Friday, November 15, 2002

क्या सेना नागरिकों को सजा दे सकती है ?


अगर सैनिकों और नागरिकों के के बीच कोई अप्रिय घटना हो जाए तो किसका कानून चलेगा ? नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था का या सेना का ? लोकतंत्र में कौन सर्वोच्च है ? जनता या प्रशासन या फिर सेना ? क्या सैनिक अधिकारी को यह हक है कि वे नागरिकों को अपने कार्यालय में तलब करे ? उनसे सवाल-जवाब करे ? उनसे सजा भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी दे या उन्हें डराएं धमकाएं ? सेना की जहां-जहां छावनियां है वहां ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती है। जब सेना के जवान या अधिकारियों की स्थानीय नागरिकों से या स्थानीय प्रशासन से तकरार हो जाती हैै। प्रायः यह तकरार अतिमहत्वहीन कारणों से होती हैै। मसलन, सिनेमा या रेल के टिकट की लाइन में खड़े लोगों के बीच धक्का-मुक्की या महिलाओं पर फिकराकशी या सड़क पर वाहनों की भिडंत या पड़ौसियों की रोजमर्रा के मामलों पर कहासुनी। ऐसे सब मामलों में अक्सर देखने को आता है कि सेना के पृष्ठभूमि वाले लोग नागरिकों को आतंकित करते हैं या दबाते हैं, यह एक चिंतनीय स्थिति है।

ताजा घटनाक्रम के अनुसार आगरा में संभ्रांत परिवारों के सात किशोर एक रेस्टोरेंट से भोजन करके निकले। न ये शोहदे थे न शराबी-जुआरी। अच्छे स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले नौजवान थे। उसी रेस्टोरेंट से उन्हीं की सी उम्र का एक और नौजवान अपने साथ एक महिला को लेकर निकला। चश्मदीद गवाह बताते हैं कि अनेक बार मोटरसाइकिल की किक मारने के बावजूद जब उस नौजवान की मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं हुई तो ये सात किशोर ठहाका लगा कर हंस दिए और इनमें से एक दो ने फिकरा कशा, ‘लोग लड़की लेकर आते हैं और मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं कर पाते।वह नौजवान इस फिकरे से तिलमिला गया। सौभाग्य से मोटरसाइकिल स्टार्ट हुई। कुछ ही गज गई होगी कि फिर फुस हो गई। सातो किशोर फिर ठहाका लगा कर हंसे और कुछ और फिकरे कशे। इस पर वह नौजवान नाराज हो गया और आवेश में इन सातों किशोर की तरफ आया और इन्हें धमका कर खामोश करना चाहा। कहासुनी हुई। नौजवान ने अपना परिचय पत्र दिखाते हुए बताया कि वह पैरा मिलिट्री फोर्स का कैप्टन है। पर कहासुनी इतनी हो चुकी थी कि इन सात में से दो नौजवानों ने सैयम खो दिया और उस कैप्टन से लड़े पड़े। उसके बाद कुछ मिनट गुथमगुथा हुई और फिर बाकी साथियों के रोकने पर मामला थम गया। ये सातों किशोर मामले की गंभीरता को समझते हुई वहां से खिसक गए। क्योंकि पैरा मिलिट्री फोर्स का आगरा में यह इतिहास रहा है कि जब कभी भी उनके किसी साथी की स्थानीय नागरिक या प्रशासन से तकरार हुई तो उन्होंने जम कर नागरिकों की पीटाई की। 10-15 वर्ष पहले तो कहते हैं कि पूरी बिग्रेड ही आगरा शहर पर निकल आई थी और उसने सारे शहर में ढूंढ-ढूंढ कर पुलिसवालों की धुनाई की। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तक को नहीं बक्शा, बहुत बड़ा विवाद खड़ा हुआ।

खैर ताजा घटना के बाद लड़ने वाले लड़के की कार का नंबर उस कैप्टन ने नोट कर लिया। बस उसके बाद शुरू हो गया आगरा में सेना के आतंक का एक लंबा सिलसिला। इन सातों बच्चों के मां-बाप को कई बार सेना ने अपने कार्यालय में तलब किया। बड़े अफसरों ने कूटनीति से और छोटे अफसरों ने बाकायदा धमका कर इन मां-बापों से कहा कि अपने बच्चे हमें सौप दो, हम उन्हें सजा देंगे। चूंकि फौज का आतंक नागरिकों में व्याप्त है इसलिए कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को इस तरह खतरनाक परिस्थिति में फेंकने को तैयार नहीं था। वे जानना चाहते थे कि सजा का स्वरूप क्या होगा और उसके निर्धारत का मापदंड क्या होगा। साथ ही उनकी शर्त यह भी थी कि उनके बच्चों को जो भी सजा दी जाए वह उनकी मौजूदगी में दी जाए। जबकि बिग्रेडियर महोदय का कहना था कि सजा देने के लिए बच्चों को मां-बाप से दूर ले जाया जाएगा। सेना के अधिकारी कोई बात सुनने को तैयार नहीं। इन बच्चों के मां-बापों ने बार-बार अनुनय-विनय की कि आप जो भी आरोप लगाने हैं लगा कर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दें और बच्चों कोे देश के कानून के अनुसार सजा मिलने दें। पर सैन्य अधिकारी टस से मस नहीं हुए। इन मां-बापों ने अपने-अपने उन संबंधियों को संपर्क किया जो फौज में उच्च पदों पर आसीन हैं। बिग्रेडिर से कहीं ऊंचे-ऊंचे बड़े अधिकारियों ने देश के कोने-कोने से फोन करके आगरा की इस बिग्रेड को समझाने की कोशिश की कि उन्हें इस छोटी सी गलती के लिए नागरिकों को इस तरह तेलब करने का या उनके बच्चों को सजा देने का कोई कानूनी हक नहीं है। पर इसके बावजूद बात नहीं बनी। भयभीत माता-पिता ने अपने बच्चे छिपा दिए। इतना ही नहीं वे खुद भी रात को अपने घरों से बाहर मित्रों के यहां जाकर सोने लगे क्योंकि उन्हें सेना के छोटे अधिकारियों ने काफी डराया-धकमकाया। उन्हें ऐसे संकेत दिए गए कि अगर उन्होंने अपने बच्चे नहीं सौपे तो सेना के जवान सादीवर्दी में, रात को आकर उनको घर से उठा ले जाएंगे। आखिर एक बच्चें के रिश्तेदार बिग्रेडियर खुद आगरा पहुंचे और उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि सजा के तौर पर बच्चों को मारा-पीटा नहीं जाएगा। उनके हाथ-पैर नहीं तोड़े जाएंगे। सजा मां-बाप की मौजूदगी में दी जाएगी और वे बिगे्रडियर मौके पर मौजूद रहेंगे। समझौता हुआ। सातों बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों के साथ वहां पहुंचे बड़े आत्मीय वातावरण में उनका स्वागत हुआ और बच्चों को पचास गढ्ढे खोदने की सजा दी गई। जिसके बाद इस तनावपूर्ण स्थिति का सुखांत हुआ। पर यहां कई सवाल खड़े होते हैं। यह सही है कि कैप्टन का परिचय पत्र देखने के बावजूद जिन दो किशोरों ने लड़ाई की उन्होंने घोर निंदनीय कार्य किया और इसकी जो भी सजा कानून में हो उन्हें मिलनी चाहिए थी। पर जिस तरह सेना ने नागरिकों को तलब किया उन्हें दो हफ्ते तक भय और आतंक में जीने के लिए मजबूर किया और अंततः एक रचनात्मक सजा ही सही पर सजा तो दी। क्या यह सब कानूनी रूप से वैद्य है ? क्या सेना का नागरिकों के प्रति ऐसा व्यवहार एक लोकतांत्रिक देश में बर्दाश्त किया जा सकता है ? सेनावालों का सम्मान होना चाहिए, ये हर समझदार आदमी मानता है। सेना कठिन परिस्थितियों में जानजोखिम में डालकर, देश के लिए काम करती है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि उसका व्यवहार मानवीय मूल्यों से हटकर हो या देश के कानून के विरूद्ध हो।

