Friday, January 30, 2004

अपना एजेण्डा क्यों छोड़ रही है बीजेपी


बीजेपी के नेताओं को ये गलतफहमी है कि उनका वोट बैंक भाजपा की धर्मनिरपेक्ष छवि देखना चाहता है। उन्हें शायद ये भी गलतफहमी है कि हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में उन्हें जो कामयाबी मिली, वो विकास के मुद्दे पर मिली। सच्चाई ये है कि भाजपा की आज भी हिन्दूवादी छवि है और उसका जो भी वोटबैंक है, वो उसकी इसी छवि के कारण है। इसलिए भाजपा को अपनी इस छवि से भागना नहीं चाहिए। इसलिए भी कि राजनीति की तमाम मजबूरियों के कारण भाजपा का हिन्दूवाद प्रदूषित भले ही हो गया हो, पर इसमें संदेह नहीं कि भारत की वैदिक संस्कृति ही भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश की तमाम समस्याओं का हल है। आवश्यकता उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझकर उसके सार्थक सदुपयोग की है। 

पिछले दिनों भारत आए अनेकों प्रवासी भारतीयों ने बताया कि यूरोप और अमरीका में अब गाय के गोबर की खाद में उपजे फल, सब्जी, अनाज की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। पर उनका मूल्य रासायनिक खाद से उपजे फल, सब्जी और अनाज के मूल्य से दस गुना ज्यादा होता है। फिर भी समझदार लोग गोबर की खाद में उपजे पदार्थ ही खाना पसंद कर रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका की राजधानी वाॅशिंगटन में दूध भी अब आॅर्गनिक मिलने लगा है। आॅर्गनिक दूध यानी उन गायों का दूध जिन्हें गोबर की खाद से उपजा चारा खिलाया जाता है। रासायनिक खाद और कीटनाशक से उपजा चारा उन्हें नहीं खिलाया जाता। अपनी पिछली यूरोप, अमेरिका यात्रा के दौरान मैं भी कुछ आॅर्गनिक उत्पादनों की दुकानों में गया था। यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि वहां गोबर की खाद से उपजे खाद्यान्नों से निर्मित डबलरोटी, बिस्कुट आदि बिक रहे थे, लेकिन जब उनके दाम देखे, तो खरीदने की हिम्मत नहीं पड़ी और उस दुकान में रखे ऐसे विभिन्न उत्पादनों को देखकर ही संतोष कर लिया। पर मन में यह बात जरूर आई कि हमारा कितना दुर्भाग्य है कि जिस कृषि प्रणाली को हम हजारों साल से अपनाते आए थे, उसे पश्चिमीकरण की मार ने पिछले पचास वर्षों में किस बुरी तरह से नष्ट कर दिया है। आज रासायनिक खादों से पैदा अनाज, फल और सब्जियां आकर्षक तो बहुत दिखते हैं, पर स्वाद और तत्व में शून्य हैं। इतना ही नहीं शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को ऐसे खाद्यान्नों ने तेजी से घटाया है और अनेक किस्म की खतरनाक बीमारियों को बढ़ाया है। पर हम ऐेसे मूर्ख हैं कि आज भी जागे नहीं हैं। दोहराने की जरूरत नहीं है कि भारतीय वैदिक ज्ञान को किस गंभीरता से अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड और जापान जैसे देशों में पढ़ा और समझा जा रहा है और फिर उस ज्ञान पर आधारित उत्पादनों को रंग-बिरंगे पैकिंग में दस-बीस गुने दाम पर दुनिया के बाजारों में बेचा जा रहा है। यह हमारी बौद्धिक संपदा की खुली लूट का जीता-जागता उदाहरण है। खाद्यान्न ही क्यों, हठ योग और ध्यान के वैज्ञानिक प्रभावों को दुनिया में अब कोई भी चुनौती नहीं देता। चुनौती देना तो दूर अमेरिका की हर गली में योग सिखाने वालों की दुकानें खुली हुई हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हमारे वैज्ञानिकों और नीति निर्धारकों ने आजादी के बाद भी भारत की इस बौद्धिक विरासत को इसका अपेक्षित स्थान नहीं लेने दिया और पूरे देश पर आधुनिकता और वैज्ञानिकता के नाम पर ऐसा विकास माॅडल थोप दिया, जिससे आम आदमी अपनी जड़ों से कटता चला गया और बाजारी शक्तियों के शिकंजे में कसता चला गया। 

