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Monday, February 13, 2023

भारतीयों को मॉरीशस क्यों प्रिय है?



अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व तट से से लगभग 900 किलोमीटर दूर हिंद महासागर के तट पर और मेडागास्कर के पूर्व में स्थित द्वीपीय देश मॉरीशस भारतीयों के लिए काफ़ी आकर्षक स्थान है। अपने झील, झरनों, हरे भरे जंगलों व प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर मॉरीशस हर नवविवाहित जोड़े के लिए बरसों से हनीमून मनाने का स्थान बन हुआ है। परंतु क्या आप जानते हैं कि इसके अलावा भी एक कारण है जिसके लिये मॉरीशस भारतीयों को बहुत प्रिय है। 

सुंदर पर्यटक स्थल होने के कारण मॉरीशस में केवल हनीमून मनाने वाले पर्यटक ही नहीं आते। बल्कि ‘टैक्स हैवन’ के नाम से मशहूर इस छोटे से द्वीप पर हर उस व्यक्ति की नज़र बनी रहती है जो किसी न किसी तरह से भारत में आयकर की चोरी करना चाहता है। चूँकि भारत और मॉरीशस के बीच हुए ‘दोहरे करारोपण संधि’ के तहत भारतीय कंपनियां मॉरीशस की किसी कंपनी से समझौता कर भारत में एफडीआई के द्वारा निवेश करवा लेती हैं।इस निवेश को निवेशकों की भाषा में ‘मॉरीशस रूट’ कहा जाता है। भारत में ‘मॉरीशस रूट’ के तहत हुए निवेश पर कोई टैक्स नहीं देना होता। ऐसा करने से वे सभी कंपनियाँ जो भारत में निवेश करवाती हैं कैपिटल गेन्स टैक्स देने से बच जाती हैं। 


कई वर्ष पहले इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इनवेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) की एक रिपोर्ट सार्वजनिक हुई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की कई कंपनियों ने 1982 में हुए इस संधि का दुरुपयोग किया है। इस समझौते के मुताबिक भारतीय कंपनियों को मॉरीशस में टैक्स रेजीडेंसी की सुविधा मिल जाती है। जिस कारण वे  जीरो कैपिटल गेन्स वाली श्रेणी में आ जाती थीं। ज़ाहिर सी बात है कि ‘मॉरीशस रूट’ से अपना ही पैसा घुमा कर ये कंपनियाँ अपना निवेश वापिस भारत में ले आती हैं। इसी के चलते देश को करोड़ों के टैक्स का चूना लग जाता है। जबकि इस टैक्स के पैसे को देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता था। पर ऐसा नहीं हो रहा।  

‘मॉरीशस रूट’ हो या किसी अन्य ‘टैक्स हैवन’ देश से आने वाला निवेश, हमारे देश में ऐसा काफ़ी बड़ी मात्रा में हो रहा है। देश की कई नामी कंपनियाँ ऐसा कई बरसों से कर रही हैं। नियमों में इस कमी का फ़ायदा उठा कर ये लोग टैक्स चोरी कर देश में होने वाले विकास को पीछे धकेल रहे हैं। आम आदमी को सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाएँ समय पर नहीं दी जाती तो इसके पीछे टैक्स में होने वाली चोरी ही मुख्य कारण होता है। सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, विकास कार्यों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन के भुगतान के लिए टैक्स पर ही निर्भर करती है। यदि टैक्स में कमी आती है तो विकास कार्यों में भी बाधा आएगी।



‘मॉरीशस रूट’ से आने वाले निवेश केवल एफ़डीआई के ज़रिये ही नहीं होते। उद्योगपतियों के अलावा भ्रष्ट नेता व अफ़सर भी इसका फ़ायदा उठाते हैं। ये लोग भ्रष्टाचार के द्वारा कमाये गये अपने काले धन को हवाला के ज़रिये विदेशों में स्थित मॉरीशस जैसे ‘टैक्स हैवन’ देशों में भेजते हैं। वहाँ पर कुछ शैल कंपनियों की मदद से उसी पैसे को कुछ चुनिंदा कंपनियों के शेयरों को मन-माने दाम पर ख़रीदवाते हैं। भारत की कंपनियों के शेयरों का बढ़े हुए दाम पर बिकना शेयर मार्केट में अच्छा माना जाता है। यदि ऐसा नियमों के दायरों में हो तो ये सही होता है। परंतु ‘मॉरीशस रूट’ से होने वाले ऐसे निवेश नियम क़ानून की धज्जियाँ उड़ा कर होते हैं। जैसे ही किसी कंपनी के शेयर का दाम बढ़ता है, देश के भोले-भाले छोटे व मध्यम निवेशक भी मुनाफ़ा कमाने की नियत से इसमें निवेश करते हैं। परंतु असल में उस कंपनी के शेयर की असल क़ीमत इससे काफ़ी कम होती है। 



मिसाल के तौर पर देश के एक राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री के बेटे की एक ठंडी पड़ी कंपनी के 10 रुपये प्रति शेयर को देश के एक भगोड़े ने 96,000 रुपये प्रति शेयर पर ख़रीदा। आरोप है कि ये अपने ही काले धन को घुमाकर किया गया। इसकी जाँच के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की गई। कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय को नोटिस दे कर इसकी जाँच के आदेश भी दिये। परंतु जाँच को लंबा खींचने और ढुलमुल रवैये अपनाने से इस मामले की जड़ तक नहीं पहुँचा जा सका। ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर लोगों का जाँच एजेंसियों पर से भरोसा भी डगमगाने लगता है। इसलिए जब भी कभी ऐसा विवाद खड़ा हो तो मामले की सघन जाँच होना ज़रूरी हो जाता है। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती?

 

जैसा कि इस कॉलम में पहले भी लिख चुके हैं, घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। मॉरीशस जैसे प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिए जाने जाने वाले द्वीपों को पर्यटन के लिए ही जाना जाए न कि वित्तीय घोटालों में लिए जाने जाने वाले ‘मॉरीशस रूट’ जैसे अलंकारों के लिए।  

Monday, January 30, 2023

मिस्र की प्राचीन संस्कृति और कट्टरपंथी हमले के नुक़सान


हम भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। बात-बात पर हम ये बताने कि कोशिश करते हैं कि जितनी महान हमारी संस्कृति है, उतनी महान दुनिया में कोई संस्कृति नहीं है। निःसंदेह भारत का जो दार्शनिक पक्ष है, जो वैदिक ज्ञान है वो हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से देखा जाए तो हम पायेंगे कि भारत से कहीं ज़्यादा उन्नत संस्कृति दुनिया के कुछ दूसरे देशों में पायी जाती है।
 

पिछले तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों में घूमने का मौक़ा मिला है। आजकल मैं मिस्र में हूँ। इससे पहले यूनान, इटली व अब मिस्र की प्राचीन धरोहरों को देखकर बहुत अचम्भा हुआ। जब हम जंगलों और गुफ़ाओं में रह रहे थे या हमारा जीवन प्रकृति पर आधारित था। उस वक्त इन देशों की सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा विकसित थी। हम सबने बचपन में मिस्र के पिरामिडों के बारे में पढ़ा है।पहाड़ के गर्भ में छिपी तूतनख़ामन की मज़ार के बारे में सबने पढ़ा था। यहाँ के देवी-देवता और मंदिरों के बारे में भी पढ़ा। पर पढ़ना एक बात होती है और मौक़े पर जा कर उस जगह को समझना और गहराई से देखना दूसरी बात होती है।


