Friday, February 21, 2003

रोते क्यों हो क्रिकेट प्रेमियों


भारत की टीम वल्र्ड कप में आस्टेªेलियाई टीम से बुरी तरह पिटी। इस खबर ने हिंदुस्तान के क्रिकेट प्रेमियों को निराश ही नहीं नाराज भी कर दिया। कहीं कैफ के घर कालिख पोती गई तो कहीं गांगुली का ज़नाजा निकाला गया। खिलाडि़यों के घर पर गुस्साई भीड़ ने पत्थर तक फेंके। मोबाइल फोनों में एसएमएस संदेश भेजने वालों ने भारत की टीम को जम कर कोसा। लाखों लोगों ने भारतीय क्रिकेट खिलाडि़यों को लेकर विज्ञापन करने वालों के उत्पादन न खरीदने का फैसला किया। ये सिलसिला अभी जारी है। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वाले हैरान है कि जनता में इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया क्यों हुई ? क्या हिंदुस्तानी ये नहीं जानते कि क्रिकेट के खेल में अगर दो दल खेलेंगे तो जीतेगा सिर्फ एक दल ही ? खेल, खेल की भावना से खेला जाएगा तो हार जीत का कोई मायना नहीं रहेगा, क्योंकि सारा ध्यान बढि़या खेलने वाली टीम पर केंद्रित होगा। खिलाडि़यों की तारीफ या आलोचना खेल के मैदान पर उनके प्रदर्शन पर आधारित होगी। पर जब खेल, खेल की भावना से नहीं बल्कि मोर्चा फतह करने की भावना से खेला जाएगा तो हार को बर्दाश्त करना बहुत मुश्किल होगा। वो हार किसी खेल की सामान्य हार से हट कर राष्ट्रीय गौरव की हार होगी। जाहिरन जनता को इससे ठेस पहुचेगी। जिसकी प्रतिक्रिया आक्रामक भी हो सकती है और हिंसक भी, जैसी पिछले दिनों देखने को मिली। 

जब क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का मामला उछला था हमने तब भी इस काॅलम में कहा था अब तो जागो क्रिकेट प्रेमियों।पर कुछ दिन जाग कर देश फिर सो गया। रात गई, बात गई। सब भूल गए, आरोप प्रत्यारोपों को। सब बरी हो गए, जैसे बड़े-बड़े घोटाले करने के बाद भी राजनेता बरी हो जाते हैं। सबूत धरे रह जाते हैं और अदालतें कह देती हैं कि सबूत है ही नहीं। क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का मामला उठने से कई वर्ष पहले मेरे सहयोगी रजनीश ने बताया कि क्रिकेट में मैच फिक्सिंग होती है और अच्छा या बुरा खेल सट्टेबाजों के इशारे पर खेला जाता है। आम भारतीय नौजवानों की तरह रजनीश भी पागलपन की हद तक क्रिकेट प्रेमी रहा था। बाद में उसने एक ऐसे व्यक्ति के यहां 1990-91 में नौकरी की जो अपने मुख्य व्यवसाय के अलावा क्रिकेट की सट्टेबाजी भी करता था। रजनीश ने देखा कि किस तरह एक मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी के पिता मैच के दौरान टेलीफोन पर इस सट्टेबाज से डील कर रहे थे। रजनीश को टीवी पर यह देख कर हैरानी हुई कि उस खिलाड़ी ने डील के मुताबिक ही ओवर खेला। उस दिन से उसका क्रिकेट से मोहभंग हो गया। चूंकि ऐसी बात मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी इसलिए मुझे रजनीश की बात पर यकीन नहीं हुआ। लेकिन बाद के वर्षों में जब मैच फिक्सिंग  का घोटाला उछला तो सारी बात सामने आई। अक्सर अदालतों से बरी होने वाले बड़े या मशहूर लोग यह कह कर जनता को गुमराह करते हैं कि उनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है। जबकि रोचक तथ्य ये है कि जब रिश्वत देने वाला कहता है मैंने रिश्वत दी और रिश्वत लेने वाला राजनेता कहता है कि मैंने रिश्वत ली तब भी अदालत यह कह देती है कि इस मामले में कोई सबूत ही नहीं है। ये बात दूसरी है कि भारत के मुख्य न्यायघीश न्यायमूर्ति एसपी भरूचा अपने पद पर रहते हुए यह कह चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्ट लोग हैं।इसलिए सिर्फ अदालत से अगर कोई मशहूर व्यक्ति छूट भी जाए तो यह जरूरी नहीं कि वो निर्दोंष ही हो। यहां यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिस क्रिकेट मैच पर आज भी करोड़ों के सट्टे लग रहे हों और ऐसे इक्का-दुक्का सट्टेबाजों को पकड़े जाने की खबरें अखबारों में छप रही हों तो संदेह होना स्वाभाविक है। 

