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Monday, March 27, 2017

वेदों के अनुसार आकाश की बिजली का प्रयोग संभव

बिजली आज सभ्य समाज की बुनियादी जरूरत बन चुकी है। गरीब-अमीर सबको इसकी जरूरत है। विकासशील देशों में बिजली का उत्पादन इतना नहीं होता कि हर किसी की जरूरत को पूरा कर सके। इसलिए बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्त्रोत लगातार ढू़ढे जाते है। पानी से बिजली बनती है, कोयले से बनती है, न्यूक्लियर रियेक्टर से बनती है और सूर्य के प्रकाश से भी बनती है। लेकिन वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर जिन्होंने वैदिक विज्ञान के आधार पर आधुनिक जगत की कई बड़ी चुनौतियों को मौलिक रूप से सुलझाने का काम किया है, उनका दावा है कि बादलों में चमकने वाली बिजली को भी आदमी की जरूरत के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एक हकीकत है। दुनिया के विकसित देश जैसे अमेरिका, जापान, चीन, फ़्रांस आदि तो इस बिजली के दोहन के लिए संगठित भी हो चुके हैं । उनकी संस्था का नाम है ‘इंटरनेशनल कमीशन आन एटमास्फारिक इलैक्ट्रिसिटी’। दुर्भाग्य से भारत इस संगठन का सदस्य नहीं है। अलबत्ता यह बात दूसरी है कि भारत के वैदिक शास्त्रों में इस आकाशीय बिजली को नियंत्रित करने का उल्लेख आता है। देवताओं के राजा इंद्र को इसकी महारत हासिल है। सुनने में यह विचार अटपटा लगेगा। ठीक वैसे ही जैसे आज से सौ वर्ष पहले अगर कोई कहता कि मैं लोहे के जहाज में बैठकर उड़ जाउंगा! तो दुनिया उसका मजाक उड़ाती।

पृथ्वी की सतह से 80 किमी. उपर तक तो हमारा वायुमंडल है। उसके उपर 220 किमी. का एक अदृश्य गोला पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। जिसे ‘आईनों स्फियर’ कहते हैं। जो ‘आयन्स’ से बना हुआ है। इस आयनो स्फियर के कण बिजली से चार्ज होते हैं। उनके और पृथ्वी की सतह के बीच लगातार आकाशीय बिजली का आदान प्रदान होता रहता है। इस तरह एक ग्लोबल सर्किट काम करता है। जो आंखों से दिखाई नहीं देता लेकिन इतनी बिजली का आदान प्रदान होता है कि पूरी दुनिया की 700 करोड़ आबादी की बिजली की जरूरत बिना खर्च किये पूरी हो सकती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था का यही उद्देश्य है कि कैसे इस बिजली को मानव की आवश्यक्ता के लिए प्रयोग किया जाये।

जब आकाश में बिजली चमकती है, तो ये प्रायः पहले पहाड़ों की चोटियों पर लगातार गिरती हैं। डा. कपूर बताते हैं कि इस बिजली से 30000 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा होता है। जिससे पहाड़ की चोटी खंडित हो जाती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था ने अभी तक मात्र इतनी सफलता प्राप्त की है कि इस बिजली से वे पहाड़ों के शिखरों को तोड़कर समतल बनाने का काम करने लगे हैं। जो काम अभी तक डायनामाईट करता था। ऋग्वेद के अनुसार देवराज इंद्र ने शंभर राक्षस के 99 किले इसी बिजली से ध्वस्त किये थे। ऋग्वेद में इंद्र की प्रशंक्ति में 300 सूक्त हैं। जिनमें इस बिजली के प्रयोग की विधियां बताई गई है।

वेदों के अनुसार इस बिजली को साधारण विज्ञान की मदद से ग्रिड में डालकर उपयोग में लाया जा सकता है। न्यूयार्क की मशहूर इमारत इंम्पायर स्टेट बिल्डिंग के शिखर पर जो तड़िचालक लगा है
, उस पर पूरे वर्ष में औसतन 300 बार बिजली गिरती है। जिसे लाइट्निंग कंडक्टर के माध्यम से धरती के अंदर पहुंचा दिया जाता है। भारत में भी आपने अनेक भवनों के उपर ऐसे तड़िचालक देखे होंगे, जो भवनों को आकाशीय बिजली के गिरने से होने वाले नुकसान से बचाते हैं। अगर इस बिजली को जमीन के अंदर न ले जाकर एडाप्टर लगाकर, उसके पैरामीटर्स बदलकर, उसको ग्रिड में दे दिया जाये तो इसका वितरण मानवीय आवश्यक्ता के लिए किया जा सकता है।

मेघालय प्रांत जैसा नाम से ही स्पष्ट है, बादलों का घर है। जहां दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश होती है और सबसे ज्यादा बिजली गिरती है। इन बादलों को वेदों में पर्जन्य बादल कहा जाता है और विज्ञान की भाषा में ‘कुमुलोनिम्बस क्लाउड’ कहा जाता है। किसी हवाई जहाज को इस बादल के बीच जाने की अनुमति नहीं होती। क्योंकि ऐसा करने पर पूरा जहाज अग्नि की भेंट चढ़ सकता है। बादल फटना जो कि एक भारी प्राकृतिक आपदा है, जैसी उत्तराखंड में हुई, उसे भी इस विधि से रोका जा सकता है। अगर हिमालय की चोटियों पर ‘इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट’ लगा दिये जाए और इस तरह पर्जन्य बादलों से प्राप्त बिजली को ग्रिड को दे दिया जाए तो उत्तर भारत की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो जायेगी और बादल फटने की समस्या से भी छुटकरा मिल जायेगा।

धरती की सतह से 50000 किमी. ऊपर धरती का चुम्बकीय आवर्त (मैग्नेटो स्फियर) समाप्त हो जाता है। इस स्तर पर सूर्य से आने वाली सौर्य हवाओं के विद्युत आवर्त कण (आयन्स) उत्तरी और दक्षिणी धु्रव से पृथ्वी में प्रवेश करते हैं, जिन्हें अरोरा लाईट्स के नाम से जाना जाता है। इनमें इतनी उर्जा होती है कि अगर उसको भी एक वेव गाइड के माध्यम से इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट लगाकर ग्रिड में दिया जाये तो पूरी दुनिया की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो सकती है। डा. कपूर सवाल करते हैं कि भारत सरकार का विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय क्यों सोया हुआ है ? जबकि हमारे वैदिक ज्ञान का लाभ उठाकर दुनियों के विकसित देश आकाशीय बिजली के प्रयोग करने की तैयारी करने में जुटे हैं।

