Friday, January 15, 1999

युवाओं के बिना नहीं जीती जा सकती भ्रष्टाचार से लड़ाई


यह कोई नई बात नहीं कि देश का हर आदमी भ्रष्टाचार से त्रास्त है। पर क्या वजह है कि एक के बाद एक प्रधानमंत्रh भ्रष्टाचार से राहत दिलाने का वायदा करके कुर्सी पकड़ते हैं और कुछ ही दिनों में अपने असहाय होने का रोना रोकर अपने भ्रष्ट साथियों को हर तरह का संरक्षण देने में जुट जाते हैं। सब जानते हैं कि सत्ता के शीर्ष से लेकर प्रशासन के निचले स्तर तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। कोई भ्रष्टाचार में सीधे शामिल है और कोई भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने में लगा है। जिसके कारण रोजमर्रा की चीजों की किल्लत व महंगाई बढ़ती जा रही हैं। यह साफ है कि युवाओं में फैली बेरोजगारी, अरबों रूपए के घोटालों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण ही हो रही है। साधन संपन्न होने के बावजूद भारत की बहुसंख्यक आबादी बदहाली में इसलिए रह रही है क्योंकि भ्रष्टाचारियों ने देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट मचा रखी है। भ्रष्टाचार के कारण ही किसानों का शोषण हो रहा है और उन्हें उनकी फसल के वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं। नासिक कांड के वीभत्स बलात्कारियों का छूट जाना सिद्ध करता है कि पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण ही देश में महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। भ्रष्टाचार के कारण ही देश का आर्थिक विकास बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। क्योंकि प्रशासनिक अव्यवस्था व आधारभूत ढांचे की कमी से युवा उद्यमियों को आगे बढ़ने में दिक्कत आ रही है। भ्रष्टाचार रोकने के लिए बनी देश की सभी एजेंसियां इस काम में नाकाम सिद्ध हो चुकी हैं। बड़े भ्रष्टाचारी यह कह कर छूट जाते हैं कि भ्रष्टाचार तो आम जीवन में भी व्याप्त है। जबकि हकीकत यह है कि छोटे-छोटे काम करवाने के लिए आम आदमी को न चाहते हुए भी मजबूरन भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ रहा है।
इसलिए अब देश के नागरिकों में भ्रष्टाचार को लेकर भारी चिंता है। इसका प्रमाण यह है कि पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार व प्रशासनिक दुव्र्यवहार से लड़ने के लिए जागरूक नागरिकों व जन संगठनों ने अपने वैचारिक मतभेद भुलाकर पास आना शुरू कर दिया है। आने वाले हफ्तों में मुंबई, वर्धा व कई अन्य नगरों में जुझारू संगठनों को एक साथ लाने के लिए कई महत्वपूर्ण बैठकें होने जा रही हैं। जिनमें देश के तमाम संगठनों के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। यह महसूस किया जा रहा है कि जब तक देश के सभी चिंतित नागरिक विशेषकर युवा हर स्तर पर जन सतर्कता समितियां बना कर अपने इलाके के भ्रष्ट अधिकारियों व जन प्रतिनिधियों के विरूद्ध निरंतर अभियान नहीं चलाएंगे, कुछ सुधरने वाला नहीं है।
इस दिशा में देश भर के कुछ मशहूर संगठनों व लोगों ने मिलकर अभी हाल ही में एक पीपुल्स विजिलेंस कमीशनका गठन किया है। ताकि लोगों व संगठनों को एक जुट किया जा सके। यह जन आयोग प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश भर के चिंतित नागरिकों और युवाओं को लामबंद करने का प्रयास करेगा। इस आयोग की विशेषता यह है कि इसमें मजदूर और जन आंदोेलनों से लेकर उद्योगपति तक शामिल हैं। इनके अलावा वकालत, पत्राकारिता व शिक्षा से जुड़े लोग, विभिन्न व्यवसायों से जुड़े प्रोफेेशनल युवा, अप्रवासीय भारतीय, भारतीय प्रशासनिक सेवा के कार्यरत अधिकारी, सांसद व एक राज्य के मंत्राी तक इसमें शामिल हैं। पिछले दिनों देश के सुदूर प्रांतों से आए कुछ मशहूर और समर्पित इन लोगों ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तीन दिन तक दिल्ली में बैठकर गंभीर ंिचंतन किया। जिसमें कुछ रोचक बातें सामने आईं। इनसे देश में भ्रष्टाचार को लेकर चल रहे चिंतन की धाराओं को समझने में सुविधा होगी। इसीलिए इनका यहां विस्तृत उल्लेख आवश्यक है। 
अपने ही सहकर्मी भ्रष्ट आईएएस अधिकारियों के विरूद्ध अभियान चलाने वाले उत्तर प्रदेश के विजय शंकर पांडे का कहना था कि कानून में इतने सारे प्रावधान है जिनका सहारा लेकर ईमानदार अधिकारी जनता के हित में कुछ भी बेधड़क कर सकते हैं। कोई राजनेता उन्हें छू भी नहीं सकता। उन्होंने बताया कि भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध एक जुट हुए उत्तर प्रदेश के उनके साथियों ने मिलकर तमाम ऐसे पत्राक तैयार किए हैं जिसमें ऐसी शंकाओं के समाधान बताए गए हैं। उधर आईएएस की नौकरी में रहकर आजीवन सादगी से जीवन बिताने वाले और बस्तर के आदिवासियों के हक की लंबी लड़ाई लड़ने वाले बीडी शर्मा का मानना है कि जब तक प्रशासनिक व्यवस्था पर जनता का नियंत्राण नहीं होगा तब तक भ्रष्टाचार पनपता रहेगा। उन्होंने बताया कि संविधान के हाल में हुए संशोधन के बाद अब जन जातीय इलाकों की ग्राम सभाओं को यह अधिकार मिल चुका है कि वे अपने गांव की हर व्यवस्था पर सीधा नियंत्राण रखें। उन्होंने यह भी बताया कि जहां-जहां यह जानकारी फैलती जा रही है वहां-वहां स्थानीय प्रशासन की जनता के प्रति जवाबदेही बढ़ती जा रही है। उधर महाराष्ट्र के एक साधारण से परिवार से आईएएस में आने के बावजूद युवा अवस्था में ही नौकरी छोड़कर महाराष्ट्र के युवाओं को चाणक्य मंडल बना कर संगठित करने में जुटे पुणे के अविनाश धर्माधिकारी का कहना था कि आज हालत इतनी खराब हो गई है कि अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी जनता का काम ईमानदारी से करता है तो जनता उसके प्रति कृतज्ञ हो जाती है। जबकि यह लोगों का हक है कि अधिकारी ईमानदारी से उसकी सेवा करे। इसलिए इस विषय में जागृति फैलाने की जरूरत है।
इनके अलावा मेगासेसे एवार्ड से सम्मानित मशहूर पर्यावरणवादी व सुप्रीम कोर्ट के वकील एमसी मेहता ने जोरदेकर कहा कि कोई भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरूद्ध लंबे समय तक अकेले नहीं लड़ सकता। उसे तमाम तरह की मुसिबतों का सामना करना पड़ता है। इसलिए संगठित लड़ाई की जरूरत है। अभी हाल ही में 70 लाख रूपए के एक अमेरिकी पुरस्कार को लात मार देने वाले, जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) के संयोजक व विश्व मछुआरा संगठन के अध्यक्ष, केरल के टाॅमस कुचैरी का मानना था कि जब तक काॅलेजों के युवा स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक जुट होकर नहीं लड़ेंगे कोई लड़ाई कामयाब नहीं हो सकती है। गुजरात के युवाओं में देशभक्ति और सामाजिक चेतना का प्रसार करने वाले युवा इंजीनियर संजीव शाह व उनकी सहयोगी माया सोनी का मत था कि लड़ने के साथ व्यक्तित्व निर्माण भी बहुत जरूरी है। बिना आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के लड़ी गई लड़ाई बहुत दूर तक नहीं जाएगी। मेधा पाटेकर के घनिष्ठ सहयोगी और बिहार आंदोलन की मशाल आज तक ईमानदारी से जलाए रखने वाले डा. सुरेश खैरनार को उन लोगों से खतरा लगता है जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन में राजनैतिक लाभ की आकांक्षा से आते हैं और फिर धोखा देकर भाग जाते हैं। बिहार आंदोलन और वीपी सिंह के अभियान के बाद उपजी स्थिति के प्रति आगाह करते हुए उन्होंने ऐसी स्थिति से सचेत रहने की आवश्यकता पर जोर दिया। इंग्लैंड व आईआईटी कानपुर से पढ़ने के बाद पिछले दस वर्षों से मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ इलाके के मजदूरों और आदिवासियों के साथ संघर्षों का जीवन जीने वाली सुधा भारद्वाज को इस बात की खुशी थी कि अब केवल मजदूर ही नहीं बल्कि राहुल बजाज जैसे बड़े-बड़े उद्योगपति भी मल्टीनेशनल कंपनियों के खतरों के प्रति चिंतित हो रहे हैं। उन्होंने इस बात पर आक्रोश व्यक्त किया कि मजदूरों के हक में बने कानून लागू करवाने के लिए भी एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। कभी-कभी तो शहादत देनी पड़ती है। इसलिए उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो लड़ाई छिड़े उसमें मजदूर की इन तकलीफों का अगर ध्यान रखा जाएगा तो इस लड़ाई को बहुत बड़े वर्ग का समर्थन मिलेगा।
उद्योग व व्यापार क्षेत्रा का प्रतिनिधित्व करते हुए इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट (अहमदाबाद) के छात्रों की एल्यूमनि एसोसिएशन के प्रतिनिधि राजस्थान के राजन सांघी व दिल्ली के युवा चार्टेड एकाउंटेंट व सामाजिक कार्यकर्ता पंकज अग्रवाल का कहना था कि ऐसा नहीं है कि उनकी जमात के लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर चिंता नहीं है या वे कुछ करना नहीं चाहते। उन्होंने बताया कि जब तक प्रशासन से भ्रष्टाचार को दूर नहीं किया जाएगा उद्योग और व्यापार चलाना और भी मुश्किल होता जाएगा। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि जहां छोटे-छोटे लोगों को तंग किया जाता है वहीं बड़े-बड़े अधिकारी करोड़ों रूपए की रिश्वत कमा कर भी कानून की गिरफ्त से बच जाते हैं। जिसे हर कीमत पर रोकनाचाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने के वायदे वाला प्रचार अभियान तैयार करने वाले युवा व काॅन्ट्रेक्ट एडवरटाइजिंग कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी सुशील पंडित का मानना है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हर विचारधारा के मानने वाले नौजवानों और नागरिकों को एक साथ सामने आना चाहिए। वरना कोई भी सरकार क्यों न हो भ्रष्टाचार नहीं रोक पाएगी और जनता इसी तरह त्रास्त रहेगी। श्री पंडित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़े रहे हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्राध्यापक व समाजशास्त्राी आनंद कुमार ने इस बात पर जोर दिया कि युवाओं के सामने आदर्श का अभाव हो गया है। जबकि देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में नैतिक मूल्यों के लिए लड़ाई लड़ी और जीती। ऐसे लोगों की जिम्मेदारी है कि वे काॅलेज और विश्वविद्यालय परिसरों में युवाओं को प्रशिक्षित करने वाले शिविरों में जाएं ताकि जुझारू नौजवानों की एक फौज खड़ी हो सके। मशहूर चिंतक प्रो. आशीष नंदी ने तो यहां तक कहा कि अगर भ्रष्टाचार में लिप्त लोग भी इस आंदोलन को मदद देने आएं तो हमें संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि लड़ाई की इस प्रक्रिया से ही उनकी भी शुद्धि होगी। जाहिर है कि कि जब वे ऐसी हिम्मत करेंगे तो उन्हें इसके परिणामों का अनुमान होगा। टाइम्स आॅफ इंडिया पटना के संपादक व कुछ समय पहले तक जनेवि के छात्रा नेता रहे नलिनिरंजन मोहंती को लगता है कि सूचना का अधिकार मिले बिना भ्रष्टाचार के पूरे तंत्रा को पकड़ पाना सरल न होगा। 
गुजरात के वर्तमान आपूर्ति मंत्राी जसपाल सिंह ने जोर देकर कहा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस दल में हैं। यदि आप भ्रष्टाचार से लड़ने की कमर कस लें तो भी आप अपनी जगह बने रह सकते हैं। उन्होंने स्वीकारा कि कई बार सब कुछ कर पाना संभव नहीं होता पर गलत का विरोध कर पाना भी एक उपलब्धि है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समाज के विभिन्न वर्गों और व्यवसायों से जुड़े देशभर के लोगों की ये टिप्पणियां इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि जो जहां है वहीं भ्रष्टाचार से त्रास्त है और इससे निजात पाना चाहता है। यह भी सच है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध बोलने वाले कुछ लोग भी कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो समझौते जरूर किए बैठें हैं। पर यह भी सच है कि अगर मुल्क के हालात ठीक हों तो कोई क्यों ऐसा करेगा ? क्या वजह है कि वहीं हिंदुस्तानी विदेशों में कानून तोड़ने की हिम्मत नहीं करते ? बिना भ्रष्ट आचरण के तरक्की करते हैं। हमारे देश के हुक्मरान यदि वाकई चाहें तो यहां भी ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं। जब वे ऐसा करने में कमजोरी दिखाएं तो फिर जाहिरन यह जिम्मेदारी युवाओं व समाज के जागरूक नागरिकों के ऊपर आ जाती है कि वे मुल्क के निजाम को ठीक रास्ते पर लाने के लिए तत्परता से सक्रिय हों। युवाओं में आदर्श होता है। उनमें निडरता होती है। उन्हें बुराई से लड़ने में आनंद आता हैं। उन्हें सिर्फ अनुभवी लोगों की सलाह की जरूरत होती है। दुनियां में जहां भी बदलाव आ रहे हैं उनकी साझी ताकत से ही आ रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरूद्ध इंडोनेशिया में चल रहे छात्रा आंदोलन ने वहां की सरकार की नींवे हिला दी है। युवाओं की अगुवाई के बिना न तो कोई क्रांति सफल हुई है और न ही कोई राष्ट्र मजबूत बना है।