हो सकता है सेनचुरियन (दक्षिण अफ्रीका) में भारत आस्ट्रेलिया के बीच खेले गए मैच में कोई मैच फिक्सिंग न हुई हो। हो सकता है हमारे खिलाड़ी वाकई आस्ट्रेलिया के हाथों पिटे हों। हो सकता है कि उनका खेल प्रदर्शन बहुत घटिया दर्जे का रहा हो। पर क्या उस पर हम हिंदुस्तानियों का इतना नाराज होना जायज है ? दरअसल, क्रिकेट के पूरे मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। जिस तरह औपनिवेशिक शासकों ने भारत पर मैकाले की शिक्षापद्धति थोपी, जिस तरह करोड़ों हिंदुस्तानियों के मुंह से स्वाथ्यवर्द्धक पेय शिकंजी, दूध, छाछ व रस छुड़वा कर उन्हें चाय, काफी और कोका कोला की लत डाली, उसी तरह भारत के पारंपरिक खेल जैसे खोखो, कबड्डी व कुश्ती जैसे स्वास्थवर्द्धक खेल छुड़वाकर उन्हें क्रिकेट का दिवाना बनाया ताकि उनके दिमागों को नियंत्रित किया जा सके। वल्र्ड कप न हो गया कोई बवाल हो गया। पिछले दिनो हर ओर धूम बची थी भारत की टीम अफ्रीका जाएगी और भारत के सिर पर जीत का सेहरा लेकर आएगी। इतना शोर, इतने विज्ञापन, इतना माहौल बनाया गया मानो अपनी टीम क्रिकेट खेलने नहीं पाकिस्तान की सीमा पर युद्ध जीतने जा रही हो। मुट्ठी भर खिलाडि़यों के खेल को टीवी मीडिया पर इस कदर प्रचारित किया गया कि करोड़ों लोग अपना काम, व्यायाम और खेल भूल कर टीवी से चिपक गए। जब अपेक्षाएं इतनी बढ़ जाएंगी तो जाहिरन असफलता गले नहीं उतरेगी। पर क्रिकेट का धंधा करने वालों को तो तभी फायदा होगा जब करोड़ों लोग क्रिकेट के दीवाने हो जाएं। सौरभ गांगुली को भगवान् मानने लगें। भगवान गलती थोड़े ही कर सकता है। पर जब सौरभ गांगुली टाॅय-टाॅय फिस्स करके मैदान से भागते हैं तो उनके भक्त उनके परिवार के सामने उनका जनाजा निकालने में भी नहीं हिचकते। बेचारे की पत्नी और मां पर क्या गुजरी होगी जब उन्होंने अपने घर की बालकनी से अपने नौजवान बेटे का चित्र अर्थी पर रखे और रामनाम सत्य है का उद्घोष करती भीड़ को देखा होगा। दरअसल क्रिकेट का दीवानापन पैदा करने का, एक ही मकसद होता है, माल बेचना और मुनाफा कमाना। टीवी, बिस्कुट, पेप्सी, वाशिंग मशीन जैसे तमाम उत्पादनों को बेचने के लिए ऐसे लोगों की जरूरत होती है जिनके पीछे जनता दीवानी हो। इसलिए पहले इन खिलाडि़यों को सितारा बनाकर पेश किया जाता है और फिर इनको करोड़ों रूपए देकर इनसे विज्ञापनों में छूठे बयान दिलवाए जाते हैं। पैसे के लिए अपने ईमान को बेचने का दौड़ चरम सीमा पर है। फिर उसमें सितारे ही पीछे क्यों रहें ? चाहे फिल्मों के हों, चाहे खेल जगत के हों। हरकोई तो बैंडमिंटन के विश्व चैपियन फुलैला गोपिचन्द की तरह संस्कारवान और ईमानदार होता नहीं। जो विज्ञापन से मिलने वाले बेहिसाब पैसे का लोभ रोक पाए। फुलैला गोपिचन्द को जब एक साॅफ्ट ड्रिंक कंपनी ने अपनी विज्ञापन फिल्म में काम करने का प्रस्ताव किया तो आंध्र प्रदेश के इस मध्यवर्गीय युवा सितारे ने यह कह कर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि जिस चीज को मैं खुद नहीं पीता और अच्छी नहीं समझता उसका विज्ञापन मैं कैसे कर सकता हूं ? कितने शहरों के खेलप्रेमियों ने फुलैला गोपिचन्द को अपने शहर बुलाकर नागरिक अभिनंदन किया। आखिर गोपिचन्द तो बैडमिंटन में विश्व चैम्पियन का खिताब जीत कर आया था। इसलिए भारत के क्रिकेट प्रेमियों को बहुत कुछ समझने की जरूरत है।
क्रिकेट भी दूसरे ही खेलों की तरह एक सामान्य खेल है। कोई दैविक सागर मंथन नहीं जिसके पीछे पागल पन की हद तक दीवाना होकर रहा जाए। सौ करोड़ भारतीयों में से क्रिकेट खेलने वाले एक-डेढ दर्जन युवा हैं। वे अच्छा भी खेल सकते हैं और बुरा भी। वे जीत भी सकते हैं और हार भी सकते हंैं। वे ईमानदारी से भी खेल सकते हैं और मैच फिक्सिंग करके पैसे भी कमा सकते हैं। जो कुछ कमजोरियां किसी भी आम हिंदुस्तानी में हो सकती हैं वही कमजोरियां क्रिकेट खिलाडि़यों में भी हों तो इसमें अचंभा कैसा ? यह जनते हुए कि विज्ञापन एजेंसियां उनसे जो कुछ कहलवाती हैं वह अक्सर सच नहीं होता। फिर हम क्यों उनके माया जाल में फंस जाते हैं ? आस्ट्रेलिया से करारी हार के बाद बहुत से क्रिकेट पे्रमियों ने एसएमएस पर लाखों संदेश भेजे जिनमें कहा गया कि क्रिकेट खिलाडि़यों द्वारा जिस वस्तु का भी विज्ञापन टीवी पर आता है उसे कोई न खरीदे। खेल छोड़कर विज्ञापनों के पीछे भागने वाले खिलाडि़यों को भी इससे सबक मिलेगा। 

सब जानते हैं कि तंबाखू खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इससे कैंसर तक हो जाता है। पर खाने वाले फिर भी नहीं मानते। यही हाल भारत के क्रिकेट दीवानों का है। आलू बेचने वाले से लेकर राजनेता तक मैच के दौरान हर शहर और कस्बे में यही पूछते मिलेंगे कि अरे भई क्या स्कोर है ?’ चाहे उनका क्रिकेट से कोई नाता हो या न हो। उन्हें कोई कितना ही समझाए कि क्रिकेट देखने से कहीं अच्छा है उतनी देर व्यायाम किया जाए, योग या ध्यान किया जाए, जिससे हम सबका मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ्य हो, पर वे फिर भी नहीं मानते। पता नहीं इस लेख के पाठक कितना सहमत होंगे पर यह सत्य है कि क्रिकेट के खेल को इतना बढ़ावा इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि यह सबसे बेहतर खेल है या इस खेल को देखने से दर्शकों का मनोरंजन होता है। बल्कि इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि लोग इस कदर दिवाने हो जाएं कि उन्हें क्रिकेट के अलावा और कुछ सूझे ही नहीं। उनकी इस दिवानगी का फायदा उठा कर बड़ी कंपनियां अपना माल बेच लें और करोड़ों का मुनाफा कमा लें। चाहे उपभोक्ता को उससे कौड़ी का फायदा हो या न हो। कहते हैं बेगानी शादी में अब्दुल्ला दिवाना, ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना। विज्ञापन एजेंसियां, बड़े उद्योगपति, टीवी कंपनियां और खिलाड़ी सब मुनाफा कमाते हैं। पर लुटता कौन है ? केवल दीवाने दर्शक। फिर भी हम लुटने को तैयार हों तो कौन रोक सकता है?