ऐसे माहौल में जब भाजपा ने हिन्दूवाद का झंडा उठाया तो उन सब लोगों को उम्मीद जगी जिन्हें अपनी बौद्धिक विरासत पर विश्वास था और जो उसे पुनः पल्लवित होते देखना चाहते थे। यूं तो महात्मा गांधी की विचारधारा पर इस बौद्धिक विरासत का पूरा का पूरा असर था, पर उनकी रणनीति सौहार्द और समन्वय की थी। इसलिए जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई दशकों तक उन पर निशाना साधा और उन्हें अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के लिए जिम्मेदार ठहराया। जबकि खुद संघ, विहिप और भाजपा ने आक्रामक हिन्दूवाद का तेवर ही अपनाए रखे। उसके इस तेवर से जहां हिन्दू नवजागरण हुआ, वहीं साम्प्रदायिक वैमनस्य भी बढ़ा। इससे भाजपा को अपना वोट बैंक एकजुट करने में मदद मिली। जहां विपक्षी दलों ने धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर भाजपा को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की वहीं भाजपा भी रामजन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और कश्मीर को विशेष दर्जा न दिए जाने जैसी अपनी मांगों पर अड़ी रही। भाजपा की उत्तरोत्तर प्रगति के पीछे बहुसंख्यक हिन्दू समाज का आक्रोश है। यह आक्रोश इसीलिए बढ़ा कि धर्मनिरपेक्षतावादी मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी नीति छोड़ने को तैयार नहीं थे। गुजरात में भी भाजपा की विजय आक्रामक हिन्दूवाद के कारण ही हुई। लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की विजय ने उसे भ्रमित कर दिया। भाजपा को लगता है कि इन राज्यों में उसकी विजय उसकी आर्थिक नीतियों के कारण हुई है। जबकि सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के कारण जोगी की हार हुई। मध्य प्रदेश में सरकार विरोधी जनमानस ने भाजपा को गद्दी पर बिठाया और राजस्थान में नौकरशाही ने गहलौत को हराने में प्रमुख भूमिका निभाई। इसलिए ये विजय भाजपा की नीतियों की विजय नहीं, बल्कि मतदाता की मजबूरी का परिणाम है। भाजपा का मूल चरित्र हिन्दूवादी है और रहेगा। इसमें शर्माने की कोई बात नहीं। सत्ता के लालच में अपने स्वरूप को बदल-बदलकर पेश करने से भाजपा नेतृत्व की गरिमा कम होती है। अपने सिद्धांतों में आस्था रखना और उन पर टिके रहने वाला ही लौह पुरुष कहलाता है। ये सही है कि भाजपा और संघ ने हिन्दूवाद के नाम पर तमाम तरह की नई बातें थोप दी हैं, जिनका कोई वैदिक आधार नहीं है और इसीलिए इन संगठनों में प्रदूषण फैल गया है। अगर ये संगठन वैदिक संस्कृति पर आधारित शुद्ध सनातन धर्म को ईमानदारी से अपनाएं तो इनकी सफलता को कोई रोक नहीं पाएगा। क्योंकि तब ये जो बोलेंगे और करेंगे, वो भारत की आत्मा की आवाज होगी। उस आवाज में आध्यात्मिक बल होगा और सहस्त्राब्दियों के अनुभव का गांभीर्य। ये सही है कि राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता। यह भी सही है कि आज के समय में सत्ता हथियाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं पर जितना ये सही है उतना ये भी सही है कि दुनिया का कोई भी तूफान भारतीय संस्कृति की जड़ों को नहीं उखाड़ पाया। वैदिक शक्ति उस आणविक शक्ति की तरह है जो कुछ शताब्दियों के लिए अगर आंखों से ओझल भी हो जाती है तो फिर एक परमाणु विस्फोट की तरह भूमंडल पर छा जाती है। पिछली सदी विज्ञान और तकनीकी के विकास और उनकी उपलब्धियों से उत्साहित समाज की सदी थी। पर ये सदी उस थोथी वैज्ञानिकता के दुष्परिणामों से निकलने की छटपटाहट में शाश्वत सत्य को खोजने की सदी होगी। शाश्वत सत्य यदि कही है तो वह भारत के वैदिक ज्ञान में है। इसे मूर्ख लोग हर तरह से नीचा दिखाने या दबाने का प्रयास करते हैं। पर बहुत दिनों तक ऐसा नहीं कर पाते। अपनी इस धरोहर की ताकत में विश्वास न रखकर चुनावी नारे अपनाने से और आधारहीन गठजोड़ करने से भाजपा बहुत दूर तक नहीं जा पाएगी। उसे कुछ समय के लिए सत्ता सुख की प्राप्ति भले ही हो जाए, पर वह अपनी पहचान खो देगी। पहचान ही नहीं खो देगी, करोड़ों समर्पित लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहंुचाएगी। भाजपा के शासनकाल में तमाम दावों के बावजूद ऐसी कोई आर्थिक उपलब्धि नहीं हुई, जिसने भारत में आधारभूत ढांचे को मजबूत किया हो या अर्थव्यवस्था को स्थायी ताकत दी हो। फील गुड फैक्टरके नाम पर जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह केवल सतह पर है। जबकि भाजपा के शासनकाल में बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाएं बार-बार आहत हुई हैं। अब उन्हें भाजपा की नीयत पर संदेह होने लगा है। फिर भी वे भाजपा को वोट इसलिए देते हैं कि उनके मन में ये डर बैठा है कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति के समर्थक विपक्षी दल यदि सत्ता में आ गए, तो फिर से बौद्धिक विरासत को ससम्मान आगे बढ़ाने का काम रुक जाएगा। इसलिए वे मजबूर हैं। पर उनकी इस मजबूरी का भाजपा नेतृत्व को दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। बल्कि उन्हें ये विश्वास दिलाना चाहिए कि भाजपा अपने मुद्दों पर अटल है और उसके हिन्दूवाद में जो प्रदूषण आ गया है, उसे वह दूर करने को तैयार है। यदि भाजपा नेतृत्व ऐसा नैतिक साहस कर पाए तो उसका जनाधार घटेगा नहीं, बढ़ेगा ही। पर इसके लिए उसे अपनी मौजूदा समझ को बदलना होगा। वरना सत्ता उसे मिल भी जाए, पर जनता का प्यार नहीं मिल पाएगा और यह उसकी ऐतिहासिक भूल होगी।

