Friday, September 27, 2002

असली मुद्दे क्यों नहीं उठाते वाघेला और मोदी


महाभारत में एक रोचक प्रसंग आता है। जब पांडव वन में प्यासे भटक रहे थे तब सरोवर के निकट यक्ष ने उनसे कुछ प्रश्न किए थे। जिसमें एक प्रश्न था, ‘संसार में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है ?’ युधिष्ठिर महाराज ने उत्तर दिया, ‘हम रोज लोगों को मृत्यु के मुंह में जाता हुआ देखते हैं फिर भी इस भुलावे में रहते हैं कि हमारी यह गति नहीं होगी।ठीक वैसे ही जैसे इस देश के मतदाता हर चुनाव के बाद राजनेताओं के झूठे वायदों से ठगे जाते हैं। फिर भी जब अगला चुनाव आता है तो पुरानी बाते भूल जाते हैं और राजनेताओं के नए जाल में फंस जाते हैं। राजनेता जनता की यह कमजोरी अच्छी तरह पहचान गए हैं इसलिए हर चुनाव में उसे मूर्ख बनाने के लिए कोई न कोई नया फार्मूला ढूंढ ही लाते हैं और उसे इस तरह पेश करते हैं मानो इससे बेहतर विकल्प उनके पास कोई दूसरा है ही नहीं। हालांकि उनके इस नए फार्मूले में नया कुछ भी नहीं होता। कहावत है कि, ‘नई बोतल में पुरानी शराब।ठीक वैसे ही जैसे डिटर्जेंट साबुन के निर्माता उसी साबुन या पाउडर के विज्ञापन में हर बार एक नया शब्द जोड़ देते हैं। जैसे नया,’ ‘ज्यादा पावर वालावगैरह वगैरह। जबकि साबुन वही पुराना होता है केवल उसका रंग और पैकिंग बदल जाती है।
गुजरात के मतदाता इतने मूर्ख नहीं कि उन्हें कोई भी बहका कर ले जाए। आखिर को गुजरात हजारों साल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र रहा है। गुजरात का बहुसंख्यक समाज व्यापारिक बुद्धि और चातुर्य से भरा हुआ है। छोटी सी दुकान चलाने वाला दुकानदार भी ग्राहक के हाव-भाव, चाल-ढाल और बातचीत से अंदाजा लगा लेता है कि ये ग्राहक कुछ खरीदेगा कि नहीं या उसकी वृत्ति कैसी है? पर गुजरात के लोग सिर्फ छोटे दुकानदार नहीं हैं वे तो सिंधुघाटी की सभ्यता के काल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करते आए हैं और आज भी कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करने वाले को विभिन्न भौगोलिक, सांस्कृति और आर्थिक परिवेशों के व्यापारियों से विनिमय करना पड़ता है। इससे उनकी दुनिया के बारे में समझ आम भारतीयों से कहीं ज्यादा होती है। वे उड़ती चिडि़या के पर देख कर उसका व्यक्तित्व जान सकते हैं। लोगों को पहचानने में गुजरातियों की समझ काफी तीक्ष्ण होती है। फिर भला राजनेता उनकी पारखी निगाहों से कैसे बच सकते हैं ? पर ये राजनेता शायद यह नहीं जानते या ये मानते हैं कि हम चाहे जो भी करें जनता के पास विकल्प ही क्या है ? वो हार कर हमारी ही तो शरण में आएगी। इसलिए हर चुनाव के पहले राजनेता झूठे आश्वासनों की बौछार कर देते हैं। यह जानते हुए भी कि वे उन्हें कभी पूरा नहीं कर पाएंगे। ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिनसे लोगों की भावनाएं भड़क जाएं और उनका काम बन जाए। पर गुजरात की जनता ऐसी मूर्ख नहीं है। वह सब जानती है। इसलिए उसे बहुत परिपक्वता का परिचय देना होगा। आज श्री नरेन्द्र मोदी और श्री शंकरसिह बाघेला व इनके दलों के अन्य राजनेता और कार्यकर्ता जनता के बीच जिन भावनात्मक सवालों को लेकर अपना अभियान छेेड़े हुए हैं उससे न तो गुजरातियों को कोई लाभ होने वाला है और शेष भारत को। काम वो होना चाहिए जिससे जनता भी खुश हो और देश भी आगे बढ़े। इसलिए इन दोनों राजनेताओं और इनसे जुड़े दलों के कार्यकर्ताओं को उन मुद्दों को उठाना चाहिए जिनसे जनता को वास्तविक लाभ हो। दोनों राजनेता ऐसे बुनियादी सवालों को उठाएं इसके लिए गुजरात की जनता को इन्हें मजबूर करना चाहिए।
सब जानते हैं कि भारत में धन और संसाधनों की कोई कमी नहीं है। फिर भी अगर बहुसंख्यक लोगों को गरीबी और बेरोजगारी में जीना पड़ रहा है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है ? प्रशासन में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार। जिसे समाप्त किए बिना न देश का भला होगा न गुजरात का। पर राजनेता भ्रष्टाचार के सवाल पर शोर तब ही मचाते हैं जब उनका विरोधी दल इसमें फंसता है। सिर्फ शोर मचाते हैं पर उसे पकड़वाना या सजा दिलवाना नहीं चाहते। क्योंकि वो जानते हैं कि आज जो आरोप उनके विरोधी पर लग रहा है कल वो उन पर भी लग सकता है। इसलिए शोर मचा कर राजनैतिक लाभ तो कमा लेते हैं लेकिन जब सजा देने की बात आती है तो सब एकजुट होकर एक दूसरे की मदद करते हैं। जनता ठगी जाती है। इस मामले में दो ताजा उदाहारण काफी रहेंगे। हर घोटाले पर अपने विरोधियों के विरूद्ध शोर मचाने वाले राजनेता जैन हवाला कांड की जांच में हुई बेईमानी के खिलाफ आज तक नहीं बोले। क्योंकि सभी प्रमुख दल के नेता इसमें शामिल थे।
पिछले दिनों जब सर्वोच्च न्यायलय और चुनाव आयोग ने राजनीति में अपराध और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उम्मीदवारों की सुपात्रता सुनिश्चित करने वाले कानून बनाने पर जोर दिया तो इंका और भाजपा ने अन्य दलों के साथ मिल कर इन सुधारों का विरोध किया। ऐसा कयों किया ? गुजरात की जनता को श्री वाघेला और श्री मोदी से यह भी पूछना चाहिए कि उनके दलों ने कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े जैन हवाला कांड की जांच की मांग आज तक क्यों नहीं की ? क्या उन्हें देश की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है ? क्या वे अब इस मांग को करने को तैयार हैं ? उनसे यह भी पूछना चाहिए कि ऐनराॅन जैसी महाभ्रष्ट और जनविरोधी बिजली कंपनी को जनता के तमाम विरोध और चेतावनियों के बावजूद भारत लाने में दोनों ही दलों ने इतनी रूचि क्यों ली ? जबकि सत्ता में आने से पहले भाजपा उसका विरोध कर रही थी। अब जबकि ऐनराॅन के अधिकारियों ने अमरिका की सीनेट के सामने यह खुलासा कर दिया है कि इस काम के लिए उन्होंने भारत में पचासों करोड़ रूपए की रिश्वते बांटी तो क्या श्री मोदी और श्री वाघेला जनता को इस घोटाले की असलियत बताएंगे ? गुजरात की जनता को हर शहर में आम सभाएं बुलाकर प्रस्ताव पास करने चाहिए और श्री वाघेला व श्री मोदी से दो टूक कह देना चाहिए कि यदि उनके दल गुजरात के मतदाताओं के वोट लेना चाहते हैं तो गुजरात के चुनाव से पहले इन दोनों दलों के बड़े नेताओं को संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर चुनाव सुधारों के संबंध में चुनाव आयोग की सिफारिशों वाला विधेयक बिना लाग लपेट के फौरन पारित कर देना चाहिए ताकि भविष्य में चुनावों से अपराधियों और अवैध धन का प्रभुत्व समाप्त हो सके। इन दोनों राजनेताओं की जनसभाओं और संवाददाता सम्मेलनों में बार-बार ऐसे सवाल उठाए जाने चाहिए। अर्जेंटिना जैसे दुनिया के कई देश राजनैतिक औेर प्रशासनिक भ्रष्टाचार के चलते आज दिवालिया हो चुके हैं। कल तक संपन्नता का जीवन भोग रहे इन देशों के नागरिकों ने कभी सोचा भी न था कि कोठी, बंगले, कार होने के बावजूद एक दिन ऐसा भी आएगा जब उन्हें पेट की आग बुझाने के लिए दुकानें लूटनी पड़ेंगी। अगर द्वारकाधीश भगवान् श्रीकृष्ण, महात्मा गांधी और सरदार पटेल की कर्मभूमि गुजरात के नागरिकों को इस देश से जरा भी प्यार है तो उनका यह फर्ज है कि वे श्री मोदी व श्री वाघेला को कहीं भी भाषण देने से पहले ऐसे बुनियादी सवालों के सार्वजनिक मंचों से उत्तर देने को मजबूर करें। उनसे पूछें कि जब गुजरात के किसानों को और शहरों की बस्तियों में रहने वाले लोगों को पानी और बिजली की इतनी भारी किल्लत रहती है तो यह कहां तक उचित है कि गुजरात के राजनेता और अधिकारी वातानुकूलित कमरों में ऐश करें, छप्पनभोग खाएं, स्वीमिंगपूलों मंे जल क्रीड़ाएं करें और गुजरात की जनता के खून-पसीने कीे कमाई को हवाई यात्राओं में उड़ाते फिरें। सरकारी खर्च में भारी कटौती किए बिना जनता की सुविधाओं के विस्तार के लिए धन आ ही नहीं सकता। फिर चाहे अपनी सड़क मरम्मत करानी हो या अस्पतालों में दवा का इंतजाम करना हो। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कोई भी व्यापार तब तक कामयाब नहीं होता जब तक कि प्रशासनिक खर्चों पर नियंत्रण न रखा जाए। एक व्यापार के साल भर के सारे खर्चों में प्रशासनिक खर्च 10-15 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। जबकि आज भारत में केंद्र और प्रातीय सरकारों का खर्चा 60 से 80 फीसदी तक है। जनता जो कर देती है उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा राजनेओं और नौकरशाही के रख-रखाव पर ही खर्च हो जाता है और जो विकास के लिए धन बचता है उसका एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में चला जाता है। जनता के दुख-दर्द दूर करने को जो धन बचता है वह ऊंट के मुंह में जीरा बराबर भी नहीं होता। फिर तनख्वाहें बांटने और विकास के काम चलाने के लिए विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भारी ब्याज दर पर कर्जा लेना पड़ता है। शुरू में लगता है कि इस कर्जें से सब दुख दूर हो जाएंगे। शायद हो भी जाते अगर इसका सदुपयोग होता। पर अनुभव बताता है कि इस पैसे का बहुत बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। ब्याज व कर्ज चुकाने के लिए पेट्रोल व बिजली की कीमतें बढ़ा कर और कर लगा कर आम जनता से वसूली की जाती है। अर्जेंटिना डेढ सौ अरब डालर के कर्ज में फंस कर अपने को दिवालिया घोषित कर चुका है। एक महीने में चार राष्ट्रपति बदल गए। देश की राजधानी ब्यूनोस आयर्स तक में खाने-पीने की चीजें उपलब्ध नहीं हैं और धनी लोग भी लूट-पाट करने को मजबूर हो गए हैं। क्या श्री मोदी और श्री वाघेला ऐसे बुनियादी सवालों को उठाएंगे ? क्या गुजरात की जनता यात्राओं और भड़काऊं नारों में उलझ कर सच्चाई से आंख मूंद लेगी ? क्या भारत इसी तरह लुटता और बर्बाद होता रहेगा ? ऐसे तमाम सवालों का जवाब गुजरात की जनता को देना है। अगर वो समझदारी से काम लेती है और श्री मोदी और श्री वाघेला को इस बात के लिए मजबूर करती है कि भावनाएं भड़काने की बजाए असली मुद्दों पर बात करें तब तो भारत में परिवर्तन पर हवा बह सकती है। अगर जनता ऐसा नहीं करती तो न सिर्फ चुनाव के बाद गुजरात के लोग पछताएंगे बल्कि शेष भारत में भी बेहतरी के लिए बदलाव की हवा कभी कहीं से उठ नहीं पाएगी। फिर हम दोष किसे देंगे ?

