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Monday, July 31, 2023

महिलाऐं वीभत्स हिंसा की शिकार क्यों?


मणिपुर की घटना ने देश विदेश के सभ्य समाज को झँकझोड़ दिया है। दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके उनसे छेड़छाड़ करते हुए वहशी मर्दों की भीड़ ने जिस तरह उनकी परेड करवायी, उससे इस वीडियो को देखने वाले दहल गये। सामंती व्यवस्थाओं में और मध्य युग में ग़ुलामों महिलाओं के साथ जो व्यवहार होता था ये उसका एक ट्रेलर था। मणिपुर के मुख्यमंत्री ने भी स्वीकारा कि ऐसी सौ से ज़्यादा घटनाएँ वहाँ पिछले दो महीनों में हुई हैं। राज्य और केंद्र की सरकार मूक दर्शक बनी तमाशा देखती रही।
 



एक तरफ़ देश के मर्दों की ये हरकतें हैं तो दूसरी तरफ़ इस देश के राजनैतिक दल महिलाओं को राजनीति में उनके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण देने को तैयार नहीं हैं। जबकि देश के हर हिस्से में महिलाओं के उपर पाश्विकता की हद तक कामुक तत्वों के हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। जब देश की राजदधानी दिल्ली में ही सड़क चलती लड़कियों को दिन-दहाड़े शोहदे उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार व हत्या करके फैंक देते हैं, तो देश के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं पर क्या बीत रही होगी, इसका अन्दाजा शायद राष्ट्रीय महिला आयोग को भी नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाऐं हैं, उन राज्यों की महिलाऐं भी सुरक्षित नहीं। इसकी क्या वजह है?



महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गुड़गाँव की अमीना शेरवानी का कहना है कि पूरे वैश्विक समाज में शुरू से महिलाओं को सम्पत्ति के रूप में देखा गया। उनका कन्यादान किया गया या मेहर की रकम बांधकर निकाहनामा कर लिया गया। कुछ जनजातिय समाज हैं जहाँ महिलाओं को बराबर या पुरूषों से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। माना जाता रहा है कि बचपन में महिला पिता के संरक्षण में रहेगी। विवाह के बाद पति के और वैधव्य के बाद पुत्र के। यानि उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि आधुनिक महिलाऐं इन सभी मान्यताओं को तोड़ चुकी हैं या तोड़ती जा रही हैं। लेकिन उनकी तादाद पूरी आबादी की तुलना में नगण्य है।


बहुत से लोग मानते हैं कि जिस तरह की अभद्रता, अश्लीलता, कामुकता व हिंसा टी.वी. और सिनेमा के परदे पर दिखायी जा रही है, उससे समाज का तेजी से पतन हो रहा है। आज का युवावर्ग इनसे प्रेरणा लेकर सड़कों पर फिल्मी रोमांस के नुस्खे आजमाता है। जिसमें महिलाओं के साथ कामुक अत्याचार शामिल है। यह बात कुछ हद तक सही है कि दृश्य, श्रृव्य माध्यम का व्यक्ति के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर ऐसा नहीं है कि जबसे मनोरंजन के यह माध्यम लोकप्रिय हुए हैं, तबसे ही महिलाऐं कामुक हमलों का शिकार होने लगी हों। पूरा मध्ययुगीन इतिहास इस बात का गवाह है कि अनवरत युद्धरत राजे-महाराजाओं और सामंतों ने महिला को लूट में मिले सामान की तरह देखा और भोगा। द्रौपदी के पाँच पति तो अपवाद हैं। जिसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य भी छिपा है। पर ऐसे पुरूष तो लाखों हुए हैं, जिन्होंने एक से कहीं ज्यादा पत्नियों और स्त्रीयों को भोगा। युद्ध जीतने के बाद दूसरे राजा की पत्नियों और हरम की महिलाओं को अपने हरम में शामिल करना राजाओं या शहंशाहों के लिए गर्व की बात रही।