Saturday, January 24, 2004

केवल भाजपा के विरोध से ही नहीं बनेगी बात


आजकल चुनाव पूर्व गठबंधन का दौर है। श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर श्री लालू यादव तक और श्री शरद पवार से लेकर सुश्री मायावती तक धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट होने की अपील कर रहे हैं। श्रीमती गांधी ने पत्रकारों से बात करते हुए कई बार ये कहा है कि हम हर उस दल से बात करेंगे जो भाजपा का विरोध करता हो। अन्य कई नेता भी ऐसी ही भाषा बोल रहे हैं जिसका सार ये है कि भाजपा को हराने के लिए सब एकजुट हो जाएं। ये बड़ी गलत सोच है। इसके खतरनाक अर्थ निकाले जा सकते हैं। पहला तो ये कि भाजपा एक शक्तिशाली दल है, जिससे जूझने की ताकत अब किसी एक दल में नहीं बची। इसलिए छोटे-छोटे दल मिलकर उससे साझा मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। इसका दूसरा अर्थ ये निकलता है कि भाजपा हिन्दुओं की धर्म रक्षक पार्टी है और जो दल अल्पसंख्यकों आदि के हितैषी हैं, उन्हें एकजुट हो जाना चाहिए। तीसरा अर्थ ये भी निकलता है कि जनता को क्या मिलेगा, ये प्रश्न इन दलों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, केवल भाजपा को हराना ही एकमात्र ध्येय है। जिस देश की जनता तुलसीदास जी की इस चैपाई से प्रेरणा लेती रही हो कि कोई नृप हो हमें का हानिवो यह सोच सकती है कि भाजपा के हराने या दर्जनों दलों के गठबंधन को जिताने में उसे क्या लाभ? इसलिए ये सोच गलत है। 

