनुभव के आधार पर समाधान पूछें और उन समाधानों को लागू करने में अपनी पूर्णक्षमता का प्रयोग करें। इस नूतन प्रयोग से लक्ष्य भी पूरे होंगे और पारदर्शिता भी आयेगी।
    पुरातात्विक संरक्षण के क्षेत्र में, बिना सरकार की आर्थिक मदद के हमारी संस्था ब्रज फाउण्डेशन ने भी ब्रज क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किये है। जिनकी जानकारी प्रधानमंत्री जी को हैं। क्योंकि वे हमारे काम में लम्बे समय से रूचि लेते रहे है। इस लेख के माध्यम से मैं उन तक यह बात पहुंचाना चाहता हूं कि बिना लालफीताशाही को काटे भारत को मजबूत राष्ट्र बनाने का उनका सपना पूरा नहीं हो सकता। मोदी सरकार को चाहिए कि ऐसे नामचीन लोग जो कभी किसी लाभ के लालच में सत्ता के गलियारों में चक्कर नहीं लगाते, उनको बुलाकर उनकी बात सुनें और इस समस्या का स्थायी हल ढूढ़े। जिससे जनता के पैसे का दुरूपयोग रूके और समाज के हित में कुछ ठोस काम हो जायें।

Monday, March 21, 2016

संघ का एजेण्डा बम-बम

 बिहार चुनाव के बाद औधे मुंह गिरी भाजपा को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के घटनाक्रम से एक नई लीज मिल गई है। राष्ट्रवाद और देशद्रोह के सवाल पर मतदाताओं को लामबंद करने की योजना पर काम हो रहा है। इस उम्मीद में कि देशभक्ति एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं बचती। कौन होगा जो खुद को देशद्रोहियों की कतार में खड़ा करना चाहेगा। जवाब है मुट्ठीभर माओवादियों को छोड़कर कोई नहीं। वे भी खुलकर तो अपने को देशद्रोही मानने को तैयार नहीं होंगे। पर हकीकत यह है कि उनकी विचारधारा किसी देश की सीमाओं में बंधी नहीं होती। वे तो दुनिया के शोषित पीड़ितों के मसीहा बनने का दावा करते हैं।
 

भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सोचना यह है कि आने वाले दिनों में बंगाल, असम, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, पांडुचेरी, उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव में देशभक्ति और देशद्रोह के मुद्दे को जमकर भुनाया जा सकता है। ऐसा सोचने के पीछे आधार यह है कि जेएनयू के मुद्दे पर जिस आक्रामक तरीके से सोशल मीडिया, प्रिंट व टीवी मीडिया मुखर हुआ, उससे लगा कि यह मुद्दा घर-घर छा गया है और इसी मुद्दे को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। यह सही है कि भारत के मध्यमवर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा देशभक्ति और देशद्रोह की इस बहस में उलझ गया है और अपने को देशभक्तों की जमात के साथ खड़ा देख रहा है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ये भावना केवल मध्यमवर्गीय समाज तक सीमित है। इसका असर फिलहाल गांवों में देखने को नहीं मिलता।
 
 वैसे भी भारत के मतदाता का मिजाज कोई बहुत छिपा हुआ नहीं है। चुनाव के पहले अगर मोदी जैसी आंधी चले या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर चले, तो मतदाता भावुक होकर जरूर बह जाता है। पर ऐसी लहर हमेशा नहीं बनती। इसलिए ये मानना कि केवल देशभक्ति के मुद्दे पर देश का मतदाता भारी मात्रा में भाजपा के पक्ष में मतदान करेगा, शायद कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी बात है। जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव में अहम भूमिका किसान, मजदूर और गांवों के मतदाताओं की होती है और इतिहास बताता है कि अपवादों को छोड़कर देश का आम समाज और मध्यमवर्गीय समाज अलग-अलग सोच रखता है।
 