Friday, September 20, 2002

परवेज मुशर्रफ बाज नहीं आयेंगे

संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में पाकिस्तान के राष्ट्रपति श्रीपरवेज मुशर्रफ ने भारत के विरुद्ध जिस भाषा का प्रयोग किया वह कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान अपने जन्म के समय से ही हर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर यही जहर उगलता आया है। पर जिस तरह श्री मुशर्रफ ने सत्तारूढ़ भाजपा पर हमला बोला और गुजरात के दंगों को लेकर टिप्पणी की वह साफ साफ भारत के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी का नमूना था। यह दूसरी बात है कि पाकिस्तान कश्मीर में फैले आतंकवाद को आजादी की लड़ाई बताता रहे, पर असलियत यह है कि सारी दुनिया जानती है वहां जो कुछ हो रहा है वह पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसलिये श्री मुशर्रफ को इस मामले पर कोई समर्थन नहीं मिला। इतना ही नहीं उनकी अमरीका में मौजूदगी के दौरान ही बुश प्रशासन ने पाकिस्तान को फटकार लगाई। साफ-साफ शब्दों में कहा कि कश्मीर में फैले आतंकवाद को आजादी की लड़ाई नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान से इस किस्म के आतंकवाद को रोकने को भी कहा गया। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई ने श्री मुशर्रफ का माकूल जवाब दिया पर इस सारे मामले में सिवाय कूटनीतिक दांवपेचों के और कुछ भी हासिल नहीं हुआ। स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है और इसके लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार है अमरीका।

एक तरफ तो अमरीका पाकिस्तान को फटकार लगाता है और दूसरी ओर उसे आतंकवाद के विरुद्ध अपने वैश्विक युद्ध में बराबर का हिस्सेदार मानता है। अमरीका के कूटनीतिज्ञ जब भारत आते हैं तो दूसरी भाषा बोलते हैं और जब इस्लामाबाद जाते हैं तो वहां के सुर में सुर मिलाते हैं। हम सब कुछ देख समझ रहे हैं पर फिर भी इस मुगालते में हैं कि अमरीका को हमसे हमदर्दी है। सारी दुनिया जानती है कि अमरीकी सरकार अपनी विदेश नीति आंतरिक-आर्थिक दबावों के अनुरूप बनाती है। उसका मुख्य उद्देश्य अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखना और अमरीकी सामान और तकनीकी के लिये दुनिया में नये नये बाजारों पर कब्जा करना है। अफगानिस्तान में अमरीका का दखल आर्थिक कारणों से था न कि राजनैतिक से। अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिये अमरीका को पाकिस्तान का सहयोग चाहिये।

तालिबान न तो हारे हैं और न थके हैं। वे मौके की फिराक में हैं। मौका मिलते ही वे फिर हमला बोल देगे। उन्हें साधे रखने के लिये जिस फौजी साजो सामान की जरूरत होती है उसका बड़ा जखीरा अमरीका ने पाकिस्तान की सरजमीं पर तैनात किया हुआ है। उसके लड़ाकू जहाज पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर खड़े हैं। हालांकि अमरीका अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के आवाम की हमदर्दी उसके साथ नहीं है। वह यह भी जानता है कि श्री मुशर्रफ दोहरी चाल चल रहे हैं। एक तरफ अमरीका से आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध में दोस्ती का नाटक कर रहे हैं और दूसरी ओर तालिबानों से उनका संवाद जारी है। पर अमरीका की यह मजबूरी है कि वह पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाये रखे। दक्षिणी एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिये उसे ये मदद चाहिये ही। दूसरी तरफ अमरीका के भारत में व्यापारिक हित बढ़ते जा रहे हैं। भारत उसे भारी संभावनाओं से युक्त एक बड़ा बाजार दिखाई देता है। इसलिये उसका रुख भारत की तरफ भी मित्रता का है।

लेकिन भारत के विदेश नीति निर्धारकों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि दिखावे को अमरीका चाहे कितनी भी हमदर्दी क्यों न जताये असलियत में उसे भारत में फैल रहे आतंकवाद की कोई चिंता नहीं है। यदि वह वाकई चिंतित है तो वह इसे रुकवा पाने में पूरी तरह सक्षम है। पर वह ऐसा नहीं कर रहा। रूस के पतन के बाद आज दुनिया के राजनैतिक पटल पर अमरीका सबसे ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र है और चीन जैसे कुछ देशों को छोड़कर शेष दुनिया में उसकी तूती बोलती है। वह जिस हुक्मरान से जो कराना चाहता है, करा सकता है। इसीलिये आज दुनिया के तमाम देशों के हुक्मरान भाग-भाग कर वाशिंगटन जाते हैं और व्हाइट हाउस में फर्शी सलाम बजाते हैं। यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं। इससे इन देशों की सार्वभौमिकता खतरे में पड़ती जा रही है। पर अब कोई विकल्प भी तो नहीं है। आर्थिक शक्तियों के अंतर्राष्ट्रीय जाल ने धीरे-धीरे दुनिया भर के देशों को जकड़ लिया है। जिस बात को बड़े गर्व से विकास का सूचक मानकर बताया जाता है वही बात आज इन देशों स्वतंत्र अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा खतरा हो गयी है और वह है दुनिया को ‘एक आर्थिक गांव’ बताना। केन्द्रीयकृत बाजारू शक्तियों से सारी दुनिया के लोगों को नियंत्रित करने का जो दौर चला है वो धीरे-धीरे इन देशों की राजनैतिक व्यवस्थाओं को भी दरकिनार करता चला जाएगा। आज बहुत से देशों में ये हो भी रहा है। भारत का विपक्ष सत्तारूढ़ दल पर अमरीका के आगे घुटने टेकने का आरोप लगाता है। जबकि हकीकत यह है कि आने वाले समय में अगर विपक्षी दल भी सत्ता में आते हैं तोउनकी विदेश नीति आज से बहुत हटकर नहीं होगी। यह स्थिति अपरिहार्य हो चुकी है।

इन हालातों में भी अगर पाकिस्तान और भारत के हुक्मरान वही दकियानूसी ढर्रे पर चलकर एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलते हैं तो यह इसलिये कि इन देशों के समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी अंतर्राष्ट्रीय बाजारू शक्तियों के जाल से काफी हद तक अछूता है। सामंती मानसिकता अभी बरकरार है। राष्ट्रवाद और धर्म के प्रति आस्था अभी अदृश्य नहीं हुई है। ऐसे में भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान मौजूदा हालात की हकीकत को जानते हुए भी जहर उगलने का यह नाटक करते रहते हैं ताकि अपने देश की जनता को अपने जुझारू होने का संकेत दे सकें। यदि वास्तव में हम भारत में फैल रहे आतंकवाद के प्रति चिंतित हैं तो हमें कुछ ऐसे ठोस कदम उठाने चाहिये जिनसे इस स्थिति पर काबू पाया जा सके। इस संदर्भ में भारत की आंतरिक स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत होगी।

यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि देश में एक से एक आला दर्जे के ऐसे पुलिस अधिकारी मौजूद हैं जिन्हें न सिर्फ इस बात का आत्मविश्वास है कि वे आतंकवाद का खात्मा कर सकते हैं बल्कि उन्होंने अतीत में ऐसा करके भी दिखाया है। ऐसे अधिकारी आज देश के कई हिस्सों में तैनात हैं। प्रश्न है कि क्या भारत का गृह मंत्रालय ऐसे पुलिस अधिकारियों को उनके अनुभव और योग्यता के अनुरूप वह सम्माननीय स्थिति देने का तैयार है जिस पर खड़े होकर वे आतंकवाद को नियंत्रित कर सकें? हकीकत ये है कि ऐसे तमाम लोग देश के अलग अलग प्रांतों में निष्क्रिय बैठकर मक्खी मार रहे हैं जबकि अक्षम और संदिग्ध आचरण वाले लोग महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका में बैठे हैं। यही कारण है कि कश्मीर या शेष भारत में आतंकवाद पर लगाम नहीं लग पा रही। इसके साथ ही आतंकवादियों को छिपे तौर पर मिल रहा

राजनैतिक संरक्षण भी उसकी वृद्धि में सहायक है। सरकार की गुप्तचर एजेंसियों के पास इस बात के तमाम प्रमाण और सूचनायें उपलब्ध हैं कि देश के अनेक प्रतिष्ठित राजनेता समय समय पर आतंकवादियों को संरक्षण देते आये हैं। बिना इन राजनेताओं पर शिकंजा कसे आतंकवाद से नहीं लड़ा जा सकता। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सीबीआई के कब्रगाह में तमाम ऐसे घोटाले दफन हैं जिनसे आतंकवाद के अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक तंत्र का पर्दाफाश होता हैं। पर राजनैतिक दबावों के चलते इन घोटालों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। न तो उनकी जांच की गयी और न ही उन अधिकारियों को सजा ही दी गयी जो ऐसी जांच को दबाने में जुटे रहे। भारत सरकार की ऐसी नीति के चलते जाहिरन आतंकवादियों के हौसले बढ़े हैं और वे बेखौफ होकर संसद जैसी संस्था पर हमला बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं। यदि भारत सरकार आतंकवाद से वाकई निपटना चाहती है तो उसे इस पूरे मामले पर श्वेत पत्र लाना चाहिये। अब तक जिस किस्म के श्वेत पत्रों को लाने की बात कही गयी उनसे तो यही संकेत मिलता रहा है कि भारत सरकार पाकिस्तान की भूमिका को प्रकाशित करना चाहती है। पर यह संकेत आज तक नहीं मिला कि सरकार के इस प्रस्तावित श्वेत पत्र में आतंकवाद से जुड़े काण्डों का भी उल्लेख किया जाएगा। यह भी बताया जाएगा कि इन काण्डों की जांच की मौजूदा स्थिति क्या है ? इनकी जांच की गति इतनी धीमी क्यों रही है ? इन मामलों में समय रहते कानूनी कार्रवाई न करने वाले सीबीआई के अधिकारियों को क्या सजा दी गयी है ? इन केसों की जांच कहां और किस मुद्दों पर अटकी है ? बिना इस किस्म की जानकारी के आतंकवाद पर श्वेत पत्र लाना कोरी बयानबाजी से अधिक और कुछ नहीं होगा। इसमें शक नहीं कि भारत आतंकवाद से त्रस्त है। इसमें भी शक नहीं कि पाकिस्तान भारत में आतंकवाद को लगातार खुलकर समर्थन दे रहा है। पर यह भी सच है कि भारत के लचर राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे के कारण ही आतंकवादियों के हौसले इतने बढ़ पाये हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हम चाहे जितना आक्रामक रुख अपनायें, पाकिस्तान को चाहे जितना गरियाएं पर जब तक हम अपने देश के भीतर आतंकवाद के विरुद्ध माहौल को आक्रामक और प्रभावी नहीं बनायेंगे, आतंकवाद नियंत्रित करने में कामयाब नहीं हो सकते।

