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Monday, June 19, 2017

गोवर्धन का विनाश रोकें मोदी जी


जनवरी 2006 में हैदराबाद के ‘प्रवासी दिवस’ कार्यक्रम में विदेशी प्रतिनिधियों के सामने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी से मेरा रोचक सामना हुआ। मोदी जी गुजरात को भ्रष्टाचार मुक्त करने की बात कर रहे थे, तभी मेरे साथ बैठे मेरे मित्र चंदू पटेल, जो पहले भारतीय हैं, जिन्होंने हिल्टन होटल, लास ऐंजेलस, खरीदा था, खड़े हो गये और बोले, ‘‘नरेन्द्र भाई! आपसे विनीत भाई नारायण खुश नहीं हैं’’। मोदी जी एक क्षण को ठिठक गये। तभी चंदू भाई ने बात पूरी की, ‘‘क्योंकि उन्हें आपके राज्य में कोई घोटाला नहीं मिल रहा‘‘। इस पर मोदी जी और सारा हाल ठहाकों में गूंज गया। इससे पहले मेरा मोदी जी से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था।



मुझे आश्चर्य हुआ कि मोदी जी ने तुरंत मेरे बारे में गुजराती में बोलना शुरू कर दिया। वे बोले,‘‘ विनीत भाई नारायण भारत के बड़े पत्रकार हैं। उन्हें भ्रष्टाचार की जड़ में छाछ डालने में मजा आता है। मेरा उन्हें निमंत्रण है कि वे गुजरात आकर मेरे घोटाले खोजें’’।



इस पर मैं खड़ा हो गया और बोला,‘‘ मैं ही विनीत नारायण हूं, पर अब मैं घोटाले नहीं खोजता। अब तो मैं भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीला भूमि ब्रज को सजाने में जुटा हूं। हमारे ठाकुर जी ब्रज छोड़कर आपकी द्वारिका में जा बसे थे। इसलिए आप सब ‘जय श्रीकृष्ण’ बोलते हैं। पुराने जमाने में अनेक राजे-महाराजे ब्रज में आकर कुंड, घाट, वन बनवाते थे। आप आज गुजरात के राजा हो। कहावत है- दुनियां के गुरू सन्यासी, सन्यासियों के गुरू ब्रजवासी। मैं ब्रजवासी होने के नाते, आपको आर्शीवाद देता हूं कि आप भारत के प्रधानमंत्री बनें और ब्रज सजाने में हमारी मदद करें।’’



यह सुनकर नरेन्द्र भाई मोदी भावुक हो गये और बोले, ‘‘जब मैं दिल्ली भाजपा मुख्यालय में था, तब मेरे मन में गोवर्धन की परिक्रमा सजाने का प्रबल भाव आया था। इससे पहले कि मैं कुछ कर पाता, मुझे गुजरात भेज दिया गया। विनीत भाई आप गुजरात आओ, हम आपके प्रयास में पूरा सहयोग करेंगे।’’



2014 में जब मैं नरेन्द्र भाई मोदी को ब्रज विकास की अपनी पावर पाइंट प्रस्तुति दे रहा था। तब उन्हें मैंने ब्रज फाउंडेशन की अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों की टीम द्वारा गोवर्धन के सौन्दर्यीकरण के लिए तैयार की गई परिकल्पना की भी प्रस्तुति की थी। जिसे उन्होंने बहुत सराहा।



आजकल गोवर्धन के विकास के नाम पर जो कुछ प्रस्तावित किया जा रहा है, उसे पिछले दिनों अखबारों से जानकर हर कृष्णभक्त और गोवर्धन प्रेमी बहुत विचलित है। गोवर्धन का विकास अमृतसर की तर्ज पर नहीं किया जा सकता। क्योंकि स्वर्ण मंदिर पूरी तरह शहर के बीच स्थित एक शहरीकृत तीर्थस्थल है। जबकि गोवर्धन का अर्थ है-गायों का सवंर्धन करने वाला पर्वत। जहां गायें स्वछन्दता से चरती हों। गोवर्धन महात्म्य के सभी ग्रंथों में रसिक संतों ने गोवर्धन के नैसर्गिक सौन्दर्य का दिव्य वर्णन किया है। जिससे पता चलता है कि यहां सघन वृक्षावली, फलों से लदे वृक्ष, चारों ओर दूध जैसे लगने वाले जलप्रपात और स्वच्छ जल से भरे हुए सरोवर हुआ करते थे और वही यहां की शोभा थी। गोवर्धन की तलहटी की रज में लोट-पोट होकर संत, भजनानंदी और परिक्रमार्थी स्वयं को धन्य मानते थे। कलयुग के प्रभाव से गोवर्धन के इस स्वरूप का तेजी से विनाश किया गया। आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल ने यहां कुछ वृक्षारोपण करवाया था। उसके बाद किसी बड़े राजनेता ने गोवर्धन के महात्म्य को जानने और गिर्राज महाराज की यथोचित सेवा करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया।



2003 में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रयास से मुझे गोवर्धन के दानघाटी मंदिर का मानद रिसीवर बनाया गया, तब से मैंने स्थानीय विशेषज्ञों व जिला प्रशासन के साथ नियमित विचार विर्मशकर गोवर्धन की समस्याओं को समझने का प्रयास किया। उसके बाद देश-विदेश में पढ़े और धर्म में गहरी आस्था रखने वाले आर्किटैक्टों की मदद से गोवर्धन के सौन्दर्यीकरण और यात्रियों के लिए आधुनिक आवश्यक्ताओं को ध्यान में रखते हुए, एक विस्तृत कार्ययोजना की परिकल्पना तैयार की। जिसे तैयार करने में 5 वर्ष लगे।



देखने वाला इसे देखता ही रहा जाता है। यह परियोजना 2008 में हमने उ0प्र0 पर्यटन विभाग को अधिकृत रूप से सौंपी। हमारी चिंता का विषय ये है कि गोवर्धन की मूल भावना को समझे बिना, गोवर्धन के विकास के जिस स्वरूप की बात आज की जा रही है, उससे गोवर्धन का स्वरूप बिगड़ेगा, बनेगा नहीं। प्रधानमंत्रीजी को इस पर ध्यान देना चाहिए और हैदराबाद में हमसे किया वायदा निभाना चाहिए। जिससे गिरिराज महाराज की ऐसी सेवा हो कि संत, भक्त और ब्रजवासी जय-जयकार करें, आहत न हों।



हमें आधुनिक व्यवस्थाओं से कोई परहेज नहीं हैं। समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। इसलिए दोनो विचार धााराओं के बीच संघर्ष न हो और सौहार्दपूर्णं सामन्जस्य हो, तो बात बन सकती है। इस विषय में प्रधानमंत्री जी के प्रमुख सचिव से लेकर उ.प्र. के मुख्यमंत्री व उनके मंत्रीमंडलीय सहयोगियों तक हमने अपनी चिंता व्यक्त कर दी है। पर सही कदम तो तभी उठेंगे, जब प्रधानमंत्री जी थोड़ी रूचि लें और गोवर्धन का विनाश न होने दें।

Monday, June 12, 2017

एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा

जिस दिन एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा पड़ा, उसके अगले दिन एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान भाजपा के प्रवक्ता का दावा था कि सीबीआई स्वायत्त है। जो करती है, अपने विवेक से करती है। मैं भी उस पैनल पर था, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। सीबीआई कभी स्वायत्त नही रही या उसे रहने नहीं दिया गया। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन ले लिया था, तब से हर सरकार इसका इस्तेमाल करती आई है। 



रही बात एनडीटीवी के मालिक के यहां छापे की तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि डा. प्रणय रॉय एक अच्छे इंसान हैं। मेरा उनका 1986 से साथ है, जब वे दूरदर्शन पर ‘वल्र्ड दिस वीक’ एंकर करते थे और मैं ‘सच की परछाई’। तब देश में निजी चैनल नहीं थे। जैसा मैंने उस शो में बेबाकी से कहा कि 1989 में कालचक्र वीडियो मैग्जी़न के माध्यम से देश में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की स्थापना करने के बावजूद, आज मेरा टीवी चैनल नहीं है। इसलिए नहीं कि मुझे पत्रकारिता करनी नहीं आती या चैनल खड़़ा करने का मौका नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि चैनल खड़ा करने के लिए बहुत धन चाहिए। जो बिना सम्पादकीय समझौते किये, संभव नहीं था। मैं अपनी पत्रकारिता की स्वतंत्रता खोकर चैनल मालिक नहीं बनना चाहता था। इसलिए ऐसे सभी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये। 