आत्म प्रशंसा की बात नहीं है। पर एक उदाहारण के तौर पर कहना चाहता हूं कि जब मैंने देश के तमाम ताकतवर नेताओं और मंत्रियों के विरूद्ध जैन हवाला कांड का पर्दाफाश कर एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी तो मेरे जान पर बेहद खतरा था। कई बार मेरी हत्या के भी प्रयास हुए। सेना की तरह मेेरे पास लड़ने को हथियार नहीं थे। कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं थी और मेरे परिवार को जिन अभद्र गालियों और धमकियों को रात-दिन फोन पर झेलना पड़ता था उसकी शिकायत सुनने वाला भी देश में कोई नहीं। केवल प्रभु के नाम का सहारा था। पर इस संघर्ष के लिए जो जोखिम, जो तकलीफ और अपमान, मैंने या मेरे परिवार ने देशहीत में सहे क्या उसकी एवज मे अब मैं कानून हाथ में लेने का अधिकारी बन गया ? क्या मुझे यह हक है कि मैं ऐसी किसी भी दुर्घटना के लिए किसी को भी तलब कर धमकाऊं या सजा दूं और तुर्रा ये हो कि मैं तो जानजोखिम में डालकर देशहीत में पत्रकारिता करता हूं इसलिए हर नागरिक को मुझसे या मेरे परिवार से तमीज से पेश आना चाहिए ? यदि ऐसा करता हंू तो ये मेरी मूर्खता होगी। समाज सेना के कानूनों से नहीं चला करता। किशोर अवस्था में एक-दूसरे पर फिकरे कसना आम बात है। यह सारे देश में होता है। हां कोई अभद्रता करे, अशलीलता दिखाए, शारीरिक छेड़छाड़ करे या उसकी बद्दतमीजी हद से ज्यादा बढ़ रही हो तो उससे निपटने के लिए पुलिस और कानून का रास्ता है। आगरा के वह कैप्टन महोदय यह तर्क दे सकते हैं कि पुलिस और कानून व्यवस्था इतनी लचर है कि उससे उन्हें कोई उम्मीद नहीं इसलिए उन्होंने खुद ही सजा देना मुनासीब समझा। अगर उनका यह तर्क सही भी है तो सेना क्या संदेश देना चाहती है कि देश की 100 करोड़ जनता पुलिस और कानून पर विश्वास न करे और हर मामले का फैसला अपने बाहुबल के अनुसार खुद की हर लें। यदि ऐसा होने लगे तो देश में अराजकता फैल जाएगी। सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। सेना की गोलियां भी फिर समाज में शांति स्थापित नहीं कर पाएंगी। आगरा के वे संभ्रांत परिवार के मां-बाप तो अपना अपमान सह कर, 15 दिन मानसिक आतंक और मानसिक तनाव में जी कर और अपने बच्चों को सजा दिलवाकर खामोेश हो गए। न शिकायत करना चाहते हैं न इस विषय में बात करना चाहते हैं पर उनकी ये खामोशी सेना के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है। देश के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडिज का यह कर्तव्य है कि वे आगरा के इस कांड की निष्पक्ष जांच करवाएं और ऐसे कदम उठाएं जिससे नागरिकों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़े। जिस प्रकार आगरा के सैन्य अधिकारियों ने अनाधिकृत रूप से कानून हाथ में लेकर नागरिकों को सजा देने का दुष्प्रयास किया है उसके लिए उन्हें सेना के कानून के अनुसार जो भी उचित सजा हो वह मिलनी ही चाहिए।

देश और समाज के लिए लड़ने वाले लोग हर क्षेत्र में होते हैं। समाज के लिए जान जोखिम में डालने वाले लोग भी हर क्षेत्र में होते हैं। जो सफाई कर्मचारी सीवर के मेनहोल में उतर कर उसकी सफाई करते हैं वे भी अक्सर जहरीली गैस में घुट कर मर जाते हैं। जो बिजली कर्मचारी खम्भों पर चढ़कर बिजली के तार ठीक करते हैं वे भी अक्सर चिपक कर मर जाते हैं। जो पुलिस के सिपाही अपराधियों को पकड़ते हैं वे भी कई बार मुठभेड़ में मारे जाते हैं। समाज के लिए जानजोखिम में डालने का मतलब ये कतई नहीं कि हम अपनी नागरिक दायित्वों को भूल कर तानाशाहीपूर्ण व्यवहार करने लगे। मेरे मन में सेना के प्रति बहुत आदर रहा है। खोजी पत्रकार होने के नाते सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार और बुराइयों से मैं अनभिग्य नहीं हूं। पर मैं मानता हूं कि सेना के जाबांज सिपाही जिन दुष्कर परिस्थतियों में देश की रक्षा करते हैं उसके लिए वे सम्मान के पात्र हैं। कुछ समय पहले इसी कालम में जब मैंने एक लेख लिखा था, ‘वीआईपीयोंके साहबजादे सेना में क्यों नहीं जाते ?‘ तो उसकी काफी प्रतिक्रिया हुई थी। उस दौरान देश में जहां भी मैं व्याख्यान देने गया लोगों ने इस लेख की चर्चा की। तब मैंने सेना के गौरव में प्रशस्तीगान किया था और धिक्कारा था उन लोगों को जो सेना की वाहवाही तो करते हैं पर खुद जानजोखिम में नहीं डालना चाहते। आज इस लेख में सेना के एक ऐसे कृत्य का वर्णन करते हुए दुख भी हो रहा है और चिंता भी। क्योंकि हर देशभक्त अपनी सेना का मस्तक गर्व से उठा देखना चाहता है। उसके दामन में किचड़ के दाग कोई नहीं देखना चाहता। आगरा जैसी इन घटनाओं से सबक सीखकर देश की सैन्य अधिकारी और रक्षा मंत्री क्या कुछ ऐसा ठोस करेंगे जिससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो ?

Friday, November 1, 2002

पुलिस सुधार क्यों लागू नहीं होते ?

हाल ही में पुलिस सुधारों को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बहस में केंद्रीय गृहमंत्री व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी यह सुनकर चैक गए कि भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान, भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता है। जाहिर है कि यह अधिनियम उस समय बनाया गया था जब भारत पर ब्रितानी हुकूमत कायम थी। इस कानून का उद्देश्य ब्रिटिश हितो को साधना था। पुलिस का काम जनता पर नियंत्रण रखना था ताकि कानून और व्यवस्था इस तरह बनी रही कि अंग्रेज हुक्मरानों को भारत का दोहन करने में कोई दिक्कत पेश न आए। स्पष्ट है कि इस कानून से नियंत्रित होने वाली भारतीय पुलिस की मानसिकता इस तरह विकसित की गई है कि वह हुक्मरानों के प्रति ही खुद को जवाबदेह मानती है, जनता के प्रति नहीं। इसलिए जनता की सेवा करना या उसे राहत पहुंचाना भारतीय पुलिस की जहनियत में नहीं है। जनता को रियाया मान कर उस पर रौबदारी के साथ हुक्म चलाना और अगर वह न माने तो डंडे के जोर पर उसे नियंत्रित करना।

दरअसल, 1897 के गदर के बाद जब इंग्लैंड की हुकूमत ने जब ईस्ट इंडिया कंपनी से हिन्दुस्तान की बागडोर ली तब उसे ऐसी ही पुलिस की जरूरत थी। इसलिए ऐसे कानून बनाए गए। पर आश्चर्य की बात है कि 1947 में जब भारत आजाद हुआ या 1950 में जब हमने अपना संविधान लागू किया तब क्यों नहीं इस भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बुनियादी परिवर्तन किया गया ? क्यांे औपनिवेशिक मानसिकता वाले कानून को एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक, लोकतांत्रिक जनता के ऊपर थोपा गया ? जब कानून पुराना ही रहा तो भारतीय पुलिस से ये कैसे उम्मीद की जाती है कि वह सत्ताधीशों को छोड़कर जनता की सेवा करना अपना धर्म माने ? नतीजतन, आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की है। लुटे, पीटे, शोषित लोग अपनी फरियाद लेकर थाने नहीं जाते क्योंकि उन्हें पुलिस से न्याय मिलने की उम्मद ही नहीं होती। आश्चर्य की बात है कि पिछले 55 वर्षों से हम इस दकियानुसी कानून को ढोते चले आ रहे हैं। आज भी पुलिस जनता का विश्वास नहीं जीत पाई है। ऐसा नहीं कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधरों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि 20 बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया।

1997 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री इंद्रजीत गुप्ता ने सभी मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व संघ शासित प्रदेशों के प्रशासकों को एक पत्र लिख कर पुलिस व्यवस्था में सुधार के कुछ सुझाव भेजे। जिनकी उपेक्षा कर दी गई। 1998 में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने मार्च 1999 तक अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी। पर इसकी सिफारिशें भी आज तक धूल खा रही हैं। इसके बाद पदमनाभइया की अध्यक्षता में एक और समिति का गठन किया गया। जिसने सुधारों की एक लंबी फेहरिश्त केन्द्र सरकार को भेजी, पर रहे वही ढाक के तीन पात।

यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ इन आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 55 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर राजनेता ऐसा होने दें तब न।

आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारो ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिपारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम है ही जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है। इतना ही नहीं अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए या उन्हंे नियंत्रित करने के लिए पुलिस का दुरूपयोग अपने कार्यकर्ताओं और चमचों के अपराधों को छिपाने में भी किया जाता है। स्थानीय पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगाता है क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग न करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद फैलता जा रहा है। अपनी जाति के लोगों को संरक्षण देना और अपनी जाति के नेताओं के जा-बेजा हुक्मों को मानते जाना आज प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। खामियाजा भुगत रही है वह जनता जिसके वोटों से ये राजनेता चुने जाते हैं। किसी शहर के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित आदमी को भी इस बात का भरोसा नहीं होता कि अगर नौबत आ जाए तो पुलिस से उनका सामना सम्माननीय स्थिति में हो पाएगा। एक तरफ तो हम आधुनिककरण की बात करते हैं और जरा-जरा बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को बूढ़े लोगों को सड़क पार करवाते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है। जबकि हमारे यहां यह स्वप्न जैसा लगेगा।

पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों कीे व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घुस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है।
पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? जब श्री आडवाणी से यह पूछा गया कि पुलिस आयोग की सिफारिशें क्यों नहीं मानी जा रहीं, तो उनका उत्तर था कि उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह की एक जनहित याचिका सर्वोच्च अदालत में लंबित पड़ी है। उसके परिणाम देखकर ही कोई सुधार लागू किया जा सकता है। जब उन्हें याद दिलाया गया कि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के वाजिब सुझावों को भी संसद में समर्थन नहीं मिलता, मसलन, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधिकारों का मामला, आज तक लटका हुआ है। बिना दांत का सीवीसी भ्रष्टाचार कैसे रोक सकता है ? फिर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से क्या फर्क पड़ेगा ? ऐसे माहौल में पुलिस सुधार कैसे लागू हो सकते हैं ? भारत के मौजूदा उप राष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने इस बहस में ठीक ही कहा कि पुलिस सुधार कोई अकेले लागू नहीं हो सकते जब तक ऐसे दूसरे सुधारों को एक समग्र दृष्टि के साथ लागू न किया जाए। नतीजा ये कि पुलिस सुधार लागू होंगे नहीं। पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बड़बोले ऐलान किए जाते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का अभियान चलाए। क्या हम यह करेंगे ?

