Friday, August 30, 2002

हिंसा या निर्माण की राजनीति

आखिरकार राष्ट्रपति को चुनाव सुधार अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने ही पड़े। उनका सुझाव न तो सरकार ने माना और न ही अन्य दलों ने। कैसा इत्फाक है कि राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध बोलते तो सब बढ़-चढ़ कर हैं पर जब इसे रोकने के लिए कुछ ठोस करने की बात आती है तो सभी दल उसके विरूद्ध एकसाथ लांमबंद हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि ज्यादातर दलों के ज्यादातर राजनेता आपराधिक पृष्ठभूमि के नहीं हैं। इनके गौरवशाली अतीत है फिर क्यों ये राजनेता राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध ठोस कदम नहीं उठाते ? हालत बद से बदतर होती जा रही है। पहले राजनीतिज्ञ अपराधियों से मिलने में कतराते थे। फिर उनसे लुकछिप कर मिलने लगे। फिर उन्हें अपने चुनाव में इस्तेमाल करने लगे। जब चुनावों में हिंसा और बाहुबल का बोलबाला हो गया तो अपराधियों को लगा कि जो काम वे राजनेताओं के लिए करते हैं वहीं अपने लिए क्यों नहीं करें ? अपराधियों ने राजनीति में अपने भाग्य आजमाने शुरू किए। नतीजा ये कि आज लोकसभा और विधानसभाओं में ऐसे लोगों की खासी संख्या है जिनपर लूट, हत्या, बलात्कार व अपहरण के दर्जनों मुकदमें चल रहे हैं। कानून तोड़ने वाले आज कानून निर्माता बन गए हैं। फिर भी विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता राजनीति के अपराधिकरण को रोकने को तैयार नहीं हैं। इस तरह क्रमशः लोकतंत्र का ह्रास होता जा रहा है। संसद, विधानसभा या आम सभाओं में भी अब विरोध के स्वर सुनने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। बाहुबल वाले अपने विरोधी को अगर तर्क से नहीं हरा पाते तो हिंसा से चुप करने का निर्लज्ज प्रयास करते हैं। 


पिछले दिनों अलवर (राजस्थान) जिले के सूखाग्रस्त इलाके को हराभरा बनाने वाले मेगासेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में सिर की गंभीर चोटों का इलाज करवा रहे थे। उधर मुंबई विधानसभा में विश्वास मत हारने के बाद भाजपा-शिव सेना व सत्तारूढ़ दलों के कार्यकर्ताओं ने जम कर हिंसा की। उड़ीसा विधानसभा पर विहिप के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का हिंसात्मक हमला थोड़े ही दिन पहले हुआ था। राम-भक्तों पर गोधरा का नृशंस अग्निकांड और उसके बाद गुजरात की साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरी दुनिया का ध्यान अकर्षित किया। उत्तर प्रदेश विधानसभा में तो कुछ वर्ष पहले विधायकों ने ही माइक और कुर्सी फेंक कर एक दूसरे को लहू-लुहान कर दिया था।

अपनी बात मनवाने का यह नया तरीका विकसित होता जा रहा है। कहने को तो यह लोकतंत्र है, जिसमें हर आदमी को अपनी बात कहने का हक है। हर आदमी तभी कुछ कह सकता है, जब दूसरा सुनने को तैयार हो। जिसे सुनना है वह सुने नहीं, जिसे कहना है वह कह जाए, तो वहीं होता है, जिसका नजारा देश टेलीविजन पर रोजाना संसद के भीतर देखता है। देश की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद के सम्मानित सदस्य जब पीठासीन अधिकारी द्वारा बार-बार की जा रही अपीलों की उपेक्षा करके शोर मचाना जारी रखते हैं, तो एक मछली बाजार से भी बदतर दृश्य सामने आता है। पीठासीन अधिकारी की उपेक्षा करके शोर मचाने वाले सांसद, करोड़ों स्कूली बच्चों और नौजवानों को क्या शिक्षा देंगे ? यही न कि कानून की धज्जियां उड़ाओं, नियम तोड़ो, जा और बेजा जो बोलना हो जम कर बोलो और फिर भी अगर तुम्हारी बात न सुनी जाए तो हिंसा का सहारा ले लो, ये कैसा लोकतंत्र है ? जहां बिहार में चुनाव के दौरान पर्यवेक्षण को गए अधिकारियों से बेलाग कहा जाता है कि चुपचाप गेस्ट हाउस में बैठे रहो, पोलिंग बूथ पर जाने की हिम्मत मत करना, वरना जान से हाथ धो बैठोगे, क्योंकि स्थानीय पुलिस तुम्हें बचाने नहीं आएगी। फिर जबरन कब्जाए गए मतदान केंद्रों पर वोटों की छपाई चालू हो जाती है। अगर यही लोकतंत्र है तो जाहिरन इसमें जीत उसी की होगी जिसके पास बाहुबल, जनबल, धनबल या यूं कहें कि माफिया बल ज्यादा होगा। अगर बलपूर्वक ही अपनी जा और बेजा बात मनवानी है तो बेहतर होगा कि हम राजतंत्र की ओर लौट चलें। हर जिले का राजा एक शक्तिशाली माफिया हो, जिसके कारिदें तय करें कि वो जिला कैसे चलेगा ? उसकी मर्जी से कानून बने और उसकी इच्छा से लोगों पर हुुकूमत की जाए। वैसे भी कमोवेश ऐसा ही हो रहा है। कानून और पुलिस की पकड़ सिर्फ शरीफ या आम लोगों तक सीमित है। आज जो जितने बड़े अपराध करता है वह उतने ही बड़े पदों पर सुशोभित हो रहा है। फिर भी लोगों को यही बताया जाता है कि देश में कानून का शासन है। लोग हैरान है कि तमाम प्रमाणों के बावजूद एक से बढ़कर एक बड़े घोटालेबाज न्यायपालिका के हाथों से कैसे बच निकलते हैं ? उन्हें सजा क्यों नहीं मिल पाती ? हर घोटाले की परिणिति बाइज्जत बरी होकर कैसे होती है ? इस संदर्भ में भारत के, हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा का यह कथन महत्वपूर्ण है कि उच्च न्यापालिका में बीस फीसदी न्यायधीश भ्रष्ट हैं और उनसे निपटने के मौजूदा कानून नाकाफी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि महत्वपूर्ण लोगों को, बड़े घोटाले से बरी करने वालों में ऐसे ही न्यायधीश सक्रिय हों ? यह बहुत चिंता की बात है। ऐसी व्यवस्था से ही समाज में असंतोष फूटता है जो हिंसा की राजनीति को जन्म देता है। नक्सलवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

राजेन्द्र सिंह की पिटाई करने वाले अलीगढ़ के देहाती नेता राजवीर सिंह को इस बात पर गुस्सा आया कि राजेन्द्र सिंह ने उनसे असहमति क्यों व्यक्त की। पंचायत प्रमुख राजवीर सिंह ने देहाती क्षेत्र में पानी के संकट के लिए जब सरकार के अनुदान की कमी को कारण बताया तो राजेन्द्र सिंह ने यह कह कर उनकी बात काटी की सरकार पर निर्भर रहने की कोई जरूरत नहीं है। लोग अपने पुरूषार्थ से अपनी आवश्यकता का जल जमा कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें किसी बाहरी मदद की जरूरत नहीं हैं। चूंकि राजेन्द्र सिंह जैसे कई लोगों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थानीय सहयोग से और श्रमदान से प्राकृतिक जल का संग्रह किया इसीलिए उन्हें यह विश्वास है कि ऐसा करना संभव है। पर जिन राजनेताओं की राजनीति अनुदान, ठेके , कमीशन और दलाली पर टिकी होती है उन्हें सहयोग, सहकार्य और श्रमदान जैसी बातें कैसे समझ में आएंगी?

देश में आजादी के बाद विकास का जो माॅडल अपनाया गया उसमें सरकार पर निर्भरता बढ़ा दी गई। जनता से उसकी आत्मनिर्भर जीवनशैली को छीन लिया गया। उसे विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए। उसे सरकारी अनुदान पर निर्भर रहने की आदत डाल दी गई। सामुदायिक पहल और सहयोग की जगह वेतनभोगी सरकारी कर्मचारियों ने ले ली। जिनका उद्देश्य क्षेत्र का विकास करना नहीं मात्र अपना विकास करना है। नौकरशाही और विधायी संस्थाओं के रख-रखाव पर खर्चे, इस कदर बढ़ा दिए गए कि आज यह व्यवस्था पूरी तरह खस्ता हाल हो चुकी है। भारत सरकार से लेकर हर राज्य सरकार आकंठ कर्जों में डूबी है। हालत इतनी बुरी है कि मूल धन चुकाना तो दूर ब्याज तक चुकाने के लिए कर्जें लेने पड़ते हैं। सरकारी कर्मचारिर्यों को तनख्वाह देने को पैसे नहीं है। विकास के नाम पर सभी योजनाएं ठप्प पड़ी है। सरकारी मुलाजिम समय पर वेतन पाने के लिए कई राज्यों में आंदोलन कर रहे हैं। हड़ताले हों रही हैं और अल्पकालिक समझौते हो रहे हैं। इस सबसे समाज में अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। पिछले दशक में उदारीकरण के नाम पर जो कुछ किया गया उससे आम लोगों की तकलीफें बढ़ी है। फिर भी मुलम्मा चढ़ा कर विनाशकारी योजनाओं को, विकास की योजनाएं बता कर लोगों को गुमराह किया जाता है। राजेन्द्र सिंह जब अलवर पहुंचे और सरिस्का के जंगलों में पानी की कमी को दूर करने के लिए उन्होंने श्रमदान से और गांववालों के सहयोग से इस समस्या का हल ढूंढा तो उन्हें राजस्थान की सरकार ने सम्मानित नहीं किया बल्कि उसकी नौकरशाही ने बार-बार उनके काम में रोड़े अटकाए। पर जब राजेन्द्र सिंह की मेहनत को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिल गई तो जाहिरन देश के अन्य हिस्सों में लोग, उन्हें बुलाकर पानी के संकट से उबरने के रास्ते पूछना चाहते हैं। अगर लोग अपने ही बूते पर वर्षा के जल को संग्रह करना सीख जाएं और जल की समस्या से निजात पा लें तो देश भर के लाखों दलालों और छूटभैए नेताओं की दुकानदारी उखड़ जाएगी। इसलिए जब कभी जनता की तरफ से बदलाव की ऐसी पहल होती है तो उसका डटकर विरोध किया जाता है। सत्ताधीश और उनके एजेंट ऐसी रचनात्मक प्रवृृत्तियों को पनपने नहीं देना चाहते हैं। उन्हें हाशिए पर चले जाने का डर होता है।