Monday, March 20, 2017

योगी बदलेंगे यूपी का चेहरा

जैसे ही योगी आदित्यनाथ जी के नाम की घोषणा हुई, टीवी चैनलों पर बैठे कुछ टिप्प्णीकाओं ने इस समाचार पर असंतोष जताया। उनका कहना था कि योगी समाज में विघटन की राजनीति करेंगे और प्रधानमंत्री मोदी के विकास के एजेंडा को दरकिनार कर देंगे। यह सोच सरासर गलत है। विकास का ऐंजेंडा हो या कुशल प्रशासन, उसकी पहली शर्त है कि राजनेता चरित्रवान होना चाहिए। आजकल राजनीति में सबसे बड़ा संकंट चरित्र का हो गया है। चरित्रवान राजनेता ढू़ढ़े से नहीं मिलते। 21 वर्ष की अल्पायु में समाज और धर्म के लिए घर त्यागने वाला कोई युवा कुछ मजबूत इरादे लेकर ही निकलता है। योगी आदित्यनाथ ने अपने शुद्ध सात्विक आचरण और नैष्टिक ब्रह्मचर्य से अपने चरित्रवान होने का समुचित प्रमाण दे दिया है। पांच बार लोकसभा जीतकर उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता को भी स्थापित कर दिया है। गोरखनाथ पंथ की इस गद्दी का इतिहास रहा है कि इस पर बैठने वाले संत चरित्रवान, निष्ठावान और देशभक्त रहें हैं। इतनी बड़ी गद्दी के महंत होकर भी योगी जी पर कभी कोई आरोप नहीं लगे।

आज राजीनिति की दूसरी समस्या है बढ़ता परिवारवाद। कोई दल इससे अछूता नहीं है। दावे कोई कितने ही कर ले, पर हर दल का नेता अपने परिवार को बढ़ाने में ही लगा रहता है और जनता की उपेक्षा कर देता है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी जैसे विरले ही होते हैं, जो राजनीति के सर्वाेच्च स्तर पर पहुंच कर भी परिवार के लिए कुछ नहीं करते। क्योंकि वे परिवार को पहले ही बहुत पीछे छोड़ आये हैं। उनके लिए समाज, राष्ट्र और धर्म यही प्राथमिकता होती है। उ.प्र को दशाब्दियों बाद एक ऐसा नेतृत्व मिला है, जो चरित्रवान है, विचारवान है, आस्थावान है और जिसके परिवारवाद में फंसने की कोई गुंजाइश नही है। इसलिए ये कहना कि योगी जी के आने से विकास का ऐजेंडा पीछे चला जायेगा, सरासर गलत है।
ये सही है कि उ.प्र. के प्रशासन में चाहे वो पुलिस हो, सामान्य प्रशासन हो या न्यायपालिका तीनों में ही भारी भ्रष्टावार व्याप्त है। बिना आमूल-चूल परिवर्तन किये हालात बदलने वाले नहीं है। यही सबसे बड़ी चुनौती है, योगीजी के समने। उन्हें  औपनिवेशिक मानसिकता वाली प्रशासनिक व्यवस्था को तोड़ना होगा और राजऋषी की भूमिका में आना होगा। चाणक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश के राजा महलों में रहते हैं, उनकी प्रजा झोपड़ियों में रहती है और जिसके राजा झोंपड़ियों में रहते है उसकी प्रजा महलों में रहती है। योगी जी ने पहले ही इसके संकेत दिये है कि वे स्वयं और अपने मंत्री मंडल को राजा की तरह नहीं बल्कि प्रजा के सेवक के रूप में देखना चाहेंगे। जहां तक सवाल है प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने का उसके लिए कड़े इरादे की जरूरत होती है। योगी जी का इतिहास रहा है कि ‘प्राण जाये पर वचन न जाई’ वे अपने वचन पर अटल रहते हैं। जो ठान लिया सो करके रहेंगे। फिर न तो उन्हें बिकाऊ मीडिया की परवाह होती है और न ही छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों की।

रही बात अल्पसंख्यको की तो ये शब्द ही विघटनकारी है। जब संविधान में सबको समान हक मिला हुआ है, तो कौन बहुसंख्यक और कौन अल्पसंख्यक! उन्हें ऐसे निर्णय लेने होंगे, जिनसे समाज में समरसता आये और ये अल्पसंख्यकवाद की नौटंकी बंद हो। जो बहुसंख्यक मुसलमान अपने कारोबार में जुटे हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नही पड़ेगा। क्योंकि वे तो पहले से ही राष्ट्र की मुख्यधारा में हैं। लेकिन जो मुसलमान आतंकवाद की टोपी पहनकर गऊ हत्या, देह व्यापार, तस्करी और नशीली दवाओं के व्यापार में लिप्त हैं, उनकी नकेल जरूर कसी जायेगी। अब उनके लिए बेहतर यही होगा कि वे उ.प्र. छोड़कर भाग जायें।

उ.प्र. को संतुलित और सही विकास की जरूरत है। इसके लिए गहरी समझ, गंभीर सोच, क्रंतिकारी विचारों और ठोस नेतृत्व की आवश्यक्ता है। आवश्यक नहीं की राजा सर्वगुण संपन्न हो। उसकी योग्यता तो इस बात में हैं कि वह एक जौहरी की तरह हो, गुणग्राही हो और उस मेधा को पहचानने की क्षमता रखता हो, जिनसे वह वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति करवा सके। योगी जी ने अगर ऐसा रास्ता पकड़ा और सही लोगों को अपनी टीम में शामिल करके उ.प्र के विकास का मार्ग तैयार किया, तो निःसंदेह प्रधानमंत्री मोदी के विकास के ऐंजंडा को बहुत आगे ले जायेंगे। 

उ.प्र. कीे समस्याओं की सूची बहुत लंबी है। जिन्हें एक लेख में समाहित नहीं किया जा सकता। आने वाले सप्ताहों में हम इन मुद्दों पर अपने अनुभव और समझ के अनुसार प्रकाश डालेंगें और उम्मीद करेंगे कि हमारी बात योगीजी तक पहुंचे। 

लगे हाथ पंजाब की भी चर्चा कर लेनी चाहिए। अकाली दल के वंशवाद से त्रस्त होकर पंजाब की जनता ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को गद्दी सौंप दी और राजनीति के बहरूपिया अरविंद केजरीवाल को रिजेक्ट कर दिया। इस काॅलम में हम पिछले पांच वर्ष से बराबर लिखते आये हैं कि अरविंद केजरीवाल की राजीनीति केवल आत्मकेंद्रित है। ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और’ पर इसका मतलब ये नहीं कि कैप्टन साहब को मनमानी हुकुमत चलाने का पट्टा मिल गया हो। वे भी देख रहें है कि देश में राजनीति की दशा और दिशा दोंनो बदल रही है। ऐसे में अगर उन्होंने जनता को सामने रखकर पारदर्शिता से ठोस काम नहीं किया तो अगले लोकसभा चुनाव में उनके दल को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी की आंधी  के बीच वे अपना दीया इस तरह जलाकर रखेंगे, जिससे पंजाब कि मतदाता को निराशा न हो।

