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Monday, May 31, 2021

सुशील कुमार कांड: टूटना भरोसे का


भारत के ध्वज को अपने कंधे पर गर्व से लिए फ़ोटो में दिखाई देने वाले मशहूर पहलवान सुशील कुमार का नाम पिछले दिनों एक अन्य पहलवान सागर धंकड़ के हत्याकांड से जोड़ा गया और उसकी गिरफ़्तारी भी हुई। असलियत क्या है यह तो जाँच का विषय है। लेकिन यहाँ चाणक्य पंडित की एक बात याद आती है, उनके अनुसार विश्वासघात विष के समान होता है। इस बहुचर्चित हत्याकांड में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ एक व्यक्ति का दूसरे से नहीं बल्कि गुरु शिष्य परम्परा का विश्वासघात हुआ है।
 


कुश्ती जगत से सम्बंधित किसी भी युवा या वरिष्ठ पहलवान से पूछा जाए तो सुशील कुमार कुश्ती जगत के एक आदर्श के रूप में पूजे जाते रहे हैं। लेकिन इस हत्याकांड में सुशील का नाम आते ही मानो सभी का विश्वास टूट सा गया है। 2008 में ओलम्पिक विजेता बने सुशील कुमार उभरते हुए पहलवानों के आदर्श थे। तभी की बात है कि सागर धंकड़ नाम के दिल्ली के एक युवा पहलवान ने तय कर लिया कि वो भी कुश्ती की शिक्षा लेकर देश का नाम रोशन करेगा। दिल्ली पुलिस के सिपाही के इस बेटे ने सुशील कुमार को अपना गुरु मान लिया और उनसे इस खेल की ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया। 



कुश्ती जगत के लोगों के अनुसार सुशील कुमार जब एक युवा पहलवान था तब वह कुश्ती के प्रति बहुत समर्पित था। उन दिनों वह हर समय अखाड़े में रह कर खूब ट्रेनिंग करता था। उसकी नज़र भी अर्जुन की नज़र की तरह ओलम्पिक के पदक पर ही गढ़ी हुई थी। खूब मेहनत और मशक़्क़त का ही नतीजा है कि उसे 2008 और फिर उसके बाद लगातार कई पदक मिले जिससे कुश्ती के खेल में देश का नाम रोशन हुआ।


मीडिया में सागर की हत्या के पीछे एक मकान के किराए की बात का काफ़ी ज़िक्र हो रहा है। पुलिस के अनुसार सागर दिल्ली के जिस मकान में रह रहा था वह सुशील की पत्नी के नाम था। कुछ महीनों से किराया न दे पाने के कारण इस हत्या को अंजाम दिया गया। ग़ौरतलब है कि पिछले साल से लॉकडाउन के चलते कई ऐसे मकान मालिक हैं जो अपने किराएदारों से किराया देने पर ज़ोर नहीं दे रहे। सागर धंकड़ भी ‘बेरोज़गार’ था, तो वह किराया कहाँ से दे पाता? पर केवल किराया न दे पाने के कारण ही उसकी हत्या कर देना, यह बात गले नहीं उतरती। 


किसी ने ठीक ही कहा है कि शौहरत को पचा पाना बहुत कठिन होता है। सुशील के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कुश्ती जगत में भारत का नाम कई बार रौशन करने के बाद, एक साधारण परिवार से आए सुशील कुमार एक बेहद ‘सुशील’ व्यक्ति थे। एक बार बाबा रामदेव के बिजवासन फार्म हाउस पर जब वो मुझ से मिला और बाबा ने मेरा परिचय करवाया तो सुशील ने तपाक से मेरे पैर छुए। वो चाहता तो प्रणाम करके भी काम चला लेता। पर ये उसकी विनम्रता ही थी । 


पर शायद उसे अपनी शौहरत बहुत समय तक रास नहीं आई। भारत सरकार के रेल मंत्रालय की नौकरी और फिर दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम के सह निदेशक पद की नौकरी के बावजूद सुना है कि सुशील कुमार ने खुद को कई और धंधों में शामिल कर लिया था। इन धंधों में सबसे ख़तरनाक धंधा था विवादित प्रॉपर्टी में फ़ैसले करवाना। 


यहाँ इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि दिल्ली के पहलवानों का बहुत कम प्रतिशत ऐसे पहलवानों का है जो पहलवानी करने के साथ-साथ दूसरे धंधों में भी शामिल हों। फिर वो चाहे अभिनेताओं के, व्यापारियों के या महंगे होटलों में ‘बाउंसर’ बनना ही क्यों न हो। वे यही करते हैं। ऐसे दूसरे धंधे केवल वही पहलवान करते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। ज़्यादातर पहलवान तो अपनी कुश्ती के अभ्यास में ही लगे रहते हैं और मस्त रहते हैं। वे न तो किसी प्रकार के नशे का सेवन करते हैं और न ही ग़लत संगत में रहते हैं। सुशील कुमार जैसे पहलवान जिसके पास करोड़ों रुपया और शोहरत थी उससे ऐसी उम्मीद शायद ही किसी को होगी ।         