यही कारण है कि हर तरह के संसाधनों से युक्त भारत बदहाली की मार झेल रहा है। सूखा तो इस साल ही पड़ा है पर देश में पानी की भारी किल्लत हमेशा बनी रहती है। जबकि हकीकत यह है कि प्रकृति वर्षा की मार्फत जितना जल भारत पर बरसाती है उसका दस फीसदी भी हम इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। सारा जल नदियों के रास्ते समुद्र में जाकर खारा हो जाता है। यह तो तब है जब जल संसाधन के प्रबंधन में पिछले 52 वर्षों में अरबों रूपया खर्च किया जा चुका है। सारा पैसा किसकी जेब में गया यह सब जानते हैं। आज हर शहर में बिजली का भारी संकट है। नतीजतन जैनरेटरों का शोर और वायु-प्रदूषण झेलकर शहरी लोग किसी तरह जिंदगी घसीट रहे हैं। पर कम लोग ही जानते हैं कि भारत की मौजूदा ऊर्जा उत्पादन क्षमता का आधा हिस्सा भी प्रयोग नहीं होता। सारी बिजली कुप्रबंध, भ्रष्टाचार और चोरी के कारण बर्बाद हो जाती है। यही हाल अन्य सेवा क्षेत्रों का भी है।

न्यायपालिका से लेकर विधायिका और कार्यपालिका तक का जो आलम है, उसका नजारा देश की सौ करोड़ जनता रोज देख रही है। परेशान हो रही है। झुझलाती है। क्रोध करती है। पर कुछ ठोस कदम नहीं उठाती। अगर देशवासी चाहते है कि प्रशासनिक व्यवस्था कम खर्चीली, चुस्त-दुरूस्त और जनता के प्रति जवाबदेह हो तो उन्हें भी कुछ करना पड़ेगा। उन्हे हर जिले के स्तर पर ऐसे लोगों को चुनना होगा, जिनमें स्थानीय जनता को दिशा देने की क्षमता हो। जिनके अनुकरणीय जीवन का उस क्षेत्र में सम्मान होता हो। ऐसे लोग हर जिले में है। प्रसिद्ध भले ही न हुए हों पर इन निस्वार्थ लोगों के निर्देशन में स्थानीय नौजवानों की ऐसी फौज खड़ी हो जो जनाधारित विकास के काम में रोड़ा अटकाने वालों को उनकी औकात बताने की हिम्मत रखती हो। जो संगठन बनाएं। जिनमें काम करने वाले पद और अनुदान के लालच में नहीं बल्कि त्याग और तपस्या के बल पर समाज को दिशा देने की क्षमता रखते हों। प्रशासनिक ढांचा इस बुरी तरह और तेजी से चरमरा रहा है अगर हम अब भी नहीं जागे तो हालात दक्षिणी अमरीकी देशों, अफ्रिकी देशों और रूस से भी बद्दतर हो जाएंगे। प्रशासन पंगू हो जाएगा। सरकार के पास साधन नहीं रहेंगे। जनता में अराजकता फैलेगी और काफी मार-काट मचेगी। जिसके बाद वहीं लोग बचेंगे जो इस सबको झेलकर भी जिंदा रह जाएंगे। वह भयावह स्थिति होगी। इससे बचने का एक ही रास्ता है, हम कबूतर की तरह आंख बंद करना छोड़ दे। बिगड़ते हालात की बिल्ली  हम पर झपट्टा मारने को तैयार बैठी है।

Friday, August 16, 2002

गुजरात में चुनावी दंगल शुरू

सारी दुनिया की नजर गुजरात के विधान सभा चुनावों पर है। राष्ट्रपति से लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त तक के गुजरात दौरों ने इस चुनाव को और भी रंगीन बना दिया है। दोनों ओर से महारथी मैदान में डटे हैं। एक ओर भाजपा के महारथी और दूसरी ओर इंका के महारथी अपनी ताल ठोक रहे हैं। फिलहाल मुद्दों और मतदाताओं के झुकाव की बात छोड़ दी जाए और केवल चुनावी दाव-पेंच का विश्लेषण किया जाए तो कई रोचक तथ्य सामने आते हैं। भाजपा की सेना में सबसे बड़े महारथी हैं स्वयं श्री लाल कृष्ण आडवाणी जो उप-प्रधानमंत्री भी हैं और गांधी नगर लोक सभा क्षेत्र के संसद में प्रतिनिधि भी। उनका व्यक्तित्व और गरिमा भाजपा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। पर भाजपा के समर्पित मतदाताओं को केन्द्र की राजग सरकार से बहुत उम्मीदें थीं जो पूरी नहीं हुई इसलिए उनमें निराशा है उधर गांधी नगर संसदीय क्षेत्र के मतदाता भी अपने सांसद से संतुष्ट नहीं हैं। फिर भी आडवाणी जी इस गुजरात के चुनाव अभियान में राजग के शेष कार्यकाल में बेहतर सरकार देने का सपना तो दिखा ही सकते हैं। मजबूरी हुई तो हिंदू कार्ड को भी खुलेआम खेल सकते हैं। पर उप प्रधानमंत्री के पद पर रहते ऐसा कर पाना सरल नहीं होगा।

भाजपा के दूसरे महारथी हैं- श्री केशुभाई पटेल। जिनका पटेल वोटों पर निःसंदेह अच्छा आधिपत्य है। पर उनके साथ कई पुछल्ले लगे हैं। एक तो यह कि वे श्री नरेन्द्र मोदी को कतई पसंद नहीं करते और अपने राजनैतिक पतन के लिए श्री मोदी को ही जिम्मेदार मानते हैं। इसलिए बावजूद इसके कि उन्हें भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान सौंपी गई है, उम्मीद यही है कि वे प्रचार ऊपर के मन से भले ही करें पर पटेल समाज को इस बात के लिए कभी मजबूर नहीं करेंगे कि वो श्री मोदी को वोट दें। अगर उन्होंने ऐसा किया तो वे पटेल समाज के मुखिया भी नहीं रह पाएंगे। दूसरा पुछल्ला यह है कि श्री केशुभाई पटेल के शासनकाल में गुजरात की आर्थिक दुर्गति ही हुई है। भूकंप राहत कार्य भी बड़ी अकुशलता से किया गया और उनकी सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का खुला खेल खेला गया, इसलिए पटेल समाज के बाहर उनकी शेष जनता पर पकड़ नहीं है। इसलिए गुजरात के विधान सभा चुनाव में वे भाजपा का भला कर पाएंगे, इस पर संदेह हैं।

भाजपा के तीसरे महारथी है श्री अरूण जेटली। जो अपनी वाकपटुता के कारण पहले मीडिया पर छाए और फिर भाजपा के सांसद व मंत्री बने और अब भाजपा के संगठन को संभालने पार्टी का महासचिव बन कर आ गए। श्री जेटली में हाजिर जवाबी तो है ही पर चुनाव लड़ने का उनका अनुभव लगभग शून्य हैं। वे स्वयं भी जीवन में विधानसभा से लेकर लोकसभा तक कोई चुनाव नहीं उड़े। संसद में उनका प्रवेश राज्य सभा की मार्फत हुआ। ऐसे में उनसे चुनावी हथकंडे दिखाने की उम्मीद करना नाइंसाफी होगी। जिस तरह उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त पर हमला बोला उससे श्री जेटली की हताशा स्पष्ट झलकती है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टीएन शेषन ने तो इससे कहीं ज्यादा कड़ी फटकार जिला प्रशासन को ही नहीं मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों तक को लगाईं थीं तब श्री जेटली के दल भाजपा ने श्री शेषन का यशगान किया था। आज जब वही बात उनके खिलाफ हुई तो इतना गुस्सा क्यों ? श्री जेटली के इस अप्रत्याशित बयान का समझदार जनता के बीच उल्टा प्रभाव पड़ेगा।

भाजपा के चैथे महारथी हैं स्वयं मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी। जो जमीन से जुड़े कार्यकर्ता रहे हैं और संघ व संगठन का खूब काम किया है। उन्हंे संगठन चलाने का खासा अनुभव है पर चुनाव उन्होंने भी आज तक न कोई लड़ा, न जीता। अपने जीवन का पहला चुनाव उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा के लिए लड़ा जो उनकी कुर्सी बचाए रखने के लिए जरूरी था। इसमें वे कामयाब जरूर हुए पर केवल एक चुनाव लड़ने से पूरे प्रदेश के चुनाव को संभालने की उम्मीद नहीं की जा सकती। दूसरी ओर श्री मोदी के रूखे स्वभाव ने उन्हें पार्टी में अनेक स्तर के नेताओं के बीच अलोकप्रिय बना दिया है जो इस चुनाव लड़ने में भारी पड़ सकता है।

उधर इंका के खेमे में गुजरात का मोर्चा संभावने वाले लोगों में तीन प्रमुख हैं। इंका के महासचिव व गुजरात के प्रभारी श्री कमलनाथ। जिनकी राजनैतिक शिक्षा संजय गांधी वाले दौर में हुई है। ये उस टीम के सदस्य रहे हैं जिसने अपनी आक्रामक राजनीति से 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी को भारी विजय दिलाई थी। तब से आज तक श्री कमलनाथ ने हार का मुंह नहीं देखा। मध्य प्रदेश (छिन्दवाड़ा) के अपने संसदीय क्षेत्र से वे लगातार सात बार से चुनाव जीतते रहे हैं, जो कि उनकी कम उम्र और छोटे से राजनैतिक जीवन में बहुत बड़ी उपलब्धि है। संगठन के मामले में भी वे अपने रंग दिल्ली मंे नगर निगम चुनावों में दिखा चुके हैं जहां उन्होंने कांग्रेस को आशातीत सफलता दिलवाई। 9 अगस्त को कपड़ा मिलों के शहर सूरत में जो इंका की भव्य रैली हुई उसमें श्री कमलनाथ के लिए नारे लग रहे थे, ‘‘देखो देखो कौन आया-मोदी तेरा बाप आया।’’ इस रैली की खासियत यह थी कि इसका आयोजन उन कपड़ा मिल मालिकों, मजदूरों और कपड़ा व्यापारियों ने किया जो आज तक भाजपा का साथ देते आए थे। इस तरह भाजपा के केंद्रीय कपड़ा मंत्री श्री काशी राम राणा के लोक सभा क्षेत्र में जाकर रणभेरी बजाने वाले श्री कमलनाथ गुजरात चुनाव में क्या-क्या रंग दिखाएंगे अभी अंदाजा लगाना मुश्किल है। पर यह जरूर है कि उनके लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है।

कांग्रेस के दूसरे महारथी श्री अमर सिंह चैधरी हैं। यूं तो आक्रामक तेवर वाले व्यक्ति नहीं हैं पर गुजरात में उनकी छवि एक गंभीर प्रशासक, सरल स्वभाव वाले नेता की है। जिसका फायदा इंका को मिल सकता हैं बशर्ते कि वे चुनाव में पूरी उत्साह से जुट जाएं। श्री शंकर सिंह वाघेला को जब इंका का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो श्री अमर सिंह चैधरी अपना विरोध प्रकट करने दिल्ली आ धमके पर बाद में उन्हें राजी कर लिया गया।