अभी तक मिस्र में मैंने जो देखा है वो आँखें खोल देने वाला है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज से 5,500 साल पहले, क़ुतुब मीनार से भी ऊँची इमारतें, वो भी पत्थर पर बारीक नक्काशी करके, मिस्र के रेगिस्तान में बनाई गयीं। उनमें देवी-देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की गईं। हमारे यहाँ मंदिरों में भगवान की मूर्ति का आकर अधिक से अधिक 4 से 10 फीट तक ऊँचा रहता है। लेकिन इनके मंदिरों में मूर्ति 30-40 फीट से भी ऊँची हैं। वो भी एक ही पत्थर से बनाई गयीं हैं। दीवारों पर तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी उकेरी गई है। फिर वो चाहे आयुर्वेद की बात हो, महिला का प्रसव कैसे करवाया जाए, शल्य चिकित्सा कैसे हो, भोग के लिये तमाम व्यंजन कैसे बनाए जाएँ, फूलों से इत्र कैसे बनें, खेती कैसे की जाए, शिकार कैसे खेला जाए। हर चीज़ की जानकारी यहाँ दीवारों पर अंकित है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे सीख सकें। इतना वैभवशाली इतिहास हैं मिस्र का कि इसे देख पूरी दुनिया आज भी अचंभित होती है। 


फ़्रांस, स्वीडन, अमरीका और इंग्लैंड के पुरातत्ववैत्ताओं व इतिहासकारों ने यहाँ आकर पहाड़ों में खुदाई करके ऐसी तमाम बेशुमार चीज़ों को इकट्ठा किया है।सोने के बने हुए कलात्मक फर्नीचर, सुंदर बर्तन, बढ़िया कपड़े, पेंटिंग और एक से एक नक्काशीदार भवन। अगर उस वक्त की तुलना भारत से की जाए तो भारत में हमारे पास अभी तक जो प्राप्त हुआ है वो सिर्फ़ हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष है। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति में जो हमें मिला है वो केवल मिट्टी के कुछ बर्तन, कुछ सिक्के, कुछ मनके और ईंट से बनी कुछ नींवें, जो भवनों के होने का प्रमाण देती हैं। लेकिन वो तो केवल साधारण ईंट के बने भवन हैं। यहाँ तो विशालकाय पत्थरों पर नक़्क़ाशी करके और उन पर आजतक न मिटने वाली रंगीन चित्रकारी करके सजाया गया है। इनको यहाँ तक ढोकर कैसे लाया गया होगा, जबकि ऐसा पत्थर यहाँ पर नहीं होता था? कैसे उनको जोड़ा गया होगा? कैसे उनको इतना ऊँचा खड़ा किया गया होगा जबकि उस समय कोई क्रेन नहीं होती थी? ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है।

किंतु इस इतिहास का एक नकारात्मक पक्ष भी है। हर देश काल में सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं और हर नई आने वाली सत्ता, पुरानी सत्ता के चिन्हों को मिटाना चाहती है। क्योंकि नई सत्ता अपना आधिपत्य जमा सके। यहाँ मिस्र में भी यही हुआ। जब मिस्र पर यूनान का हमला हुआ, रोम का हमला हुआ या जब अरब के मुसलमानों का हमला हुआ तो सभी ने यहाँ आ कर यहाँ के इन भव्य सांस्कृतिक अवशेषों का विध्वंस किया। उसके बावजूद भी इतनी बड़ी मात्रा में अवशेष बचे रह गए या दबे-छिपे रह गये, जो अब निकल रहे हैं। यही अवशेष मिस्र में आज विश्व पर्यटन का आकर्षण बने हुए हैं। दुनिया भर से पर्यटक बारह महीनों यहाँ इन्हें ही देखने आते हैं। इन्हें देख कर दांतों तले उँगली दबा लेते हैं। इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पर्यटन उद्योग ही है। 

परंतु जो धर्मांध या अतिवादी होते हैं, वो अक्सर अपनी मूर्खता के कारण अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। आपको याद होगा कि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की 120 फीट ऊँची मूर्ति को तालिबानियों ने तोप-गोले लगाकर ध्वस्त किया था। विश्व इतिहास में ये बहुत ही दुखद दिन था। आज अफ़ग़ानिस्तान भुखमरी से गुज़र रहा है। वहाँ रोज़गार नहीं है। खाने को आटा तक नहीं है। अगर वो उस मूर्ति को ध्वस्त न करते। उसके आस-पास पर्यटन की सुविधाएँ विकसित करते, तो जापान जैसे कितने ही बौद्ध मान्यताओं वाले देशों के व दूसरे करोड़ों पर्यटक वहाँ साल भर जाते और वहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। 

जब अरब मिस्र में आए तो उन्होंने सभी मूर्तियों के चेहरों ध्वस्त करना चाहा। क्योंकि इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती को बुरा माना जाता है। जहाँ-जहां वे ऐसा कर सकते थे उन्होंने छैनी हथौड़े से ऐसा किया। लेकिन आज उसी इस्लाम को मानने वाले मिस्र के मुसलमान नागरिक उन्हीं मूर्तियों को, उनके इतिहास को, उनके भगवानों को, उनकी पूजा पद्धति को दिखा-बता कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। फिर वो चाहे लक्सर हो, आसवान हो, अलेक्ज़ेंडेरिया हो या क़ाहिरा हो, सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन ही है। आज मिस्र के लोग उन्हीं पेंटिंग और मूर्तियों के हस्तशिल्प में नमूने बनाकर, किताबें छाप कर, उन्हीं चित्रों की अनुकृति वाले कपड़े बनाकर, उन्हीं की कहानी सुना-सुनाकर उससे कमाई कर  रहे हैं। 

अब मथुरा का ही उदाहरण ले लीजिए। मथुरा में काम कर रही संस्था द ब्रज फ़ाउंडेशन ने पिछले बीस वर्षों में पौराणिक व धार्मिक महत्व वाली दर्जनों श्रीकृष्ण लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है। परंतु योगी सरकार ने आते ही द्वेष वश फाउंडेशन द्वारा सजाई गई दो लीलास्थलियों का तालिबानी विनाश करना शुरू कर दिया। ताज़ा उदाहरण तो मथुरा के जैंत ग्राम स्थित पौराणिक कालियामर्दन मंदिर, अजय वन व जय कुंड का है, जहां भाजपा के एक स्थानीय नेता ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से ग्राम सभा के फ़र्ज़ी प्रस्ताव पर एक सार्वजनिक कूड़ेदान का निर्माण करा रहा है। ग्राम सभा के 15 सदस्यों में से 14 निर्वाचित सदस्य मथुरा के ज़िलाधिकारी को व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखित शिकायत दे चुके हैं कि कूड़ेदान के लिए कोई उनकी सभा में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ। जिस प्रस्ताव के आधार पर ये निर्माण हो रहा है वो फ़र्ज़ी है। इससे पवित्र तीर्थ पर गंदगी का अंबार लग जाएगा। सारा गाँव इसका घोर विरोध कर रहा है। पर अभी तक प्रशासन की तरफ़ से इसे रोकने की कोई कारवाई नहीं हुई। एक ओर तो योगी सरकार हिंदुत्व को बढ़ाने का दावा करती है। दूसरी तरफ़ उसी के राज में मथुरा में तीर्थ स्थलों का विनाश इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वो राजनैतिक रूप से उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। शायद भाजपा और आरएसएस की मानसिकता यह है कि हिन्दू धर्म का जो भी काम होगा वो यही दो संगठन करेंगे। यदि कोई दूसरा करेगा तो उसका कोई महत्व नहीं और उसे नष्ट करने में किसी तरह की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होगा। यह बहुत ही दुखद है।

इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी लोगों तक ये संदेश भेजना चाहता हूँ कि धरोहर चाहे किसी भी देश, धर्म या समुदाय की हो, वो सबकी साझी धरोहर होती है। वो पूरे विश्व कि धरोहर होती है। सभ्यता का इतिहास इन धरोहरों को संरक्षित रख कर ही अलंकृत होता है। जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। चाहे किसी भी धर्म में हमारी आस्था हो हमें कभी भी किसी दूसरे धर्म की धरोहर का विनाश नहीं करना चाहिए। आज नहीं तो कल हम ये समझेंगे कि इन धरोहरों को बनाना और सँभालना कितना मुश्किल होता है और उनका विनाश करना कितना आसान। इसलिए ऐसे आत्मघाती कदमों से बचें और अपने इलाक़े, प्रांत और प्रदेश की सभी धरोहरों कि रक्षा करें। इसी में पूरे मानव समाज की भलाई है।    

Monday, April 25, 2022

पर्यटक सूचना केंद्रों की निरर्थकता


कोविड के समय को छोड़ दे तो पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में पर्यटन उद्योग में काफ़ी उछाल आया है। पहले केवल उच्च वर्ग अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करता था। मध्य वर्ग अपने ही देश में पर्यटन या तीर्थाटन करता था। निम्न आय वर्ग कभी-कभी तीर्थ यात्रा करता था। लेकिन अब मध्य वर्ग के लोग भी भारी संख्या में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करने लगे हैं। जिसके पास भी चार पहिए का वाहन है वो साल में कई बार अपने परिवार के साथ दूर या पास का पर्यटन करता है।
 


सूचना क्रांति के बाद से पर्यटन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। पहले पर्यटन स्थल या तीर्थ स्थल पर पहुँच कर ये पता लगाना पड़ता था कि ठहरने की व्यवस्था कहाँ-कहाँ और कितने पैसे में उपलब्ध है। फिर यह पता लगाना पड़ता था कि दर्शनीय स्थल कौनसे हैं। उनकी दूरी बेस कैम्प से कितनी है और वहाँ तक जाने के क्या-क्या साधन हैं? ऐसी तमाम जानकारियाँ लेने के लिए अनेक देशों में पर्यटन सूचना केंद्र बनाए जाते थे। भारत में भी बनाये गये। 


1984 की बात है मैं अपनी पत्नी की बहन और उनके पति , जो दोनों ही भारतीय विदेश सेवा में बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में तैनात थे, उनके साथ कार में यूरोप की यात्रा के लिए निकला। चूँकि वे भारतीय दूतावास के अधिकारी थे इसलिए स्विट्ज़रलैंड, फ़्रान्स, जर्मनी और इटली आदि में हम भारत के राजदूतों या दूतावास के अधिकारियों के घर पर भी ठहरे। पर एक दिन अपने गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते रात के एक बज गए। शहर में पूरा सन्नाटा था, कहीं कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया, जिसकी मदद ली जा सके। किसी तरह पर्यटन सूचना केंद्र पहुँचे और तब जा कर आगे की व्यवस्था हुई।

 

लेकिन आज सूचना क्रांति ने सब कुछ घर बैठे ही सुलभ कर दिया है। आज आप दुनिया ही नहीं बल्कि भारत के भी किसी भी शहर या छोटे से छोटे पर्यटन स्थल पर जाना चाहें तो आपको सारी सूचनाएँ घर बैठे उपलब्ध हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर वहाँ कौन-कौन से दर्शनीय स्थल हैं? उनका ‘वरचुअल टूर’ सोशल मीडिया पर किया जा सकता है। कहाँ ठहरना है, इसके सैंकड़ों विकल्प, कमरे की दर के अनुसार आप गूगल पर देख सकते हैं। देख ही नहीं सकते बल्कि कन्फ़र्म बुकिंग भी कर सकते हैं। इसके साथ ही आप घर बैठे उस शहर में अपने लिए लोकल टैक्सी और टूरिस्ट गाइड भी बुक कर सकते हैं। ज़ूम कॉल पर उस गाइड से वार्ता करके उसका चेहरा भी देख सकते हैं। 


1984 के बाद 2010 में जब हमारा पूरा परिवार यूरोप यात्रा पर गया तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि हम जिस शहर में भी पहुँचते थे वहाँ हमारे लिए वाहन और गाइड पहले से ही तैयार खड़े मिलते थे। होटल भी बुक होता था। तकनीकी में कम रुचि होने के कारण तब मुझे इस सब की इतनी जानकारी नहीं थी। पर यह अनुभव बहुत अच्छा हुआ कि बच्चों ने हर शहर में सारी व्यवस्थाएँ पहले से ही ऑनलाइन बुक कर रखी थीं। यहाँ तक की किस शहर में शाम को कितने बजे कौन सा नाटक या बैले देखना है, उसकी भी टिकट एडवांस में आ चुकी थी। कुल मिला कर बात यह हुई कि किसी भी शहर में हमें यूरोप के पर्यटन सूचना केंद्र नहीं जाना पड़ा। 


ये सब उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त और आधुनिक व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ नौकरशाही आज भी भारत में सैंकड़ों करोड़ के पर्यटन सूचना केंद्रों के निर्माण में जुटी है। जिनका रख रखाव कैसा होता है इसका आपने भी खूब अनुभव किया होगा। इनके स्वागत कक्ष में या तो कोई होता ही नहीं। और यदि होता है तो वो बेरुख़ी से बात करता है। सूचना केंद्र के शौचालय प्रायः दुर्गंधयुक्त और गंदे रहते हैं। पर्यटन क्षेत्र के बारे में सूचना प्रपत्र (ब्रोशर) नदारद रहते हैं। सब जगह ऐसा नहीं होता। जहां अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आते हैं, जैसे आगरा, गोवा, महाबलीपुरम, त्रिवेंद्रम या देश की राजधानी दिल्ली में आपको ये सब देखने को शायद नहीं मिलता। पर उत्तर प्रदेश में आमतौर पर यही स्थित पाई जाती है। आज जब हर गाँव और क़स्बे में स्मार्ट फ़ोन पहुँच चुका है। स्कूली बच्चों की पढ़ाई तक ऑनलाइन चल रही है, तब पर्यटन सूचना के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपय के भवन बनवाने व जन धन बर्बाद करने का क्या लाभ? क्योंकि अब हर परिवार पर्यटन या तीर्थाटन पर जाने से पहले ही सारी सूचनाएँ गूगल या यूट्यूब से प्राप्त कर लेता है। मथुरा में ही जो पर्यटन सूचना केंद्र हाल में बने हैं उनका हाल देख लीजिए। 


उत्तर प्रदेश पर्यटन का एक उदाहरण काफ़ी होगा। 80 के दशक में पूरे प्रदेश में जगह-जगह पर्यटकों के ठहरने के लिए ‘राही होटल’ बनाए गए जो कभी भी कारगर नहीं रहे। आज सभी ख़स्ता हाल में हैं। कोई व्यवसाई उन्हें किराए पर लेकर भी चलाने को तैयार नहीं। दरअसल सरकार की पर्यटन योजनाओं में सबसे बड़ी कमी रख-रखाव की होती है। बड़ी-बड़ी घोषणाओं और विज्ञापनों के सहारे पर्यटन की जिन महत्वाकांक्षी योजनाओं को चालू किया जाता है, वो योजनाएँ सैंकड़ों रुपया खपा कर भी चंद महीनों में ख़स्ता हाल हो जाती हैं।


