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Monday, October 19, 2020

हर किसान महर्षि फ़िल्म ज़रूर देखे

सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि उत्पाद क़ानूनों को लेकर आज देश में भारी विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहां मोदी सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से किसानों को फ़ायदा होगा। वहीं विपक्षी दल इसके नुक़सान गिनाने में जुटे हैं। देश के कई प्रांतों में इन मुद्दों पर आंदोलन भी चल रहे हैं। इसी दौरान ‘एमेज़ोन प्राइम’ टीवी चैनल पर 2019 में आई तेलगू फ़िल्म ‘महर्षि’ देखी। इससे पहले कि इस फ़िल्म के विषय में मैं आगे चर्चा करूँ, सभी पाठकों से कहना चाहूँगा कि अगर उनके टीवी में ‘एमेज़ोन प्राइम’ है तो उस पर अन्यथा उनके जिस मित्र के घर ‘एमेज़ोन प्राइम’ हो वहाँ जा कर ये फ़िल्म अवश्य देखें। ख़ासकर कृषि व्यवसाय से जुड़े परिवारों को तो यह फ़िल्म देखनी ही चाहिए। वैसे फ़िल्म थोड़ी लम्बी है, लगभग 3 घंटे की, लेकिन बिलकुल उबाऊ नहीं है। आधुनिक युवाओं को भी यह फ़िल्म आकर्षित करेगी, क्योंकि इसमें उनकी रुचि का भी बहुत कुछ है। 


मूल फ़िल्म तेलगू में है, पर हिंदी के ‘सबटाइटिल’ साथ-साथ चलते हैं, जिससे हिंदी भाषी दर्शकों को कोई दिक्कत नहीं होती। फ़िल्म का मुख्य किरदार ऋषि नाम का एक माध्यम वर्गीय युवा है जो लाखों अन्य युवाओं की तरह सूचना प्रौदयोगिकी की पढ़ाई करके अमरीका नौकरी करने जाता है और वहाँ अपनी कुशाग्र बुद्धि और मज़बूत इरादों से कुछ ही वर्षों में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सीईओ बन जाता है। इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तमाम भारतीय अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सीईओ बन कर दुनिया में नाम और बेशुमार दौलत कमा चुके हैं। ऋषि भी उसी मंज़िल को हासिल कर लेता है और दुनिया का हर ऐशो-आराम उसके कदमों में होता है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नाटकीय मोड़ आता है। जब वो अचानक अपने निजी हवाई जहाज़ में बैठ कर हैदराबाद के पास एक गाँव में अपने सहपाठी से मिलने आता है, जो किसानों के हक़ के लिए मुंबई के एक बड़े औद्योगिक घराने से अकेला संघर्ष कर रहा होता है। 


यह औद्योगिक घराना उस ग्रामीण क्षेत्र में मिले प्राकृतिक तेल के उत्पादन का एक बड़ा प्लांट लगाने जा रहा है, जिसके लिए उस क्षेत्र के हरे भरे खेतों से लहलहाते पाँच दर्जन गाँवों को जड़ से उखाड़ा जाना है। मुआवज़ा भी इतना नहीं कि उजाड़े गए किसानों के परिवार दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऋषि इस समस्या का हल ढूँढने में जुट जाता है जिसमें उसका सीधा संघर्ष मुंबई के उसी औद्योगिक घराने से हो जाता है। पर अपनी बुद्धि, युक्ति, समझ और धन के बल पर ऋषि यह लड़ाई जीत जाता है। हालाँकि इससे पहले उसके संघर्ष में कई उतार चढ़ाव आते हैं। जैसे जिन किसानों के लिए ऋषि और उसका मित्र, जान जोखिम में डाल कर दिन-रात लड़ रहे थे, वही किसान उद्योगपति और नेताओं की जालसाज़ी में फँसकर इनके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। पर जब ऋषि अपनी सैंकड़ों करोड़ रुपए की आय का 90 फ़ीसदी इन किसानों की मदद के लिए खुले दिल से लुटाने को तैय्यार हो जाता है, तब किसानों को ऋषि की निष्ठा और त्याग की क़ीमत समझ में आती है। तब सारे इलाक़े के किसान ऋषि के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह ऋषि की बहुत बड़ी ताक़त बन जाती है।