Friday, February 14, 2003

लोकतंत्र में असहाय होता आम आदमी


कहने को तो अमरीका और भारत में लोकतंत्र है और सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है। बालने व लिखने की आजादी है। पर क्या वाकई लोगों की सुनी जाती है ? इराक पर मंडराते अमरीकी हमले के सवाल को ही लें। अमरीका इराक के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता सद्दाम हुसेन को नेस्तोनाबूत करना चाहता है। शायद इसलिए कि सद्दाम हुसेन अमरीका के सामने नस्तमस्तक होने को तैयार नहीं है। इराक के नागरिक ही नहीं पूरी दुनिया इस संभावित युद्ध के बारे में सोच कर चिंतित है और इसका विरोध कर रही है। यहां तक कि अमरीका के भी ज्यादातर नागरिक नहीं चाहते कि अमरीका इराक पर हमला करे। विश्व समुदाय की चिंता बहुत स्वाभाविक है। इस फिजुल के युद्ध में जानमाल की जो हानी होगी, उसका भार तो केवल इराक और अमरीका पर पड़ेगा पर इस युद्ध के कारण सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में भारी वृद्धि जिसके कारण माल की ढुलाई का खर्चा भी बढ़ जाएगा और इस तरह महंगाई भी बहुत बढ़ जाएगी। सवाल है कि अपनी प्रजा सहित विश्व समुदाय की संभावित युद्ध रोकने की मांग को राष्ट्रपति बुश का प्रशासन क्यों उपेक्षा कर रहा है? अमरीकी राजनीति और अर्थव्यवस्था के जानकार बताते हैं कि अमरीका में सशत्र उत्पादक उद्योगों के मालिक बहुत प्रभावशाली हैं और अमरीकी सरकार पर उनका तगड़ा शिकंता कसा रहता है। अमरीका की विदेश नीति निर्धारण में आम्र्स लाॅबीअहम भूमिका निभाती है। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि दुनिया में अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयों के पीछे इस लाॅबी के निहित स्वार्थ छिपे रहते हैं क्योंकि हर युद्ध से इस लाॅबी को बेहतद मुनाफा होता है। आपस में लड़ने वाले देश लड़ाई के लिए भारी मात्रा में सशत्र और गोला-बारूद खरीदते हैं जिससे जाहिरन सशत्र उत्पादक उद्योगा को मुनाफा होता है। एक शोध के अनुसार पूरे दुनिया के आयुद्ध उत्पादन पर मुट्टी भर अमरीकी औद्योगिक घरानों का कब्जा है, कहीं ये प्रत्यक्ष और कहीं ये अप्रत्यक्ष। इसी शोध के अनुसार हर युद्ध के बाद इन औद्योगिक घरानों की हैसियत कई गुना बढ़ा जाती हैं। यदि अमरीका ओर इराक के बीच युद्ध होता है तो जाहिरन इन उद्योगपतियों को भारी मुनाफा होगा। इसलिए विश्व समुदाय कुछ भी कहे, अमरीका के नागरिक कुछ भी कहें पर राष्ट्रपति बुश अंततोगत्वा वहीं करने पर मजबूर होंगे जो आम्र्स लाॅबी चाहती हैं। 

पिछले दिनों मेरा परिचय स्वीट्जरलैंड के एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जो पूरी दुनिया के सबसे धनी लोगों की संपत्ति और धन का प्रबंधन करने हैं। अरबों रूपया कहां लगाया जाए जहां सुरक्षित भी रहे और उससे आमदनी भी होती रहे। इन सज्जन से मैंने पूछा कि तुम तो रोज ही दुनिया के अरब-खरबपतियों से मिलते हो, क्या तुम्हें ऐसा लगा कि उनके सीने में भी किसी मानव का दिल है ? अगर है तो क्या वजह है कि मुनाफा कमाने के लालच में वे इतने अंधे हो जाते हैं कि दुनिया का हित और अहित भी उन्हें ध्यान नहीं रहता। वे जानते हैं कि उनके उत्पादन समाज के लाभ के लिए नहीं है फिर भी वे उस व्यवसाय को नहीं छोड़ते। चाहे घातक कीटनाशक हों, रासायनिक खाद्य हो, जहरीली गैस हों ऐसी तमाम चीजों का उत्पादन करते ही जाते हैं, आखिर क्यों ? उन स्विज बैंकर का जवाब था कि, ‘‘इंसान की हवस की कोई सीमा नहीं होती।’’ चाहे जितना मिल जाए फिर भी हमें कम ही लगता है। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अधिक कमाने का अर्थ यह तो नहीं कि आमदमी काम करना बंद कर दे। पर सवाल है कि ऐसा काम क्यों किससे समाज की हानी हो