एनडीटीवी के कुछ एंकर बढ़-चढ़कर ये दावा कर रहे हैं कि उनकी स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमला हो रहा है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि ‘गोधरा कांड’ के बाद, जैसी रिपोर्टिंग उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की, क्या वैसे ही तेवर से उन्होंने कभी कांग्रेस के खिलाफ भी अभियान चलाया ? जब मैंने हवाला कांड में लगभग हर बड़े दल के अनेकों बड़े नेताओं को चार्जशीट करवाया, तब वे सब चैनलों पर जाकर अपनी सफाई में तमाम झूठे तर्क और स्पष्टीकरण देने लगे। उस समय मैंने उन सब चैनलों के मालिकों और एंकरों को इन मंत्रियों और नेताओं से कुछ तथ्यात्मक प्रश्न पूछने को कहा तो किसी ने नहीं पूछे। क्योंकि वे सब इन राजनेताओं को निकल भागने का रास्ता दे रहे थे। ऐसा करने वालों में एनडीटीवी भी शामिल था। ये कैसी स्वतंत्र पत्रकारिता है? जब आप किसी खास राजनैतिक दल के पक्ष में खड़े होंगे, उसके नेताओं के घोटालों को छिपायेंगे या लोकलाज के डर से उन्हें दिखायेंगे तो पर दबाकर दिखायेंगे। ऐसे में जाहिरन वो दल अगर सत्ता में हैं, तो आपको और आपके चैनल को हर तरह से मदद देकर मालामाल कर देगा। पर जिसके विरूद्ध आप इकतरफा अभियान चलायेंगे, वो भी जब सत्ता में आयेगा, तो बदला लेने से चूकेगा नहीं। तब इसे आप पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला नहीं कह सकते।



सोचने वाली बात ये है कि अगर कोई भी सरकार अपनी पर उतर आये और ये ठान ले कि उसे मीडियाकर्मियों के भ्रष्टाचार को उजागर करना है, तो क्या ये उसके लिए कोई मुश्किल काम होगा? क्योंकि काफी पत्रकारों की आर्थिक हैसियत पिछले दो दशकों में जिस अनुपात में बढ़ी है, वैसा केवल मेहनत के पैसे से होना संभव ही न था। जाहिर है कि बहुत कुछ ऐसा किया गया, जो अपराध या अनैतिकता की श्रेणी में आता है। पर उनके स्कूल के साथियों और गली-मौहल्ले के खिलाड़ी मित्रों को खूब पता होगा कि पत्रकार बनने से पहले उनकी माली हालत क्या थी और इतनी अकूत दौलत उनके पास कब से आई। ऐसे में अगर कभी कानून का फंदा उन्हें पकड़ ले तो वे इसेप्रेस की आजादी पर हमला’ कहकर शोर मचायेंगे। पर क्या इसे ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ माना जा सकता है?



अगर हमारी पत्रकार बिरादरी इस बात का हिसाब जोड़े कि उसने नेताओं, अफसरों या व्यवसायिक घरानों की कितनी शराब पी, कितनी दावतें उड़ाई, कितने मुर्गे शहीद किये, उनसे कितने मंहगे उपहार लिए, तो इसका भी हिसाब चैकाने वाला होगा। प्रश्न है कि हमें उन लोगों का आतिथ्य स्वीकार ही क्यों करना चाहिए, जिनके आचरण पर निगेबानी करना हमारा धर्म है। मैं पत्रकारिता को कभी एक व्यवसायिक पेशा नहीं मानता, बल्कि समाज को जगाने का और उसके हक के लिए लड़ने का हथियार मानता रहा हूं। प्रलोभनों को स्वीकार कर हम अपनी पत्रकारिता से स्वयं ही समझौता कर लेते हैं। फिर हम प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला कहकर शोर क्यों मचाते हैं



सत्ता के विरूद्ध अगर कोई संघर्ष कर रहा हो, तो उसे अपने दामन को साफ रखना होगा। तभी हमारी लड़ाई में नैतिक बल आयेगा। अन्यथा जहां हमारी नस कमजोर होगी, सत्ता उसे दबा देगी। पर ये बातें आज के दौर में खुलकर करना आत्मघाती होता है। मध्य युग के संत अब्दुल रहीम खानखाना कह गये हैं, ‘अब रहीम मुस्किल परी, बिगरे दोऊ काम। सांचे ते तौ जग नहीं, झूंठे मिले न राम’।। जो सच बोलूंगा, तो दुनिया मुझसे रूठेगी और झूंठ बोलूंगा तो भगवान रूठेंगे। फैसला मुझे करना है कि दुनिया को अपनाऊं या भगवान को। लोकतंत्र में प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला एक निंदनीय कृत्य है। पर उसे प्रेस का हमला तभी माना जाना चाहिए जबकि हमले का शिकार मीडिया घराना वास्तव में निष्पक्ष सम्पादकीय नीति अपनाता हो और उसकी सफलता के पीछे कोई बड़ा अनैतिक कृत्य न छिपा हो।


Monday, May 22, 2017

अब ग्रामोद्योग के जरिए पांच करोड़ रोजगार की बात

बेरोज़गारी भारत की सबसे बड़ी समस्या है। करोड़ों नौजवान रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। हर सरकार इसका हल ढूंढने के दावा करती आई है पर कर नहीं पाई। कारण स्पष्ट है: जिस तरह सबका ज़ोर भारी उद्योगों पर रहा है और जिस तरह लगातार छोटे व्यापारियों और कारखानेदारों की उपेक्षा होती आई है| उससे बेरोज़गारी बढ़ी है। आज तक सब जमीनी सोच रखने वाले और अब  बाबा रामदेव भी ये सही कहते हैं कि अगर रोज़मर्रा के उपभोग के वस्तुओं को केवल कुटीर उद्योंगों के लिए ही सीमित कर दिया जाय तो बेरीज़गारी तेज़ी से हल हो सकती है। पर उस मॉडल से नहीं जिस पर आगे बढ़कर चीन भी पछता रहा है। अंधाधुंध शहरीकरण ने पर्यावरण का नाश कर दिया। जल संकट बढ़ गया और आर्थिक प्रगति ठहर गई।

इसलिए शायद अब  खादी उद्योग में पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार दिलाने की योजना बनी है। इस सूचना की विश्वसनीयता पर सोचने की ज्यादा जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि यह जानकारी खुद केंद्र सरकार के राज्यमंत्री गिरिराज सिंह ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान दी है।

पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार की बात सुनकर कोई भी हैरत जता सकता है। खासतौर पर तब जब मौजूदा सरकार से इसी मुददे पर जवाब मांगने की जोरदार तैयारी चल रही है। सरकार के आर्थिक विकास के दावे को झुठलाने के लिए भी रोजगार विहीन विकास का आरोप लगाया जा रहा है।

यह बात सही है कि मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के पहले अपने चुनाव प्रचार के दौरान हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करने का आश्वासन दिया था। सरकार के अब तक तीन साल गुजरने के बाद इस मोर्चे को और टाला भी नहीं जा सकता था। सो हो सकता है कि अब तक जो सोचविचार किया जा रहा हो उसे लागू करने की स्थिति वाकई बन गई हो। लेकिन सवाल यह है कि पांच साल में पांच करोड रोजगार की बात सुनकर ज्यादा हलचल क्यों नहीं हुई। इससे एक प्रकार की अविश्वसनीयता तो जाहिर नहीं हो रही है।

पांच करोड लोगों को रोजगार दिलाने की सूचना देने का काम जिस कार्यक्रम में हुआ वह रेमंड की खादी के नाम से आयोजित था। यानी इस कार्यक्रम में निजी और सरकारी भागीदारी के माडल की बात दिमाग में आना स्वाभाविक ही था। सो राज्यमंत्री ने यह बात भी बताई कि खादी ग्रामोद्योग ने रेमंड और अरविंद जैसी कपड़ा बनाने वाली कंपनियों से भागीदारी की है। जाहिर है कि निजीक्षेत्र के संसाधनों से खादी उद्योग को बढ़ावा देने की योजना सोची गई होगी। लेकिन यहां फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या निजी क्षेत्र किसी सामाजिक स्वभाव वाले लक्ष्य में इतना बढ़चढ़ कर भागीदारी कर सकता है। वाकई पांच करोड़ लोगों के लिए रोजगार पैदा करने की भारी भरकम योजना के लिए उतने ही भारी भरकम संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। फिर भी अगर बात हुई है तो इसका कोई व्यावहारिक या संभावना का पहलू देखा जरूर गया होगा।