नारी मुक्ति के लिए अपने को प्रगतिशील मानने वाले पश्चिमी समाज की भी मानसिकता कुछ भिन्न नहीं। न्यू यॉर्क में रहने वाली मेरी एक महिला पत्रकार मित्र ने कुछ वर्ष पहले दुनिया भर के प्रमुख देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक शोधपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध के दौरान उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नारी मुक्ति की घोर वकालत करने वाली यूरोप की महिलाऐं भाषण चाहें जितना दें, पर पति या पुरूष वर्ग के आगे घुटने टेकने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वे शिकायत करती हैं कि उनके पति उन्हें रसोईये, घर साफ करने वाली, बच्चों की आया, कपड़े धोने वाली और बिस्तर पर मनोरंजन देने वाली वस्तु के रूप में समझते और व्यवहार करते हैं। ये कहते हुए वे आँखें भर लाती हैं। पर जब उनसे पूछा गया कि आप इस बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन क्यों नहीं जीना चाहतीं? तो वे तपाक से उत्तर देती हैं कि हम जैसी भी हैं, सन्तुष्ट हैं, आप हमारे सुखी जीवन में खलल क्यों डालना चाहते हैं? ऐसे विरोधाभासी वक्तव्य से यह लगता है कि पढ़ी-लिखी महिलाऐं भी गुलामी की सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। मतलब ये माना जा सकता है कि महिलाऐं खुद ही अपने स्वतंत्र और मजबूत अस्तित्व के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उन्हें हमेशा सहारे और सुरक्षा की जरूरत होती है। तभी तो किसी शराबी, कबाबी और जुआरी पति को भी वे छोड़ना नहीं चाहतीं। चाहें कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े। फिर पुरूष अगर उन्हें उपभोग की वस्तु माने तो क्या सारा दोष पुरूष समाज पर ही डालना उचित होगा?



इस सबसे इतर एक भारत का सनातन सिद्धांत भी है। जो यह याद दिलाता है कि पति की सेवा, बच्चों का भरण-पोषण और शिक्षण इतने महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिन्हें एक महिला से बेहतर कोई नहीं कर सकता। जिस घर की महिला अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलता और खुले ह्रदय से वहन करती है, उसे न तो व्यवसाय करने की आवश्यकता है और न ही कहीं और भटकने की। ऐसी महिलाऐं घर पर रहकर तीन पीढ़ियों की परवरिश करती हैं। सब उनसे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। फिर क्या आवश्यकता है कि कोई महिला देहरी के बाहर पाँव रखे? जब घर के भीतर रहेगी तो अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनायेगी। क्योंकि उन्हें वह सब ज्ञान और अनुभव देगी जो उसने वर्षों के तप के बाद हासिल किया है।


आज जब देश में हर मुद्दे पर बहस छिड़ जाना आम बात हो गयी है। दर्जनों टी.वी. चैनल एक से ही सवाल पर घण्टों बहस करते हैं। तो क्यों न इस सवाल पर भी देश में एक बहस छेड़ी जाए कि महिलाऐं कामुक अपराधिक हिंसा का शिकार हैं या उसका कारण? इस प्रश्न का उत्तर समाधान की दिशा में सहायता करेगा। यह बहस इसलिए भी जरूरी है कि हम एक तरफ दुनिया के तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं और दूसरी ओर हमारी महिलाऐं मुध्ययुग से भी ज्यादा वीभत्स अपराधों और हवस का शिकार बन रही हैं।

Monday, September 20, 2021

अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को जो कड़े शब्द कहे वो उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यप्रणाली पर बहुत शर्मनाक टिप्पणी थी। दो साल पहले मैनपुरी में बलात्कार के बाद मार दी गई एक लड़की के मामले में आजतक उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो लापरवाही दिखाई उससे माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय सख़्त नाराज़ हुआ। पुलिस महानिदेशक का यह कहना कि उन्होंने इस केस की एफ़आईआर तक नहीं पढ़ी है, उत्तर प्रदेश सरकार के नम्बर वन होने के दावों पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है।
 



