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Monday, January 15, 2024

अयोध्या: प्राण प्रतिष्ठा में विवाद क्यों?

आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान श्री राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर जो विवाद पैदा हुए हैं उसमें सबसे महत्वपूर्ण है शंकराचार्यों का वो बयान जिसमें उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। उनका विरोध इस बात को लेकर है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में वैदिक नियमों की अवहेलना की जा रही है। गोवर्धन पीठ (पुरी, उड़ीसा) के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का कहना है कि, मंदिर नहीं, शिखर नहीं, शिखर में कलश नहीं - कुंभाभिषेक के बिना मूर्ति प्रतिष्ठा?” प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्री राम के शीर्ष के ऊपर चढ़ कर जब राज मज़दूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा। बाक़ी शंकराचार्यों ने भी वैदिक नियमों से ही प्राण प्रतिष्ठा की माँग की है और ऐसे ही कई कारणों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने भी इस समारोह की आलोचना की है। इस विवाद के दो पहलू हैं जिन पर यहाँ चर्चा करेंगे। 



पहला पक्ष यह है कि ये चारों शंकराचार्य निर्विवाद रूप से सनातन धर्म के सर्वोच्च अधिकृत मार्ग निर्देशक हैं। सदियों से पूरे देश का सनातन धर्मी समाज इनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानता आया है। किसी धार्मिक विषय पर अगर संप्रदायों के बीच मतभेद हो जाए तो उसका निपटारा भी यही शंकराचार्य करते आये हैं। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये संन्यास की किस परंपरा से आते हैं। आदि शंकराचार्य ने ही इस भेद को समाप्त कर दिया था। जब उन्होंने, अहम् ब्रह्मास्मिका तत्व ज्ञान देने के बावजूद विष्णु षट्पदी स्तोत्रकी रचना की और भज गोविन्दमगाया। इसलिए पुरी शंकराचार्य जी का ये आरोप गंभीर है कि 22 जनवरी को होने वाला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम सनातन हिंदू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है। इसलिए हिंदुओं का वह वर्ग जो सनातन धर्म के सिद्धांतों में आस्था रखता है, पुरी शंकराचार्य से सहमत है। शंकराचार्य जी ने इस तरह किए जा रहे प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के भयंकर दुष्परिणाम सामने आने की चेतावनी भी दी है। 



उधर दूसरा पक्ष अपने तर्क लेकर खड़ा है। इस पक्ष का मानना है कि प्रधान मंत्री श्री मोदी ने एक प्रबल इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए और सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिये साधते हुए, इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और इस तरह भाजपा समर्थक हिंदू समाज को एक चिर प्रतीक्षित उपहार दिया है। इसलिए उनके प्रयासों में त्रुटि नहीं निकालनी चाहिए। इस पक्ष का यह भी कहना है कि पिछली दो सहस्राब्दियों में भारत में जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म, सिख धर्म या इस्लाम तभी व्यापक रूप से फैल सके जब उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ। जैसे सम्राट अशोक मौर्य ने बौद्ध धर्म फैलाया, सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म को अपनाया और फिर इसके विस्तार में सहयोग किया। कुषाण राजा ने पहले सनातन धर्म अपनाया फिर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसी तरह मुसलमान शासकों ने इस्लाम को संरक्षण दिया और अंग्रेज़ी हुक्मरानों ने ईसाईयत को। इसी क्रम में आज नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा राजसत्ता का उपयोग करके हिंदुत्व की विचारधारा को स्थापित कर रही है। इसलिए हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण भाग इनके साथ कमर कस के खड़ा है। पर इसके साथ ही देश में ये विवाद भी चल रहा है कि हिंदुत्व की इस विचारधारा में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है। जिसका उल्लेख हिंदू धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने साठ के दशक में लिखी अपनी पुस्तक आरएसएस और हिंदू धर्ममें शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर बहुत स्पष्टता से किया था। 



जिस तरह के वक्तव्य पिछले दो दशकों में आरएसएस के सरसंघचालक और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दिये हैं उससे स्पष्ट है कि हिंदुत्व की उनकी अपनी परिकल्पना है, जिसके केंद्र में है हिंदू राष्ट्रवाद। इसलिए वे अपने हर कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। चाहे वो वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं और आस्थाओं के विपरीत ही क्यों न हो। आरएसएस और सनातन धर्म के बीच ये वैचारिक संघर्ष कई दशकों से चला आ रहा है। अयोध्या का वर्तमान विवाद भी इसी मतभेद के कारण उपजा है। 



फिर भी हिंदुओं का यह वर्ग इसलिए भी उत्साहित है कि प्रधान मंत्री मोदी ने हिंदुत्व के जिन लक्ष्यों को लेकर गांधीनगर से दिल्ली तक की दूरी तय की थी, उन्हें वे एक-एक करके पाने में सफल हो रहे हैं। इसलिए हिंदुओं का ये वर्ग मोदी जी को अपना हीरो मानता है। इस अति उत्साह का एक कारण यह भी है कि पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों ने धर्म के मामले में सहअस्तित्व को केंद्र में रख कर संतुलित नीति अपनाई। इस सूची में भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। जिन्होंने राज धर्मकी बात कही थी। पर मोदी जी दूसरी मिट्टी के बने हैं। वो जो ठान लेते हैं, वो कर गुजरते हैं। फिर वे नियमों और आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। इसीलिए जहां नोटबंदी, बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर वे अपना घोषित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए, वहीं दूसरे कुछ मोर्चों पर उन्होंने अपनी सफलता के झंडे भी गाड़े हैं। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा समारोह को अपनी तरह आयोजित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। क्योंकि ये उनके राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति का एक माध्यम है। देश की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना उनके इस कार्यक्रम का उद्देश्य नहीं है। 


रही बात परमादरणीय शंकराचार्यों के सैद्धांतिक मतभेद की तो बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदू समाज ने इन सर्वोच्च धर्म गुरुओं से वैदिक आचरण सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। उधर पिछले सौ वर्षों में शंकराचार्यों की ओर से भी वृहद हिन्दू समाज को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कारण: सनातन धर्म के शिखर पुरुष होने के नाते शंकराचार्यों की अपनी मर्यादा होती है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं कर सकते थे। इसका एक कारण यह भी है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज की न तो आध्यात्मिक गहराई में रुचि है और न ही उनकी क्षमता। उनके लिए आस्था का कारण अध्यात्म से ज़्यादा धार्मिक मनोरंजन व भावनात्मक सुरक्षा पाने का माध्यम है। पर अगर राजसत्ता वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना करना चाहती तो वह शंकराचार्यों को यथोचित सम्मान देती। पर ऐसा नहीं है। हिंदुत्व की विचारधारा भारत के हज़ारों वर्षों से चले आ रहे सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित नहीं है। यह एक राजनैतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम हैं और अपने लक्ष्य हैं। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन को खड़ा करने के लिए आरएसएस, विहिप व भाजपा ने हर संत और सम्प्रदाय का द्वार खटखटाया था। सभी संतों और सम्प्रदायों ने सक्रिय होकर इस आन्दोलन को विश्वसनीयता प्रदान की थी। यह दुर्भाग्य है कि आज शंकराचार्यों जैसे अनेक सम्मानित संत और विहिप, आरएसएस व भाजपा आमने सामने खड़े हो गये हैं।