इंका के तीसरे महारथी हैं श्री शंकर सिंह वाघेला। जो दरअसल संघ और भाजपा के ही सृजन हैं। श्री वाघेला सारी जिंदगी संघ और भाजपा के लिए काम करते रहे। गुजरात में भाजपा संगठन को खड़ा करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने वर्षों कंधे पर थैला लटका कर सड़क छाप राजनीति की है। हर शहर में, हर कार्यकर्ता से उनका निजी संबंध है। यूं कमी किसमें नहीं होती पर श्री वाघेला की खासियत यह बताई जाती है कि जब वे मुख्यमंत्री के पद पर रहे तो भी उन्होंने कभी अहंकार को पास नहीं फटकने दिया और जो भी उनसे मिला उससे सम्मान से मिले। यहां तक कि लालबत्ती की मुख्यमंत्री वाली गाड़ी से उतर कर अपने मित्र या कार्यकर्ता की गाड़ी में बैठ कर चल देते थे और सारी औपचारिकताएं धरी रह जाती थी। जबकि दूसरी ओर श्री मोदी के रूखे और दंभी व्यवहार से प्रायः लोग नाराज होकर लौटते हैं।

गुजरात चुनाव की कमान संभालने वालों में इंका के श्री अहमद पटेल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे गुजरात के अल्पसंख्यकों से सीधे जुड़े हैं और मुस्लिम पटेल होने के नाते उनका गुजरात के पटेलों पर भी अच्छा प्रभाव है। सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं गुजरात के बहुसंख्यक समाज में भी श्री अहमद पटेल खासे लोकप्रिय हैं। वे जमीनी नेता हैं और तालुका स्तर से राजनीति शुरू करके यहां तक पहुंचे हैं। भड़ौच संसदीय क्षेत्र से वे 1977, 1980 व 1985 का लोक सभा चुनाव जीत कर आए थे। गुजरात के मतदाताओं के मनोविज्ञान की उन्हें गहरी समझ है। इस तरह चुनाव लड़ने और जीतने के अनुभव के मामले में कांग्रेस की टीम भाजपा से कहीं ज्यादा भारी पड़ रही है। वैसे हकीकत यह है कि चुनावी दंगल में लड़ते तो महारथी हैं लेकिन उनकी हार या जीत का फैसला मतदाता ही करता है। इसलिए अभी यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि गुजरात के मतदाताओं का ऊंट किस करवट बैठेगा ?

इसमें शक नहीं है कि गोधरा के बाद गुजरात के हिन्दुओं में ध्रुवीकरण हुआ था। जिसका कुछ असर अभी भी अहमदाबाद, बड़ौदा, मेहसाना और खेड़ा जिले में बाकी है। पर शेष गुजरात में न तो ऐसा ध्रीवीकरण हुआ और न ही साम्प्रदायिक दंगे। फिर भी भाजपा आश्वस्त है कि चुनाव में विजय उसकी ही होगी। इसीलिए वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू भावनाओं को जगाए रखेगी और इसीलिए वह जल्दी चुनाव भी चाहती है। जबकि हकीकत यह है कि गुजरात का मतदाता मूलतः व्यापारिक बुद्धि का है। एक व्यापारी का मुख्य लक्ष्य धन कमाना होता है। जिसके लिए वह व्यापार करता है। व्यापार जितना बढ़ता है उतनी उसकी आमदनी बढ़ती है। पर हिंसा और द्वेष की राजनीति से समाज की शांति भंग हो जाती है। पारस्परिक विश्वास टूट जाता है। असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है। गुजरात में गोधरा और उसके बाद की हिंसा में जो कुछ हुआ, ऐसे माहौल में न तो शांति ही रह सकती है और न व्यापार ही फलफूल सकता है। वही आज गुजरात में हो रहा है। उद्योग, धंधे और व्यापार पर ऐसी मार पड़ी है कि गुजरात का समाज उबर नहीं पा रहा है। चारो ओर हताशा का माहौल है रही सही कमर सूखे ने तोड़ दी। इसलिए गुजरात के मतदाओं ने अपना फैसला मन ही मन कर लिया है। गुजरात का यह इतिहास भी रहा है कि वहां का मतदाता अपने फैसले को अंत समय तक दिल में ही रखता है और मतदान के बाद चैकाने वाले परिणाम देता है। गुजरात विधान सभा चुनाव के क्या नतीजे आएंगे, अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पर इस बार के चुनावी दंगल में महारथियों के दाव-पेंच पर मीडिया जगत का विशेष ध्यान रहेगा और अंत में यही होगा कि, ‘जो जीता वही सिकंदर।’

Friday, August 9, 2002

’रोटरी ब्लड बैंक’ पर सवालिया निशान


बहुराष्ट्रीय कंपनियांे ने सौ करोड़ भारतीयों का भरा-पूरा बाजार देखकर पहले तो पीने का पानी बेचने का जाल फैलाया, फिर खाने के देशी तेल को मिलावटी बता कर विदेशों से महंगे तेल के आयात का रास्ता खुलवाया और अब उसकी नजर इंसानी खून पर है। इन अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों की कोशिश है कि भारत में खून की आपूर्ति का धंधा पकड़ लिया जाए तो उनकी चांदी ही चांदी हो जाएगी। केरल की ज्वाइंट एक्शन काउंसिल, कन्नूर के श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली इस मामले में पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट से एक महत्वपूर्ण फैसला लेने में कामयाब हुए। श्री मुल्लोली का आरोप है कि, ‘‘मानव सेवा के लिए समर्पित होने का दावा करने वाली रोटरी इन्टरनेशल भी खून की इस तिजारत में जन विरोधी काम कर रही है।’’ भारत सरकार ने एक यूनिट खून को उपलब्ध कराने की अधिकतम कीमत 500 रूपया तय की है। इंडियन रेड क्राॅस सोसाइटी यही सेवाएं केवल साढ़े तीन सौ रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से देती है। जबकि स्वयं सेवी रूप से ब्लड बैंक चलाने का दावा करने वाला रोटरी क्लब 750 रूपए प्रति यूनिट की दर से रक्त सेवाएं प्रदान करता है। कहीं-कहीं रोटरी ब्लड बैंक इसके 900 रूपए तक वसूल करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये रक्त की कीमत नहीं है क्योंकि रक्त तो रक्त दान शिविरों से मुफ्त की इकट्ठा किया जाता है। यह कीमत तो रक्त के संग्रह, परीक्षण, संरक्षण और वितरण की है। 

श्री एच.डी. शौरी ने एक जनहित याचिका दायर करके 1996 में सर्वोच्च न्यायालय से एक अजीबो-गरीब फैसला हासिल किया। जिसे ऐतिहासिक फैसला बताया गया। इस फैसले के तहत व्यवसायिक रक्तदाताओं को रक्त बेचने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। इसका आधार यह बताया गया कि ऐसे लोगों को एड्स जैसी बीमारी होने की संभावना ज्यादा है इसलिए इनका रक्त नहीं लिया जाना चाहिए। यह दूसरी बात है कि कि देश की कुल रक्त आवश्यकता का एक तिहाई इन्हीं व्यवसायिक रक्त दाताओं से आता है । ये प्रथा अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है, जब भारत में आम आदमी रक्तदान करना अपने स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं मानता था। श्री मुल्लोली का आरोप है कि व्यवसायिक रक्तदाताओं पर इस किस्म की अविवेकपूर्ण और अव्यवहारिक रोक लगाना पूर्णतः अवैज्ञानिक है। जब रक्त संग्रह किया जाता है उसी समय उसकी गुणवत्ता का वैज्ञानिक परीक्षण होता है। अगर किसी दाता का रक्त दोषपूर्ण होता है तो इसी स्टेज पर उसे नकार दिया जाता है। फिर किसी व्यक्ति की सामाजिक, व्यवसायिक या आर्थिक पृष्ठभूमि का ख्याल करने की जरूरत ही कहां है ? यह तो एक तरीके का नया जातिवाद हुआ जहां समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को रक्तदान के मामले में अछूत करार दे दिया गया। यह बात दूसरी है कि इस फैसले के बावजूद ब्लड बैंको में व्यवसायिक दानदाताओं का रक्त फिर भी आता रहा। चूंकि ऐसा करना अब गैर कानूनी था इसलिए यह काम चोरी-छिपे किया गया और रक्त के कई गुने दाम वसूले गए।
 वैसे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से ही बात नहीं थमी। भारत सरकार तो उससे भी एक कदम आगे बढ़ गई और उसने जेल में रह रहे कैदियों को रक्तदान के अधिकार से वंचित कर दिया, यह कह कर कि इनका रक्त खतरनाक हो सकता है। जबकि हकीकत यह है कि कैदियों का स्वास्थ्य जेल में रहने से प्रायः सुधर जाता है और वे लोग लगातार डाक्टरी निरीक्षण के तहत रहते हैं।
रोटरी क्लब ने तो इस मामले में और भी बुद्धिमताका प्रदर्शन किया और गैर-कानूनी रूप से यह घोषणा कर दी कि वे रिक्शा चालकों या अन्य किस्म के गरीब लोगों का रक्त स्वीकार नहीं करेगा। इस नियम के पीछे कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं था। इसलिए इन सब फैसलों को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और 29 जुलाई 2002 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे सभी प्रतिबंधों को निरस्त कर दिया। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद अब कैदी, रिक्शा चालक, व अन्य तबके के गरीब लोग भी रक्तदान कर सकेंगे। उल्लेखनीय है कि एक बार रक्तदान करने से कैदियों की सजा में 15 दिन की कमी हो जाती है। यहां यह याद दिलाना भी महत्वपूर्ण होेगा कि गुजरात में पिछले वर्ष आए भूकंप के बाद रक्त की भारी आवश्यकता के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले के चलते कैदियों को रक्त दान नहीं करने दिया गया था। जेल अधिकारी इस मामले को लेकर मानावाधिकार आयोग गए पर वहां भी उनकी नहीं सुनी गई। पर अब स्थिति बदल गई है । दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से सबसे ज्यादा हर्ष कैदियों और गरीब लोगों को हुआ है।
उल्लेखनीय है कि इन्टरनेशल फेडरेशन आफ दी रेड क्राॅस ने तीन वर्ष पहले भारत में स्वैच्छिक रक्तदान की दयनीय दशा पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। मशहूर चार्टटेर्ड एकाउंटेंट फर्म ए.एफ फरगुसन ने एक अध्ययन करके यह बताने की कोशिश की व्यवसायिक रक्तदाता प्रायः गरीब है, नशेड़ी है या अवैध सैक्स संबंध रखते हैं इसलिए उनका रक्त सुरक्षित नहीं है। इससे ज्यादा हास्यादपद अध्ययन हो नहीं सकता। क्या धनी लोग नशेड़ी नहीं होते या अवैध सैक्स संबंध नहीं रखते ? क्या गरीब होना अभिशाप  है और धनी होना स्वस्थ्य होने की गारंटी है?
ये सब वाहियात बातें हैं और भारत में रक्त का विश्व बाजार तैयार करने के उद्देश्य से की जा रही हंै। आवश्यकता तो इस बात की है कि रक्तदान के लिए देश में समुचित वातावरण तैयार किया जाए। लोगों में इसकी सही समझ पैदा की जाए। पेशेवर रक्तदाताओं के नियमित स्वास्थ्य के परीक्षण की व्यवस्था की जाए और नौजवानों और स्वस्थ लोगों को स्वैच्छिक रक्त दान के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रेरणा दी जाए ताकि रक्त की आवश्यकता देश में ही आसानी से पूरी हो सके। विदेशों से रक्त आयात न करना पड़े तो देश की दौलत देश में ही रहेगी और रक्त की आपूर्ति में हम हमेशा आत्मनिर्भर बने रहेंगे।
रोटरी इनटरनेशल जैसी संस्था को भी अपनी नीति में सुधार लाना चाहिए। भारतीय समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्से को अछूत बना कर वे समाज की सेवा नहीं कर रहे। खासकर तब जबकि उन्हें अपनी ब्लड बैंक सुविधा के विस्तार के लिए 53 लाख रूपए का अनुदान दिल्ली सरकार से और एक करोड़ रूपए का अनुदान संसदीय विकास निधि से प्राप्त हुआ है। जोकि उनके कुल बजट पांच करोड़ रूपए का एक तिहाई हिस्सा है। जनता का धन लेकर जन       विरोधी काम क्यों ?
नेशनल ब्लड ट्रास्फयूजन काउंसिलको भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। इस काउंसिल का गठन ब्लड बैंकों का अधुनिकीकरण और रक्त की समुचित मात्रा की आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था। जो कि सुप्रीम कोर्ट के 1996 के निर्णय के बाद अस्तित्व में आई। पर काउंसिल ने अपनी प्रस्तावित जिम्मेदारी पूरी करने की बजाए  सारी ऊर्जा सेमिनारों और बैठकों के आयोजित करने में ही लगा दी। 1998 तक केवल प्रशासन और सेमिनार पर ही डेढ करोड़ रूपया खर्च कर दिया।
रक्त की गुणवत्ता के नाम पर फैलाए जा रहे इस सारे प्रपंच के पीछे अंतर्राष्ट्रीय रक्त कंपनियों की गहरी साजिश है जो भारत में रक्त की कमी का आतंक फैलाकर भारत को विदेशों से रक्त निर्यात करना चाहतीं है। गरीबी और बीमारी से जूझते आम हिंदुस्तानियो की जेब पर डाका डालना चाहती हैं। इसका ठोस प्रमाण यह है कि 1996 का सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पहले 1994 में देश में केवल 15 लाख रूपए का रक्त आयात हो रहा था। इस निर्णय के आने के बाद सैंकड़ों करोड़ रूपए साल का रक्त आयात होने लगा। ताजा जानकारी के अनुसार पिछले वर्ष 2,800 करोड़ रूपए का रक्त और रक्त आधारित पदार्थों का आयात किया गया। यह आयात मूलतः फ्रांस और अमरीका से ही हुआ। इससे ज्यादा विडंबना की बात क्या हो सकती है कि सौ करोड़ की आबादी वाले देश में भी मानव रक्त का आयात करना पड़े और सीमित विदेशी पूंजी को इस तरह बर्बाद करना पड़े ? उल्लेखनीय है कि देश में कुल 80 लाख यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है, जो देश में ही बड़ी सरलता से उपलब्ध है। हकीकत तो यह है कि देश में ब्लड बैंको के पास उनकी संग्रह क्षमता से ज्यादा रक्त की हमेशा ही आपूर्ति होती रहती है। बशर्ते कि व्यवसायिक रक्तदाताओं को रोका न जाए। रक्त के इस कारोबार में केवल रक्त के आयात का ही मुद्दा नहीं है बल्कि रक्त की जांच के नाम पर भी करोड़ों रूपए की मशीनों का भी आयात किया गया। रक्त जांच करने की इन मशीनों की क्षमता भारत की कुल रक्त की मांग से कहीं ज्यादा है। फिर यह फिजूलखर्जी किसके हित साधने के लिए की गई ? कारगिल युद्ध के दौरान जब देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत भारतवासी रक्तदान करने उमडे़ चले आए, तब ब्लड बैंकों में रक्त संग्रह की क्षमता न होने के कारण उन्हें लौटा दिया गया। साफ जाहिर है कि इन मशीनों को आवश्यकता से ज्यादा मंगाया गया। इस तरह रक्त का कारोबार एक बड़े मुनाफे का कारोबार है इसलिए भारत की आम जनता को जागरूक रहना होगा, कहीं खून के सौदागर उसे लूट न ले जाएं।