Friday, January 8, 1999

धार्मिक उन्माद या आक्रोश

पिछले दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश के ईसाई मिशनरियों पर विहिप और बजरंग दल वालों के हमलों को कोई भी समझदार व्यक्ति ठीक नहीं ठहराएगा। सभ्य समाज में विरोध प्रकट करने का यह कोई तरीका नहीं है। पर साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है। कि शोर मचाने वाले क्या वास्तव में धार्मिक उन्माद के विरुद्ध हैं या केवल हिन्दुओं को ही नीचा दिखाना चाहते हें ? यदि यह विरोध हिन्दू बहुसंख्यकों द्वारा ईसाई अल्पसंख्यकों के प्रति किये जा रहे अत्याचारों के विरोध में है तो यह नहीं भूलना चाहिये कि इसी देश के उन हिस्सों में जहां ईसाई बहुसंख्यक हैं वहां के गैर ईसाइयों के प्रति कैसा व्यवहार हो रहा है ? पर उसकी तरफ इन लोगों को ध्यान नहीं जाता।

ईसाई मिशनरियों ने नागालैंड की बड़ी आबादी का धर्म परिवर्तित करवा कर उन्हें ईसाई बना दिया।वहीं जिमी नागा नाम की स्थानीय जनजाति ने ईसाई धर्म स्वीकारने से मना कर दिया। इसी तरह मशहूर रानी ग्याडलू के अनुयायी भी अपने पारंपरिक धर्म का निर्वाह करते है। ऐसे सभी गैर ईसाई नागरिकों पर ईसाइयों के अत्याचारों की कहानी मुख्य धारा के मीडिया की खबर क्यों नहीं बनती ? क्या यह हैरानी की बात नहीं कि नागालैंड की सरकार अपनी जनगणना तक में इन गैर ईसाई समुदायों का उल्लेख तक नहीं करती। इस राज्य में इ्रसाई पादरियों और उनके नेता विशपों की तूती बोलती है। राज्य का प्रशासन इन लोगों के इशारे पर चलता है। जिसमें गैर ईसाई उपेक्षित रहते है और प्रताडि़त किये जाते है। ंइसी तरह मेघालय राज्य के बहुसंख्यक ईसाई लोग स्थानीय खासी प्रजाति के गैर ईसाई जन समुदाय पर तमाम तरह के अत्याचार कर रहे हैं।

मानवीय करुणा और विश्व प्रेम का संदेश देने के वाले ईसाई धर्मावलंबियों ने दक्षिणी अफ्रीका के ही नहीं अमरीका तक के अश्वेत नागरिकों पर कैसे अमानवीय अत्याचार किये हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यदि वास्तव में ईसाई मिशनरी दीनदुखियों की सेवा करना चाहते हैं तो इससे किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है ? किन्तु यदि सेवा ही मुख्य भाव है तो धर्म परिवर्तन का यह विश्वव्यापी अभियान क्यों ? भारत के गरीब इलाकों के तमाम लोग बतायेंगे कि उन्हें दवा, शिक्षा, भोजन या रोजगार देने के नाम पर किस तरह ईसाई बनने को ललचाया गया। इसमें शक नहीं है कि देश के सुदूर इलाकों में, कठिन परिस्थितियों में जाकर ईसाई मिशनरियों ने अस्पतालों और स्कूलों का एक बहुत बड़ा जाल फैला दिया है। जिससे ईष्र्या करने का विहिप वालों को कोई हक नहीं है यदि उन्हें मुकाबला ही करना है तो एक विेशष अभियान चलाकर ऐसे पिछ़ड़े इलाकों में स्वास्थ्य, कुपोषण और शिक्षा की सेवाओं का तंत्र विकसित करना चाहिये। हताशा में हमले करने से सहयोग और सहानुभूति नहीं आलोचना ही मिलेगी।पूर्वोत्तर राज्यों में जहां विहिप ने इस दिशा में कुछ प्रयास शुरू किये हैं वे न तो समुचित हैं और न प्रभावी ही। उधर देश के बहुसंख्य हिन्दू समाज में जहां मंदिरों में पंडे पुजारियों को मोटी मोटी भेंट चढ़ाने की प्रथा है वहीं समाज के निरीह लोगों को सबल बनाने के कार्यक्रमों में उनकी विेशष रूचि नहीं है। जिसे पैदा करना विहिप जैसे संगठछनों का काम होना चाहिये। दूसरी तरफ ऐसा नहीं है कि ईसाई मिशनरी केवल धर्म परिवर्तन और सेवा के काम में ही जुटे हैं।अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो पता चलेगा कि सेवा के नाम पर इन संस्थाओं में भी क्या क्या हो रहा है?

तेजपुर (मेघालय) के थाने में एक रिपोर्ट दर्ज है कि ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज संस्था ने ढाई बरस की बेबी सेसली नाम की एक अबोध बालिका को अवैध रूप से गायब कर दिया है। चूंकि इस शिकायत को मार्च 1998 में तेजपुर के आयुक्त की पत्नी श्रीमती नीरू ने दर्ज कराया था इसलिये इस मामले में तेजपुर के डी सी श्री नव कुमार चेतिया ने स्वयं जांच की और चैकाने वाली जानकारी हासिल की। इस लड़की को संस्था की ननों ने अनाथ बताकर अपने अनाथालय में रखा हुआ था। कुपोषण की शिकार जब इस लड़की की हालत बिगड़ने लगी तो उन्होंने श्रीमती नीरू से मदद मांगी कि वे उसका इलाज सरकारी अस्पताल में करवादें। चूंकि आयुक्त की पत्नी अक्सर इस अनाथालय में बच्चों की जरूरत के सामान इकट्ठा करके देने जाती थीं इसलिय उनकी बेबी सेसली में स्वाभाविक रूचि थी। पर फिर अचानक क्या हुआ कि ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज संस्था की ननों ने तेजपुर के सरकारी अस्पताल के डाक्टरों पर बेहद दबाव डालकर बच्ची को बेहद नाजुक हालत में अस्पताल से छुट्टी करवा ली। शायद उन्हें यह डर हुआ कि गरीबों की सेवा का जोर शोर से दावा करने वाली इस संस्था के बच्चों के कुपोषण की बात अखबारों तक न चली जाए। श्रीमती नीरू को जब यह पता चला तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने तहकीकात की तो संस्था की ननों ने बताया कि बेबी सेसली के मां बाप अरुणाचल से आये थे और जबरदस्ती बच्ची को ले गये। अनाथ बच्ची के मां बाप कैसे पैदा हो गये इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था।तेजपुर के जिलाधिकारी ने जब संस्था के बताये पते पर सेसली के मां बाप की खोज की तो मालू चला कि वह पता फर्जी था। इसके बादउस इलाके के बिशप और तमाम दूसरे पादरियों ने श्रीमती नीरू पर बेहद दबाव डाला कि वे अपनी एफआईआर वापिस ले लें, जो उन्होंने नहीं ली। इस पूरे प्रकरण में सेवा के नाम पर चल रहे अबोध बच्चों के एक रहस्यमय कारोबार का पर्दाफाश हुआ है।

यह पहली बार नहीं हुआ। कुछ समय पहले ही इंग्लैंड के प्रतिष्ठत अखबार ‘ दी गार्डियन’ में एक अंग्रेज पीटर टेलर नाम के ब्रिटिश वायुसेना के पायलट रहे व्यक्ति के कटु अनुभव प्रकाशित हुए थे। पीटर स्वयं कैथलिक ईसाई हैं। 1984 से लेकर 1994 तक उनका ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज’ से संबंध रहाथा। इन दस वर्षों में वे बतौर स्वयंसेवी के इस संस्था के भारत में स्थापित केन्द्रों से जुड़े रहे थे। जहां बीमार और लावारिस गरीब बच्चों की ‘देखभाल’ की जाती है लेकिन श्री टेलर को इस बात का भारी दुख है कि आशादान नाम के इन केन्द्रों में कुछ बच्चों को यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ता है। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है। श्री टेलर का आोप है कि सेवा के बहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म के प्रचार को प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कई मरीजों की ठीक से देखभाल नहीं हो पाती और उनकी हालत बिगड़ने दी जाती है। ‘‘क्या गाॅड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी करदी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोड़ दिया जाए’’ ? श्री टेलर पूछते हैं।

दरअसल धर्म के नाम पर लोगों को फुसलाने, उनसे धन वसूलने और अपनी सतता और शक्ति का विस्तार करने का कारोबार सदियों से चल रहाहै। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं । जहां सेवा करने वालों के जीवन में त्याग, सदगी, सच्चाई, करुणा और प्रेम है वहां सच्ची सेवा का दर्शन होता है। जहां भोग, विलासिता, अंतर्राष्ट्रीय संगठन, बड़े बडे़ अनुदान, बड़े पदों के लिये लड़ाई और प्रचार की भूख है, वहां धोखाधड़ी है, आंडबर है, शोषण है और सत्ता व साधनों का दुरुपयोग है। ईसाई मिशनरियों के बारे में यूरोप के प्रतिद्ध इतिहासकार ााॅमसन ने कहा था कि, ‘जहां जहां ईसाई मिशनरी गये वहां वहां उनके पीछे तलवाई गयी वहां वहां झंडा गया।’ यानी ईसाइयों की सत्ता कायम होती चली गयी चूंकि धर्म का संबंध आस्था, विश्वास व भावना से है इसलिये समाज का बहुत बड़ा हिंस्सा धर्म से स्वतः प्रभावित हो जाता है। जब एक बार लोग किसी धर्म के प्रभाव में आ जाते हैं तो उस धर्म के राजनेताओं को अपनी सत्ता स्थापित करने में काफी सुविधा होती हे। विदेशों में जन्में इस्लाम और ईसाईयत दोनों इसके प्रमाण हैं। जबकि भारत की भूमि में पनपे दर्शन के पीछे राजसत्ता पाने की ललक कभी नहीं रही।। दर्शन को आत्मा और परमात्मा के बीच सेतु बंधन का उपकरण माना गया या मानव कल्याण का। यूं अपवाद यहां भी हैं पर इतिहास साक्षी है कि सनातन धर्म वालों ने धार्मिक प्रचार को कभी भी अपना लक्ष्य नहीं बनाया न ही इसके लिये कभी भी संगठित होकर किसी रणनीति के तहत कोई कार्यक्रम चलाया। यही कारण है कि सगुण उपासक से लेकर भौतिकतावादी चार्वाक तक को सनातन धर्म ने सहज स्वीकार किया। इसलिये हिन्दुओं को यह देखकर चिंतित व उत्तेजित होना स्वाभाविक है कि उन्हीं के देश में विदेशी लोग विदेशी धर्म को बाकायदा एक अभियान के तहत फैला रहे हैं। जिससे समाज में असंतुलन और विेद्वेष पनप रहाहै। मध्ययुग में चूंकि इस्लामी शासकों की हुकूमत रही इसलिये बहुसंख्यक हिन्दू समाज को अपमानका घूंट पीकर जीना पड़ा। धर्मनिरपेक्षतावादी चाहे जितना समझाने की कोशिश करें पर इसमें शक नहीं है कि मध्य युग में हिन्दुओं के धर्म पर भारी हमले हुए। उनके धर्म स्थान तोड़े गये। उन्हें धर्म परिवर्तन के लिये मजबूर किया गया। उनके बहुमूल्य ग्रंथों और पाण्डुलिपियों को जलाया गया। उनकी आस्थाओं पर कुठाराघात किया गया।