Monday, January 30, 2023

मिस्र की प्राचीन संस्कृति और कट्टरपंथी हमले के नुक़सान


हम भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। बात-बात पर हम ये बताने कि कोशिश करते हैं कि जितनी महान हमारी संस्कृति है, उतनी महान दुनिया में कोई संस्कृति नहीं है। निःसंदेह भारत का जो दार्शनिक पक्ष है, जो वैदिक ज्ञान है वो हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से देखा जाए तो हम पायेंगे कि भारत से कहीं ज़्यादा उन्नत संस्कृति दुनिया के कुछ दूसरे देशों में पायी जाती है।
 

पिछले तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों में घूमने का मौक़ा मिला है। आजकल मैं मिस्र में हूँ। इससे पहले यूनान, इटली व अब मिस्र की प्राचीन धरोहरों को देखकर बहुत अचम्भा हुआ। जब हम जंगलों और गुफ़ाओं में रह रहे थे या हमारा जीवन प्रकृति पर आधारित था। उस वक्त इन देशों की सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा विकसित थी। हम सबने बचपन में मिस्र के पिरामिडों के बारे में पढ़ा है।पहाड़ के गर्भ में छिपी तूतनख़ामन की मज़ार के बारे में सबने पढ़ा था। यहाँ के देवी-देवता और मंदिरों के बारे में भी पढ़ा। पर पढ़ना एक बात होती है और मौक़े पर जा कर उस जगह को समझना और गहराई से देखना दूसरी बात होती है।


अभी तक मिस्र में मैंने जो देखा है वो आँखें खोल देने वाला है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज से 5,500 साल पहले, क़ुतुब मीनार से भी ऊँची इमारतें, वो भी पत्थर पर बारीक नक्काशी करके, मिस्र के रेगिस्तान में बनाई गयीं। उनमें देवी-देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की गईं। हमारे यहाँ मंदिरों में भगवान की मूर्ति का आकर अधिक से अधिक 4 से 10 फीट तक ऊँचा रहता है। लेकिन इनके मंदिरों में मूर्ति 30-40 फीट से भी ऊँची हैं। वो भी एक ही पत्थर से बनाई गयीं हैं। दीवारों पर तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी उकेरी गई है। फिर वो चाहे आयुर्वेद की बात हो, महिला का प्रसव कैसे करवाया जाए, शल्य चिकित्सा कैसे हो, भोग के लिये तमाम व्यंजन कैसे बनाए जाएँ, फूलों से इत्र कैसे बनें, खेती कैसे की जाए, शिकार कैसे खेला जाए। हर चीज़ की जानकारी यहाँ दीवारों पर अंकित है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे सीख सकें। इतना वैभवशाली इतिहास हैं मिस्र का कि इसे देख पूरी दुनिया आज भी अचंभित होती है। 


फ़्रांस, स्वीडन, अमरीका और इंग्लैंड के पुरातत्ववैत्ताओं व इतिहासकारों ने यहाँ आकर पहाड़ों में खुदाई करके ऐसी तमाम बेशुमार चीज़ों को इकट्ठा किया है।सोने के बने हुए कलात्मक फर्नीचर, सुंदर बर्तन, बढ़िया कपड़े, पेंटिंग और एक से एक नक्काशीदार भवन। अगर उस वक्त की तुलना भारत से की जाए तो भारत में हमारे पास अभी तक जो प्राप्त हुआ है वो सिर्फ़ हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष है। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति में जो हमें मिला है वो केवल मिट्टी के कुछ बर्तन, कुछ सिक्के, कुछ मनके और ईंट से बनी कुछ नींवें, जो भवनों के होने का प्रमाण देती हैं। लेकिन वो तो केवल साधारण ईंट के बने भवन हैं। यहाँ तो विशालकाय पत्थरों पर नक़्क़ाशी करके और उन पर आजतक न मिटने वाली रंगीन चित्रकारी करके सजाया गया है। इनको यहाँ तक ढोकर कैसे लाया गया होगा, जबकि ऐसा पत्थर यहाँ पर नहीं होता था? कैसे उनको जोड़ा गया होगा? कैसे उनको इतना ऊँचा खड़ा किया गया होगा जबकि उस समय कोई क्रेन नहीं होती थी? ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है।

किंतु इस इतिहास का एक नकारात्मक पक्ष भी है। हर देश काल में सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं और हर नई आने वाली सत्ता, पुरानी सत्ता के चिन्हों को मिटाना चाहती है। क्योंकि नई सत्ता अपना आधिपत्य जमा सके। यहाँ मिस्र में भी यही हुआ। जब मिस्र पर यूनान का हमला हुआ, रोम का हमला हुआ या जब अरब के मुसलमानों का हमला हुआ तो सभी ने यहाँ आ कर यहाँ के इन भव्य सांस्कृतिक अवशेषों का विध्वंस किया। उसके बावजूद भी इतनी बड़ी मात्रा में अवशेष बचे रह गए या दबे-छिपे रह गये, जो अब निकल रहे हैं। यही अवशेष मिस्र में आज विश्व पर्यटन का आकर्षण बने हुए हैं। दुनिया भर से पर्यटक बारह महीनों यहाँ इन्हें ही देखने आते हैं। इन्हें देख कर दांतों तले उँगली दबा लेते हैं। इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पर्यटन उद्योग ही है। 

परंतु जो धर्मांध या अतिवादी होते हैं, वो अक्सर अपनी मूर्खता के कारण अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। आपको याद होगा कि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की 120 फीट ऊँची मूर्ति को तालिबानियों ने तोप-गोले लगाकर ध्वस्त किया था। विश्व इतिहास में ये बहुत ही दुखद दिन था। आज अफ़ग़ानिस्तान भुखमरी से गुज़र रहा है। वहाँ रोज़गार नहीं है। खाने को आटा तक नहीं है। अगर वो उस मूर्ति को ध्वस्त न करते। उसके आस-पास पर्यटन की सुविधाएँ विकसित करते, तो जापान जैसे कितने ही बौद्ध मान्यताओं वाले देशों के व दूसरे करोड़ों पर्यटक वहाँ साल भर जाते और वहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। 

जब अरब मिस्र में आए तो उन्होंने सभी मूर्तियों के चेहरों ध्वस्त करना चाहा। क्योंकि इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती को बुरा माना जाता है। जहाँ-जहां वे ऐसा कर सकते थे उन्होंने छैनी हथौड़े से ऐसा किया। लेकिन आज उसी इस्लाम को मानने वाले मिस्र के मुसलमान नागरिक उन्हीं मूर्तियों को, उनके इतिहास को, उनके भगवानों को, उनकी पूजा पद्धति को दिखा-बता कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। फिर वो चाहे लक्सर हो, आसवान हो, अलेक्ज़ेंडेरिया हो या क़ाहिरा हो, सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन ही है। आज मिस्र के लोग उन्हीं पेंटिंग और मूर्तियों के हस्तशिल्प में नमूने बनाकर, किताबें छाप कर, उन्हीं चित्रों की अनुकृति वाले कपड़े बनाकर, उन्हीं की कहानी सुना-सुनाकर उससे कमाई कर  रहे हैं। 