Friday, August 2, 2002

गुजरात की नौकरशाही के सामने धर्म-संकट

गुजरात में चुनाव होने को है। दोनों ओर से तलवारें तनी हैं। ऐसे में गुजरात की नौकरशाही की स्थिति बड़ी नाजुक है। अगर प्रचार की हवा में बह कर वे कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनके निष्पक्ष आचरण पर आंच आए , तो उन्हें इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यूं भाजपा पूरे उत्साह में है और बहुमत मिलने के प्रति आश्वस्त है। ये बात दूसरी है कि पिछली बार मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भी भाजपा इसी तरह अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त थी। पर परिणाम विपरीत ही आए। मजेदार बात ये है कि मध्य प्रदेश में तो परिणाम आने से पहले ही भाजपा के पटवा गुट व दूसरे गुटों में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर संघर्ष भी छिड़ गया था। उधर उत्तर प्रदेश में स्थानीय अखबारों ने जम कर भाजपा का प्रचार किया। इन अखबारों को पढ़कर लगता था कि उत्तर प्रदेश में श्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा पुनः सरकार बनाने जा रही है। श्री राजनाथ सिंह भी बढ़चढ़ कर स्पष्ट बहुमत की सरकार बनने का दावा कर रहे थे। उधर भाजपा द्वारा प्रायोजित तमाम चुनावी सर्वेक्षण भी बार-बार मतदाताओं को गुमराह करने की कोशिश कर रहे थे। इन सभी सर्वेक्षणों में भाजपा को उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिलने की जोर-शोर से घोषणा की थी। पर जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो भाजपा चारो खाने चित गिर गई।

उत्तर प्रदेश का मतदाता भाजपा की धार्मिक नाटकबाजी से तंग आ चुका था। उसने देखा कि 1990 से 2002 तक भाजपा ने रामजन्म भूमि को लेकर कितने पैंतरे बदले ? हर बार चुनाव से पहले राममंदिर का निर्माण करने के तमाम दावे किए गए। विहिप और संघ से जम कर माहौल बनवाया। पर हर बार मतदाता ठगा गया। नतिजतन पिछले कुछ वर्षों में भगवान् राम और श्री कृष्ण की जन्मभूमि वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह हालत हो गई कि लोगांे ने संघ के प्रचारकों पर विश्वास ही करना छोड़ दिया। उनके तमाम कार्यक्रम उत्तर प्रदेश में लगातार असफल होते गए। विहिप द्वारा मथुरा में आयोजित यज्ञ बुरी तरह विफल हुआ। साधु संतों ने विहिप के कार्यक्रमों का बहिष्कार कर दिया। मतदाताओं ने देख लिया कि संघ और विहिप वाले चुनाव के पहले तो भाजपा के लिए माहौल बनाने में जुट जाते हैं, पर जब चुनाव हो जाता है, तो मतदाताओं के आक्रोश से बचने के लिए, यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हम तो गैर राजनैतिक संगठन हैं जबकि भाजपा एक राजनैतिक दल। जिसकी नीतियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। उनकी यह दोहरी चाल जनता की समझ में आ गई। इसलिए जब विहिप ने उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के कई महीने पहले 2001 में फिर से राममंदिर के निर्माण के नाम पर माहौल बनाना शुरू किया तो उसे जनता ने गंभीरता से नहीं लिया। अयोध्या के लिए जब कार सेवकों का बुलावा आया तो अन्य शहरों को छोड़ हिंदू धर्म के केन्द्र माने जाने वाले तीर्थ नगरों से भी 10-15 कार सेवक जुटाना भारी पड़ गया। जनता की ऐसी उपेक्षा देखकर घबराए विहिप ने संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिरों के अध्यापकों को कार सेवक के रूप में बटोरना शुरू किया। मरता क्या न करता। बेचारे जिसकी नौकरी करते हैं उसकी अवहेलना तो कर नहीं सकते थे। मजबूरन उन्हें जाना पड़ा। फिर भी अयोध्या में कार सेवकों की उपस्थिति नगण्य ही थी। टीवी चैनलों पर अयोध्या में शिलादान कार्यक्रम की आंखों देखी रिपोर्ट देखने वाले दर्शकों को याद होगा कि अयोध्या की सड़कें सुनी पड़ी थीं। जबकि माहौल ऐसा बनाया जा रहा था मानो कार सेवकों का तूफान टूट पड़ेगा। कार सेवकों की इतनी कम उपस्थिति का कारण खिसियाये विहिप और संघ ने पुलिस के सख्त इंतजाम का होना बताया। ये सरासर गलत बयानी थी। जब किसी राजनेता की रैली असफल हो जाती है। वो श्रोताओं की भीड़ नहीं जुटा पाता तो यही सफाई देता है कि पुलिस ने लोगों को आने नहीं दिया। अगर पुलिस बंदोबस्त के कारण विहिप और संघ का शिलादान कार्यक्रम असफल हुआ तो ऐसा कैसे हुआ कि 1990 में, श्री मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में, केन्द्र और राज्य में गैर भाजपाई सरकार होने के बावजूद लाखों की तादाद में देश भर से कार सेवक अयोध्या में टूट पड़े थे। उन्होेंने पुलिस की गोली तक की परवाह नहीं की। सैकड़ों नौजवान और साधु तक शहीद हो गए। तब संघ और विहिप ने लोगों की भावनाएं भड़काने को नारा दिया था, ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का।’ पर पिछले कुछ वर्षों में इस देश की जनता ने देखा कि किस तरह विहिप और संघ को केवल हर चुनाव के पहले ही राममंदिर के निर्माण की याद आती है। इसलिए वो उसके बहकावे में नहीं आएं। भाजपा को समझ में आ गया कि राममंदिर का मुद्दा अब वोट नहीं जुटा पा रहा है। हड़बड़ाहाट में नया मुद्दा तलाशना था। ऐसे में गुजरात की हिंसा को भुनाना ही उसे सबसे आसान रास्ता लगा। विहिप और संघ वाले भावनाएं भड़काने में माहिर हैं। तय किया गया कि गुजरात के हिंदुओं को डराओं ताकि वोट पक्के हो जाएं। उन्हें बताओं कि भारत को सबसे बड़ा खतरा मुसलमानों से हैं। आतंकवाद के लिए भी मुसलमान ही जिम्मेदार है।