Monday, March 13, 2017

चन्द्रगुप्त मौर्य बनेंगे नरेन्द्र मोदी

उ.प्र. के चुनाव परिणामों ने मोदी के राष्ट्रवाद पर मोहर लगा दी है। जो इस उम्मीद में थे कि नोटबंदी मोदी को ले डूबेगी, उन्हें अब बगले झांकनी पड़ रही है। हमने नोटबंदी के उन्माद के दौर में भी लिखा था कि तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा की तरह मोदी सब विरोधों को झेलते हुए अपना लक्ष्य हासिल कर लेंगे। उनके सेनापति अमित शाह ने एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रांत जीतकर मोदी की ताकत को कई गुना बढ़ा दिया है। दरअसल उ.प्र. की जनता को मोदी का प्रखर राष्ट्रवाद अपील कर गया। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति ने देश का सही विकास नहीं होने दिया। इससे न हिंदुओं का लाभ हुआ और न मुसलमानों को।

मगर यह भी सही है कि भाजपा ने उप्र को जीतकर अपनी जिम्मेदारियां और बढ़ा ली हैं। क्षेत्रीय दलों को केंद्र में रखकर देखें तो यह चैंकाने वाली बात है कि उप्र में दोनों प्रमुख दल यानी सपा और बसपा लगभग हाशिए पर चले गए हैं। यह बात देश की राजनीति में क्षेत्रीय राजनीति के अवसान का संकेत दे रही है।

यह सर्वस्वीकार्य बात है कि भाजपा का उप्र में अपना वजूद कोई बहुत ज्यादा नहीं था। भाजपा के लिए मोदी और अमित शाह की अपनी हैसियत ने ही सारा काम किया। इसलिए यह जीत भी उन्ही की ही साबित होती है। इसलिए चाय बेचने से लेकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुचने का मोदी का सफर चंद्रगुपता मौर्य की तरह संघर्षों से भरा रहा है। इसलिए यह विश्वास होता  है कि मोदी भी मौर्य शासक की तरह भारत  को सुदृढ़ बनाने का काम करेंगे।

अगर ऐसा है तो उप्र की जनता की उम्मीदें भाजपा से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही होंगी। और इसमें भी कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री होने के कारण उनकी हैसियत भी बहुत कुछ करने की है।

यहां याद दिलाने की बात यह है कि उप्र में प्रचार के दौरान मोदी ने उप्र के विकास में बाधाओं की बात कही थी। उन बाधाओं में एक थी कि केंद्र की भेजी मदद को उप्र खर्च नहीं कर पाया। यानी उप्र में सरकारी खर्च बढ़ाया जाना पहला काम होगा जो सरकार बनते ही दिखना चाहिए। किसानों की कर्ज माफी दूसरा बड़ा काम है। लेकिन इसके लिए उप्र सरकार कितना क्या कर पाएगी यह अभी देखना होगा लेकिन पूरे देश के लिहाज से भी यह काम असंभव नहीं है। हो सकता है कि उप्र के बहाने पूरे देश को किसानों को यह राहत मिल जाए।

उप्र में प्रचार के दौरान अखिलेश सरकार ने अपने विकास कार्यों को मुख्य मुददा बनाने की कोशिश जरूर की थी लेकिन चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि यह मुददा बन नहीं पाया। बल्कि भाजपा ने प्रदेश में सड़कें, पुल, सिंचाई, नए कारखाने, रोजगार की कमी बताते हुए अखिलेश सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश्श की थी। सो अब बिल्कुल तय है कि इन मोर्चों पर नई सरकार को कुछ करते हुए दिखना पड़ेगा। लेकिन इन कामों को पहले से ज्यादा बड़े पैमाने पर होते हुए दिखाना आसान काम नहीं है। इसीलिए नई सरकार को इस मामले में सतर्क रहना पड़ेगा कि पहले से जो हो रहा था उसकी अनदेखी न हो जाए।

लगे हाथ इस बात की चर्चा कर लेनी चाहिए कि क्या उप्र का चुनाव वाकई 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले एक सेमीफायनल था। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री को ही आगे रखकर चुनाव लड़ा गया। लेकिन इतने भर से उप्र का चुनाव सेमीफायनल जैसा नहीं बन जाता। खासतौर पर इसलिए क्योंकि 2019 के पहले कुछ और बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उन चुनावों के दौरान भी भाजपा को प्रधानमंत्री का चेहरा दाव पर लगाना पड़ेगा। हालांकि उन ज्यादातर प्रदेशों में भाजपा की ही सरकार है। सो यह तय है कि उप्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद शुरू हुए नए कामों का जिक्र किया जाएगा। इस लिहाज से भाजपा को उप्र में अपना ही विकास मंच सजाने की जरूरत पड़ेगी। तभी वह 2019 के पहले होने वाले विधान सभा चुनावों में सिर उठा कर प्रचार कर पाएगी। इस तरह  साबित होता है कि सेमीफाइनल उप्र नहीं था बल्कि अभी होना है।

उप्र में भाजपा को जीत ऐसे मुश्किल समय में मिली है जब केंद्र में मोदी सरकार के तीन साल गुजर चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अपनी उपलब्धियों को भौतिक रूप से कैसे दिखाए। अब तक जिन प्रदेशों में उसकी सरकार बनी है वे सारे बीमारू राज्य के रूप में प्रचारित किए जाते थे। अपनी सत्ता आने के पहले यह प्रचार खुद भाजपा ही करती आ रही थी। सो स्वाभाविक था उन राज्यों की हालत सुधार देने का दावा उसे लगातार करना ही पड़ा। लेकिन वे छोटे राज्य थे। अब जिम्मेदारी उप्र जैसे भारीभरकम राज्य में कर दिखाने की आई है।

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, February 13, 2017

शराब की भी दुकानें क्यों न हों कैशलेस?

प्रधानमंत्री पूरी ताकत लगा रहे है भारत को कैशलेस समाज बनाने के लिए। सरकार से जुड़ी हर ईकाई इस काम के प्रचार में जुटी है। यह तो प्रधानमंत्री भी जानते हैं कि सौ फीसदी भारतवासियों को रातों-रात डिजीटल व्यवस्था में ढाला नहीं जा सकता। पर कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ इस काम को प्राथमिकता पर किया जा सकता है। इसलिए भारत और राज्य सरकारों को सबसे पहले शराब की सभी दुकानों को अनिवार्यतः कैशलेस कर देना चाहिए। क्योंकि यहां प्रतिदिन हजारों लाखों रूपये की नकदी आती है। हर शराबी नकद पैसे से ही शराब खरीदकर पीता और पिलाता है। सरकार को चाहिए कि शराब खरीदने के लिए  बैंक खाता, आधार कार्ड व बीपीएल कार्ड (जिनके पास है) दिखाने की अनिवार्यता हो। बिना ऐसा कोई प्रमाण दिखाये शराब बेचना और खरीदना दंडनीय अपराध हो।