अब मथुरा का ही उदाहरण ले लीजिए। मथुरा में काम कर रही संस्था द ब्रज फ़ाउंडेशन ने पिछले बीस वर्षों में पौराणिक व धार्मिक महत्व वाली दर्जनों श्रीकृष्ण लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है। परंतु योगी सरकार ने आते ही द्वेष वश फाउंडेशन द्वारा सजाई गई दो लीलास्थलियों का तालिबानी विनाश करना शुरू कर दिया। ताज़ा उदाहरण तो मथुरा के जैंत ग्राम स्थित पौराणिक कालियामर्दन मंदिर, अजय वन व जय कुंड का है, जहां भाजपा के एक स्थानीय नेता ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से ग्राम सभा के फ़र्ज़ी प्रस्ताव पर एक सार्वजनिक कूड़ेदान का निर्माण करा रहा है। ग्राम सभा के 15 सदस्यों में से 14 निर्वाचित सदस्य मथुरा के ज़िलाधिकारी को व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखित शिकायत दे चुके हैं कि कूड़ेदान के लिए कोई उनकी सभा में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ। जिस प्रस्ताव के आधार पर ये निर्माण हो रहा है वो फ़र्ज़ी है। इससे पवित्र तीर्थ पर गंदगी का अंबार लग जाएगा। सारा गाँव इसका घोर विरोध कर रहा है। पर अभी तक प्रशासन की तरफ़ से इसे रोकने की कोई कारवाई नहीं हुई। एक ओर तो योगी सरकार हिंदुत्व को बढ़ाने का दावा करती है। दूसरी तरफ़ उसी के राज में मथुरा में तीर्थ स्थलों का विनाश इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वो राजनैतिक रूप से उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। शायद भाजपा और आरएसएस की मानसिकता यह है कि हिन्दू धर्म का जो भी काम होगा वो यही दो संगठन करेंगे। यदि कोई दूसरा करेगा तो उसका कोई महत्व नहीं और उसे नष्ट करने में किसी तरह की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होगा। यह बहुत ही दुखद है।

इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी लोगों तक ये संदेश भेजना चाहता हूँ कि धरोहर चाहे किसी भी देश, धर्म या समुदाय की हो, वो सबकी साझी धरोहर होती है। वो पूरे विश्व कि धरोहर होती है। सभ्यता का इतिहास इन धरोहरों को संरक्षित रख कर ही अलंकृत होता है। जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। चाहे किसी भी धर्म में हमारी आस्था हो हमें कभी भी किसी दूसरे धर्म की धरोहर का विनाश नहीं करना चाहिए। आज नहीं तो कल हम ये समझेंगे कि इन धरोहरों को बनाना और सँभालना कितना मुश्किल होता है और उनका विनाश करना कितना आसान। इसलिए ऐसे आत्मघाती कदमों से बचें और अपने इलाक़े, प्रांत और प्रदेश की सभी धरोहरों कि रक्षा करें। इसी में पूरे मानव समाज की भलाई है।    

Monday, June 27, 2022

तेलंगाना ने बनाया तिरुपति जैसा भव्य मंदिर



क्या आपको पता है कि हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर यदाद्रीगिरीगुट्टा क्षेत्र में भगवान लक्ष्मी-नृसिंह देव का एक अत्यंत भव्य मंदिर पिछले वर्षों में बना है। पिछले हफ़्ते जब मैं इसके दर्शन करने गया तो इसकी भव्यता और पवित्रता देख कर दंग रह गया। दरअसल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना में ये एक कमी थी। प्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मंदिर आंध्र प्रदेश के हिस्से में चला गया था। तेलंगाना सरकार ने इस कमी को पूरा करने के लिए पौराणिक महत्व के यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह मंदिर का 1800 करोड़ रुपए की लागत से तिरुपति की तर्ज पर भव्य निर्माण करवाया है। आज यहाँ लाखों दर्शनार्थियों का मेला लगा रहता है। 


यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह गुफा का उल्लेख 18 पुराणों में से एक स्कंद पुराण में मिलता है। शास्त्रों के अनुसार त्रेता युग में महर्षि ऋष्यश्रृंग के पुत्र यद ऋषि ने यहां भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। उनके तप से प्रसन्न विष्णु ने उन्हें नृसिंह रूप में दर्शन दिए थे। महर्षि यद की प्रार्थना पर भगवान नृसिंह तीन रूपों ज्वाला नृसिंह, गंधभिरंदा नृसिंह और योगानंदा नृसिंह में यहीं विराजित हो गए। दुनिया में एकमात्र ध्यानस्थ पौराणिक नृंसिंह प्रतिमा इसी मंदिर में है। भगवान नृसिंह की ये तीन और माता लक्ष्मी की एक प्रतिमाएं, करीब 12 फीट ऊंची और 30 फीट लंबी एक गुफा में आज भी मौजूद हैं। इस गुफा में एक साथ 500 लोग दर्शन कर सकते हैं। इसके साथ ही आसपास हनुमान जी और अन्य देवताओं के भी स्थान हैं। इसी गुफा के ऊपर व चारों ओर ये विशाल मंदिर परिसर बनाया गया है। 



मंदिर के निर्माण में कहीं भी ईंट, सीमेंट या कंक्रीट का प्रयोग नहीं हुआ है। सारा मंदिर ग्रेनाइट की भारी-भारी श्री कृष्ण शिलाओंसे बना है जिन्हें पुराने  तरीक़े के चूने के मसाले से जोड़ा गया है। मंदिर के निर्माण में 80 हज़ार टन पत्थर लगा है। जो ये सुनिश्चित करेगा कि ये मंदिर सदियों तक रहेगा। नवनिर्मित मंदिर का सारा निर्माण कार्य आगम, वास्तु और पंचरथ शास्त्रों के सिद्धांतों पर किया गया है। जिनकी दक्षिण भारत के खासी मान्यता है। पारम्परिक नक्काशी से सुसज्जित यह मंदिर कुल साढ़े चार साल में बन कर तैयार हुआ है जो अपने आप में एक आश्चर्य है। इसके लिए इंजीनियरों और आर्किटेक्ट्स ने करीब 1500 नक्शों और योजनाओं पर काम किया। मंदिर का सात मंज़िला ग्रेनाइट का बना मुख्य द्वार, जिसे राजगोपुरम कहा जाता है, करीब 84 फीट ऊंचा है। इसके अलावा मंदिर के 6 और गोपुरम हैं। राजगोपुरम के आर्किटेक्चर में 5 सभ्यताओं द्रविड़, पल्लव, चौल, चालुक्य और काकातिय की झलक मिलती है।    


हजारों साल पुराने इस तीर्थ का क्षेत्रफल करीब 9 एकड़ था। मंदिर के विस्तार के लिए 1900 एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई। इसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर में 39 किलो सोने और करीब 1753 टन चांदी से सारे गोपुरम (द्वार) और दीवारों को मढ़ा गया है। नवस्थापित भगवान के विशाल विग्रह व गरुड़स्तंभ भी सोने के बने हैं। मंदिर की पूरी परिकल्पना हैदराबाद के प्रसिद्ध आर्किटेक्ट आनंद साईं की है। यदाद्री मंदिर ऊँचे पहाड़ पर मौजूद है। मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की सनातन धर्म में गहरी आस्था है, ये इस बात से सिद्ध होता है कि उन्होंने मंदिर परिसर के आस-पास कोई भी दुकान या खान-पान की व्यवस्था नहीं होने दी। क्योंकि उससे मंदिर की पवित्रता भंग होती। इन सब गतिविधियों के लिए उन्होंने पहाड़ के नीचे तलहटी में पूरा व्यावसायिक परिसर बनाया है। जबकि उत्तर भारत में हो रहे धार्मिक नव निर्माणों में मंदिर परिसर या उसके आस-पास भोजनालय, दुकानें और अतिथि निवास बना कर अफ़सरों और इंजिनीयरों ने अनेकों सुप्रसिद्ध मंदिरों की पवित्रता और शांति को भंग कर दिया है।   