कोई संघ, विहिप और भाजपा वालों से पूछे कि अगर उन्हें देश में आतंकवाद की इतनी ही चिंता है तो क्या वजह है कि जैन हवाला कांड की जांच में हुई कोताही के खिलाफ उन्होंने आज तक आवाज नहीं उठाई ? जबकि सब जानते हैं कि इस कांड में ही पहली बार कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही विदेशी मदद का पर्दाफाश हुआ था। सीबीआई के पास सारे सबूत मौजूद थे। फिर भी इस कांड की जांच को बड़ी बेशर्माई से दबा दिया गया। संघ और विहिप सिर्फ इसलिए चुप रहे क्यांेकि भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं के नाम इस कांड में शामिल थे इसलिए संघ और विहिप ने राष्ट्र के हितों का बलिदान कर दिया। उन्हें न तो इस बात की चिंता हुई कि अगर जैन हवाला कांड की जांच न हुई तो कश्मीर के आतंकवादियों को विदेशों से हवाला के जरिए मदद जारी रहेगी। न उन्हें कश्मीर के विस्थापित हिंदुओं पर तरस आया जो हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवाद के कारण घाटी छोड़ने पर मजबूर हो गए थे। जो आज भी जम्मू और देश के दूसरे हिस्सों में शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी ने कहा था कि व्यक्ति से संगठन का हित बड़ा है और संगठन से राष्ट्र का हित बड़ा है। पर भाजपा के चंद बड़े नेताओं को बचाने के धृतराष्ट्र मोह में संघ और विहिप ने अपना राष्ट्र धर्म भी भुला दिया। उस समय श्री नरेन्द्र मोदी, डा. प्रवीण तोगडि़या या श्री अरूण जेटली जैसे महारथी कहां थे ? क्या ये हवाला कांड के बारे में झूठा प्रचार करके देश को गुमराह करने में नहीं जुटे थे ? क्या यह राष्ट्रहित के विरूद्ध काम नहीं था ? तब ये बताना चाहते थे कि हवाला कांड में इनके नेताओं पर झूठे आरोप लगाए गए हैं । पर जब इनसे तथ्यात्मक प्रश्न किए गए तो इनके पास कोई जवाब नहीं था। आज भी इस कांड के सारे प्रमाण मौजूद हैं। पर ये उन सवालों को नहीं उठाएंगे। हम भी गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ना चाहते। पर यह जान लेना जरूरी है कि जो ये कहते हैं वो अक्सर सच नहीं होता। इनके भी दो चेहरे हैं। दरअसल संघ के कार्यकर्ता अपना दिमाग गिरवी रख कर आते हैं और झूठ प्रसारित करने की कला में माहिर हैं। इसका उदाहारण हमने जैन हवाला कांड के संघर्ष के दौरान खूब देखा है।

एक ताजा उदाहारण बहुत रोचक है। पिछले दिनो कानून मंत्री के रूप में श्री अरूण जेटली ने घोषणा की कि लंदन से आतंकवादियों को पैसा भेजने वाले डा. अय्यूब ठाकुर को गिरफ्तार कर भारत लाने की पूरी कोशिश की जाएगी। उनका और केंद्रीय गृहमंत्री का यह बयान सारे देश के अखबारों में छपा। दिल्ली के प्रतिष्ठित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक व्याख्यान के दौरान जब जेटली ने यही गर्वोक्ति पुनः की तो एक श्रोता पत्रकार ने खड़े होकर याद दिलाया कि यह वही डा. अय्यूब ठाकुर है जिसका नाम हवाला कांड में हिजबुल मुजाहिद्दीन को लंदन से पैसा भेजने वालों में सामने आया था। हवाला केस के प्रमुख याचिकाकर्ता के शपथ पत्र सर्वोच्च न्यायलय में दाखिल पड़े हैं, जिनमें इस जांच की कोताही का पूरा ब्यौरा है। पर तब श्री जेटली ने इस मामले को रफा-दफा करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नतीजतन डा. ठाकुर के खिलाफ कोई जांच नहीं हुई और वो आज तक आतंकवादियों को पैसा भेज रहा है। ये सुन कर श्री जेटली बगले झांकने लगे। उनसे जवाब देते नहीं बना। पाठकों को सोचना पड़ेगा कि देश को खतरा किससे है ? आज जो लोग हिंदुओं के धर्मरक्षक या देश रक्षक होने का दावा कर रहे हैं उन्हें ऐसे सवालों के जवाब गुजरात की जनता को देने चाहिए। 

वैसे, गुजरात की जनता भी यह समझती है कि संघ और विहिप केवल भाजपा को सत्ता में लाने के लिए ही सारे नाटक करते हैं। भाजपा के सत्ता में आ जान के बाद बड़ी आसानी से यह कह कर कंधा झाड़ लेते हैं कि उनके नेताओं पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। ऐसा उन्होंने बार-बार किया है। बार-बार मतदाताओं ने उनसे धोखा खाया है। अब देश की जनता को यह साफ हो गया है कि भाजपा को सरकार चलाना तो आता नहीं, धर्म जैसे बाकी मामलों में भी उसके असली इरादे जनता के सामने आ चुके हैं। इसलिए भाजपा वाले हर चुनाव में अपनी जीत का दावा तो बढ़-चढ़ कर करते हैं, पर पराजय का मुख ही देखते हैं। गुजरात में फिलहाल जो माहौल बनाया जा रहा है वह इस क्रम की आखिरी कड़ी है। गुजरात के नागरिक काफी समझदार हैं। वे जानते हैं कि सच्चाई क्या है ? सामने से वे कुछ भी बोलें पर वोट देते वक्त उनका फैसला चैका देने वाला होगा। ऐसे में गुजरात की नौकरशाही के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। अगर वह अपना कर्तव्य भूलकर किसी एक राजनैतिक दल के प्रभाव में काम करती है तो उसे भविष्य में काफी संकट का सामना करना पड़ सकता है। ऐसी बातें छिपी नहीं रहती हैं। यूं नौकरशाही और पुलिस में ज्यादातार लोग चुनाव के समय तटस्थ रहने की ही कोशिश करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि आज जो दल सत्ता में है कल उसका विरोधी दल सत्ता पर काबिज हो सकता है। ऐसे में किसी के भी पक्ष में काम करना उनके कैरियार के लिए घातक हो सकता है। फिर भी कुछ महत्वाकांक्षी नौकरशाह और पुलिसवाले ऐसे जरूर होते हैं जो औकात से ज्यादा लाभ लेने के लालच में अपनी सीमाओं के परे जा कर हुक्मरानों के राजनैतिक हित साधने में संकोच नहीं करते। ऐसे लोगों के लिए गुजरात जैसी स्थिति कभी-कभी बड़ी खतरनाक हो सकती है। वो सोचें कुछ और नतीजा आए कुछ , तो मामला टेढ़ा पड़ सकता है। सरकारी नौकरी का तकाजा यही है कि नौकरशाही चुनाव के दौर में पूरी तटस्थता बरते ताकि जनता स्वतंत्रता पूर्वक अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके। फिर चाहे चुनाव भाजपा शासित राज्यों में हो, इंका शासित राज्यों में हो या कम्युनिस्ट शासित राज्यों में हो। नौकरशाही को खरगोश और कछुए की दौड़ वाली कहानी नहीं भूलनी चाहिए। तेजी दिखाने के चक्कर में खरगोश दौड़ हार गया, जबकि धीमी गति से चलने वाला कछुआ जीत गया।

Friday, July 26, 2002

गुजरात में होगा तगड़ा चुनावी दंगल

गुजरात इंका प्रदेश इकाई के अध्यक्ष बनने के बाद श्री शंकर सिंह वाघेला का जिस गर्मजोशी से अहमदाबाद में स्वागत हुआ उससे भाजपा के खेमों में हड़कंप मच गया है। यूं हवा अभी भी भाजपा के पक्ष में बहती लग रही है। पर आने वाले दिनों में समीकरण तेजी से बदलने के आसार है। एक तरफ जहां इंका में नए रक्त और ऊर्जा का संचार हुआ है वहीं भाजपा के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने विधानसभा भंग करके अपनी हड़बडाहट का परिचय दिया है। अभी उनके पास पांच महीने का कार्यकाल और था जिसमें वे अपनी प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन करके लोगों का विश्वास जीत सकते थे। तब उन पर यह आरोप भी नहीं लगता कि वे साम्प्रदायिक ंिहंसा को वोटों के लिए भुना रहे हैं। पर भाजपा में ही श्री मोदी के आलोचकों का कहना है कि अपने थोड़े से विवादास्पद कार्यकाल में श्री मोदी ऐसा कुछ भी नहीं कर पाए जिससे उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता का परिचय मिलता। अपने रूखे व्यवहार और तुरंत निर्णय न लेने की कमजोरी के कारण उन्होंने न सिर्फ लोगों को हतोत्साहित किया है बल्कि प्रशासनिक मशीनरी भी उनसे ना खुश है। जानकार बताते हैं कि श्री वाघेला के नाम की घोषणा होने के बाद गांधी नगर सचिवालय में अधिकारियों के बीच मिठाई बटी। प्रदेश का औद्योगिक और व्यापारिक वर्ग यह मानता है कि निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता और प्रशासन पर कड़ी पकड़ के कारण अपने छोटे से कार्यकाल में ही श्री वाघेला गुजरात के विकास के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त मुख्यमंत्री साबित हुए हैं और अब एक बार फिर उनसे लोगों को काफी उम्मीदें बंधने लगी हैं।

भाजपा और इंका का अगर ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो स्थिति इस प्रकार सामने आती हैं। एक तरफ भाजपा है जिसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की एक लंबी फौज है। पर वे सभी कार्यकर्ता अपने नेताओं से बुरी तरह नाराज हैं उनकी शिकायत है कि उन्हें हमेशा चुनाव के पहले काम में जोत दिया जाता है। पर जब भाजपा सत्ता में आती है तो मलाई उसके नेता खाते हैं। कार्यकर्ता धक्के खाते फिरते हैं। यही कारण है कि आने वाले दिनों में भाजपा नेतृत्व के लिए अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव में जुटने के लिए प्रेरित कर पाना बहुत मुश्किल होगा। कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। दूसरी तरफ इंका के पास कार्यकर्ताओं की वैसी समर्पित फौज नहीं है। जबकि नेताओं की संख्या ज्यादा है। इसलिए उसे मतदाता को घर से निकालने में मुश्किल आ सकती है। पर गुजरात इंका के प्रवक्ता श्री हिमांशु व्यास इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर ऐसा होता तो पिछले दिनों पंचायत और नगर पालिकाओं के चुनावों में इंका को इतनी भारी विजय नहीं मिलती। इंका नेतृत्व को इस बात का पूरा विश्वास है कि पंचायतों और नगरपालिकाओं की उनकी यह फौज चुनाव को उनके पक्ष में मोड़ देगी।

वैसे भी सरकार चलाने की अपनी क्षमता और प्रशासनिक योग्यता को ही इंका मुद्दा बना रही है। गुजरात राज्य के प्रभारी व इंका के महासचिव श्री कमल नाथ ने गांधीनगर में खचा-खच भरे सम्वाददाता सम्मेलन में गुजरात के विकास को ही अपने चुनाव का मुख्य मुद्दा बताया। लोगों को पानी और बिजली की दिक्कत और भाजपा के शासन काल में गुजरात के उद्योग और व्यापार में आई भारी गिरावट का हवाला देते हुए श्री कमल नाथ ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ चुनाव में इंका की जीत का दावा किया। हिंदू कार्ड के सवाल को उन्होंने यह कह कर उड़ा दिया कि यह तो भाजपा की बड़ी पुरानी रणनीति रही है कि वह चुनावों से पहले भावनात्मक मुद्दे उछालकर लोगों का ध्यान अपनी नाकामयाबी से हटाना चाहती है। उनका दावा था कि लोग भाजपा के इस चरित्र को अच्छी तरह समझ गए हैं इसलिए वे अब उसके बहकावे में नहीं आते। इसका प्रमाण पिछले महीनों में देश भर में हुए अलग-अलग किस्म के वे तमाम चुनाव हैं जिनमें भाजपा बुरी तरह हारती जा रही है। भाजपा के खेमे में इंका की गुजरात इकाई में चल रही गुटबाजी को लेकर काफी चर्चा रही। उन्हें विश्वास था कि अमर सिंह चैधरी गुट श्री वाघेला का साथ नहीं देगा। पर सम्वाददाता सम्मेलन में श्री अहमद पटेल, श्री कमल नाथ, श्री अमर सिंह चैधरी और श्री शंकर सिंह वाघेला की साझी उपस्थिति में यह घोषणा हुई कि आगामी चुनाव प्रचार के दौरान श्री चैधरी व श्री वाघेला साथ-साथ रैलियों को संबोधित करेंगे। श्री चैधरी ने भी इसका समर्थन किया। इस तरह गुटबाजी की बात फिलहाल गौण हो गए लगती हैं।