दरअसल छोटी लड़कियों या महिलाओं की स्थित दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया और अफ़्रीका के देशों में बहुत दयनीय है। ताज़ा उदाहरण अफगानिस्तान का ही लें। वहाँ के तालिबान शासकों ने महिलाओं पर जो फ़रमान जार किए हैं वो दिल हिला देने वाले हैं। महिलाएँ आठ साल की उम्र के बाद पढ़ाई नहीं कर सकेंगी। आठ साल तक वे केवल क़ुरान ही पढ़ेंगी। 12 साल से बड़ी सभी लड़कियों और विधवाओं को जबरन तालिबानी लड़ाकों से निकाह करना पड़ेगा। बिना बुर्के या बिना अपने मर्द के साथ घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं को गोली मार दी जाएगी। महिलाएँ कोई नौकरी नहीं करेंगी और शासन में भागीदारी नहीं करेंगी। दूसरे मर्द से रिश्ते बनाने वाली महिलाओं को कोड़ों से पीटा जाएगा। महिलाएँ अपने घर की बालकनी में भी बाहर नहीं झाँकेंगीं। इतने कठोर और अमानवीय क़ानून लागू हो जाने के बावजूद अफगानिस्तान की पढ़ी लिखी और जागरूक महिलाएँ बिना डरे सड़कों पर जगह-जगह प्रदर्शन कर रही हैं।


भारत में भी जब कुछ धर्म के ठेकेदार हिंसात्मक और आक्रामक तरीक़ों से महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं तो वे भी तालिबानी ही नज़र आते हैं। कोई क्या पहने, क्या खाए, किससे प्रेम करे और किससे शादी करे, ये फ़ैसले हर व्यक्ति या हर महिला का निजी मामला होता है। ये अदातें भी कह चुकीं हैं। इसमें दख़ल देना लोकतांत्रिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है। रोचक बात यह है कि जो लोग ये नैतिक शिक्षा देने का दावा करते हैं उनमें से बहुत से लोग या उनके नेता महिलाओं के प्रति कितनी कुत्सित मानसिकता का परिचय देते आये हैं, ये तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है। इनके चरित्र का यह दोहरापन अब जगज़ाहिर हो चुका है। इनके विरुद्ध भारत की पढ़ी लिखी, कामकाजी और जागरूक महिलाएँ भी खुल कर लिखती और बोलती हैं। उन्हें सोशल मीडिया पर अभद्र शब्दों से गलियाने की एक नई ख़तरनाक प्रवृत्ति देश में विकसित हो चुकी है। 


हम दुनिया की महिलाओं को तीन वर्गों में बाँट सकते हैं। पहला वर्ग उन महिलाओं का है जो अपने पारम्परिक सांस्कृतिक परिवेश के अनुरूप जीवन जीती हैं। फिर वो चाहे भारत की महिला हो या अफ़्रीका की। बच्चों का लालन-पालन और परिवार की देखभाल ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। अपवादों को छोड़ कर ज़्यादातर महिलाएँ अपनी पारम्परिक भूमिका में संतुष्ट रहती हैं । चाहे उन्हें जीवन में कुछ कष्ट भी क्यों न भोगने पड़ें। 


दूसरे वर्ग की महिलाएँ वे हैं जो घर और घर के बाहर, दोनों दुनिया सम्भालती हैं। वे पढ़ी लिखी और कामक़ाज़ी होती हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाढ़ती हैं। फिर वो चाहे प्रशासन हो, सैन्य बल हो, शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया, विज्ञान, व्यापार, प्रबंधन कोई क्षेत्र क्यों न हो वे किसी मामले में पुरुषों से पीछे नहीं रहती। सभ्य समाजों में इनका प्रतिशत क्रमशः लगातार बड़ता जा रहा है। फिर भी पूरे समाज के अनुपात में ये बहुत कम है। महिलाओं का यही वर्ग है जो दुनिया के हर देश में अपनी आवाज़ बुलंद करता है, लेकिन शालीनता की सीमाओं के भीतर रहकर। 