Friday, October 25, 2002

नैनीताल से सबक लें


आज जब देश के हर शहर में कूड़ें के अंबार लगते जा रह हैं और नगरपालिकाएं उसे साफ कर पाने में नाकाम स्द्धि हो रही हैं तब यह प्रश्न उठता है कि क्या ये कूड़ा इसी तरह हमारी जि़दगी की हिस्सा बन कर रहा जाएगा ? क्या प्लास्टिक के लिफाफे हमारे परिवेश, प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरण में एक बदनुमा दाग की तरह सीना तान कर यूं ही लहराते रहेंगे ? क्या नगरपालिका का निकम्मापन और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी इस विकराल होती समस्या से कभी निपट भी पाएगी ? क्या हम फिर से स्वच्छ पर्यावरण में जी पाएंगे ? इन सभी सवालों का जवाब हां में हैं और वो इसलिए कि हिमालय की चोटियों पर बसे शहर नैनीताल ने यह कर दिखाया है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि पर्यटन का इतना बड़ा केंद्र होते हुए भी नैनीताल में प्लास्टिक के लिफाफों का प्रचलन बिलकुल नहीं है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि प्लास्टिक के लिफाफों में सामान रखना ज्यादा सुविधाजन और किफायती होता है। खासकर तरल पदार्थ और गीले फल व सब्जियां। पर नैनीताल में एक भी दुकानदार कोई भी वस्तु प्लास्टिक के थैले में रख कर नहीं बेचता। सब पुराने अखबार के बने लिफाफे प्रयोग करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि नैनीताल का मौसम बारहों महीने बरसात का सा रहता है। चाहे जब बादल घुमड़ आते हैं और जब उनका जी चाहे बरस जाते हैं। ऐसे नमी वाले वातावरण में पुराने अखबारों के लिफाफो में कितना दम होता होगा इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी नैनीताल के फल वाले हों या सब्जी वाले, मिठाई वाले हों या किराना वाले, हर वस्तु इन्हीं पुराने अखबारों के लिफाफों में ग्राहकों को देते हैं। इन लिफाफों की कमजोरी जानते हुए नैनीताल के नागरिक खरीदारी करने जब निकलते हैं तो पहले जमाने की तरह घर से कपड़े का बना थैला लेकर निकलते हैं और यह व्यवस्था बड़ें सुचारू ढंग से चल रही हैं। पिछले कई वर्षों से नैनीताल में प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग बंद हैं। अखबार के लिफाफे इस्तेमाल करने से निर्धन लोगों को रोजगार भी मिला है और चूंकि अखबार पर्यावरण में स्वयं ही घुलमिल जाता इसलिए इससे कोई प्रदूषण भी नहीं होता। यह व्यवस्था इतनी ईमानदारी व शक्ति से लागू की गई है कि प्लास्टिक का लिफाफा इस्तेमाल करने वाले पर फौरन चालान हो जाता है।
नैनीताल के जिलाधिकारी श्री एके घोष बताते हैं कि इस सफल प्रयोग के लिए सबसे ज्यादा श्रेय नैनीताल के जागरूक नागरिकों को है जिन्होंने कई बरस पहले प्लास्टिक के लिफाफों के कारण पर्यावरण पर हो रहे हमले के लिए खतरों को भांप लिया था तभी उन्होंने प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग स्व-प्रेरणा से ही बंद कर दिया। इसमें नैनीताल के व्यापार मंडल की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही, बाद में सारे शहर ने इस अलिखित कानून को स्वीकार कर लिया। इसका सीधा प्रभाव नैनीताल और आसपास की पहाडि़यों पर पड़ा है। नैनीताल के बीचोबीच स्थित मशहूर नैनी झील अब पूरी तरह प्रदूषण से मुक्त है। उसकी सतह पर अब प्लास्टिक के लिफाफे नहीं तैरते। बल्कि पन्ने के जैसे रंग का खूबसूरत हरा-हरा पानी चारों ओर अपनी छटा बिखेरती हैं। नैनीताल के पर्यटन स्थलों के आसपास भी अब गंदगी के घेर नहीं दिखाई देते। यह उन लोगों के लिए आंख खोलने वाली बात हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में, पर्यटन या तीर्थाटन के लिए प्रसिद्ध शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था देखते हैं। नैनीताल के उदााहारण से यह स्पष्ट है कि जनता और प्रशासनिक सहयोग से देश के सभी नगरों की गंदगी साफ की जा सकती है। लोगों को अपने परिवेश की सफाई सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन प्रेरित कर सकता है और प्लास्टिक पर सामूहिक राय से प्रतिबंध लगाया जा सकता है। चूंकि नैनीताल वासियों ने ऐसा संभव कर दिखाया है।  इतना ही नहीं उत्तांचल की सरकार ने पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए नैनीताल में भवन निर्माण को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया है। यूं नैनीताल के आसपास बसे बनोरम पर्यटक स्थल भीमताल आदि में काॅटेज निर्माण तेजी से जारी है पर इसका वैसा दुष्परिणाम यहां दिखाई नहीं देता जैसा शिमला जैसे शहरों में दिखता है जो कि अब पूरी तरह सीमेंट के जंगल में बदल चुका है। नैनीताल और आसपास के पहाड़ों पर संघन वृक्षों की मौजूदगी इस बात को सिद्ध करती है कि जनता द्वारा शुरू किए गए चिपको आंदोलन जैसे प्रयासों से वनों की अवैध कटाई को रोका जा सकता हैं और देश के पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है।
आज जबकि देश के अनेक इलाकों में पहाड़ों पर वनों की अवैध कटाई ने भू-खलन जैसी बड़ी समस्याएं पैदा कर दी हैं वहीं उत्तरांचल राज्य की नागरिकों की जागरूकता ने वनों की अवैध कटाई पर पूरी तरह प्रतिबंध लगवा दिया है। उत्तरांचल राज्य के लोगों को उम्मीद है कि अनुभवी प्रशासक और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ श्री नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तरांचल का क्रमशः विकास होगा। स्थानीय नागरिक कहते हैं कि पूरे उत्तर प्रदेश पर कई बार शासन कर चुके तिवारी जी के लिए उत्तरांचल राज्य तो बहुत छोटा है और इसमें कार्य क्षमता दिखाने का बहुत मौका उनके पास है।
कुछ वर्ष पहले जब गुजरात के शहर सूरत में प्लेग फैला था तब पूरे प्रदेश में भगदड़ मच गई थी। तब जाकर  देश को पता चला कि सूरत में वर्षों से कूड़ें के अंबार लगे पड़ें हैं और कोई उसे उठाने वाला नहीं है। उसी समय एक प्रशासनिक अधिकारी श्री राव ने बीड़ा उठाया और सूरत नगरपालिका के झंड़े तले असंभव को संभव कर दिखाया। आज सूरत का साफ-सूरत चेहरा देख कर कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता कि कभी यह शहर इतना गंदा भी रहा होगा। इससे साफ जाहिर है कि प्रशासनिक अधिकारी और स्थानीय जनता मिलकर यदि प्रयास करें तो अपने शहर को साफ कर सकते हैं। इस लेख लिखने का मकसद भी यही है कि जिन-जिन प्रांतों में यह लेख पढ़ा जाता है, उन प्रातों के नगरवासी नैनीताल से प्रेरणा लें कर अपने व्यापार मंडल और नगरपालिका के एक-एक प्रतिनिधि को नैनीताल भेज कर पूरी व्यवस्था को समझें और अपने यहां लागू करें।
ऐसा नहीं है कि नैनीताल में सब कुछ सर्वोच्च कोटि का है। कुछ बातें वहां भी पर्यटकों को अखरती हैं। मसलन, मिनरल वाटर की बोतलें, बिस्कुट, चाॅकलेट व जूस जैसे खाने के सामानों के रंगीन पैकेट और पान मसाले के पाउच, आज भी नैनीताल और उसकी आसपास की पहाडि़यों पर बदनुमा दाग की तरह पड़े दिखाई दे जाते हैं। इस संबंध में नैनीताल की नगरपालिका को भी एक प्रयोग करनी चाहिए जिससे यह समस्या दूर हो सके। उन्हें चाहिए कि वे मिनरल वाटर बेचने वाली कंपनियों को इस बात का नोटिस दें कि वे अपने उत्पादों के कचड़े को उठाने की व्यवस्था स्वयं करें। ये कंपनियां पीने का पानी बेच कर अरबों रूपए कमा रही हैं और देश की पर्यावरण पर भार बनती जा रही हैं। इस संदर्भ में अमरीका का वह उदाहारण सार्थक रहेगा जिससे कोका कोला कंपनी ने ये पहल की थी। वहां कोका कोला कंपनी ने यह विज्ञापन दिए कि जो कोई भी नागरिक या बच्चा कोका कोला के दस खाली कैन (डिब्बे) लाकर वितरक के काउंटर पर देगा उसे एक भरा कैन मुफ्त मिलेगा। इसी तरह  जिन कंपनियों के उत्पादन आज नैनीताल में कचड़ा फैला रहे हैं उनको भी प्रेरित किया जा सकता है कि वे भी कुछ ऐसे ही स्कीम चला कर हिमालय की इन चोटियों को गंदा होने से बचाएं। जो कंपनी सहयोग न करे उसके उत्पादनों की बिक्री को नगरपालिका प्रतिबंधित कर दे या स्थानीय नागरिक उसका बहिष्कार कर दें। इस तरह नगरपालिका बिना अतिरिक्त आर्थिक भार बढ़ाए अपने पर्यावरण को साफ रख सकेगी। ऐसा ही प्रयोग देश के अन्य शहरों में भी किए जा सकते हैं।
दूसरी जो बात नैनीताल में खलती है वो ये कि वहां की लोकप्रिय और सबसे ज्यादा भीड़ वाली माॅल रोड पर 24 घंटे कारों की आवाजाही लगी रहती है। इनमें से ज्यादातर कारें सरकारी हाकिमों की होती हैं।  इससे सैलानियों और स्थानीय नागरिकों को बेहद तकलीफ होती है। अब से कुछ वर्ष पहले तक इस सड़क पर वाहनों का आना-जाना प्रतिबंधित था। इतना ही नहीं आजादी के पहले तो इस सड़क पर भारतीय लोगों का भी चलना प्रतिबंधित था। केवल अंग्रेज इस पर घूमा करते थे और सड़क के शुरू में एक तखती टंगी रहती थी जिस पर लिखा होता था कि भारतीय लोगों और कुत्तों का प्रवेश निषेद।आजादी मिली तो इस अपमानजनक प्रतिबंध से भी छुट्टी मिली पर आजादी का मतलब ये तो नहीं की हमें अपने परिवेश से मनमानी करने की छुट मिल जाए ? ये तो साझी धरोहर है। जो आज हमे सुख दे रहे हैं कल आने वाली पीढि़यों को सुख देगी। बशर्तें की हम इसका समूचित संरक्षण कर सकें।
आज जब चारों ओर निराशा के बादल छाएं हैं राजनैतिक दल जोड़तोड़ में लगे रहते हैं। प्रशासनिक व्यवस्थाएं फिजूलखर्ची की मार से बेदम होती जा रही हैं ऐसे में सूरत और नैनीताल जैसे सफल प्रयोग आशा की किरन बन कर आती है। और वो प्रेरणा देते हैं हम सबको कि अभी भी सब कुछ नहीं लुटा जो बाकी हैं उसे भी अगर बचा लोगे तो खुद तो सुखी होगे ही तुम्हारी आने वाली पीढियां भी सुख पाएगी। व्यवस्था में दोषों का बखान करना सरल हैं पर व्यवस्था बना कर उसे चलाना बहुत दुष्कर। नैनीताल के नागरिक तो बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपने शहर की खूबसूरती बढ़ाने में इतना सहयोग किया पर साथ ही यह चुनौती उन सभी शहरों के लिए हैं जो गंदगी के ढेरों के बीच नरकीय जीवन जी रहे हैं, इस उम्मीद में कि कभी कोई मसीहा पैदा होगा और वो उन्हें उनके चारों तरफ की गंदगी से निजात दिलाएगा। ऐसे ख्याली पुलाव पकाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