इसका सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि सरकार को ये भी पता चल जाएगा की जिन लोगों को सरकार आरक्षण, आर्थिक सहायता, सब्सिडी, फीस में छूट, नौकरियों में छूट, 2 रू.किलो गेहूं, मुफ्त आवास व बीपीएल के लाभ आदि दे रही है उनमे कितने लोग किस तरह शराब पर पैसा खर्च कर रहे हैं। कितने फर्जी लोग जो अपना नाम बीपीएल सूची में सम्मिलित करवाये बैठे हैं वो भी स्वतः ही पता चल जाएंगे । क्योंकि प्रतिमाह हजार डेढ़ हजार रुपया शराब पर खर्च करने वाला गरीबी फायदे लेने वका हकदार नहीं है।

शराब की बिक्री को कैशलेस करने के अन्य कई लाभ होंगे। जो लोग भारी मात्रा में एकमुश्त  शराब खरीदते हैं जैसे अपराधी, अंडरवलर्ड, सरकारी अधिकारी और पुलिसबल को शराब बांटने वले व्यापारी, माफिया व राजनीतिज्ञ इन सबकी भी पोल खुल जाएगी। क्योंकी इन धंधों में लगे लोगों को प्रायः भारी मात्रा में अपने कारिंदों को भी शराब बांटनी होती है। जब पैनकार्ड या आधार कार्ड पर शराब खरीदने की अनिवार्यता होगी तो थोक में शराब खरीदकर बाँटने वाले गलत धंधो में लगे लोग बेनकाब होंगे। क्योंकि तब उनसे इस थोक खरीद की वजह और हिसाब कभी भी माँगा जा सकता है। माना जा सकता है कि ऐसा करने से अपराध में कमी आयेगी।

उधर बड़े से बड़े शराब कारखानो में आबकारी शुल्क की चोरी धड़ल्ले से होती है। चोरी का ये कारोबार अरबों रुपये का होता है। मुझे याद है आज से 43 वर्ष पहले 1974 में मैं एक बार अपने चार्टर्ड अकाउंटेंट मित्र के साथ शराब कारखाने के अतिथि निवास में रुका था। शाम होती ही वहां तैनात सभी आबकारी अधिकारी जमा हो गए और उन लोगों का मुफ्त की शराब और कबाब का दौर देर रात तक चलता रहा। चलते वख्त वो लोग अपने दोस्तों और  रिश्तेदारों को बाँटने के लिए अपने साथ मुफ्त की शराब की दो-दो बोतलें भी लेते गए। जिसका कोई हिसाब रिेकार्ड में दर्ज नहीं था। पूछने पर पता चला कि आबकारी विभाग के छोटे से बड़े अधिकारी, सचिव और मंत्री को मोटी रकम हर महीने रिश्वत में जाती है। जिसकी एवज में कारखानों में तैनात आबकारी अधिकारी शराब कारखानों के मालिकों के बनाये फर्जी दस्तावेजों पर स्वीकृति की मोहर लगा देते हैं। मतलब अगर 6 ट्रक शराब कारखाने से बाहर जाती है, तो आबकारी रिकॉर्ड में केवल एक ट्रक ही दर्ज होता है। ऐसे में कैशलेस बिक्री कर देने से पूरा तंत्र पकड़ा जायेगा। 

पर सवाल है कि क्या कोई भी सरकार इसे सख्ती से लागू कर पाएगी? गुजरात में ही लंबे समय से शराबबंदी लागू है। पर गुजरात के आप किसी भी शहर में शराब खरीद और पिला सकते है। तू डाल- डाल तो वो पात-पात।

शराब के कारोबार का ये तो था उजाला पक्ष। एक दूसरा अँधेरा पक्ष भी है। पुलिस और आबकारी विभाग की मिलीभगत से देश के हर इलाके में भारी मात्रा में नकली शराब बनती और बिकती है। जब कभी नकली शराब पीने वालों की सामूहिक मौत का कोई बड़ा कांड हो जाता है तब दो चार दिन मीडिया में हंगामा होता है, धड़ पकड़ होती है, पर फिर वही ढाक के तीन पात। इस कारोबार को कैशलेस कैसे बनाया जाय ये भी सरकार को सोचना होगा।                       
 
शराब के दुर्गणों को पीने वाला भी जानता है और बेचने वाला भी। कितने जीवन और कितने घर शराब बर्बाद कर देती है। पर ये भी शाश्वत सत्य है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही शराब उसका अभिन्न अंग रही है। बच्चन की ‘मधुशाला’ से गालिब तक शराब की तारीफ में कसीदे कसने वालों की कमी नहीं रही। गम गलत करना हो, मस्ती करनी हो, किसी पर हत्या का जुनून चढ़ाना हो, दंगे करवाने हों, फौज को दुर्गम परिस्थियों में तैनात रखना हो और उनसे दुश्मन पर खूंखार हमला करवाना हो तो शराब संजीवनी का काम करती है। इसीलिये मुल्ला-संत कितने भी उपदेश देते रहें कुरान, ग्रन्थ साहिब या पुराण कितना भी ज्ञान दें, पर शराब हमेशा रही है और हमेशा रहेगी। जरूरत इसको नियंत्रित करने की होती है। फिर कैशलेस के दौर में शराब की बिक्री को क्यों न कैशलेस बना कर देखा जाय ? देखें क्या परिणाम आता है।

Monday, January 30, 2017

प्रधान मंत्री जी कुछ सोचिए

आपकी दबंगाई और भारत को सशक्त राष्ट्र बनाने का जुनून ही था जिसने सारे हिंदुस्तान को 2014 में आपके पीछे खड़ा कर दिया। इन तीन वर्षों में अपने कामों और विचारों से आपने यह संदेश दिया है कि आप लीक से हटकर सोचते हैं और इतिहास रचना चाहते हैं। आशा है कि आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे। पर कुछ बुनियादी बात है जिन पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। जब तक योजना बनाने और उसे लागू करने के तरीके में बदलाव नहीं आयेगा, आपके सपने जमीन पर नहीं उतर पाऐंगे। आज भी केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक कन्सल्टेंसी के नाम पर तमाम नामी कंपनियां देश को चूना लगा रही है। इन्हें इनका नाम देखकर मोटी फीस दी जाती है। जबकि ये बुनियादी सर्वेक्षण भी नहीं करती, फर्जी आकड़ों से डीपीआर बनाकर उसे पारित करवा लेती हैं। जिससे धन और संसाधन दोनों की बर्बादी होती है। वांछित लाभ भी नहीं मिल पाता। हमारे जैसे बहुत से लोग जो धरोहरों के संरक्षण का वर्षों से ठोस और बुनियादी काम कर रहे हैं, उन्हें उनकी बैलेंसशीट भारी भरकम न होने के कारण मौका नहीं दिया जाता। इस दुष्चक्र को तोड़े बिना सार्थक, बुनियादी, किफायती और जनउपयोगी प्रोजेक्ट नहीं बन पाते। जो विकास के नाम पर खड़ा किया जाता है वो लिफाफों से ज्यादा कुछ नहीं होता। आप चाहें तो आपको इसके प्रमाण भेजे जा सकते हैं।