दिल्ली जैसे बड़े शहरों में यह आम बात है कि जब किसी महंगे इलाक़े में कोई मकान, दुकान या फार्म इत्यादि विवादित हो जाते हैं। तो इन विवादों का समाधान या तो राजनैतिक बल या फिर बाहुबल से ही निकलता है। सुशील कुमार के पास ये दोनों बल थे। बस फिर क्या होना था? कुछ लोगों के बहकावे में आने के बाद पिछले कुछ सालों में सुशील ने भी अपने इसी काम का सेटअप चालू कर दिया। 


जानकारों की मानें तो दिल्ली के मॉडल टाउन के जिस मकान से सागर धंकड़ को हत्या वाली रात उठाया गया था, उस विवादित मकान पर पहले सुशील कुमार का ही क़ब्ज़ा था। लेकिन किसी दूसरे गैंग ने उस मकान को अपने क़ब्ज़े में लेकर सागर को उस मकान में रहने के लिए रख दिया था। यह दोनों गैंग के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई थी। जो सागर के लिए जानलेवा बन गई। जिसके बाद गर्व से भारत का ध्वज उठाने वाले सुशील कुमार को अपना मुँह छिपा कर रहने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी गिरफ़्तारी से पहले वो कई हफ़्तों तक पुलिस को चकमा देता रहा।


सुशील की गिरफ़्तारी के बाद कई ऐसे तथ्य और सामने आए हैं जिनसे यह साबित होता है कि सुशील का कुख्यात अपराधियों के साथ भी उठना बैठना हो चुका था। वो इस ग़ैरक़ानूनी दुनिया, जिसे आम भाषा में अंडरवर्ल्ड कहा जाता है, का एक अहम हिस्सा बन चुका था। सच्चाई क्या है यह तो समय ही बताएगा। लेकिन जिस तरह से सुशील-सागर के बीच गुरु-शिष्य का भरोसे टूटा, वह सभी के मन में कई सवाल खड़े करता है। ऐसी क्या मजबूरी थी कि सुशील जैसे अंतराष्ट्रीय ख्याति के पहलवान को ये जोखिम भरा कदम उठाना पड़ा? कहावत है कि ‘फलदार पेड़ और गुणवान व्यक्ति ही झुकते हैं, सूखा पेड़ और मूर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकता’। कद्र तो किरदार की होती है, वरना तो कद में साया भी इंसान से बड़ा होता है।

Monday, August 31, 2015

इन्द्राणी मुखर्जी: हमारी रोल मॉडल नहीं

ऐसी शोहरत, ग्लैमर व ताकत की चमक-दमक वाली दुनिया के सितारे भारतीय समाज के आदर्श नहीं हो सकते। क्योंकि इन्होंने जिस उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति का रास्ता अपनाया है उससे भारतीय समाज की हजारों साल पुरानी परंपरांओं को भारी खतरा पैदा हो गया है। खासकर उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग उन्हें अपना आदर्श मानकर फुहड़पन की भौडी संस्कृति को तेजी से अपनाता जा रहा है। फिर चाहे वो ताश के पत्तों की तरह पति या पत्नियां को बदलना हो, चाहे लिव-इन-रिश्ते में रहना हो या फिर मुक्त सैक्स का आनंद लेना हो। घर टूट रहे हैं। रिश्ते टूट रहें हैं। तनाव और घुटन बढ़ रही है। हत्याएं और आत्महत्याएं हो रही हैं। नशीली दवाओं का सेवन बढ़ रहा है। यह सब देन है टीवी सीरियलों, फिल्मों और पेज-3 संस्कृति की। जो जबरदस्ती हमारे घरों में घुसती जा रही है।

आधुनिक और मुक्त विचारों का हामी बुद्धिजीवी वर्ग इस संस्कृति पर किसी भी तरह के नियंत्रण को मानवाधिकारों का हनन मानता है। ऐसे प्रयासों को कट्टरवादी कह कर उसके विरोध में उठ खड़ा होता है। चूंकि इस वर्ग की पकड़ और पहुंच मीडिया में गहरी और व्यापक हैए इसलिए इनकी ही बात सुनी जाती है। जबकि बहुसंख्यक समाज आज भी इस संस्कृति से बचा हुआ है और इसे पसंद नहीं करता। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि यह बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक वर्ग पर हावी होता जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम हम सबके सामने इस रूप में आ रहा है। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा।