Friday, October 18, 2002

जम्मू कश्मीर के नतीजे और भाजपा व इंका


जम्मू कश्मीर विधान सभा के चुनावों के नतीजे केवल अबदुल्ला खानदान को ही झकझोरने वाले नहीं हैं बल्कि भाजपा के लिए भी खतरे की घंटी है। यह सही है कि चुनाव आयोग के कड़े अनुशासन और केंद्र व राज्य सरकार के सक्रिय सहयोग ने कश्मीर की असंभव स्थिति में बहुत प्रभावशाली तरीके से निष्पक्ष चुनाव करवा कर पूरी दुनिया में अपनी सदिच्छा के झंडे गाड दिए हैं। नेशनल कांफ्रेंस और भाजपा के इतने खराब प्रदर्शन को देखकर पाकिस्तान अब इन चुनावों को मात्र ढकोसला कह कर नजरंदाज नहीं कर सकता।  नेशनल कांफ्रेंस की हार की मुख्य वजह उसके मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला का जमीन से कटा विलासितापूर्ण जीवन और उनके बेटे का बड़बोलापन है। इसके अलावा सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण भी जम्मू कश्मीर की जनता ने नेशनल कांफ्रेंस को नकार दिया हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात तो भाजपा के लिए हैं। भाजपा आतंकवाद को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाए हुए हैं और लगातार यह प्रचारित करने का प्रयास कर रही है कि उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा आतंकवाद का खात्मा है। पर धरातल पर जो दिखाई दे रहा है वह इसके बिलकुल विपरीत है। आतंकवाद को रोकने के मामले में भाजपा की सरकार लगातार विफल हो रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहारण है कि पिछले काफी वर्षों से भाजपा का गढ़ बन चुके जम्मू क्षेत्र के मतदाताओं ने भी भाजपा को पूरी तरह नकार दिया। जम्मू कश्मीर के हिंदू भाजपा से भारी नाराज हंै। इसके संकेत तो चुनाव प्रचार के दौरान ही मिलने लगे थे जब भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए अपने नेताओं की चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाना भारी पड़ रहा था। जबकि कांग्रेस के नेताओं को सुनने भारी तादाद में भीड़ उमड़ कर आ रही थी। जम्मू कश्मीर के हिंदुओं को भाजपा से कई कारणों से नाराजगी थी। केंद्र और राज्य में अपनी साझी सरकार होने के बावजूद न तो उसने कश्मीर घाटी से दिल्ली आए हिंदू शरणार्थियों की सुध ली और ना ही जम्मू में रह रहे शरणार्थियों की। भाजपा के केंद्र में शासनकाल के दौरान आतंकवाद कई गुना बढ़ गया।
आतंकवादियों के हौसले यहां तक बढ़ गए कि उन्होंने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद भवन और करोड़ों हिंदुओं की आस्था के केंद्र अहमदाबाद के श्री स्वामी नारायण मंदिर (अक्षरधाम) तक को भी नहीं बक्शा, वहां भी खून की होली खेली। आतंकवाद का ऐसा घिनौना चेहरा इससे पहले कभी नहीं देखा गया था। यूं तो गुजरात में अभी भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा बह रही है। लेकिन जम्मू कश्मीर की खबर गुजरात तक पहुंच चुकी हैं और वहां अगर यह चिंतन होने लगे कि जब जम्मू कश्मीर के हिंदुवादी मतदाताओं तक ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों के प्रति विश्वास खो दिया है और उन्हें अपनी सुरक्षा में अक्षम मानकर नकार दिया है तो क्यों न गुजरात के भविष्य के बारे में भी आत्मचिंतन किया जाए। यदि ऐसा हुआ तो गुजरात में भी अप्रत्याशित नतीजे आ सकते हैं। लगता है भाजपा की मुश्किलें अब बढ़ती ही जा रही हैं। पिछले 4 वर्षों में जबसे वह केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई है तब से लगभग हर विधान सभाई चुनाव बुरी तरह हारती जा रही है। इतना ही नहीं जो दल उसके साथ चुनाव लड़ता है उसकी भी दुर्गति हो जाती है। इन परिस्थितियों में राजग के महत्वपूर्ण घटक दल टीडीपी के नेता श्री चन्द्र बाबू नायडू का भी चिंतित होना स्वाभाविक है।
दरअसल जनता भाजपा की प्रशासनिक क्षमता से संतुष्ट नहीं है। भाजपा की नीतियों में भी स्पष्टता नहीं है। चाहे विनिवेश का मामला हो या विदेशी निवेश का। चाहे एनराॅन का मामला हो या फिर अयोध्या का। चाहे मायावती के साथ सरकार चलाने की बात हो या आतंकवाद से लड़ने की रणनीति, हर बार भाजपा परस्पर विरोधी विचारधाराओं की अंतरकलह से जूझती पार्टी नजर आती है। उसके ही सहोदर विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आए दिन प्रधानमंत्री पर हमला करते रहते हैं। इस सबसे देश में लगातार यह संदेश जा रहा है कि भाजपा की सरकार में दूरदृष्टि, सुस्पष्ट नीतियों और एकजुट नेतृत्व का भारी अभाव है। भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विषमताओं वाले इस विशाल देश भारत की जनता केंद्र में एक मजबूत सरकार देखना चाहती है। जिसके साए में वह महफूज भी रहे और आर्थिक तरक्की भी करे। पिछले सभी विधानसभाई चुनावों से यह स्पष्ट हो रहा है कि जनता का भाजपा के प्रति मोहभंग हो चुका है। अब ना तो उसे वह हिंदू धर्म के लिए कुछ ठोस करने वाली पार्टी नजर आती है और न ही भ्रष्टाचार विहीन कुशल नेतृत्व वाली पार्टी।
जबकि दूसरी तरफ भाजपा के तमाम प्रचार और हमलों के बावजूद श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में इंका लगातार एक के बाद एक किले फतह करती जा रही है। जिससे यह साफ होता है कि श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर भाजपा जो मुद्दा बनाना चाहती है उसे मतदाता स्वीकार नहीं कर रहा है। वह कांग्रेस को एक अनुभवी, सुगठित और प्रशासनिक क्षमता से युक्त दल मानता है इसीलिए पुनः कांग्रेस की तरफ लौट रहा है। इंका से कट चुके अल्पसंख्यकों को तो कांग्रेस से बेहतर विकल्प दीख ही नहीं रहा इसलिए वे तो अब कांग्रेस की तरफ लौट ही रहे हैं पर भाजपा का पारंपरिक हिंदू वोट बैंक भी इंका की तरफ आकर्षित होता जा रहा है। उधर इंका का नेतृत्व भी इस बात का सजग प्रयास कर रहा है कि बहुसंख्यक हिंदुओं की इस भ्रांति को दूर किया जाए कि इंका केवल अल्पसंख्यकों को ही प्राश्रय देती हैं और उसे बहुसंख्यकों की कोई परवाह नहीं। उत्तर प्रदेश के प्रभारी श्री मोतीलाल वोरा का श्रीमती सोनिया
गांधी को वृंदावन ले जाकर श्रीबांके बिहारी के चरणों में माथा टिकवाना, गुजरात में श्री शंकर सिह वाघेला का इंका झंडे के साथ ही केसरिया पताका लेकर अपना चुनाव प्रचार करना, गुजरात के प्रभारी श्री कमलनाथ का छोटे मुरारी बापू के नेतृत्व में संत समाज को एकत्र कर गुजरात के चुनाव प्रचार में झोकना और इंका के वरिष्ठ नेता श्री अर्जुन सिंह का रामनवमी को अपने निवास पर संत श्री अवधेशानन्द गिरि महाराज को बुलाकर सार्वजनिक सत्संग का आयोजन करना कुछ ऐसे प्रमाण हैं जो यह दिखाते हैं कि इंका अब धर्मनिरपेक्षता के संकुचित आवरण से बाहर निकल कर सही मायने में भारत की आत्मा को स्वीकारने लगी है। इंका नेता अलबत्ता यह कहने से नहीं चूकते कि धर्म में उनकी आस्था किसी की तुलना में कम नहीं है। पर वे धर्म को व्यक्तिगत साधना का विषय मानते आए थे। उन्होंने धर्म को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश नहीं की। उनका कहना है कि भाजपा की धर्म की राजनीति ने उन्हें मजबूर किया कि अपनी निजी भावनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करें। वे मानते हैं कि उनकी अतीत की नीतियों से यह भ्रम अवश्य उत्पन्न हुआ कि वे अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, के हितों के प्रति ज्यादा सजग हैं पर बदली परिस्थितियों में अब वे इस बात को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उनकी सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टि हैं और वे हर धर्म के संरक्षण और संवर्धन में निष्पक्षता से सहयोग देने में तत्पर हैं। इन परिथितियों में भाजपा के लिए मुश्किल बढ़ती जा रही है। जहां अपनी आक्रामक राजनीति से हिंदू धर्म की ध्वजा धारण करने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी हिंदुवादियों की ओर से बढ़ रहे दबाव को झेल रहे हैं वहीं वे मौजूदा हालात में लीक से हटकर कुछ भी कर पाने में स्वयं को अक्षम पा रहे हैं। नतीजतन भाजपा की यह गति हो रही है कि, ‘दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम।
अब भाजपा की अगली परीक्षा गुजरात में होगी। आमतौर पर यही माना जा रहा है कि वहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बड़े इत्मिनान से बहुमत प्राप्त कर लेगी। पर जरूरी नहीं कि यह जमीनी सच हो। गुजरात का मतदाता प्रकृति की इतनी विपदाएं झेल चुका है कि उसका कलेजा पत्थर का हो गया है। वह भावनाएं जो भी व्यक्त करे, पर अपना भविष्य बुद्धि का प्रयोग करके ही पांच साल के लिए किसी दल को सौंपेगा। इसलिए जहां इंका अपना आक्रांमक चुनाव प्रचार जारी रखेगी वहीं भाजपा को भी लगातार हालात पर नजर रखनी पड़ेगी। वैसे भी देखने में यही आया है कि प्रायः सत्तारूढ़ दल के प्रति स्थानीय जनता का आक्रोश इतना अधिक होता है कि वह उसे हटा कर नए दल को मौका देना चाहती है। फ्रांस के मशहूर समाजशास्त्री पैरेटो का सिद्धांत है कि समाज में कुलीन वर्ग के लोगों का लगातार पारस्परिक स्थान परिवर्तन होता रहता है। जो आज सत्ता में हैं वह कल बाहर होंगे और जो आज सत्ता से बाहर हैं वह कल सत्ता में होंगे। वैसे पश्चिम बंगाल व मध्य प्रदेश इसके अपवाद रहें हैं इसलिए भाजपा को उम्मीद है कि हिंदुवादी एजेंडे के चलते उसे गुजरात में स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा। बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करता है कि भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त गुजरात के चुनाव कब और किन परिस्थितियों में कराते हैं। फिलहाल भाजपा के लिए यह आत्ममंथन की घड़ी है और इंका के लिए अपनी तलवार की धार और पैनी करने की । नतीजा क्या होगा ये या तो भगवान जानते हैं या फिर गुजरात की जनता।