    दूसरी समस्या इस बात की है कि इन योजनाओं के क्रियान्वयन में उन ठेकेदारों को पुरातात्विक संरक्षण के ठेके दिये जाते हैं जिन्हें केवल नाली, खड़जे बनाने का ही अनुभव होता है। भला उनका कलात्मक धरोहरों से क्या नाता? इसमें एक बुनियादी परिवर्तन तब आया जब आपकी प्रेरणा से शहरी विकास मंत्रालय ने, आपकी प्रिय ‘हृदय योजना’ के लिए मुझे राष्ट्रीय सलाहाकार चुना और मैंने वेंकैया नायडू जी से कहकर एक नीतिगत सुधार करवाया कि ‘हृदय योजना’ के तहत ठेके देने और बिल पास करने का काम जिला प्रशासन बिना ‘सिटी एंकर’ की लिखित अनुमति के नहीं करेगा। ‘सिटी एंकर’ का चुनाव मंत्रालय ने योग्यता और अनुभव के आधार पर राष्ट्रव्यापी, पारदर्शी प्रक्रिया से किया था। इस एक सुधार के अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं।

    तीसरी समस्या सांसद निधि को लेकर है। विभिन्न राजनैतिक दलों के हमारे कितने ही साथी और मित्र सांसद हैं और हमारे अनुरोध पर विभिन्न विकास योजनाओं के लिए अपनी सांसद निधि से, बिना कोई कमीशन लिए, सहर्ष आवंटन कर देते हैं। पर जिलों के स्तर पर इस पैसे में से मोटा कमीशन वसूल लिया जाता है। न सांसद कमीशन खा रहे हैं और न प्रेरणा देने वाली संस्था ही भ्रष्ट है, फिर क्यों राज्य सरकारों केे वेतनभोगी अधिकारी सांसद निधि में से मोटा कमीशन वसूलने को तैयार बैठे रहते हैं? जिस तरह आप  निर्धनों के बैंक खातों में सब्सिडी की रकम सीधे डलवाने की जोरदार योजना लाने की तैयारी में हैं, उसी तरह आपके सांख्यिकी मंत्रालय को चाहिए कि वो शहरी विकास मंत्रालय की तरह ही राष्ट्रव्यापी व पारदर्शी व्यवस्था के तहत कार्यदायी संस्थाओं का चयन उनकी योग्यता और अनुभव के आधार पर कर लें। फिर वे चाहें धमार्थ संस्थाऐं ही क्यों न हों। इस चयन के बाद सांसद निधि से धन सीधा इनके खातों में डलवा दिया जायें जिससे प्रशासन का बिचैलियापन समाप्त हो जायेगा।

    चैथी समस्या है कि कला, संस्कृति, पर्यावरण जैसे अनेक मंत्रालयों से जुड़ी अनेक संस्थाऐं और समीतियों में सदस्यों के नामित किये जाने की है। जिनमें समाज के अनुभवी और योग्य लोगों को नामित किया जाना चाहिए। आपके आलोचक काफी हल्ला मचा रहे हैं कि आपने अनेक राष्ट्रीय स्तर की अनेक संस्थाओं में अपने दल से जुड़े अयोग्य लोगों को महत्वपूर्णं पदों पर बैठा दिया है। मैं इन लोगों की आलोचना से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि मैंने गत 35 वर्ष के पत्रकारिता जीवन में यही देखा कि जिसकी सरकार होती है, उसके ही लोग ऐसी जगहों में बिठा दिये जाते हैं। चाहें वे कितने ही अयोग्य क्यों न हों। पर आपसे शिकायत यह है कि जो लोग सिद्धातः किसी राजनैतिक दल से नही जुड़े हैं लेकिन पूरी निष्ठा, ईमानदारी और कुशलता के साथ अपने-अपने क्षेत्रों में योगदान दे रहें हैं। लेकिन उन्हें किसी भी महत्वपूर्णं जिम्मेदारी से केवल इसलिए वंचित किया जा रहा है क्योंकि वे आपके दल से जुड़े हुए नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ऐसे योग्य, निष्ठावन और अनुभवी लोगों को तो कभी ऐसा मौका मिलेगा ही नहीं? क्योंकि जो भी दल सत्ता में आयेगा वो यही कहेगा कि आप हमारे दल के नहीं हो। कम से कम गुणों के पारखी नरेन्द्र मोदी की सरकार में तो ये बदलना चाहिए। हमने तो सुना था कि आप योग्य व्यक्तियों को बुलाकर काम सौंपते हो चाहे उसके लिए आपको नियमों और नौकरशाही के विरोध को भी दरकिनार करना पड़े। बिना ऐसा किये इन संस्थाओं की गुणवत्ता नहीं बदलेगी। आजादी के बाद कांग्रेस का दामन पकड़कर साम्यवादी इन संस्थाओं पर हावी रहे और इनका मूल भारतीय स्वरूप ही नष्ट कर दिया। अब मौका आया है तो आप दल के मोह से आगे बढ़कर राष्ट्रहित में काम हो, ऐसी नीति बनाओ।

    पांचवी समस्या है कि एक ही क्षेत्र के विकास के लिए केंद्र सरकार की अनेक योजनाऐं अलग-अलग मंत्रालयों से जारी होते हैं। समन्वय के अभाव में नाहक पैसा बर्बाद होता है। वांछित परिणाम नहीं मिलता। होना यह चाहिए कि केंद्र सरकार की ऐसी सभी योजनाऐं समेकित नीति के तहत जारी हों और उनकी गुणवत्ता और क्रियान्वयन पर जागरूक नागरिकों की निगरानी की व्यवस्था हो। ऐसे अनेक छोटे लेकिन दूरगामी परिणाम वाले कदम उठाकर आप अपनी सरकार से वो हासिल कर सकते हो, जिसका सपना लेकर आप प्रधानमंत्री बने हो। जाहिर है आप अपनी कुर्सी अपने किसी पप्पू को सौंपने तो आये नहीं हो, कुछ कर दिखाना चाहते हो, तो कुछ अनूठा करना पड़़ेगा।

Monday, January 23, 2017

आरक्षण मसला ठेठ राजनीतिक हो जाना

उ.प्र. चुनाव के पहले आरक्षण की बात उठाए जाने का मतलब क्या है| वैसे अब इस पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इस मुददे को अभी भी संवेदनशील समझा जा रहा है। कौन नहीं जानता कि आरक्षण जैसा मुददा बार-बार उठा कर सामान्य श्रेणी के लोगों को लुभाने की कोशिश हमेशा से होती रही है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि ऐसे मुददों के बार-बार इस्तेमाल होने से उनकी धार कुंद पड़ जाती है। शायद इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार आरक्षण की बात ने उतना तूल नहीं पकड़ा जितना यह मुद्दा तुल पक़ता था फिर भी जब बात उठी ही है तो आज के परिप्रेक्ष्य में इसे एक बार फिर देख लेने में हर्ज नहीं है।