महिलाओं का तीसरा वर्ग, उन महिलाओं का है जो महिला मुक्ति के नाम पर हर मामले में अतिवादी रवैया अपनाती हैं। चाहे वो अपना अंग प्रदर्शन करना हो या मुक्त रूप से काम वासना को पूरा करना हो। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत पश्चिमी देशों तक में नगण्य है। विकासशील देशों में तो ये और भी कम है। पर इनका ही उदाहरण देकर समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का ठेका लेने वाले धर्म के ठेकेदार पूरे महिला समाज को कठोर नियंत्रण में रखने का प्रयास करते हैं। 


वैसे मानव सभ्यता के आरम्भ से आजतक पुरुषों का रवैया बहुत दक़ियानूसी रहा है। उन्हें हमेशा दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। उनकी हैसियत समाज में केवल सम्पत्ति के रूप में होती है। उनकी भावनाओं की कोई कद्र नहीं की जाती। अनादिकाल से युद्ध जीतने के बाद विजेता चाहे राजा हो या उसकी सेना, हारे हुए राज्य की महिलाओं पर गिद्धों की तरह टूट पड़ते हैं। बलात्कार और हत्या आम बात है। वरना उन्हें ग़ुलाम बना कर अपने साथ ले जाते हैं और उनका हर तरह से शोषण करते हैं। शायद इसीलिए महिलाओं को अबला कह कर सम्बोधित किया जाता है। 


नेता, प्रशासक और राजनैतिक दल महिलाओं के हक़ पर बोलते समय अपने भाषणों में बड़े उच्च विचार व्यक्त करते हैं। किंतु आए दिन ऐसे नेताओं के विरुद्ध ही महिलाओं के साथ अश्लील या पाशविक व्यवहार करने के समाचार मिलते हैं। हाल के दशकों में दरअसल, पश्चिम से आई उपभोक्ता संस्कृति ने महिलाओं को भोग की वस्तु बनाने का बहुत निकृष्ट कृत्य किया है। ऐसे में समाज के समझदार व जागरूक पुरुषवर्ग को आगे आना चाहिए। महिलाओं को सम्मान देने के साथ ही उन पर होने वाले हमलों का सामूहिक रूप से प्रतिरोध करना चाहिए। संत विनोबा भावे कहते थे कि एक पुरुष सुधरेगा तो केवल स्वयं को सुधारेगा पर अगर एक महिला सुधरेगी तो तीन पीढ़ियों को सुधार देगी। भारत भूमि ने महिलाओं को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती के रूप में पूजा है। सृष्टि के रचैया ब्रह्मा जी के पश्चात इस भूतल पर मानव को वितरित करने वाली नारी का स्थान सर्वोपरि है। फिर भी यहाँ हज़ारों महिलाएँ हर रोज़ बलात्कार या हिंसा का शिकार होती हैं और समाज मूक दृष्टा बना देखता रहता है। जब तक हम जागरूक और सक्रिय हो कर महिलाओं का साथ नहीं देंगे, उनकी बुद्धि को कम आंकेंगे, उनका उपहास करेंगे, तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे।  

Monday, April 26, 2021

द ग्रेट इण्डियन किचन


कल मलयालम भाषा की एक फ़िल्म देखी ‘द ग्रेट इण्डियन किचन’, जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। कहानी सपाट है और घर-घर की है। ग्रहणी कितनी भी पढ़ी लिखी और समझदार क्यों न हो उसकी सारी ज़िंदगी चौका-चूल्हा सम्भालने और घर के मर्दों के नख़रे उठाने में बीत जाती है। ज़्यादातर
  महिलाएँ इसे अपनी नियति मान कर सह लेती हैं। नारी मुक्ति की भावना से जो इसका विरोध करती हैं या तो उनके घर में तनाव पैदा हो जाता है या तो उन्हें घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। ऐसा ही कुछ इस फ़िल्म में दिखाया गया है।

 