राज्यमंत्री ने इसी कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत में इसका भी जिक्र किया कि देश में खादी उत्पादों की बिक्री के सात हजार से ज्यादा शोरूम हैं। इन शो रूम में बिक्री बढ़ाई जा सकती है। इसी सिलसिले में उन्होंने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खादी कपड़ों की गुणवत्ता बढाने के लिए जीरो डिफैक्ट जीरो अफैक्ट योजना शुरू की है। इसके पीछे खादी को विश्व स्तरीय गुणवत्ता का बनाने का इरादा है। जाहिर है कि विश्वस्तरीय बनाने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी की इस्तेमाल की बातें भी शुरू हो जाएंगी। और फिर हाथ से और देसी तकनीक के उपकरणों से बने उत्पादों को मंहगा होने से कौन रोक पाएगा। हां फैशन की बात अलग है। जिस तरह से खादी कपड़ों और दूसरे उत्पादों को बनाने में फैशन डिजायनरों को शामिल कराने की योजना है उससे खादी उत्पादों को आकर्षक बनाकर बेचना जरूर आसान बनाया जा सकता है। लेकिन पता नहीं डिजायनर खादी के दाम के बारे में सोचा गया है या नहीं।

खैर अभी पांच करोड़ रोजगार की बात कहते हुए खादी उत्पादों को विश्वस्तरीय बनाने की बात हुई। यानी उत्पाद की मात्रा की बजाए गुणवत्ता का तर्क दिया गया है। लेकिन आगे हमें बेरोजगारी मिटाने की मुहिम में बने खादी उत्पादों को खपाने यानी उसके लिए बाजार विकसित करने पर लगना पड़ेगा। यहां गौर करने की बात यह है कि इस समय भारतीय बाजार में सबसे ज्यादा जो माल अटा पड़ा है वह कपड़े ही हैं। उधर विश्व में आर्थिक मंदी के इस दौर में विदेशी कपड़ों और दूसरे माल ने देशी उद्योग और व्यापार को पहले से बेचैन कर रखा है। यानी आज के करोड़ों बेरोजगार अगर कल कोई माल बनाएंगे भी तो उसे निर्यात करने के अलावा हमारे पास कोई चारा होगा नहीं। लेकिन रोना यह है कि इस समय सबसे बड़ी समस्या यही है कि दुनिया में अपने सामान को दूसरे देशों में बेचने के लिए हद दर्जे की होड़ मची है। क्या सबसे पहले इस मोर्चे पर निश्चिंत होने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।

Monday, May 15, 2017

उ.प्र. पुलिस की कायापलट

यूं तो बम्बईया फिल्मों में पुलिस को हमेशा से ‘लेट-लतीफ’ और ‘ढीला-ढाला’ ही दिखाया जाता है। आमतौर पर पुलिस की छवि होती भी ऐसी है कि वो घटनास्थल पर फुर्ती से नहीं पहुंचती और बाद में लकीर पीटती रहती है। तब तक अपराधी नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं। पुलिस के मामले में उ.प्र. पुलिस पर ढीलेपन के अलावा जातिवादी होने का भी आरोप लगता रहा है। कभी अल्पसंख्यक आरोप लगाते हैं कि ‘यूपी पुलिस’ साम्प्रदायिक है, कभी बहनजी के राज में आरोप लगता है कि यूपी पुलिस दलित उत्पीड़न के नाम पर अन्य जातियों को परेशान करती है। तो सपा के शासन में आरोप लगता है कि थाने से पुलिस अधीक्षक तक सब जगह यादव भर दिये जाते हैं। यूपी पुलिस का जो भी इतिहास रहा हो, अब उ.प्र. की पुलिस अपनी छवि बदलने को बैचेन है। इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन ‘यूपी 100’ योजना शुरू होने से आया है। 

इस योजना के तहत आज उ.प्र. के किसी भी कोने से, कोई भी नागरिक, किसी भी समय अगर 100 नम्बर पर फोन करेगा और अपनी समस्या बतायेगा, तो 3 से 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ की गाड़ी में बैठे पुलिसकर्मी उसकी मदद को पहुंच जायेंगे। फिर वो चाहे किसी महिला से छेड़खानी का मामला हो, चोरी या डकैती हो, घरेलू मारपीट हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य कोई भी ऐसी समस्या, जिसे पुलिस हल कर सकती है। यह सरकारी दावा नहीं बल्कि हकीकत है। आप चाहें तो यूपी में इसे कभी भी 24 घंटे आजमाकर देख सकते हैं। पिछले साल नवम्बर में शुरू हुई, यह सेवा आज पूरी दुनिया और शेष भारत के लिए एक मिसाल बन गई है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उ.प्र. के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अनिल अग्रवाल ने अपनी लगन से इसे मात्र एक साल में खड़ा करके दिखा दिया। जोकि लगभग एक असंभव घटना है। अनिल अग्रवाल ने जब यह प्रस्ताव शासन के सम्मुख रखा, तो उनके सहकर्मियों ने इसे मजाक समझा। मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत इस योजना को स्वीकार कर लिया और उस पर तेजी से काम करवाया।

आज इस सेवा में 3200 गाडियां है और 26000 पुलिसकर्मी और सूचना प्रौद्योगिकी के सैकड़ों विशेषज्ञ लगे हैं।
 
जैसे ही आप 100 नम्बर पर फोन करते हैं, आपकी काल सीधे लखनऊ मुख्यालय में सुनी जाती है। सुनने वाला पुलिसकर्मी नहीं बल्कि युवा महिलाऐं हैं। जो आपसे आपका नाम, वारदात की जगह और क्या वारदात हो रही है, यह पूछती है। फिर ये भी पूछती है कि आपके आस पास कोई महत्वर्पूण स्थान, मंदिर, मस्ज्जिद या भवन है और आप अपने निकट के थाने से कितना है दूर हैं। इस सब बातचीत में कुछ सेकंेड लगते हैं और आपका सारा डेटा और आपकी आवाज कम्प्यूटर में रिकार्ड हो जाती है। फिर यह रिकार्डिंग एक दूसरे विभाग को सेकेंडों में ट्रांस्फर हा जाती है। जहां बैठे पुलिसकर्मी फौरन ‘यूपी 100’ की उस गाड़ी को भेज देते हैं, जो उस समय आपके निकटस्थ होती है। क्योंकि उनके पास कम्प्यूटर के पर्दें पर हर गाड़ी की मौजूदगी का चित्र हर वक्त सामने आता रहता है। इस तरह केवल 3 मिनट से लेकर 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ के पुलिकर्मी मौका-ए-वारदात पर पहंच जाते है। 

अब तक का अनुभव यह बताता है कि 80 फीसदी वारदात आपसी झगड़े की होती हैं। जिन्हें पुलिसकर्मी वहीं निपटा देते हैं या फिर उसे निकटस्थ थाने के सुपुर्द कर देते हैं।

ये सेवा इतनी तेजी से लोकप्रिय हो रही है कि अब उ.प्र. के लोग थाना जाने की बजाय सीधे 100 नम्बर पर फोन करते हैं। इसके तीन लाभ हो रहे हैं। एक तो अब कोई थाना ये बहाना नहीं कर सकता कि उसे सूचना नहीं मिली। क्योंकि पुलिस के हाथ में केस पहुंचने से पहले ही मामला लखनऊ मुख्यालय के एक कम्प्यूटर में दर्ज हो जाता है। दूसरा थानों पर काम का दबाव भी इससे बहुत कम हो गया है। तीसरा लाभ ये हुआ कि ‘यूपी 100’ जिला पुलिस अधीक्षक के अधीन न होकर सीधे प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के अधीन है। इस तरह पुलिस फोर्स में ही एक दूसरे पर निगाह रखने की दो ईकाई हो गयी। एक जिला स्तर की पुलिस और एक राज्य स्तर की पुलिस। दोनों में से जो गडबड़ करेगा, वो अफसरों की निगाह में आ जायेगा। 

जब से ये सेवा शुरू हुई है, तब से सड़कों पर लूटपाट की घटनाओं में बहुत तेजी से कमी आई है। आठ महीने में ही 323 लोगों को मौके पर फौरन पहुंचकर आत्महत्या करने से रोका गया है। महिलाओं को छेड़ने वाले मजनुओं की भी इससे शामत आ गयी है। क्योंकि कोई भी लडकी 100 नम्बर पर फोन करके ऐसे मजनुओं के खिलाफ मिनटों में पुलिस बुला सकती है। इसके लिए जरूरत इस बात की है कि उ.प्र. का हर नागरिक अपने मोबाइल फोन पर ‘यूपी 100 एप्प’ को डाउनलोड कर ले और जैसे ही कोई समस्या में फंसे, उस एप्प का बटन दबाये और पुलिस आपकी सेवा में हाजिर हो जायेगी। विदेशी सैलानियों के लिए भी ये रामबाण है। जिन्हें अक्सर ये शिकायत रहती थी कि उ.प्र. की पुलिस उनके साथ जिम्मेदारी से व्यवहार नहीं करती है। इस पूरी व्यवस्था को खड़ी करने के लिए उ.प्र. पुलिस और उसके एडीजी अनिल अग्रवाल की जितनी तारीफ की जाए कम है। जरूरत है इस व्यवस्था को अन्य राज्यों में तेजी से अपनाने की।

Monday, April 24, 2017

क्यों घुसना चाहता है वल्र्ड बैंक हमारे धर्मक्षेत्रों में?