पहली बात तो यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि भाजपा हिंदुओं की रक्षक पार्टी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रशिक्षण पाकर भी भाजपा में गए नेताओ ंने जितना धर्म विरुद्ध आचरण किया है, उतना तो कभी इंकाई नेताओं ने भी नहीं किया। इसके तमाम उदाहरण हैं, जिनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं। जिस तरह कोई भी दल किसी भी विचारधारा को पकड़कर उसका राजनैतिक दोहन करता है और उस विचारधारा के मूल सिद्धांतों की अर्थी निकालने में संकोच नहीं करता, उसी तरह भाजपा भी हिंदू धर्म का दोहन करने वाला एक दल है, जबकि इसके कारनामे ऐसे रहे हैं जिन्होंने हिन्दू समाज का अहित ज्यादा किया है और हित कम। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि हैदराबाद में अल कबीर के कसाईखाने के खिलाफ चल रहे जनांदोलन को विहिप ने किस तरह धोखा दिया। राम जन्मभूमि के नाम पर हर बार चुनावी रोटी सेंकने वाली भाजपा ने बरसों उत्तर प्रदेश पर राज किया, पर इनके राज में मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या या ऐसे दूसरे धर्म क्षेत्रों का जैसा विनाश हुआ, वैसा पिछले कई सौ वर्षों में नहीं हुआ। अभी चुनाव तक बहुत मौके आएंगे, जब इन विषयों पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है। मौजूदा संदर्भ में इतना ही काफी है कि बार-बार भाजपा को धर्मान्ध या हिन्दूवादी पार्टी बताकर विपक्षी दल भाजपा का बहुत बड़ा फायदा करते हैं। हिन्दुओं के लिए बिना कुछ ठोस किए ही भाजपा उन्हें बरगलाने में सफल हो जाती है और उनकी सहानुभूति बटोर लेती है। जैसा गुजरात में हुआ। अगर भाजपा में वास्तव में राम जन्मभूमि या हिन्दू धर्म से जुड़े सवालों के प्रति ईमानदारी थी, तो पिछले लोकसभा चुनाव या हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में उसने इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाया। जिस तरह दूसरे दल हर चुनाव के लिए कोई नया मुद्दा तलाशते हैं, वैसे ही भाजपा भी चुनाव के माहौल के अनुरूप मुद्दे बदलती रहती है। आज तक हिन्दुओं के नाम पर वोट मांगने वाली भाजपा अब अचानक विकास के नाम पर वोट मांगने लगी है। फील गुडका एक झूठा मायाजाल खड़ा करके लोगों को गुमराह करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। ऐसे में विपक्षी दलों  का बार-बार यह कहना कि वे धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करना चाहते हैं, बड़ा हास्यास्पद और निरर्थक सा लगता है। 

हास्यास्पद इसलिए कि इस देश की बहुसंख्यक जनता धर्मनिरपेक्ष ही है। इसके लिए उसे किसी दल या किसी वाद के ठप्पे की जरूरत नहीं। अगर विपक्षी दलों का चरित्र वाकई धर्मनिरपेक्ष है तो उन्हें इसका ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं। लोग खुद ब खुद ये फैसला कर लेंगे। निरर्थक इसलिए कि धर्मान्धता या धर्मनिरपेक्षता फिलहाल कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा तो वही है जो आज से दो दशक पहले भी था, पिछले चुनाव में भी था और जब तक देश की आर्थिक तरक्की नहीं हो जाती, तब तक रहेगा। वह मुद्दा है आम आदमी की बदहाली का। गांव ही नहीं, शहर की भी आधी आबादी बहुत विषम परिस्थितियों में जी रही है। महंगाई और साधनों के अविवेकपूर्ण वितरण ने इस देश की बहुसंख्यक आबादी को बहुत नाराज कर रखा है। अपना गुस्सा वे सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ वोट देकर उतारती रहती है। उसका दुर्भाग्य ये है कि जो दल सत्ता में आता है, वो भी कुछ नहीं कर पाता। इस लोकसभा चुनाव में फील गुडका दावा करने वाली भाजपा की सही परीक्षा तो तब होगी, जब देश की आम जनता उसके शासन के तरीके पर अपनी स्वीकृति की मुहर फिर से लगा दे। अगर विपक्षी दल चाहते हैं कि ऐसा न हो और मानते भी हैं कि जनता केंद्र शासन के विरुद्ध मतदान करेगी तो उन्हें धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने के बजाए जनता के बुनियादी सवालों को उठाना चाहिए। सिर्फ उठाना ही नहीं चाहिए बल्कि उनके समाधान के ठोस विकल्प जनता के सामने रखने चाहिए।