यह सही है कि गोधरा की घटना को लेकर हिंदुओं का आक्रोश न सिर्फ मुसलमानों के प्रति भड़का बल्कि उनमें एकजुटता भी आई। पर इसका ज्यादा प्रभाव केवल दंगों से प्रभावित क्षेत्रों में ही देखने को आ रहा है। मसलन, अहमदाबाद और बड़ौदा क्षेत्र के हिंदू जितना श्री मोदी को समर्थन कर रहे हैं उतना शेष प्रांत में उन्हें समर्थन नहीं मिल रहा हैं। इसमें शक नहीं है कि श्री मोदी ने गुजरात में हिंदुओं के रक्षक के रूप में एक लड़ाकू नेता की छवि बनाई है और लोग मानते हैं कि उनकी इस छवि से गुजरात की पतनशील भाजपा में भारी जान आई है। गोधरा कांड से पहले यह माना जा रहा था कि गुजरात में भाजपा का सफाया हो जाएगा। पर गोधरा और उसके बाद के दंगों ने ऐसी हवा बनाई कि सबको लगने लगा कि अब भाजपा की सफलता को कोई नहीं रोक सकता। शायद इसीलिए विपक्ष ने भी बार-बार श्री मोदी को हटाने की मांग की। यह बात दूसरी है कि इसी तरह की हिंसा के बाद पंजाब, दिल्ली और असम में चुनाव करवाए गए थे। पर श्री मोदी इस बार पूरी दुनिया की मीडिया के आलोचना का शिकार हो गए। इसलिए उन्हें हटाए जाने की मांग ने इतना जोर पकड़ा। जिस तरह भाजपा ने उत्तर प्रदेश में श्री विनय कटियार को प्रदेश अध्यक्ष बना कर भेजा और गुजरात में श्री नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री बना कर भेजा उससे यह तो साफ भी हो गया है कि भाजपा अब हिंदू कार्ड पर ही चुनाव लड़ने जा रही है। आश्चर्यजनक रूप से राजग के सहयोगी दल अब उसका वैसा प्रखर विरोध नहीं कर रहे जैसा पिछले वर्षों में करते आए हैं। कुछ लोग इसे भारत की राजनीति के दो शिखरों पर हुए ध्रुविकरण का प्रमाण मान रहे हैं पर इस बात में संशय ही लगता है कि श्री चन्द्र बाबू नायडु और सुश्री ममता बैनर्जी, श्री नीतीश कुमार और श्री करूणानिधि जैसे लोग आंख मूंद कर भाजपा के हिंदूवादी एजेंडे को बर्दाश्त कर लेंगे।



उधर पता चला है कि विहिप के महासचिव डा. प्रदीप तोगडि़या को भारी मात्रा में आर्थिक मदद पहुंचाई जा रही है। जिसका इस्तेमाल वे आने वाले चुनावों में भाले और त्रिशूल बांटने में करेंगे ताकि वातावरण को आक्रामक बनाया जा सके। शायद वे अपने इस अभियान में सफल हो जाते अगर श्री वाघेला मैदान में नहीं कूदते। पर संघ से ही उभर कर ऊपर उठे और अपने बलबूते पर गुजरात में भाजपा को खड़े करने वाले श्री शंकर सिंह वाघेला के बारे में ऐसा विश्वास है कि वे भाजपा, संघ और विहिप की सभी कमजोरियों से बखूबी वाकिफ हैं और इन संगठनों से अपने साथ हुए सौतेले व्यवहार का हिसाब एक घायल शेर की तरह चुकता करना चाहते हैं। इसलिए वे भी हर हथकंडा अपना कर इंका की विजय सुनिश्चित कराना चाहेंगे। गुजरात के पत्रकारों का मानना है कि विहिप के तमाम प्रयासों के बावजूद गुजरात का देहाती मतदाता हिंदू कार्ड से प्रभावित नहीं होगा। आज उनके सामने पानी, बिजली, सूखे और बेरोजगारी का जो भारी संकट खड़ा है वे उसका निदान चाहते हैं। धर्म उनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही। यह सही है कि पिछले दिनों साम्प्रदायिक हिंसा को देहातों तक पहुंचाया गया। पर आज भी गुजरात का देहाती और व्यापारी समाज हिंसा की तुलना में शांति और सौहार्दपूर्ण वातावरण को ही प्राथमिकता देता है ताकि उनका कारोबार ठीक तरह से चल सके। गुजरात के दंगों के बाद वहां उद्योग और व्यापार लगभग ठप हो गए हैं। सैकड़ों करोड का माल और पैसा जगह-जगह अटक गया है। व्यापार में भारी मंदी छाई है। लोगों के भुगतान रूके पड़ें हैं। बाजार में ग्राहक नहीं हैं। ऐसे में गुजरात की व्यापारिक मानसिकता वाली जनता शांति और आर्थिक प्रगति चाहती हैं, दंगे और धर्म के भावुक नारे नहीं। उधर अहमदाबाद के उप महापौर रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता व शहर के अत्यंत सम्मानीय नेत्र विशेषज्ञ डा. सुरेन्द्र भाई पटेल एक अलग ही कहानी सुनाते हैं। उनका कहना है कि भाजपा में अच्छे और सक्षम लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। क्योंकि आरएसएस के लोग ऐसे किसी भी आदमी को भाजपा की सरकारों में काम नहीं करने देते जिस पर संघ की मोहर न लगी हो। डा. पटेल अहमदाबाद को साफ करने की भावना से राजनीति में आए। पर उनकी लाख कोशिश के बावजूद भाजपा नेतृत्व ने उनकी कर्तव्य परायणता की कद्र नहीं की और महत्वपूर्ण समितियों पर ऐसे नाकारा लोगों को बिठाया जिनकी कुल योग्यता यही थी कि वे संघ का ठप्पा लेकर आए थे। भाजपा से संबंधित रहे डा. पटेल जैसे तमाम लोग अनौपचारिक बातचीत में यह बताते नहीं थकते कि भाजपा का नेतृत्व कितना अदूरदर्शी, अकुशल और चाटुकारों से घिरा रहने वाला है। ऐसा नहीं है कि यह लोग कांग्रेस से बहुत खुश है या कांग्रेस के सर्मथन में जाने को तैयार हैं। पर यह निश्चित हैं कि इन्हें भाजपा से कोई उम्मीद नहीं। पूरे गुजरात में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने वर्षों भाजपा की खिदमत तन, मन और धन से की। पर आज निष्क्रिय होकर घरों में बैठे हैं। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व भी अब उन्हें घर से बाहर नहीं निकाल पाएगा। ऐसे में यह साफ है कि जैसा बताया जा रहा है कि गुजरात में भाजपा की हवा ह,ै वह सच नहीं है। उत्तर प्रदेश में भी ऐसे ही दावे किए गए थे। मीडिया में भाजपा ने अपनी सफलता के पक्ष में बढ़-चढ़ कर दावे करने वाले सर्वेक्षण छपवाए थे। पर विधानसभा में उसकी सीटें 80 का आंकड़ा पार नहीं कर पाईं। गुजरात में भी मुकाबला काफी कड़ा होगा और जो दल अपनी बात मतदाताओं तक तार्किक रूप से पहुंचा पाएगा वही विजयी होगा।

Friday, July 19, 2002

आखिर गाय के वैज्ञानिक महत्व को पश्चिम ने भी स्वीकारा

जबसे मुसलमान शासक भारत में आए तब से गौवंश की हत्या होनी शुरू हुई। हिन्दू लाख समझाते रहे कि गौमाता सारे संसार की जननी के समान है।उसके शरीर के हर अंश में लोक कल्याण छिपा है और तो और उसका मूत्र और गोबर तक औषधि युक्त है, इसलिये उसकी हत्या नहीं उसका पूजन किया जाना चाहिये। पर यवनों पर कोई असर नहीं पड़ा। आज भी मूर्खतावश बहुत से मुसलमान गौवंश की हत्या करते हैं। अक्सर यह दोनों धर्मों के बीच विवाद का विषय रहता है। अंग्रेज जब भारत में आए तो उन्होंने हिन्दुओं का मजाक उड़ाया। वे अपने सीमित ज्ञान के कारण यह समझने में असमर्थ थे कि हिन्दू गौवंश का इतना सम्मान क्यों करते हैं ? आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों ने भी हिन्दुओं की इस मान्यता पर ध्यान नहीं दिया। आश्चर्य तो इस बात का है कि भाजपा और शिवसेना की साझी सरकार महाराष्ट्र के थाणे क्षेत्र में स्थित पशुवधशाला को बंद नहीं कर पाई जबकि वर्षों से स्थानीय नागरिक उसका विरोध करते आए थे। पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने यह सूचना देकर कि गौमूत्र का औषधि के रूप में अमरीका में पेटेंट करवा लिया गया है, सारे देश में सनसनी पैदा कर दी। इस समाचार से निश्चय ही सनातन धर्मियों के बीच हर्ष की लहर दौड़ गयी। यह तो मात्र आगाज है। योग और आयुर्वेद की तरह अब पूरी दुनिया जल्दी ही गोमाता के महत्व को स्वीकारने लगेगी। हमेशा की तरह हम अपनी ही धरोहर को विदेशी पैकेज में कई गुना दामों में खरीदने पर मजबूर होंगे। जिस तरह पेप्सी कंपनी हमारे बाजारों से दो रुपये किलो आलू खरीद कर 250 रुपये किलो के चिप्स बेचती है वैसे ही आने वाले दिनों में गौमूत्र व गोबर सुंदर पैकेजिंग और आकर्षक विज्ञापनों के सहारे सैकड़ों रुपये कीमत पर बिकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि हम गोमाता के महत्व को समय रहते पहचानें। शास्त्रीय और वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि गौमाता के शरीर के हर हिस्से से हम पर कृपा बरसती है।

गो दूध का वैज्ञानिक महत्व

इंटरनेशनल कार्डियोलाॅजी काफं्रेस के अध्यक्ष डा. शांतिलाल शाह के मत से हृदय रोगियों के लिये गाय का दूध विशेष रूप से उपयोगी है। गाय के दूध के कण सूक्ष्म और सुपाच्य होते हैं। अतः वह मस्तिष्क की सूक्ष्मतम नाडि़यों में पहंुच कर मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करते हैं। गाय के दूध में केरोटीन (विटामिन-ए) नाम का पीला पदार्थ रहता है, जो आंख की ज्योति बढ़ाता है। चरक सूत्र स्थान 1/18 के अनसार, गाय का दूध जीवन शक्ति प्रदान करने वाले द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है। गाय के दूध में 8 प्रतिशत प्रोटीन, 8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट और 0.7 प्रतिशत मिनरल्ज (100 आई.यू) विटामिन ए और विटामिन बी, सी, डी एवं ई होता है। निघण्टु के अनुसार गाय का दूध रसायन, पथ्य, बलवर्धक, हृदय के लिये हितकारी, बुद्धिवर्धक, आयुप्रद, पुंसत्वकारक तथा त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) नाशक है।