Punjab Kesari 24 April 2017
ईसाईयों के विश्व गुरू पोप जब भारत आए थे, तो भारत सरकार ने उनका भव्य स्वागत किया था। परंतु पोप ने इसका उत्तर शिष्टाचार और कृतज्ञता के भाव से नहीं दिया बल्कि भारत के बहुसंख्यकों का अपमान एवं तिरस्कार करते हुए खुलेआम घोषणा की, कि हम 21वीं सदी में समस्त भारत को ईसाई बना डालेंगे। बहुसंख्यकों के धर्म को नष्ट कर डालने की खुलेआम घोषणा करना हमारी धार्मिक भावनाओं पर खुली चोट करना था, जो कानून की नजर में अपराध है। पर सरकार ने कुछ नहीं किया। सरकार की उस कमजोरी का लाभ उठाकर विश्व बैंक व ऐसी अन्य संस्थाओं के ईसाई पदाधिकारी, पोप की उसी घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं। इसी में से एक है ‘गरीब-परस्त पर्यटन’ (प्रो-पूअर टूरिस्म) के नाम पर हमारे पवित्र तीर्थों जैसे ब्रज या बौद्ध तीर्थ कुशीनगर आदि में पिछले दरवाजे से साजिशन ईसाई हस्तक्षेप। इसी क्रम में ब्रज के कुंडों के जीर्णोंद्धार और श्रीवृंदावन धाम में श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सौंदर्यींकरण के नाम पर एक कार्य योजना बनवाकर विश्व बैंक चार लक्ष्य साधने जा रहा है।

पहलाः विश्व में यह प्रचार करना कि भारत गरीबों का देश है और हम ईसाई लोग उनके भले के लिए काम कर रहे है। इस प्रकार उभरती आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की छवि को खराब करना। दूसराः हिंदूओं को नाकारा बताकर यह प्रचारित करना कि हिंदू अपने धर्मस्थलों की भी देखभाल नहीं कर सकते, उन्हें भी हम ईसाई लोग ही संभाल सकते हैं। जैसे कि भारत को संभालने का दावा करके अंगे्रज हुकुमत ने 190 वर्षों में सोने की चिड़ियां भारत को जमकर लूटा। उसके बावजूद भारत आज भी वैभव में पूरे यूरोप से कई गुना आगे है। जबकि उनके पास तो पेट भरने को अन्न भी नहीं है। यूरोप के कितने ही देश दिवालिया हो चुके है और होते जा रहे हैं। क्योंकि अब उनके पास लूटने को औपनिवेशिक साम्राज्य नहीं हैं। इसलिए ‘वल्र्ड बैंक’ जैसी संस्थाओं को सामने खड़ाकर हमारे मंदिरो और धर्मक्षेत्रों को लूटने के नये-नये हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। तीसराः इस प्रक्रिया में हमारे धर्मक्षेत्रों में अपने गुप्तचरों का जाल बिछाना जिससे वो सारी सूचनाऐं एकत्र की जा सकें, जिनका भविष्य में प्रयोग कर हमारे धर्म को नष्ट किया जा सके। 

एक छोटा उदाहरण काफी होगा। इसाई धर्म में पादरी होता है, पुजारी नहीं। चर्च होता है, मंदिर नहीं। ईसा मसीह प्रभु के पुत्र माने जाते हैं, ईश्वर नहीं। इनके पादरी सदियों से सफेद वस्त्र पहनते हैं, केसरिया नहीं। अब इनकी साजिश देखिएः आप बिहार, झारखंड, उड़ीसा जैसे राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों में ये देखकर हैरान रह जायेंगे कि भोली जनता को मूर्ख बनाने के लिए ईसाई धर्म प्रचारक अब भगवा वस्त्र पहनते हैं। स्वयं को पादरी नहीं, पुजारी कहलवाते हैं। गिरजे को प्रभु यीशु का मंदिर कहते हैं। 2000 वर्षों से जिन ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र बताते आए थे, उन्हें अब भारत में  ईश्वर बताने लगे हैं। क्योंकि हमारे भगवान तो श्रीकृष्ण व श्रीराम हैं। भगवान श्रीराम के पुत्र तो लव और कुश हैं। हिंदू समाज भगवान राम की पूजा करता है, लव और कुश का केवल सम्मान करता है। अगर ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र बतायेंगे तो भारतीय जनता उन्हें लव-कुश के समान समझेगी, भगवान नहीं मानेगी। चौथाः हमारे धर्मक्षेत्रों की गरीबी दूर करने के नाम पर जो कर्ज ये देने जा रहे हैं, उसमें से बड़ी मोटी रकम अर्तंराष्ट्रीय सलाहकारों को फीस के रूप में दिलवा रहे हैं। ऐसे सलाहकार जो ब्रज के विकास की योजनाऐं बनाते समय प्रस्तुति देते हुए कहते हैं कि स्वामी हरिदास जी, तानसेन के शिष्य थे।

ऐसी योजनाऐं बनाने के लिए दी जाने वाली करोड़ों रूपये फीस के पीछे हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को भ्रष्ट करने के लिए मोटा कमीशन देना और उन्हें विदेश घुमाने का खर्चा शामिल होता है। जबकि इस सब खर्चे का भार भी उत्तर प्रदेश की जनता पर कर्ज के रूप में ही डाला जायेगा। पिछले कई वर्षों से अखबारों में आ रहा है कि विश्व बैंक ब्रज की गरीबी दूर करने के लिए बडी-बड़ी योजनाऐं बना रहा है। शुरू में खबर आई कि वृंदावन में 100 करोड़ रूपये खर्च करके एक बगीचा बनाया जायेगा और एक-एक कुंड के जीर्णोद्धार पर 10-10 करोड़ रूपये खर्च करके 9 कुंडों का जीर्णोद्धार किया जायेगा। 2002 से ब्रज को सजाने में व कुंडों के जीर्णोद्धार में जुटी ब्रज फाउंडेशन की टीम को ये बात गले नहीं उतरी। क्योंकि कूड़े के ढेर पडे़, वृंदावन के ब्रह्मकुंड को ब्रज फाउंडेशन ने मात्र 88 लाख रूपये में सजा-संवाकर, सभी का हृदय जीत लिया। गोवर्धन परिक्रमा पर भी इसी तरह दशाब्दियों से मलबे का ढेर बने रूद्र कुंड को मात्र ढाई करोड़ रूपये में इतना सुंदर बना दिया कि उसका उद्घाटन करने आए उ.प्र. के मुख्यमंत्री को सार्वजनिक मंच पर कहना पड़ा कि ‘रूपया तो हमारी सरकार भी बहुत खर्च करती है, पर इतना सुंदर कार्य क्यों नहीं कर पाती, जितना ब्रज फाउंडेशन करती है।’ ब्रज फाउंडेशन ने विरोध किया तो 2015 में विश्व बैंक को ये योजनाऐं निरस्त करनी पड़ीं। अब जो नई योजनाऐं बनाई हैं वे भी इसी तरह बे-सिर पैर की हैं। ‘कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना’।
हमारे मंदिरों, तीर्थस्थलों, लीलास्थलियों और आश्रमों के संरक्षण, संवर्धन या सौदंर्यीकरण का दायित्व हिंदू धर्मावलम्बियों का है। ईसाई या मुसलमान हमारे धर्मक्षेत्रों में कैसे दखल दे सकते हैं? क्या वे हमें अपने वैटिकन या मक्का मदीने में ऐसा हस्तक्षेप करने देंगे? हमारे धर्मक्षेत्रों में क्या हो, इसका निर्णय, हमारे धर्माचार्य और हम सब भक्तगण करेंगे। ब्रज में इस विनाशकारी हस्तक्षेप के विरूद्ध आवाज उठ रही है। देखना है योगी सरकार क्या निर्णय लेगी।
 