ऐसा लगता है कि यह फ़िल्म वामपंथियों ने बनाई है और उस दौर में बनाई है जब केरल के सबरिमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में एक बड़ा विवाद छिड़ा हुआ था। ज़ाहिर है वामपंथियों का उद्देश्य हिंदू समाज की उन कुरीतियों पर हमला करना था जो उनकी दृष्टि में महिला विरोधी है। जैसे माहवारी के समय महिलाओं को अछूत की तरह रखना। ये फ़िल्म में दिखाया है। हो सकता है कि उन पाँच दिनों भारतीय पारम्परिक समाज में महिलाओं को यातना शिविर की तरह रहना पड़ता हो। पर क्या इसमें संदेह है कि वो पाँच दिन हर महिला की ज़िंदगी में न सिर्फ़ कष्टप्रद होते हैं बल्कि संक्रमण की सभी संभावना लिए हुए भी। अगर महिलाओं पर उन दिनों की जाने वाली ज़्यादतियों को दूर कर दिया जाए और महिला को उन पाँच दिन उसी तरह सम्मानित तरीक़े से घर में रखा जाए जैसे आज परिवार के किसी कोरोना संक्रमित सदस्य को रखा जाता है, तो क्या इसमें पूरे परिवार की भलाई नहीं होगी ? 



इसी तरह पुरुष और स्त्री से हर परिस्थिति में समान व्यवहार की अपेक्षा करने वाले बुद्धिजीवी ज़रा सोचें कि नौ महीने जब महिला गर्भवती होती है तो क्या उसकी वही कार्य क्षमता होती है जो सामान्य परिस्थिति में रहती है? शिशु जन्म के बाद तीन वर्ष तक बच्चे को अगर माँ का दूध और 24 घंटे लाड़-प्यार मिले तो वो बच्चा ज़्यादा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त होता है बमुक़ाबले उन बच्चों के जिन्हें उनकी माँ नौकरी के दबाव में ‘डे केयर सेंटर’ में डाल देती हैं। अगर आर्थिक मजबूरी न हो क्या माँ का नौकरी करना ज़रूरी है ? 


इसी तरह सोचने वाली बात यह है कि जिस तरह का मिलावटी, प्रदूषित और ज़हरीला भोजन फ़ास्ट फ़ूड के नाम पर आज सभी बच्चों को दिया जा रहा है उससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चिंता का विषय बन गया है: विकासशील देशों में ही नहीं विकसित देशों में भी । 


हमारे ब्रज में कहावत है कि एक औरत तीन पीढ़ी सुधार देती है; अपने माँ-बाप या सास ससुर की, अपने पति और अपनी और अपने बच्चों की। पढ़ी लिखी महिला भी अगर घर पर रह कर पूरे परिवार के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आचरण और परिवेश पर ध्यान देती है तो वह समाज के लिए इतना बड़ा योगदान है कि किसी भी बड़ी से बड़ी नौकरी का वेतन इसकी बराबरी नहीं कर सकता। शर्त यह है कि उस महिला को परिवार में पूरा सम्मान और सामान अधिकार मिलें। 


वैदिक समाज में पुरुष और महिला एक से आभूषण और वस्त्र पहनते थे; अधोवस्त्र और अंगवस्त्र। महिलाओं के वक्ष भी उसी तरह खुले रहते थे जैसे पुरुषों के। अजन्ता एलोरा के भित्तिचित्र इसके प्रमाण हैं। हर राजनैतिक निर्णय, सामाजिक विवादों, धार्मिक कार्यक्रमों आदि में महिलाएँ बराबर की साझीदार होती थीं। इस व्यवस्था का पतन मध्ययुगीन सामंती  दौर में हो गया। पर आज आधुनिकता व बराबरी के नाम पर जो पनपाया जा रहा है उससे न तो महिलाएँ सुखी हैं और न परिवार। इसलिए फ़िल्म में जो वामपंथी समाधान दिखाया गया है वह उचित नहीं है। उस महिला का विद्रोह करके घर को छोड़ जाना कोई समाधान नहीं है। पर साथ ही उसके पति और ससुर का उसके प्रति व्यवहार भी निंदनीय है। जो प्रायः हर घर में देखा जाता है। हर परिवार के हर पुरुष को यह सोचना चाहिए कि अगर वे अपने परिवार की महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो उसका नुक़सान उस परिवार की तीन पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। 