गाय के घी का वैज्ञानिक महत्व

गोघष्त खाने से कोलेस्टरोल नहीं बढ़ता। इसे सेवेन से हृदय पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। रूसी वैज्ञानिक शिरोविच के शोधानुसार गाय के घी में मनुष्य शरीर में पहंुचे रेडियोधर्मी कणों का प्रभाव नष्ट करने की असीम शक्ति है। गोघष्त से यज्ञ करने से आक्सीजन बनती है। गाय के घी को चावल के साथ मिलाकर जलाने से (यज्ञ) ईथीलीन आक्साइड, प्रोपीलीन आक्साइड और फोरमैल्डीहाइड नाम की गैस पैदा होती है। ईथीलीन आक्साइड और फारमैल्डीहाइड जीवाणी रोधक है जिसका उपयोग आपरेशन थियेटर को कीटाणु रहित करने में आज भी होता है। प्रोपीलीन आक्साइड वर्षा करने के उपयोग में आती है- अर्थात गोघष्त द्वारा किये गये यज्ञ से वातावरण की शुद्धि और वर्षा होना दोना स्वाभाविक परिणाम हैं। भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार गो घष्त नेत्रों के लिये हितकारी, अग्निप्रदीपक, त्रिदोष नाशक, बलवर्धक, आयुवर्धक, रसायन, सुगंधयुक्त, मधुर, शीतल, सुंदर और सब घष्तों में उत्तम होता है। गो नवनीत (मक्खन) हितकारी, कांतिवर्धक, अग्निप्रदीपक, महाबलकारी, वात, पित्त नाशक, रक्त शोधक, क्षय, बवासीर, लकवा एवं श्वांस रोगों को दूर करने वाला होता है।

गोमूत्र का वैज्ञानिक महत्व

गोमूत्र में ताम्र होता है जो मानव शरीर में स्वर्ण के रूप में परिवर्तित हो जाता है। स्वर्ण सर्व रोग नाशक शक्ति रखता है। स्वर्ण सभी प्रकार का विषनाशक है। गोमूत्र में ताम्र के अतिरिक्त लोहे, कैल्शियम, फास्फोरस और अन्य प्रकार के क्षार (मिनरल्स), कार्बोनिक एसिड, पोटाश और लेक्टोज नाम के तत्व मिलते हैं। गोमूत्र में 24 प्रकार के लवण होते हैं जिनके कारण गोमूत्र से निर्मित विविध प्रकार की औषधियां कई रोगों के निवारण में उपयोगी हैं। गोमूत्र कीटनाशक होने से वातावरण को शुद्ध करता है और जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है। गोमूत्र त्रिदोष नाशक है, किन्तु पित्त निर्माण करता है। लेकिन काली गाय का मूत्र पित्त नाशक होता है। नवयुवकों के लिये गोमूत्र शीघ्रपतन, धातु का पतलापन, कमजोरी, सुस्ती, आलस्य, सिरदर्द क्षीण स्मरण शक्ति में बहुत उपयोगी है। पंचगव्य गोघृत गोमय, गोदधि, गोदुग्ध, गोमुत्र से मिलकर बनता है। उसका सेवन मिर्गी, दिमागी कमजोरी, पागलपन, भयंकर पीलिया, बवासीर आदि में बहुत उपयोगी है। कैंसर जैसे दुस्साध्य और उच्च रक्तचाप तथा दमा जैसे रोगों में भी गोमूत्र सेवन अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है।

गोबर का वैज्ञानिक महत्व

इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जी.ई. बीगेड ने गोवर के अनेक प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है कि गाय के ताजे गोबर से टी बी तथा मलेरिया के कीटाणु मर जाते हैं। आणविक विकरण से मुक्ति पाने के लिये जापान के लोगों ने गोबर को अपनाया है। गोबर हमारी त्वचा के दाद, खाज, एक्जिमा और घाव आदि के लिये लाभदायक होता है।

गाय के गोबर से पर्यावरणीय संरक्षण

सिर्फ एक गायके गोबर से प्रतिवर्ष 45000 लीटर बायोगैस मिलती है। बायोगैस के उपयोग करने से 6 करोड़ 80 लाख टन लकड़ी बच सकती है जो आज जलाई जाती है। जिससे 14 करोड़ वष्क्ष कटने से बचेंगे ओर देश के पर्यावरण का संरक्षण होगा। गोबर की खाद सर्वोत्तम खाद है। जबकि फर्टिलाइजर से पैदा अनाज हमारी प्रतिरोधक क्षमता को लगातार कम करता जा रहा है।

भारतीय अर्थव्यवसथा में गो माता का योगदान

राष्ट्रीय आय में 16 हजार करोड़ रुपये की राशि प्रतिवर्ष गौवंश से प्राप्त होती है। 30 हजार मेगावाट अश्वशक्ति गौवंश से प्राप्त होती है। गाय भैंस से पांच करोड़ टन से अधिक मूल्य का दूध हमें आज प्राप्त होता है। पशुओं से 55 करोड़ रुपये का 22 लाख टन गोबर हमें प्रतिदिन प्राप्त होता है। एक गाय अथवा बैल के गोबर से एक वर्ष में 36 बोरा यूरिया, 18 बोरा सुपर फास्फेट तथा 54 बोरा पोटाश प्राप्त होता है। सूखी गायों एवं बूढ़े बैलों के गोबर से गैस प्लांट लगाकर ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों के निर्धन परिवारों को 18500 रुपये की वार्षिक आय हो सकती है। वर्ष 1992 में लगभग 600 करोड़ रुपये मूल्य की 7.76 मिलियन टन खली निर्यात की गयी जबकि दुधारू पशुओं की यही खली खिलाने पर 38 हजार करोड़ रुपये के मूल्य का (खली से प्राप्त मूल्य का 42 गुना अधिक) 38.8 मिलियन टन दूध देश को प्राप्त हो सकता था।गोवंश से लाखों गैलन गोमूत्र (सवदेशी प्राकष्तिक कीटनाशक) प्रतिवर्ष प्राप्त होता है, जो फसलों के लिये सर्वश्रेष्ठ कीटनाशक और अनेक रोगों में औषधि है। भारत में कष्षि कार्य हेतु पशु शक्ति का सर्वाधिक 66 प्रतिशत, मनुष्य शक्ति का 20 प्रतिशत एवं जीवाश्म शक्ति का 14 प्रतिशत सहभाग है। कष्षि क्षेत्र में गाय व गौवंष भारतीय कष्षि की रीढ़ है। वेजिटेरियन सोसायटी आफ इंडिया के अनुसार, देश को मांस के निर्यात से प्राप्त होने वाले एक करोड़ रुपये के फलस्वरूप 15 करोड़ रुपये की हानि उठानी पड़ रही है।

ऐसी तमाम जानकारियों का संचय कर उसके व्यापक प्रचार प्रसार में जुटे युवा वैज्ञानिक श्री सत्यनारायण दास बताते हैं कि विदेशी इतिहासकारों और माक्र्सवादी चिंतकों ने वैदिक शास्त्रों में प्रयुक्त संस्कृत का सतही अर्थ निकाल कर बहुत भ्रांति फैलाई है। इन इतिहासकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि वैदिक काल में आर्य गोमांस का भक्षण करते थे। यह वाहियात बात है। ‘गौध्न’ जैसे शब्द का अर्थ अनर्थ कर दिया गया। श्रीदास के अनुसार वैदिक संस्कृत में एक ही शब्द के कई अर्थ प्रयुक्त होते हैं जिन्हें उनके सांस्कृतिक परिवेश में समझना होता है। इन विदेशी इतिहासकारों ने वैदिंक संस्कृत की समझ न होने के कारण ऐसी भूल की। आईआईटी से बी.टेक. और एम.टेक. करने वाले श्रीदास गोसेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। उधर गुजरात में धर्म बंधु स्वामी 80 हजार गायों की व्यवस्था में जुटे रहते हैं। ऐसे तमाम संत, समाजसेवी और भारत के करोड़ों आम लोग गोमाता की तन, मन और धन से सेवा करते हैं। अब समय आ गया है कि जब भारत सरकार और प्रांतीय सरकारें गौवंश की हत्या पर कड़ा प्रतिबंध लगायें और इनके संवर्धन के लिये उत्साह से ठोस प्रयास करें। शहरी जनता को भी अपनी बुद्धि शुद्ध करनी चाहिये। भैंस का दूध भारी ही नहीं दिमाग के लिये हानिकारक भी होता है। केवल दक्षिण एशिया के देशों में ही भैंस का दूध पिया जाता है। शेष दुनिया में आज भी केवल गाय का दूध ही पिया जाता है। गौवंश की सेवा हमारी परंपरा तो है ही आज के प्रदूषित वातावरण में स्वस्थ रहने के लिये हमारी आवश्यकता भी है। हम जितना गोमाता के निकट रहेंगे उतने ही स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे।