Monday, April 10, 2017

केवल कर्ज माफी से नहीं होगा किसानो का उद्धार

Punjab Kesari 10 April 2017
यूपीए-2 से शुरू हुआ किसानों की कर्ज माफी का सिलसिला आज तक जारी है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी ने चुनावी वायदों को पूरा करते हुए लघु व सीमांत किसानों की कर्ज माफी का एलान कर दिया है। निश्चित रूप से इस कदम से इन किसानों को फौरी राहत मिलेगी। पर  इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उनके दिन बदल जायेंगे। केंद्रीय सरकार ने किसानों की दशा सुधारने के लिए ‘बीज से बाजार तक’ छः सूत्रिय कार्यक्रम की घोषणा की है। जिसका पहला बिंदू है किसानों को दस लाख करोड़ रूपये तक ऋण मुहैया कराना। किसानों को सीधे आनलाईन माध्यम से क्रेता से जोड़ना, जिससे बिचैलियों को खत्म किया जा सके। कम कीमत पर किसानों की फसल का बीमा किया जाना। उन्हें उन्नत कोटि के बीज प्रदान करने। 5.6 करोड़ ‘साईल हैल्थ कार्ड’ जारी कर भूमि की गुणवत्तानुसार फसल का निर्णय करना। किसानों को रासायनिक उर्वरकों के लिए लाईन में न खड़ा होना पड़े, इसकी व्यवस्था सुनिश्चित करना। इसके अलावा उनके लिए सिंचाई की माकूल व्यवस्था करना। विचारणीय विषय यह है कि क्या इन कदमों से भारत के किसानों की विशेषकर सीमांत किसानों की दशा सुधर पाएगी?

सोचने वाली बात यह है कि कृषि को लेकर भारतीय सोच और पश्चिमी सोच में बुनियादी अंतर है। जहां एक ओर भारत की पांरपरिक कृषि किसान को विशेषकर सीमांत किसान को उसके जीवन की संपूर्ण आवश्यक्ताओं को पूरा करते हुए, आत्मनिर्भर बनाने पर जोर देती है, वहीं पश्चिमी मानसिकता में कृषि को भी उद्योग मानकर बाजारवाद से जोड़ा जाता है। जिसके भारत के संदर्भ में लाभ कम और नुकसान ज्यादा हैं। पश्चिमी सोच के अनुसार दूध उत्पादन एक उद्योग है। दुधारू पशुओं को एक कारखानों की तरह इकट्ठा रखकर उन्हें दूध बढ़ाने की दवाऐं पिलाकर और उस दूध को बाजार में बड़े उद्योगों के लिए बेचकर पैसा कमाना ही लक्ष्य होता है। जबकि भारत का सीमांत कृषक, जो गाय पालता है, उसे अपने परिवार का सदस्य मानकर उसकी सेवा करता है। उसके दूध से परिवार का पोषण करता है। उसके गोबर से अपने खेत के लिए खाद् और रसोई के लिए ईंधन तैयार करता है। बाजार की व्यवस्था में यह कैसे संभव है? इसी तरह उसकी खेती भी समग्रता लिए होती है। जिसमें जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर का समावेश और पारस्परिक निर्भरता निहित है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानवतावाद इसी भावना को पोषित करता है। बाजारीकरण पूर्णतः इसके विपरीत है।

देश  की जमीनी सोच से जुड़े और वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाले विचारकों की चिंता का विषय यह है कि विकास की दौड़ में कहीं हम व्यक्ति केन्द्रित विकास की जगह बाजार केंद्रित विकास तो नहीं कर रहे। पंजाब जैसे राज्य में भूमि उर्वरकता लगातार कम होते जाना, भू-जल स्तर खतरनाक गति से नीचा होते जाना, देश में जगह-जगह लगातार सूखा पड़ना और किसानों को आत्महत्या करना एक चिंताजनक स्थिति को रेखांकित करता है। ऐसे में कृषि को लेकर जो पांरपरिक ज्ञान और बुनियादी सोच रही है, उसे परखने और प्रयोग करने की आवश्यकता है। गुजरात का ‘पुनरोत्थान ट्रस्ट’ कई दशकों से देशज ज्ञान पर गहरा शोध कर रहा है। इस शोध पर आधारित अनेक ग्रंथ भी प्रकाशित किये गये हैं। जिनको पढ़ने से पता चलता है कि न सिर्फ कृषि बल्कि अपने भोजन, स्वास्थ, शिक्षा व पर्यावरण को लेकर हम कितने अवैज्ञानिक और अदूरदर्शी हो गये हैं। हम देख रहे हैं कि आधुनिक जीवन पद्धति लगातार हमें बीमार और कमजोर बनाती जा रही है। फिर भी हम अपने देशज ज्ञान को अपनाने को तैयार नहीं हैं। वो ज्ञान, जो हमें सदियों से स्वस्थ, सुखी और संपन्न बनाता रहा और भारत सोने की चिड़िया कहलाता रहा। जबसे अंग्रेजी हुकुमत ने आकर हमारे इस ज्ञान को नष्ट किया और हमारे अंदर अपने ही अतीत के प्रति हेय दृष्टि पैदा कर दी, तब से ही हम दरिद्र होते चले गये। कृषि को लेकर जो भी कदम आज उठाये जा रहें हैं, उनकी चकाचैंध में देशी समझ पूरी तरह विलुप्त हो गयी है। यह चिंता का विषय है। कहीं ऐसा न हो कि ‘चैबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनकर लौटे’।

यह सोचना इसलिए भी महत्वपूर्णं है क्योंकि बाजारवाद व भोगवाद पर आधारित पश्चिमी अर्थव्यवस्था का ढ़ाचा भी अब चरमरा गया है। दुनिया का सबसे विकसित देश माना जाने वाला देश अमरिका दुनिया का सबसे कर्जदार है और अब वो अपने पांव समेट रहा है क्योंकि भोगवाद की इस व्यवस्था ने उसकी आर्थिक नींव को हिला दिया है। समूचे यूरोप का आर्थिक संकट भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि बाजारवाद और भोगवाद की अर्थव्यवस्था समाज को खोखला कर देती है। हमारी चिंता का विषय यह है कि हम इन सारे उदाहरणों के सामने होेते हुए भी पश्चिम की उन अर्थव्यवस्थाओं की विफलता की ओर न देखकर उनके आडंबर से प्रभावित हो रहे हैं।

आज के दौर में जब भारत को एक ऐसा सशक्त नेतृत्व मिला है, जो न सिर्फ भारत की वैदिक संस्कृति को गर्व के साथ विश्व में स्थापित करने सामथ्र्य रखता है और अपने भावनाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने में संकोच नहीं करता, फिर क्यों हम भारत के देशज ज्ञान की ओर ध्यान नहीं दे रहे? अगर अब नहीं दिया तो भविष्य में न जाने ऐसा समय फिर कब आये? इसलिए बात केवल किसानों की नहीं, पूरे भारतीय समाज की है, जिसे सोचना है कि हमें किस ओर जाना है?

Monday, April 3, 2017

योगी को सीएम बनाकर मोदी ने कोई गलती नहीं की

जिस दिन आदित्यनाथ योगी जी की शपथ हुई, उस दिन व्हाट्सएप्प पर एक मजाक चला, जिसमें दिखाया गया कि आडवाणी जी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कंधे पर हाथ रखकर कह रहे हैं कि ‘आज तूने वही गलती कर दी, जो मैने तूझे गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर की थी’। ये एक भद्दा मजाक था। ये उस शैतानी दिमाग की उपज है, जो भारत में सनातनधर्मी मजबूत नेतृत्व को उभरते और सफल होते नहीं देखना चाहता। जबकि सच्चाई ये है कि मोदी जी ने योेगी जी को उ.प्र. की बागडोर सौंपकर तुरूप का पत्ता फैंका है। देश की जनता तभी सुखी हो सकती है, जब प्रदेश की सरकार का नेतृत्व चरित्रवान और योग्य लोग करें। क्योंकि केंद्र की सरकार तो नीति बनाने का और साधन मुहैया करने का काम करती है। योजनाओं का क्रियान्वयन तो प्रदेश की नौकरशाही करती है। अगर वो कोताही बरतें तो जनता तक नीतियों का लाभ नहीं पहुंचता, जिससे जनाक्रोश पनपता है। आज के दौर में जब राजनीतिज्ञों को सफल होने के लिए चाहे-अनचाहे तमाम भ्रष्ट तरीके अपनाने पड़ते हैं, ऐसे में किसी नेता से ये उम्मीद करना कि वो रातों-रात रामराज्य स्थापित कर देगा, काल्पनिक बात है। जैसा कि हमने पहले भी लिखा है कि साधन संपन्न तपस्वी योगी के भ्रष्ट होने का कोई कारण नहीं है। इसलिए वह ईमानदार रह भी सकता है और ईमानदारी को शासन पर कड़ाई से लागू भी कर सकता है। उ.प्र. की जो हालत पिछले दो दशकों से रही है, उसमें जनता को शासन से अपेक्षा के अनुरूप व्यव्हार नहीं मिला। ऐसे में उ.प्र. को योगी जी जैसेे मुख्यमंत्री का इंतजार था।