इराक पर युद्ध हो या न हो ये तो बहुत दिनों तक रहस्य नहीं रह पाएगा। पर ऐसे तमाम सवाल उन लोगों के मन में घुमते रहते हैं जो इस लोकतंत्र में आम आदमी के अधिकारों को लेकर चिंता करते हैं।  भारत की ही बात लें यहां फलता-फुलता लोकतंत्र है। हर किस्म की आजादी है। काम न करने की, जनता को मूर्ख बनाने की, झूठ बोलने की, खुलेआम रिश्वत लेने की। पर क्या वास्तव में इस देश के नीतियों के निर्धारण में आम आदमी के हितों को ध्यान रखा जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली सहित अनेक महानगरों में लाखों लोग जिन नारकीय स्थिति में रह रहे हैं उसके लिए उन्होंने कोई सपना नहीं संजोया था। उनके जंगत, जमीन, नदी, पहाड़ उनसे छीन लिए गए और औद्योगिक विकास के नाम पर उन्हें बेघरबार कर दिया गया। पेट की आग बुझाने को मजबूर ये लाखों लोग बड़े शहरों में आगर बस गए, इस उम्मीद में कि कुछ न कुछ काम करके पेट पाल लेंगे। इसी तरह लाखों लोग झुग्गियों में रह रहे हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जो इन लोगों को जिने की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं देता और उसी शहर में, इन्हीं लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सत्ता में बैठकर राजा-महाराजाओं सा जीवन जीते हैं। इतना ही नहीं हर राजनैतिक दल अपने बेटे, भाई, भतीजे और बहु को ही उत्तराधिकारी बनाता है। किसी राजनैतिक दल में आमदनी और खर्चे का कोई ठीक हिसाब नहीं रखा जाता। किसी भी राजनैतिक दल में कनिष्ठ कार्यकर्ताओं को वरिष्ठ नेताओं के विरूद्ध कुछ भी कहने की आजादी नहीं है। ऐसा कहने वाले दल से निकाल दिए जाते हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें गरीबों को समाजवाद, साम्यवाद, गांधीवाद या हिंदू राष्ट्र के सपने दिखा कर वोट मांगे जाते हैं पर जब उनके वोटों से विधायक चुन लिए जाते हैं तो वो सरेबाजार लाखों रूपए में अपनी कीमत लगवा कर मेंढकों की तरह दल बदलते रहते हैं। इतना ही नहीं हर दल अब तो बाकायदा खुलल्मखुल्ला बड़े उद्योगपतियों को ही राज्यसभा में लेकर आता है। जाहिर है करोड़ों रूपए का लेनदेन होता है। उद्योगपतियों के राज्य सभा में जाने से भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती हैं आखिर में भी वो भी इस देश के नागरिक हैं पर अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो राज्यसभा इस देश के 100 करोड आम हिंदुस्तानी का नहीं आधा फीसदी अति संपन्न वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करेगी। फिर ये कैसा लोकतंत्र है ?
ये कैसा लोकतंत्र है जहां मानव अधिकारों के हनन करने वाले घोटालेबाज न्यायधीश बिना सजा पाए बच निकलते हैं। बच ही नहीं निकते हैं बल्कि मानव अधिकारों के रक्षा के लिए तैनात कर दिए जाते है। ये कैसा लोकतंत्र है जहां कानून की निगाह में सब बराबर हैं पर सजा केवल छोटे अपराधिओं को की मिलती है। बड़े  अपराध या घोटाले करने वालों को प्रमुख राजनैतिक पद दिए जाते हैं। कहने वाले ये भी कहेंगे कि ये तो नजरिए का सवाल है किसी को बोतल आधी भरी दिखाई देती हैं और किसी को आधी खाली। यह बात ठीक है कि इन सब कमियों के बावजूद भारत का लोकतंत्र दूसरे देशों के मुकाबले बहुत पीछे नहीं है। पर यहां लोकतंत्र चुनावच के बाद समाप्त हो जाता है। क्योंकि चुनाव हो जाने के बाद जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों पर नियंत्रण नहीं रख पाती और वे निरंकुश होकर सत्ता सुख भागते हैं और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थों के हाथों में खेलते हैं।

ऐसे माहौल में जब लोगों के घर और जमीन छीन लिए जाए, रोजगार के अवसर न मिलें, पुलिस     अपराधियों से मिली हो, न्यायपालिका भ्रष्टाचार के प्रभाव में आ चुकी हो, तो एक नौजवान नक्सलवादी या आतंकवातदी बनने के सिवाए क्या कर सकता है ? इसलिए जब वाजपेयी जी दुनिया के देशों से आतंकवाद के मामले पर दोहरी चाल न चलने की चेतावनी देते हैं तो बड़ा अटपटा लगता है। फिलहाल भारत का माहौल कुछ ऐसा बनता जा रहा है मानो आतंकवाद और मंदिर निर्माण के अलावा कोई दूसरे अमह मुद्दे देश के सामने हैं ही नहीं। टीवी के चैनलों पर आने वालेे कार्यक्रम देखिए या अखबारों में छपने वाले लेख। सारा ध्यान इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित किया जा रहा है। जबसे टेलीविजन चैनलों की भरमार हुई है तब से लोक क्या सोचें ये मीडिया तय कर रहा है। वो क्रिकेट के बारे में सोचे या किसी और अंतर्राष्ट्रीय घटना के बारे में इसका फसला मीडिया मुगल करते हैं और मीडिया मुगल औद्योगिक घराने की बाजारनीतियों से नियंत्रित होते हैं। जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से नहीं। यानी लोकतंत्र का चैथा खंभा भी अब आम आदमी का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा। ऐसे माहौल में कैसे माना जाए कि हमारी लोकतांत्रित परंपराएं मजबूत हो रही है। हर ओर एक धुंध सी छाई है। हड़बड़ाहट है रातों रात धनी और मशहूर बनने की। निजी लाभ के लिए सांस्कृतिक, आधयात्मिक व पारंपरिक मूल्यों को पीछे धकेला जा रहा है। प्रतिस्पर्धा का एक नकली माहौल तैयार किया जा रहा है। जनता को लगातार तनाव व आर्थिक असुरक्षा के माहौल में रहने को मजबूर किया जा रहा है। समाज का सूख-चैन छीना जा रहा है। उसे आनंद की नई परिभाषाएं बताई जा रही है। जिससे युवाओं में भारी हताषा फैल रही है। हर गांव, गस्बों में सैकड़ों-हजारों बेरोजगार नौजवान पैसे के लिए आंतकवादी और तस्तकर तक बनने के लिए तैयार हो रहे हैं। यह भयानक स्थिति है। हम सीमा पार के आतंकवाद से तो जरूर लड़ें पर अपने घर के भीतर पैदा हो रहे इन हालातों को नजरंदाज करते जाएं तो आतंकवाद घटेगा नहीं बढ़गा ही। यदि हमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गर्व है तो देश के बहुत सारे लोगों को आगे बढे कर यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र की जड़े बजबूत हों। ये महज नारा न रह कर हकीकत बने। हर आम मतदाता की सुनी जाए, उसकी प्राथमिकताओं का निर्धारण उसकी मर्जी से हो। ऊपर से थोपा न जाए, मौजूदा हालात में इसकी संभावना क्षीण होती जा रही है। यह चिंता की बात है।