मुक्त विचारों के समर्थक इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि इंद्राणी जैसी औरत को क्या कहेंगे ? जो अपनी बेटी की हत्या करती है, अपने पुराने पति के सहयोग से। नए पति से यह राज छुपाती है कि शीना उसकी बेटी थी और हत्या करके भी नए पति के साथ आराम से सामान्य जिंदगी जीती हैं। अपनी पिछली शादी से पैदा लड़की को, उसके बाप से अलग रखकर नए पति की दत्तक पुत्री बनवा देती है ताकि उसकी दौलत इस दत्तक पुत्री को मिल सके। इन्द्राणी अकेली नहीं हैं। ऐसी ताकतवर, मशहूर और हाई सोसायटी वाली महिलाएं देश की राजधानी दिल्ली से लेकर हर बड़े शहर के कुलीन माने जाने वाले समाज की ‘शोभा’ बढ़ाती हैं और तब तक गुलछर्रे उड़ाती हैं जब तक कोई हिम्मती उनका भांड़ा न फोड़ दे। पर हमारे कुलीन समाज को क्या हो गया है? ये समाज किस रास्ते पर बढ़ चला है ? कहां इस प्रकार के घिनौने कृत्यों पर विराम लगेगा, यह चिंतनीय है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में अवैध संबंधों का इतिहास न रहा हो। वैदिक काल से आज तक ऐसे संबंधों के अनेक उदाहरण पुराणों तक में उल्लेखित हैं द्य पर उनका समाज में आदर्श की तरह यशगान नहीं किया जाता था। उन्हें सह लिया जाता थाए  महिमामंडित नहीं किया जाता था। अगर कड़ी शासन व्यवस्था हुई तो उन पर नियंत्रण भी किया जाता था।

लेकिन आज जो यह संस्कृति निर्लज्जता से साजिशन पनपाई जा रही है, इसके पीछे हैं वो बाजारू ताकतें जो अपने उत्पादनों को हमारे बाजारों में थोपने के लिए हमारी सामाजिक परिस्थिति को बदल देना चाहती हैं। जिसे हम आज आधुनिक मान रहे हैं द्य दरअसल यह संस्कृति पश्चिमी देशों में अपना खोखलापन सिद्ध कर चुकी है। इसलिए वहां के समाजों ने अब इस संस्कृतिक से काफी हद तक मुंह मोड़ लिया हैं और पारिवारिक बंधनों की ओर फिर से लौटने लगे हैं ।

जबकि हम हर आयातित चीज को अपनाने की भूख में अपने अस्तित्व की जड़ों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। छोटे-छोटे काम ही हमें आगे चलकर बड़े पतन की ओर ले जाएंगे। आज भारत के किसी भी गांव, कस्बें में चले जाइएए फेरों बिना शादी हो जाएगी पर डीजे बिना नहीं होगी। डीजे में फटता कानफाडू शोर, अभद्र गानें और उनपर थिरकतें हमारे परिवारिजन शादी का सारा मजा किरकिरा कर देते हैं। न कोई बात सुनपाता है और न मंत्रों का उच्चारण। जबकि शादी जैसे पवित्र समारोह भारतीय संस्कृति और परंपरा के उन उच्च आदर्शों का नमूना है जिन्हें अपनाने आज बड़े-बड़े मशहूर गोरे लोग तक भारत आ रहे हैं।

पारंपरिक त्यौहार जिनका संबंध हमारे मौसम और कृषि से था उन्हें भूलकर हम वेलेनटाइन-डे जैसे वाहियात नए त्यौहारों को अपना कर अपनी जड़ों से कट रहे हैं। इकबाल ने कहा था, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।‘ हजारों साल भारत ने विदेशी हमलों को झेला मगर हमारी संस्कृति की जड़े इतनी गहरी थी कि कोई उन्हें हिला नहीं पाया। पर बाजार की इस संस्कृति ने जो हमला किया है, उसने हमारे गांवों तक अपनी पकड़ बना ली है। इसे रोकना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विरोधी लाख तानाशाह कहें, पर उन्हें ऐसी तानाशाही दिखानी होगी ताकि टीवी और इंटरनेट से ऐसी संस्कृति को रोकने का माहौल बन सके। इसलिए इस तरह के तथाकथित ग्लैमर, शोहरत और ताकत के बल पर अति महत्वाकांक्षी आधुनिक संस्कृति का पटाक्षेप हो सके द्य जो आने वाली हमारी पीढ़ियों के लिए जरूरी है।