Friday, July 12, 2002

इंका से कुछ सीख लें भाजपाई

अंग्रेजों को भारत छोड़े 55 साल हो गए। पर पुराने लोग आज भी उनकी प्रशासनिक क्षमता को बड़े इसरार से याद करते हैं। यह कहते नहीं अघाते कि हुकुमत करना तो अंग्रेजों को आता था। ठीक यही बात आज देश में इंका के बारे में कही जा रही है। अनेक दलों की खिचड़ी सरकारों को देख लेने के बाद अब लोग यह कहने लगे हैं कि सरकार चलाना तो इंका को ही आता है। सामान्यजन हों या समाज के विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले, सब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि प्रशासनिक क्षमता में भाजपा इंका से बहुत पीछे है। हर व्यक्ति अपने-अपने अनुभव से अलग-अलग उदाहरण पेश करता है। पर कभी-कभी आलोचना का आधार जनहित न होकर, व्यक्तिगत कामों का न हो पाना होता है। ऐसी आलोचना मायने नहीं रखतीं। क्योंकि जिसका काम नहीं होगा वो तो आलोचना करेगा ही, फिर चाहे सरकार भाजपा की हो, इंका की हो या किसी और दल की ही हो। पर जिस अनुभव की बात यहां की जाने वाली है वह व्यक्तिगत फायदे के काम को लेकर नहीं बल्कि जनहित के काम को लेकर हुआ। पाठकों को याद होगा कि पिछले दिनों इसी काॅलम में हमने ब्रज प्रदेश के बरसाना गांव के पास गहवर वन की उन पहाडि़यों का जिक्र किया था जिनपर राजस्थान सीमा के भीतर खनन कार्य किया जा रहा था। चूंकि इन पहाडि़यों का वर्णन अष्टसखी पहाड़ी के रूप में भागवत् पुराण में आया है इसलिए कृष्ण भक्तों को इससे भारी पीड़ा हो रही थी। वे स्थानीय संत श्री रमेश बाबा के  नेतृत्व में वर्षों से इसका विरोध कर रहे थे। पर भाजपा की भैरोसिंह शेखावत सरकार ने लोगों की धार्मिक भावनाओं की परवाह नहीं की। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली इंका के राजस्थान में मौजूदा मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने इस लेख को पढ़ते ही जिस तेजी से कार्रवाही की उससे न केवल संत समाज और कृष्ण भक्तों में हर्ष की लहर दौड़ गई बल्कि यह भी सिद्ध हुआ कि प्रशासन पर जैसी पकड़ इंका मुख्यमंत्रियों की है, वैसी पकड़ भाजपा के मुख्यमंत्री आज तक नहीं बना पाए। श्री गहलोत ने लेख पढ़कर तुरंत राजस्थान के खान सचिव श्री राकेश वर्मा को मौके पर मुआयना करने भेजा। उनकी रिपोर्ट मिलते ही न सिर्फ स्वर्णगिरि की इन पहाडि़यों पर खनन पर स्थाई प्रतिबंध लगा दिया बल्कि सारा क्षेत्र वन विभाग को सौंप कर वहां सघन वृक्षारोपण के आदेश भी जारी कर दिए। इतना ही नहीं भविष्य में खनन न हो इसे सुनिश्चित करने  के लिए भरतपुर जिले की पुलिस व वन विभाग की पुलिस की साझी पुलिस पोस्ट की भी वहां स्थापना कर दी। इसके साथ ही जिला प्रशासन और स्थानीय नागरिकों की संयुक्त निगरानी समिति का भी गठन कर दिया। उनके इस सुकृत्य की सूचना राष्ट्रीय अखबारों में खबर पढ़कर मिली। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने यह सब काम लेख छपने के चार-पांच दिन के भीतर कर दिया। 


इस संदर्भ में यह याद दिलाना अनुचित न होगा कि 4 वर्ष पहले इसी काॅलम में एक लेख लिखा गया था जिसका शीर्षक था, ‘‘ब्रज की किसे परवाह है।इस लेख में प्रदेश और केंद्र में नवगठित भाजपा सरकार का आह्वाहन किया गया था। उन्हें स्मरण दिलाया गया था कि रामजन्म भूमि या श्रीकृष्ण जन्मभूमि जैसा विवादास्पद मुद्दा तो सुलझने में समय लेगा पर हिंदू धर्म की सेवा के लिए समर्पित भाजपा का यह नैतिक दायित्व है कि वह तीर्थ क्षेत्रों के विकास पर ध्यान दे। इसी में ब्रज प्रदेश के संरक्षण और संवर्द्धन पर विशेष ध्यान देने को कहा गया था। इस लेख में चेतावनी दी गई थी कि बनारस के विश्वविख्यात घाटों जैसे ही भव्य भवनों वाले घाट वृंदावन में यमुना तट पर बने हैं जिन पर लगातार अवैध कब्जा होता जा रहा है। इस तरह मध्ययुगीन स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने सदा के लिए अदृश्य होते जा रहे हैं। जिनके संरक्षण के लिए तुरंत कुछ किया जाना चाहिए। इस लेख का प्रभाव था या श्री वैष्णव देवी तीर्थ स्थल का, इंका के शासन काल में विकास करने वाले केंद्रिय आवास मंत्री श्री जगमोहन की अपनी प्रेरणा थी, कि वे वृंदावन आए और घाटों का निरीक्षण किया। पर उनके कुशल प्रशासन से नाराज भाजपाई नेताओं ने उनसे मंत्रालय ही छीन लिया। उधर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने कतई परवाह नहीं की। नतीजा यह हुआ कि पिछले दो-तीन वर्षों में रहे-बचे घाटों पर भी कब्जा हो गया। इतना ही नहीं लोगों की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात करते हुए, भाजपा की प्रादेशिक सरकार ने वृंदावन के चारों ओर बने परिक्रमा मार्ग को पक्का करवा दिया। जिसने न सिर्फ इन घाटों को ध्वस्त कर दिया बल्कि परिक्रमा मार्ग के चारों ओर यमुना तट में अवैध कालोनियों का निर्माण रातो-रात जोड़ पकड़ गया। परिक्रमा मार्ग पर श्रद्धालु भक्तगण, महिलाएं, बच्चे और बूढ़े सारे वर्ष नंगे पैर परिक्रमा करते हैं। पक्की सड़क के पत्थरों से उनके पांव छिल जाते हैं। गर्मी में गर्म तारकोल पैरों में चिपक जाता है, जलादेता है। इसलिए परिक्रमा मार्ग पर कच्ची सड़क और छायादार वृक्षों की आवश्यकता होती है, जिसका उल्लेख उस लेख में किया गया था। पर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने धार्मिक भावनाओं के अनुरूप विकास करना तो दूर परिक्रमा मार्ग का विनाश करके रख दिया। इसी तरह इस लेख में ब्रज की समस्याओं को लेकर कुछ ऐसे दूसरे सरल सुझाव दिए गए थे जिन्हें आसानी से लागू करके ब्रजवासियों और तीर्थयात्रियों का कल्याण किया जा सकता था। बड़े दुख की बात है कि इतने वर्षों में एक भी सुझाव पर अमल नहीं किया गया। ऐसे में मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हिंदू धर्म की वकालत करने वाले भाजपाई नेता क्या वास्तव में सनातन धर्म की विशिष्टताओं और भक्तों की भावनाओं से परिचित हैं  या केवल इसका राजनैतिक दोहन करना चाहते हैं ? प्रदेश शासन या उसमें शामिल मथुरा मंडल के मंत्री और स्थानीय विधायक अगर जरा सी भी संवेदनशीलता दिखाते तो वृंदावन या शेष ब्रज क्षेत्र में व्याप्त अव्यवस्था और विनाश पर कुछ नियंत्रण अवश्य लगता। पर ऐसा नहीं हुआ। दूसरी तरफ इंका की कार्यशैली है कि तिरूपति बाला जी का विकास हो या वैष्णो देवी का, सोमनाथ में मंदिर का निर्माण हो या अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास- इंका बिना ढि़ंढ़ोरा पीटे लोगों की भावनाओं के अनुरूप धर्मक्षेत्रों का संरक्षण और संवर्द्धन करती आई है। फिर चाहे वह हिंदुओं के धर्म क्षेत्र हों या मुसलमानों के या अन्य धर्मोंं के। इसलिए जब भी भाजपा हिंदू धर्म की बात उठाएगी हिंदू उससे यह जरूर पूछेंगे कि राज्य और केंद्र की सत्ता में रह कर जो कुछ धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए किया जा सकता था वह उसने अपने शासनकाल में क्यों नहीं किया ? लोग प्रश्न कर सकते हैं कि एक और राम मंदिर बनाने से क्या होगा जब सदियों से बने खूबसूरत मंदिर समुचित देखभाल के अभाव में खण्डहर होते जा रहे हैं  या तस्करों की लालची निगाहों का शिकार बन कर टुकड़ो-टुकड़ों में विदेशों में भेजे जा रहे हैं ?

यह सही है कि स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले लोग और दल भाजपा के हिंदू एजेंडे पर लगातार हमला करते रहते हैं। उसका मजाक उड़ाते हैं। जिस कारण भाजपा के नेतृत्व को कई बार यह कह कर जान बचानी पड़ती है कि राम मंदिर हमरा एजेंडा नहीं है या हम धर्मनिरपेक्ष दल हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि भाजपा का ऐजेंडा अगर हिंदू धर्म का संवर्द्धन करना है तो वह बिना संकोच के उस पर काम करे, लेकिन फिर ठोस काम हो, केवल बयानबाजी नहीं। लोगों को लगे कि भाजपा ने वाकई बहुजनहिताय धर्म की सेवा की है। आज ऐसा कोई नहीं मानता। बार बार लोगों को यही अनुभव होता है कि भाजपा धार्मिक मामलों में भी प्रशासनिक मामलों की तरह ही असफल रही है। अब तो उसकी धार्मिक नारेबाजी को भी जनता संशय की नजर से देखती है। जबकि इंका ऐसा कोई दावा नहीं करती पर अपनी प्रशासनिक क्षमता और तुरंत निर्णय लेने की काबलियत के बल पर लोगों का विश्वास जीत लेती है। श्री अशोक गहलोत ने गहवर वन के मामले में जिस फुर्ती से कार्रवाही की, उससे इस मान्यता की पुष्टि होती है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों इस लेखक की एक अंतरंग बैठक भाजपा के वरिष्ठतम नेता व गृहमंत्री से उनके कार्यालय में हुई। कई मुद्दों पर खुलकर चर्चा हुई। मैंने आडवाणी जी को यह बताने की कोशिश की कि इंका के नेता उनके दल के नेताओं से किन मामलों में श्रेष्ठ हैं। मसलन, यदि आप इंका के किसी नेता की आलोचना करें, उसे बुरा-भला कहें, उसके विरूद्ध कोई अभियान भी छेड़ें तो भी उनका व्यवहार नहीं बदलता। न सिर्फ वे पहले जैसी गर्मजोशी से मिलते हैं बल्कि आपके सुझावों और आलोचनाओं को गंभीरता से स्वीकार्य कर लेते हैं। जबकि भाजपा के नेता अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते हैं। वे सिर्फ प्रशस्तिगान सुनने के ही आदी हैं। वे चाहते हैं कि पत्रकार निष्पक्ष रह कर उनके कार्यों का मूल्यांकन न करें। जो पत्रकार ऐसा करते हैं उन्हें भाजपा के नेता पसंद नहीं करते। ऐसा नहीं है कि इंका के नेता रागद्वेष से मुक्त हैं और शत्रु व मित्र के बीच भेद नहीं करते। पर शायद वर्षों के प्रशासनिक अनुभव ने उन्हें सिखा दिया है कि अपने सबसे बड़े आलोचक को उसकी अपेक्षा से अधिक सम्मान देकर जीत लो। चिकमंगलूर के चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी की खुली आलोचना कर उनके विरूद्ध लड़ने वाले वीरेन्द्र पाटिल को श्रीमती गांधी ने घर से बुलाकर अपनी कैबिनेट का मंत्री बनाया। शायद इंकाई यह बात जानते हैं कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छवाय।ऐसा नहीं है कि भाजपा में कोई गुण ही नहीं है या उनके हिंदूवादी एजेंडे की इस देश के लिए कोई सार्थकता नहीं है। भाजपा भी अन्य दलों की ही भांति गुण और दोेष दोनों से युक्त है। पर उसे अभी हुकुमत करने के गुर और अपने आलोचकों से व्यवहार करने का तरीका सीखना हैं। आज आडवाणी जी सुशासन देने की बात कर रहे हैं। यही बात वाजपेयी जी ने अपने चुनाव प्रचार में कही थी। पर भाजपा को 1998 1999 में जो जन समर्थन देश में मिल रहा था उसमें इजाफा नहीं बल्कि भारी कटौती हुई है इसलिए भाजपा में आत्मचिंतन और प्राथमिकताओं के पुनःनिर्धारण की अवश्यकता है।