Friday, February 7, 2003

खुफिया और सुरक्षा कपनियां: कितनी कारगर है


आज की व्यस्त जिंदगी में सभी अपने दैनिक कार्यों में इतने व्यस्त हो गए हैं कि आम जनता को या एक षिक्षित नागरिक को अपना जीवन असुरक्षित लगने लगा है। अब कहां, कैसे, कौन उनकी जान-माल की हानि हेतु ये बड़ा अनिष्चित व असुरक्षित सा हो गया है। यह प्रष्न सिर्फ नौकरी पेषा वाले व्यक्ति के साथ नहीं बल्कि समस्त समुदाय व हर वर्ग से जुड़ा है। आए दिन अखबारों में छपा होता है कि अमुक षहर में या अमुक इलाके में दिन दहाड़े चोरी या लूटपाट  हो गई। सनसनीयखेज हत्या हो गई। किसी बच्चे का बदमाषों ने अपहरण कर लिया। किसी जवान लड़की का बलात्कार कर दिया गया और बदमाष अपना काम करके निर्भय होकर भाग खड़े हुए। इस तरह की घटनाएं आए दिन घटती रहती है और  पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने के अलावा और कोई चारा नजर नहीं आता। अधिकांष मामलों में पुलिस भी अपराधीयों को पकड़ने में असफल सिद्ध होती है या फिर सही वक्त पर रिपोर्ट दर्ज न हो पाने के कारण या फिर किसी तरह के विलंब के कारण अपराधी पुलिस की पहुंच से बाहर निकल चुका होता है।

अपराध अधिकांष असुरक्षित व असावधान के साथ ही घटित होते हैं यह एक सर्वमान्य सत्य है। सतर्क व सावधान व्यक्ति कम ही अपराध की चपेट में आते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि हम सड़क के नियमों का पालन करते हुए अपनी ही लेन में सावधानी से चले तो दुर्घटना होना अपवाद ही होगा। ठीक इसी तरह हम अपने निवास-स्थान या कार्य-स्थल को सुरक्षा की दृश्टि से गठित रखेंगे तो किंचित ही दुर्घटना होगी। इसी सावधानी व सुरक्षा के लिए आज कल विभिन्न सिक्योरिटी व खुफिया कंपनियां अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है, जिनके तहत वह अपनी हर संभव सिक्योरिटी सेवा से जान-माल व दफ्तर-दुकान ही सुरक्षा करती है।

दिल्ली व अन्य बड़े षहरों में ही ऐसी कई बड़ी सुरक्षा व खुफिया कंपनियां व्यापकस्तर पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हंै। आमतौर पर देखा जाता है कि कई दफ्तरों, बिल्डिंगों, होटलों, हस्पतालों, प्राइवेट कंपनियों व कोठियों में गेट पर अपनी सतर्कता से विषेश प्रकार की सुरक्षात्मक वर्दी में, सेना की जवान की तरह सीना तान कर व हाथ में बंदूक लिए चैंकन्नी नजरों से पहरा देते हुए सिक्योरिटी गार्ड खड़े हुए दिख जाएंगे। दिल्ली में कई सुरक्षा कंपनियां अपना यह कार्य कर रही हैं। यह सिक्योरिटी कंपनियां अपना कार्य बड़े नियोजित व कुषल तरीके से करती हैं। इसके मुख्यतः दो विभाग होते हैंः एक, सिक्योरिटी और दूसरा डिटेक्षन (खोजबीन)। यह दोनों कार्य बड़े व्यापक स्तर पर अपने प्रषिक्षित गार्डस्  और खुफिया जासूसों द्वारा बड़ी सूझबूझ और एवम् बहादुरी से सुलझा लिए जाते हैं।  पहली टीम में इनके सुरक्षा गार्डस्, सुपरवाइजर, कैप्टन, मेजर आदि आते हैं। जिनका कार्य निचिष्त स्थलों पर पूरी बहादुरी व सजगता से पहरा देना व जान-माल की सुरक्षा करना होता है। किसी भी तरह की दुर्घटना या चोरी-झगड़े रोकने के अलावा यह सजग व चैकन्ने प्रहरी इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि जहां पर इनकी सेवा नियुक्त की गई है वहां या आस-पास कोई संदेहास्पद या विस्फोटक पदार्थ तो नहीं क्योंकि इनकी जरा सी असावधानी या नजर चूक जाने पर बम-विस्फोट व जानलेवा दुर्घटना घटित हो सकती है।

इन खुफिया सुरक्षा कंपनियों की सेवाएं प्राप्त करना बड़ा ही आसान है। अपनी आवष्यकतानुसार इनके विभिन्न सर्विस केंद्रों पर फोन पर संपर्क करके सेवा प्राप्त की जा सकती है। समाचार पत्रों व दूरदर्षन के प्रसारण कार्यक्रमों में भी समय-समय पर  इनका विज्ञापन निकलता रहता है। इन खुफिया सुरक्षा कंपनियों में अधिकांष पुलिस सेवानिवष्त्त अधिकारी व सजग सिपाही नियुक्त किए जाते हैं। इनका वेतन इनकी कार्यकुषलता, सक्षमता व अनुभव पर आधारित होता है। इन सुरक्षा गार्डों की सेवाएं वितरित करने वाली कंपनिया इनकी आठ घंटे की सेवा का लगभग 4000 रूपए मासिक वसूल करती है। जिसमें 15 से 20 प्रतिषत इनका सर्विस चार्ज होता है और बाकी सुरक्षा गार्ड का वेतन होता है।