 आज जहां शहर के मध्यमवर्गीय समाज में देशभक्ति व देशद्रोह की चर्चा हो रही है। पर गांवों में इस चर्चा में कोई रूचि नहीं है। मैं लगातार देश में भ्रमण और व्याख्यान करने जाता रहता हूं और प्रयास करके उन राज्यों के देहाती इलाके में भी जाता हूं, ताकि आमआदमी की नब्ज पकड़ सकूं। पिछले कुछ दिनों में जब से जेएनयू विवाद उछला है, तब से जिन राज्यों के गांवों का मैंने दौरा किया वहां कहीं भी इस मुद्दे पर कोई बहस या चर्चा होते नहीं सुनी। गांवों के लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को लेकर ही चिंतित रहते हैं। उन्हें आज भी नरेंद्र भाई मोदी से भारी उम्मीद है कि वे बिना देरी किए उनके खातों में 15-15 लाख रूपया जमा करवा देंगे, जो उन्होंने चुनाव के दौरान विदेशों से निकलवाने का वायदा किया था, पर अभी तक ऐसा नहीं हुआ। ये लोग अपनी पासबुक लेकर मुंबई जैसे बड़े शहर तक में बैंकों के पास जाते हैं और पूछते हैं कि हमारे खाते में 15 लाख रूपए आए या नहीं। प्रायः बैंक मैनेजर उनसे मजाक में कह देते हैं कि खाते में तो नहीं आए, आप जाकर मोदीजी से मांग लो। इससे ग्रामीणों को बहुत निराशा होती है। 2 साल के बाद भी जब कालेधन का हिस्सा उन्हें नहीं मिला, तब उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है।
 
 प्रधानमंत्री के लिए ये संभव ही नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को धता-बताकर विदेशी बैंकों में जमा भारत के कालेधन को एक झटके में देश में ले आएं। खुदा न खास्ता अगर वे ऐसा करने में सफल हो भी जाते हैं, तो भी पैसा नागरिकों के बैंक खाते में तो जाएगा नहीं। वो तो राजकोश में जाएगा, जिसका उपयोग विकास योजनाओं में किया जा सकता है। इसलिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण जनता को यह स्पष्टतः समझा दे कि विदेशों में जमा कालाधन जनता के बैंक खातों में आने वाला नहीं है। अगर ये धन देश में आ भी गया, तो विकास कार्यों में तो भले ही खर्च हो जाए। पर उसे निजी हाथों में नहीं सौंपा जा सकता। ऐसा करने से जो उनकी नकारात्मक छवि बन रही है, वो नहीं बनेगी।
 
 गांवों की समस्याएं उनके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी हैं। जिनके समाधान हुए बिना ग्रामीण मतदाता प्रभावित होता नहीं दिख रहा। इसीलिए हर चुनाव में वो विपक्षी दल को समर्थन देता है। इस उम्मीद में कि, ‘तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही’। यह सही है कि देशभक्ति का मुद्दा बहुत अहम है। पर उससे भी ज्यादा अहम है गांवों की दशा सुधारना और रोजगार उपलब्ध कराना। जो बिना भारत की वैदिक ग्रामीण व्यवस्था की पुर्नस्थापना के कभी किया नहीं जा सकता। गांधीजी के ग्राम स्वराज का भी यही सपना था। विकास के आयातित मॉडल आजतक विफल रहे हैं। जिनसे देश की बहुसंख्यक आबादी का दुख दूर नहीं किया जा सका है। ऐसा किए बिना केवल देशभक्ति के नारे से विधानसभा चुनावों में वैतरणी पार हो पाएगी, उसमें हमें संदेह लगता है।   

Monday, January 25, 2016

पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं ?

 जब से तेल निर्यातक देशों ने कच्चे तेल के प्रति बैरल दाम पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग आधे कर दिए हैं, तब से दुनियाभर में पेट्रोल और डीजल के दाम में भारी गिरावट आयी है। पाकिस्तान में पेट्रोल 26 रूपये लीटर है। जबकि बांग्लादेश में 22 रूपये, क्यूबा में 19 रूपये, इटली में 14 रूपये, नेपाल में 34 रूपये, वर्मा में 30 रूपये, अफगानिस्तान में 26 रूपये, लंका में 34 रूपये और भारत में 68 रूपये लीटर है। यानि अपने पड़ोस के देशों से ढ़ाई गुने दाम पर भारतवासी पेट्रोल खरीदने पर मजबूर हैं। ये 68 रूपये का तोड़ इस तरह है कि इसमें से 1 लीटर पेट्रोल की लागत होती कुल 16.50 रूपये, जिस पर केंद्रीय कर हैं 11.80 फीसदी। उत्पादन शुल्क है 9.75 फीसदी। वैट है 4 फीसदी और बिक्री कर है 8 फीसदी। इस सब को जोड़ लें, तो भी 1 लीटर पेट्रोल की कीमत बनती है, मात्र 50.05 पैसे। फिर भारतवासियों से हर लीटर पर यह 18 रूपये अतिरिक्त क्यों वसूले जा रहे हैं? इसका जवाब देने को कोई तैयार नहीं है। इस तरह अरबों खरबों रूपया हर महीने केंद्र सरकार के खजाने में जा रहा है। 
 