मोदी जी के इस कदम से उ.प्र. की हालत सुधरने की संभावनाऐं प्रबल हो गयी हैं। लेकिन ये काम 5 साल में भी पूरा होने नहीं जा रहा और जब तक उ.प्र. उत्तम प्रदेश नहीं बनेगा तब तक योगी जी परीक्षा में पास नही होंगें। ऐसे में उन्हें कम से कम अगले 10 साल उत्तर प्रदेश को तेज विकास के रास्ते से ले जाना होगा। उ.प्र. की नौकरशााही का तौर-तरीक बदलना होगा। उसमें जनता के प्रति सेवा का भाव लाना होगा। ये काम एक-दो दिन का नहीं है। आज योगी जी की आयु मात्र 45 वर्ष है। 10 वर्ष बाद, वे मात्र 55 वर्ष के होंगें। जबकि मोदी जी 75 वर्ष के हो जायेंगे। तब वो समय आयेगा, जब योगी जी राष्ट्रीय भूमिका के लिए उपलब्ध हो सकेगें। इस तरह मोदी जी ने आम जनता के मन में जो प्रश्न था कि उनके बाद कौन, उसे भी इस कदम से दूर कर दिया है। क्योंकि यह सवाल उठना स्वभाविक था कि मोदी के बाद भारत को सशक्त नेतृत्व कौन देगा? अब उस प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना प्रबल हो गयी है।

वैसे भी राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण करने से पहले मोदी जी ने 15 वर्ष गुजरात की सेवा की। आज उन्होंने अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि बना ली है जबकि योगी जी के लिए सरकार चलाने का ये पहला अनुभव है। अभी उन्हें बहुत कुछ देखना और समझना है। इसलिए इस तरह के बेतुके मजाक करना, सिर्फ मानसिक दिवालियापन का परिचय देता है। वरना न तो मोदी को योगी से खतरा है और न योगी को मोदी से खतरा है। अगर खतरा होता तो अमित शाह जैसे मझे हुए शतरंज के खिलाड़ी ये मोहरा बिछाते ही नहीं।

1000 साल का मध्य युग, 200 साल का औपनिवेशक शासन और फिर 70 साल आजादी के बाद भारत की बहुसंख्यक हिंदू आबादी ने अपमान के घूंट पीकर गुजारे हैं। हमारी आस्था के तीनों केंद्र मथुरा, काशी और अयोध्या, आज भी हमें उस अपमान की लगातार याद दिलाते हैं। हमारी गौवंश आधारित कृषि, आर्युवेद व गुरूकुल शिक्षा प्रणाली की उपेक्षा करके, जो कुछ हम पर थोपा गया, उसे भारतीय समाज शारिरिक, मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल हुआ है। भैतिकतावाद की इस चकाचैंध में अब तो हमसे शुद्ध अन्न, जल, फल व वायु तक छीन ली गई है। हमारे उद्यमी और कर्मठ युवाओं को थोथी डिग्री के प्रमाण पत्र पकड़ाकर, नाकारा बेरोजगारों की लंबी कतारों में खड़ा कर दिया गया है। न तो वो गांव के काम के लायक रहे और न शहर के। इन सारी समस्याओं का हल हमारी शुद्ध सनातन संस्कृति में था, और आज भी है। जरूरत है उसे आत्मविश्वास के साथ अपनाने की।

जब तक प्रदेशों और राष्ट्र के स्तर पर भारत के सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रवादी नेतृत्व पदासीन नहीं होगा, तब तक भारत अपना खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त नहीं कर पायेगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अगर कर्नाटक के खानमाफिया रेड्डी बंधुओं या मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले जैसे कांड होंगे तो फिर सत्ता में कोई भी हो, कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इसलिए जहां एक तरफ हर राष्ट्रप्रेमी भारत को एक सबल राष्ट्र के रूप देखना चााहता है। वहीं इस बात की सत्तारूढ़ दल की जिम्मेदारी है कि परीक्षा की घडी में सच्चाई से आंख न चुरायें और अपनी गल्तियों को छिपाने की कोशिश न करें।

मैं याद दिलाना चाहता हूं कि जब आतंकवाद और भ्रष्टाचार के विरूद्ध 1993 में मैंने हवाला कांड खोलकर, अपनी जान हथेली पर रखकर, पूरी राजनैतिक व्यव्यस्था से वर्षों अकेले संघर्ष किया था तब राष्ट्रप्रेमी शक्तियों ने केवल इसलिए चुप्पी साध ली क्योंकि हवाला कांड में लालकृष्ण आडवाणी जी भी आरोपित थे। जबकि कांगेस और दूसरे दलों के 53 से अधिक नेता अरोपित हुए थे। फिर भी मुझे कुछ लोगों ने हिन्दू विरोधी कहकर बदनाम करने की नाकाम कोशिश की जबकि मैं भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के लिए हमेशा सीना तानकर खड़ा रहा हूं। यही वजह है कि नरेन्द भाई के प्रधानमंत्री बनने के 5 वर्ष पहले से ही, मैं उनके नेतृत्व का कायल था और उन्हें भारत की गद्दी पर देखना चाहता था। इसलिए हमेशा उनके पक्ष में लिखा और बोला। भारत की वैदिक परंपरा है कि अपने शुभचिंतकों की आलोचना को भगवत्प्रसाद मानकर स्वीकार किया जाए और चाटुकरों की फौज से बचा जाऐ। अगर मोदी जी और योगी जी इस सिद्धांत का पालन करेंगे तो उन्हें सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।

Monday, March 27, 2017

वेदों के अनुसार आकाश की बिजली का प्रयोग संभव

बिजली आज सभ्य समाज की बुनियादी जरूरत बन चुकी है। गरीब-अमीर सबको इसकी जरूरत है। विकासशील देशों में बिजली का उत्पादन इतना नहीं होता कि हर किसी की जरूरत को पूरा कर सके। इसलिए बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्त्रोत लगातार ढू़ढे जाते है। पानी से बिजली बनती है, कोयले से बनती है, न्यूक्लियर रियेक्टर से बनती है और सूर्य के प्रकाश से भी बनती है। लेकिन वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर जिन्होंने वैदिक विज्ञान के आधार पर आधुनिक जगत की कई बड़ी चुनौतियों को मौलिक रूप से सुलझाने का काम किया है, उनका दावा है कि बादलों में चमकने वाली बिजली को भी आदमी की जरूरत के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एक हकीकत है। दुनिया के विकसित देश जैसे अमेरिका, जापान, चीन, फ़्रांस आदि तो इस बिजली के दोहन के लिए संगठित भी हो चुके हैं । उनकी संस्था का नाम है ‘इंटरनेशनल कमीशन आन एटमास्फारिक इलैक्ट्रिसिटी’। दुर्भाग्य से भारत इस संगठन का सदस्य नहीं है। अलबत्ता यह बात दूसरी है कि भारत के वैदिक शास्त्रों में इस आकाशीय बिजली को नियंत्रित करने का उल्लेख आता है। देवताओं के राजा इंद्र को इसकी महारत हासिल है। सुनने में यह विचार अटपटा लगेगा। ठीक वैसे ही जैसे आज से सौ वर्ष पहले अगर कोई कहता कि मैं लोहे के जहाज में बैठकर उड़ जाउंगा! तो दुनिया उसका मजाक उड़ाती।