आर्थिक रूप से पिछड़ा, सैन्य तानाशाही से ग्रस्त और स्थाई रूप से राजनैतिक अस्थिरता का शिकार पाकिस्तान का शासन तो भारत को लक्ष्य बनाकर अपना वार करता रही रहेगा। उसके वजूद में आने से लेकर आज तक बने रहने का आधार ही भारत के प्रति द्वेष है। इस कड़वे सच को हमें स्वीकारना होगा। पर पड़ोसी देश से ऐसे व्यवहार का मिलना कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। चाणक्य पंडित ने तो साफ कहा है कि शासक को अपने पड़ोसी देशों को सदैव शत्रु मानकर चलना चाहिये। इसलिये संयुक्त राष्ट्र में वाजपेई जी जो बोले सो ठीक बोले पर देश में वो और उनके सहयोगी उप प्रधानमंत्री क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण बात है। देश केवल भाषणों से नहीं ठोस और मजबूत कदम उठाने से चला करता है जिसकी इस सरकार में काफी कमी दिखाई दे रही है। चिंता की बात यह है कि भावनायें भड़काने में माहिर राजनैतिक दल इन बुनियादी सवालों को छूना नहीं चाहते। जनता में उन्माद तो पैदा करते हैं पर उस उन्माद से रचनात्मक परिवर्तन की ऊर्जा उत्पन्न नहीं होती। इसलिये कुछ भी नहीं बदलता। यह जिम्मेदारी तो उन जागरूक और तटस्थ लोगों की है जो इस सारे माहौल को देेख और समझ रहे हैं। पर निष्क्रिय बैठे है इस उम्मीद में कोई आकर हालत सुधार देगा। कहावत है कि ‘दैव दैव आलसी पुकारा’।

Friday, September 13, 2002

कैसे हों शमशान घाट ?

जो लोग कलकत्ता से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस में जल समाधि ले गये उनके परिजनों को इस दुखद हादसे से उबरने में अभी बहुत वक्त लगेगा। मौत कैसी भी क्यों न हो परिजनों को भारी पीड़ा देती है। घर का बुजुर्ग भी अगर चला जाए तो एक ऐसा शून्य छोड़ जाता है जो फिर कभी भरा नहीं जा सकता। उसकी उपस्थिति का कई महीनों तक परिवारजनों को आभास होता रहता है। उसकी दिनचर्या को याद कर परिजन दिन में कई बार आंसू बहा लेते हैं। घर में कोई उत्सव, मांगलिक कार्य या अनुष्ठान हो तो अपने बिछुड़े परिजन की याद बरबस आ जाती है। जब कभी परिवार किसी संकट में फंसता है तो उसे अपने परिजन की सलाह याद आती है। अच्छे लोग मर कर भी मरते नहीं। किसी न किसी रूप में उनकी स्मृति बनी रहती है। अपने परिजनों के बिछुड़ने के बाद भी उन्हें याद रखने की संस्कृति बहुत पुरानी है। चीन, मिसोपोटामिया, माया संस्कृति, सिन्धु  घाटी ऐसे अवशेषों से भरी पड़ी है जो यह प्रमाणित करते हैं कि आने वाली पीढि़यां अपने बिछुड़े परिजनों को जीवन से अलग नहीं कर पातीं। दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में तो हर घर के आंगन में एक पांच फुट के खम्भे पर बुद्ध पगोडे के स्वरूप का छोटा सा मंदिर बना होता है जिसमें परिजनों के स्मृति चिह्न रखे होते हैं। सिंगापुर जैसे आधुनिक और अति व्यस्त शहर में भी काम पर जाने से पहले घर के सदस्य पूर्वजों के इस मंदिर में माथा टेककर जाते हैं। इतना ही नहीं हर सुबह नाश्ते में बनने वाले सभी व्यंजनों का अपने पूर्वजों को भोग लगाकर ही चीनी लोग नाश्ता करते हैं। जब मृतकों की स्मृति के लिये इतना कुछ किया जाता है तो जब कोई अपना जीवन समाप्त कर अंतिम यात्रा को प्रस्थान करता है उस समय परिजनों के हृदय की व्यथा शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। घर में जैसे ही मौत होती है पहली प्रतिक्रिया तो आघात की होती है। सारा परिवार महाशोक में डूब जाता है। फिर तुरंत ही अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू कर दी जाती है। जीते जी हम अपने प्रियजन को कितना ही प्यार क्यों न करते रहे हों उसकी मौत के बाद, शव को कोई बहुत समय तक घर में नहीं रखना चाहता। अर्थी सजाने से लेकर शमशान जाने तक का कार्यक्रम बहुत व्यस्त कर देने वाला होता है। जहां घर की महिलायें रुदन और विलाप में लगी होती हैं वहीं पुरुष सब व्यवस्था में जुट जाते हैं। अपनी क्षमता और भावनानुसार लोग अपने प्रियजन की इस अंतिम यात्रा को अधिक से अधिक भव्य बनाने का प्रयास करते हैं। अगर कोई नाती-पोते वाला बहुत बुजुर्ग चल बसे तब तो गाजे-बाजे के साथ, रंग गुलाल उड़ाते हुए विदाई होती है। पर भारत के अधिकतर शहरों में इस यात्रा का अंतिम पड़ाव इतना झकझोर देने वाला होता है कि शोकाकुल परिवार का शोक और तनाव और भी बढ़ जाता है।



शमशान घाटों की दुर्दशा पर बहुत समाचार नहीं छपते। यह एक गंभीर विषय है और आश्चर्य की बात है कि मरते सब हैं पर मौत की बात करने से भी हमें डर लगता है। जब तक किसी के परिवार में ऐसा हादसा न हो वह शायद ही शमशान तक कभी जाता है। उस मौके पर शवयात्रा में आये लोग शमशान की दुर्दशा पर बहस करने के लिये बहुत उत्साहित नहीं होते। जैसा भी व्यवहार मिले, सहकर चुपचाप निकल जाते हैं। पर एक टीस तो मन में रह ही जाती है कि हमारे प्रियजन की विदाई का अंतिम क्षण ऐसी अव्यवस्था में क्यों गुजरा? क्या इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती थी? प्रायः देश के शहरों में शमशान घाट पर और उसके चारों ओर गंदगी का साम्राज्य होता है। जली लकडि़यां, बिखरे सूखे फूल, पहले आये शवों के साथ फेंके गये पुराने वस्त्र, प्लास्टिक के लिफाफे, अगरबत्तियांे के डब्बे, घी के खाली डिब्बे, टूटे नारियल, टूटे घड़ों के ठीकरे जैसे तमाम सामान गंदगी फैलाये रहते हैं जिन्हें महीनों कोई नहीं उठाता। उन पर पशु पक्षी मंडराते रहते हैं। जहां शव लाकर रखा जाता है वह चबूतरा प्रायः बहुत सम्माननीय स्थिति में नहीं होता। उसका टूटा पलस्तर और उस पर पड़ी पक्षियों की बीट जैसी गंदगी परिजनों का दिल तोड़ देती है। सबसे ज्यादा तो शमशान घाट के व्यवस्थापकों का रूखा व्यवहार चुभता है। यह ठीक है कि नित्य शवयात्राओं को संभालते-संभालते उनकी चमड़ी काफी मोटी हो जाती है और भावनायें शून्य हो जाती हैं, पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिन लोगो से उनका रोज सामना होता है उनके लिये यह कोई रोज घटने वाली सामान्य घटना नहीं होती। टूटे मन, बहते नयन और बोझिल कदमों से चलते हुए लोग जब शमशान घाट के व्यवस्थापकों से मिलते हैं तो उन्हें स्नेह, करुणा, ढांढस और  हर तरह के सहयोग की तत्परता का भाव मिलना चाहिये। दुर्भाग्य से हम हिन्दू होने का गर्व तो करते हैं पर अपने शमशान घाटों को कसाईखाने की तरह चलाते हैं। जबकि पश्चिमी देशों में कब्रिस्तान तक जाने की यात्रा में चर्च और समाज की भूमिका अनुकरणीय होती है। वहां तो हर सामुदायिक केन्द्र के पुस्तकालय में एक विशेष खण्ड ऐसी पुस्तकों का होता है जिसमें मृत्यु से जूझने के नुस्खे बताये जाते हैं। पिछले दिनों लंदन के एक सामुदायिक केन्द्र में ऐसे ही पुस्तकालय में मेरी नजर इस खण्ड पर पड़ी। अंग्रेजी में छपी ये छोटी-छोटी पुस्तिकायें उत्सुकता बढ़ाने के लिये काफी थीं। एक पुस्तक का शीर्षक था पति की मृत्यु से कैसे सामना करें ?’ एक पुस्तक का शीर्षक था घर में मौत के बाद आप क्या करें ?’ एक पुस्तक का शीर्षक था अंतिम यात्रा की तैयारी कैसे करें ?’ एक और पुस्तक का शीर्षक था मृत्यु की स्थिति से निपटने में मदद देने वाली संस्थाओं के नाम-पते। यह तो पश्चिमी समाज की बात है जहां संयुक्त परिवार और शेष समाज अब आपके जीवन में दखल नहीं देते। पर भारतीय समाज में ऐसा शायद ही होता हो कि किसी के घर मौत हो और उसे स्थिति से अकेले निपटना पड़े। उसके नातेदार और मित्र बड़ी तत्परता से उस परिवार की सेवा में जुट जाते हैं और कई दिन तक उस परिवार को सांत्वना देने आते रहते हैं। इसलिये हमारे समाज में शमशान घाट का ऐसा विद्रूपी चेहरा तो और भी शर्म की बात है। पर ऐसा है, यह भी मृत्यु की तरह एक अटल सत्य है। इस मामले में आशा की किरण जगाई है कुछ शहरों के उन उत्साही लोगों ने जिन्होंने सामान्य से भी आगे बढ़कर शमशान घाट को एक दर्शनीय स्थल बना दिया है।