पिछली सरकार को लेकर भ्रष्टाचार के जो बड़े-बड़े आरोप थे, उनमें अगर कुछ तथ्य था, तो यह माना जा सकता है कि यूपीए सरकार सरकारी खजाना खाली करके चली गई। अब मोदी सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि वह पेट्रोल पर अतिरिक्त कर लगाकर अपनी आमदनी इकट्ठा करे। मोदी सरकार यह कह सकती है कि देश के विकास के लिए आधारभूत संरचनाएं, मसलन हाईवेज, फ्लाईओवर और दूसरी बुनियादी सेवाओं का विस्तार करना है, जो बिना अतिरिक्त आमदनी किए नहीं किया जा सकता। इसलिए पेट्रोल पर कर लगाकर सरकार अपनी विकास योजनाओं के लिए धन जुटा रही है। 
 
सरकार की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और माॅल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई। पिछले 6 महीने में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती है। 
 
एक तरफ तो हालत यह है कि आज हर गांव में बेरोजगारी बरकरार है या बढ़ी है। हमने ग्रामीण युवाओं को पारंपरिक व्यवसायों से दूर कर दिया। उन्हें ऐसी शिक्षा दी कि न तो शहर के लायक रहे और न गांव के। मात्र 15 कुटीर उद्योग ऐसे हैं, जिन्हें अगर ग्रामीण स्तर पर उत्पादन के लिए आरक्षित कर दिया जाए और उन उत्पादनों का बढ़े कारखानों में निर्माण न हो, तो 2 साल में बेरोजगारी तेजी से खत्म हो सकती है। पर इसके लिए जैसी क्रांतिकारी सोच चाहिए, वो न तो एनडीए सरकार के पास है और न ही गांधी के नाम पर शासन चलाने वाली यूपीए सरकार के पास थी। 
 
उधर रोजगार एवं प्रशिक्षण के महानिदेशक का कहना है कि भारतीय खाद्य निगम में अनाज की बोरी ढ़ोने वाले कर्मचारी को साढ़े चार लाख रूपया महीना पगार मिल रही है, जो कि भारत के राष्ट्रपति के वेतन से भी कई गुना ज्यादा है। 7वें वेतन आयोग में सरकार की ऐसी तमाम नीतियों की ओर संकेत किया है, जहां सरकार का सीधा हाथ नहीं जानता कि सरकार का बायां हाथ क्या कर रहा है। एक ही विभाग में मंत्रालय कहता है कि 2.10 लाख लोग तनख्वाह ले रहे हैं, जबकि वित्त मंत्रालय के अनुसार इस विभाग में मात्र 19 हजार कर्मचारी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पिछली सरकार के समय से ही अरबों रूपये बेनामी कर्मचारियों के नाम से वर्षों से उड़ाए जा रहे हों और किसी को कानोंकान खबर भी न हो। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका खामियाजा आमजनता भुगत रही है। 

Monday, November 24, 2014

ज़रूरत नई रोजगार नीति की


बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती दिख रही है। अपने देश के लिए वैसे तो यह समस्या शाश्वत प्रकार की है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनसनीखेज तथ्य यह है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की समस्या ज्यादा गंभीर है। अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

    जैसा पहले कहा गया है कि बेरोजगारी का नया रूप पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी का है और ज्यादा भयावह है। इसके साथ यह बात बड़ी तीव्रता से जुड़ी है कि जिन युवकों या उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनके निवेश की बात पर गौर जरूरी है। 

    देश के औसत जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में अनुमानित हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

    पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

    यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है? 