दिल्ली मेें ही नहीं बल्कि देष के बड़े-बड़े षहरों में, व्यवसायिक स्थलों में, बड़े-बड़े षोरूम में प्राइवेट व सरकारी हस्पताल में, तीन व पांच सितारा होटलों में व सरकारी अधिकारियों की काॅलोनियों में मुख्य गेट पर व घरों के गेट पर यह सजग प्रहरी दिन-रात पहरा देते मिल जाएंगे। सुरक्षा प्रषिक्षण के साथ-साथ इन्हें फायरिंग का भी प्रषिक्षण प्राप्त होता है, जिसमें इन्हें अचानक बिल्डिंग में आग लगने पर काबू पाना सिखाया जाता है। किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर उस पर कैसे नियंत्रण किया जाए यह भी सिखाया जाता है। दुर्घटना होने से पूर्व की स्थिति पर नियंत्रण पाना भी इनके प्रषिक्षण का एक अंग है। आपको अपने इर्द-गिर्द ऐसे कई मामले देखने को मिल जाएंगे। जिन्होंने अपनी समस्याएं इन कंपनियों द्वारा सुलझाई है। मुख्यतः विवाह-पूर्व लड़के या लड़की के बारे में जांच पड़ताल करना कि वह क्या करता है, कितना पढ़ा लिखा है, उसका चरित्र कैसा है, उसके यार दोस्त या मिलने-जुलने वाले किस तरह के आदमी हैं, किसी गलत सोसाइटी या किसी नषे आदि का षिकार तो नहीं है, उसका बैंक बैलेंस व पैतृक संपत्ति किस तरह की है, कहीं उसका पूर्व विवाह तो नहीं है ? या किसी के साथ प्रेम व अवैध संबंध तो नहीं है। यहां तक की उसका खूबियों व आदत क्या है ? आदि का भी यह खुफिया और सुरक्षा संस्थाएं पता लगा लेती हैं।

इसके अलावा रोजगार संबंधी जांच-पड़ताल, ट्रेड मार्क, संपत्ति आदि की जांच पड़ताल जैसे चोरी, अपहरण, वैवाहिक, तालाक आदि के केस भी यह डिटेक्टिव एजंसी बखूबी व अल्पकाल में सुलझाकर षिकायतकर्ता की समस्या हल कर देती है। तब जन सामान्य के समय के साथ पैसे की बर्बादी से भी बचती है। इसकी सेवाएं वाकई में लाभदायक व सुरक्षात्मक दृश्टि से हितकर सिद्ध होती है। तीसरा मुख्य कार्य आता है। इनकी प्रषिक्षण योजनां जिसके अंतर्गत कई प्रमुख खुफिया व सुरक्षा कंपनी प्रषिक्षण कार्यक्रम आरंभ किए हुए है। जिमें मुख्य हैं; 1 व्यावसायिक कोर्स 2 पत्राचार कोर्स (प्राइवेट इन्वेस्टीगेषन) 3 काॅरपोरट व इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी कोर्स 4 फायर-फायरिंग मैनेजमेंट कोर्स 5 पत्रकारिता (हिंदी-इंगलिष) कोर्स 

जो युवक पुलिस या सेना में किसी कारण भर्ती नहीं हो सकें वे इन कंपनीयों में अपना भग्य आज़मा सकते हैं। यह सभी कोर्स पत्रचार द्वारा प्रदान किए जाते हैं, जिनकी प्रषिक्षण अवधि 6 माह से 1 वर्श तक सीमित होती है। तथा सभी पाठक सामग्री पत्राचार द्वारा डाक व्यय पर डाक द्वारा विद्यार्थियों को भेजी जाती है। विभिन्न विशयों के साथ अलग-अलग फीस निर्धारित होती है। इस तरह यह डिटेक्टिव एण्ड सिक्योरिटी सर्विसेज अपनी सेवाओं सुविधाओं से लाभांवित के साथ-साथ जटिल आपराधिक केसों को सुलझाने के साथ-साथ सुरक्षा का भी कार्य करती है। पुलिस की सेवा के बाद दूसरा स्थान इन डिटेक्टिव एण्ड  सिक्योरिटी सर्विसेज प्रा.लि. कंपनी का आता है। अतः यह कहना अतिष्योक्ति नहीं होगा कि सुरक्षा की दृश्टि से व खुफिया जांच-पड़ताल के लिए इनसे बढ़कर कोई और दूसरा सेवा नहीं।