तीर्थाटन के विकास में भगवान श्री राधा कृष्ण की लीला भूमि में पिछले 20 वर्षों में मैंने पूरे तन, मन, धन और मनोयोग से कृष्णक़ालीन धरोहरों के संरक्षण का बड़े स्तर पर कार्य किया है। इसलिए हमारा अनुभव ज़मीनी हक़ीक़त को देख कर विकसित हुआ है। बड़ी निराशा की बात यह है कि कोई भी सरकार क्यों न आ जाए वो हमारी बात सुन तो लेती है, लेकिन हमारे सुझावों पर अमल नहीं करती। यह अनुभव डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। यही अनुभव मोदी जी की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद भी हुआ। इतना ही नहीं प्रदेश स्तर पर भी अखिलेश यादव जी की और योगी जी की सरकार में भी, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। क्योंकि अधिकतर नौकरशाही की सार्थक बदलाव में कोई रुचि नहीं होती। इसलिए हम सबके बुरे बन जाते हैं। क्योंकि हम सच बताते हैं और ग़लत को सह नहीं पाते। 


बहुत आशा थी कि हिंदुवादी सरकारों में हमारे धर्मक्षेत्रों का विकास संवेदनशीलता, पारदर्शिता और कलात्मक अभिरुचि से होगा। पर जो हो रहा है वो इसके बिलकुल विपरीत है। जब हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली सरकार में अनुभव सिद्ध सनातन धर्मियों की बात नहीं सुनी जा रही तो धर्म निरपेक्ष सरकार में कौन सुनेगा? यही देश के हर जागरूक हिंदू की पीड़ा है। 

Monday, February 1, 2021

पधारो म्हारे देस


पूरा साल कोविड के चक्कर में कहीं घूमने जाना नहीं हुआ। इस हफ़्ते हिम्मत करके जैसलमेर, जोधपुर में छुट्टी बिताने का सोचा। थार के रेगिस्तान में बसा जैसलमेर, आमतौर पर इन दिनों हज़ारों विदेशी सैलानियों से पटा रहता है। लेकिन इस बार एक साल से कोई विदेशी पर्यटक नहीं आया, जिससे पर्यटन पर आधारित यहाँ की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ चुकी है। तमाम छोटे बड़े होटल बंद पड़े थे या बंद होने की कगार पे थे। पिछले तीन महीनों में जैसे ही कोविड का डर लोगों के मन से दूर हुआ तो गुजरात, राजस्थान और दिल्ली आदि के पर्यटकों का सैलाब टूट पड़ा। उससे यहाँ के पर्यटन उद्योग को कुछ आक्सीजन मिली है। स्थानीय लोगों का कहना था कि पूरे कोविड काल में जैसलमेर और आसपास के इलाक़े में इस महामारी का कोई ख़ास असर नहीं था। न तो लोगों ने मास्क पहने और न सामाजिक दूरी बनाई। कमोबेश यही हालत सारे देश की रही है। कोविड का जो भी घातक असर देखने को मिला वो केवल मुंबई, इंदौर, दिल्ली जैसे नगरों और मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय परिवारों में ही देखा गया। हमारे मथुरा ज़िले के किसी भी गाँव में कोविड महामारी के रूप में नहीं आया। पर कोविड के आतंक से जिस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाए गए उससे अर्थव्यवस्था की रीढ़ पूरी तरह टूट गई। यही कारण है कि गरीब आदमी, मजदूर, किसान और छोटे दुकानदार और कारख़ानेदार हर शहर में ये प्रश्न करते हैं कि क्या वह सब ज़रूरी था? अगर यह माना जाए कि ऐसी कड़ी रोकथाम से ही भारत में कोविड पर क़ाबू पाया जा सका तो यह भी सही नहीं होगा। क्योंकि जब देश की बहुसंख्यक आबादी ने कोविड के प्रतिबंधों का पालन ही नहीं किया और फिर भी इस महामारी के प्रकोप से ईश्वर ने भारतवासियों की रक्षा की तो यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों में प्रतिरोधी क्षमता, पश्चिमी देशों के लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा है। क्योंकि हम बचपन से विपरीत परिस्थितियों से जूझ कर बड़े होते हैं और वे बहुत ज़्यादा सावधानियों के साथ। 



इस इलाक़े में आने से पहले, एक कल्पना थी कि चारों ओर रेत के टीले ही टीले होंगे। पर राजमार्ग के दोनों तरफ़ हरयाली और खेत देख कर आश्चर्य हुआ। पता चला ये कमाल है इंदिरा नहर का। जिसके आने के बाद से अब यहाँ बारिश भी साल में 10-12 बार हो जाती है। जबकि पहले बारिश सालों में एक बार होती थी। इससे ये सिद्ध होता है कि समुचित जल प्रबंधन से देश का कायाकल्प हो सकता था। आज़ादी के बाद खर्बों रुपया बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं पर खर्च हुआ। बावजूद इसके आज भी हम वर्षा के मात्र 10 फ़ीसदी जल का ही संचयन कर पाते हैं। जबकि 90 फ़ीसदी जल बह कर नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। जल संचयन के राजस्थान के इतिहास को सराहना पड़ेगा। जहां पानी की एक एक बूँद को सोने से भी ज़्यादा क़ीमती मानकर सहेजने की स्थानीय तकनीकी विकसित की गई जो आजतक कारगर हैं। जबकि पाइपलाइन से जल आपूर्ति की ज़्यादातर योजनाएँ समय से पहले ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई। जल के विषय में इतना शोर मच रहा है पर हम अनुभव से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। कुंडों, सरोवरों और तालाबों के जीर्णोद्धार के नाम पर कैसे काग़ज़ी घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं इस पर हम पहले भी काफ़ी लिख चुके हैं। आधुनिक जीवन शैली में हमारे बाथरूम पानी की आपराधिक बर्बादी करते हैं। जबकि जैसलमेर की सबसे धनी सेठों की ‘पटवों की हवेली’ में जिस पानी से नहाया जाता था, उसी को एकत्र करके कपड़े धुलते थे और कपड़े धुलने के बाद उसी पानी से फिर फ़र्श और गली धोए जाते थे। आज हम ऐसा नहीं कर सकते पर पानी की बर्बादी पर रोक लगाने की मानसिकता भी विकसित करने को तैयार नहीं हैं। जबकि हर शहर का भूजल स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है और जल संकट गहराता जा रहा है। 


पर्यटन की दृष्टि से अब भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों ने एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया है। इसलिए इस वर्ग को भी पर्यटन के शिष्टाचार सीखने की ज़रूरत है। आप दुबई के रेगिस्तान में बने ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में जाएं तो आपको प्लास्टिक छोड़ ऊँटों की लीद भी देखने को नहीं मिलेगी। जबकि जैसलमेर के पास मशहूर ‘डेज़र्ट रिज़ॉर्ट’ सम नाम के क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हो गया है। हज़ारों टेंटों में पर्यटक यहाँ रात बिताते हैं पर पूरे क्षेत्र को प्लास्टिक की बोतलों, थैलों, शराब की बोतलों व दूसरे कचरों से पाट कर चले जाते हैं। ऊँट की लीद तो सारे इलाक़े में फैली पड़ी है। इस पर राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग को ध्यान देना चाहिए। 