 

अपनी अकूत दौलत और राजनैतिक दबदबे के बावजूद मुंबई का वह उद्योगपति हाथ मलता रह जाता है। इस सफलता के बाद ऋषि अमरीका वापिस जाने को अपने जहाज़ में बैठ जाता है। पर तभी उसे पिछले दिनों के अनुभव चलचित्र की तरह दिखाई देने लगते हैं और तब वह क्षण भर में फ़ैसला लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सीईओ पद से इस्तीफ़ा दे देता है। वह शेष जीवन किसानों के हक़ के लिए और उनकी मदद के लिए ख़ुद किसान बन कर जीने का फ़ैसला करता है। 



फ़िल्म का आख़िरी आधा घंटा बहुत गम्भीरता से देखने वाला है। इसमें देश के किसानों की दुर्दशा का व्यापक वर्णन हुआ है। ऋषि ने किसानों, नेताओं, अधिकारियों, मंत्रियों और मीडिया के सामने जिस प्रभावशाली किंतु सरल तरीक़े से किसानों की समस्या को बताया है उससे शहर में रहने वाले लोग, जिनका कृषि से कोई सम्बंध नहीं है, वे भी सोचने पर मजबूर होते हैं कि हम किसानों की ज़िंदगी के बारे में कितने अनपढ़ हैं। जबकि हम कार के बिना रह सकते हैं लेकिन भोजन के बिना नहीं। अन्नदाता की उपेक्षा करके या अपने औद्योगिक लाभ के लिए किसानों का हक़ छीनने वाले लोगों को भी यह फ़िल्म कुछ सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी। 


वैसे तो किसानों की समस्याओं पर बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन’ या बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ और ‘लगान’ जैसी दर्जनों फ़िल्में पिछले 73 सालों में आईं हैं। इन फ़िल्मों ने किसानों की दुर्दशा का बड़ी गहराई, संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण भी किया है। पर आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय युवा फ़िल्मी सितारे और फ़िल्म निर्माता महेश बाबू ने इस फ़िल्म को इस तरह बनाया है कि हर वो आदमी जिसका किसानी से कोई नाता नहीं, वो भी इस फ़िल्म को बड़े चाव से अंत तक देखता है और उसे समाधान भी मिलता है। फ़िल्म में ऋषि का किरदार ख़ुद महेश बाबू ने बखूबी निभाया है। उनके खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व और जुनून ने इस फ़िल्म को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं को और ग्रामीण स्कूलों के शिक्षकों को प्रयास करके यह फ़िल्म हर गाँव में दिखानी चाहिए।       

       

Monday, August 29, 2016

गौरक्षक आहत क्यों ?


जिस तरह मीडिया ने गौरक्षकों के खिलाफ शोर मचाया था, उसे यह साफ हो गया था कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी भारत में गौमाता की रक्षा नहीं होने देगी। इस लॉबी ने प्रधानमंत्री को इस तरह घेर लिया कि उन्हें मजबूरन गौरक्षकों को चेतावनी देनी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं कि गौरक्षा के नाम पर जातीय संघर्ष या खून-खराबे को होने दिया जाए। जिन लोगों ने इस तरह की हिंसा इस देश में कहीं भी की, उन्होंने उत्साह के अतिरेक में गौवंश को हानि पहुंचाई।

दरअसल गौरक्षा का मुद्दा बिल्कुल धार्मिक नहीं है। यह तो शुद्धतम रूप में लोगों की कृषि, अर्थव्यवस्था और उनके स्वास्थ्य से जुड़ा है। हजारों साल पहले भारत के ऋषियो ने गौवंश के असीमित लाभ जान लिए थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में गौवंश को इतना महत्व दिया।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासकों ने बाकायदा रणनीति बनाकर भारतीय गौवंश को पूरी तरह नष्ट करने का अभियान चलाया, जो आज तक चल रहा है। क्योंकि वह जानते थे कि हजारों साल से भारत की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत गौ आधारित कृषि रहा था। बिना गौवंश की हत्या किए भारत और भारतीयों को कमजोर नहीं किया जा सकता था। आजादी के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इसमें बड़ी होशियारी से पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई। उन्होंने इस तरह की मानसिकता तैयार की कि घर-घर में पलने वाली गाय हमारी उपेक्षा और हीनभावना का शिकार हो गयी। जिससे गाय का दूध, दही, मक्खन, घी और छाछ सेवन करके हर भारतीय परिवार स्वस्थ, सुखी और संस्कारवान रहता था। आज आम भारतीयों को जीवन के लिए पोषक तत्व प्राप्त नहीं हैं। दूध, दही, घी के नाम पर जो बड़े ब्रांडो के नाम से बेचा जा रहा है, उसमें कितने कीटनाशक, रासायनिक खाद्य और नकली तत्व मिले हैं, इसका अब हिसाब रखना भी मुश्किल है। नतीजा सामने है कि मेडीकल का व्यवसाय हर गली व शहर में तेजी से पनप रहा है।