अंग्रेजी शासनकाल में इस सबसे राहत मिली तो दूसरी तरह का हमला हुआ। जिसमें बिना तलवार के ही हिन्दुओं के धर्म,संस्कार और मूल्यों की जड़ें काट दी गयीं। हिन्दु समाज को उम्मीद थी कि आजादी के बाद उन्हें फिर से अपनी परंपराओं के निष्पक्ष मूल्यांकन और अपनी संस्कृति के विस्तार का स्वाभाविक अवसर मिलेगा । पर ऐसा नहीं हुआ। रूस की गिरफ्त के शिकार भारतीय सत्ताधीशों ने धर्मनिरेक्षता के नाम पर एक अजीब स्थिति पैदा कर दी। जिसमें अपने ही देश में अपनी परंपराओं और वैदिक ज्ञान की बात करने वाले दकियानूसी समझे लाने लगे। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जहां बहुसंख्यक हिन्दू समाज को दबाया गया वहीं मुस्लिम साम्प्रदायिकता को पनपने दिया गया। इतना ही नहीं धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की धोखाधड़ी तक को रोका नहीं गया।क्या वजह है कि आज ईसाई धर्म प्रचारक केसरिया रंग का चोगा पहनकर घूमने लगे हैं ? जबकि उनके धर्म का वस्त्र सफेद रंग का होता है। क्या वजह है कि देश के अनेक इलाकों में अब गिरिजाघरों को प्रभु यीशू का ‘मंदिर’ बताकर प्रचारित किया जा रहा है ? क्या वजह है कि सेवा और करुणा की बात करने वाले ईसाई धर्म प्रचारक पिछड़े इलाकों में ‘फेथ हीलिंग’के भारी भारी शिविर लगाकर लोगों को गुमराह कर रहे है। ? साफ जाहिर है कि हिन्दू समाज के प्रतीकों और आस्थाओं को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने प्रचार की रणनीति में अभूतपूर्व बदलाव किया है। ताकि ज्यादा से ज्यादा समाज को अपनी ओर खींच सके और उनका धर्म परिवर्तित करवा सकें। एक तरफ धर्म परिवर्तन का यह सुनियोजित अभियान चल रहा हो और दूसरी तरफ बहुसंख्यक हिन्दू समाज को बार बार धर्मांध और कट्टरपंथी कह कर प्रचारित किया जाये यह कहांकि समझदारी है। इससे तो आक्रोश भड़केगा और उसकी परिणति फिर बजरंग दल जैसे संगठनों में ही होगा। ऐसे धार्मिक उन्माद को रोक पाना सत्ताधीशों के लिये सरल नहीं होगा। मगध के सम्राट अशोक मौर्य से लेकर मुगल शासक अकबर तक की एक धर्मनीति हुआ करती थ। भारत जैसे धर्म प्रधान देश में क्या भारत सरकार की एक धर्म नीति हो, इसकी आवश्यकता नहीं ? क्या धार्मिक संस्थाओं, स्थानों व संगठनों की समस्याओं और विवादों को सुलझाने के लिये भारत सरकार में विशेष विभाग की जरूरत नहीं है ? क्या इनके कामकाज और धन संग्रह व खर्च के तौर तरीकों में पारदर्शिता लाने वाले कानूनों की जरूरत नहीं है ? यदि हां तो फिर देर किस बात की ? धर्म से जुड़ी समस्याओं से आंख मूंद कर या उन्हें अदालतों में लटका कर हम उनका हल नहीं ढूढ सकते।

Friday, January 1, 1999

छवि सुधारने की रणनीति


दो-तीन जनवरी को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी, बंगलौर में अपनी छवि सुधारने की रणनीति बनाएगी। भाजपा नेतृत्व यह बात तो समझता ही होगा कि  सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से नाटक या सिनेमा के पात्रों का चेहरा-मोहरा बदला जा सकता है, असली जीवन के पात्रों का नहीं। कलाकारों को तो कुछ क्षणों के लिए ही नाटकीय भूमिका निभानी होती है जबकि असली जीवन में व्यक्ति के आचरण, कार्यों और व्यक्तित्व से ही छवि बनती है, रणनीति बनाने से नहीं। लालू यादव, ओम प्रकाश चैटाला, सुखराम, बूटा सिंह व जयललिता जैसे राजनेताओं की जो भी छवि जनता के दिमाग में बन चुकी है उसे केवल रणनीति बनाकर ही ये नेता बदल नहीं सकते। ठीक ऐसे ही सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्राी व जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं की जो छवि उनके त्यागमय आचरण से बनी थी उसे आज तक कोई बदल नहीं पाया। अगर भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व का निष्पक्ष मूल्यांकन करें तो कुछ बातें बिल्कुल साफ नजर आती है। सबसे पहली कमी जो भाजपा के नेतृत्व में दिखाई देती है वह है उसका किसी भी मुद्दे पर कभी न टिक पाना। पिछले दस बरस में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने हर मुद्दे पर अपने बयान और अपने कदम को इतनी बार बदला है कि उसकी विश्वसनीयता शून्य हो चुकी है।
सबसे ताजा घटना है पेटेंट बिलको लेकर भाजपा की फजिहत। भाजपा के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय संसदीय मंत्राी मदनलाल खुराना ने पहले कहा कि, ‘बिल छपने में देर हो गई।फिर कहा कि, ‘राष्ट्रपति भवन ने बिल भेजने में देर कर दी।जब वहां से स्पष्टीकरण आया कि उन्हें बिल मिला ही नहीं था तो खुराना जी ने कहा कि, ‘अफसरों ने बदमाशी की।अगर कल अफसर ये सिद्ध कर दें कि उनकी तरफ से कहीं कमी नहीं हुई तो शायद खुराना जी कहेंगे कि ड्राइवर कोहरे के कारण गाड़ी ठीक से नहीं चला सका इसलिए बिल पहुंचने में देर हो गई। पार्टी सूत्रों का कहना है कि असलियत कुछ और है, वह यह कि आडवाणी जी नहीं चाहते थे कि यह बिल संसद में पेश हो। इसलिए उन्होंने खुराना जी को इशारा कर दिया था। सच्चाई जो भी हो इस हादसे ने यह साफ कर दिया कि भाजपा का एक वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता तक एक दिन में तीन बयान बदलने की गुस्ताखी करके भी अपनी कुर्सी पर टिका रहता है। भाजपा में किसी की हिम्मत नहीं है कि वे ऐसे अकुशल मंत्राी को इतनी बड़ी लापरवाही के बाद पदमुक्त कर दें।
भाजपा के मुंबई अधिवेशन में तय किया गया था कि भाजपा भ्रष्टाचार को अपना चुनावी मुद्दा बनाएगी। भाजपा नेतृत्व ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध तब बड़े जोशीले भाषण दिए थे। पर जैसे-जैसे भाजपा के नेता किसी न किसी कांड में फंसते गए या जैसे-जैसे भाजपा शासित राज्यों की सरकारों मेें व्याप्त भ्रष्टाचार के चर्चे आम होने लगे- भाजपा नेतृत्व ने इस मुद्दे को न छूने में ही भलाई समझी। फिर अभी पिछले चुनाव में ही श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भ्रष्टाचार के विरूद्ध मसीहा बनाकर प्रचारित किया गया। पर पिछले आठ महीनों के शासन के दौरान जनता को कुछ दूसरी ही सच्चाई का सामना करना पड़ा। जिन सुखराम पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर भाजपा सांसदों ने तेरह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। उन्हीं सुखराम को आज भाजपा ने अपनी प्रांतीय सरकार में कैबिनेट मंत्राी का दर्जा दे रखा है। क्या भाजपा ऐसी गंगा है जिसमें शामिल होते ही व्यक्ति के जीवन में लगे तमाम दाग धुल जाते हैं ? पर ऐसा नहीं होता। भाजपा शासित किसी भी राज्य का कोई भी सरकारी दफ्तर नहीं है जहां भ्रष्टाचार में पहले के मुकाबले रत्तीभर भी कमी आई हो।
आज तक भाजपा नेतृत्व राम मंदिर के निर्माण से लेकर हिंदू-राष्ट्र बनाने तक को अपनी रणनीति का अहम् हिस्सा मानता था। इसी भावना को भुनाकर उसने हिंदुओं के बीच अपने जनाधार का इतना विस्तार किया। आज वही नेतृत्व इस सब के विरूद्ध बोल रहा है। इतना ही नहीं, कुर्सी से चिपके रहने के लालच में राम मंदिर आंदोलन को अपनी एक भूल बता रहा है। यही कारण है कि जिन साधु-संतों और महंतों ने राम-रथ यात्रा के बाद भाजपा के चुनावी अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था वे सब आज उससे नाराज बैठें हैं। संघ या भाजपा के किसी व्यक्ति में शायद इतनी हिम्मत नहीं कि वे भाजपा नेतृत्व से इसकी वजह पूछें। आपातकाल में संघ ने सड़कों पर उतर कर सत्ता का विरोध किया था। अगर उसे वाकई भाजपा से नाराजगी है तो क्यों नहीं आज संघ यही करता ? क्यों नहीं संघ अपने प्रतिनिधियों को भाजपा में से वापिस बुलाता ? अभी तो ऐसा संदेश जा रहा है कि संघ अपनी खाल बचाने के लिए विरोध का नाटक कर रहा है जबकि अंदर से उसकी भाजपा से मिली भगत है।
वैसे संघ के वरिष्ठ नेता व स्वदेशी जागरण मंच के आधार स्तंभ श्री दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी का केंद्रीय सरकार  के विरूद्ध सड़कों पर प्रदर्शन करना बताता है कि उनके मन में भाजपा नेतृत्व के विरूद्ध कितना आक्रोश है। स्वदेशी का नारा तो सौ बरस पहले ही स्वतंत्राता संग्राम के दौरान दिया जाने लगा था। इसलिए इस  विषय में घरेलू आर्थिक दबाव और राजनैतिक सीमाओं की जानकारी सभी राजनेताओं को लंबे अरसे से है। कोई भ्रांति नहीं है। जिनकी इसमें आस्था है वे आज तक इस पर टिके हुए हैं जैसे गांधीवादी कार्यकर्ता, चिंतक और विशेषज्ञ। जिनकी आस्था नहीं है वे अपनी बात मनवाने से पीछे नहीं हटते। पर भाजपा नेतृत्व ने इस मामले में बेहद ढुलमुलपन का परिचय दिया है। ये बात करते हैं स्वदेशी की और भागते हैं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पीछे। बार-बार  इनका दोहरापन कार्यकर्ताओं में हताश फैलाता है। स्वदेशी के मामले पर भाजपा नेतृत्व क्यों नहीं अपनी समझ साफ कर लेता ? जो तय करे, उस पर टिके। तब तो लगे कि नेतृत्व दमदार है। फिर दमादार नेतृत्व को छवि बनाने के लिए अधिवेशन नहीं करना पड़ेगा। उसके काम से छवि अपने आप बन जाएगी।
लंबे अरसे से भाजपा कुशल प्रशासक होने का दावा करती आई है। किंतु केंद्र से लेकर जिन प्रांतों में भी भाजपा की सरकारें हैं वहां की असलियत कुछ और ही कहानी कहती हैं। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां ग्राम पंचायतों से लेकर जिला परिषदों और प्रांतीय सरकार तक सब जगह भाजपा का बहुमत है। इसलिए गुजरात को भाजपा के काम के नमूने का आदर्श राज्य होना चाहिए। पर वहां की स्थिति क्या है इसका वर्णन भाजपा के ही प्रमुख नेताओं के बयानों से साफ हो जाएगा। 27 दिसंबर 1998 को भाजपा के सांसद व सिने अभिनेता शत्राुघ्न सिन्हा ने खेड़ा जिले के निसराया ग्राम में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए गुजरात सरकार का जो खाका खींचा उससे वहां मौजूद चालीस हजार ग्रामवासियों के ठहाके से सारा पंडाल गूंज उठा। यह तब हुआ जबकि गुजरात के मुख्यमंत्राी केशुभाई पटेल मंच पर आसीन थे। श्री पटेल की सरकार की लोकप्रियता का पता तब चला जब श्री पटेल का भाषण शुरू हुआ। जनता फौरन भारी तादाद में उठकर चल दी। गुजरात सरकार के ही एक वरिष्ठ और आम जनता में लोकप्रिय मंत्राी श्री जसपाल सिंह का कहना है कि गुजरात सरकार के ढीलेपन से जनता इतनी खीज चुकी है कि अगर आज चुनाव हों तो उसे भारी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। भाजपा में रह कर ही जनहित में ठोस काम करने को बेताब रहने वाले जसपाल सिंह जैसे लोगों को शिकायत है कि उनके काम में रोड़े अटकाए जाते हैं।
उधर गुजरात में तैनात कुछ ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि भाजपा, विहिप, संघ व बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने उनकी नाक में दम कर रखा है। भ्रष्ट, निजी और अनैतिक काम करवाने में ये कार्यकर्ता किसी मामले में कांग्रेसियों से पीछे नहीं हैं। इन अधिकरियों का कहना है कि अगर कार्यकर्ता वाकई जनहित में, निस्वार्थभाव से व ईमानदारी से काम करवाने के लिए दबाव डालें तो उन्हें खुशी ही होगी। पर होता ये है कि गलत काम करने को मना करने वाले अधिकारियों को छोटे-छोटे कार्यकर्ता भी तबादले की धमकी देते हैं। दरअसल आज हालत ये हो गई है कि राजनीतिक दलों में विशुद्ध जनसेवा की भावना से काम करने वालों का टोटा हो गया है। भाजपा का ही कार्यकर्ता जब देखता है कि उनका जो नेता बीस बरस पहले पांचजन्य अखबार की तीसरी मंजिल पर हाथ से रोटी बनाकर खाता था वो आज पांच सितारा जिंदगी जी रहा है तो उसे भी आर्थिक सुरक्षा का भय सताने लगता है। इसीलिए राजनीति सेवा नहीं व्यवसाय बन कर रह जाती है। अपनी छवि सुधारने को बेचैन भाजपा के शिखर नेतृत्व को यह सोचना होगा कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश कैसे लगाया जाए भगवान् गीता में कहते हैं कि, ‘जो कुछ श्रेष्ठजन आचरण करते हैं वही आमजन अनुसरण करते हैं।अगर भाजपा का शिखर नेतृत्व और उसके मंत्राी व मुख्यमंत्राी आधुनिकता के तमाम दबावों के बावजूद सादा जीवन-उच्च विचारके सिद्धांत पर चल सकें तो इसका गहरा प्रभाव कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। ये असंभव नहीं है। समाजवादी विचार वाले सुरेंद्र मोहन जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्राी व राजनेता दिल्ली में जिस सादगी से रहते रहे हैं वह भाजपा के ज्यादातर मंत्रियों के आचरण में दिखाई नहीं देती। जबकि संघ में इस पर काफी जोर दिया जाता है।
छवि सुधारने की चिंता में भाजपा का शिखर नेतृत्व मीडिया को संभालने की योजना भी बनाएगा। ऐसा संकेत उसके बयानों से मिल रहा है। भाजपा के नेतृत्व को लगता है कि मीडिया ने पिछले चुनावों में उस पर नाहक हमला किया। पर भाजपा वाले ये क्यों भूल जाते है कि मीडिया अमूमन जनभावनाओं का ही प्रदर्शन करता है। मार्च में जनभावना भाजपा के काफी पक्ष में थी। सबको श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भारी उम्मीदें थीं। अक्टूबर आते-आते लोगों का भ्रम टूट गया। अगर मीडिया ने इस बात को सही-सही जनता के सामने रखा तो इस पर भाजपा के नाराज होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। हां उन लोगों की बात फर्क है जो रागद्वेष की भावना से ग्रस्त होकर पत्राकारिता करते हैं। किंतु तकलीफ यह देखकर होती है कि भाजपा का नेतृत्व भी मीडिया से ये उम्मीद करता है कि वे चाहे जो करें पर उनकी सुंदर छवि ही जनता के बीच प्रस्तुत की जाए। निष्पक्ष और जागरूक पत्राकार भला ऐसा क्यों करेंगे ? अगर वाकई भाजपा को मीडिया में अपनी छवि सुधारने की चिंता है तो उसे चाहिए कि ऐसे तमाम समाचारों और लेखों पर वह चैकन्नी निगाह रखे जिसमें उसके कामों और नीतियों की आलोचना होती है।  ऐसी हर स्वस्थ आलोचना का तुरंत और संतुष्टिपूर्ण जवाब भाजपा नेतृत्व की तरफ से उस पत्राकार के पास भेजा जाना चाहिए। तब एक ऐसा संबंध विकसित होगा जो स्वतः भाजपा को उसकी छवि सुधारने में मदद करेगा। देखना ये है कि बंगलौर के अधिवेशन में भाजपा का नेतृत्व वास्तव में अपने तौर-तरीके बदलने को तैयार होता है या चेहरे पर क्रीम-पाॅवडर पोत कर छवि सुधारने की रस्म अदायगी करता है ? क्योंकि देश में अभी भी बहुत से लोग हैं जो न तो चुनाव चाहते हैं और न ही यह माने को तैयार हैं कि भाजपा कुछ कर नहीं सकती।