हमारी इस यात्रा का ‘हाई पोईंट’ था भारत पाकिस्तान के बॉर्डर पर सीमा सुरक्षा बल की पोस्ट पर जा कर उनके जीवन को देखना। जिस गलवान घाटी में बर्फ़ की तहों के अंदर खड़े हो कर हमारे सैनिक सीमा की रक्षा करते हैं। उससे कम नहीं है थार के रेगिस्तान में 55 डिग्री सेल्सियस की तपती लू और कई दिनों चलने वाली काली आँधी में बीएसएफ़ के जवानों का पाकिस्तान के विरुद्ध मोर्चा लेना। इन जवानों और अफ़सरों के हौसले को सलाम हैं। रोचक बात यह पता चली कि जहां भारत ने 1751 किलोमीटर की पूरी सीमा पर कटीले तारों की मज़बूत बाड़, हर 100 मीटर पर सर्च लाइट के खम्बे और निरीक्षण कक्ष बना रखे हैं, वहीं अपनी आर्थिक तंगी के चलते पाकिस्तान ऐसा कुछ भी नहीं किया। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि पाकिस्तान गुरिल्ला युद्ध या आतंकवाद पनपाने का काम तो कर सकता है पर कोई बड़ा युद्ध लड़ने की उसकी औक़ात नहीं है। यह हमारे लिए संतोष की बात है। कुल मिलाकर ‘पधारो म्हारे देस’ का ये अनुभव बहुत रोचक रहा और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में देश की हालत और सुधरेगी और फिर हम सब भारतवासी आनंद और उमंग से वैसे ही जिएँगे जैसा सदियों से जीते आए हैं।        

Monday, October 8, 2018

लद्दाख और श्रीनगर घाटी में अंतर

भारत का मुकुटमणि राज्य तीन हिस्सों में बंटा है- लेह लद्दाख, श्रीनगर की घाटी व आसापास का क्षेत्र और जम्मू। तीनों की संस्कृति और लोक-व्यवहार में भारी अंतर है। जबकि तीनों क्षेत्रों में एकसा ही नागरिक प्रशासन और सेना की मौजूदगी है। तीनों ही क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास, आपातकालीन स्थितियों से निपटना और दुर्गम पहाड़ों के बीच क्षेत्र की सुरक्षा और नागरिक व्यवस्थाऐं सुनिश्चित करना, इन सब चुनौती भरे कार्यों में सेना की भूमिका रहती है।



जहां एक ओर कश्मीर की घाटी के लोग भारतीय सेना के साथ बहुत रूखा और आक्रामक रवैया अपनाते हैं, वहीं दूसरी ओर जम्मू में सेना और नागरिक आपसी सद्भभाव के साथ रहते हैं। लेकिन सबसे बढ़िया सेना की स्थिति लेह लद्दाख क्षेत्र में ही है। जहां के लोग सेना का आभार मानते हैं कि उसके आने से सड़कों व पुलों का जाल बिछ गया और अनेक सुविधाओं का विस्तार हुआ।



लेह लद्दाख की 80 फीसदी आबादी बौद्ध लोगों की है, शेष मुसलमान, थोड़े से ईसाई और हिंदू हैं। मूलतः लेख लद्दाख का इलाका शांति प्रिय रहा है। किंतु समय-समय पर पश्चिम से मुसलमान आक्रातांओं ने यहां की शांति भंग की है और अपने अधिकार जमाऐं हैं।



लेख लद्दाख के लोग भारतीय सेना से बेहद प्रेम करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। उसका कारण यह है कि दुनिया के सबसे ऊँचे पठार और रेगिस्तान से भरा ये क्षेत्र इतना दुर्गम है कि यहां कुछ भी विकास करना ‘लोहे के चने चबाने’ जैसा है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत जिन पर हरियाली के  नाम पर पेड़ तो क्या घास भी नहीं उगती, सूखे और खतरनाक हैं। इन पर जाड़ों में जमने वाली बर्फ कभी भी कहर बरपा सकती है। जोकि बड़े हिम खंडों के सरकने से और पहाड़ टूटकर गिरने से यातायात के लिए खतरा बन जाते हैं। तेज हवाओं के चलने के कारण यहां हैलीकाप्टर भी हमेशा बहुत सफल नहीं रहता।



ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की श्रृंखला एक तरफ प्रकृति प्रेमियों को आकर्षित करती है, वहीं दूसरी तरफ आम पर्यटक को रोमांचित भी करती हैं। लद्दाख के लोग बहुत सरल स्वभाव के हैं, संतोषी हैं और कर्मठ भी। फिर भी यहां ज्यादा आर्थिक विकास नहीं हो पाया है। कारण यह है कि उन दुर्गम परिस्थतियों में उद्योग-व्यापार करना बहुत खर्चीला और जोखिम भरा होता है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर राज्य में बाहरी प्रांत के लोगों को जमीन-जायदाद खरीदने की अनुमति नहीं है। लोग सामान्यतः अपने काम से काम रखते हैं। पर उन्हें एक शिकायत हम मैदान वालों से है।



आजकल भारी मात्रा में पर्यटक उत्तर-भारत से लेह लद्दाख जा रहे हैं। इनमें काफी बड़ी तादात ऐसे उत्साही लोगों की है, जो ये पूरी यात्रा मोटरसाईकिल पर ही करते हैं। हम मैदान के लोग उस साफ-सुथरे राज्य में अपना कूड़ा-करकट फैंककर चले आते हैं और इस तरह उस इलाके के पर्यावरण को नष्ट करने का काम करते हैं। अगर यही हाल रहा, तो आने वाले वर्षों में लेह लद्दाख के सुंदर पर्यटक स्थल कचड़े के ढेर में बदल जाऐंगे। इसके लिए केंद्र सरकार को अधिक सक्रिय होकर कुछ कदम उठाने चाहिए। जिससे इस सुंदर क्षेत्र का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट न हो।



लेह जाकर पता चला कि इस इलाके के पर्वतों में दुनियाभर की खनिज सम्पदा भरी पड़ी है। जिसका अभी तक कोई दोहन नहीं किया गया है। यहां मिलने वाले खनिज में ग्रेनाइट जैसे उपयोगी पत्थरों के अलावा भारी मात्रा में सोना, पन्ना, हीरा और यूरेनियम भरा पड़ा है। इसीलिए चीन हमेशा लेह लद्दाख पर अपनी गिद्ध दृष्टि बनाये रखता है। बताया गया कि जापान सरकार ने भारत सरकार को प्रस्ताव दिया था कि अगर उसे लेह लद्दाख में खनिज खोजने की अनुमति मिल जाऐ, तो वे पूरे लेह लद्दाख का आधारभूत ढांचा अपने खर्र्चे पर विकसित करने को तैयार है। पर भारत सरकार ने ऐसी अनुमति नहीं दी। भारत सरकार को चिंता है कि लेह लद्दाख के खनिज पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले चीन से इस क्षेत्र की सीमाओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाऐ? क्योंकि आऐ दिन चीन की तरफ से घुसपैठिऐ इस क्षेत्र में घुसने की कोशिश करते रहते हैं। जिससे दोनों पक्षों के बीच झड़पैं भी होती रहती है।



जम्मू-कश्मीर की सरकार तमाम तरह के कर तो पर्यटकों से ले लेती है, पर उसकी तरफ से पूरे लेह लद्दाख में पर्यटकों की सुविधा के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जाता है। जबसे आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट’ की शूटिंग यहां हुई है, तबसे पर्यटकों के यहां आने की तादात बहुत बढ़ गई है। पर उस हिसाब से आधारभूत ढांचे का विस्तार नहीं हुआ। एक चीज जो चैंकाने वाली है, वो ये कि पूरे लेह लद्दाख में पर्यटन की दृष्टि से हजारों गाड़ियों और सामान ढोने वाले ट्रक रात-दिन दौड़ते हैं। इसके साथ ही होटल व्यवसाय द्वारा भारी मात्रा में जेनरेटरों का प्रयोग किया जाता है। पर पूरे इलाके में दूर-दूर तक कहीं भी कोई पैट्रोल-डीजल का स्टेशन दिखाई नहीं देता। स्थानीय लोगों ने बताया कि फौज की डिपो से करोड़ों रूपये का पैट्रोल और डीजल चोरी होकर खुलेआम कालाबाजार में बिकता है। क्या रक्षामंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन इस पर ध्यान देंगी?