बिहार चुनाव के पहले भी ऐसी ही बातें उठी थीं। लेकिन इस मुद्दे का इस्तेमाल करने वालों के हाथ कुछ नहीं आया था। बल्कि यह विश्लेषण किया गया था कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी को इससे नुकसान हुआ। हालांकि राजनीति में यह हिसाब लगाना बड़ा मुश्किल होता है कि किस बात से कितना नुकसान हुआ या कितना फायदा हुआ। लिहाजा अब उ.प्र. चुनाव के पहले इसके नफे नुकसान का अनुमान लगाया जाने लगा है।


भले ही कुछ वर्षों से आरक्षण को लेकर खुलेआम राजनीति होने लगी हो लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह मुददा राजनीति की बजाए सामाजिक ही ज्यादा है। यानी इसपर सोचविचार भी सामाजिक व्यवस्था के गुणदोष लिहाज से होना चाहिए। लेकिन यहां दुर्भाग्य यह है कि सामाजिक मुददों पर विचार विमर्श होना बंद हो चला है। इसीलिए ऐसे मुददों पर बात तभी उठती है जब राजनीतिक जरूरत पड़ती है। सो पहले बिहार और अब उ.प्र. के चुनाव के पहले की बात उठी है। चालिए राजनीति के बहाने ही सही अगर इस पर सोचने का मौका पैदा हुआ है तो इस मौके का फायदा उठाया जाना चाहिए।


नौकरियों में और शिक्षा में आरक्षण अगर एक संवैधानिक व्यवस्था है तो हमें यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इस पर खूब सोचविचार के बाद ही इसे स्वीकार किया गया होगा। हर बार इकन्ना एक से गिनती गिनना हमारी नीयत पर शक पैदा करने लगेगा। जाहिर है कि मौजूदा परिस्थिति को सामने रखकर और आगे की बात सोचते हुए इस पर बात होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो इस समय आरक्षण के औचित्य पर चर्चा करना एक ही बात को बार-बार दोहराना ही होगा। हां आरक्षण की व्यवस्था से होने वाले लाभ हाानि की समीक्षा होते रहने के औचित्य को कोई नहीं नकारेगा। इस संवैधानिक व्यवस्था को कब तक बनाए रखना है इस पर भी शुरू में ही सोच लिया गया था। इस तरह से हम कह सकते हैं आज हमें सिर्फ इतना भर देखने की इजाजत है कि क्या आरक्षण की व्यवस्था ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है|


आरक्षण की व्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो चुका है या नहीं इसकी नापतौल जरा मुश्किल काम है। जब तक इसकी नापतौल का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोई निर्णायक बात हो ही नहीं सकती। यानी आज अगर आगे की बात करना हो तो सबसे पहले यह बात करना होगी कि आजादी के बाद से आज तक हम सामाजिक रूप् से वंचित वर्ग को समानता के स्तर पर लाने के लिए कितना कर पाये। जब यह हिसाब लगाने बैठेंगे तो पूरे देश को एक समाज के रूप् में सामने रखकर हिसाब लगाना पडे़गा।


आज जब जाति और धर्म या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों को अलग अलग करके देखना शुरू करते हैं तो भेदभाव देखने और मिटाने की बात तो पीछे छूट जाती है और राजनीतिक लालच आना स्वाभाविक हो जाता है। राजनीति में यह ऐसी कालजयी कुप्रवृत्ति है जिससे बचकर रहना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। वैसे भी जब राजनीति तात्कालिक लाभ तक सीमित हो गई हो तब तो और भी ज्यादा मुश्किल है। इसीलिए विद्वान लोग सुझाव देते हैं कि आरक्षण जैसे मुददे को सामाजिक विषय मानकर चलना चाहिए। लेकिन समस्या ऐसा मानकर चलने में भी है।


आरक्षण को सामाजिक विषय मानकर चलते हैं तो यह पता चलता है कि सामाजिक भेद भाव की जड़ आर्थिक है। खासतौर पर भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक भेदभाव की शुरूआत आर्थिक आधार पर ही होती रही है। यहीं पर राजनीति के बीच में कूद पड़ने के मौके बन जाते है। आखिर हर राजनीतिक प्रणाली का एक यही तो ध्येय होता है कि उसके हर शासित की न्यूनतम आवश्यकताएं सुनिश्चित हों। इसीलिए हर राजनीतिक प्रणाली समवितरण करने का वायदा करती है। इस तरह से यह सिद्ध होता है कि आरक्षण जैसे सामाजिक मुददे का राजनीतिकरण होना अपरिहार्य है।


 अगर यह राजनीतिक मुददा बनता ही है तो अब हमें बस यह देखना है कि न्याय संगत क्या है। वैसे भी राजनीति  नीतियां तय करने का उपक्रम है। लेकिन हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नीतियां नैतिकता को घ्यान में रखकर बनाई जाती हैं। इसीलिए हमने सभी को समान अवसर देने की बात करते समय इस बात पर सबसे ज्यादा गौर किया था कि अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जाति के आधार पर जिन लोगों का हजारों साल से शोषण होता रहा है और समान विकास से वंचित किए गए है उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर समान स्तर पर लाने का प्रबंध करें। अब बस यह हिसाब लगाना है कि क्या हजारों साल से वंचित रखे गए सामाजिक वर्ग इन पांच छह दशकों में बराबरी का स्तर हासिल कर चुके हैं। अगर कर चुके हैं तो हमें आजादी से लेकर अब तक भारतवर्ष के अपने पूर्व नेताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ेगी और उनका नमन करना पड़ेगा कि उन्होंने कुद दशकों में इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त कर ली। परंतु यदि यह काम पूरा नहीं हुआ है तो वंचित वर्ग को और ज्यादा आरक्षण देकर इस नैतिक कार्य को जल्द ही पूरा करना पडे़गा।

Monday, January 16, 2017

डायरी रिश्वत का सबूत कैसे है

     कैसा इत्तफाक है कि आज से ठीक 21 वर्ष पहले 16 जनवरी 1996 को देश की राजनीति को पहली बार पूरी तरह झकझोर देने वाले हवाला कांड की बारिकियों को आज मुझे फिर प्रस्तुत करना पड़ रहा है। सहारा डायरियों के मामले में प्रशांत भूषण की बात सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं मानी। न्यायालय का मत था कि केवल डायरी के आधार पर प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई जांच नहीं की जा सकती। साथ ही न्यायालय ने ‘विनीत नारायण केस’ का भी हवाला देते हुए कहा कि कहीं ऐसा न हो कि बाद में सब आरोपी बरी हो जाऐं।

     मुझे सहारा डायरियों के विषय में कोई जानकारी नहीं है इसलिए मैं उस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। किंतु हवाला केस का जिक्र जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने किया है, उससे मैं असहमत हूं। जैन डायरी हवाला कांड में आरोपी नेता सबूतों के अभाव में आरोप मुक्त नहीं हुए थे। बल्कि सी.बी.आई. की आपराधिक साजिश के कारण वे छूट गये। जिसमें मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की भूमिका भी संदेहास्पद रही। यह सारे तथ्य मेरी पुस्तक 'भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में प्रमाणों के सहित दिये गये। इस पुस्तक को vineetnarain.net वेवसाईट पर निशुल्क पढ़ा जा सकता है।