Friday, December 11, 1998

फायर: नारी मुक्ति का यह कैसा रूप है ?


देश के अभिजात्य वर्ग में दीपा मेहता की नई फिल्म फायर की बडी चर्चा है। अपने पतियों की उपेक्षा से परेशान दो देवरानी और जेठानी कैसे पारस्परिक संबंध विकसित करती हैं यह है इस फिल्म की कथा। ये महिलाएं एक दूसरे को भावनात्मक सुरक्षा और नैतिक बल देने की सीमाओं से आगे जाकर समलैंगिक शारीरिक संबंधों तक की स्थापना की वकालत करती है। इस सशक्त फिल्म को देखने के बाद हर वह पति स्वयं को अपराधी महसूस करता है जो अपनी पत्नी को पूरा समय नहीं दे पाता। इस मायने में इसे सफल फिल्म कहा जा सकता है क्योंकि इससे घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं की घुटन का पता चलता हैं वह घुटन जो अक्सर दिखाई नहीं देती या नजरंदाज कर दी जाती है लेकिन जो समाधान प्रस्तुत किया गया है वह भयानक ही नहीं वीभत्स भी है।
बात अगर फिल्मी कहानी तक होती तो शायद अपने सरोकार का विषय न होता। दुर्भाग्य से यह बात आज महानगरों के अभिजात्य वर्ग के बीच काफी दिखने लगी है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की महिला रोग विशेषज्ञ डा. दीपा डेका कुछ चैंकने वाले तथ्य प्रस्तुत करती हैं। देश भर से इलाज के लिये उनके पास आने वाली अभिजात्य वर्ग की या बुद्धिजीवी वर्ग की अनेक ऐसी महिलायें हैं जो नारी मुक्ति के आधुनिक दर्श का शिकार बन चुकी हैं। स्वतंत्रता, स्वच्छंदता व आर्थिक आत्मनिर्भरता की धुन में ये महिलायें ऐसे कदम उठा रही हैं जो न सिफ्र उनके लिये घातक हैं बल्कि उनके परिवार को भी उनका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस तरह पूरे समाज के लिये खतरा पैदा हो रहा है जिसकी परिणति तनाव, डिप्रैशन और कभी कभी आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है। डा. डेका बताती हैं। कि आजकल उनके पास आने वाले मरीजों में अनेक ऐसी महिलाएं हें जिन्होंने बिना विवाह किये ही संतान उत्पत्ति की है। आज उन्हें दोहरे संकट से जूझना पड़ रहा है। एक तो अपने अनाम पिता की पहचान को लेकर बालक की जिज्ञासाओं से और दूसरा अकेले जीवन ढोने के संत्रासों से। ये संकट उनके जीवन में तनाव पैदा कर रहा है जिससे अनेक दूसरी बीमारियां भी उत्पन्न हो रही हैं।
नारी मुक्ति की पश्चिमी मानसिकता वाली बहनें तुनक कर कहेंगी कि क्या पारंपरिक समाज की स्त्रियों की दुर्दशा नारी मुक्ति की समर्थ इन महिलाओं से कहीं कम थी ? शायद नहीं। संयुक्त परिवार और नाकारा पति की परमेश्वर रूप में सेवा की त्रासदियों को जिन बहनों ने झेला है वही इसका सही जवाब दे सकती हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि नारी मुक्ति की हामी ज्यादातर महिलाओं के मन में वह प्रसन्नता व संतोष नहीं है जिसके लिये उन्होंने ऐसे कठोर कदम उठाये थे। अगर होता तो डा. डेका को कुछऔर ही अनुभव होते।
दरअसल देश के अभिजात्य वर्ग को पश्चिमीकरण के कीड़े ने काट खाया है नतीजतन वह पश्चिम के हर किस्म के कूड़े करकट को बिना बिचारे बटोरने में जुट जाता है चाहे वह प्लास्टिक के लिफाफे हों या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर समलैंगिकता, परन्तु हर बार मुंह की खाता है। फिर नये मायाजाल में फंस जाता है। यह बात दूसरी है कि पश्चिमी समाज अपने कटु अनुभवों से अब पुनः पारंपरिक मूल्यां की तरफ लौट रहा है। सिगरेट पीना या मुक्त सैक्स संबंध रखना पश्चिमी समाज में अब हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है। एक जमाना था जब पश्चिमी देशों में सैक्स की भावना भड़काने वाले सामान खुलेआम बड़ी दुकानों और हवाई अड्डों पर बिकते थे। आज ऐसा नहीं है। पहले यूनिवर्सिटी के पुस्तकालयों तक में वैंडर-मशीनमें सिक्कर डालकर गर्भ निरोधक हर क्षण हर स्थान पर प्राप्त किये जा सकते थे। गोया कि गर्भनिरोधक न होकर मिनरल वाटरकी बोतल हो जिसके बिना जिंदा रहना भी मुश्किल होता हो। एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के भय ने आज सैक्स से जुड़े हर कारोबार को उन देशों में लगभग समाप्त कर दिया है।यही वजह है कि एक साथ पनपी दो विख्यात बड़ी कंपनियों में से स्वस्थ मनोरंजन पर आधारित कंपनी मैक-डोनाल्डतो दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति कर रही है जबकि सैक्स पर आधारित प्ले ब्वा¡कंपनी का बिस्तर गोल हो गया।
लीक से हटकर काम करने वाले भारत के टेलीविजन व फिल्म मीडिया में दुर्भाग्ये से आज उसी वर्ग का बोलबाला है जो अस्वाभाविक किस्त के मानवीय संबंधों की वकालत करता है जबकि ही कीमत यह है कि पूरे समाज का वह एक नगण्य प्रतिशत है जबकि अधिकांश समुदाय इस प्रकार की वार्ता को हिकारत की निगाह से देखता है। उसकी चर्चा तक करने से बचता है। चूंकि अप्राकष्तिक संबंधों का हिमायती वर्ग बुद्धिजीवियों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों जेसे लोगों से भरा है इसलिये यह समूह ज्यादा मुखर है, अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में कुशल है, इसलिये यह समूह कभी कभी अपने बारे में ताकतवर व विशाल होने का भ्रम पैदा कर देता है। संचार माध्यमों पर अपनी पकड़ के कारण अपने विचारों को बड़े जोर शोर से प्रचारित करता है। चूंकि फिल्म संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है इसलिये इस पर कही बात गहरी चोट करती है।
चिंता की बात यह हे कि फायर फिल्म में जिस तरह भारतीय दर्शन का उपहास किया गया है, वह अशोभनीय व असंतुलित ही नहीं, सतही भी है। समलैंगिकता में रत दो महिलायें भारतीय दर्शनके इस मूल सिद्धांत का उपहास करती हैं कि इच्छाओं के दमन से चिंताओं का दमन होता है। भगवद गीता से लेकर बौद्ध, जैन, सिख व सूफी संतों ने हजारों वर्षों से भारतीय दर्शन के इस मूल मंत्र का प्रचार किया है। समाज ने इसे अनुभवभी किया है। यही वजह है कि भौतिक प्रगति की बुलंदियों को छूने के बावजूद अमरीका से लेकर जापान तक का जिज्ञासु मन इसी दर्शन की खोज में भटकता हुआ भारत आता है, परन्तु यह दुर्भाग्य है अपने समाज का कि स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले तथाकथित आधुनिक लोग पश्चिमी समाज के भौंडेपन को मानव स्वतंत्रता के नाम पर महिमामंडित करने में जुटे हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि भारतीय समाज में कोई दोष ही नहीं। लिंग, जाति व वर्ग के आधार पर समाज में शोषण का एक लम्बा इतिहास है। पर यह सिर्फ भारत में हुआ हो ऐसा नहीं। नारी मुक्ति की समर्थक न्यूयार्क टाइम्स की एक महिला पत्रकार ने एशिया, अफ्रीका व पश्चिमी देशों की महिलाओं के सर्वेक्षण के बाद कुछ चैंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये थे, जिनके अनुसार उन देशों की महिलाओं की सामाजिक और मानसिक स्थिति में भारतीय महिलाओं से कोई विशेष बुनियादी अंतर नहीं था। काम से लौटे दम्पत्ति घर में घुस कर वहां भी वही करते हैं जो भारत में। मसलन पति आराम कुर्सी पर बैठकर टीवी देखता है या अखबार पढ़ता है और पत्नी रसोई घर में घुसकर खाना पकाती है। इस सर्वेक्षण में चैंकने वाली बात यह थी कि भारत की कामगार देहाती महिलायें शहरों की तथाकथति आधुनिक महिलाओं के मुकाबले ज्यादा आत्मनिर्भर हैं, इसलिये ज्यादा स्वतंत्र भी हैं। यदि भारत की महिलाओं से फायर जैसी फिल्म पर प्रतिक्रिया मांगी जाएतो सिवाय हिकारत के और कुछ नहीं मिलेगा।
दूसरी तरफ ये तथाकथित आधुनिक महिलायें उनका उपहास करेंगी। यह कहकर कि बेचारी अंधकार में हैं, अज्ञानी हैं, बचपन से मिले संस्कारों के जाल में जकड़ी हैं, विकल्प के अभाव में हालात से समझौता करने पर मजबूर हैं। आजादी की कोई परिकल्पना उनके दिमाग में नहीं है, इसलिये रात दिन चक्की में पिस रही हैं। किन्तु आंकड़े सिद्ध करदेंगे कि ये वाहियात तर्क हैं। पारंपरिक मूल्यों से जुड़ी ज्यादातर महिलाओं के परिवारों में जो सुख व शांति है वह इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं के परिवारों की तुलना में कई गुना ज्यादा है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षाा से लैस किन्तु पारंपरिक मूल्यों में आस्था रखने वाली भारतीय महिलाओं की संख्या भी इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं से कई गुना ज्यादा है। ये महिलायें करोड़ों की तादाद में भारत के नगरों में रहती हैं तो लाखों की तादाद में अनिवासी भारतीयों के परिवारों की शोभा पश्चिमी देशों में बढ़ा रही हैं। जितने संतुलित व्यक्त्वि वाले बच्चे इन परिवारों में बड़े हो रहे हैं जितना प्रेम और सोहार्द इन परिवारों में है उसका शतांश भी तथाकथित आधुनिक महिलाओं के घरों में दिखाई नहीं देता। महिलाओं की समस्याओं पर लेख लिखे जायें, सेमिनार किये जायें, टीवी टा¡क शो किये जायें या भाषण आयोजित किये जायें तो विशेषज्ञ के तौर पर प्रायः ये तथाकथित आधुनिक महिलायें ही आमंत्रित की जाती है। प्रांतों के नगरों में एक आम परिवार की महिला जब इन आत्मघोषित क्रांतिकारी महिलाओं के विचार सुनती है तो हैरान रह जाती है। वह स्वयं को ऐसे हवाई विचारों से कोसों दूर पाती है यही वजह है कि नारी मुक्ति की आधुनिक अवधारणा प्रस्तुत करने वाली ये बुद्धिजीवी महिलाये आज तक अपना जनाधार नहीं बना सकी हैं। इसलिये सरकारी प्रतिनिधिमंडलों की सदस्य बन कर हवा में उड़ा करती हैं आवश्यकता तो नारी मुक्ति के उस प्रारूप की है जिसे भारत के समाज में पनपे मनीषियों, समाज सुधारकों, संतों व युग पु3षों और महिलाओं ने अपने लेख, व्याख्यानों और आचरण से प्रस्तुत किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानदं, ज्योति बाफुले, गांधी जैसे कुछ नाम हैं जो शायद इन आधुनिक महिलाओं के शब्दकोष में नहीं हैं वर्ना ऐसी कुत्सित मानसिकता को नारी मुक्ति के नाम पर न परोसा जाता। जाहिर है कि फायर जैसी फिल्मों में सुझाये गये समलैंगिकता के समाधान का भारतीय समाज की बहुसंख्यक महिलाओं की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है। उनके लिये यह एक विकृति से अधिक कुछ भी नहीं है।

Friday, May 22, 1998

परमाणु विस्फोट से स्वदेशी आंदोलन को बल मिला

परमाणु विस्फोट से स्वदेषी आंदोलन को बहुत फायदा हुआ है। उदारीकण के नाम पर जोदबाव इस आंदोलन पर बनाया गया था,

उसमें अब कमी आएगी। बड़े देषों को धमकियों पर देष के उद्योगपतियों व आप्रवासी भारतीयों की प्रतिक्रियाएं इसके प्रमाण हैं। दरअसल उदारीकण का जो कांग्रेसी संस्करण देश को परोसा गया था, वह देशभक्तों के गले कभी नहीं उतरा। पहले तो पचास वर्षों तक समाजवादी के नाम पर देश के स्वाभाविक औद्योगिक विकास पर शिकंजा कसा गयचा। कोटा लाइसेंस राज चलाकर भ्रष्टाचार कोपूरे देश में पनपने का मौका दिया गया। सरकारी क्षेत्र में उद्योगों के नाम पर भ्रष्टाचार के बड़े बड़ेसफेद हाथी पाले गये। लेकिन जब पानी सिर से गुजर गया, इन क्षेत्रों से और पेसा खींचने का जरिया न बचा, तो उदारीकण केनाम पर धड़ाधड़ पेप्सी कोला व डोमिनो पिज्जा जैसी तमाम वाहियात चीजों को भारत में घ्ज्ञुसने दिया गया। जो आलू दे?श में दो रुपये किलो के भाव बिक रहा था, उसके अंकल चिप्स ढाई सौ रुपये किलो बेचे जाने लगे।
 
इसी तरह आज सेपचास वर्श पहले दुनिया भर में पश्चिमी देशोंने प्रचार किया कि डिब्बे का दूध मां के दूध से बेहतर होता है, उससे बच्चे तंदरुस्त होते हैं फिर जब डिब्बे के दूध के दुष्परिणाम सामने आये तो पूरी दुनिया में प्रचार किया गया कि ठहरो! ठहरो! गलती हो गयी। मां का दूध डिब्बे के दूध से बेहतर होता है। इसमें कौन सी नई बात बता दी ? लेकिन उन्हें तो अपना दूध बेचना था उन्होंने वहीं किया। पचास वर्षों तक अरबों रुपये को डिब्बे का दूध भारत जैसे पारंपरिक देश में भी बेचकर मोटा पैसा कमा लिया। इन्हीं देशों ने पहले आर्थिक मदद के नाम पर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक दवाइयों से भारतीय जमीन को प्रदूषित कर दिया और अब वे कह रहे हैं कि गलती हो गयी, गोबर की खाद रासायनिक खादों से कहीं बेहतर होती है। हम इतने मूर्ख हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी पशु आबादी देश में होने के बावजूद इनके छलावे में आ गये, वरना गोबर की खाद का विकास करते, जिसे ये देश आज आ¡र्गेनिक फार्मिंग कहकर बेच रहे हैं इनकी बेशर्मी की हद यहां तक हो गयी कि आयुर्वेद की पुस्तकों में से ज्ञान चुराकर ये अरदक,नीम, बासमती चावल और हल्दी जैसी आम इस्तेमाल की भारतीय वस्तुओं को अपने देश में पेटेंट करा रहे हैं ताकि इन्हें बेचने में भी केवल इनकी दादागिरी चले। हजारों उदाहरणहैं जिनसे सिद्ध होता है कि देश के राजनेताओं और अफसरों ने चांदी के टुकड़ों के लालच में देश की धरोहर और आत्मनिर्भरता को किसी बेदर्दी से गिरवी रख दिया। जहां तक विदेशी आर्थिक मदद की बात है, यह तथ्य किसी से छिपानहीं है कि एक सौ दस से लेकर तीन सौ अरब डालर तक की अनुमानित रकम अवैध रूप से भारत से ले जाकर बाहरी बैंकों में जमा करा दी गयी है।जबकि भारत पर विदेशी ऋण मात्र bक्यानबे अरब डा¡लर है। यानि जितना कर्ज हम पर है उससे ज्यादा पैसा विदेशी बैंकों में अवैध रूप से पड़ा है।