आज देहातों और कसबों में सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। इस चुनाव में सबसे ज्यादा वोट युवा वर्ग के होंगे। ये युवा वर्ग चाहे शिक्षित हों या अर्द्धशिक्षित या अशिक्षित, हर स्थिति में बेरोजगारी की भारी मार झेल रहा है। किसी आशा की किरण दिखाई न देने की हालत में ये अपराध करने को प्रेरित हो रहा है। ये भयावह स्थिति है। विपक्षी दलों को चाहिए कि जोड-तोड़ में समय लगाने के अलावा साथ बैठकर गंभीर चिंतन करें कि देहातों की बेरोजगारी दूर करने के ठोस और त्वरित उपाय क्या हो सकते हैं। ऐसे विशेषज्ञों की सलाह लें जिनके पास इस समस्या के संभावित समाधान उपलब्ध हैं। फिर अपना मन टटोलें कि क्या वाकई इन समाधानों को लागू कर पाएंगे? क्या उनमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दबावों के विरुद्ध खड़े होने की शक्ति है? क्या वे ईमानदारी से ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करना चाहते हैं? अगर उनकी अंतरात्मा से सकारात्मक उत्तर आएं तो उन्हें अपनी चुनाव सभाओं और प्रचार माध्यमों में इस बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए। युवा वर्ग को जहां रास्ता दिखाई देगा वो स्वतः ही उधर आकर्षित हो जाएगा। सपने दिखाने में माहिर भाजपा तो ऐसे शगूफे छोड़ने में जुटी ही है। चुनाव के पहले ऐसी तमाम लाॅलिपाॅप बांटी जाएंगी, जो मतदाता को दिग्भ्रिमित कर दें। बेरोजगारों को भी रोजगार दिलाने के तमाम वायदे किए जाएंगे। विपक्षी दलों की जिम्मेदारी है कि वो ऐसे लुभावने मायाजाल की असलियत को देशवासियों के सामने रखें। इसी तरह आम जनता से जुड़े दूसरे सवालों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। केवल वायदों से नहीं बल्कि शारीरिक भंगिमाओं, वाणी और मन की तरंगों से यह संदेश मिलना चाहिए कि विपक्ष बेहतर और जनउपयोगी सरकार देने में सक्षम है। अगर ऐसा संदेश विपक्ष दे पाता है तो उसे भाजपा के फील गुडसे घबराने की कोई जरूरत नहीं होगी। लोग असलियत जानकर ही मतदान करेंगे। पर अगर विपक्ष केवल आम जनता के दुख दर्द का घडि़याली रोना रोकर उसके वोट बटोरना चाहता है और येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाना चाहता है तो जनता का फैसला बहुत अप्रत्याशित हो सकता है। हो सकता है जनता ये तय करे कि बेहतर विकल्प के अभाव में मौजूदा सरकार ही क्या बुरी है। या ये तय करे कि किसी भी एक दल को इतना मजबूत मत होने दो कि वो देश पर हावी हो जाए। छोटे-छोटे दलों की छोटी-छोटी सफलताओं से एक ऐसी खिचड़ी सरकार बने जिसमें हर दल हर समय असुरक्षित महसूस करता रहे। ऐसी सरकार भी क्या कोई सरकार होती है? पर इसकी संभावना भी पूरी है। इसलिए समय गठबंधन की जोड़-तोड़ में ऊर्जा लगाने से ज्यादा अपनी सोच, वाणी और आयुधों को पैना करने का है। जिसका रण कौशल बेहतर होगा, वही चुनावी वैतरणी पार करेगा।

Friday, January 16, 2004

पर देहाती भारत कैसे माने ‘फील-गुड’ ?