Monday, April 28, 2014

जनता शायद मोदी को एक मौका देना चाहती है



दो-तिहाई चुनाव पूरे हुए | एक तिहाई बचे हैं | संकेत ऐसे ही मिल रहे हैं कि मोदी की सरकार केन्द्र में बन जायेगी | हालांकि अंतिम दौर का चुनाव जिन इलाकों में है वहां भाजपा को बड़ी चुनौती है | अगर यह दौर भी मोदी के पक्ष में गया तो उनके प्रधान मंत्री बनने की संभावना प्रबल हो जायेगी | बस इसी बात का खौफ कांग्रेस या तीसरे मोर्चे को सता रहा है | मोदी के गुजरात मॉडल, तानाशाही, एकला चलो रे की नीति और अहंकार जैसे विशेषणों से मोदी पर हमले तेज कर दीये गए हैं | आखिर मोदी का इतना डर क्यों है? पिछले दस वर्षों में जब जब मोदी पर इन मुद्दों को लेकर हमले हुए, हमने हमलावरों को, चाहे वो राजनेता हों या हमारे सहयोगी मीडिया कर्मीं, ये याद दिलाने की कोशिश की, कि मोदी में कोई ऐसा अवगुण नहीं है जिसका प्रदर्शन कांग्रेस समेत अन्य क्षेत्रीय दलों के राजनेताओं या राजवंशों ने पिछले 60 बरस में देश के सामने किया न हो | फिर मोदी पर ही इतने सारे तीर क्यों छोड़े जाते हैं ? इसका जवाब यह है कि मोदी में कुछ ऐसे गुण हैं जिन्हें देश का आम आदमी, नौजवान व सामन्य मुसलमान तक भारत के नेतृत्व में देखना चाहते हैं | मसलन एक मज़बूत व्यक्तित्व, तुरन्त निर्णय लेने कि क्षमता, लक्ष्य निर्धारित करके हासिल करने का जूनून, अपनी आलोचनाओं से बेपरवाह हो कर अपने तय किये मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढते जाना और अपने विरोध में षड्यंत्र करने वालों को उनकी औकात बता देना |

अब इन्हें आप गुण मान लीजिए तो नरेन्द्र मोदी एक सशक्त राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरते हैं और अगर इन्हें अवगुण मने तो एक तानाशाह के रूप में | इस चुनावी माहौल में जनता और खासकर युवाओं ने मोदी के इन्हीं गुणों के कारण भारत का नेतृत्व सौपने का शायद मन बना लिया है | क्योंकि दलों के अंदरूनी लोकतंत्र, सर्वजन हिताय, धर्म निरपेक्षता व गरीबों का विकास आम जनता को थोथे नारे लगते हैं जिन्हें हर दल दोहराता है पर सत्ता आने पर भूल जाता है | मोदी में उन्हें एक ऐसा नेता दिख रहा है जो पिटे हुए नारों से आगे सपने दिखा रहा है और उन सपनों को पूरा करने की अपनी क्षमता का भी किसी न किसी रूप में लगातार प्रदर्शन कर रहा है | इसलिए शायद जनता उन्हें एक मौका देना चाहती है |

मोदी को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाएं उनके लिए निर्मूल हैं जिन्हें अपनी और भारत की तरक्की देखने कि हसरत है | पर उनके लिए आशंकाएं निर्मूल नहीं है जो ये समझते हैं कि अगर मोदी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं और अपेक्षाओं के मुकाबले थोड़ी बहुत उपलब्धी भी जनता को करा पाते हैं तो उन्हें भविष्य में सत्ता के केन्द्र से जल्दी हिला पाना आसान न होगा | येही उनकी डर का कारण है |