मंदिर तक पहुंचने के लिए हैदराबाद सहित सभी बड़े शहरों से जोड़ने के लिए फोरलेन सड़कें तैयार की गई हैं। मंदिर के लिए अलग से बस-डिपो भी बनाए गए हैं। इस इलाक़े में यात्रियों से लेकर वीआईपी तक सारे लोगों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए कई तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं। यात्रियों के लिए मंदिर की पहाड़ से दूर अन्य पहाड़ों पर अलग-अलग तरह के गेस्ट हाउस और टेम्पल सिटी का निर्माण भी किया गया है। पूरे परिक्षेत्र में जो हरियाली और फुलवारी लगाई गई है वो अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। जैसी आपको सिंगापुर, शंघाई, वीयना जैसे शहरों में देखने को मिलती है। सफ़ाई और रख-रखाव भी पाँच सितारा स्तर का है। जिससे उत्तर भारत के मंदिरों के प्रशासकों व तीर्थ विकास में लगे अफ़सरों को प्रेरणा लेनी चाहिए। अच्छा होगा कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जी इस भव्य मंदिर और इसके परिसर का दर्शन व भ्रमण करके आएँ। तब वे तुलना कर सकेंगे कि पिछले सात सालों में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने तेलंगाना के अधिकारियों की तुलना में गुणवत्ता व कलात्मकता की दृष्टि से कैसा काम किया है। ज्ञान जहां से भी मिले बटोरना चाहिए, ये हमारा वेद-वाक्य है।   


आश्चर्य की बात यह है कि यदाद्रीगिरीगुट्टा के इस इलाक़े में जहां दूर-दूर तक एक बूंद पानी नहीं था। भूमि सूखी और पथरीली थी। जल का कोई स्रोत न था। वहाँ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की विश्व भर में चर्चित ‘मिशन भागीरथ’ योजना से दस लाख लीटर शुद्ध जल प्रतिदिन पहुँचाया जा रहा है। यहाँ बने कल्याणकट्टा मंडप में प्रतिदिन 15 हज़ार भक्त मुंडन करवाने के बाद सामने लक्ष्मी सरोवर में दर्शनार्थी स्नान करते हैं। प्रसाद हॉल में एक बार में 750 और दिन भर में 15 हज़ार लोग प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। इसके अलावा तिरुपति की तरह ही यदाद्री मंदिर में भी लड्डू प्रसादम् मिलता है। इसके लिए अलग से एक कॉम्प्लेक्स तैयार किया गया है, जहां लड्डू प्रसादम् के निर्माण से लेकर पैकिंग की व्यवस्था है। मंदिर में दर्शन के लिए क्यू कॉम्पलेक्स बनाया गया है। इसकी ऊंचाई करीब 12 मीटर है। इसमें रेस्टरूम सहित कैफेटेरिया की सुविधाएं भी हैं। अब आप जब चाहें तिरुपति के साथ ही स्कंद पुराण में वर्णित इस दिव्य तीर्थ स्थल का भी दर्शन करने हैदराबाद से यदाद्रीगिरीगुट्टा मंदिर जा सकते हैं। आपको दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी।

Monday, May 16, 2022

हिंसा नहीं आध्यात्म के बल पर बने हिंदू राष्ट्र


पिछले दिनों हरिद्वार में जो विवादास्पद और बहुचर्चित हिंदू धर्म संसद हुई थी उसके आयोजक स्वामी प्रबोधानंद गिरी जी से पिछले हफ़्ते वृंदावन में लम्बी चर्चा हुई। चर्चा का विषय था भारत हिंदू राष्ट्र कैसे बने? इस चर्चा में अन्य कई संत भी उपस्थित थे। चर्चा के बिंदु वही थे जो पिछले हफ़्ते इसी कॉलम में मैंने लिखे थे और जो प्रातः स्मरणीय विरक्त संत श्री वामदेव जी महाराज के लेख पर आधारित थे। लगभग ऐसे ही विचार गत 35 वर्षों में मैं अपने लेखों में भी प्रकाशित करता रहा हूँ। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत की सनातन वैदिक संस्कृति कम से कम दस हज़ार वर्ष पुरानी है। जिसमें मानव समाज को शेष प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करके जीवन जीने की कला बताई गई है। बाक़ी हर सम्प्रदाय गत ढाई हज़ार वर्षों में पनपा है। इसलिए उसके ज्ञान और चेतना का स्रोत वैदिक धर्म ही है। आज समाज में जो वैमनस्य या कुरीतियाँ पैदा हुई हैं वो इन संप्रदायों के मानने वालों की संकुचित मानसिकता के कारण उत्पन्न हुई हैं। आज का हिंदू धर्म भी इसका अपवाद नहीं रहा। यही कारण है जिस हिंदू धर्म की आज बात की जा रही है वह हमारी सनातन वैदिक संस्कृति के अनुरूप नहीं है।
   



पाठकों को याद होगा कि हरिद्वार की धर्म संसद में मुसलमानों के विषय में बहुत आक्रामक और हिंसक भाषा का प्रयोग किया गया था। जिसका संज्ञान न्यायालय और पुलिस ने भी लिया। इस संदर्भ में चर्चा चलने पर मैंने स्वामी प्रबोधानंद गिरी जी से कहा कि इस तेवर से तो हिंदू धर्म का भला नहीं होने वाला। जर्मनी और हाल ही में श्री लंका इसका प्रमाण है जहां समाज के एक बड़े वर्ग के प्रति घृणा उकसा कर पूरा देश को आग में झोंक दिया जाता है। 


यह सही है कि मुसलमानों के धर्मांध नेता उन्हें हमेशा भड़काते हैं और शेष समाज के साथ सौहार्द से नहीं रहने देते। जिसकी प्रतिक्रिया में भारत का हिंदू ही नहीं अनेक देशों के नागरिक उन देशों में रह रहे मुसलमानों के विरोध में खड़े हो रहे हैं। पर हमारा धर्म इन संप्रदायों से कहीं ज़्यादा गहरा और तार्किक है। इसका प्रमाण है कि यूक्रेन में 55 कृष्ण मंदिर हैं रूस में 50 मंदिर हैं। ईरान, इराक़ और पाकिस्तान तक के तमाम मुसलमान श्रीकृष्ण भक्त बन चुके हैं। यह कमाल किया है इस्कॉन के संस्थापक आचार्य ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने। जिन्होंने बिना तलवार या बिना सत्ता की मदद के दुनिया भर के करोड़ों विधर्मियों को भगवत गीता का ज्ञान देकर कृष्ण भक्त बना दिया।

 