आधुनिक समाज में बड़े शहरों में रहने वाले बहुत सारे पढ़े लिखे नौजवान स्वतः ही अपनी कामकाजी पत्नी के साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं। वे ना सिर्फ़ घर के काम काज में मदद करते हैं बल्कि बच्चे पालने में भी पूरा योगदान करते हैं। सन 2000 में मैं एक हफ़्ता अपने ममेरे भाई आनंद के घर न्यू यॉर्क में रहा। जो उन दिनों एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का अधिकारी था। उसकी पत्नी प्रीति संयुक्त राष्ट्र के एक प्रकाशन की संवाददाता थी और हफ़्ते में दो -तीन बार यूरोप के किसी प्रधान मंत्री का इंटरव्यू लेने या अंतराष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने यूरोप जाती थी। तब उनकी नई शादी हुई थी और मैं पहली बार उनके घर रहने गया था। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आनंद न सिर्फ़ नाश्ता खाना पकाता था बल्कि घर की साफ़ सफ़ाई भी बड़े क़ायदे से करता था। उसके बाद वे दोनों हॉंगकॉंग और सिंगापुर में भी तैनात रहे। उनके दो बच्चे हैं और वो ज़िंदगी में ऊँचे पदों पर रहे हैं। हम उनके घर हॉंगकॉंग और सिंगापुर भी रहने गए।हमें ये देख कर अच्छा लगा कि आज भी दोनों घर के सभी काम साझा करते हैं। हालांकि अब तो बरसों से उनके घर में एक हाउसकीपर महिला भी रहती है। पर ये उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि जब दो उच्च पदासीन व्यक्ति, अति व्यस्त अंतर्राष्ट्रीय जीवनशैली व आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद, बिना किसी आपसी तनाव के, अपने घर का संचालन और बच्चों का लालन-पालन मिल-जुलकर सहजता से कर सकते हैं तो वो जुगल जिनका जीवन इतना व्यस्त नहीं है ऐसा क्यों नहीं कर सकते? आज की शहरी ज़िंदगी में इस समझ की ज़्यादा ज़रूरत है।     

Monday, December 31, 2012

वीरांगना दामिनी की शहादत क्या बेकार जाऐगी ?

आखिरी दम तक दामिनी रानी झाँसी की तरह मौत से पंजा लड़ाती रही। न तो उसने हिम्मत हारी और न ही जीने की आस छोड़ी। उसकी तीमारदारी कर रहे डॉक्टर हैरान थे उसके आत्मविश्वास को देखकर। पर जंग लगी लोहे की छड़ ने उसके जिस्म में जो इन्फेक्शन छोड़ा, वही उसके लिए जानलेवा बन गया। छः पिशाचों के हमले के बाद दामिनी को लेकर युवाओं और मध्यमवर्गीय लोगों का जो सैलाब दिल्ली और देश की सड़कों पर उतरा, वह इस देश के लोकतंत्र के परिपक्व होने की दिशा में एक सही कदम था। सरकार भी सकते में आ गयी कि इस आत्मस्फूर्त जनाक्रोश से कैसे निपटें? पर दूसरे ही दिन राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं और असामाजिक तत्वों ने प्रदर्शनकारियों के बीच चुपके से घुसपैठ कर सारा माहौल बिगाड़ दिया। हिंसा हुई और पुलिस की बर्बरता भी सामने आई। बस यहीं से राजनीति शुरू हो गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार ठहराने लगीं। आन्दोलनकारी बलात्कारियों की फाँसी की मांग पर अड़े रहे। सरकार तय नहीं कर पाई कि कितना और कैसा कदम उठाये? आन्दोलन की आग देश के अन्य महानगरों तक भी फैल गयी। काँग्रेस के दो मंत्रियों ने बयान दिया कि इस तरह के जनाक्रोश से निपटने में अभी हमारी राजनैतिक व्यवस्था तैयार नहीं है। इस पूरी स्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की जरूरत है।
कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोŸोजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।
पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी0आई0पी0 बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी0आई0पी0 अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।
इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी0वी0 चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।
बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो वह दामिनी की शहादत को हिन्दुस्तान के आवाम की सच्ची श्रद्धांजली होगी।