दरअसल देश की जनता जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद के शिकंजे से मुक्त हो कर आर्थिक प्रगति देखना चाहती है जो मौजूदा राजनीतक संस्कृति में उसे नज़र नहीं आता | दल कोई भी क्यों न हो उसका आचरण, कार्यशैली और नीतियां एकसी ही चली आ रही हैं | इसलिए जनता को कोई बड़ा बदलाव दिखाई नहीं देता | ऐसा नहीं है कि मुल्क ने तरक्की नहीं की | हम बहुत आगे आ गए हैं और उसके लिए पिछले 60 वर्ष के नेतृत्व को नकारा नहीं जा सकता | पर हमारी क्षमता और साधनों के मुकाबले यह तरक्की नगण्य है क्योंकि हमने यह तरक्की नाकारा और भ्रष्ट नौकरशाही और आत्मकेंद्रित परिवारवादी राजनीति के बावजूद व्यक्तिगत उद्यम से प्राप्त की है | अगर कहीं देश की प्रशासनिक व्यवस्था जनोन्मुख हो जाति तो हम कबके सुखी और संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हो जाते | यह नहीं हुआ इसीलिए जनता के मन में आक्रोश है और वो इन हालातों को बदलना चाहती है | वह चाहती है एक ऐसा निजाम हो जिसमे उसके हुनर, उसकी काबलियत को आगे बढ़ने का मौका मिले | वो जलालत सहना नहीं चाहती | अगर मोदी उसकी उम्मीदों पर खरे उतरे तो वो उन्हें देश को उठाने का खूब मौका देगी | और नहीं उतरे तो साथ छोड़ने में हिचकेगी नहीं | इसलिए फिलहाल वो फैसला कर चुकी है कि उसे बदलाव चाहिए | अब जो लोग इस रास्ते में रोड़ा अटकाएंगे वो जनता के कोपभाजन बनेंगे | बाकी समय बलवान है | वही बताएगा कि हिन्दुस्तान कि राजनीति का ऊंठ किस करवट बैठेगा |