भाजपा और उसके उत्साही महासचिव प्रमोद महाजन ताल ठोक कर कह रहे हैं कि उनकी सरकार के चलते देश में फील-गुडका माहौल है लोग संतुष्ट हैं और भविष्य में आगे बढ़ने के हौसले बुलंद हैं। टीवी पर राजग सहयोग दलों के नेता अतिउत्साह और आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ विपक्ष के नेताओं के चेहरे पर चिंता साफ दिख रही है। भाजपा ये दावा कर रही है कि उसने जो पांच साल में कर दिखाया वह पिछले 50 साल में नहीं हुआ। हर राजनैतिक दल को अपनी उपलब्धियों का बढ़-चढ़ कर दावा करने का हक है। सभी करते हैं तो भाजपा क्यों न करें। पर फील गुडबड़े शहरों में तो जरूर आया है लेकिन देहातों की हकीकत क्या है ये भी जानने की जरूरत है। शहरी लोग तो अपनी बात टीवी पर कह देते हैं। पर देहात वालों को या उनके सही नुमाइंदों को टीवी चैनलों पर बुलाकर उनकी सुनी नहीं जाती या दिलखोलकर कहने नहीं दिया जाता तो इसका मतलब ये तो नहीं कि उनकी कोई हैसियत ही नहीं।

प्रवासी दिवस के समापन समारोह में बोलते हुए कई प्रवासी भारतीयों ने यह कहा कि, ‘ये फील-गुडकेवल दिल्ली, मुंबई और बैंग्लोर तक सीमित है। देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर बसे दादरी बाॅर्डर पर जाते ही एक दूसरा ही भारत नजर आता है।इन प्रवासियों ने भी भारत सरकार को चुनौती दी कि जब तक देश के देहातों में फील-गुडकी भावना नहीं पहुंचती तब तक ये बातें केवल स्टंटबाजी से ज्यादा कुछ मायने नहीं रखती। दरअसल, यह सब मीडिया मैनेजमेंट का खेल है। टीवी पर खाए-पिए, सुविधाभोगी, सत्ता के चाटुकारों को बिठा कर अगर देश की परिस्थिति का मूल्यांकन करवाया जाएगा तो सबको फील-गुडही लगेगा। सरकारी पैसे पर पांचसितारा होटलों में गोष्ठियों के नाम पर मुर्गे और दारू उड़ाने वाले और सरकारी खर्चे पर विदेश घूमने वालों को तो देश में हमेशा ही फील-गुडलगता है। चाहे कोई दल सत्ता में हो ऐसे चारण और भाट हमेशा यही करते हैं। अगर वाकई भाजपा का यह दावा सही है कि उसने पांच साल में ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की है तो इसका मूल्यांकन हिंदुस्तान के देहातों में करना होगा। जहां 70 फीसदी भारत बसता है।

टीवी कैमरा लेकर हिंदुस्तान के किसी भी देहात में चले जाइए खासकर उन प्रांतों में जहां भाजपा की सरकार है या रही है और गांव वालों से पूछिए कि पिछले पांच साल में उनके गांव में कितनी तरक्की हुई है ? क्या नई सड़कें बनी है ? क्या बिजली की आपूर्ति बढ़ी ? क्या गांव के स्कूलों में पढ़ाई का इंतजाम हुआ? क्या प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र में डाक्टर या दवा मिलते हैं ? क्या पुलिस गांव के अपराधियों को काबू में कर पाई है ? क्या गांव के सौ-पचास बेरोजगार नौजवानों को नौकरी मिली ? क्या लोगों की आमदनी पिछले पांच वर्षों में बढ़ी ? इनमें से अगर आधे सवालों का जवाब भी हां में हो तो मानना चाहिए कि वास्तव में भाजपा के शासनकाल में तरक्की हुई और तब फील-गुडमानने का पर्याप्त आधार होगा।