पिछले दिनों सुप्रसिद्ध पत्रिका फा¡र ईस्टर्न इका¡नोमिक रिव्यू के एक वरिष्ठ पत्रकार हांगकांग से भारत आये हुए थे। हाल ही में उन्होंने उन तमाम देशों का अध्ययन किया है जहां पिछले दस वर्षों में तथाकथित उदारीकरण ने अपने झंडे गाड़े हैं। उनके अध्ययन को निचोड़ यह था कि जिन देशों में भी ऐसा हुआ है, उन्हीं देशों में सैकड़ों हजारों करोड़ रुपये के घोटाले भी बहुत तेजी से हो रहे हैं। पिछले दिनों भारत में जो करार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से किये गये, उनमें से कई तो इतने आत्मघाती हैं कि उन्होंने अगले तीस वर्षों तक Hkkरत को लूटने को पक्का इंतजाम कर लिया है। दरअसल विदेशी मदद के नाम पर जो पैसा आता हैउससे देश का स्थायी विकास नहीं हो रहा है। दुनिया के जिन देशों में भी उदारीकरण ने पांव पसारे, उन्हे ही कंगाल करके छोड़ दिया। मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड इसके सुबूत हैं। जहां पहले तो पश्चिमी उदारीकरण की चमक दमक ने लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। मगर फिर अचानक इनकें पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। ये देश इतनी जोर से गिर कि आज वहां आर्थिक दुर्दषा के कारण चीत्कार मचा है। साधारण लोग ही नहीं, संपन्न घरों के लोग भी त्राहिमाम कर रहे हैं। दुकानें लुट रही हैं। लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं। सड़कों पर हिंसा और आगजनी खुलेआम हो रही है। करोड़ों नौजवानों में भारी आक्रोष और हताषा है। दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका से लेकर कोरिया तक यही कहानी है। फिर भी अगर हम कोई सावधानी न बरतें, तो कौन गारंटी दे सकता है कि यही दुर्दषा भारत के भी नहीं होगी ? ऊर्जा मंत्री कुमारमंगलम को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ करार करके बिजली प्लांट लगवाने की बहुत जल्दी है। वैसे जहां तक बिजली की कमी की बात है, हकीकत यह है fक भारत को ऐसे सहयोग की कोई जरूरत नहीं है। भारत की मौजूदा विद्युत उत्पादन क्षमता छियासी हजार मेगावाट है जबकि उत्पादन मात्र इकतालीस हजार मेगावाट ही हो रहा है। क्षमता से आधा उत्पादन होने पर भी यह हमारी राष्ट्रीय आवष्यकता से मात्र सोलह प्रतिशत कम है। वह भी तब जब भ्रष्टाचार के कारण इक्कीस प्रतिशत उत्पादित बिजली चोरी करवा दी जाती है।यानी आज भी हमारी बिजली आवश्यकता से ज्यादा हे। पर सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार देष के विद्युत बोर्डों में ही व्याप्त है। इसीलिये बिजली की आपूर्ति में व्यवधान आता रहता है या बिजली की दर बिना वजह बढ़ाईजाती हैं। अगर बिजली विभाग से भ्रष्टाचार दूर करने के लिये जनता व सरकार कमर कस ले तो न तो विदेशी पावर प्लांटों की जरूरत है और न विदेशी पूंजी की। फिर हम प्रतिबंधों या धमकियों से क्यों डरें? वैसे ध्यान देने योग्य बात है कि प्रतिबंधों की घोषणा के बावजूद यूरोप की तीन बड़ी कंपनियों ने भारत में अपने प्लांट लगाने की पेशकश की है। जारि है, इसमें उन्हें भारी मुनाफा है जो हम बेअक्ली के कारण उन्हें देने को तैयार हैं। उल्लेखनीय है कि जब से तेरह दिनों की भाजपा सरकार ने एनरा¡न से समझौते पर दस्तखत किये थे तभी से स्वदेश्ज्ञी ला¡बी काफी विचलित रही है। उसकी शिकायत है कि भाजपा के नेता नारा तो स्वदेशी का देते हैं पर नीतियां वही कांग्रेस की चला रहे हैं।

इस बात के तमाम प्रमाण व आंकड़े उपलब्ध हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि देश में विदेशी पंजी निवेश के नाम पर कैसीतबाही मचाईगयी है। ऐसी स्थिति में यदि आणविक परीक्षण से नाराज होकर अमेरिका, जापन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी या कोईभी देश भारत को धमकाता है तो हमें डरने की कोईजरूरत नहीं है। देश के शहरों और कस्बोंमें मध्यम श्रेणी के कारखानेदारों व दुकानदारों को इतना बड़ा जाल है कि देश की ज्यादातर जरूरतों को बड़ी आसानी से पूरा किया जा सकता है। बशर्ते इन लोगों को इज्जत के साथ काम करने की छूट दी जाए। इसलिये भारत के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ये हिम्मत दिखाई जिससे आज आत्मनिर्भरता का माहौल अपने आप बनने लगा हे।

हालांकि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि चुनाव के लिये माहौल तैयार करने को यह कदम उठाया गया है। भाजपा सरकार ने अपने अंतर्विरोधों और जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी असफलताओं से ध्यान बंटाने के लिये यह किया हे। यह अगर सच हो तो भीकिसी को यह नहीं भूलना चाहिये कि 1974 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने पोकरण में जो विस्फोट किया था उसके बाद उन्हें तात्कालिक प्रसिद्धि भले ही मिली हो, किन्तु राजनीतिक लाभ नहीं मिला। 1975 में जेपी आंदोलन षुरू हुआ। 1977 में श्रीमती गांधी का सफाया हो गया। वह खुद तकचुनाव हार गईं। परमाणु विस्फोट एक राष्ट्रीय उपलब्धि है। इसमें वैज्ञानिकों की पांच दशकों की मेहनत छिपी है किसी एक व्यक्ति या दल का कोईयोगदान नहीं।पर इस समय यह निर्णय लेकरअटल् बिहारी वाजपेई ने एक अच्छी षुरूआत की है। देश को इसका पूरा फायदा तभी मिलेगा जब इस मौके का लाभउठाकर स्वदेशी आंदोलन जोर पकड़े। बाहरी मदद या सहयोग वहीं लिया जाए जहां जरूरी हो।देश की आधी से अधिक भूखी प्यासी आबादी को पानी और रोटी चाहिये, पेप्सी कोला औ केंटकी फ्राइड चिकन नहीं।देश के किसानों को उनकी मेहनत और उपज का वाजिब दाम चाहिये। देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को रोजगार के अवसर चाहिये जो आज के मा¡डल का उदारीकरण नहीं दे सकता। भाजपा सरकार के इसमजबूत कदम का औचित्य तभी सिद्ध होगा जब देश कोतेजी से आत्मनिर्भरता की ओर ले जाया जाए। देश्रूा के संसाधनों व क्षमता का पूरा उपयोग करके देश की हर जरूरत देश में पूरी करने अभियान और कार्यक्रम तेजी से चलाया जाए। यह संभव है और अपरिहार्य भी।

Monday, March 23, 1998

मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रों में प्रार्थना ज्यादा-सेवा से लेकर कम