इस क्रम में सबसे पहला नाम राजकोट और जामनगर का याद आता है। गुजरात के इन नगरों में बने शमशान घाट इतने भव्य और सुन्दर हैं कि पर्यटक उन्हें देखने आते हैं। जामनगर के शमशान घाट में जब शवयात्रा प्रवेश करती है तो पूरे मार्ग पर देवी देवताओं की भव्य प्रतिमायें बड़े आकर्षक रूप में उसका स्वागत करती हैं। ऐसे ही दिल्ली नगर निगम ने भाजपा के शासनकाल में निगम बोध घाट का सौन्दर्यीकरण किया था। यहां सबसे आकर्षक चीज तो यह है कि शव के अंतिम स्नान के लिये एक अत्यंत सुन्दर सरोवर बनाया गया है जिसके एक छोर पर मां गंगा और मां यमुना के विग्रह हैं जिनके चरणों से वास्तव में गंगा और यमुना का जल आता हुआ इस सरोवर में गिरता है। ऐसे पुण्य सरोवर में अपने बिछुड़े परिजन के शव को स्नान कराते वक्त निश्चित ही परिजन संतोष का अनुभव करते हैं। बरेली, लखनऊ और जैतपुर जैसे स्थानों पर भी शमशान घाटों का स्वरूप सुधारा गया है। दिल्ली के पंजाबी बाग के नागरिकों ने हाल ही में शमशान घाट की व्यवस्था में भारी सुधार किया है। पर इस दिशा में सबसे ताजा उदाहरण मथुरा नगरी का है।

सदियों से देश भर के कृष्णभक्त मथुरा या ब्रज मण्डल में शरीर त्यागने की भावना से आते रहे हैं। उनमें अगर बंगाल की दरिद्र विधवायें थीं तो देश के अनेक प्रतिष्ठित पदों पर आसीन रहे बड़े लोग और धनी जन भी अपनी अंतिम श्वांस ब्रज प्रदेश में छोड़ने की भावना से आते रहे हैं। क्योंकि मथुरा या काशी में शरीर छोड़ने से मुक्ति होती है, यह विश्वास हर हिन्दू के मन में है। ऐसी भावना लेकर मथुरा वास करने वाले लोगों को वहां के शमशान घाट की दुर्दशा देखकर बड़ी पीड़ा होती थी। इसी पीड़ा को अनुभव करके मथुरा के कुछ सभ्रांत नागरिकों ने महावन रमणरेती के स्वामी श्रीगुरू शरणानंद जी महाराज व मथुरा के श्रीजी बाबा महाराज की प्रेरणा से और भाजपा के पूर्व मंत्री रविकांत गर्ग व अन्य स्थानीय नागरिकों के सहयोग से एक ऐसे भव्य शमशान घाट का निर्माण किया है जिसे देखने भविष्य में तीर्थयात्री यहां आया करेंगे। इसका नाम रखा गया है मोक्ष धाम। इसका द्वार मथुरा के यमुना तट पर बने प्रसिद्ध विश्राम घाट की वास्तुकला का नमूना है। जिसके शिखर पर गरुड़ासीन भगवान विष्णु विराजे हुए हैं। भाव यह है कि जब शव इस द्वार से प्रवेश करेगा तो भगवान विष्णु के श्रीचरणों की कृपा प्राप्त करेगा। मोक्षधाम में अनेक सुविधा सम्पन्न वृहद हाॅल, शव के विश्राम के लिये विष्णुजी के मंदिर के चरणों में मोक्ष शिला, यमुना स्नान के लिये एक वृहद सरोवर जिसके एक ओर चट्टान पर यमुना महारानी विराजी हैं और उनके चरणों से जल बहकर सरोवर में आ रहा है। इसके अतिरिक्त अनेक सुन्दर लाॅन, स्नान घर आदि की व्यवस्था की गयी है। कुल डेढ़ करोड़ की लागत से बना यह मोक्ष धाम मृतकों के दाह संस्कार की सभी सेवायंे बिना भेदभाव के निशुल्क प्रदान कर रहा है। श्री रविकांत गर्ग बताते हैं कि जब इन लोगों ने इस परियोजना का प्रारूप बनाया और उसे लेकर नगर के धनी लोगों के पास गये तो उन्हें आशातीत सफलता मिली। हर व्यक्ति ने माना कि यह एक अत्यंत आवश्यक कार्य है और इस पुनीत कार्य में उसने अपनी क्षमता अनुसार सहयोग दिया। यहां तक कि एक निर्धन जाटव ने भी उत्साह से पांच सौ रुपये का अनुदान दिया। आज मथुरा वासियों के इस सामूहिक प्रयास से मोक्ष धाम बनकर तैयार हुआ है जो निश्चय ही भविष्य में मृतकों के दाह संस्कार की अविस्मरणीय सेवायें देता रहेगा। थोड़े ही समय में सफल हुए मथुरा के इस प्रयोग के अनुभव के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत के सभी प्रांतों के शहरों में अगर कुछ उत्साही नागरिक इसी तरह एक स्वयंसेवी संगठन का गठन कर अपने शहर के शमशान घाट की कायाकल्प करने का बीड़ा उठा लें तो उन्हें बहुत अड़चनें नहीं आयेंगी। यह एक ऐसा कार्य है जो संतोष भी देगा और पुण्य लाभ भी। चूंकि यह लेख देश के कई प्रांतों में पढ़ा जाता है इसलिये ऐसी इच्छा हुई कि इस सद्विचार को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहंुचाया जाए ताकि देश के तमाम नगरों से लोग जाम नगर या मथुरा (उत्तर प्रदेश) जाकर इन शमशान घाटों को देखें और उनसे प्रेरणा लेकर अपने शहर में भी ऐसी पहल करें। यह सार्वजनिक हित का कार्य है अतः इसके लिये अपने क्षेत्र के सांसद और विधायकों की विकास राशि से भी मदद ली जा सकती है। पर सरकारी धन पर निर्भर रहने से बेहतर होगा कि लोग निज प्रयासों से इस काम को पूरा करें।

Friday, September 6, 2002

तीर्थ स्थलों में अव्यवस्था क्यों

ज्यों ज्यों आधुनिकता और उपभोक्तावाद बढ़ रहा है त्यों त्यों समाज में असुरक्षा और कुंठा भी बढ़ रही है। इसलिये लोगों की रुचि धर्म, कथा, सत्संग व तीर्थाटन में बढ़ रही है। हर तीर्थ पर सारे साल श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। जहां श्रीनाथद्वारा, वष्न्दावन, तिरुपति, श्रवणबेलगोला जैसे तीर्थ विशेष धर्म या सम्प्रदाय के भक्तों को आकर्षित करते हैं वहीं स्वर्ण मंदिर, अमष्तसर, अजमेर शरीफ, अरविंद आश्रम पांडिचेरी जैसे तीर्थ दूसरे धर्मों के भक्तों को भी आकर्षित करते हैं। इन तीर्थ स्थानों पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या अब इतनी ज्यादा होने लगी है कि उसकी व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। अमष्तसर स्थित स्वर्ण मंदिर के दर्शन करने हजारों श्रद्धालु रोज वहां पहंुचते हैं पर उनको पहला धक्का तब लगता है जब वे अमष्तसर रेलवे स्टेशन पर उतरते हैं। कूडे़ के ढेर, प्लेटफार्मों में फैला सामान, बिना वर्दी के कुली, तीर्थयात्रियों की कमीज फाड़ने को तत्पर टैम्पो और रिक्शा वाले एक ऐसा नजारा पेश करते हैं कि ‘वाहे गुरू’ की शरण में आने वाला तौबा कर बैठता है। स्टेशन से स्वर्ण मंदिर तक का सफर भी कोई आनंद देने वाला नहीं होता। सड़कों परबने बड़े बड़े गड्ढे रिक्शा में बैठकर जाने वाले तीर्थया़ित्रयों की हड्डियों की मजबूती से बार बार परीक्षा लेते हैं। स्वर्ण मंदिर के प्रबंधकों ने कई महलनुमा सराय बनवाई हैं। खासकर गुरूअर्जुन निवास, गुरू हरगोविन्द निवास व माता गंगा निवास ऐसी सराय हैं जिनमें हरेक में एक साथ तीन चार सौ परिवार तक ठहर सकते हैं। इन सरायों के चमचमाते संगमरमर के फर्श और इनकी भव्यता इनके महल होने का आभास देती है। पर यहां तैनात सेवादारों का रुखा व्यवहार तीर्थयात्रियों का दिल तोड़ देता है। गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी को चाहिये कि वे इस विशाल व्यवस्था के प्रबंधन में विनम्रता, स्नेह और सेवा का भाव भी बढ़ायें। उधर पंजाब के स्कूलों से बच्चों की बड़ी बड़ी टोलियां ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थलों को देखने अमष्तसर आती हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे ऐसे होते हैं जिनके लिये यह यात्रा जीवन में पहला बड़ा पर्यटन होता है। उन्हें गर्मजोशी से आतिथ्य मिलना चाहिये ताकि वे सुखद अनुभूति लेकर घर लौटें। साधन की कमी नहीं है। उपलब्ध साधनों का ही बेहतर इस्तेमाल करने की जरूरत है। गुरूद्वारे द्वारा संचालित लंगर अपनी कार्यकुशलता की मिसाल है। हजारों लोगों को अनवरत 24 घंटे लंगर प्रसाद का वितरण जिस सफाई, फुर्ती और कुशलता से होता है वह दुनिया के लिये एक उदाहरण है।

जहां तक गुरूद्वारे के अंदर दर्शन की व्यवस्था का प्रश्न है। वह काफी सुचारू रूप से चली रहती है। हर व्यक्ति को पंक्ति में चलते हुए अपनी बारी आने पर दर्शन भी मिलते हैं और प्रसाद भी।ये बात दूसरी है कि ब्रह्म मुहूर्त में जब पालकी साहब की सवारी निकलती है तब भीड़ को नियंत्रित करने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं होती। बच्चों, बूढ़ों और गर्भवती महिलाओं को ऐसी भीड़ में अपनी रक्षा करना काफी कठिन होता है। इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। बहुत से दर्शनार्थी सुबह अमष्तसर आते हैं और शाम की ट्रेन सेलौट जाते हैं इन चंद घंटों के लिये वे न तो होटल का किराया बर्बाद करना चाहते हैं और न कहीं और कमरा लेना चाहते हैंऐसे लोग अपना हल्का फुल्का सामान अपने कंधों पर लिये दिन भर मंदिर के परिसर में भ्रमण करते हैं कभी कभी यह असुविधाजनक हो जाता है। मंदिर में जो लाॅकर की सुविधा है वह नाकाफी है इसे और विस्तष्त और व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है ताकि हरमंदिर साहब के दर्शनों की अभिलाषा लिये आने वाली हर जीवात्मा प्रसन्नता और संतोष का भाव लेकर लौटें व्यवस्था में सुधार हो सके इसके लिये जहां गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी को ध्यान देने की जरूरत है वहीं अमष्तसर के आधारभूत ढांचे को सुधारने और संवारने की जिम्मेदारी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की है।