चिंता और दुख की बात ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन पर जीने वाले कैसे देश के हित में सोच सकते हैं ? वह तो वही लिखेंगे और बोलेंगे, जो उनके कॉरपोरेट आका उन्हें लिखने को कहेंगे। इस लॉबी के खिलाफ देशभक्तो को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। पर हिंसा से नहीं तर्क और प्रमाण के साथ। भारतीय गौवंश की श्रेष्ठता को भारतीय जनमानस के सामने लगातार हर मंच पर इस तरह रखना होगा कि एक बार फिर भारतीय परिवार गौवंश को अपने आंगन में स्थान दे।

गांवों में तो यह आसानी से संभव है, पर दुख की बात है कि वहां भी आज गौवंश की उपेक्षा हो रही है। हमने हमेशा कहा है कि गाय गौशाला में नहीं, बल्कि जब हर घर के आंगन में पलेंगी, तब गौवंश की रक्षा होगी। जिनके पास स्थान का अभाव है, उनकी तो मजबूरी है। पर वह भी भारतीय गौवंश के उत्पादों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन देकर अपने परिवार और समाज का भला कर सकते है।

गौरक्षकों के आक्रोश का भी कारण समझना होगा। सदियों से हिंदू समाज गौवंश के ऊपर हो रहे अत्याार को सहता आ रहा है। क्योंकि उसकी पकड़ सत्ताधीशों पर नहीं रही। नरेंद्र भाई मोदी के सत्ता में आने से हर हिंदू को लगा कि एक हजार वर्ष बाद भारत की सनातन संस्कृति को संरक्षक मिला है। जिसे अपने को हिंदू कहने में कोई झिझक नहीं है। ऐसे में जब मोदीजी लाल मांस के निर्यात को बढ़ाने की बात करते है, तो जाहिर है कि हिंदू समाज आहत महसूस करता है।

मोदीजी भूटान में देखकर आए है कि उस देश में हर व्यक्ति सुखी है, क्योंकि उनका जीवन गौ और कृषि आधारित है। उन्हें दुनिया के साथ दौड़ने की इच्छा नहीं है। क्योंकि वह तीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणामों से परिचित हैं।

फिर भारत क्यों उस अंधी दौड़ में भागना चाहता है, जिसका फल भौतिक प्रगति तो हो सकता है, पर उससे समाज सुखी नहीं होता। बल्कि समाज और ज्यादा असुरक्षित होकर तनाव में आ जाता है। भारत की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय समाज हजारों साल से निरंतर जिंदा रहा है। जबकि पश्चिमी समाज ने एक शताब्दी के अंदर ही औद्योगीकरण के नफे और नुकसान, दोनों का अनुभव कर लिया है। अब वह भारतीय जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है। ऐसे में भारत को फिर से विश्वगुरू बनना होगा। जो गौ आधारित जीवन और वेद आधारित ज्ञान से ही संभव है। इसमें न तो कोई अतिश्योक्ति है और न ही कोई धर्मांधता। कहीं ऐसा न हो कि ‘सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया।’

Monday, February 8, 2016

हम क्यों कर रहे हैं उपजाऊ भूमि का विनाश ?