Friday, October 11, 2002

साधन सम्पन्न महिलाएं क्या करें ?

माक्र्सवादियों की मान्यता है कि पूंजीपति लोग समाज का शोषण करते हैं। जबकि साम्यवादी व्यवस्थाओं में गरीब और अमीर के बीच की खाई पाट दी जाती है। पर सच्चाई यह है कि साम्यवादी व्यवस्था में भी सत्ताधीश लोग आम जनता से कहीं बेहतर जिंदगी जीते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे तमाम मशहूर माक्र्सवादी चेहरे हैं जो श्रमिकों की रैलियों में गाढे का कुर्ता पहन कर बड़े भावावेश में पूंजीपतियों के विरूद्ध गर्जना करते हैं पर पर्दे के पीछे उन्हीं पूंजीपतियों या भ्रष्ट सत्ताधीशों की पांच सितारा पार्टियों में विदेशी शराब पीते और मुर्गे उड़ाते पाए जाते हैं। हृदय में करूणा और दुखीजनो की सेवा का भाव जरूरी नहीं है कि माक्र्सवाद का लबादा ओढ कर ही पैदा हो। यह सही है कि देश की जो व्यवस्था आज चल रही है उसमें बेइंतहा धन रातोरात कमा लेने वाले कोई सीधे रास्ते नहीं चलते। सरकारी नीतियों को प्रभावित करके, बैंकों के ऋण को हजम करके, पर्यावरण का विनाश करके और भारी मात्रा में कर वंचना करके मोटे मुनाफे कमाए जाते हैं।

धन सीधे रास्ते कमाया जाए या टेढ़े रास्ते, धन-धन ही होता है। एक संत कहते हैं कि लक्ष्मी का रंग गोरा या काला नहीं होता, उसका प्रयोग उसे काला या सफेद बनाता है। अगर धन का प्रयोग सद्कार्यों में किया जाए तो वह राष्ट्र के निर्माण और समाज की भलाई में काम आता है और यदि धन का प्रयोग व्यसनों में किया जाए तो वह विनाश की ओर ले जाता है। आमतौर पर देखा यह गया है कि खानदानी धनी परिवारों में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा जरूर होता है जिसे अपने धन और वैभव से विरक्ति हो जाती है और उसकी रूचि समाज के कार्यों में लग जाती है। ऐसे अनेक उदाहारण है। मशहूर बजाज खानदान के श्री गौतम बजाज को कौन नहीं जानता। वे चाहते तो उद्योग और व्यापार में लगे रह कर करोड़ो रूपया कमाते। पर जवानी में ही वे आचार्य विनोबा भावे के पवनार स्थित आश्रम में आ गए और तब से आज तक बाबा के दिखाए रास्ते पर समाज की सेवा में जुटे है। बेहद सादगी का जीवन जीते हैं। ऐसे अनेक उदाहारण देश में हैं। राजस्थान के किसान और मजदूरों के बीच पिछले दो दशक से भी ज्यादा से समर्पित भाव से काम करने वाली श्रीमती अरूणा राय भी एक मजदूरिन की जिंदगी जीती हैं। ये जीवन उन्होंने जिंदगी में असफल होकर नहीं अपनाया, बल्कि भरी जवानी में भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी से इस्तिफा देकर अपनाया। क्योंकि उन्हें लगा कि सरकार में रह कर वे आम आदमी के लिए वह सब नहीं कर पाएंगी जो उनके बीच रह कर कर सकती हैं। अपनी-अपनी रूचि और अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप सद्विचार रखने वाले लोग अपना कार्यक्षेत्र चुन ही लेते हैं। इसमें उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है। जीवन की पूर्णता का अनुभव होता है और जिंदगी सार्थक लगने लगती है।

देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले भारत के सुप्रसिद्ध औद्योगिक डालमिया परिवार में बहू बन कर आई श्रीमती अरूणा डालमिया का बचपन भी कानपुर के सुप्रसिद्ध औद्योगिक सिंघानिया परिवार में बीता, जिसकी वे बेटी हैं। समाज के लिए कुछ करने की कसक ने उन्हें सामान्य मारवाड़ी परिवारों से भिन्न जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने ऐसे लोगों की सेवा का बीड़ा उठाया जिन्हें समाज अपंग कहता है। वे उन्हें ‘ चुनौती झेलने वाला ‘ कह कर संबोधित करती हैं। दक्षिण दिल्ली में ‘अक्षय प्रतिष्ठान ‘ के नाम से चलने वाली उनकी संस्था में आज सैकड़ों विक्लांग बच्चे न सिर्फ सामान्य शिक्षा पा रहे हैं बल्कि प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक अपूर्णता से भी डट कर मुकाबला कर रहे हैं। पिछले 14 वर्ष से अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस संस्थान में समर्पित कर देने वाली 61 वर्षीय अरूणा जी इन सभी बच्चों के लिए फ्लोरेंस नाइटिंगेल की तरह ममत्व और करूणा की मूर्ति बन कर अवतरित हुई हैं। अपने संस्थान में उन्हें दिन भर बड़ी निष्ठा, धैर्य और समर्पण के साथ विभिन्न सेवा कार्यों में लीन देखा जा सकता है। एक तरफ तो महात्मा गांधी की समाधि पर हर 2 अक्टूबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाने वाले देश के नेता आज प्रशासनिक व्यवस्था में फिजूलखर्ची बढ़ाते जा रहे हैं। अब सरकारी कार्यालयों में नेता और अफसर ही नहीं क्लर्क और चपरासी तक वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं। यह जानते हुए भी कि देश में बिजली की कमी है और वातानुकूलित कमरों में बैठना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर आज यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। समाज सेवा के क्षेत्र मंच काम करने वाले लोग तक विदेशी शराब और सिगरेट फूंकते हैं और काॅरपोरेट आफिस जैसी तड़क-भड़क वाले दफ्तरों में बैठना पसंद करते हैं। तुर्रा ये कि वे समाज के अति दीन-हीन लोगों की सेवा का कार्य कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर वो लोग होते हैं जिन्होंने अपने जीवन में या इनके बाप-दादाओं ने कभी ऐसी शान-शौकत की जिंदगी नहीं देखी होगी। दूसरी तरफ हैं श्रीमती अरूणा डालमिया जिनका जन्म ही समस्त ऐश्वर्यों के बीच हुआ और आज भी उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी उनके कार्यालय में गर्मियों में भी एक पंखा ही टुकर-टुकर कर चलता रहता है। उनके कार्यालय की खिड़कियों से आने वाली जाड़े की तीखी ठंडी हवा और दिल्ली की तपती दोपहरी की लू उन पर वैसे ही थपेड़े मारती है जैसे किसी भी सामान्य जन को। इस सादगी और वैराग्य के पीछे केवल सद्विचार ही नहीं भगवत् भक्ति का भी प्रभाव है। श्री राधा कृष्ण भगवान और श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्य भक्तिन अरूणा जी को इस सेवा कार्य में भक्तिरस की प्राप्ति होती है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी शिक्षाष्टक में कहा है, ‘स्वयं को तिनके से भी अधिक विनम्र बनाओ, एक वृक्ष से भी ज्यादा सहिष्णु बनों, उस व्यक्ति को भी सम्मान दो जिसे कोई मान नहीं देता और सदा हरि का कीर्तन करते रहो’, महाप्रभु की इस शिक्षा को अपने जीवन में उतारा है अरूणा जी ने। अक्षय प्रतिष्ठान के सभी कर्मचारी, चिकित्सक, शिक्षक और छात्र उनके प्रति अगाध प्रेम रखते हैं। यूं तो उन्हें डालमिया परिवार के अलावा कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी इस सेवा कार्य के लिए वित्तीय सहायता मिलती रही है, पर अपने दान और सेवा को उन्होंने इस दोहे में समाहित कर लिया है। दोहा है:-