लेह लद्दाख का युवा अब ये जागने लगा है और अपने हक की मांग कर रहा है। पर अभी हमारा ध्यान उधर नहीं है। अगर भारत सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया, तो कश्मीर का आतंकवाद लेह लेद्दाख को भी अपनी चपेट में ले सकता है।

Monday, September 24, 2018

हिमाचल सरकार क्या सो रही है ?

सारे भारत और विदेशों से लगभग पूरे वर्ष पर्यटक कुल्लु-मनाली (हिप्र) जाते हैं। इत्तेफाक मेरा जाना पिछले हफ्ते 45 वर्ष बाद हुआ। 1974 में कुल्लू-मनाली गया था। हसरत थी हिमाचल की गोद में बसे इन दो सुंदर पहाड़ी नगरों को देखने की पर जाकर बहुत धक्का लगा। 

कुल्लू और मनाली दोनों ही शहर बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहे थे। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया। कल-कल करती व्यास नदी के दो किनारे जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित थे, आज होटलों और इमारतों भरे हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी व्यास नदी में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई दिया। जगह-जगह कूड़े के पहाड़, पहाड़ के ढलानों पर कूड़े के झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 

माना कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण  पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 

हिमाचल के तो सभी शहरों का यही हाल है, चाहे वो शिमला, विलासपुर ह, मंडी या कांगड़ा हो सबका बेतरतीब विकास हो रहा है। वैसे तो हिमाचल सरकार 'ग्रीन टैक्स' भी लेती है, जिसका उद्देश्य हिमाचल के पर्यावरण की सुरक्षा करना है, पर ऐसा कोई प्रयास सरकार की तरफ से किया गया हो, नहीं दिखाई देता। 

नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। हिमाचल के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल हुई कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना  हिमाचलवासियों को न करना पड़े। हिमाचल में घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार  भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा हिमाचल के लोग प्रायः मकान को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं।

सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 

ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से हिमाचल के लोगों की आमदनी बहुत बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। कुल्लू और मनाली को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 

ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 34 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 34 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?

यह प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधानमंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद् ' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। 

जरूरत इस बात की है कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्णस्थलों के विकास की अवधारणा को एक राष्टव्यापी बहस के बाद ठोस मूर्त रूप दिया जाए और उससे हटने की आजादी किसी को न हो। कम से कम भविष्य का विकास (?) विनाशकारी तो न हो। क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों में परिवर्तित करता रहेगा ?

Monday, July 10, 2017

योगी आदित्यनाथ जी हकीकत देखिए !

ऑडियो विज्युअल मीडिया ऐसा खिलाड़ी है कि डिटर्जेंट जैसे प्रकृति के दुश्मन जहर को ‘दूध सी सफेदी’ का लालच दिखाकर और शीतल पेय ‘कोला’ जैसे जहर को अमृत बताकर घर-घर बेचता है, पर इनसे सेहत पर पड़ने वाले नुकसान की बात तक नही करता । यही हाल सत्तानशीं होने वाले पीएम या सीएम का भी होता है । उनके इर्द-गिर्द का कॉकस हमेशा ही उन्हें इस तरह जकड़ लेता है कि उन्हें जमीनी हकीकत तब तक पता नहीं चलती, जब तक वो गद्दी से उतर नहीं जाते ।


टीवी चैनलों पर साक्षात्कार, रोज नयी-नयी योजनाओं के उद्घाटन समारोह, भारतीय सनातन पंरपरा के विरूद्ध महंगे-महंगे फूलों के बुके, जो क्षण भर में फेंक दिये जाते हैं, फोटोग्राफरों की फ्लैश लाईट्स की चमक-धमक में योगी आदित्यानाथ जैसा संत और निष्काम राजनेता भी शायद दिग्भ्रमित हो जाता है और इन फ़िज़ूल के कामों में उनका समय बर्बाद हो जाता है । फिर उन्हें अपने आस-पास, लखनऊ के चारबाग स्टेशन के चारों तरफ फैला नारकीय साम्राज्य तक दिखाई नहीं देता, तो फिर प्रदेश में दूर तक नजर कैसे जाएगी? जबकि प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का शोर हर तरफ इतना बढ़-चढ़कर मचाया जा रहा है ।

35 वर्ष केंद्रीय सत्ता की राजनीति को इतने निकट से देखा है और देश की राजनीति में अपनी निडर पत्रकारिता से ऐतिहासिक उपस्थिति भी कई बार दर्ज करवाई है । इसलिए यह सब असमान्य नहीं लगता । पर चिंता ये देखकर होती है कि देश में मोदी जैसे सशक्त नेता और उ.प्र. में योगी जैसे संत नेता को भी किस तरह जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होने दिया जाता ।

हाँ अगर कोई ईमानदार नेता सच्चाई जानना चाहे तो इस मकड़जाल को तोड़ने का एक ही तरीका हैं, जिसे पूरे भारत के सम्राट रहे देवानामप्रियदस्सी मगध सम्राट अशोक मौर्य ने अपने आचरण से स्थापित किया था । सही लोगों को ढू़ंढ-ढू़ंढकर उनसे अकेले सीधा संवाद करना और मदारी के भेष में कभी-कभी घूमकर आम जनता की राय जानना ।

देश के विभिन्न राज्यों में छपने वाले मेरे इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले, मैंने प्रधानमंत्री जी से गोवर्धन पर्वत को बचाने की अपील की थी । मामला यह था कि एक ऐसा हाई-फाई सलाहकार, जिसके खिलाफ सीबीबाई और ई.डी. के सैकड़ों करोड़ों रूपये के घोटाले के अनेक आपराधिक मामले चल रहे हैं, वह बड़ी शान शौकत से ‘रैड कारपेट’ स्वागत के साथ, योगी महाराज और उनकी केबिनेट को गोवर्धन के विकास के साढ़े चार हजार करोड़ रूपये के सपने दिखाकर, टोपी पहना रहा था । मुझसे यह देखा नहीं गया, तो मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, लेख लिखे और उ.प्र. के मीडिया में शोर मचाया । प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री ने लगता है उसे गम्भीरता से लिया । नतीजतन उसे लखनऊ से अपनी दुकान समेटनी पड़ी । वरना क्या पता गोवर्धन महाराज की तलहटी की क्या दुर्दशा होती ।

इसी तरह पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक बड़ी-बड़ी घोषाणाऐं ब्रज के लिए कर रहा था । हाई-फाई सलाहकारों से उसके लिए परियोजनाऐं बनवाई गईं, जो झूठे आंकड़ों और अनावश्यक खर्चों से भरी हुई थी । भला हो उ.प्र. पर्यटन मंत्री रीता बहुगुणा और प्रमुख सचिव पर्यटन अवनीश अवस्थी का, कि उन्होंने हमारी शिकायत को गंभीरता से लिया और फौरन इन परियोजनाओं का ठेका रोककर  हमसे उनकी गलती सुधारने को कहा । इस तरह 70 करोड़ की योजनाओं को घटाकर हम 35 करोड़ पर ले आये । इससे निहित स्वार्थों में खलबली मच गई और हमारे मेधावी युवा साथी को अपमानित व  हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया । संत और भगवतकृपा से वह षड्यंत्र असफल रहा, पर उसकी गर्माहट अभी भी अनुभव की जा रही है।