पृथ्वी की सतह से 80 किमी. उपर तक तो हमारा वायुमंडल है। उसके उपर 220 किमी. का एक अदृश्य गोला पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। जिसे ‘आईनों स्फियर’ कहते हैं। जो ‘आयन्स’ से बना हुआ है। इस आयनो स्फियर के कण बिजली से चार्ज होते हैं। उनके और पृथ्वी की सतह के बीच लगातार आकाशीय बिजली का आदान प्रदान होता रहता है। इस तरह एक ग्लोबल सर्किट काम करता है। जो आंखों से दिखाई नहीं देता लेकिन इतनी बिजली का आदान प्रदान होता है कि पूरी दुनिया की 700 करोड़ आबादी की बिजली की जरूरत बिना खर्च किये पूरी हो सकती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था का यही उद्देश्य है कि कैसे इस बिजली को मानव की आवश्यक्ता के लिए प्रयोग किया जाये।

जब आकाश में बिजली चमकती है, तो ये प्रायः पहले पहाड़ों की चोटियों पर लगातार गिरती हैं। डा. कपूर बताते हैं कि इस बिजली से 30000 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा होता है। जिससे पहाड़ की चोटी खंडित हो जाती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था ने अभी तक मात्र इतनी सफलता प्राप्त की है कि इस बिजली से वे पहाड़ों के शिखरों को तोड़कर समतल बनाने का काम करने लगे हैं। जो काम अभी तक डायनामाईट करता था। ऋग्वेद के अनुसार देवराज इंद्र ने शंभर राक्षस के 99 किले इसी बिजली से ध्वस्त किये थे। ऋग्वेद में इंद्र की प्रशंक्ति में 300 सूक्त हैं। जिनमें इस बिजली के प्रयोग की विधियां बताई गई है।

वेदों के अनुसार इस बिजली को साधारण विज्ञान की मदद से ग्रिड में डालकर उपयोग में लाया जा सकता है। न्यूयार्क की मशहूर इमारत इंम्पायर स्टेट बिल्डिंग के शिखर पर जो तड़िचालक लगा है
, उस पर पूरे वर्ष में औसतन 300 बार बिजली गिरती है। जिसे लाइट्निंग कंडक्टर के माध्यम से धरती के अंदर पहुंचा दिया जाता है। भारत में भी आपने अनेक भवनों के उपर ऐसे तड़िचालक देखे होंगे, जो भवनों को आकाशीय बिजली के गिरने से होने वाले नुकसान से बचाते हैं। अगर इस बिजली को जमीन के अंदर न ले जाकर एडाप्टर लगाकर, उसके पैरामीटर्स बदलकर, उसको ग्रिड में दे दिया जाये तो इसका वितरण मानवीय आवश्यक्ता के लिए किया जा सकता है।

मेघालय प्रांत जैसा नाम से ही स्पष्ट है, बादलों का घर है। जहां दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश होती है और सबसे ज्यादा बिजली गिरती है। इन बादलों को वेदों में पर्जन्य बादल कहा जाता है और विज्ञान की भाषा में ‘कुमुलोनिम्बस क्लाउड’ कहा जाता है। किसी हवाई जहाज को इस बादल के बीच जाने की अनुमति नहीं होती। क्योंकि ऐसा करने पर पूरा जहाज अग्नि की भेंट चढ़ सकता है। बादल फटना जो कि एक भारी प्राकृतिक आपदा है, जैसी उत्तराखंड में हुई, उसे भी इस विधि से रोका जा सकता है। अगर हिमालय की चोटियों पर ‘इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट’ लगा दिये जाए और इस तरह पर्जन्य बादलों से प्राप्त बिजली को ग्रिड को दे दिया जाए तो उत्तर भारत की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो जायेगी और बादल फटने की समस्या से भी छुटकरा मिल जायेगा।

धरती की सतह से 50000 किमी. ऊपर धरती का चुम्बकीय आवर्त (मैग्नेटो स्फियर) समाप्त हो जाता है। इस स्तर पर सूर्य से आने वाली सौर्य हवाओं के विद्युत आवर्त कण (आयन्स) उत्तरी और दक्षिणी धु्रव से पृथ्वी में प्रवेश करते हैं, जिन्हें अरोरा लाईट्स के नाम से जाना जाता है। इनमें इतनी उर्जा होती है कि अगर उसको भी एक वेव गाइड के माध्यम से इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट लगाकर ग्रिड में दिया जाये तो पूरी दुनिया की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो सकती है। डा. कपूर सवाल करते हैं कि भारत सरकार का विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय क्यों सोया हुआ है ? जबकि हमारे वैदिक ज्ञान का लाभ उठाकर दुनियों के विकसित देश आकाशीय बिजली के प्रयोग करने की तैयारी करने में जुटे हैं।

Monday, March 20, 2017

योगी बदलेंगे यूपी का चेहरा

जैसे ही योगी आदित्यनाथ जी के नाम की घोषणा हुई, टीवी चैनलों पर बैठे कुछ टिप्प्णीकाओं ने इस समाचार पर असंतोष जताया। उनका कहना था कि योगी समाज में विघटन की राजनीति करेंगे और प्रधानमंत्री मोदी के विकास के एजेंडा को दरकिनार कर देंगे। यह सोच सरासर गलत है। विकास का ऐंजेंडा हो या कुशल प्रशासन, उसकी पहली शर्त है कि राजनेता चरित्रवान होना चाहिए। आजकल राजनीति में सबसे बड़ा संकंट चरित्र का हो गया है। चरित्रवान राजनेता ढू़ढ़े से नहीं मिलते। 21 वर्ष की अल्पायु में समाज और धर्म के लिए घर त्यागने वाला कोई युवा कुछ मजबूत इरादे लेकर ही निकलता है। योगी आदित्यनाथ ने अपने शुद्ध सात्विक आचरण और नैष्टिक ब्रह्मचर्य से अपने चरित्रवान होने का समुचित प्रमाण दे दिया है। पांच बार लोकसभा जीतकर उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता को भी स्थापित कर दिया है। गोरखनाथ पंथ की इस गद्दी का इतिहास रहा है कि इस पर बैठने वाले संत चरित्रवान, निष्ठावान और देशभक्त रहें हैं। इतनी बड़ी गद्दी के महंत होकर भी योगी जी पर कभी कोई आरोप नहीं लगे।

आज राजीनिति की दूसरी समस्या है बढ़ता परिवारवाद। कोई दल इससे अछूता नहीं है। दावे कोई कितने ही कर ले, पर हर दल का नेता अपने परिवार को बढ़ाने में ही लगा रहता है और जनता की उपेक्षा कर देता है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी जैसे विरले ही होते हैं, जो राजनीति के सर्वाेच्च स्तर पर पहुंच कर भी परिवार के लिए कुछ नहीं करते। क्योंकि वे परिवार को पहले ही बहुत पीछे छोड़ आये हैं। उनके लिए समाज, राष्ट्र और धर्म यही प्राथमिकता होती है। उ.प्र को दशाब्दियों बाद एक ऐसा नेतृत्व मिला है, जो चरित्रवान है, विचारवान है, आस्थावान है और जिसके परिवारवाद में फंसने की कोई गुंजाइश नही है। इसलिए ये कहना कि योगी जी के आने से विकास का ऐजेंडा पीछे चला जायेगा, सरासर गलत है।
ये सही है कि उ.प्र. के प्रशासन में चाहे वो पुलिस हो, सामान्य प्रशासन हो या न्यायपालिका तीनों में ही भारी भ्रष्टावार व्याप्त है। बिना आमूल-चूल परिवर्तन किये हालात बदलने वाले नहीं है। यही सबसे बड़ी चुनौती है, योगीजी के समने। उन्हें  औपनिवेशिक मानसिकता वाली प्रशासनिक व्यवस्था को तोड़ना होगा और राजऋषी की भूमिका में आना होगा। चाणक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश के राजा महलों में रहते हैं, उनकी प्रजा झोपड़ियों में रहती है और जिसके राजा झोंपड़ियों में रहते है उसकी प्रजा महलों में रहती है। योगी जी ने पहले ही इसके संकेत दिये है कि वे स्वयं और अपने मंत्री मंडल को राजा की तरह नहीं बल्कि प्रजा के सेवक के रूप में देखना चाहेंगे। जहां तक सवाल है प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने का उसके लिए कड़े इरादे की जरूरत होती है। योगी जी का इतिहास रहा है कि ‘प्राण जाये पर वचन न जाई’ वे अपने वचन पर अटल रहते हैं। जो ठान लिया सो करके रहेंगे। फिर न तो उन्हें बिकाऊ मीडिया की परवाह होती है और न ही छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों की।