मदर टेरेसा के काम की आलोचना अग्रेजीदां हिन्दुस्तानियों के गले नहीं उतरेगी। पर अगर ये आलोचना इंग्लैंड के प्रतिष्ठित और विश्वविख्यात अखबार दी गार्डियन में छपी हो तब वे क्या कहेंगे? आलोचना करने वाला कोई ईसाई मिशनरियों का विरोधी या हिन्ंदू कट्टरपंथी नहीं है, बल्कि खुद एक अंग्रेज है। पीटर टेलर नाम के इस व्यक्ति का तक मदर टेरेसा के मिशनरीज आफ चैरिटीज से संबंध रहा था। पीटर स्वयं कैथलिक ईसाई हैं। मदर टेरेसा के सेवा केन्द्र से वे दसवर्षों में बतौर स्वयंसेवी जुड़े रहे हैं। इन वर्षों में उन्होंने हफ्तों मिशनरीज आफ चैरीटीज के केन्द्र आशादान में गुजारे। जहां बीमार और लावारिस गरीब बच्चों की देखभाल’’ की जाती है। लेकिन आशादान नाम के केन्द्रों से श्री टेलर के अनुभव अच्छे नहीं हैं। उन्हें इस बात का भारी दुख है कि मदर टेरेसा केन्द्रों में कुछ बच्चों को यातनापूर्ण जीवन जीना पढ़ता है। मिशनरीज आफ चैरिटीज से जड़े अपने कड़वे अनुभवों और प्रमाणों को लेकर श्री पीटर टेलर अभी हाल ही में मुझसे मिले। मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा से जुड़ी इस जानकारी को पाठकों तक पहंqचाने के लिये मैंने श्री टेलर से एक लंबी बात की और उनसे इस दर्दनाक दास्तान को सुना।
ब्रिटिश एअरवेज में वर्षों नौकरी कर चुके पीटर टेलर बताते हैं कि 1984 में उन्होंने आशादान में जाना शुरू किया था।शुरूआत के दिनों से ही श्री टेलर आशादान के बच्चों व सेविकाओं के बीच काफी लोकप्रिय थे। देखभाल के अलावा वे बच्चों को घुमाने फिराने के लिये बाहर भी ले जाते थे। आशादान के कर्मचारी भी श्री टेलर को अच्छी तरह जान और समझ चुके थे। लेकिन 1994 में अपने साथ हुए बर्ताव की श्री टेलर को उम्मीद तक नहीं थी। अचानक एक दिन आशादान में उनका प्रवेश निषेध कर दिया गया। खुद पर इस पाबंदी की वजह श्री टेलर यह बताते हैं कि गंभीर रूप से बीमार कुछ बच्चों की उपेक्षा जब उनसे नहीं देखी गयी तो उन्होंने इसकी शिकायत वहां काम कर रही वरिष्ठ सेविकाओं से की। शुरूआत में तो श्री टेलर की शिकायतों पर ध्यान दिया गया, पर थोड़ा बहुत ही। इसके बावजूद जब कुछ बच्चों की हालत में सुधार नहीं हुआ तो श्री टेलर ने इस बारे में सेविकाओं से बतौर स्वयंसेवी सवाल जवाब किया। पर इसका नतीजा उन्हें प्रतिबंध के रूप में झेलना पड़ा। आशादान के दरवाजे उनके लिये हमेशा के लिये बंद कर दिये गये।
वे आगे बताते हैं कि आशादान में कुछ बच्चों के रखरखाव का सतर उपेक्षा की हद तक गिरा हुआ है। वहां उनकी हालात सुधारने के लिये कोई विशेष कदम नहीं उठाये जाते। भोजन पानी के नाम पर उनको जैसे तैसे जिंदा रखा जाता है। इसके अतिरिक्त उनका कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है।
श्री टेलर के अनुसार आशादान में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवायें भी बड़ी अव्यवस्थित हैं। स्वयंसेवी चिकित्सक हफ्ते में मात्र दो एक बार ही आते हैं और वो भी केवल खानापूरी के लिये। आशादान में दिखावे के लिये तो देख रेख और सेवा का अच्छा प्रबंध है लेकिन कई बार यहां की सेविकायें दर्द से कराहते बच्चों को अनदेखा कर देती हैं। अनेक मौकों पर जब खुद श्री टेलर ने सेविकाओं का ध्यान इस तरफ दिलाया तब जो जवाब इन समर्पितसेविकाओं ने श्री टेलर को दिया वो चैंकाने वाला था- ‘‘ये तो भगवान की मर्जी है।’’
कहने को तो इन सेविकाओं ने नर्सिंग की ट्रेनिंग ली है पर वे मरीजों की रख रखव के बुनियादी पहलू तक का पालन नहीं करतीं। बैड सोरसे पीडि़त मरीजों के जख्मों पर सिर्फ मलहम पट्टी करके ही वह अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती हें। जकि उन्हें इससे कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह की जरूरत होती है।
इन सेविकाओं के समर्पणके जिस पहलू ने श्री टेलर को सबसे ज्यादा परेशान किया वो ये कि इन सेविकाओं का ध्यान सेवा में कम और प्रार्थनाओं मs अधिक था। और तो और स्वयं मदर टेरेसा इस सोच की प्रबल रहनुमा थी। श्री टेलर के अनुसार वे खुदकाम से ज्यादा प्रार्थना को तरजीह देती थी। प्रार्थना के समय इन बच्चों की इस हद तक उपेक्षा की जाती कि ये सेविकाएं इन बच्चों को अप्रशिक्षित अम्माओंकी देखरेख में छोड़कर प्रार्थना के लिये चली जाती। जिस समय बच्चे दर्द व उपेक्षा से कलप रहे होते थे, ये सेविकायें प्रार्थना में मग्न होती। इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए श्री टेलर बताते हैं कि उन्होंने जब उच्च प्रशिक्षण के लिये जाती एक सेविका से उसकी ट्रेनिंग के बारे में कुछ जानना चाहा तो उसका यह जवाब मिला, ‘‘ट्रेनिंग तीन हिस्सों में होगी। पहले, प्रार्थना सिखाई जाएगी फिर सघन प्रार्थना और उसके बाद और सघन प्रार्थना।’’
आशादान में डाक्टरों और सेविकाओं के इस रवैये से क्षुब्ध श्री टेलर काफी दिनों तक इस बात पर मंथन करते रहे कि उन्हें आशादान में कुछ बच्चों पर की जा रही यातनापूर्ण उपेक्षा पर खुल कर आलोचना करनी चाहिये या नहीं। उन्हें डर था कि लोग मदर की संस्था पर लगे आरोपों को गंभीरता से नहीं लेंगे और आशादान की सेविकाओं के समर्पण पर कोई उंगली नहीं उठने देंगे। अंततः उन्हें हार ही माननी पड़ेगी। लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं हुई कि श्री टेलर का मिशनरीज आफ चैरिटीज की अनियमितताओं के खिलाफ अपना मुंह खोलना ही पड़ा।
घटना आशादान में दो मासूम बच्चों की दुर्दशा से जुड़ी है। मीनू नाम की इस बच्ची से टेलर की मुलाकात 1984 में आशादान में ही पहली बार हुई थी। तब श्री टेलर को बताया गया था कि मीनू की आंखों की नस क्षतिग्रस्त है और वो कभी देख नहीं पाएगी। पर यह सच नहीं था।जब श्री टेलर ने मीनw को अपने प्रयासों से नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया तो उन्हें हैरानी हुई। डाक्टरों ने बताया कि आपरेशन से मीनू की आंखें ठीक हो सकती हैं। लेकिन इस इलाज के लिये मीनू को इंग्लैंड ले जाना होगा।डाक्टरों की परामर्श से श्री टेलर ने मीनू के जाने का बंदोबस्त लगभग कर ही दिया था जब उन्हें यह पता चला कि इसके लिये मदर टेरेसा की इजाजत जरूरी है। श्री टेलर को उम्मीद थी कि मदर इस मामले में हां कर देंगी लेकिन उन्हें बारह वर्ष तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने जब भी मदर से मीनू के बारे में बात छेड़ी तो मदर का रूखा सा जवाब होता कि वे मीनू के लिये यीशू से प्रार्थना करेंगी। श्री टेलर को आश्चर्य है कि मदर को यह जानने के लिये कि अंधेपन और रोशनी में कौन बेहतर है यीशू की आज्ञा का बारह वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। लेकिन श्री टेलर लगातार मदर से इस बारे में मिलते रहे। काफी ऊहापोह के बाद अंततः जब मदर ने अनुमति दी तो श्री टेलर को यह बताया गया कि अब मीनू ने खुद अपना निर्णय बदल दिया है। टेलर को संदेह है कि मदर के इशारे पर ऐसा किया गया। शायद वे नहीं चाहती थीं कि मीनू देख सके। क्योंकि आशादान का आर्थिक स्वास्थ्य कुछ हद तक मीनू की वहां मौजूदगी से बेहतर होता था। नेत्रहीन मीनू के नाम पर शायद काफी अनुदान इकट्ठा किया जाता था इसीलिये मीनू को दुनिया देखने की इजाजत नहीं दी गयी।