ठीक ऐसी ही बात अजमेर शरीफ पर भी लागू होती है। स्टेशन से लेकर दरगाह तक के सफर में प्रशासनिक इंतजाम को सुधारने की जरूरत है। दरगाह में प्रवेश करने और निकलने के वक्त जो धक्का मुक्की होती है उससे रूहानी सुकून मिले न मिले जिस्मानी दर्द जरूर मिलता है। जाएरिनों के आराम के लिये दरगाह में भीड़ को नियंत्रित करने का माकूल इंतजाम होना चाहिये। उर्स के मौके पर अजमेर पहंुचने वाले लाखों जाएरिन बसों में सफर करते हैं जिन्हें सड़क के किनारे खड़ा कर लोग अपने खाने का बंदोंबस्त रकरते हैं। तमाम चूल्हे सड़क के किनारे बनते जाते हैं, जिनसे भारी गंदगी फैलती है। फिर हाजत का काम भी सड़क के किनारे ही निपटा लिया जाता है। दरगाह के मैनेजमेंट के पास पैसे की कमी नहीं है। लोग काफी पैसा चढ़ाते हैं। जरूरत इस बात की है कि ऐसे मौकों पर बेहद सस्ती दरों पर, हो सके तो सब्सिडाइज्ड करके, दाल रोटी मुहैया कराने का लंबा चैड़ा बंदोबस्त करना चाहिये ताकि गरीब जाएरिनों को रोटी बनाने की जहमत न उठानी पड़े। सुलभ इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं की मदद से ऐसे मौकों पर टाॅयलेटों का भी बढ़ी तादाद में इंतजाम करना चाहिये। ये उम्मीद की जानी चाहिये कि दरगाह का मैनेजमेंट राजस्थान सरकार के साथ मिलकर लगातार सुविधाओं में विस्तार करता जाएगा।

अभी पिछले दिनों जन्माष्टमी पर्व पर मथुरा और वष्न्दावन में दुनिया भर के श्रीकष्ष्ण भक्तों का जमघट लगा। सबसे ज्यादा भीड़ श्रीकष्ष्ण जन्मभूमि, मथुरा और बांके बिहारी मंदिर, वष्न्दावन में थी। इन दोनों ही शहरों की आधारभूत व्यवस्था मसलन, सड़क, सफाई और यातायात प्रबंधन आम दिनों में ही इतना खस्ता हाल रहता है तो पर्व पर अगर व्यवस्था चरमरा जायें तो कोई आश्चर्य नहीं।अलबत्ता इस बार मथुरा के पुलिस अधाीक्षक प्रेम प्रकाश ने बाहर से आने वाली कारों को काफी पहले ही रुकवा कर स्थिति को बिगड़ने से रोक लिया। यह एक अच्छा प्रयोग था जो सफल रहा। भविश्य के लिये भी यह नियम बन जाना चाहिये कि वष्न्दावन के स्थायी नागरिकों को छोड़़कर बाहर से आने वाली सभी कारों, बसों आदि को पर्व के दिन या शनिवार और इतवार को, शहर से पहले ही रोक कर पार्किंग में ले जाया जाए जहां से तीर्थयात्री रिक्शे में दर्शन करने जा सकें। इस मामले में अपवाद नहीं होना चाहिये। एक वीआईपी के साथ दस सरकारी गाडि़यांे का काफिला दर्शन करने आता है और तीर्थयात्रियों के लिये भारी तकलीफ पैदा करता है। बेहतर हो कि जिला प्रशासन कार पार्किंग में सरकारी गाडि़यों को रुकवा दे और विशिष्ट व्यक्तियों के आवागमन के लिये पर्व के अवसर पर दो तीन गाडि़यों को पार्किंग पर तैनात कर दे जहां से उन्हें मंदिर लाया ले जाया जा सके। बिहारी जी के मंदिर के भीतर प्रवेश करने और निकलने के मार्ग और द्वार बिल्कुल अलग होने चाहिये। जब एक ही दिशा में भीड़ घुसती और निकलती है तो भारी अराजकता फैल जाती है। अक्सर महिलाओं की चीख इस भीड़ में सुनाई देती है जो भीड़ के रेले में दब जाती हैं। कभी भारी दुर्घटना भी हो सकती है। ब्रज प्रदेश के आधारभूत ढांचे की बात करते हुए वर्षों बीत गये पर भाजपा की प्रांतीय सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। लगता है यह काम भी कष्ष्ण भक्तों को ही करना पड़ेगा।

ये तो तीन उदाहरण हैं।देश के हर प्रांत में अनेक धर्म और सम्प्रदायों से जुड़े तीर्थ स्थल हैं। जिन पर प्रतिवर्ष अलग अलग पर्वों के हिसाब से तीर्थयात्रियों के भारी मेले जुड़ते हैं। कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जहां साल के बारह महीने तीथयात्रियों का भारी तादाद में आना जारी रहता है। ऐसे में देश के तीर्थस्थलों के प्रबंधन के लिये सामान्य से हटकर विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है। वह पुलिस अधीक्षक या जिलाधिकारी जो चंबल जैसे आपराधिक इलाके को कुशलता से संभालता आया हो जरूरी नहीं कि हरिद्वार की धार्मिक भीड़ को भी उसी कुशलता से संभाल सके; फिर चुनौती इस बात की नहीं कि कोई जिलाधिकारी भीड़ को कैसे नियंत्रित करता है बल्कि इस बात की है कि जिला प्रशासन भीड़ को नियंत्रित करने के साथ ही तीर्थयात्रियों के सुख व सुविधा का पूरा ध्यान रखता है कि नहीं। जब अपने घर कोई धार्मिक अनुष्ठान करवाता है और इष्ट मित्रों को उसमें सम्मिलित होने का न्यौता देता है तो वह अपने मेहमानों के भोजन, आराम और ठहरने का समुचित प्रबंध करता है। अगर उसके मेहमान उसके आतिथ्य से सुखी व प्रसन्न होते हैं तो उसे भी अपार हर्ष होता है। धर्मक्षेत्रों में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों से ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती है ताकि आने वाला हर तीर्थ यात्री, तीर्थ यात्रा की सभी मधुर स्मष्तियों को लेकर घर लौटें हर तीर्थयात्री को बेटी की बारात में आये बाराती की तरह सत्कार देना चाहिये। आज तीर्थाटन घरेलु पर्यटन उद्योग का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है। इसलिये इस पर विशेष नीतियां बनाकर व्यापक सुधार करने की आवश्यकता है। केन्द्रीय स्तर पर भी और प्रांतीय स्तर पर भी।

Friday, August 30, 2002

हिंसा या निर्माण की राजनीति

आखिरकार राष्ट्रपति को चुनाव सुधार अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने ही पड़े। उनका सुझाव न तो सरकार ने माना और न ही अन्य दलों ने। कैसा इत्फाक है कि राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध बोलते तो सब बढ़-चढ़ कर हैं पर जब इसे रोकने के लिए कुछ ठोस करने की बात आती है तो सभी दल उसके विरूद्ध एकसाथ लांमबंद हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि ज्यादातर दलों के ज्यादातर राजनेता आपराधिक पृष्ठभूमि के नहीं हैं। इनके गौरवशाली अतीत है फिर क्यों ये राजनेता राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध ठोस कदम नहीं उठाते ? हालत बद से बदतर होती जा रही है। पहले राजनीतिज्ञ अपराधियों से मिलने में कतराते थे। फिर उनसे लुकछिप कर मिलने लगे। फिर उन्हें अपने चुनाव में इस्तेमाल करने लगे। जब चुनावों में हिंसा और बाहुबल का बोलबाला हो गया तो अपराधियों को लगा कि जो काम वे राजनेताओं के लिए करते हैं वहीं अपने लिए क्यों नहीं करें ? अपराधियों ने राजनीति में अपने भाग्य आजमाने शुरू किए। नतीजा ये कि आज लोकसभा और विधानसभाओं में ऐसे लोगों की खासी संख्या है जिनपर लूट, हत्या, बलात्कार व अपहरण के दर्जनों मुकदमें चल रहे हैं। कानून तोड़ने वाले आज कानून निर्माता बन गए हैं। फिर भी विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता राजनीति के अपराधिकरण को रोकने को तैयार नहीं हैं। इस तरह क्रमशः लोकतंत्र का ह्रास होता जा रहा है। संसद, विधानसभा या आम सभाओं में भी अब विरोध के स्वर सुनने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। बाहुबल वाले अपने विरोधी को अगर तर्क से नहीं हरा पाते तो हिंसा से चुप करने का निर्लज्ज प्रयास करते हैं। 


पिछले दिनों अलवर (राजस्थान) जिले के सूखाग्रस्त इलाके को हराभरा बनाने वाले मेगासेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में सिर की गंभीर चोटों का इलाज करवा रहे थे। उधर मुंबई विधानसभा में विश्वास मत हारने के बाद भाजपा-शिव सेना व सत्तारूढ़ दलों के कार्यकर्ताओं ने जम कर हिंसा की। उड़ीसा विधानसभा पर विहिप के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का हिंसात्मक हमला थोड़े ही दिन पहले हुआ था। राम-भक्तों पर गोधरा का नृशंस अग्निकांड और उसके बाद गुजरात की साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरी दुनिया का ध्यान अकर्षित किया। उत्तर प्रदेश विधानसभा में तो कुछ वर्ष पहले विधायकों ने ही माइक और कुर्सी फेंक कर एक दूसरे को लहू-लुहान कर दिया था।