देनहार कोई और है, देत रहे दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, यासौ नीचे नैन।।

यह दोहा प्रसिद्ध मुस्लिम कृष्ण भक्त अब्दुल रहीम खानखाना ने कहा था। अकबर के राजदरबार से मंत्री रहे श्री रहीम सारा दिन अपना खजाना गरीबों में लुटाते रहते थे। लेकिन दान देते वक्त अपना सिर और निगाहे झुका लेते थे। तब किसी ने उनसे पूछा कि आप दान तो इतना देते हैं पर आॅखें नीचे क्यों कर लेते हैं ? श्री रहीम ने तब उक्त दोहे के माध्यम से यह उत्तर दिया कि दरअसल दान देने वाला तो कोई और है (भगवान) पर लोग ये समझते हैं कि मैं दान दे रहा हूं। यही सोच-सोच कर मैं शर्म से गड़ा जाता हूं। श्रीमती डालमिया ने इस दोहे को अक्षय प्रतिष्ठान के प्रतीक चिन्ह ;लोगोद्ध का अंग बनाया है।

अक्षय प्रतिष्ठान में निर्बल वर्ग के अपंग छात्रों को न सिर्फ आधुनिक शिक्षा दी जाती है बल्कि उनको विशिष्ट परिस्थितियों से जूझने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे समाज में अपनी जगह बना सकें। हर तरह की आधुनिक सुविधाओं से युक्त अक्षय प्रतिष्ठान को अनेक विशेषज्ञों की सलाह और सहयोग मिलता रहता है। यहां तक कि इन बच्चों को अक्सर अपने चहेते सितारों को भी देखने का मौका मिल जाता है। पिछले दिनो इन बच्चों की व्यवसायिक प्रक्षिशण कार्यशाला का उद्घाटन करने सचिन तेंदुलकर जब प्रतिष्ठान में आए तो ये बच्चे फूले न समाए।

श्रीमती डालमिया के इस प्रतिष्ठान में विशिष्ट शारीरिक स्थिति के इन बच्चों के साथ ही शारीरिक रूप से सामान्य बच्चे भी पढ़ते हैं ताकि सामान्य बच्चों में अपंग बच्चों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न हो और वे उनका उपहास न बनाएं। दूसरी तरफ इस प्रयोग से विकलांग बच्चों को जीवन में सामान्य शारीरिक स्थिति वाले लोगों से प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है। श्रीमती डालमिया इस अद्भुत विचार के लिए डा. उमा तुली का आभार मानती हैं। डाः तुली इस क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और उनके ही सुझाव पर अक्षय प्रतिष्ठान में यह प्रयोग किया गया। जिसके नतीजे उत्साहजनक रहे। अक्षय प्रतिष्ठान की कोशिश रहती है कि इन बच्चों को इस लायक बना दिया जाए कि वे भविष्य में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। संस्थान में अनेक कर्मचारी आज ऐसे हैं जो स्वयं विकलांग हैं। अनेक किस्म की गतिविधियां संस्थान में निरंतर चलती रहती हैं। योग, प्राकृतिक चिकित्सा, फिजियोथेरेपी जैसी सुविधाएं तो हैं ही कला, संगीत, और पाक शास्त्र का भी विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्थान की बेकरी में बनने वालीे ब्राउन बे्रड और कूकिज़ काउंटर पर आते ही हाथो-हाथ बिक जाते हैं।

ऐसी तमाम संस्थाएं देश में चल रही हैं जहां समाज के उपेक्षित लोगों को सम्माननीय जीवन जीने का मौका मिलता है। अक्सर इन संस्थाओं में ऐसे लोगों की कमी होतीे है जिनमें बिना किसी लाभ के समर्पित होकर सेवा करने की भावना भरी हो। दूसरी तरफ प्रायः संपन्न परिवारों की महिलाओं के पास इतना ज्यादा खाली समय होता है कि वे उसे किटी पार्टियों, ताश खेलने या बेकार की गप-शप में बिता देती हैं। यदि वे अपने समय का सदुपयोग करें और अरूणा डालमिया जी की तरह हर रोज जीवन के कुछ घंटे समाज का दुख दूर करने में लगाएं तो उनका मन तो प्रसन्न होगा ही लोक और परलोक दोनों सुधर जाएंगे।

Friday, October 4, 2002

बसपा की रैली और अडवाणी जी


बसपा की रैली में भाजपा के वरिष्ठ नेता और उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी का जाना एक महत्वपूर्ण घटना मानी जा रही है। भाजपा के आलोचक जहां इसे राजनैतिक दाव-पेंच मान कर इसकी आलोचना कर रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश के हिंदू समाज में आडवाणी जी के इस कदम को एक सकारात्मक कदम माना जा रहा है। अयोध्या मामले में जिस कानूनी अड़चन के चलते आडवाणी जी, डा. मुरली मनोहर जोशी और सुश्री उमा भारती पर मुकदमा नहीं चल सका उस अड़चन को दूर करने का अधिकार उ.प्र. की मौजूदा मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के पास है। अगर वे अनुमति दे देती तो इन नेताओं के लिए बड़ा संकट खड़ा हो जाता। पर उ.प्र. में मायावती की सरकार भाजपा की बैसाखी पर टिकी है इसलिए इस तरह का अनुमति देने का मतलब होता कि अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मारना।

पिछले अनुभवों से अब सुश्री मायावती ज्यादा व्यवहारिक और गंभीर हो गई हैं। भाजपा के साथ जुड़े रहने के अतिरिक्त अब उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। इसलिए इन राजनेताओं पर मुकदमा चलाने की अनुमति उन्होंने नहीं दी और यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि सीबीआई चाहे तो मुकदमा चला सकती है। इसलिए भाजपा के आलोचक आरोप लगा रहे हैं कि आडवाणी जी का बसपा की रैली में जाना सार्वजनिक रूप से सुश्री मायावती के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना था। इस आरोप में कुछ सच्चाई हो सकती है। पर यह कोई ऐसा अनैतिक और बड़ा अपराध नहीं है जिसके लिए आडवाणी जी को कटघरे में खड़ा किया जाए। एक दूसरे की संकट में मदद करना राजनीति में आज आम बात होती जा रही है। ऐसे तमाम उदाहारण है जब हाल ही के वर्षों में पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं वाली राजनैतिक दलों ने भी संकट की घड़ी में अपने प्रतिद्धंदी का साथ दिया। अगर ऐसा न होता तो पिछले 55 वर्षों में सैकड़ों राजनेता विभिन्न अपराधों में सजा भुगत रहे होते। अयोध्या मामले में आडवाणी जी पर साजिश करने का आरोप लगाया जाता है। उनके आलोचक ये कहते नहीं थकते कि उन्होंने देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर नाहक अयोध्या मसले को खड़ा किया। इसलिए उन्हें बहुत बड़ा अपराधी मानते है। जबकि दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज ऐसा नहीं मानता। उसे लगता है कि अगर आडवाणी जी ने रामरथ यात्रा न की होती तो शायद हिंदू समाज इस तरह राष्ट्र के स्तर पर एक जुट न हो पाता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता का शिकार होता रहता। इसलिए आडवाणी जी की एक राष्ट्रीय नेता के रूप में हिंदू समाज में अच्छी छवि है। सच्चाई तो यह है कि हिंदू धर्म के मानने वाले जो लोग उनकी आलोचना करते हैं वे ऐसा इसलिए नहीं कि उन्होंने हिंदुत्व के मुद्दों को उठा कर कोई गलत काम किया है बल्कि इसलिए कि सत्ता में आने के बाद आडवाणी जी हिंदू समाज के लिए वह सब नहीं कर रहे जिसकी उनसे अपेक्षा थी।