ऐसा ही एक कृष्ण भक्त ईरानी मुसलमान 30 बरस पहले मेरे दिल्ली घर पर दो दिन ठहरा था। वो ईरान के एक धनी उद्योगपति मुसलमान का बेटा था। जो मुझे वृंदावन मंदिर में मिला। जिसका परिवार कट्टर मुसलमान था। तेहरान विश्वविद्यालय में उसके मुसलमान प्रोफ़ेसर ने उसे गीता का ज्ञान देकर भक्त बनाया था। जब इसने अपने प्रोफ़ेसर से इस गुप्त ज्ञान को प्राप्त करने का स्रोत पूछा तो प्रोफ़ेसर ने बताया कि अमरीका के एक विश्वविद्यालय में पीएचडी की पढ़ाई के दौरान उन्होंने स्वामी प्रभुपाद का प्रवचन सुना, उनसे कई बार मिले और फिर कंठीधारी कृष्ण भक्त बन गए। जबकि बाहरी लिबास में ये दोनों गुरु शिष्य मुसलमान ही दिखते थे। 


ये भक्त जब मेरे घर रहा तो सुबह 3 बजे हम दोनों हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने बैठे। मैंने तो डेढ़ घंटे बाद अपना जप समाप्त कर भजन करना शुरू कर दिया पर यह ईरानी भक्त 6 घंटे तक लगातार जप करता  रहा और तब चरणामृत पी कर उठा। उसकी साधना से मैं इतना प्रभावित हुआ कि उसे आरएसएस की शाखा में ले गया। जहां उससे मिलकर सभी को बहुत हर्ष हुआ। 


इसी तरह पाकिस्तान का एक लम्बा चौड़ा मुसलमान आईटी इंजीनियर मुझे लंदन के इस्कॉन मंदिर में मिला। पूछने पर पता चला कि उसने अपने एक अंग्रेज मित्र के घर प्रभुपाद की लिखी पुस्तक ‘आत्म साक्षात्कार का विज्ञान’ पढ़ी तो इतना प्रभावित हुआ कि अगले ही दिन वो इस्कॉन मंदिर पहुँच गया और फिर क्रमशः श्रीकृष्ण भक्त बन गया। अब। उसका दीक्षा नाम हरिदास है। 


ये उदाहरण पर्याप्त है यह सिद्ध करने के लिए कि हमारी सनातन संस्कृति में इतना दम है कि अगर मस्जिदों के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने और भीड़ में जय श्री राम का ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाने की बजाय देश भर के उत्साही हिंदू, विशेषकर युवा, योग्य गुरुओं से श्रीमद् भगवद गीता का ज्ञान प्राप्त कर लें और उसके अनुसार आचरण करें, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे भी अर्जुन की तरह जीवन में हर महाभारत जीत सकते हैं। ये ज्ञान ऐसा है कि सबका दिल जीत लेता है-विधर्मी का भी। 


बहुत कम लोगों को पता है कि मुग़लिया सल्तनत के ज़्यादातर बादशाह, शहज़ादे और शहज़ादियाँ वृंदावन के स्वामी हरिदास परम्परा के शिष्य रहे हैं। 1897 में विलायत में जन्मे रिचर्ड निक्सन प्रथम विश्वयुद्ध में विलायती वायुसेना के पायलेट थे। जो जवानी में भारत आ गये। संस्कृत व शास्त्रों का अध्ययन किया और बाद में स्वामी कृष्ण प्रेम नाम से भारत में विख्यात हुए। स्वामी प्रभुपाद ही नहीं भारत के अनेक वैष्णव आचार्यों के भी सैंकड़ों मुसलमान शिष्य पिछली शताब्दियों में सारे भारत में हुए हैं और उन्होंने उच्च कोटि के भक्ति साहित्य की रचना भी की है। 


उत्तर प्रदेश में आईएएस से निवृत्त हुए मेरे मित्र श्री नूर मौहम्मद का कहना है कि पश्चिमी एशिया से तो दो फ़ीसदी मुसलमान भी भारत नहीं आए थे। बाक़ी सब तो भारतीय तो ही थे जो या तो सत्ता के लालच में या हुकूमत के डर से या सवर्णों के अत्याचार से त्रस्त हो कर मुसलमान बन गये थे। वो तब भी पिटे और आज भी पिट रहे हैं। नूर मौहम्मद कहते हैं कि धर्मांध मौलवी हो या हिंदू धर्म गुरु दोनो ही शेष समाज के लिए घातक हैं जो लगातार समाज में विष घोलते हैं।


इस सब चर्चा के बाद स्वामी प्रबोधनंद गिरी जी से यह तय हुआ कि हम निश्चय ही इस तपोभूमि भारत को सनातन मूल्यों पर आधारित हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं और उसके लिए अपनी शक्ति अनुसार योगदान भी करेंगे।पर इस विषय पर देश के संत समाज में व्यापक विमर्श होना चाहिए कि हमारा हिंदू राष्ट्र स्वामी वामदेव जी के सपनों के अनुकूल होगा, जिनका सम्मान सभी धर्मों के लोग करते थे या केवल निहित राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए होगा। ऐसा हिंदू राष्ट्र बनें जिसमें मुसलमान या अन्य धर्मावलम्भी भी स्वयं को हिंदू कहने में गर्व अनुभव करें। जहां प्रकृति  से सामंजस्य रखते हुए हर भारतीय अपने जीवन को वैदिक नियमों से संचालित करे और पश्चिम की आत्मघाती उपभोक्तावादी चकाचौंध से बचे। जिसका आह्वान आज पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद महाराज जी भी कर रहे हैं । हरि हमें सदबुद्धि दें और हम सब पर कृपा करें।

Monday, September 27, 2021

संतों को क्या सम्पत्ति से काम?


अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष व प्रयागराज के बाग़म्बरी पीठ के महंत नरेंद्र गिरी की रहस्यमयी मृत्यु को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। उन्होंने आत्महत्या की या उनकी हत्या हुई, इसको लेकर दो अलग ख़ेमे आमने-सामने हैं। इस हादसे में हज़ारों करोड़ की सम्पत्ति भी इस दुर्घटना का कारण बताई जा रही है। गद्दी के उत्तराधिकार को लेकर दो गुटों में संघर्ष शुरू हो गया है। मामले की जाँच अब सीबीआई को सौंप दी गई है। अगर बिना किसी दबाव के सीबीआई ईमानदारी से जाँच करेगी तो सच्चाई सामने आ जाएगी। पर बड़ा प्रश्न  यह है कि आध्यात्मिक गुरु या स्वयं को संत बताने वाले इतनी विशाल सम्पत्ति के मोह जाल में कैसे फँस जाते हैं। आठ बरस पहले जब आसाराम बापू की गिरफ़्तारी हुई तो उसके बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रहीं। क्योंकि तब इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही थी इसलिए मैंने इसी स्तंभ में कुछ प्रश्न उठाए थे। जो आज फिर खड़े हो गए हैं। 


धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी, सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर अपने लिए विशाल आर्थिक साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई भी धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।


संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ, विषयी व भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत’ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008, सदगुरु जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन की साधना में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई। अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं, उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

 

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता। इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

 

दरअसल पाँचसितारा संस्कृति में जीने वाले ये सभी लोग संत हैं ही नहीं। ये उसी भौतिक चमक-दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के’। संत कबीर दास कह गए हैं ‘साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं। धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं॥’ 