दूसरी घटना विनसेंट नाम के एक और भारतीय लड़के की है। विन्सेंट नौ वर्ष का था जब टेलर की उससे मुलाकात आशादान में हुई। दौड़ना तो दूर विनसेंट चल और बैठ भी नहीं पाता था। इसका कारण था उसकी पीठ में एक बहुत बड़ा फोड़ा। जिसकी वजह से वह बिस्तर पर लेटे लेटे अपनी गर्दन ही केवल इधर से उधर घुा सकता थौ। फोड़े केदर्द से विन्सेंट हमेशा कराहता रहता था। अपनी आंखों के सामने उसकी बिगड़ती हालत श्री टेलर से नहीं देखी गई तो इसकी शिकायत उन्होंने मदर सुपीरियर से की। श्री टेलर ने उन्हें सचेत किया कि यदि ऐसी जघन्य उपेक्षा उन्होंने पश्चिम के किसी देश में दिखाई तो उन्हें सजा तक हो सकती थी। इससे डर कर विन्सेंट की ठीक से देखभाल शुरू की गई। लेकिन कुछ समय के लिये ही। श्री टेलर के वहां से जाते ही विन्सेंट की फिर से उपेक्षा शुरू हो गयी। कुछ समय बाद लौटने पर श्री टेलर को विन्सेंट का घाव जैसे का तैसा मिला। उन्होंने जब संस्था का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया तो उन्हें उपेक्षित करने वाला और निराशाजनक जवाब मिला,‘‘न जाने ये दोबारा कैसे हो गया’’। जबकि संस्था के डाक्टर हफ्ते में कम से कम दो बार विन्सेंट के बिस्तर के पास से जरूर गुजरते थे।
विन्सेंट के मामले में श्री टेलर की बढ़ती रुचि को देखते हुए उन्हें मिशनरीज आफ चैरिटीज में कदम कदम पर हतोत्साहित किया गया। विन्सेंट को पीटर टेलर की पहंqच से बाहर रखने की कोशिश शुरू हो गयीं। आशादानके सक्रिय स्वयंसेवी श्री टेलर को क्या इतना अधिकार भी नहीं था कि वे बीमार और अपाहिज विन्सेंट की स्वास्थ्य के बारे में कुछ जान सकते। विन्सेंट की देखभाल करने वाली सेविकाओं ने श्री टेलर को कई बार तो यह कहकर मना कर दिया कि ‘‘विन्सेंट के पास बाहर वालों का जाना मना है।’’ पर श्री टेलर ने हार नहीं मानी अपने कुछ भारतीय दोस्तांे के जरिये जब उन्होंने विन्सेंट के बारे में जानना चाहा तो बताया गया कि, ‘उसे दूसरे सेवा केन्द्र पर भेज दिया गया है।पर किस सेवा केन्द्र पर, ये जानकारी नहीं दी गयी। श्री टेलर के अनुसार उन्होंने इसकी बाबत भरपूर कोशिशें की। उन्हें डर हैकि विन्सेंट उपेक्षा का शिकार होकर अपने दुखों से हमेशा के लिये मुक्त हो गया होगा। ये कहते हुए श्री टेलर की आंख से आंसू लुढ़क आते हैं। पर उनका जी चाहता है कि विन्सेंट जिंदा हो और स्वस्थ भी।
केवल मीनू या विन्सेंट ही नहीं श्री टेलर के अनुसार आशादान में उन्होंने ऐसे कई मामले देखे जिनसे मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रांे से उनका भरोसा उठ गया। सेवा केबहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म केप्रचारको प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कईमरीजों की ठीक सेदेखभाल नहीं हो पाती औरउनकी हालत बिगढ़ने दी जाती है। ‘‘क्या गा¡ड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी कर दी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोढ़ दिया जाए?’’ श्री टेलर पूछते हैं। उनके विचार से ऐसे सेवा केन्द्रों को अपनी प्राथमिकतायें मानवाधिकार के मौजूदा कानूनों की रोशनी में बदल देनी चाहिये। ‘‘ सेवा जरूरी हैन कि प्रार्थना।’’
श्री टेलर को उन सेविकाओं से भी नाराजगी हैजो समर्पण भाव से काम करने के बजाय सेवा केन्द्र केप्रांगण मेंदोपहरके भोजन के बाद हाथमें हाथ डाले मटरमश्ती करती रहती हैं। उनके ऐसे रूखे ओर गैर जिम्मेदाराना बर्ताव से ही विन्सेंट जैसे बच्चे, जिन्हें थोड़े से स्नेह ओर देखभाल से बचाया जा सकता था असमयकाल के शिकार हो जाते हैं। अब यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि विन्सेंट कहां है, कैसा है और वो जिंदाहै भी या नहीं? मीनू अब कभी  ns  भी पाएगी यानहीं? चिंता केवल इसबात की है कि कितने ही विन्सेंट और मीनू आज इन सेवा केन्द्रों में अमानवीय उपेक्षा के शिकार हो रहे ? जबकि दूसरी तरफ बाहर की दुनिया को ये तसल्ली है कि मानवीय संवेदनाएं इन केन्द्रों में अभी भी जीवित हैं। केवल एक पीटर टेलर के अनुभवों को काफीन माना जाए तब भी जो साक्ष्य उन्होंने मेरे सामने रखे उनसे आंखें मूंदी नहीं जा सकतीं।
वर्षों तक मिशनरीज आफ चैरिटीज को काफी करीब से देख चुके श्री टेलर बताते हैं कि मदर टेरेसा केपास जब तककलकत्ता के सीमित क्षेत्रमें काम था तब तक उनके काम का स्तर काफी ऊंचा था। मदर सेवा कार्य में गहरी रूचि लेती थीं और वहां कार्य करने वाले स्वयंसेविओं पर पूरानियंत्रणरखती थीं हैल्स एंजल्स (नर्क की फरिश्ता) नाम से मटर टेरेसा के कामों पर बनी  fQल्म ने उन्हें जरूरतमंद लोगों की मसीहा के रूप में सारी दुनिया में स्थापित करदिया था। दुनिया भर से उन पर आर्थिक अनुदान और पुरस्कारों की वर्षा होने लगी थी। मीडिया की इसचमक दमक और उत्साहके अतिरेक में मदर टेरेसा ने वायुदूतके हवाई अड्डों की तरह निरंतर नये सेंटर खोलना शुरू करदिये। काम इतना फैला लिया कि ना तो स्वयंसेवियों के समर्पण को और ना ही मिशनरियों की योग्यता कोपरखने कासमयरहा और ना ही उन्हेंप्रशिक्षित करने का। श्री टेलरके षब्दों में, ‘‘नतीता यह हुआ कि काम का दिखावा तो खूबरहुआपर ठोस काम नदारदरहा।’’ गंभीर व्यक्तित्व वाले श्री टेलर गहरी सांस छोढड़ते हुए केन्द्रों में ‘‘टू मच प्रेयर,लैसकेयर’’की बात कहते हैं और यह भी कहते हैं। कि, ‘‘करुणावतार ईसा मसीह केचित्र के आगे घंटों मोमबत्ती जलाने वाले प्रार्थना तोबहुत करते हैं पर दर्दसे कराहते बच्चों के लिये करुणा नहीं दिखा पाते। काश! इनकी कथनी और करनी में ऐसा भेद न होता।

Saturday, December 20, 1997

सत्ता के लिए कोई भी वादा कर सकती है भाजपा मुखौटे से मोहरा बने बाजपेयी

मध्यावधि चुनाव में भाजपा अटल बिहारी बाजपेयी जी को बतौर भावी प्रधानमंत्रh पेश कर रही है। भाजपा का दावा है कि उसे बहुमत मिलेगा और अगली सरकार भाजपा ही बनाएगी। बाजपेयी उसे सक्षम नेतृत्व प्रदान करेंगे। भाजपा इन चुनावी नारों को लेकर बड़े उत्साह में है। वह जानती है कि इन चुनावों में कांग्रेस की कोई विशेष उपस्थिति नहीं है। संयुक्त मोर्चा ही भाजपा का एक मात्रा प्रबल प्रतिद्वंदी है।

भाजपा दरअसल बाजपेयी जी की गैर विवादास्पद छवि को भुना कर सत्ता तक पहुंचना चाहती है। हाल ही में भाजपा की प्रतिष्ठा को एक गहरा धक्का लगा था। जब उसने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बचाने के लिए आपराधिकरण तक का सहारा लिया। उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात, राजस्थान और दिल्ली में भी भाजपा सरकारों की नाकामियों और भ्रष्टाचार के कारण भाजपा की राजनैतिक प्रतिष्ठा आज चुल्लू भर ही रह गई है। इन सब कारणों से अब केंद्र में सरकार बनाने के लिए बाजपेयी जी की छवि का इस्तेमाल करना भाजपा की राजनैतिक मजबूरी बन गई है। ऐसे में भाजपा ने बाजपेयी जी का नाम प्रधानमंत्रh पद के लिए पेश कर उन्हें भाजपा के मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है। पर बाजपेयी जी को इस पर अब कोई आपत्ति नहीं है। आज जब प्रधानमंत्रh पद के लिए सभी छोटे-बड़े नेताओं में आपा-धापी मची है तो बाजपेयी जी को इसके लिए मुखौटा या मोहरा बनने में क्यों एतराज होगा ?