कल्पना चावला और राजा भैया


पिछले हफ्ते कल्पना चावला और राजा भैया दोनों भारतीय समाचारों में छाये रहे। एक अपने अदम्य साहस और विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करते हुए शहादत देने के लिये और दूसरा अपने साहस और क्षमता का उपयोग बाहुबल बढ़ाकर अपराध और राजनीति की दुनिया में झंडे गाड़ने के लिये। जहां कल्पना चावला दुनिया के करोड़ों नौजवानों खासकर युवतियों के लिये एक आदर्श बनकर सामने आईं वहीं राजा भैया अपराध और राजनीति के जरिये दौलत हासिल करने का सपना संजोने वाले नौजवानों के लिये आदर्श बनकर सामने आया। एक के प्रति पूरी दुनिया में श्रद्धा और संवेदना थी तो दूसरे के प्रति भारत के जागरूक समाज में हेय दृष्टि और आक्रोश। आक्रोश इसलिये भी कि विभिन्न राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं ने खुलकर राजा भैया के ऊपर पोटा लगाने का विरोध किया। इतना मुखर विरोध कि समाचार सुनने देखने वाले तिलमिला गये। अपराध जगत से राजनीति में आने वाले के प्रति मुख्य राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं का इस तरह खुलकर समर्थन देना जहां राजनीति में आई मूल्यों की गिरावट का परिचय देता है, वहीं यह भी सिद्ध करता है कि हम्माम में सब नंगे हैं। आज विरोध इसलिये कर रहे हैं कि कल कहीं ऐसी गाज उन पर न आ गिरे। अरे विरोध करना ही है तो सब मिलकर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण का करो। ऐसा विधेयक संसद में पारित करो कि अपराध करने वाला किसी भी विधाई संस्था में चुनाव लड़ने का अधिकारी न रह पाए। पर वहां विरोध कोई नहीं करता। कोई इस विधेयक के समर्थन में सशक्त आंदोलन नहीं चलाता। पर जब देश के युवाओं को संदेश देने की बारी आती है तो राजा भैया पर पोटा लगाने का विरोध करने वाले नौजवानों से गांधी, भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसों के त्याग को याद दिलाते हैं। सब चाहते हैं कि भगत सिंह पैदा हो पर पड़ोसी के घर। ऐसे दोहरे चरित्र वाले नेताओं के उद्बोधन युवाओं को न तो प्रभावित करते हैं और न आंदेालित। इसलिये कार्यशालायें, चिंतन शिविर व संभाषण चाहे जितने किये जायें समझदार और संस्कारवान युवाओं की भीड़ राजनैतिक दलों को बल देने सामने नहीं आती। आते हैं वही युवा जो बेरोजगारी से आजिज आ चुके हैं और पेट की आग बुझाने के लिये कुछ भी करने को तैयार हैं। चाहे राजनैतिक दल में नारे लगाने पड़ें या हत्या, बलात्कार या अपहरण करने पड़ें। दोष युवाओं का नहीं, उन्हें मिल रहे माहौल का है। देश के नेतृत्व का है जो उन्हें आदर्शों के साथ जीने को प्रेरित नहीं कर पाते। वरना हर बीज में वृक्ष बनने की संभावना निहित होती है। जैसी कल्पना चावला में थी। उसे ठीक खाद, पानी, हवा और रोशनी मिली तो वह भारतीय नारी की अबला छवि को तोड़कर एक जांबाज महिला के तौर पर सामने आई और रानी झांसी की तरह भारत की जहनियत में अपना अमिट स्थान सुरक्षित कर गयी। कल्पना चावला की अकाल मृत्य पर पूरी दुनिया के भारतीयों ने ही नहीं दूसरे समुदाय के लोगों ने भी जिस तरह अपनी संवेदना प्रकट की उससे दिवंगत कल्पना के परिवार का मस्तक जरूर ऊंचा हुआ है। उनको हुई इस अपूरणीय क्षति को तो अब पूरा नहीं किया जा सकता पर इसमें शक नहीं कि कल्पना की शहादत आने वाली पीढि़यों को प्रेरणा देती रहेगी। कहते हैं कि काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। फिर भी भारत की परंपराओं में कुछ ऐसा है जो अनदेखा नहीं किया जा सकता। 

जिस दिन अमरीका के शहर ह्यूस्टन के ऊपर अमरीकी अंतरिक्ष यान कोलम्बियाध्वस्त हुआ, उस दिन शनिवार था और मौनी अमावस्या भी। इसे इत्तफाक कहिये या हिन्दू मान्यताओं की पुष्टि कि एक बूढ़ी महिला उसी दिन सुबह एक सत्संग में यूं ही बोल उठीं, ‘‘आज शनिवार को मौनी अमावस्या पड़ रही है। जरूर कहीं कोई विस्फोट होगा।’’ अनुभव भी बताते हैं और ऐसा माना भी जाता है कि जब-जब शनिवार को मौनी अमावस्या पड़ती है कोई विस्फोट या बड़ी दुर्घटना होती है। यह शोध का विषय हो सकता है। पर यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि रूस जैसे साम्यवादी रहे देश में डाक्टरों ने जब अपने अनुभव से यह पाया कि कुछ खास नक्षत्रों की स्थिति में जब मरीजों के आपरेशन किये जाते हैं तो वे आपरेशन नब्बे फीसदी सफल रहते हैं। जबकि दूसरे नक्षत्रों की स्थिति में किये गये आपरेशन या तो असफल रहते हैं या मरीज का जीवन ही नहीं बचता। अपने इस अध्ययन के बाद उन्होंने यह तय कर लिया कि वे नक्षत्रों की सकारात्मक स्थिति में ही आपरेशन करेंगे। 

उधर अमरीका का मशहूर अंतरिक्ष शोध संस्थान नेशनल एयरोनाॅटिक एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) यूं तो दुनिया भर से सूचनायें और ज्ञान इकट्ठा करने में संकोच नहीं करता पर यह बात भी तहकीकात करने वाली होगी कि क्या वह अपने अंतरिक्ष यानों को नक्षत्रों की शुभ घड़ी में भेजता है या नहीं। क्योंकि ज्योतिषियों का कहना है कि शनिवार को पड़ी मौनी अमावस्या को इतना बड़ा प्रयोग नहीं करना चाहिये। कोलम्बिया के पृथ्वी पर लौटने की घड़ी इतवार या सोमवार को रखी जा सकती थी।
इस मुद्दे पर विवाद हो सकता है। लोग अविश्वास भी कर सकते हैं। नास्तिक लोग इसे अंधविश्वास और मूर्खतापूर्ण बात भी कह सकते हैं। पर यह तथ्य भी रोचक है कि किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली में यदि अकाल मृत्यु का योग होता है तो ज्योतिष बड़े विश्वास के साथ ऐसा बता देते हैं। यह बात दूसरी है कि वे उसे सम्बन्धित व्यक्ति को न बतायें और उसके शुभचिंतकों तक ही यह सूचना सीमित रहे। ऐसे अनेक ज्योतिष देश में आज भी मौजूद हैं जो घटनाओं की काफी हद तक सही गणना कर लेते हैं। जब तमाम किस्म की वैदिक ज्ञान धाराओं को अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय के सामने क्रमशः मान्यता मिलती जा रही है तो इसमे क्या हर्ज है अगर ज्योतिष के सही ज्ञान और पूर्वानुमानों की सहायता इस किस्म के महंगे और बड़े प्रयोगों के पहले ली जाए। यह भी सही है कि अक्सर ज्योतिष के नाम पर ढोंगी ही सामने आते हैं। पर यह बात तो विज्ञान के जगत में भी खूब प्रचलित है कि शोध करने वाले असली वैज्ञानिक अपनी मेहनत का फल नहीं पाते। उनके शोध पर चालू किस्म के प्रभावशाली और मशहूर वैज्ञानिक अपना दावा पेश करके ख्याति अर्जित कर लेते हैं। पर जिसे खरे ज्ञान की तलाश है वह खरे ज्योतिष भी तलाश ही लेगा। अरबों खरबों रुपये शोध पर खर्च करने वाला नासा निश्चय ही इस तरह की खोज करने में सक्षम हो सकता है। 