हमने तो देश में कई बड़े-बड़े युद्ध लड़े है । एक युद्ध में तो देश का सारा मीडिया, विधायिका, कानूनविद् सबके सब सांस रोके, एक तरफ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे, जब सं 2000 में मैंने अकेले भारत के मुख्य न्यायाधीश के 6 जमीन घोटाले उजागर किये । मुझे हर तरह से प्रताड़ित करने की कोशिश की गई। पर कृष्णकृपा मैं से टूटा नहीं और यूरोप और अमेरिका जाकर उनके टीवी चैनलों पर शोर मचा दिया । इस लड़ाई में भी नैतिक विजय मिली ।

मेरा मानना है कि, यदि आपको अपने धन, मान-सम्मान और जीवन को खोने की चिंता न हो और आपका आधार नैतिक हो तो आप सबसे ताकतवर आदमी से भी युद्ध लड़ सकते हैं। पर पिछले 15 वर्षों में मै कुरूक्षेत्र का भाव छोड़कर श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम के माधुर्य भाव में जी रहा हूं और इसी भाव में डूबा रहना चाहता हूँ। ब्रज विकास के नाम पर अखबारों में बड़े-बड़े बयान वर्षों से छपते आ रहे हैं। पर धरातल पर क्या बदलाव आता है, इसकी जानकारी हर ब्रजवासी और ब्रज आने वालों को है। फिर भी हम मौन रहते हैं।

लेकिन जब भगवान की लीलास्थलियों को सजाने के नाम पर उनके विनाश की कार्ययोजनाऐं बनाई जाती हैं, तो हमसे चुप नहीं रहा जाता । हमें बोलना पड़ता है । पिछली सरकार में जब पर्यटन विभाग ने मथुरा के 30 कुण्ड बर्बाद कर दिए तब भी हमने शोर मचाया था । जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता । पर ऐसी सरकारों के रहते, जिनका ऐजेंडा ही सनातन धर्म की सेवा करना है, अगर लीलास्थलियों पर खतरा आऐ, तो चिंता होना स्वभाविक है ।
आश्चर्य तो तब होता है, जब तखत पर सोने वाले विरक्त योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री को घोटालेबाजों की प्रस्तुति तो ‘रैड कारपेट’ स्वागत करवा कर दिखा दी जाती हो, पर जमीन पर निष्काम ठोस कार्य करने वालों की सही और सार्थक बात सुनने से भी उन्हें बचाया जा रहा हो । तो स्वभाविक प्रश्न उठता है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए, उन्हें जो ऐसी दुर्मति सलाह देते हैं या उन्हें, जो अपने मकड़जाल तोड़कर मगध के सम्राट अशोक की तरह सच्चाई जानने की उत्कंठा नहीं दिखाते?

Monday, July 25, 2016

दुनिया का सुखी देश कैसे बने

    पिछले हफ्ते मैं भूटान में था। चीन और भारत से घिरा ये हिमालय का राजतंत्र दुनिया का सबसे सुखी देश है। जैसे दुनिया के बाकी देश अपनी प्रगति का प्रमाण सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को मानते हैं, वैसे ही भूटान की सरकार अपने देश में खुशहाली के स्तर को विकास का पैमाना मानती है। सुना ही था कि भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश है। पर जाकर देखने में यह सिद्ध हो गया कि वाकई भूटान की जनता बहुत सुखी और संतुष्ट है। पूरे भूटान में कानून और व्यवस्था की समस्या नगण्य है। न कोई अपराध करता है, न कोई केस दर्ज होता है और न ही कोई मुकद्मे चलते हैं। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वकील और जज अधिकतम समय खाली बैठे रहते हैं। 

ऐसा नहीं है कि भूटान का हर नागरिक बहुत संपन्न हो। पर बुनियादी सुविधाएं सबको उपलब्ध हैं। यहां आपको एक भी भिखारी नहीं मिलेगा। अधिकतम लोग कृषि व्यवसाय जुड़े हैं और जो थोड़े बहुत सर्विस सैक्टर में है, वे भी अपनी आमदनी और जीवनस्तर से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

    लोगों की कोई महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। वे अपने राजा से बेहद प्यार करते हैं। राजा भी कमाल का है। 33 वर्ष की अल्पायु में उसे हर वक्त अपनी जनता की चिंता रहती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर, जहां कार जाने का कोई रास्ता न हो, उन पहाड़ों पर चढ़कर युवा राजा दूर-दूर के गांवों में जनता का हाल जानने निकलता है। लोगों को रियायती दर या बिना ब्याज के आर्थिक मदद करवाता है। 

    भूटान में कोई औद्योगिक उत्पादन नहीं होता। हर चीज भारत, चीन या थाईलैंड से वहां जाती है। वहां की सरकार प्रदूषण को लेकर बहुत गंभीर है। इसलिए कड़े कानून बनाए गए हैं। नतीजतन वहां का पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। लोगों का खानापीना भी बहुत सादा है। दिन में तीन बार चावल और उसके साथ पनीर और मक्खन में छुकीं हुई बड़ी-बड़ी हरी मिर्च, ये वहां का मुख्य खाना है। पूरा देश बुद्ध भगवान का अनुयायी है। हर ओर एक से एक सुंदर बौद्ध विहार में हैं। जिनमें हजारों साल की परंपराएं और कलाकृतियां संरक्षित हैं। किसी दूसरे धर्म को यहां प्रचार करने की छूट नहीं है, इसलिए न तो यहां मंदिर हैं, न मस्जिद, न चर्च। 

विदेशी नागरिकों को 3 वर्ष से ज्यादा भूटान में रहकर काम करने का परमिट नहीं मिलता। इतना ही नहीं, पर्यटन के लिए आने वाले विदेशियों को इस बात का प्रमाण देना होता है कि वे प्रतिदिन लगभग 17.5 हजार रूपया खर्च करेंगे, तब उन्हें वीजा मिलता है। इसलिए बहुत विदेशी नहीं आते। दक्षिण एशिया के देशों पर खर्चे का ये नियम लागू नहीं होता, इसलिए भारत, बांग्लादेश आदि के पर्यटक यहां सबसे ज्यादा मात्रा में आते हैं। भूटान की जनता इस बात से चिंतित है कि आने वाले पर्यटकों को भूटान के परिवेश की चिंता नहीं होती। जहां भूटान एक साफ-सुथरा देश है, वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक जहां मन होता है कूड़ा फेंककर चले जाते हैं। इससे जगह-जगह प्राकृतिक सुंदरता खतरे में पड़ जाती है। 

    एक और बड़ी रोचक बात यह है कि मकान बनाने के लिए किसी को खुली छूट नहीं है। हर मकान का नक्शा सरकार से पास कराना होता है। सरकार का नियम है कि हर मकान का बाहरी स्वरूप भूटान की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप हो, यानि खिड़कियां दरवाजे और छज्जे, सब पर बुद्ध धर्म के चित्र अंकित होने चाहिए। इस तरह हर मकान अपने आपमें एक कलाकृति जैसा दिखाई देता है। जब हम अपने अनुभवों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि नक्शे पास करने की बाध्यता विकास प्राधिकरणों ने भारत में भी कर रखी है। पर रिश्वत खिलाकर हर तरह का नक्शा पास करवाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत के पारंपरिक शहरों में भी बेढंगे और मनमाने निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। जिससे इन शहरों का कलात्मक स्वरूप तेजी से नष्ट होता जा रहा है। 

    भूटान की 7 दिन की यात्रा से यह बात स्पष्ट हुई कि अगर राजा ईमानदार हो, दूरदर्शी हो, कलाप्रेमी हो, धर्मभीरू हो और समाज के प्रति संवेदनशील हो, तो प्रजा निश्चित रूप से सुखी होती है। पुरानी कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। यह भी समझ में आया कि अगर कानून का पालन अक्षरशः किया जाए, तो समाज में बहुत तरह की समस्याएं पैदा नहीं होती। जबकि अपने देश में राजा के रूप में जो विधायक, सांसद या मंत्री हैं, उनमें से अधिकतर का चरित्र और आचरण कैसा है, यह बताने की जरूरत नहीं। जहां अपराधी और लुटेरे राजा बन जाते हों, वहां की प्रजा दुखी क्यों न होगी ? 