वैसे भाजपा आलाकमान में वर्चस्व के लिए बाजपेयी और आडवाणी खेमे में जैसी खींच-तान चल रही है उसे देखते हुए बाजपेयी जी ने मोहरा बनने की मौन स्वीकृति देकर आडवाणी खेमे को पहली शिकस्त दी है।

भाजपा के दावे और उनकी असलियत आइए भाजपा के चुनावी दावों और उनकी नैतिकता का बेबाक मूल्यांकन करें जिसकी कसमें खाते भाजपा कल तक थकती नहीं थी। भाजपा को आखिर आज ऐसा कौन सा रास्ता मिल गया कि वह इतने आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर पा रही है कि केंद्र में अगली सरकार भाजपा की ही होगी। और वह पिछली सभी सरकारों से ज्यादा मजबूत और स्थिर होगी। सच्चाई के लिए एक नजर अगर मध्यावधि चुनावों की घोषणा के बाद पैदा हुए राजनैतिक घटनाक्रम पर डाले तो यह पता चलता है कि कोई भी दल अकेले चुनावों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। जनादेश का अकेले सामना करने का साहस आज किसी भी दल में नहीं है। सभी दल चाहे वो भाजपा ही क्यों न हो चुनाव में बहुमत पाने के लिए एक दूसरे से नैतिक या अनैतिक गठजोड़ करने में जुटे हुए हैं। सभी की मंशा केंद्र में अपने गठबंधन की सरकार बनाने की है। इसमें भाजपा का मामला विशेष रूप से हास्यादपद लगता है। क्योंकि इसी भाजपा ने 18 महीने पहले अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए किसी भी ऐसे दल से गठजोड़ करने से या समर्थन लेने से इंकार कर दिया था जिससे उसका वैचारिक समभाव न हो। इस श्रृखला में उस समय कितने ही ऐसे दल आते थे जिनका भाजपा से कोई वैचारिक तालमेल नहीं था और जो भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर राजनैतिक अछूत मानते थे। भाजपा ने उस समय इन दलों से ना तो समर्थन की गुहार की और ना ही अपनी सरकार बचाने के लिए किसी गठजोड़ की प्रत्यक्ष कोशिश की। लेकिन आज भाजपा लगभगग सभी दलों से अपने प्रभाव रहित और कम प्रभाव वाले राज्यों में गठजोड़ कर रही है और चुनावी तालमेल बैठा रही है। भाजपा कल तक भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थी लेकिन हाल ही में तमिलनाडू में जयललिता के साथ उसने चुनावी गठजोड़ किया। क्या यह भाजपा का अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ समझौता नहीं है? उड़ीसा में भाजपा ने जनता दल में विघटन को उकसाया। नवीन पटनायक के साथ समझौता किया। क्या इससे भाजपा की डेढ साल पुरानी जोड़-तोड़ विरोधी नीति का हनन नहीं होता ? भाजपा आज अगर भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त लालू यादव से कोई समझौता नहीं कर रही तो ऐसा इसलिए है कि लालू यादव स्वयं भाजपा के ही विरूद्ध धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाए हुए हैं। कल यदि भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए लालू यादव की शरण में भी जाना पड़ जाए तो वह हिचकिचाएगी नहीं। बल्कि किसी नई मजबूरी की आड़ में गठजोड़ कर लेगी। जैसा कि कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में किया। वहां अपनी सरकार बचाने के लिए भाजपा ने कांग्रेस में टूट तो उकसाई ही साथ ही अपराधिक छवि वाले विधायकों का भी समर्थन लिया। कल्याण सिंह इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने की भाजपा की मजबूरी मानते हैं। सत्ता लोलुप्ता और अवसरवादिता के ऐसे नमूने पेश करके भाजपा आखिर क्या सिद्ध कर रही है ? अगर ऐसे ही रास्ते अपनाए गए तो भाजपा बेशक अपना बहुमत सिद्ध कर देगी। भले ही जनादेश स्पष्टतः उसके हक में हो या न हो।

सक्षम प्रधानमंत्रh का दावा भाजपा का दूसरा दावा है कि बाजपेयी जी के रूप में वह देश को एक सक्षम प्रधानमंत्रh देगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बाजपेयी जी एक सुलझी हुई राजनैतिक शख्सियत हैं। पर वह कितने सक्षम प्रधानमंत्रh साबित होंगे, इस बात का अंदाजा लगाने के के लिए थोड़े चिंतन और बतौर प्रधानमंत्रh उनके कार्यकाल की उपलब्धियों का अवलोकन करना जरूरी है। बाजपेयी जी के नेतृत्व में बनी भाजपा की 13 दिन की अल्पमत सरकार ने अपने कार्यकाल में कुछ अजीब निर्णय लिए। ऐसे फैसले की उम्मीद बाजपेयी सरिखे नेता से नहीं की जा सकती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि बतौर प्रधानमंत्रh बाजपेयी जी की एक मात्रा उपलब्धि यही थी कि जाते-जाते उन्होंने एनरा¡न जैसे राष्ट्रीयहित विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किए। जबकि एनरा¡न जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परियोजनाओं की गैर जरूरतमंदी पर उन दिनों अच्छी-खासी चर्चा थी। खासकर राष्ट्रीय सेवक संघ ही स्वदेशी आंदोलन के तहत एनराॅन के विरूद्ध मोर्चा जमाए हुए था। पर तमाम विरोधों के बावजूद बाजपेयी सरकार ने एनरा¡न परियोजना को स्वीकृति दे दी।

राजनीति में बाजपेयी जी का सत्ता और विपक्ष का अच्छा अनुभव है। बाजपेयी जी जैसे बड़े नेताओं से यह उम्मीद की जाती है कि तमाम राजनैतिक विरोधों के बावजूद वह अपनी सही बात को मनवा सकेंगे। पर ऐसे अनेक मौके आए जब बाजपेयी जी के निर्णय में साहस की कमी साफ झलकती थी। इसी कारण से राष्ट्रीय हित के मुद्दों की राजनीति में बाजपेयी जी की अपने राजनैतिक अनुभव और कद के अनुसार कोई विशेष उपलब्धि नहीं हS। जबकि उनसे कहीं कम अनुभव वाले नेताओं ने राजनैतिक जोर पर अपने मुद्दांे पर समझौता करवा लिया। मंडल के मुद्दें पर अगर रामविलास पासवान अपनी शर्तें बदस्तूर मनवा ले गए तो दूसरी तरफ बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर आरंभ में उग्र रवैया अपनाने के बाद धीरे-धीरे नर्म पड़ने लगे। अगर बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर अपनी पार्टी की नीतियों से सहमत नहीं थे तो उन्हें शुरू से ही असहमति जतानी चाहिए थी। उन्हें यह भी देखना चाहिए था कि भाजपा जैसा राष्ट्रीय दल किसी ऐसे संवेदनशील मुद्दें पर वोटों की राजनीति ना करे जिस पर उसको बाद में पीछे हटना या नरम रूख अपनाना पड़े। पर बाजपेयी चुप रहे। जब मंदिर-मस्जिद मुद्दें पर स्थिति बेकाबू हो गई तो भाजपा ने बाजपेयी जी की विनीत छवि को भुनाया। बाजपेयी जी को ही भाजपा की ओर से इस दुर्घटना की निंदा करने की लिए चुना गया था।

हाल ही में पेट्रोल कीमतों में हुई तेज वृद्धि को लेकर बतौर विपक्षी नेता बाजपेयी जी ने आपत्ति जताई थी। उनका आश्वासन था कि वह इस मुद्दें को सदन में उठाएंगे। पर वक्त आने पर बाजपेयी जी अन्य मुद्दों की आड़ में इससे किनारा कर गए। विपक्ष के नेता के रूप में बाजपेयी के तेवर आक्रामक नहीं रहे। उनसे ज्यादा आक्रामक छवि तो उनसे कम कद वाले भाजपा नेताओं की रही है। बाजपेयी जी ने राजनीति के केंद्र में रहते हुए भी विवादों से दूर रहने की कोशिश की है। भले ही इसके लिए उन्हें अपने मुद्दों और शर्तों से समझौता करना पड़ा हो। आज राजनीति का जैसा माहौल है उसके लिए गुजराल या बाजपेयी जी जैसे प्रधानमंत्रh शायद उचित न बैठें। अपनी सौम्य और मैत्रिपूर्ण छवि को बनाए रखने के लिए गुजराल ने प्रधानमंत्रh पद पर रहते हुए भी जिस तरह एक के बाद एक समझौते किए उससे यह सीख लेना काफी है कि प्रधानमंत्रh पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपना जिसे मुद्दों से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हो, गंभीर चिंतन का विषय है। प्रधानमंत्रh को तो हर हाल में राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना चाहिए ना की पार्टी के हितो को या निजी स्वार्थों को। उसमें सच को सच कहने का साहस हो चाहे उसका राजनैतिक अंजाम कुछ भी क्यों न हो।

स्थायित्व के खोखले दावे भाजपा स्थायित्व की बात करती है। उसका दावा है कि मध्यावधी चुनाव में भाजपा बहुमत पाएगी। केंद्र में स्थिर सरकार देगी। क्या बहुमत से स्थायित्व का कोई रिश्ता है ? भाजपा शासित राज्यों की स्थिति का जायजा लें तो भाजपा का यह दावा गलत सिद्ध होता है। अगर बहुमत ही स्थिरता की गारंटी है तो गुजरात में भाजपा क्यों स्थायित्व नहीं दे सकी ? वहां तो भाजपा के पास दो-तिहाई बहुमत था। जाहिर है कि आलाकमान की कमजोर पकड़ थी। नैतिकता व मूल्यों का आवरण आपसी मतभेद व अंतर्कलह को ज्यादा देर तक नहीं ढक सका। गुजरात में भाजपा के स्थिरता के दावे का सच सामने आ गया। दिल्ली में भी तो भाजपा बहुमत में है। ‘दिल्ली के हालात’ आज किस से छुपे हैं ? यहां भी भाजपा का बहुमत निजी महत्वाकांक्षाओं और अंतर्कलह का शिकार हो रहा है। राज्य में कानून व्यवस्था दिनो-दिन गिरती जा रही है। भाजपा सरकार का कहना है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय नहीं है बल्कि केंद्रीय सरकार का है। तो क्या इन पांच वर्षों में एक जिम्मेदार सरकार का यह कर्तव्य नहीं था कि वह कि वह केंद्र से पुलिस व्यवस्था के हस्तांतरण की सार्थक कोशिश करती? राजस्थान में भ्रष्टाचार और असंतोष भाजपा के शासन का ही सूचक है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेतृत्व में अपराधिकरण और भ्रष्टाचारिकरण के बारे में पहले ही बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। उस पर ज्यादा शोध की जरूरत नहीं है।

दरअसल सत्ता में काबिज होने की भाजपा की ब्याकुलता सहानुभूति का भी विषय है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रा का आज सबसे बड़ा राजनैतिक दल कब तक अपनी नीतियों, सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता न करने का झूठा दिखावा करके खुद को सत्ता सुख से वंचित रख सकता है ? जबकि उससे कहीं छोटे और राज्य स्तर के दल अवसरवादी गठजोड़ करके सत्ता का सुख भोग रहे हैं। भाजपा कब तक अपने सिपाहियों को सत्ता के दरवाजे तक ला कर उनसे कदम ताल करवाती रहेगी ? भाजपा को भी यह डर है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश में सत्ता का लालच देकर उसने दूसरे दलों में सेंध लगाई है वैसे ही केंद्र में भी दूसरे दल भाजपा के सांसदों को सत्ता प्रलोभन में फंसा कर भाजपा में जोड़-तोड़ करा सकते हैं। इसलिए भाजपा साम, दाम, दंड, भेद से केंद्र तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। सत्ता के केंद्र तक पहुंचने के लिए वो आज कैसा भी वादा कर सकती है। बहुमत का। स्थायी सरकार का। सक्षम प्रधानमंत्रh का। पर यह देखना मतदाता का फर्ज है कि भाजपा के इन दावों में कितना दम है और कितनी अवसरवादिता।