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है। 

Monday, June 21, 2021

देश में एक धर्म नीति हो


जब देश में विदेश, रक्षा, उद्योग, शिक्षा, पर्यावरण आदि की नीतियाँ बनती हैं तो धर्म नीति क्यों नहीं बनती? सम्राट अशोक से बादशाह अकबर तक की धर्म नीति हुआ करती थी। प॰ नेहरू से श्री मोदी तक आज तक किसी भी प्रधान मंत्री ने सुविचारित व सुस्पष्ट धर्म नीति बनाने की नहीं सोची। जबकि भारत धार्मिक विविधता का देश है। हर राजनैतिक दल ने धर्म का उपयोग केवल वोटों के लिए किया है। समाज को बाँटा है, लड़वाया है और हर धर्म के मानने वालों को अंधविश्वासों के जाल में पड़े रहने दिया है। उनका सुधार करने की बात कभी नहीं सोची।
 

 

भारत में सगुण से लेकर निर्गुण उपासक तक रहते हैं। यहाँ की बहुसंख्यक आबादी सनातन धर्म को मानती है। किंतु सिख, जैन, ईसाई और मुसलमान भी संविधान से मिली सुरक्षा के तहत अपने अपने धर्मों का अनुपालन करते हैं। मंदिर, गुरुद्वारे, अन्य पूजा स्थल, गिरजे और मस्जिद भारतीय समाज की प्रेरणा का स्रोत होते हैं। पर इनका भी निहित स्वार्थों द्वारा भारी दुरुपयोग होता है। जिससे समाज को सही दिशा नहीं मिलती और धर्म भी एक व्यापार या राजनीति का हथियार बन कर रह जाता है। जबकि धर्म नीति के तहत इनका प्रबंधन एक लिखित नियमावली के अनुसार, पूरी पारदर्शिता के साथ, उसी समाज के सम्पन्न, प्रतिष्ठित, समर्पित लोगों द्वारा होना चाहिए, किसी सरकार के द्वारा नहीं। इसके साथ ही उन धर्म स्थलों के चढ़ावे और भेंट को खर्च करने की भी नियमावली होनी चाहिए। इस आमदनी का एक हिस्सा उस धर्म स्थल के रख रखाव पर खर्च हो। दूसरा हिस्सा उसके सेवकों और कर्मचारियों के वेतन आदि पर। तीसरा हिस्सा भविष्य निधि के रूप में बैंक में आरक्षित रहे और चौथा हिस्सा समाज के निर्बल लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर खर्च हो। 



आजकल हर धर्म में बड़े-बड़े आर्थिक साम्राज्य खड़े करने वाले धर्म गुरुओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। जबकि सच्चे धर्म गुरु वे होते हैं जो भोग विलास का नहीं बल्कि त्याग तपस्या का जीवन जीते हों। जिनके पास बैठने से मन में सात्विक विचार उत्पन्न होते हों - नाम, पद या पैसा प्राप्त करने के नहीं। जो स्वयं को भगवान नहीं बल्कि भगवान का दास मानते हों। जैसा गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है, मै हूं परम पुरख को दासा देखन आयो जगत तमाशा।, जो अपने अनुयायियों को पाप कर्मों में गिरने से रोकें। जो व्यक्तियों से उनके पद प्रतिष्ठा या धन के आधार पर नहीं बल्कि उनके हृदय में व्याप्त ईश्वर प्रेम के अनुसार व्यवहार करे। जिसके हृदय में हर जीव जंतु के प्रति करुणा हो। जिसे किसे से कोई अपेक्षा न हो। इसके विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति चाहे कितना ही प्रसिद्ध या किसी भी धर्म का क्यों न हो, धर्म गुरु नहीं हो सकता। वो तो धर्म का व्यापारी होता है। जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता? पर इनका स्मरण करते ही स्वतः श्रद्धा व भक्ति जागृत होने लगती है।


सभी धर्मों के तीर्थ स्थानों में तीर्थ यात्रियों का भारी शोषण होता है। इस समस्या का भी हल धर्म नीति में होना चाहिए। जिसके अंतर्गत, स्वयंसेवी संस्थाएँ और सेवनिवृत अनुभवी प्रशासक निस्स्वार्थ भाव से अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार, अलग-अलग समूह बना कर अलग-अलग समस्याओं का समाधान करें। उल्लेखनीय है कि तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल बनाने की जो प्रवृत्ति सामने आ रही है वो भारत की सनातन संस्कृति को क्रमश: नष्ट कर देगी। मनोरंजन और पर्यटन के लिए हमारे देश में सैंकड़ों विकल्प हैं। जहां ये सब आधुनिक सुविधाएँ और मनोरंजन के साधन विकसित किए जा सकते हैं। तीर्थ स्थल का विकास और संरक्षण तो इस समझ और भावना के साथ हो कि वहाँ आने वाले के मन में स्वतः ही त्याग, साधना और विरक्ति का भाव उदय हो। तीर्थ स्थलों में स्विमिंग पूल, शराब खाने और गोल्फ़ कोर्स बना कर हम उनका भला नहीं करते बल्कि उनकी पवित्रता को नष्ट कर देते हैं। इन सबके बनने से जो अपसंस्कृति प्रवेश करती है वो संतों और भक्तों का दिल तोड़ देती है। इस बात का अनुमान शहरीकरण को ही विकास मानने वाले मंत्रियों और अधिकारियों को कभी नहीं होगा। 


दुनिया भर के जिज्ञासु भारत के तीर्थस्थलों में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में आते हैं। पर भौंडे शहरीकरण ने, ज़ोर-ज़ोर से बजते कर्कश संगीत ने, कूड़े के ढेरों और उफनती नालों ने, ट्रैफ़िक की अव्यवस्था ने व बिजली आपूर्ति में बार-बार रुकावट के कारण चलते सैंकड़ों जनरेटरों के प्रदूषण ने इन तीर्थस्थलों का स्वरूप काफ़ी विकृत कर दिया है। मैं ये बात कब से कह रहा हूँ कि धार्मिक नगरों को सजाने और संवारने का काम नौकरशाही और ठेकेदारों पर छोड़ देने से कभी नहीं हो सकता। हो पाता तो पिछले 75 सालों में जो हज़ारों करोड़ रुपया इन पर खर्च किया गया, उससे इनका स्वरूप निखार गया होता।


करोड़ों रुपयों की घोषणा करने से कुछ नहीं बदलेगा। धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए आवश्यकता है, आध्यात्मिक सोच और समझ की। जिसका कोई अंश भी किसी सरकार की नीतियों में कहीं दिखाई नहीं देता। सरकार का काम उत्प्रेरक का होना चाहिए, सहयोगी का होना चाहिए, अपने राजनैतिक लाभ के उद्देश्य से अपने अपरिपक्व विचारों को थोपने का नहीं। उद्योग, कला, प्रशासन, पर्यावरण, क़ानून और मीडिया से जुड़े आध्यात्मिक रुचि वाले लोगों की औपचारिक सलाह से इन क्षेत्रों के विकास का नक़्शा तैयार होना चाहिए। धर्म के मामले में कोरी भावना दिखाने या उत्तेजना फैलाने से तीर्थस्थलों का विकास नहीं होगा। इसके लिए सामूहिक सोच और निर्णय वाली नीति ही अपनानी होगी। जिसका समावेश देश की धर्म नीति में होना चाहिए।  