जहां धर्मनिरपेक्षतावादी आडवाणी जी को सामाजिक एकरसता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं वहीं बहुसंख्यक हिंदू समाज को लगता है कि इस्लामिक आतंकवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए आडवाणी जी को बहुत ही आक्रामक रूख अपनाना चाहिए। राजग की साझी सरकार होने के कारण ऐसा करना आडवाणी जी के लिए संभव नहीं है। इसलिए हिंदू समाज में कभी-कभी हताशा के स्वर भी मुखर हो जाते हैं। आज पूरी दुनिया में इस बात पर आम सहमति है कि आतंकवाद की जड़ में है मुसलमानों की जेहादी मानसिकता। भारत का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब हिंदू समाज, उसके साहित्य और सांस्कृतिक धरोहरों को मुसलमानों के बर्बर और विध्वंसक हमलों का शिकार होना पड़ा। फिर भी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वालों में हिंदू सबसे आगे रहते हैं। ये हिंदू मानसिकता का ही परिणाम है। गुजरात में अक्षरधाम जैसी घटना अगर किसी मस्जिद में हो गई होती तो हजारों हिंदू धर्मनिरपेक्षतावादी मोमबत्ती का जुलूस लेकर सड़कों पर निकल पड़े होते। पर अक्षरधाम के वीभत्स हत्याकांड पर इनके स्वर मुखर नहीं हुए। दूसरी तरफ मुसलमान आतंकवादी सारी दुनिया में आए दिन तबाही मचा रहे हैं पर मुस्लिम समाज उनकी आलोचना में ऐसी तत्परता नहीं दिखाता जैसी हिंदू अपने समाज के विरूद्ध दिखाते हैं।

इस्लाम के मानने वालों की जहनियत ही ऐसी है कि वे तर्क करने या प्रश्न करने की जुर्रत नहीं करते। उन्हें फतवा जारी होने का डर हमेशा बना होता है। सलमान रश्दी जैसा कोई विरला अगर ऐसा कर भी दे तो उसे ताउम्र जान छिपाते भागना पड़ता ह। ऐसी कट्टरपंथी मानसिकता से त्रस्त होकर ही भारत का शांतिप्रिय हिंदू समाज अब उठ खड़ा हुआ है और संगठित हो रहा है। यह सही है कि भाजपा उनकी मंशा के अनुरूप शासन नहीं दे पाई है। भाजपा के नेता न तो व्यवहार कुशल हैं और नाही प्रशासनिक अनुभव से कांग्रेसियों से श्रेष्ठ हैं। इतना ही नहीं उनका अहंकारी स्वभाव उन्हें मीडिया से भी दूर करता जा रहा है। जबकि सुपर पावर अमरिका के राष्ट्रपति रहे रीचर्ड निक्सन तक ने  दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों को यह सलाह दी थी कि वे किसी भी महत्वपूर्ण पत्रकार की उपेक्षा न करें, वरना उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता है। पर भाजपा के नेता व मंत्री केवल अपनी प्रशंसा ही सुनना चाहते हैं- आलोचना नहीं। जबकि पूरी दुनिया में मीडियाकर्मियों की वृत्ति होती है कि वे सत्ताधीशों को उपदेश देना चाहते हैं। सत्ताधीश उन उपदेशों को माने या न माने पर उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे मीडियाकर्मियों के प्रति विनम्रता का भाव रखेंगे। ऐसी तमाम कमजोरियों के बावजूद अगर भाजपा टिकी हुई है तो इसका कारण यह है कि हिंदू समाज को अभी भी यह लगता है कि भाजपा में लाख बुराई सही पर एक अच्छाई जरूर है कि वह हिंदू समाज के साथ डट कर खड़ी है। आडवाणी जी का बसपा की रैली में जाना भी हिंदू समाज में एक सकारात्मक कदम माना जा रहा है। इन लोगों को आश्चर्य है कि, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’, का नारा देने वाली मायावती ने तिलक और तराजू का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा के सबसे ताकतवर व वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को ही अपनी रैली में भाषण देने क्यों आमंत्रित किया ? हिंदू समाज को लगता है कि इससे एक नई पहल होगी और सर्वणों से कट गया दलित समाज का एक बड़ा अंग पुनः नजदीक आएगा। इन लोगों को लगाता है कि आडवाणी जी की इस यात्रा के बाद मायावती व भाजपा के संबंध और प्रगाढ़ होंगे और भविष्य में होने वाले चुनावों में यह गठबंधन नए रंग दिखाएगा और इस तरह पुनः हिंदू समाज का धु्रविकरण होगा। राजनैतिक रूप से यह प्रक्रिया बड़े दूरगामी नतीजे ला सकती है। अगर ऐसा होता है तो विपक्षी दलों में काफी खलबली मच जाएगी। इस बात की काफी संभावना है कि भाजपा और बसपा के गठबंध को किसी भी तरह से तोड़ने का प्रयास किया जाए। इस मायने में आडवाणी जी का बसपा की लखलऊ रैली में जाना एक महत्वपूर्ण कदम था। अब दीवारों में लिखी इबारत साफ पढ़ी जा सकती है।

जरूरत इस बात की है भाजपा से जुड़े संस्कारवान और विचारवान लोग दलित समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करें। उन्हें धर्म की सही व्याख्या बताएं। उन्हें बताएं कि कोई जन्म से क्षूद्र नहीं होता। भागवतम् के अनुसार तो हर व्यक्ति का जन्म ही क्षूद्र के रूप में होता है। क्रमशः ज्ञान और संस्कार बढ़ते जाने पर उसके वर्ण की भी उन्नति होती जाती है। भगवान् गीता में कहते मैं कि मैंने चारो वर्णों की सृष्टि की है और उन्हें गुण और कर्म के अनुसार बांटा है- जन्म के नहीं। भक्ति काल के अनेक संतों और भगवत् भक्तों ने अपने भजनों के माध्यम से समाज की विषमताओं को कम करने का प्रयास किया था। उनकी शिक्षाएं आज भी सार्थक हैं। बंगाल में जन्में श्री चैतन्य महाप्रभु ने तो यवनों और हरिजनों तक को दीक्षा देकर उन्हें ब्राहम्ण के पद तक पहुंचा दिया था। आज भी देश और विदेशों में फैले गौडि़य सम्प्रदाय के मंदिरों में भगवान के विग्रहों की सेवा करने वाले पुजारी आवश्यक नहीं कि ब्राहम्ण ही हों। वे हरिजन या यवन परिवार में जन्में भी हो सकते हैं। समाज में समरूपता लाने के लिए महान् संतों और जागरुक लोगों की ऐसी दिव्य वाणी को जन-जन के बीच प्रसारित करने की आवश्यकता है। भाजपा और बसपा मिल कर यह काम बहुत अच्छी तरह कर सकती हैं। इससे समाज का दीर्घकालिक लाभ होगा।

बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के प्रति सुश्री मायावती का स्नेह सर्वविदित हैं। पर जरूरत इस बात की है कि दलित समाज अंधकार से बाहर निकले और यह देखे कि डा. अम्बेडकर से कई सौ वर्ष पहले से ही भारत के अनेक संतों और समाज सुधारकों ने इस समस्या के निदान के तमाम ठोस और सफल प्रयास किए थे। इसलिए द्वेष से ज्यादा प्रेेम की भाषा बोलने से दोनों ही समाजों को लाभ मिलेगा। इसलिए सोची-समझी रणनीति के तहत एक व्यापक अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि समाज में एकरसता आए और हिंदू समाज अपने धर्म और संस्कृति को अपने बूते पर सुरक्षित रखने की सामथ्र्य विकसित करे। इस तरह आडवाणी जी की लखनऊ यात्रा ने नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं। इस नई उपजी स्थिति से सकारात्मक कदम भी उठाए जा सकते हैं और इसे मात्र राजनैतिक स्टंट मान कर खारिज भी किया जा सकता है। यह तो देखने वाले की भावना और भविष्य में आने वाले परिणामों से ही पता चल पाएगा कि बसपा की रैली में जाकर आडवाणी जी ने गलत किया या सही ?

धनी महिलाएं क्या करें ?

माक्र्सवादियों की मान्यता है कि पूंजीपति लोग समाज का शोषण करते हैं। जबकि साम्यवादी व्यवस्थाओं में गरीब और अमीर के बीच की खाई पाट दी जाती है। पर सच्चाई यह है कि साम्यवादी व्यवस्था में भी सत्ताधीश लोग आम जनता से कहीं बेहतर जिंदगी जीते, देश की राजधानी दिल्ली में ही ऐसे तमाम मशहूर माक्र्सवादी चेहरे हैं जो श्रमिकों की रैलियों में गाढे का कुर्ता पहन कर बड़े भावावेश में पूंजीपतियों के विरूद्ध गर्जना करते हैं पर पर्दे के पीछे उन्हीं पूंजीपतियों और भ्रष्ट सत्ताधीशों की पांच सितारा पार्टियों में विदेशी शराब पीते और मुर्गे उड़ाते पाए जाते हैं। हृदय में करूणा और दुखीजनो की सेवा का भाव जरूरी नहीं है कि माक्र्सवाद का लबादा ओढ कर ही पैदा हो। यह सही है कि देश की जो व्यवस्था आज चल रही है उसमें बेइंतहा धन रातोरात कमा लेने वाले कोई सीधे रस्ते नहीं चलते। सरकारी नीतियों को प्रभावित करके, बैंकों के ऋण को हजम करके और भारी मात्रा में कर वंचना करके मोटे मुनाफे कमाए जाते हैं।