रही बात अल्पसंख्यको की तो ये शब्द ही विघटनकारी है। जब संविधान में सबको समान हक मिला हुआ है, तो कौन बहुसंख्यक और कौन अल्पसंख्यक! उन्हें ऐसे निर्णय लेने होंगे, जिनसे समाज में समरसता आये और ये अल्पसंख्यकवाद की नौटंकी बंद हो। जो बहुसंख्यक मुसलमान अपने कारोबार में जुटे हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नही पड़ेगा। क्योंकि वे तो पहले से ही राष्ट्र की मुख्यधारा में हैं। लेकिन जो मुसलमान आतंकवाद की टोपी पहनकर गऊ हत्या, देह व्यापार, तस्करी और नशीली दवाओं के व्यापार में लिप्त हैं, उनकी नकेल जरूर कसी जायेगी। अब उनके लिए बेहतर यही होगा कि वे उ.प्र. छोड़कर भाग जायें।

उ.प्र. को संतुलित और सही विकास की जरूरत है। इसके लिए गहरी समझ, गंभीर सोच, क्रंतिकारी विचारों और ठोस नेतृत्व की आवश्यक्ता है। आवश्यक नहीं की राजा सर्वगुण संपन्न हो। उसकी योग्यता तो इस बात में हैं कि वह एक जौहरी की तरह हो, गुणग्राही हो और उस मेधा को पहचानने की क्षमता रखता हो, जिनसे वह वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति करवा सके। योगी जी ने अगर ऐसा रास्ता पकड़ा और सही लोगों को अपनी टीम में शामिल करके उ.प्र के विकास का मार्ग तैयार किया, तो निःसंदेह प्रधानमंत्री मोदी के विकास के ऐंजंडा को बहुत आगे ले जायेंगे। 

उ.प्र. कीे समस्याओं की सूची बहुत लंबी है। जिन्हें एक लेख में समाहित नहीं किया जा सकता। आने वाले सप्ताहों में हम इन मुद्दों पर अपने अनुभव और समझ के अनुसार प्रकाश डालेंगें और उम्मीद करेंगे कि हमारी बात योगीजी तक पहुंचे। 

लगे हाथ पंजाब की भी चर्चा कर लेनी चाहिए। अकाली दल के वंशवाद से त्रस्त होकर पंजाब की जनता ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को गद्दी सौंप दी और राजनीति के बहरूपिया अरविंद केजरीवाल को रिजेक्ट कर दिया। इस काॅलम में हम पिछले पांच वर्ष से बराबर लिखते आये हैं कि अरविंद केजरीवाल की राजीनीति केवल आत्मकेंद्रित है। ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और’ पर इसका मतलब ये नहीं कि कैप्टन साहब को मनमानी हुकुमत चलाने का पट्टा मिल गया हो। वे भी देख रहें है कि देश में राजनीति की दशा और दिशा दोंनो बदल रही है। ऐसे में अगर उन्होंने जनता को सामने रखकर पारदर्शिता से ठोस काम नहीं किया तो अगले लोकसभा चुनाव में उनके दल को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी की आंधी  के बीच वे अपना दीया इस तरह जलाकर रखेंगे, जिससे पंजाब कि मतदाता को निराशा न हो।

Monday, March 13, 2017

चन्द्रगुप्त मौर्य बनेंगे नरेन्द्र मोदी

उ.प्र. के चुनाव परिणामों ने मोदी के राष्ट्रवाद पर मोहर लगा दी है। जो इस उम्मीद में थे कि नोटबंदी मोदी को ले डूबेगी, उन्हें अब बगले झांकनी पड़ रही है। हमने नोटबंदी के उन्माद के दौर में भी लिखा था कि तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा की तरह मोदी सब विरोधों को झेलते हुए अपना लक्ष्य हासिल कर लेंगे। उनके सेनापति अमित शाह ने एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रांत जीतकर मोदी की ताकत को कई गुना बढ़ा दिया है। दरअसल उ.प्र. की जनता को मोदी का प्रखर राष्ट्रवाद अपील कर गया। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति ने देश का सही विकास नहीं होने दिया। इससे न हिंदुओं का लाभ हुआ और न मुसलमानों को।

मगर यह भी सही है कि भाजपा ने उप्र को जीतकर अपनी जिम्मेदारियां और बढ़ा ली हैं। क्षेत्रीय दलों को केंद्र में रखकर देखें तो यह चैंकाने वाली बात है कि उप्र में दोनों प्रमुख दल यानी सपा और बसपा लगभग हाशिए पर चले गए हैं। यह बात देश की राजनीति में क्षेत्रीय राजनीति के अवसान का संकेत दे रही है।

यह सर्वस्वीकार्य बात है कि भाजपा का उप्र में अपना वजूद कोई बहुत ज्यादा नहीं था। भाजपा के लिए मोदी और अमित शाह की अपनी हैसियत ने ही सारा काम किया। इसलिए यह जीत भी उन्ही की ही साबित होती है। इसलिए चाय बेचने से लेकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुचने का मोदी का सफर चंद्रगुपता मौर्य की तरह संघर्षों से भरा रहा है। इसलिए यह विश्वास होता  है कि मोदी भी मौर्य शासक की तरह भारत  को सुदृढ़ बनाने का काम करेंगे।

अगर ऐसा है तो उप्र की जनता की उम्मीदें भाजपा से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही होंगी। और इसमें भी कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री होने के कारण उनकी हैसियत भी बहुत कुछ करने की है।

यहां याद दिलाने की बात यह है कि उप्र में प्रचार के दौरान मोदी ने उप्र के विकास में बाधाओं की बात कही थी। उन बाधाओं में एक थी कि केंद्र की भेजी मदद को उप्र खर्च नहीं कर पाया। यानी उप्र में सरकारी खर्च बढ़ाया जाना पहला काम होगा जो सरकार बनते ही दिखना चाहिए। किसानों की कर्ज माफी दूसरा बड़ा काम है। लेकिन इसके लिए उप्र सरकार कितना क्या कर पाएगी यह अभी देखना होगा लेकिन पूरे देश के लिहाज से भी यह काम असंभव नहीं है। हो सकता है कि उप्र के बहाने पूरे देश को किसानों को यह राहत मिल जाए।

उप्र में प्रचार के दौरान अखिलेश सरकार ने अपने विकास कार्यों को मुख्य मुददा बनाने की कोशिश जरूर की थी लेकिन चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि यह मुददा बन नहीं पाया। बल्कि भाजपा ने प्रदेश में सड़कें, पुल, सिंचाई, नए कारखाने, रोजगार की कमी बताते हुए अखिलेश सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश्श की थी। सो अब बिल्कुल तय है कि इन मोर्चों पर नई सरकार को कुछ करते हुए दिखना पड़ेगा। लेकिन इन कामों को पहले से ज्यादा बड़े पैमाने पर होते हुए दिखाना आसान काम नहीं है। इसीलिए नई सरकार को इस मामले में सतर्क रहना पड़ेगा कि पहले से जो हो रहा था उसकी अनदेखी न हो जाए।

लगे हाथ इस बात की चर्चा कर लेनी चाहिए कि क्या उप्र का चुनाव वाकई 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले एक सेमीफायनल था। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री को ही आगे रखकर चुनाव लड़ा गया। लेकिन इतने भर से उप्र का चुनाव सेमीफायनल जैसा नहीं बन जाता। खासतौर पर इसलिए क्योंकि 2019 के पहले कुछ और बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उन चुनावों के दौरान भी भाजपा को प्रधानमंत्री का चेहरा दाव पर लगाना पड़ेगा। हालांकि उन ज्यादातर प्रदेशों में भाजपा की ही सरकार है। सो यह तय है कि उप्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद शुरू हुए नए कामों का जिक्र किया जाएगा। इस लिहाज से भाजपा को उप्र में अपना ही विकास मंच सजाने की जरूरत पड़ेगी। तभी वह 2019 के पहले होने वाले विधान सभा चुनावों में सिर उठा कर प्रचार कर पाएगी। इस तरह  साबित होता है कि सेमीफाइनल उप्र नहीं था बल्कि अभी होना है।

उप्र में भाजपा को जीत ऐसे मुश्किल समय में मिली है जब केंद्र में मोदी सरकार के तीन साल गुजर चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अपनी उपलब्धियों को भौतिक रूप से कैसे दिखाए। अब तक जिन प्रदेशों में उसकी सरकार बनी है वे सारे बीमारू राज्य के रूप में प्रचारित किए जाते थे। अपनी सत्ता आने के पहले यह प्रचार खुद भाजपा ही करती आ रही थी। सो स्वाभाविक था उन राज्यों की हालत सुधार देने का दावा उसे लगातार करना ही पड़ा। लेकिन वे छोटे राज्य थे। अब जिम्मेदारी उप्र जैसे भारीभरकम राज्य में कर दिखाने की आई है।

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।