     जहां तक जैन डायरियों की वैधता का सवाल है। सुप्रीम कोर्ट ने इन डायरियों की अहमियत समझ कर ही दिसम्बर 1993 में इस मामले को जाँच के लिए स्वीकार किया था तथा सी.बी.आई. को इस मामले से जुड़े और तथ्यों का पता लगाने का आदेश दिया था।

     सुप्रीम कोर्ट ने इस डायरी को एक सीलबंद लिफाफे में रखकर न्यायालय के पास जमा करने के आदेश दिए। आपराधिक मामले की किसी जाँच के दौरान छापे में बरामद दस्तावेजों को सुरक्षा की दृष्टि से न्यायालय में जमा कराने की यह पहली घटना थी। इतना ही नहीं, इन दस्तावेजों को रखने वाले लॉकरों की चाबियों की सुरक्षा की भी सर्वोच्च न्यायालय ने माकूल व्यवस्था की थी। जाहिर है कि इन डायरियों का हवाला केस के लिए भारी महत्त्व था। तो फिर ये सबूत कैसे नहीं हैं ?

     इस केस की सुनवाई के दौरान सी.बी.आई. की सीमाओं को महसूस करते हुए व इस डायरी की अहमियत समझ कर ही सुप्रीम कोर्ट ने हवाला केस की जाँच को पाँच वकीलों की एक निगरानी समिति को सौंपने का लगभग मन बना लिया था। पर भारत सरकार के वकील की पैरवी और जाँच एजेंसियों की तरफ से ईमानदारी से ठीक जाँच करने का आश्वासन मिलने के बाद सी.बी.आई. व अन्य एजेंसियों को उपलब्ध तथ्यों के आधार पर जाँच करने के आदेश दिए थे। इसी से सिद्ध होता है कि ये डायरियाँ कितनी महत्त्वपूर्ण हैं।

     ये डायरियाँ साधारण नहीं हैं। हिसाब-किताब रखने व नियमित रूप से लिखी जाने वाली ये डायरियाँ बाकायदा 'खाता पुस्तकें ' हैं। ये डायरियाँ जैन बंधुओं के यहाँ अचानक डाले गए छापे में मिली थीं। किसी ने साजिशन वहाँ नहीं रखी थीं। राजनेताओं से जैन बंधुओं के संपर्क जगजाहिर हैं। जैन बंधु जैसे लोगों से धन लेना राजनीतिक दायरों में कोई नई बात नहीं है। चूंकि इतने ताकतवर लोगों से जैन बंधुओं का व्यक्तिगत संबंध है, इसलिए वे ख्वाब में भी उम्मीद नहीं कर सकते थे कि उनके यहाँ भी कभी सी.बी.आई. का छापा पड़ सकता है। इसलिए वे बेखौफ अपना कारोबार चला रहे थे कि अचानक आतंकवादियों के आर्थिक स्रोत ढ़ूढ़ते-ढ़ूंढ़ते सी.बी.आई. वाले उनके यहाँ आ धमके। जैन बंधुओं की किसी से दुश्मनी तो थी नहीं जो वे उसका नाम अपने खाते में दर्ज करते। जिससे उनका जैसा लेना-देना था, वैसी ही प्रविष्टियाँ इन खातों में दर्ज हैं। यहाँ तक कि कई जगह तो चेक से किए गए भुगतान भी दर्ज हैं, जो इन डायरियों की वैधता को स्थापित करता है। फिर विभिन्न दलों के कोई दर्जन भर राजनेता स्वीकार कर चुके हैं कि उनके नाम के सामने जैन खातों में दर्ज रकम ठीक लिखी गई है। ये रकमें उन्हें वाकई जैन बंधुओं से मिली थीं। सुरेंद्र जैन भी 11 मार्च 1995 में दिए गए अपने विस्तृत लिखित बयान में यह बात स्वीकार कर चुके हैं। 

    कैसा विरोधाभास है कि पैसा देने वाला स्वीकार कर रहा है, पैसा लेने वाले स्वीकार कर रहे हैं, नकदी और विदेशी मुद्रा छापे में बरामद हो रही है, फिर भी इस पूरे अवैध लेन-देन का नंबर दो में हिसाब रखने वाली खाता पुस्तकों को भ्रष्टाचार के मुकदमों में नाकाफी सबूत बता कर मुकदमा खारिज कर दिया गया। टाडा, फेरा आदि के मुकदमे तो साजिशन कायम ही नहीं हुए ।

     इन खाता पुस्तकों में दर्ज बहुत-सी रकम तो 1989 व 1991 के आम चुनावों की पूर्व-संध्या को जैन बंधुओं ने बांटी थी। कौन-सा राजनीतिक दल है, जो अपनी आमदनी-खर्च का सही हिसाब रखता हो, इसलिए जो राजनेता इस कांड को अपने विरुद्ध षड्यंत्र बताते आए हैं, दरअसल तो उन्होंने देश के साथ बहुत बड़ी गद्दारी की है, क्योंकि अपने स्वार्थ में उन्होंने आतंकवाद को वित्तीय मदद मिलने की जाँच को ही दबवा दिया और आतंकवाद की जड़ तक पहुँचने का रास्ता बंद कर दिया।

    इसके अलावा, यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि उग्रवादियों को विदेशी स्तोत्रों से धन मिलने के मामले की जाँच के दौरान ही हवाला कारोबारी शंभूदयाल शर्मा ने जाँचकर्ताओं को बताया कि वह जैन बंधुओं से लेन-देन करता था। तभी जैन बंधुओं के यहाँ छापा पड़ा। पर क्या वजह है कि डायरियाँ बरामद होने के बाद जैन बंधुओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, जबकि सामान्य तौर पर यह बहुत स्वाभाविक बात थी, सी.बी.आई. को यह अधिकार किसने दिया कि वह शाहबुद्दीन गोरी और अशफाक हुसेन लोन को तो टाडा का अपराधी माने, किंतु जैन बंधुओं, उनसे पैसा पाने वाले राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को छोड़ दें? जबकि मुम्बई बम विस्फोट कांड में सी.बी.आई. ने बहुत-से लोगों को इससे कहीं कम सबूत के आधार पर ही टाडा में गिरफ्तार कर लिया था?