Monday, December 3, 2012

सीधी सबसिडी क्या सचमुच रिश्वत है


सब जानते हैं कि केन्द्र से चला एक रूपया गाँव के अंतिम आदमी तक पहुँचते-पहुँचते 14 पैसे रह जाता है। बीच का सारा पैसा केन्द्र से गाँव तक प्रशासनिक और दलाल तंत्र की जेब में चला जाता है। यह समस्या पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारम्भ से ही अनुभव की जा रही है। बहुत आलोचना होती रही है। धरपकड़ और सतर्कता के सारे प्रयास विफल रहे हैं। जनता के आक्रोश की धारा मोड़ने के लिए राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर और केन्द्र सरकार राज्य सरकारों पर आरोप मढ़ती है। घाटे में आम आदमी ही रहता है। भ्रष्टाचार से निपटने का कोई कानून भी इस समस्या का हल नहीं खोज सकता, लोकपाल भी नहीं। अगर कानून बनाने से अपराधी डर जाते तो दुनिया में अपराध होते ही नहीं। कानून ढ़ेर सारे हैं, पर अपराधी उससे भी ज्यादा। ऐसे में क्या किया जाए? यह सवाल हमेशा से नियोजकों की चिन्ता का विषय रहा है।
कैश सब्सिडी को लाभार्थियों के खाते में सीधे ट्रांसफर करके इस समस्या का समाधान खोजा जा रहा है। पर इस पर कई सवाल उठ रहे हैं। जहाँ विपक्षी दल इसे सीधे-सीधे वोट के बदले नोट की रिश्वत मान रहे हैं, वहीं कुछ लोगों को संशय है कि इस योजना को लागू करने में बहुत दिक्कतें आऐंगी। जिनमें इसका दुरूपयोग भी शामिल है। जिस अंतिम स्तर के नागरिक के लिए यह सेवा शुरू की जा रही है, उसकी रोजी-रोटी और झोंपडी तक का ठिकाना नहीं होता। रोजगार की तलाश में बिचारों को अपना चूला हर कुछ दिन बाद उठाकर कहीं और ले जाना होता है। ऐसा आदमी कौन से बैंक में खाता खोलेगा और उसका संचालन कैसे करेगा, यह सवाल भी उठ रहा है। इसके जवाब में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि इस काम के लिए सिर्फ बैंक से ही नहीं, बल्कि 25 लाख स्वयं महिला सहायता समूहों, 14 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं या फिर 8‐60 लाख आशा कार्यकर्ताओं और अन्य समूहों की सेवाएं भी ली लाएंगी।
फिलहाल केन्द्रीय वित्त मंत्री ने देश के 18 राज्यों के 51 जिलों में इस योजना को लागू करने की घोषणा की है। बाद में इसे पूरे देश पर लागू करने की बात कही है। इस कार्यक्रम  में सरकार की 42 योजनाओं के पैसे को शामिल किया गया है। पर इस तरह केवल 21 लाख लोगों तक राहत पहुंचेगी जोकि देश की 122 करोड़ आबादी की तुलना में नगण्य है। इनमें भी ऐसी आबादी बहुत है जिसका न तो कोई बैंक खाता है और न ही उसके गांव मे कोई बैक। इस समस्या का हल ढ़ूढने के लिए आधार कार्ड बांट रही संस्था यू.आई.डी.ए.आई. ने उन व्यवसायी बैंकों से ग्रामीण क्षेत्रों में फौरन ए0टी0एम0 खोलने को कहा है जो इसके इच्छुक हों। पर ये बैंक अगले 6 महीने में भी ऐसा कर पायेगें, इसमें संदेह है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में डाकखानों को भी इस योजना से जोडा जाये। क्योंकि डाकखानों का देश के ग्रामीण अंचलों में अच्छा जाल है।
खैर हर योजना के क्रियान्वयन से पहले संदेह तो व्यक्त किये ही जाते हैं। इसलिए इस योजना का भी मूल्यांकन भविष्य में ही होगा। पर इतना जरूर है कि अगर यह स्कीम सफल हो गयी तो समाज उत्थान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी कदम होगा। पर क्या इसे रिश्वत माना जा सकता है? चूंकि यह योजना कांग्रेस सरकार आगामी लोकसभा चुनाव के 2 वर्ष पूर्व ही लेकर आयी है। इससे उसकी नीयत पर शक व्यक्त किया जा रहा है। पर सवाल उठता है कि चुनाव पूर्व की घोषणा तो उन घोषणाओं को माना जाता है जो चुनाव के ठीक पहले की जाती है। उस दृष्टि से तो इसे चुनावी घोषणा नही माना जा सकता। पर हकीकत यही है कि काँग्रेस ने इसे अपना जनाधार बढ़ाने के लिए ही प्राथमिकता से लिया है। सवाल यह भी है कि अगर सरकार ये न करे तो क्या करे? पहले कार्यक्रम भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गये। उसमें सुधार सम्भव नहीं है। इसलिए नये कार्यक्रम की जरूरत पड़ी। जो मॉडल सामने आया है उसमें बिचैलियों की गुंजाइश ही नहीं है। लेकिन इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों, इन्टरनेट, डिजिटल सूचना के इस आधुनिक तंत्र का दुरूपयोग न हो। दुनियाभर में ऐसे ‘मेधावी‘ अपराधियों की कमी नहीं जो इन सारी व्यवस्थाओं के शार्टकट बनाने में माहिर हैं। ऐसे लोग हमारे देश में भी कम नहीं। जो किसी भी अच्छी योजना का पलीता लगा सकते हैं।
जहाँ एन0डी0ए0 का घटक भाजपा गुजरात चुनाव का हवाला देकर इस योजना के खिलाफ चुनाव आयोग के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, वहीं एन0डी0ए0 के दूसरे घटक जे0डी0यू0 के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मानना है कि यह योजना बहुत प्रभावी रहेगी। दरअसल राजनैतिक मतभेदों को एक तरफ रखकर अगर निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाए तो यह बात समझ में आती है कि निर्बल वर्ग को मिलने वाली सब्सिडी या रियायत लाभार्थी को सीधी क्यों न दी जाए? इससे बीच का सब घालमेल साफ हो जाऐगा। इसलिए इस योजना का स्वागत किया जाना चाहिए और इसे अपना दायित्व मानते हुए निर्बल वर्ग की सहायतार्थ सबल वर्ग के जागरूक नागरिकों को अपने-अपने क्षेत्र में सक्रिय हो जाना चाहिए। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके इलाके के जरूरतमंद निर्बल लोगों के आधार कार्ड बनें और उनके बैंक खाते खुलें। इसमें अगर कहीं भी धांधली नजर आए तो उसके खिलाफ जोरदार आवाज उठानी चाहिए। जनता की इस सक्रिय भागीदारी से भ्रष्टाचार भी हटेगा और निर्बल वर्ग को सीधा लाभ भी पहुंचेगा। इसलिए इसे रिश्वत मानकर दरकिनार नहीं किया जा सकता।