 एक तरफ तो हम बढ़ती आबादी का रोना रोते हैं। दूसरी तरफ हम अपनी खेती योग्य जमीन को दैत्यों की तरह बर्बाद कर रहे हैं। इस आत्मघाती विकास से हम अपने भविष्य के लिए भीषण खाद्य संकट पैदा होने के हालात बना रहे हैं। यूं तो आजादी के बाद देश में कृषि, ग्रामीण विकास व जल संसाधन जैसे मंत्रालय बने, जिनके मंत्री और अफसर विदेशों में ज्ञान लेने के बहाने भागते रहे। पर क्या वजह है कि इन सबके होते हुए भी देश में कुल 33 करोड़ हेक्टेयर की तिहाई भूमि बंजर है और लगातार बढ़ रही है। जैसे गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया के उपजाऊ मैदानों को ढक रही है, उसी तरह थार मरुस्थल की रेत उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है। अरावली पर्वत काफी हद तक धूल भरी आंधियों को रोकने का काम करता है, लेकिन अंधाधुंध खनन की वजह से इस पर्वतमाला को नुकसान पहुंच रहा है, जिससे यह धूल भरी आंधियों को पूरी तरह नहीं रोक पा रही है। उधर हर साल 84 लाख टन भूमि के पोषक तत्व बाढ़ आदि की वजह से बह जाते हैं। कीटनाशक भी हर साल 1.4 करोड़ वर्ग किमी भूमि की उर्वरकता खत्म कर रहे हैं। इसी तरह लवणीयता और क्षारपन भी हर साल 270 हजार वर्ग किमी क्षेत्र को बंजर बना रहे हैं। 
 
अणुबम से भी घातक कैमिकल्स, कीटनाशक दवाएं, रासायनिक खाद व जहरीली दवाओं के अमर्यादित प्रयोग से भूमि बंजर बन रही हैं। साथ ही साथ उद्योगों से निकला प्रदूषित जल वाष्पित होकर ऊपर जाता है। फिर प्रदूषित एवं क्षारीय जल की वर्षा से भूमि पूर्णतया बंजर बन रही है। इसी प्रकार इन दवाओं का प्रयोग होता रहा तो अगले 50 वर्षों में सारे देशवासी भयानक रोगों से ग्रस्त जाएंगे। 
 
हाल के वर्षों में औद्योगिक कचरे से भी भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। उद्योगों से निकले कचरे और प्रदूषित जल को नदियों में छोड़े जाने से भूतलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है। इस तरह के प्रदूषित जल का सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने से जमीन भी खराब हो गई है। ताजा अनुमानों के अनुसार इस सबसे 34,500 हेक्टेयर भूमि बुरी तरह प्रभावित हुई है। इसके साथ ही भारी मात्रा में पाॅलीथिन और प्लास्टिक का कचरा पृथ्वी की उर्वरकता को तेजी से खत्म कर रहा है, क्योंकि यह कचरा गलता नहीं है। इसलिए यह जमीन के लिए बहुत ही घातक है। जिस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगना चाहिए, लेकिन न तो केंद्र सरकार ऐसा कर पा रही हैं और न राज्य सरकारें। 
 
जमीन में बोरिंग करके अंधाधुंध पानी खींचने से पृथ्वी के भीतर भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आई है। जिससे जमीन की नमी खत्म हुई है और रेगिस्तान बढ़ता जा रहा है। फिर भी हमें अक्ल नहीं आ रही। 1947 में देश में एक हजार ट्यूबवेल थे, जिनकी तादाद अब 2.10 करोड़ है। इससे भूमिगत पानी की सतह तेजी से नीचे होती जा रही है। इसी तरह औद्योगिकरण के इस दौर में समुद्री तटों के आसपास मनुष्यों के रहने लायक स्थिति नहीं बची है। क्योंकि आए दिन समुद्री पानी से भूमि का कटाव होकर खारा पानी आबादी क्षेत्र में 30 से 100 किमी तक प्रवेश करने लगा है। गुजरात के जामनगर, द्वारिका, जूनागढ़, भावनगर और अमरैली के तटीय गांव उजड़ने की कगार पर हैं। जिसका एक मात्र कारण तटीय जमीन का अत्यधिक कटाव किया जाना है। इतना ही नहीं बल्कि देश में हो रहे बेरोकटोक अंधाधुंध खनन से जमीन पोली हो रही है। भूचाल के खतरे बढ़ रहे हैं और इससे होने वाले प्रदूषण से भूमि बंजर हो रही है। 
 