      यहाँ यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि कश्मीर के आतंकवादियों को मदद पहुंचाने वाले, जिन दो नौजवानों अशफाक हुसेन लोन और शाहबुद्दीन गौरी को, लाखों रुपए के साथ 25 मार्च 1991 में पकड़ा गया था, उनके खिलाफ चार्जशीट में सी.बी.आई. वालों ने साजिशन 3 मई 1991 को हुई जब्तियों व डायरियों का जिक्र नहीं किया, क्यों? जाहिर है कि ऐसा करके सी.बी.आई. को आगे भी जाँच करनी पड़ती, जिसमें देश के बड़े-बड़े नेताओं के यहाँ 1991 में ही छापे पड़ जाते और उनमें से बहुतों को जेल जाना पड़ता। ऐसी हिम्मत सी.बी.आई. में तब नहीं थी।

     कुल मिला कर बात साफ है कि जैन डायरियाँ कुछ मामलों में पूरा सबूत हैं और कुछ में आगे जाँच की जरूरत है। पर यह सरासर गलत है कि इस मामले में कोई सबूत ही नहीं है, इसलिए नेता छूटते गए।

Monday, January 9, 2017

कहां चली गयी सिविल सोसाइटी



भ्रष्टाचार के विरूद्ध कुछ वर्ष पहले पूरे हिंदुस्तान में तूफान खड़ा करने वाली सिविल सोसाईटी अचानक कहां गायब हो गई। यह एक नई बात यह दिख रही है कि स्वयंसेवी सामाजिक संगठन अचानक निष्क्रिय हो गये हैं। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि ये निष्क्रियता अस्थायी  है या किसी थकान का नतीजा है। दोनों स्थितियां एक साथ भी हो सकती हैं। क्योंकि देश में सामाजिक क्षेत्र में काम कर रही तमाम गैर सरकारी संस्थाएं पिछले दो दशकों से वाकई जबर्दस्त हलचल मचाए हुए थीं। आजकल वह हलचल लगभग ठप है। चाहे भ्रष्टाचार हो, चाहे पर्यावरण हो या दूसरी सामाजिक समस्याएं उन्हें लेकर आंदोलनों, विरोध प्रदर्शनों और विचार विमर्शो के आयोजन अब दुर्लभ हो गए हैं।

महंगाई, बेरोजगारी, बंधुआ मजदूरी, महिलाओं पर अत्याचार, प्रदूषण, भ्रष्टाचार को लेकर जंतर मंतर पर होने वाले प्रतीकात्मक धरनों प्रदर्शनों की संख्या में आश्चर्यजनक कमी आयी है। क्या ये सोच विचार का एक मुददा नहीं होना चाहिए। और अगर सोचना शुरू करेंगे तो देश में राजनीतिक और सामाजिक वातावरण में आए बदलावों को सामने रखकर ही सोचना पड़ेगा। खासतौर पर इसलिए क्योंकि दो-तीन साल में एक बड़ा बदलाव केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ है। उसके पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लंबा जन जागरण अभियान चलाया गया था। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मानते ही हैं कि पूर्व सरकार की छवि नाश करने में उस अभियान ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी। वह सामाजिक आंदोलन या जन आंदोलन सिर्फ विरोध करने के लिए भी नहीं था। उस आंदोलन में बाकायदा एक मांग थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल का कानून बनाया जाए। यानी सामाजिक संस्थाओं ने बाकायदा एक विशेषज्ञ के किरदार में आते हुए लोकपाल को सबसे कारगर हथियार साबित कर दिया था।

बहरहाल सत्ता बदल गई। नए माहौल में वह आंदोलन भी ठंडा पड़ गया। दूसरे छुटपुट आंदोलन जो चला करते थे वे भी बंद से हो गए। और तो और मीडिया का मिजाज भी बदल गया। यानी लोकपाल को लेकर बात आई गई हो गई।

इन तथ्यों के आधार पर क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि सामातिक संस्थाएं और मीडिया इतना असरदार होता है कि वह जब चाहे जिस समस्या को जितना बड़ा बनाना चाहे उतना बड़ा बना सकता है। और जब चाहे उसी समस्या को उतना ही छोटा भी बना सकता है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि बिना लोकपाल का गठन हुए ही भ्रष्टाचार कम या खत्म हो गया है। इसीलिए शायद सामाजिक संगठनों ने अब आंदोलन करना बंद कर दिया है। पर ऐसा नहीं है। फिर इस निष्क्रियता से क्या सिविल सोसाइटी की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता है। लेकिन मौजूदा माहौल ही कुछ इस तरह का है कि इन मुद्दों पर बात नहीं हो रही है।

लेकिन इतना तय है कि भ्रष्टाचार और कालेधन पर जितना कारगर आंदोलन तीन-चार साल पहले चला था, उस दौरान हम विरोध के नए और कारगर तरीके जान गए थे। अभी भले न सही लेकिन जब भी माहौल बनेगा वे तरीके काम में लाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन तरीकों को एक बार अपनाए जाने के बाद उनकी धार कुंद पड़ गई हो। लेकिन दूसरे और मुददों के खिलाफ वैसे आंदोलन और हलचल पैदा करना सीखा जा चुका है। अब देखना यह होगा कि सामाजिक संगठन भविष्य में अगर फिर कभी सक्रिय होते हैं तो वे किस मुददे पर उठेंगे।

सामाजिक संगठनों के लिए बेरोजगारी और महंगाई और प्रदूषण जैसे मुददे आज भी कारगर हो सकते थे। लेकिन देश में पिछले दो महीने से नोटबंदी ने कामधंधे और खेती किसानी के अलावा और कोई बात करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है। देश में उत्पादन बढ़ाने के काम में सामाजिक संगठन ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। कुछ भी करने के लिए अगर कुछ करना हो तो स्वयंसेवी संस्थाएं आर्थिक क्षेत्र में सरकारी नीतियों और कार्यक्रम बनवाने में हस्तक्षेप की भूमिका भर ही निभा सकती हैं। लेकिन यह काम इतनी विशेषज्ञता का काम है कि अपने देश में सामाजिक क्षेत्र की गैर सरकारी संस्थाएं ऐसे विशेषज्ञ कार्य में ज्यादा सक्षम नहीं हो पाई हैं। वैसे भी इस तरह के कामों में सामजस्यपूर्ण व्यवहार की दरकार होती है। जबकि पिछले दो दशकों में हमने अपनी स्वयंसेवी संस्थाओं को सिर्फ विरोध और संघर्ष के व्यवहार में अपना ही विकास करते देखा है।

देश के मौजूदा हालात में जब मीडिया ही अपने लिए सुरक्षित खबरों और चर्चाओं को ढूंढने में लगा हो तो इस मामले में स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने तो और भी बड़ा संकट है। ये संस्थाएं अब प्रदूषण जैसी समस्या पर भी अपनी सक्रियता बढ़ाने से परहेज कर रही हैं। दरअसल नदियों की साफ-सफाई का काम शहर-कस्बों में गंदगी कम करने के काम से जुड़ा है। यानी प्रदूषण की बात करेंगे तो देश में चालू स्वच्छता अभियान में मीनमेख निकालने पड़ेंगे और किसी भी मामले में मीनमेख निकालने का ये माकूल वक्त नहीं है।

कुल मिलाकर स्वयंसेवी संस्थाओं को काम करने की गुंजाइश पैदा करना हो तो उन्हें उन क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जिनमें मौजूदा सरकार से संघर्ष की स्थिति न बनती हो। आज की स्थिति यह है कि जो भी संघर्ष के किरदार में दिखता है वह सरकार के राष्ट्र निर्माण के काम में विघ्नकारी माना जाने लगा है। एक बार फिर दोहराया जा सकता है कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं के सामने मुददों का संकट खड़ा हो गया है।