Monday, March 22, 2021

केवल नारों से नहीं सजते धर्मक्षेत्र


चार बरस पहले जब योगी सरकार बनी तो हर हिंदू को लगा कि अब हमारे धर्मक्षेत्रों को बड़े स्तर पर सजाया -संवारा जाएगा। तब अपने इसी कॉलम में मैने लिखा था कि, ‘अगर धाम सेवा के नाम पर, छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे, तो भगवान तो रूष्ट होंगे ही, सरकार की भी छवि खराब होगी। इसलिए हमारी बात को ‘निंदक नियरे राखिए’ वाली भावना से अगर उ.प्र. के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी सुनेंगे, तो उन्हें लोक और परलोक में यश मिलेगा। यदि वे निहित स्वार्थों की हमारे विरूद्ध की जा रही लगाई-बुझाई को गंभीरता से लेंगे तो न सिर्फ ब्रजवासियों और ब्रज धाम के कोप भाजन बनेंगे बल्कि परलोक में भी अपयश ही कमायेंगे।’ हमें विश्वास था कि योगी सरकार उ.प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं।’


तब इस लेख में मैंने उन्हें आगाह किया था कि, ‘धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना।’


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खडंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे अवैध बहुमंजले भवन खड़े कर दिये हैं? नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं।


माना कि शहरी विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बुद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ.प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


2017 में जब मैंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके कार्यालय में तत्कालीन पर्यटन सचिव अवनीश अवस्थी की मौजूदगी में ब्रज के बारे में पावर पाइंट प्रस्तुति दी थी, तो मैंने योगी जी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश होगा, विकास नहीं। जैसे अयोध्या के दर्जनों पौराणिक कुंडों की दुर्दशा सुधारने के बजाय अकेले सूर्य कुंड के सौंदरीयकरण पर शायद 140 करोड़ रुपए खर्च किए जाएँगे। जबकि यह कुंड सबसे सुंदर और दुरुस्त दशा में है और दो करोड़ में ही इसका स्वरूप निखारा जा सकता है।  


बहुत पीड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि योगी राज में ब्रज सजाने के नाम पर प्रचार तो बहुत हुआ, धन का आवंटन भी खुलकर हुआ, पर कोई भी उल्लेखनीय काम ऐसा नहीं हुआ जिससे ब्रज की संस्कृति और धरोहरों का संरक्षण या जीर्णोद्धार इस तरह हुआ हो जैसा विश्व स्तर पर विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। सबसे पहली गलती तो यह हुई है कि जिस, ‘उ प्र ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ को ब्रज विकास के सारे निर्णय लेने के असीमित अधिकार दिए गए हैं, उसमें एक भी व्यक्ति इस विधा का विशेषज्ञ नहीं है। परिषद का आज तक क़ानूनी गठन ही नहीं हुआ। जबकि इसके अधिनियम 2015 की धारा 3 (त) के अनुसार, कानूनन इस परिषद में ब्रज की धरोहरों के संरक्षण के लिए किए गए प्रयत्नों के सम्बंध में ज्ञान, अभिज्ञता और ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाले पाँच सुविख्यात व्यक्तियों को लिया जाना था। उनकी सलाह से ही प्रोजेक्ट और प्राथमिकताओं का निर्धारण होना था, अन्यथा नहीं। जबकि अब तक परिषद में सारे निर्णय, उन दो व्यक्तियों ने लिए हैं, जिन्हें इस काम कोई अनुभव ही नहीं है। इसीलिए ब्रज के प्रति सच्ची आस्था रखने वाले संत और भक्त परिषद के कार्यकलापों से और जनता के कर से जमा धन के भारी बर्बादी से बेहद क्षुब्ध हैं। अगर इन दो अधिकारियों को ही सारे निर्णय लेने थे तो फिर परिषद का इतना तामझाम खड़ा करने की ज़रूरत क्या थी? ज़िला पर्यटन अधिकारी ही इस काम के लिए काफ़ी था। 


इसी प्रकार इसके अधिनियम 2015 की धारा 6 (2) के अनुसार परिषद का काम मथुरा स्तर पर करने के लिए एक ज़िला स्तरीय समिति के गठन का भी प्रावधान है। जिसमें 6 मशहूर विशेषज्ञों की नियुक्ति की जानी थी। (1) अनुभवी लैंडस्केप डिज़ाइनर व इंटर्प्रेटिव प्लानर (2) ब्रज क्षेत्र का अनुभव रखने वाले पर्यावरणविद् (3) ब्रज के सांस्कृतिक और पौराणिक इतिहास के सुविख्यात विशेषज्ञ (4) ब्रज साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान (5) ब्रज कला के सुविख्यात मर्मज्ञ (6) ब्रज का कोई सुविख्यात वकील, सामाजिक कार्यकर्ता या जनप्रतिनिधि जिसने ब्रज के सांस्कृतिक विकास में कुछ उल्लेखनीय योगदान दिया हो। इन सबके मंथन के बाद ही विकास की परियोजनाएँ स्वीकृत होनी थी। पर जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया ताकि मनमानी तरीक़े से निरर्थक योजनाओं पर पैसा बर्बाद किया जा सके। जिसकी लम्बी सूची प्रमाण सहित योगी जी को दी जा सकती है, यदि वे इन चार वर्षों में परिषद की उपलब्धियों का निष्पक्ष मूल्यांकन करवाना चाहें तो।        


अज्ञान और अनुभवहीनता के चलते ब्रज का जैसा विनाश इन चार वर्षों में हुआ है वैसा ही पिछले तीन दशकों में, हर धर्मक्षेत्रों का किया गया है। उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें?

Monday, May 11, 2020

धर्म स्थलों का धन क्या विकास में लगे?

जब से कोरोना का लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से अपनी जान बचाने के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर है। हर आदमी ख़ासकर व्यापारी, कारखानेदार और मज़दूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अर्थव्यवस्था के इस तेज़ी से पिछड़ जाने के कारण प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्रीगण तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी, वेतन में कटौती, सरकारी खर्च में फ़िज़ूल खर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में सबका ध्यान भारत के धर्म स्थलों में जमा अकूत दौलत की तरफ़ भी गया है। बार-बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्म स्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में जमा यह धन, निष्क्रिय पड़ा है। या इसका दुरुपयोग हो रहा है। 

कुछ सीमा तक उपरोक्त आरोप में दम हो सकता है। पर इस धन को सरकारी तंत्र के हाथ में दिए जाने के बहुतसे लोग शुरू से सर्वथा विरुद्ध रहे हैं। क्योंकि, तमाम क़ानूनों, पुलिस, सी.बी.आई., सीवीसी, आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है। 

दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की प्रबन्धकीय समितियों का गठन एक सर्वमान्य निर्देश के द्वारा कर देना चाहिए। इन समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। 

जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं। कोरोना क़हर के दौरान लगभग सभी धर्म स्थलों ने ख़ासकर गुरुद्वारों ने बढ़चढ़ कर ज़रूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं। सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं। जैसे अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों, रैन बसेरों, अन्य क्षेत्रों , आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है। क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर-नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का ग़बन करना । जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है ।

ऐसा नहीं है कि सभी धर्मस्थलों में पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से धर्मार्थ धन का सदुपयोग होता हो । वहाँ भी इस धन के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहती हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियाँ गठित हों , उनकी पारदर्शिता और जबावदेही विस्तृत दिशानिर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। किसी भी धर्म के धर्मस्थानों का धन सरकार द्वारा हथियाना, उस समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। 