खानों का कचरा खुले में फैलने से व सीमेंट उद्योग के लिए चूना-पत्थर और चीनी मिट्टी उद्योग के लिए
कैल्साइट और खडि़या पत्थर की पिसाई से जो धूल उड़ती है, वह आसपास की उपजाऊ जमीन को बर्बाद कर देती है। नब्बे फीसदी खान मालिकों द्वारा खुली खदान प्रणाली के जरिये खनन कार्य किया जा रहा है। खनन पूरा हो जाने के बाद उस क्षेत्र को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। इसे फिर सही करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता। जिससे पूरा क्षेत्र हमेशा के लिए बर्बाद होकर रेगिस्तान बन जाता है। 
 
वनस्पतियों का विनाश भी जमीन को बंजर बनाने का कारण है। मरुस्थलीयकरण का सबसे पहला शिकार पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ होती हैं। जमीन पर बढ़ते दबाव से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के हृास में खतरनाक वृद्धि हो रही है। गाँवों के आस-पास चरागाहों की जमीन बुरी तरह बर्बाद हुई है, क्योंकि उसकी सबसे अधिक उपेक्षा और सबसे ज्यादा दोहन हुआ है। इस प्रकार उपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान बनती जा रहे है। 
 
हमारे प्रधानमंत्री को भारत के किसानों और उनकी जमीनों की गिरती उर्वरकता की गहरी चिंता रही है। ऐसा वे अपने वक्तव्यों से संकेत देते रहे हैं, लेकिन अभी तक इस समस्या का कोई ठोस समाधान भारत सरकार आजादी के बाद से नहीं दे पाई है। नतीजतन, यह विनाश बेरोकटोक जारी है। जिस पर प्रधानमंत्री और उनके संबंधित मंत्रालयों को गंभीरता से सोचना चाहिए और कृषि योग्य भूमि के संरक्षण को प्रोत्साहित करते हुए उसका विनाश करने वालों से कड़ाई से निपटना चाहिए। 

Monday, February 1, 2016

दूध के नाम पर फरेब बंद हो

    इसी हफ्ते गुजरात उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिकाकर्ता ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह बताने की कोशिश की है कि देशी गाय के मुकाबले जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसलिए दूध विक्रेताओं को दूध के पैकेट या बोतलों पर यह साफ-साफ लिखना चाहिए कि जो दूध बेचा जा रहा है, वह देशी गाय का है या जर्सी गाय का। याचिकाकर्ता चिंतन गोहेल ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि जर्सी गाय का दूध ए/1 श्रेणी का होता है। जबकि देशी गाय का दूध ए/2 श्रेणी का होता है। यह दूध स्वास्थ्यवर्धक और पाचक होता है। जबकि ए/1 श्रेणी का दूध न केवल पाचन में तकलीफ देता है, बल्कि कई रोगों का कारण भी बनता है। याचिकाकर्ता ने यूरोप, अमेरिका और आस्टेªलिया में हुए कई अनुसंधानों का हवाला देते हुए अपनी बात रखी है। उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिक लेखक कीथ वुडफोर्ड ने अपनी पुस्तक ‘डेविल इन द मिल्क’ (दूध में राक्षस) में बताया है कि किस तरह जर्सी गाय का दूध पीने से मधुमेह, शीजोफर्निया, हृदय रोग और मंदबुद्धि जैसी बीमारियां पनपती हैं। विशेषकर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को जर्सी गाय का दूध बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए। चिंता का बात यह है कि मदर डेयरी से लेकर सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विभिन्न नगरों के दूध विक्रेता खुलेआम जर्सी गायों का दूध बेच रहे हैं और हमारी पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर रहे हैं। जिन पर कोई रोकटोक नहीं है। इतना ही नहीं गाय का शुद्ध घी नाम से जो घी देशभर में बेचा जा रहा है, वो भी देशी गाय का नहीं है। याचिकाकर्ता की मांग बिल्कुल जायज है कि दूध और घी विक्रेताओं को डिब्बे पर साफ-साफ लिखना चाहिए कि ‘देशी गाय का दूध’ है या ‘देशी गाय का घी’ है। अगर ऐसा नहीं है, तो साफ लिखना चाहिए कि ‘जर्सी गाय का दूध’ या ‘जर्सी गाय का घी’। साथ ही यह चेतावनी भी छापनी चाहिए कि जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