धन सीधे रास्ते कमाया जाए या टेढ़े रास्ते, धन-धन ही होता है। एक संत कहते हैं कि लक्ष्मी का रंग गोरा या काला नहीं होता, उसका प्रयोग उसे काला या सफेद बनाता है। अगर धन का प्रयोग सद-कार्यों में किया जाए तो वह राष्ट्र के निर्माण और समाज की भलाई में काम आता है और यदि धन का प्रयोग व्यसनों में किया जाए तो वह विनाश की ओर ले जाता है। आमतौर पर देखा यह गया है कि खानदारी धनी परिवारों में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा जरूर होता है जिसे अपने धन और वैभव से बिरक्ति हो जाती है और उसकी रूचि समाज के कार्यों में लग जाती है, ऐसे अनेक उदाहारण है। मशहूर बजाज खानदान के श्री गौतम बजाज को कौन नहीं जानता। वे चाहते तो उद्योग और व्यापार में लगे रह कर करोड़ो रूपया कमाते पर जवानी में ही वे आचार्य विनोवा भावे के पवनार स्थित आश्रम में आ गए और तब से आज तक बाबा के दिखाए रास्ते पर समाज की सेवा में जुटे है। बेहद सादगी का जीवन जीते हैं, ऐसे अनेक उदाहारण देश में हैं। राजस्थान के किसान और मजदूरों के बीच पिछले दो दशक से भी ज्यादा से समर्पित भाव से काम करने वाली श्रीमती अरूणा राय भी एक मजदूरन की जिंदगी जीती हैं और ये जीवन उन्होंने जिंदगी में असफल होकर नहीं अपनाया बल्कि भरी जवानी में भारतीय प्रशासनिक सेवा की नौकरी से इस्तिफा देकर अपनाया। क्योंकि उन्हें लगा कि सरकार में रह कर वे आम आदमी के लिए वह सब नहीं कर पाएंगी जो उनके बीच रह कर कर सकती हैं। अपनी-अपनी रूचि और अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप सद्विचार रखने वाले लोग अपना कार्यक्षेत्र चुन लेते हैं इसमें उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है। जीवन की पूर्णता का अनुभव होता है और जिंदगी सार्थक लगने लगती है।


देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले भारत के सुप्रसिद्ध औद्योगिक डालमिया परिवार में बहु बन कर आई श्रीमती अरूणा डालमिया का बचपन भी कानपुर के सुप्रसिद्ध औद्योगिक सिंघानियां परिवार में बिता, जिसकी वे बेटी हैं। समाज के लिए कुछ करने की कसक उन्हें सामान्य माड़वाणी परिवारों से भिन्न जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने उन लोगों की सेवा का बीड़ा उठाया जिन्हें समाज अपंग कहता है। पर वे उन्हें चुनौती झेलने वाला कह कर संबोधित करती हैं। दक्षित दिल्ली में अक्षय प्रतिष्ठान के नाम से चलने वाली उनकी इस संस्था में आज सैकड़ों बच्चे आज न सिर्फ सामान्य शिक्षा पा रहे हैं बल्कि प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक अपूर्णता से भी डट कर मुकाबला कर रहे हैं। इस संस्थान में पिछले 14 वर्ष से अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा समर्पित कर देने वाली 61 वर्षीय अरूणा जी इन सभी बच्चों के लिए फ्लोरेंस लाइटीगेल की तरह ममत्व और करूणा की मूर्ति बन कर अवतरित हुई हैं। अपने संस्थान में उन्हें दिन भर बड़ी निष्ठा, धैर्य और समर्पण के साथ विभिन्न सेवा कार्यों में लीन देखा जा सकता है। देश में महात्मा गांधी की समाधि पर हर दो अक्टुबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाने वाले देश के नेता आज प्रशासनिक व्यवस्था में फिजूलखर्ची इस कदर बढ़ाते जा रहे हैं कि अब सरकारी कार्यालयों में नेता और अफसर ही नहीं क्लर्क और चपरासी तक वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं। हम ये जानते हैं कि देश में बिजली की कमी है और यह भी जानते हैं कि वातानुकूलित कमरों में बैठना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है पर आज यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। समाज सेवा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग तक विदेशी शराब और सिगरेट फूंकते हैं और काॅरपोरेट आफिस जैसी तड़क-भड़क वाले दफ्तरों में बैठना पसंद करते हैं। तुर्रा ये कि वे समाज के अति दीन-हीन लोगों की सेवा का कार्य कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर वो लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन में या इनके बाप-दादाओं ने कभी ऐसी शान-शौकत की जिंदगी नहीं देखी होगी। दूसरी तरफ श्रीमती अरूणा डालमिया जिनका जन्म ही समस्थ ऐश्वर्यों के बीच हुआ और आज भी उन्हें किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी उनके कार्यालय में गर्मियों में एक पंखा टुकर-टुकर कर चलता रहता है। उनके कार्यालय की खिड़कियों से आने वाली जाड़े की तीखी ठंडी हवा और दिल्ली की तपती दोपहरी की लू उन पर वैसे ही थपेड़े मारती है जैसे किसी भी सामान्य जन को। इस सादगी और वैराग्य के पीछे केवल सद्विचार ही नहीं भगवत भक्ति का भी प्रभाव है। श्री राधा कृष्ण भगवान और श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्य भक्तिन अरूणा जी को इस सेवा कार्य में भक्तिरस की प्राप्ति होती है। श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी शिक्षाष्टक में कहा है, ‘स्वयं को तिनके से भी अधिक विनम्र बनाओ, एक वृक्ष से भी ज्यादा सहिसुण्य बनों और उस व्यक्ति को भी सम्मान दो जिसे कोई मान नहीं देता और सदा हरि का कीर्तन करते रहो’, महाप्रभु की इस शिक्षा को अपने जीवन में उतारा है अरूणा जी ने- अक्षय प्रतिष्ठान के सभी कर्मचारी, चिकित्सक, शिक्षक और छात्र उनके प्रति अगाध प्रेम रखते हैं। यूं तो उन्हें अपने परिवार के अलावा कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सेवाओं के लिए इस सेवा कार्य के लिए वित्तीय सहायता भी मिलती रही है। पर अपने दान और सेवा को उन्होंने इस दोहे में समाहित कर लिया है। दोहा है:-

देनहार कोई और है, देत रहे दिन रैन।
लोग भरोसा मो करें, यासौ नीचे नैन।।

यह दोहा प्रसिद्ध मुस्लिम कृष्ण भक्त अब्दुल रहिम खानखाना ने संत तुलसीदास जी को पत्र लिख कर भेजा था। अकबर के राजदरबार से मंत्री पद छोड़कर वृंदावन वास करने आए श्री रहिम सारा दिन अपना खजाना गरीबों में लुटाते रहते थे। लेकिन दान देते वक्त अपना सिर और निगाहे झुका कर पीछे कर लेते थे। तब संत तुलसीदास जी ने उनसे पत्र लिख कर पूछा कि आप दान तो इतना देते हैं पर मुंह छिपा कर क्यों देते हैं ? श्री रहिम ने तब उक्त दोहे के माध्यम से यह उत्तर दिया कि दरअसल दान देने वाला तो कोई और है (भगवान) पर लोग ये समझते हैं कि मैं दान दे रहा हूं। यही सोच-सोच कर मैं शर्म से गड़ा जाता हूं। श्रीमती डालमिया ने इस दोहे को अक्षर प्रतिष्ठान के लोगों का अंग बनाया है।
अक्षय प्रतिष्ठान में निर्बल वर्ग के अपंग छात्रों को न सिर्फ आधुनिक शिक्षा दी जाती है बल्कि उनको विशिष्ठ परिस्थिति से जुझने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे समाज में अपनी जगह बना सकें। हर तरह की आधुनिक सुविधाओं से युक्त अक्षय प्रतिष्ठान को अनेक विशेषज्ञों की सलाह और सहयोग मिलता रहता है। यहां तक कि इन बच्चों को अक्सर अपने चहेते सितारों को भी देखने का मौका मिल जाता है। पिछले दिनो इन बच्चों की व्यवसायिक प्रक्षिशण कार्यशाला का उद्घाटन करने सचिन तेंदुलकर जब प्रतिष्ठान में आए तो ये बच्चे फुले न समाए।

श्रीमती डालमिया के इस प्रतिष्ठान में इन विशिष्ठ शारीरिक स्थिति के बच्चों के साथ ही शारीरिक रूप से मामान्य बच्चे भी पढ़ते हैं। ताकि सामान्य बच्चों में अपंग बच्चों के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न हो और वे उनका उपहास न बनाएं। दूसरी तरफ इस प्रयोग से विकलांग बच्चों को जीवन में सामान्य शारीरिक स्थिति वाले लोगों से प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है श्रीमती डालमिया इस अद्भुत विचार के लिए डा. उमातुली का आभार मानती हैं जो इस क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और उनके ही सुझाव पर अक्षय प्रतिष्ठान में यह प्रयोग किया जिसके नतीजे उत्साहजनक रहे। अक्षय प्रतिष्ठान की कोशिश रहती है कि इन बच्चों को इस लायक बना दिया जाए कि वे भविष्य में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। संस्थान में अनेक कर्मचारी आज ऐसे हैं जो स्वयं विकलांग हैं। अनेक किस्म की गतिविधियां संस्थान में निरंतर चलती रहती हैं। योग, प्राकृतिक चिकित्सा, फिजियोथेरेपी जैसी सुविधाएं तो हैं ही कला, संगीत, और पाक शास्त्र का भी विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्थान की बेकरी में बनने वालीे ब्राउन बे्रड और कुकिज काउंटर पर आते ही हाथो-हाथ बिक जाते हैं।

ऐसी तमाम संस्थाएं देश में चल रही हैं जहां समाज के उपेक्षित लोगों को सम्माननीय जीवन जीने का मौका मिलता है। अक्सर इन संस्थाओं में ऐसे लोगों की कमी होती है जिनमें बिना किसी लाभ के समर्पित होकर सेवा करने की भावना भरी हो। दूसरी तरफ प्रायः संपन्न परिवारों की महिलाओं के पास इतना ज्यादा खाली समय होता है कि वे उसे किटी पार्टियों, पाश खेलने या बेकार की गप-शप में बिता देती हैं। यदि वे अपने समय का सदुपयोग करें और अरूणा डालमिया जी की तरह हर रोज जीवन के कुछ घंटे समाज का दुख दूर करने में लगाएं तो उनका मन तो पसंद होगा ही लोक और परलोक दोनों सुधर जाएंगे।