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं, जहाँ नित्य धन की वर्षा होती रहती है। इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाजों को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

धर्मस्थलों के धन पर अगर सरकार नज़र डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला  हो जाता है। और तब सवाल उठता है कि जनता की खून पसीने की कमाई के हज़ारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से क़र्ज़ लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अकूत दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं, उनसे क्यों न धन वसूला  जाए। सब जानते हैं कि देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल धर्मस्थलों को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।     

पुरानी कहावत है कि, ‘इस संसार में हर एक की ज़रूरत पूरा करने के लिए काफ़ी धन और संसाधन हैं, लेकिन कुछ लोगों की हवस पूरी करने के लिए वे नाकाफ़ी हैं’। भारत में की भी यही स्थिति है। ‘सुजलां, सुफलाम् शस्य्श्यामलाम’ भारत माता अपनी 135 करोड़ संतानों को स्वास्थ्य और सुखी रखने में सक्षम है। समस्या तब खड़ी होती है जब नियत में खोट हो जाता है। इसलिए हमारे जैसे लोग बरसों से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पर दुःख की बात यह है कि जिस स्तर की पारदर्शिता की आवश्यकता है वह तमाम क़ानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद आजतक स्थापित नहीं हो पाई है। इसलिए जनता का विश्वास जीतने में देश की नौकरशाही आज तक सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि पहले सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तब सरकार से इतर इन संसाधनों पर निगाह डाली जाए।  

Monday, January 13, 2020

क्या भारतवासियों को जल्दी ही पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित शारदापीठ के दर्शन होंगे ?

आज हमारे कार्यालय में शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ  पधारे। उन्होंने इस विषय में निम्न जानकारी दी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल था 2,22,236 वर्ग किलोमीटर जिसमें से चीन और पाकिस्तान ने मिलकर लगभग आधे जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा किया हुआ है और भारत वर्ष के पास केवल 1,02,387 वर्ग किलोमीटर कश्मीर भूमि शेष है। जम्मू-कश्मीर के जो भाग आज हमारे पास नहीं हैं उनमें से गिलगिट, बाल्टिस्तान, बजारत, चिल्लास, हाजीपीर आदि हिस्से पर पाकिस्तान का सीधा शासन है और मुज़फ्फराबाद, मीरपुर, कोटली और छंब आदि इलाके हालांकि स्वायत्त शासन में हैं परंतु ये इलाके भी पाक के नियंत्रण में हैं।

पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।

जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 

चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।

माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे।

शास्त्रों में एक बड़ी रोचक कथा मिलती है कि कथित निम्न जाति के एक व्यक्ति को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उस दम्पति ने शांडलि रखा। शांडलि बड़े प्रतिभावान था। उनसे जलन भाव रखने के कारण ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवित संस्कार करने से मना कर दिया। निराश शांडलि को ऋषि वशिष्ठ ने माँ शारदा के दर्शन करने की सलाह दी और उनके सलाह पर जब वो वहां पहुँचे तो माँ ने उन्हें दर्शन दिया उन्हें नाम दिया ऋषि शांडिल्य। आज हिन्दुओं के अंदर हरेक जाति में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है।

हिन्दू धर्म का मंडन करने निकले शंकराचार्य जब शारदापीठ पहुँचे थे तो वहां उन्हें माँ ने दर्शन दिया था और हिन्दू जाति को बचाने का आशीर्वाद भी। उन्हीं माँ शारदा की कृपा से कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया था जब वो उनके दर्शनों के लिये वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने बाप सिकंदर द्वारा किये हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की किताबों में आता है कि माँ शारदा की उपासना में वो इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी।

भारत के कई हिस्सों में जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तो बटु को कहा जाता है कि तू शारदा पीठ जाकर ज्ञानार्जन कर और सांकेतिक रूप से वो बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे बढ़ता है और फिर कुछ समय पश्चात् इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वो विद्वान् बनकर वहां से लौट आ रहा है।

एक समय था जब ये सांकेतिक संस्कार एक दिन वास्तविकता में बदलता था क्योंकि वो बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था मगर आज दुर्भाग्य से हमारी "माँ शारदा" हमारे पास नहीं है और हम उनके पास जायें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है तो शायद अब यज्ञोपवीत की ये रस्म सांकेतिक ही रह जायेगी सदा के लिये । संतों, भक्तों  कशमीरी पंडितों की भारत सरकार माँग है कि हमको शारदापीठ की मुक्ति चाहिये, हमको शारदा पीठ तक जाना है, हमें दुनिया को बताना है कि "केवल शारदा संस्कृति ही कश्मीरियत" है और इसलिये शारदापीठ पर भारत का पूर्ण नियंत्रण हो ऐसी मांग उठाई जा रही है।  

जब तक ये नहीं होता कम से कम तब तक करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तर्ज़ पर "शारदादेवी कॉरिडोर" अविलम्ब आरंभ हो इसकी मांग की जा रही है।

शारदा पीठ मंदिर एक स्थानीय लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसे मंदिर की वास्तुकला की शास्त्रीय कश्मीरी शैली में बनाया गया है। यह एक पहाड़ी पर है और पत्थर की सीढ़ी के माध्यम से एक मोटी पत्थर की दीवार और खंडहर गेटवे के अवशेषों से यहाँ प्रवेश किया जाता है ।

खंडहर एक आयताकार क्षेत्र को घेरते हुए दिखाई देते हैं, जिसके एक बिंदु पर इसके कोनों को कम्पास के कार्डिनल बिंदुओं के साथ जोड़ दिया गया होगा। मंदिर योजना में वर्गाकार है, और एक चौकोर चबूतरा है, जिसका द्वार पश्चिम की ओर है। मैदान और प्रवेश द्वार के बीच पाँच चरण हैं, जो एक बिंदु पर एक अर्ध-छत वाली छत होती, जिसके पीछे एक ट्रेओफिल आर्क लगा होता था, जो आंतरिक गर्भगृह तक ले जाता था। आज, यह क्षेत्र आकाश के संपर्क में है। संभवत: इसलिए कि आर्किटेक्ट दीवारों के बाहर मैदान को नापसंद करते हैं या इसलिए कि अगर स्‍पायर ढह गया, तो भी एक आगंतुक यह बता सकेगा कि मंदिर मूल रूप से कैसा दिखता था। इसका डिजाइन सरल है । डिजाइन की सादगी का मतलब है कि स्थानीय उपासकों के लिए मार्तंड सूर्य मंदिर के लिए एक सादे वास्तुशिल्प के रूप में मंदिर को डिजाइन किया गया था (या अधिक संभावना है, बाद में पुनर्निर्माण किया गया)। मार्तंड सूर्य मंदिर और मालोट किले दोनों को समान रूप से डिजाइन किया गया है । जनरल परवेज़ मुशारफ़ ने इसके विकास के लिए धन स्वीकृत किया था । जिससे इसके आस पास का क्षेत्र विकसित किया गया । पर मूल मंदिर अभी भी ध्वस्त है । स्थानीय मुसलमान भी इसे शारदा माई का मंदिर कहते हैं और चाहते हैं कि ये पुनः आबाद हो और यहाँ साल भर हिंदू दर्शनार्थी आएँ और अपना सालाना उत्सव भी करें ।