    पिछले दिनों दादरी में जो गौहत्या को लेकर सांप्रदायिक तनाव बना था और जिसके विरोध स्वरूप कुछ मशहूर लोगों ने मुद्दे को अनावश्यक रूप से धार्मिक असहिष्णुता का मुद्दा बना दिया, उस वक्त ही हमने यह बात कही थी कि देशी गाय कोई धार्मिक या भावनात्मक मुद्दा नहीं है। शुद्ध रूप से वैज्ञानिक और आर्थिक मुद्दा है।
भारत के ऋषियों ने हजारों साल के वैज्ञानिक प्रयोगों के बाद योग, आयुर्वेद, गौसेवा, यज्ञ, संस्कृत पठन-पाठन, मंत्रोच्चारण आदि व्यवस्थाओं को व्यापक समाज के हित में स्थापित किया था। उनकी सोच और उनका दिया ज्ञान आज भी विज्ञान की हर कसौटी पर खरा उतरता है। पर इन मुद्दों को धार्मिक या भावनात्मक बनाकर हिंदू समाज का ही एक हिस्सा अपनी जग हंसाई करवाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इन सब चीजों के वैज्ञानिक व आर्थिक आधार को जोर-शोर से प्रचारित किया जाय। अगर किसी को यह समझ में आ जाए कि देशी गाय उसके गौरस से बने पदार्थ और उसके गोबर और मूत्र से उस परिवार की संपन्नता, स्वास्थ्य, चेतना और आनंद में वृद्धि होती है, तो कोई क्यों गाय बेचे और काटेगा ? ठीक ऐसे ही अगर देशवासियों को पता चल जाए कि जर्सी गाय का दूध पीने के कितने नुकसान है, तो दूध और घी का धंधा करने वाले ज्यादातर लोगों की दुकानें बंद हो जाएगी।

अब सवाल उठता है कि दूध की तो वैसे ही देश में कमी है और अगर यह बवंडर खड़ा कर दिया जाए, तो हाहाकार मच जाएगा। ऐसा नहीं है। हमारे कत्लखाने उस औपनिवेशिक सोच का परिणाम है, जिसने साजिशन गौमाता का उपहास कर भारत के हुक्मरानों के दिमाग में गौवंश का सफाया करने का माडल बेच दिया है। सरकार किसी की भी हो, देशी गायों और उनके बछड़ों और बेलों की नृशंसा हत्या और मांस का कारोबार दिन दूना और रात चैगुना पनप रहा है। इस पर अगर प्रभावी रोक लगा दी जाए, तो पूरे भारत के समाज को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बनाया जा सकता है।

चिंता की बात तो यह है कि परंपराओं और देशी इलाज की पद्धतियों का प्रचार-प्रसार करने वाली कंपनियां भी भारत की परंपराओं से खिलवाड़ कर रही हैं। उनके उत्पादों में आयुर्वेद के शुद्ध सिद्धांतों का पालन नहीं होता। पूरी दुनिया जानती है कि प्लास्टिक और प्लास्टिक से बने पदार्थ पर्यावरण के ऊपर आधुनिक समाज का आणविक हमला जैसा है। पर हर आयुर्वेदिक कंपनी प्लास्टिक के लिए डिब्बों और बोतलों में अपना माल बेचने में लगी है। बिना इस बात की परवाह किए कि यह प्लास्टिक देशभर के गांवों, जंगलों और शहरों में नासूर की तरह बढ़ती जा रही है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि देशी गाय, गौवंश, बिना घालमेल के शुद्ध आयुर्वेदिक परंपरा और भारत की पुरातन प्राकृतिक कृषि व्यवस्था की स्थापना ही भारतीय समाज को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बना सकती है। इसके लिए हर समझदार व्यक्ति को जागरूक और सक्रिय होना पड़ेगा। ताकि हम मुनाफे के पीछे भागने वाली कंपनियों के मकड़जाल से छूटकर भारत के हर ग्राम को गोकुल बना सकें।