एक बात यह भी समझ में आयी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े मकान और आधुनिकता के तमाम साजो-सामान जोड़कर खुशी नहीं हासिल की जा सकती। जो खुशी एक किसान को अपना खेत जोतकर या अपने पशुओं की सेवा करके सहजता से प्राप्त होती है, उसका अंशभर भी उन लोगों को नहीं मिलता, जो अरबों-खरबों का व्यापार करते हैं और कृत्रिम जीवन जीते हैं। कुल मिलाकर माना जाए, तो सादा जीवन उच्च विचार और धर्म आधारित जीवन ही भूटान की पहचान है। जबकि यह सिद्धांत भारत के वैदिक ऋषियों ने प्रतिपादित किए थे, पर हम उन्हें भूल गए हैं। आज विकास की अंधी दौड़ में अपनी जल, जंगल, जमीन, हवा, पानी और खाद्यान्न सबको जहरीला बनाते जा रहे हैं। भूटान से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, July 13, 2015

पूर्वोत्तर राज्यों का पर्यटन विकास क्यों नहीं हो पा रहा ?



आजकल मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर आया हुआ हूं। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है कि स्विट्जरलैंड और कश्मीर को टक्कर देता पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटन की दृष्टि से दुनिया के आगे क्यों नहीं परोसा जा रहा ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के दौर में पूर्वोत्तर राज्यों के अनेक लड़के-लड़कियां हमारे साथ थे। जिनकी शिकायत थी कि मैदानी इलाकों में रहने वाले हम लोग उनके राज्यों की परवाह नहीं करते, उनके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।

पाठकों को याद होगा कि नागालैंड हो या मिजोरम या फिर असम की ब्रह्मपुत्र घाटी सबने जनाक्रोश का एक लंबा दौर देखा हैं। केंद्रीय सरकार, सशस्त्र बलों और हमारी सेनाओं को इन राज्यों में शांति बनाए रखने के लिए और अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है। तब यही लगता था कि सारा अपराध दिल्ली में बैठे हुक्मरानों का है, इसीलिए लोग नाराज़ हैं | यह कुछ हद तक ही सही था | लेकिन यहां आकर जमीनी हकीकत कुछ और ही पता चली। 

अब मेघालय को ही लीजिए। गरीबी का नामोनिशान यहां नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि सभी संपन्न हैं। पर यह सही है कि बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान होने वाला परिवार आपको ढूढ़े नहीं मिलेगा। शिलांग जैसी राजधानी या मेघालय के गांव और दूसरे शहर में कहीं एक भी भिखारी नजर नहीं आया। जानकार लोग बताते हैं कि कोयले व चूने की खानों और अपार वन संपदा के चलते मेघालय राज्य में प्रति एक हजार व्यक्ति के ऊपर  जितने करोड़पति हैं, उतने पूरे भारत में कहीं दूसरी जगह नहीं। यह तथ्य आंख खोलने वाला है। एक और उदाहरण रोचक होगा कि मेघालय के कुछ नौजवान भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के बावजूद केवल इसलिए नौकरी पर नहीं गए कि उन्हें अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में नहीं रहना था। जाहिर है, उनकी आर्थिक सुरक्षा मजबूत रही होगी, तभी उन्होंने ऐसा जोखिम भरा फैसला लिया। 

मेघालय बेहद खूबसूरत राज्य है। पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाएं हैं। इस इलाके की खासी, गारो व जैंतियां तीनों जनजातियां सांस्कृतिक रूप से भी काफी सम्पन्न हैं। दूसरी तरफ पिछले 68 सालों में सरकार ने यहां आधारभूत ढांचा विकसित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। बढि़या सड़कें, जनसुविधाएं, पानी-बिजली की आपूर्ति, यह सब इतना व्यवस्थित है कि अगर कोई चाहे तो मेघालय के हर गांव को 'इको टूरिज्म विलेज' बना सकता है। अगर आज ऐसा नहीं है, तो इसका एक बड़ा कारण मेघालय के नौजवानों की हिंसक वृत्ति है। जातिगत अभिमान के चलते वे बाहरी व्यक्ति को पर्यटक के रूप में तो बर्दाश्त कर लेते हैं। पर अपने इलाके में न तो उसे रहने देना चाहते हैं, न कारोबार करने देना चाहते हैं। इसलिए बाहर से कोई विनियोग करने यहाँ नहीं आता। दूसरा बड़ा कारण यह है कि लोगों को धमकाना, उन्हें चाकू या पिस्टल दिखाना और उनसे पैसा उगाही करना या किसी बात पर अगर झगड़ा हो जाए, तो उस व्यक्ति को मार-मारकर बेदम कर देना या मार ही डालना इन लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। जिसकी इन्हें कोई सजा भी नहीं मिलती | इसलिए व्यापारिक बुद्धि का आदमी यहां आकर विनियोग करने से घबराता है। कुल मिलाकर नुकसान देश का तो है ही, मेघालयवासियों का भी कम नहीं। पर उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि प्रकृति ने खनिजों और वन संपदा के अपार भंडार इन्हें सौंप दिए हैं। इनके इलाकों में सरकार का कानून नहीं चलता, बल्कि इनके कबिलाई प्रमुख की हुकुमत चलती है। उसने अगर कह दिया कि कोयले की ये खान मेरी हुई, तो कोई सरकार उसे रोक नहीं सकती। नतीजतन, जब घर बैठे खान, खनिज, जमीन और वन संपदा आपको मोटी कमाई दे रहे हों, तो आपको इससे ज्यादा म्हणत करने की क्या जरूरत है। इसलिए ये लोग नहीं चाहते कि कोई बाहर से आए और बड़े कारोबार की स्थापना करे। 

एक तरह से तो यह अच्छा ही है | क्योंकि शहरीकरण हमारे नैसर्गिक सौंदर्य को दानवीयता की हद तक जाकर बर्बाद कर रहा है। कोई रोकटोक नहीं है। आज देश का हरित क्षेत्र 3 फीसदी से भी कम रह गया है। जबकि आदमी को स्वस्थ रहने के लिए भू-भाग के 33 फीसदी पर हरियाली होनी चाहिए। अगर यहां भारी विनियोग होगा, तो प्रकृति का विनाश भी तेजी से होगा। 

चलो बड़े विकास की बात छोड़ भी दें, तो भी अपार संभावनाएं हैं। हम पर्यटन की आवश्यकता को समझे और उसके अनुरूप स्थानीय स्तर पर सुविधाओं का विस्तार करें। 


कमोबेश, यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। जहां नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। पर वहां भी स्थानीय जनता के ऐसे रवैये के कारण वांछित विकास नहीं हो पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वोत्तर राज्यों के जो युवा पढ़-लिखकर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं, वे अपने-अपने प्रांतों में जाग्रति लाएं और जनता की तरफ से भी विकास की मांग उठनी चाहिए। हां यह जरूर है कि यह विकास पर्यावरण और जनजातिय सांस्कृतिक अवशेषों को क्षति पहुंचाए बिना हो।  इसी में सबका भला है |