अपनी बात मनवाने का यह नया तरीका विकसित होता जा रहा है। कहने को तो यह लोकतंत्र है, जिसमें हर आदमी को अपनी बात कहने का हक है। हर आदमी तभी कुछ कह सकता है, जब दूसरा सुनने को तैयार हो। जिसे सुनना है वह सुने नहीं, जिसे कहना है वह कह जाए, तो वहीं होता है, जिसका नजारा देश टेलीविजन पर रोजाना संसद के भीतर देखता है। देश की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद के सम्मानित सदस्य जब पीठासीन अधिकारी द्वारा बार-बार की जा रही अपीलों की उपेक्षा करके शोर मचाना जारी रखते हैं, तो एक मछली बाजार से भी बदतर दृश्य सामने आता है। पीठासीन अधिकारी की उपेक्षा करके शोर मचाने वाले सांसद, करोड़ों स्कूली बच्चों और नौजवानों को क्या शिक्षा देंगे ? यही न कि कानून की धज्जियां उड़ाओं, नियम तोड़ो, जा और बेजा जो बोलना हो जम कर बोलो और फिर भी अगर तुम्हारी बात न सुनी जाए तो हिंसा का सहारा ले लो, ये कैसा लोकतंत्र है ? जहां बिहार में चुनाव के दौरान पर्यवेक्षण को गए अधिकारियों से बेलाग कहा जाता है कि चुपचाप गेस्ट हाउस में बैठे रहो, पोलिंग बूथ पर जाने की हिम्मत मत करना, वरना जान से हाथ धो बैठोगे, क्योंकि स्थानीय पुलिस तुम्हें बचाने नहीं आएगी। फिर जबरन कब्जाए गए मतदान केंद्रों पर वोटों की छपाई चालू हो जाती है। अगर यही लोकतंत्र है तो जाहिरन इसमें जीत उसी की होगी जिसके पास बाहुबल, जनबल, धनबल या यूं कहें कि माफिया बल ज्यादा होगा। अगर बलपूर्वक ही अपनी जा और बेजा बात मनवानी है तो बेहतर होगा कि हम राजतंत्र की ओर लौट चलें। हर जिले का राजा एक शक्तिशाली माफिया हो, जिसके कारिदें तय करें कि वो जिला कैसे चलेगा ? उसकी मर्जी से कानून बने और उसकी इच्छा से लोगों पर हुुकूमत की जाए। वैसे भी कमोवेश ऐसा ही हो रहा है। कानून और पुलिस की पकड़ सिर्फ शरीफ या आम लोगों तक सीमित है। आज जो जितने बड़े अपराध करता है वह उतने ही बड़े पदों पर सुशोभित हो रहा है। फिर भी लोगों को यही बताया जाता है कि देश में कानून का शासन है। लोग हैरान है कि तमाम प्रमाणों के बावजूद एक से बढ़कर एक बड़े घोटालेबाज न्यायपालिका के हाथों से कैसे बच निकलते हैं ? उन्हें सजा क्यों नहीं मिल पाती ? हर घोटाले की परिणिति बाइज्जत बरी होकर कैसे होती है ? इस संदर्भ में भारत के, हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा का यह कथन महत्वपूर्ण है कि उच्च न्यापालिका में बीस फीसदी न्यायधीश भ्रष्ट हैं और उनसे निपटने के मौजूदा कानून नाकाफी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि महत्वपूर्ण लोगों को, बड़े घोटाले से बरी करने वालों में ऐसे ही न्यायधीश सक्रिय हों ? यह बहुत चिंता की बात है। ऐसी व्यवस्था से ही समाज में असंतोष फूटता है जो हिंसा की राजनीति को जन्म देता है। नक्सलवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

राजेन्द्र सिंह की पिटाई करने वाले अलीगढ़ के देहाती नेता राजवीर सिंह को इस बात पर गुस्सा आया कि राजेन्द्र सिंह ने उनसे असहमति क्यों व्यक्त की। पंचायत प्रमुख राजवीर सिंह ने देहाती क्षेत्र में पानी के संकट के लिए जब सरकार के अनुदान की कमी को कारण बताया तो राजेन्द्र सिंह ने यह कह कर उनकी बात काटी की सरकार पर निर्भर रहने की कोई जरूरत नहीं है। लोग अपने पुरूषार्थ से अपनी आवश्यकता का जल जमा कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें किसी बाहरी मदद की जरूरत नहीं हैं। चूंकि राजेन्द्र सिंह जैसे कई लोगों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थानीय सहयोग से और श्रमदान से प्राकृतिक जल का संग्रह किया इसीलिए उन्हें यह विश्वास है कि ऐसा करना संभव है। पर जिन राजनेताओं की राजनीति अनुदान, ठेके , कमीशन और दलाली पर टिकी होती है उन्हें सहयोग, सहकार्य और श्रमदान जैसी बातें कैसे समझ में आएंगी?

देश में आजादी के बाद विकास का जो माॅडल अपनाया गया उसमें सरकार पर निर्भरता बढ़ा दी गई। जनता से उसकी आत्मनिर्भर जीवनशैली को छीन लिया गया। उसे विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए। उसे सरकारी अनुदान पर निर्भर रहने की आदत डाल दी गई। सामुदायिक पहल और सहयोग की जगह वेतनभोगी सरकारी कर्मचारियों ने ले ली। जिनका उद्देश्य क्षेत्र का विकास करना नहीं मात्र अपना विकास करना है। नौकरशाही और विधायी संस्थाओं के रख-रखाव पर खर्चे, इस कदर बढ़ा दिए गए कि आज यह व्यवस्था पूरी तरह खस्ता हाल हो चुकी है। भारत सरकार से लेकर हर राज्य सरकार आकंठ कर्जों में डूबी है। हालत इतनी बुरी है कि मूल धन चुकाना तो दूर ब्याज तक चुकाने के लिए कर्जें लेने पड़ते हैं। सरकारी कर्मचारिर्यों को तनख्वाह देने को पैसे नहीं है। विकास के नाम पर सभी योजनाएं ठप्प पड़ी है। सरकारी मुलाजिम समय पर वेतन पाने के लिए कई राज्यों में आंदोलन कर रहे हैं। हड़ताले हों रही हैं और अल्पकालिक समझौते हो रहे हैं। इस सबसे समाज में अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। पिछले दशक में उदारीकरण के नाम पर जो कुछ किया गया उससे आम लोगों की तकलीफें बढ़ी है। फिर भी मुलम्मा चढ़ा कर विनाशकारी योजनाओं को, विकास की योजनाएं बता कर लोगों को गुमराह किया जाता है। राजेन्द्र सिंह जब अलवर पहुंचे और सरिस्का के जंगलों में पानी की कमी को दूर करने के लिए उन्होंने श्रमदान से और गांववालों के सहयोग से इस समस्या का हल ढूंढा तो उन्हें राजस्थान की सरकार ने सम्मानित नहीं किया बल्कि उसकी नौकरशाही ने बार-बार उनके काम में रोड़े अटकाए। पर जब राजेन्द्र सिंह की मेहनत को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिल गई तो जाहिरन देश के अन्य हिस्सों में लोग, उन्हें बुलाकर पानी के संकट से उबरने के रास्ते पूछना चाहते हैं। अगर लोग अपने ही बूते पर वर्षा के जल को संग्रह करना सीख जाएं और जल की समस्या से निजात पा लें तो देश भर के लाखों दलालों और छूटभैए नेताओं की दुकानदारी उखड़ जाएगी। इसलिए जब कभी जनता की तरफ से बदलाव की ऐसी पहल होती है तो उसका डटकर विरोध किया जाता है। सत्ताधीश और उनके एजेंट ऐसी रचनात्मक प्रवृृत्तियों को पनपने नहीं देना चाहते हैं। उन्हें हाशिए पर चले जाने का डर होता है।

यही कारण है कि हर तरह के संसाधनों से युक्त भारत बदहाली की मार झेल रहा है। सूखा तो इस साल ही पड़ा है पर देश में पानी की भारी किल्लत हमेशा बनी रहती है। जबकि हकीकत यह है कि प्रकृति वर्षा की मार्फत जितना जल भारत पर बरसाती है उसका दस फीसदी भी हम इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। सारा जल नदियों के रास्ते समुद्र में जाकर खारा हो जाता है। यह तो तब है जब जल संसाधन के प्रबंधन में पिछले 52 वर्षों में अरबों रूपया खर्च किया जा चुका है। सारा पैसा किसकी जेब में गया यह सब जानते हैं। आज हर शहर में बिजली का भारी संकट है। नतीजतन जैनरेटरों का शोर और वायु-प्रदूषण झेलकर शहरी लोग किसी तरह जिंदगी घसीट रहे हैं। पर कम लोग ही जानते हैं कि भारत की मौजूदा ऊर्जा उत्पादन क्षमता का आधा हिस्सा भी प्रयोग नहीं होता। सारी बिजली कुप्रबंध, भ्रष्टाचार और चोरी के कारण बर्बाद हो जाती है। यही हाल अन्य सेवा क्षेत्रों का भी है।

न्यायपालिका से लेकर विधायिका और कार्यपालिका तक का जो आलम है, उसका नजारा देश की सौ करोड़ जनता रोज देख रही है। परेशान हो रही है। झुझलाती है। क्रोध करती है। पर कुछ ठोस कदम नहीं उठाती। अगर देशवासी चाहते है कि प्रशासनिक व्यवस्था कम खर्चीली, चुस्त-दुरूस्त और जनता के प्रति जवाबदेह हो तो उन्हें भी कुछ करना पड़ेगा। उन्हे हर जिले के स्तर पर ऐसे लोगों को चुनना होगा, जिनमें स्थानीय जनता को दिशा देने की क्षमता हो। जिनके अनुकरणीय जीवन का उस क्षेत्र में सम्मान होता हो। ऐसे लोग हर जिले में है। प्रसिद्ध भले ही न हुए हों पर इन निस्वार्थ लोगों के निर्देशन में स्थानीय नौजवानों की ऐसी फौज खड़ी हो जो जनाधारित विकास के काम में रोड़ा अटकाने वालों को उनकी औकात बताने की हिम्मत रखती हो। जो संगठन बनाएं। जिनमें काम करने वाले पद और अनुदान के लालच में नहीं बल्कि त्याग और तपस्या के बल पर समाज को दिशा देने की क्षमता रखते हों। प्रशासनिक ढांचा इस बुरी तरह और तेजी से चरमरा रहा है अगर हम अब भी नहीं जागे तो हालात दक्षिणी अमरीकी देशों, अफ्रिकी देशों और रूस से भी बद्दतर हो जाएंगे। प्रशासन पंगू हो जाएगा। सरकार के पास साधन नहीं रहेंगे। जनता में अराजकता फैलेगी और काफी मार-काट मचेगी। जिसके बाद वहीं लोग बचेंगे जो इस सबको झेलकर भी जिंदा रह जाएंगे। वह भयावह स्थिति होगी। इससे बचने का एक ही रास्ता है, हम कबूतर की तरह आंख बंद करना छोड़ दे। बिगड़ते हालात की बिल्ली  हम पर झपट्टा मारने को तैयार बैठी है।

Friday, August 16, 2002

गुजरात में चुनावी दंगल शुरू

सारी दुनिया की नजर गुजरात के विधान सभा चुनावों पर है। राष्ट्रपति से लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त तक के गुजरात दौरों ने इस चुनाव को और भी रंगीन बना दिया है। दोनों ओर से महारथी मैदान में डटे हैं। एक ओर भाजपा के महारथी और दूसरी ओर इंका के महारथी अपनी ताल ठोक रहे हैं। फिलहाल मुद्दों और मतदाताओं के झुकाव की बात छोड़ दी जाए और केवल चुनावी दाव-पेंच का विश्लेषण किया जाए तो कई रोचक तथ्य सामने आते हैं। भाजपा की सेना में सबसे बड़े महारथी हैं स्वयं श्री लाल कृष्ण आडवाणी जो उप-प्रधानमंत्री भी हैं और गांधी नगर लोक सभा क्षेत्र के संसद में प्रतिनिधि भी। उनका व्यक्तित्व और गरिमा भाजपा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। पर भाजपा के समर्पित मतदाताओं को केन्द्र की राजग सरकार से बहुत उम्मीदें थीं जो पूरी नहीं हुई इसलिए उनमें निराशा है उधर गांधी नगर संसदीय क्षेत्र के मतदाता भी अपने सांसद से संतुष्ट नहीं हैं। फिर भी आडवाणी जी इस गुजरात के चुनाव अभियान में राजग के शेष कार्यकाल में बेहतर सरकार देने का सपना तो दिखा ही सकते हैं। मजबूरी हुई तो हिंदू कार्ड को भी खुलेआम खेल सकते हैं। पर उप प्रधानमंत्री के पद पर रहते ऐसा कर पाना सरल नहीं होगा।