कल्पना चावला की मौत हो या दुनिया के किसी और हिस्से में कोई हृदय विदारक घटना या कोई आनंद उत्सव, टेलीविजन की मार्फत उसकी सजीव रिपोर्ट कुछ मिनटों में दुनिया के हर कोने में पहंुच जाती है। यही कारण है कि जब कभी ऐसी घटना होती है तो सारी दुनिया टीवी के आगे जमकर बैठ जाती है और हर क्षण की रिपोर्टिंग को दिल थामकर देखती है। कल्पना चावला के मामले में भी यही हुआ। जिस उत्सुकता और आशा भरे उत्साह के साथ कल्पना की पृथ्वी पर वापसी का इंतजार हो रहा था उन्हीं क्षणों के बीच जब अचानक कोलम्बिया का धमाका हुआ तो सारी दुनिया स्तब्ध रह गयी। हम टेलीविजन के त्वरित विकास और प्रसार से हतप्रभ हैं। समाज पर इसके पड़ रहे कुप्रभावों के प्रति चिंतित भी हैं। पर ऐसी घटनायें टीवी की सार्थकता भी सिद्ध कर देती हैं। इसलिये इसके व्यापक और गहरे प्रभाव को ध्यान में रखते हुए यदि इस माध्यम का सकारात्मक उपयोग किया जाए तो दुनिया कुछ की कुछ बन सकती है। तकलीफ सिर्फ इस बात की है कि कल्पना चावला जैसी दुर्घटना दिखाने वाले या ज्ञान देने वाले नेशनल ज्योग्राॅफिक जैसे टीवी चैनल तो कम ही हैं, अधिकतर समय टीवी चैनलों पर समाज के लिये निरर्थक माल परोसा जाता है। वह चाहे वस्तुओं के रूप में हो या जीवन पद्धति के रूप में। वैश्वीकरण के इस दौर को अब लगता नहीं कि रोका जा सकता हैै। पूरी दुनिया एक होती जा रही है। कम से कम साधन सम्पन्न लोगों के लिये तो यह बात सत्य सिद्ध हो रही है। यही वो लोग हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में कुछ नया करने की पहल कर सकते हैं। क्योंकि इनकी जिदंगी चूल्हे के चक्कर में बरबाद नहीं होती। पर इन्हीं लोगों को लक्ष्य बनाकर टीवी चैनल केवल बाजार संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। उसकी जगह अगर जीवन मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं को बढ़ाने वाले कार्यक्रमों का पैकेजिंग किया जाए तो हो सकता है कि राजा भैया की जगह कल्पना चावला को आदर्श मानने वाले युवाओं की तादाद तेजी से बढे़।

दुनिया के दूसरे देशों से प्रसारित होने वाले टीवी कार्यक्रमों में इस बात की चिंता हो या न हो, भारत के टीवी चैनलों को तो यह सोचना ही चाहिये। पिछले कुछ वर्षों में जिस तेजी से भारत में टीवी चैनलों का विस्तार हुआ है उतनी ही तेजी से इन चैनलों पर आने वाले कार्यक्रमों की गुणवत्ता गिरी है। कितने टीवी कार्यक्रम हैं जो देश में युवाओं को भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था से लड़ने के लिये प्रेरित कर रहे हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जिनसे लोकतांत्रिक शक्तियां प्रबल हो रही हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जिनसे समाज में जन सहयोग और नागरिक संगठनों की वृद्धि हो रही है ? कितने टीवी चैनल हैं जो समाज और राजनीति के दुर्दान्त अपराधियों को ब्लैक आउट कर रहे हैं ? या उनके प्रति घृणा पैदा कर रहे हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जो चरित्रवान  और नैतिक मूल्यों के पक्षधर समाज के विभिन्न क्षेत्र के लोगों को महिमा मंडित कर रहे हैं ? क्या यह सही नहीं है कि टीवी न्यूज चैनलों पर सत्ता की दलाली करने वाले वे लोग, जिनके दोहरे जीवन से सब वाकिफ हैं, ही प्रमुखता से छाये रहते हैं ? यही कारण है कि समाज में बिना श्रम, बिना त्याग और बिना पुरुषार्थ के धन कमाने वालों की होड़ लगती जा रही है।  राजा भैया तो एक प्रतीक है। पर देश के हर प्रांत में ऐसे कितने ही राजा भैया हैं जिन्हें राजनीति में सफलता सिर्फ इसलिये मिल रही है कि मीडिया उनके चरित्र का खंडन नहीं बल्कि महिमा मंडन कर रहा है। कल्पना चावला जैसी वीरांगनायें लगातार समाचारों में बनी रहें अपनी शहादत देकर नहीं बल्कि अपनी प्रभावशाली उपलब्धियों के कारण और हर राजनैतिक दल को पल्लवित और पोषित करने वाले अपराधी समाज की हिकारत का शिकार बने इसी में संचार माध्यमों की सार्थकता है, अन्यथा नहीं। शहादत केवल जान देकर ही नहीं की जाती, कभी कभी जीवन में तकलीफें उठाकर भी सुख सम्पत्ति पाने के अनैतिक प्रस्तावों को ठुकराने वाले भी अपने जीवन में जिंदा ही शहीद हो जाते हैं। देश में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका जीवन कल्पना की ही तरह युवाओं में नये रक्त का संचार कर सकता है बशर्ते कि हमारा मीडिया उन्हें उनका उचित स्थान दे।