भाजपा के दूसरे महारथी हैं- श्री केशुभाई पटेल। जिनका पटेल वोटों पर निःसंदेह अच्छा आधिपत्य है। पर उनके साथ कई पुछल्ले लगे हैं। एक तो यह कि वे श्री नरेन्द्र मोदी को कतई पसंद नहीं करते और अपने राजनैतिक पतन के लिए श्री मोदी को ही जिम्मेदार मानते हैं। इसलिए बावजूद इसके कि उन्हें भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान सौंपी गई है, उम्मीद यही है कि वे प्रचार ऊपर के मन से भले ही करें पर पटेल समाज को इस बात के लिए कभी मजबूर नहीं करेंगे कि वो श्री मोदी को वोट दें। अगर उन्होंने ऐसा किया तो वे पटेल समाज के मुखिया भी नहीं रह पाएंगे। दूसरा पुछल्ला यह है कि श्री केशुभाई पटेल के शासनकाल में गुजरात की आर्थिक दुर्गति ही हुई है। भूकंप राहत कार्य भी बड़ी अकुशलता से किया गया और उनकी सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का खुला खेल खेला गया, इसलिए पटेल समाज के बाहर उनकी शेष जनता पर पकड़ नहीं है। इसलिए गुजरात के विधान सभा चुनाव में वे भाजपा का भला कर पाएंगे, इस पर संदेह हैं।

भाजपा के तीसरे महारथी है श्री अरूण जेटली। जो अपनी वाकपटुता के कारण पहले मीडिया पर छाए और फिर भाजपा के सांसद व मंत्री बने और अब भाजपा के संगठन को संभालने पार्टी का महासचिव बन कर आ गए। श्री जेटली में हाजिर जवाबी तो है ही पर चुनाव लड़ने का उनका अनुभव लगभग शून्य हैं। वे स्वयं भी जीवन में विधानसभा से लेकर लोकसभा तक कोई चुनाव नहीं उड़े। संसद में उनका प्रवेश राज्य सभा की मार्फत हुआ। ऐसे में उनसे चुनावी हथकंडे दिखाने की उम्मीद करना नाइंसाफी होगी। जिस तरह उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त पर हमला बोला उससे श्री जेटली की हताशा स्पष्ट झलकती है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टीएन शेषन ने तो इससे कहीं ज्यादा कड़ी फटकार जिला प्रशासन को ही नहीं मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों तक को लगाईं थीं तब श्री जेटली के दल भाजपा ने श्री शेषन का यशगान किया था। आज जब वही बात उनके खिलाफ हुई तो इतना गुस्सा क्यों ? श्री जेटली के इस अप्रत्याशित बयान का समझदार जनता के बीच उल्टा प्रभाव पड़ेगा।

भाजपा के चैथे महारथी हैं स्वयं मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी। जो जमीन से जुड़े कार्यकर्ता रहे हैं और संघ व संगठन का खूब काम किया है। उन्हंे संगठन चलाने का खासा अनुभव है पर चुनाव उन्होंने भी आज तक न कोई लड़ा, न जीता। अपने जीवन का पहला चुनाव उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा के लिए लड़ा जो उनकी कुर्सी बचाए रखने के लिए जरूरी था। इसमें वे कामयाब जरूर हुए पर केवल एक चुनाव लड़ने से पूरे प्रदेश के चुनाव को संभालने की उम्मीद नहीं की जा सकती। दूसरी ओर श्री मोदी के रूखे स्वभाव ने उन्हें पार्टी में अनेक स्तर के नेताओं के बीच अलोकप्रिय बना दिया है जो इस चुनाव लड़ने में भारी पड़ सकता है।

उधर इंका के खेमे में गुजरात का मोर्चा संभावने वाले लोगों में तीन प्रमुख हैं। इंका के महासचिव व गुजरात के प्रभारी श्री कमलनाथ। जिनकी राजनैतिक शिक्षा संजय गांधी वाले दौर में हुई है। ये उस टीम के सदस्य रहे हैं जिसने अपनी आक्रामक राजनीति से 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी को भारी विजय दिलाई थी। तब से आज तक श्री कमलनाथ ने हार का मुंह नहीं देखा। मध्य प्रदेश (छिन्दवाड़ा) के अपने संसदीय क्षेत्र से वे लगातार सात बार से चुनाव जीतते रहे हैं, जो कि उनकी कम उम्र और छोटे से राजनैतिक जीवन में बहुत बड़ी उपलब्धि है। संगठन के मामले में भी वे अपने रंग दिल्ली मंे नगर निगम चुनावों में दिखा चुके हैं जहां उन्होंने कांग्रेस को आशातीत सफलता दिलवाई। 9 अगस्त को कपड़ा मिलों के शहर सूरत में जो इंका की भव्य रैली हुई उसमें श्री कमलनाथ के लिए नारे लग रहे थे, ‘‘देखो देखो कौन आया-मोदी तेरा बाप आया।’’ इस रैली की खासियत यह थी कि इसका आयोजन उन कपड़ा मिल मालिकों, मजदूरों और कपड़ा व्यापारियों ने किया जो आज तक भाजपा का साथ देते आए थे। इस तरह भाजपा के केंद्रीय कपड़ा मंत्री श्री काशी राम राणा के लोक सभा क्षेत्र में जाकर रणभेरी बजाने वाले श्री कमलनाथ गुजरात चुनाव में क्या-क्या रंग दिखाएंगे अभी अंदाजा लगाना मुश्किल है। पर यह जरूर है कि उनके लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है।

कांग्रेस के दूसरे महारथी श्री अमर सिंह चैधरी हैं। यूं तो आक्रामक तेवर वाले व्यक्ति नहीं हैं पर गुजरात में उनकी छवि एक गंभीर प्रशासक, सरल स्वभाव वाले नेता की है। जिसका फायदा इंका को मिल सकता हैं बशर्ते कि वे चुनाव में पूरी उत्साह से जुट जाएं। श्री शंकर सिंह वाघेला को जब इंका का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो श्री अमर सिंह चैधरी अपना विरोध प्रकट करने दिल्ली आ धमके पर बाद में उन्हें राजी कर लिया गया।

इंका के तीसरे महारथी हैं श्री शंकर सिंह वाघेला। जो दरअसल संघ और भाजपा के ही सृजन हैं। श्री वाघेला सारी जिंदगी संघ और भाजपा के लिए काम करते रहे। गुजरात में भाजपा संगठन को खड़ा करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने वर्षों कंधे पर थैला लटका कर सड़क छाप राजनीति की है। हर शहर में, हर कार्यकर्ता से उनका निजी संबंध है। यूं कमी किसमें नहीं होती पर श्री वाघेला की खासियत यह बताई जाती है कि जब वे मुख्यमंत्री के पद पर रहे तो भी उन्होंने कभी अहंकार को पास नहीं फटकने दिया और जो भी उनसे मिला उससे सम्मान से मिले। यहां तक कि लालबत्ती की मुख्यमंत्री वाली गाड़ी से उतर कर अपने मित्र या कार्यकर्ता की गाड़ी में बैठ कर चल देते थे और सारी औपचारिकताएं धरी रह जाती थी। जबकि दूसरी ओर श्री मोदी के रूखे और दंभी व्यवहार से प्रायः लोग नाराज होकर लौटते हैं।

गुजरात चुनाव की कमान संभालने वालों में इंका के श्री अहमद पटेल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे गुजरात के अल्पसंख्यकों से सीधे जुड़े हैं और मुस्लिम पटेल होने के नाते उनका गुजरात के पटेलों पर भी अच्छा प्रभाव है। सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं गुजरात के बहुसंख्यक समाज में भी श्री अहमद पटेल खासे लोकप्रिय हैं। वे जमीनी नेता हैं और तालुका स्तर से राजनीति शुरू करके यहां तक पहुंचे हैं। भड़ौच संसदीय क्षेत्र से वे 1977, 1980 व 1985 का लोक सभा चुनाव जीत कर आए थे। गुजरात के मतदाताओं के मनोविज्ञान की उन्हें गहरी समझ है। इस तरह चुनाव लड़ने और जीतने के अनुभव के मामले में कांग्रेस की टीम भाजपा से कहीं ज्यादा भारी पड़ रही है। वैसे हकीकत यह है कि चुनावी दंगल में लड़ते तो महारथी हैं लेकिन उनकी हार या जीत का फैसला मतदाता ही करता है। इसलिए अभी यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि गुजरात के मतदाताओं का ऊंट किस करवट बैठेगा ?

इसमें शक नहीं है कि गोधरा के बाद गुजरात के हिन्दुओं में ध्रुवीकरण हुआ था। जिसका कुछ असर अभी भी अहमदाबाद, बड़ौदा, मेहसाना और खेड़ा जिले में बाकी है। पर शेष गुजरात में न तो ऐसा ध्रीवीकरण हुआ और न ही साम्प्रदायिक दंगे। फिर भी भाजपा आश्वस्त है कि चुनाव में विजय उसकी ही होगी। इसीलिए वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू भावनाओं को जगाए रखेगी और इसीलिए वह जल्दी चुनाव भी चाहती है। जबकि हकीकत यह है कि गुजरात का मतदाता मूलतः व्यापारिक बुद्धि का है। एक व्यापारी का मुख्य लक्ष्य धन कमाना होता है। जिसके लिए वह व्यापार करता है। व्यापार जितना बढ़ता है उतनी उसकी आमदनी बढ़ती है। पर हिंसा और द्वेष की राजनीति से समाज की शांति भंग हो जाती है। पारस्परिक विश्वास टूट जाता है। असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है। गुजरात में गोधरा और उसके बाद की हिंसा में जो कुछ हुआ, ऐसे माहौल में न तो शांति ही रह सकती है और न व्यापार ही फलफूल सकता है। वही आज गुजरात में हो रहा है। उद्योग, धंधे और व्यापार पर ऐसी मार पड़ी है कि गुजरात का समाज उबर नहीं पा रहा है। चारो ओर हताशा का माहौल है रही सही कमर सूखे ने तोड़ दी। इसलिए गुजरात के मतदाओं ने अपना फैसला मन ही मन कर लिया है। गुजरात का यह इतिहास भी रहा है कि वहां का मतदाता अपने फैसले को अंत समय तक दिल में ही रखता है और मतदान के बाद चैकाने वाले परिणाम देता है। गुजरात विधान सभा चुनाव के क्या नतीजे आएंगे, अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पर इस बार के चुनावी दंगल में महारथियों के दाव-पेंच पर मीडिया जगत का विशेष ध्यान रहेगा और अंत में यही होगा कि, ‘जो जीता वही सिकंदर।’

Friday, August 9, 2002

’रोटरी ब्लड बैंक’ पर सवालिया निशान


बहुराष्ट्रीय कंपनियांे ने सौ करोड़ भारतीयों का भरा-पूरा बाजार देखकर पहले तो पीने का पानी बेचने का जाल फैलाया, फिर खाने के देशी तेल को मिलावटी बता कर विदेशों से महंगे तेल के आयात का रास्ता खुलवाया और अब उसकी नजर इंसानी खून पर है। इन अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों की कोशिश है कि भारत में खून की आपूर्ति का धंधा पकड़ लिया जाए तो उनकी चांदी ही चांदी हो जाएगी। केरल की ज्वाइंट एक्शन काउंसिल, कन्नूर के श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली इस मामले में पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट से एक महत्वपूर्ण फैसला लेने में कामयाब हुए। श्री मुल्लोली का आरोप है कि, ‘‘मानव सेवा के लिए समर्पित होने का दावा करने वाली रोटरी इन्टरनेशल भी खून की इस तिजारत में जन विरोधी काम कर रही है।’’ भारत सरकार ने एक यूनिट खून को उपलब्ध कराने की अधिकतम कीमत 500 रूपया तय की है। इंडियन रेड क्राॅस सोसाइटी यही सेवाएं केवल साढ़े तीन सौ रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से देती है। जबकि स्वयं सेवी रूप से ब्लड बैंक चलाने का दावा करने वाला रोटरी क्लब 750 रूपए प्रति यूनिट की दर से रक्त सेवाएं प्रदान करता है। कहीं-कहीं रोटरी ब्लड बैंक इसके 900 रूपए तक वसूल करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये रक्त की कीमत नहीं है क्योंकि रक्त तो रक्त दान शिविरों से मुफ्त की इकट्ठा किया जाता है। यह कीमत तो रक्त के संग्रह, परीक्षण, संरक्षण और वितरण की है। 

श्री एच.डी. शौरी ने एक जनहित याचिका दायर करके 1996 में सर्वोच्च न्यायालय से एक अजीबो-गरीब फैसला हासिल किया। जिसे ऐतिहासिक फैसला बताया गया। इस फैसले के तहत व्यवसायिक रक्तदाताओं को रक्त बेचने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। इसका आधार यह बताया गया कि ऐसे लोगों को एड्स जैसी बीमारी होने की संभावना ज्यादा है इसलिए इनका रक्त नहीं लिया जाना चाहिए। यह दूसरी बात है कि कि देश की कुल रक्त आवश्यकता का एक तिहाई इन्हीं व्यवसायिक रक्त दाताओं से आता है । ये प्रथा अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है, जब भारत में आम आदमी रक्तदान करना अपने स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं मानता था। श्री मुल्लोली का आरोप है कि व्यवसायिक रक्तदाताओं पर इस किस्म की अविवेकपूर्ण और अव्यवहारिक रोक लगाना पूर्णतः अवैज्ञानिक है। जब रक्त संग्रह किया जाता है उसी समय उसकी गुणवत्ता का वैज्ञानिक परीक्षण होता है। अगर किसी दाता का रक्त दोषपूर्ण होता है तो इसी स्टेज पर उसे नकार दिया जाता है। फिर किसी व्यक्ति की सामाजिक, व्यवसायिक या आर्थिक पृष्ठभूमि का ख्याल करने की जरूरत ही कहां है ? यह तो एक तरीके का नया जातिवाद हुआ जहां समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को रक्तदान के मामले में अछूत करार दे दिया गया। यह बात दूसरी है कि इस फैसले के बावजूद ब्लड बैंको में व्यवसायिक दानदाताओं का रक्त फिर भी आता रहा। चूंकि ऐसा करना अब गैर कानूनी था इसलिए यह काम चोरी-छिपे किया गया और रक्त के कई गुने दाम वसूले गए।
 वैसे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से ही बात नहीं थमी। भारत सरकार तो उससे भी एक कदम आगे बढ़ गई और उसने जेल में रह रहे कैदियों को रक्तदान के अधिकार से वंचित कर दिया, यह कह कर कि इनका रक्त खतरनाक हो सकता है। जबकि हकीकत यह है कि कैदियों का स्वास्थ्य जेल में रहने से प्रायः सुधर जाता है और वे लोग लगातार डाक्टरी निरीक्षण के तहत रहते हैं।
रोटरी क्लब ने तो इस मामले में और भी बुद्धिमताका प्रदर्शन किया और गैर-कानूनी रूप से यह घोषणा कर दी कि वे रिक्शा चालकों या अन्य किस्म के गरीब लोगों का रक्त स्वीकार नहीं करेगा। इस नियम के पीछे कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं था। इसलिए इन सब फैसलों को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और 29 जुलाई 2002 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे सभी प्रतिबंधों को निरस्त कर दिया। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद अब कैदी, रिक्शा चालक, व अन्य तबके के गरीब लोग भी रक्तदान कर सकेंगे। उल्लेखनीय है कि एक बार रक्तदान करने से कैदियों की सजा में 15 दिन की कमी हो जाती है। यहां यह याद दिलाना भी महत्वपूर्ण होेगा कि गुजरात में पिछले वर्ष आए भूकंप के बाद रक्त की भारी आवश्यकता के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले के चलते कैदियों को रक्त दान नहीं करने दिया गया था। जेल अधिकारी इस मामले को लेकर मानावाधिकार आयोग गए पर वहां भी उनकी नहीं सुनी गई। पर अब स्थिति बदल गई है । दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से सबसे ज्यादा हर्ष कैदियों और गरीब लोगों को हुआ है।
उल्लेखनीय है कि इन्टरनेशल फेडरेशन आफ दी रेड क्राॅस ने तीन वर्ष पहले भारत में स्वैच्छिक रक्तदान की दयनीय दशा पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। मशहूर चार्टटेर्ड एकाउंटेंट फर्म ए.एफ फरगुसन ने एक अध्ययन करके यह बताने की कोशिश की व्यवसायिक रक्तदाता प्रायः गरीब है, नशेड़ी है या अवैध सैक्स संबंध रखते हैं इसलिए उनका रक्त सुरक्षित नहीं है। इससे ज्यादा हास्यादपद अध्ययन हो नहीं सकता। क्या धनी लोग नशेड़ी नहीं होते या अवैध सैक्स संबंध नहीं रखते ? क्या गरीब होना अभिशाप  है और धनी होना स्वस्थ्य होने की गारंटी है?
ये सब वाहियात बातें हैं और भारत में रक्त का विश्व बाजार तैयार करने के उद्देश्य से की जा रही हंै। आवश्यकता तो इस बात की है कि रक्तदान के लिए देश में समुचित वातावरण तैयार किया जाए। लोगों में इसकी सही समझ पैदा की जाए। पेशेवर रक्तदाताओं के नियमित स्वास्थ्य के परीक्षण की व्यवस्था की जाए और नौजवानों और स्वस्थ लोगों को स्वैच्छिक रक्त दान के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रेरणा दी जाए ताकि रक्त की आवश्यकता देश में ही आसानी से पूरी हो सके। विदेशों से रक्त आयात न करना पड़े तो देश की दौलत देश में ही रहेगी और रक्त की आपूर्ति में हम हमेशा आत्मनिर्भर बने रहेंगे।
रोटरी इनटरनेशल जैसी संस्था को भी अपनी नीति में सुधार लाना चाहिए। भारतीय समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्से को अछूत बना कर वे समाज की सेवा नहीं कर रहे। खासकर तब जबकि उन्हें अपनी ब्लड बैंक सुविधा के विस्तार के लिए 53 लाख रूपए का अनुदान दिल्ली सरकार से और एक करोड़ रूपए का अनुदान संसदीय विकास निधि से प्राप्त हुआ है। जोकि उनके कुल बजट पांच करोड़ रूपए का एक तिहाई हिस्सा है। जनता का धन लेकर जन       विरोधी काम क्यों ?
नेशनल ब्लड ट्रास्फयूजन काउंसिलको भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। इस काउंसिल का गठन ब्लड बैंकों का अधुनिकीकरण और रक्त की समुचित मात्रा की आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था। जो कि सुप्रीम कोर्ट के 1996 के निर्णय के बाद अस्तित्व में आई। पर काउंसिल ने अपनी प्रस्तावित जिम्मेदारी पूरी करने की बजाए  सारी ऊर्जा सेमिनारों और बैठकों के आयोजित करने में ही लगा दी। 1998 तक केवल प्रशासन और सेमिनार पर ही डेढ करोड़ रूपया खर्च कर दिया।
रक्त की गुणवत्ता के नाम पर फैलाए जा रहे इस सारे प्रपंच के पीछे अंतर्राष्ट्रीय रक्त कंपनियों की गहरी साजिश है जो भारत में रक्त की कमी का आतंक फैलाकर भारत को विदेशों से रक्त निर्यात करना चाहतीं है। गरीबी और बीमारी से जूझते आम हिंदुस्तानियो की जेब पर डाका डालना चाहती हैं। इसका ठोस प्रमाण यह है कि 1996 का सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पहले 1994 में देश में केवल 15 लाख रूपए का रक्त आयात हो रहा था। इस निर्णय के आने के बाद सैंकड़ों करोड़ रूपए साल का रक्त आयात होने लगा। ताजा जानकारी के अनुसार पिछले वर्ष 2,800 करोड़ रूपए का रक्त और रक्त आधारित पदार्थों का आयात किया गया। यह आयात मूलतः फ्रांस और अमरीका से ही हुआ। इससे ज्यादा विडंबना की बात क्या हो सकती है कि सौ करोड़ की आबादी वाले देश में भी मानव रक्त का आयात करना पड़े और सीमित विदेशी पूंजी को इस तरह बर्बाद करना पड़े ? उल्लेखनीय है कि देश में कुल 80 लाख यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है, जो देश में ही बड़ी सरलता से उपलब्ध है। हकीकत तो यह है कि देश में ब्लड बैंको के पास उनकी संग्रह क्षमता से ज्यादा रक्त की हमेशा ही आपूर्ति होती रहती है। बशर्ते कि व्यवसायिक रक्तदाताओं को रोका न जाए। रक्त के इस कारोबार में केवल रक्त के आयात का ही मुद्दा नहीं है बल्कि रक्त की जांच के नाम पर भी करोड़ों रूपए की मशीनों का भी आयात किया गया। रक्त जांच करने की इन मशीनों की क्षमता भारत की कुल रक्त की मांग से कहीं ज्यादा है। फिर यह फिजूलखर्जी किसके हित साधने के लिए की गई ? कारगिल युद्ध के दौरान जब देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत भारतवासी रक्तदान करने उमडे़ चले आए, तब ब्लड बैंकों में रक्त संग्रह की क्षमता न होने के कारण उन्हें लौटा दिया गया। साफ जाहिर है कि इन मशीनों को आवश्यकता से ज्यादा मंगाया गया। इस तरह रक्त का कारोबार एक बड़े मुनाफे का कारोबार है इसलिए भारत की आम जनता को जागरूक रहना होगा, कहीं खून के सौदागर उसे लूट न ले जाएं।