ये मानना पड़ेगा कि अन्य नेताओं के मुकाबले भाजपाई अभिनय करने में ज्यादा सक्षम हैं। मार्केटिंग की ट्रेनिंग देने वाले संस्थानों में ये सिखाया जाता है कि जब तुम किसी प्रोड्क्ट का सेल्स प्रमोशन करने जाओ तो तुम्हारे कपड़े चुस्त-दुरूस्त और आकर्षक होने चाहिए। चेहरे पर बनावटी ही सही पर ताजगी झलकनी चाहिए। आंखों में चमक होनी चाहिए। बात करते वक्त सामने वालों की निगाह में झांक कर आत्मविश्वास से देखना चाहिए। प्रस्तुति करते समय चेहरे पर मनमोहक मुस्कान होनी चाहिए और बदन से किसी विदेशी इत्र की खुशबू आनी चाहिए। जो सेल्समैन ऐसा करते हैं वो आधी लड़ाई तो कमरे में घुसते ही जीत लेते हैं। भाजपा ने मार्केटिंग के इस फार्मूले को अच्छी तरह समझ लिया है। इसलिए उसने पहले दिन से ही यह जताने की कोशिश की कि अब भाजपा हिन्दू धर्म के पोंगापंथी नियमों में बंध कर चलने वाली पार्टी नहीं बल्कि नई सदी की नई पार्टी है। इसके लिए सबसे पहले तो अपने नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी का ही कायाकल्प किया गया। उन्हें तरह-तरह के नए फैशन के डिजाइनर सूट पहनाए गए। चश्मा भी विदेशी चमक वाला और अमरीकी राष्ट्रपति की नकल पर सात रेसकोर्स में कमरे से बाहर निकल कर बयान देने का स्टाइल भी बिलकुल नया कर दिया गया। कहां अंग वस्त्रम और धोती कुर्ता धारण करने वाले कवि हृदय वाजपेयी जी और कहा उनका ये माॅर्डन रूप। पर देश की जनता के हृदय पर अगर काबिज होना है तो ये हथकंडे तो अपनाने ही पड़ते हैं। इसमें शक नहीं कि वाजपेयी जी इस वक्त अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। अकेले वाजपेयी जी ही क्यों जयश्री राम के उदघोषसे सत्ता की ओर बढ़ने वाली भाजपा के ज्यादातर नेता अब सूट-टाई में नजर आते हैं। वे भी जिनकी प्राथमिक शिक्षा संघ की शाखाओं में हुई। ये छवि बनाने का एक उदाहारण है। जिसमें भाजपा सफल नहीं है। दूसरा काम जो भाजपा ने किया वो ये कि एक-एक करके लगभग सभी टीवी चैनलों पर अपने आदमी फिट कर दिए, जो समाचारों और कार्यक्रमों पर इस तरह नियंत्रण रखे हुए हैं जिससे भाजपा की छवि बनाने और विपक्ष की छवि ध्वस्त करने का काम बड़ी सफाई से हो रहा है। इतना ही नहीं बड़ी तादाद में भाजपा ने सभी प्रमुख पत्रकारों को इलेक्ट्रांनिक मीडिया में काम या ठेके दिलवाकर धंधे से लगा दिया है ताकि उसकी असलियत पर बेबाक रिपोर्ट लिखने वाले बचें ही न। जिन बातों के लिए भाजपा और उसके छिपे प्रवक्ता रहे कुछ नामी पत्रकार राजीव गांधी पर आए दिन हमला करते थे वो सब बातें, वो मौजमस्तियां, वो सैर सपाटे, वो उत्सवों के नाटक, भाजपा के शासन काल में राजीव गांधी के जमाने से कहीं ज्यादा बड़ी तादाद में हुए हैं, पर अब कोई विरोध नहीं करता। 

जहां तक आर्थिक मोर्चे पर सफलता और भारी विदेशी मुद्रा संग्रह के दावे किए जा रहा हैं। तो यह नहीं भूलना चाहिए कि इसमें भाजपा की उपलब्धि कम और अमरीका व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का खेल ज्यादा है। वित्तीय जानकार बताते हैं कि जिस तरह इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और बैंकों ने भारत में आर्थिक सुदृढ़ता का माहौल दिखाने की कोशिश की है उसमें एक बहुत बड़ा खतरा अंतरनिहित हैं और वह ये कि इस सारे तंत्र का नियंत्रण अब भारत के हाथ से निकल कर उनके हाथ में चला गया है और वो जब चाहे भारत को झटका दे सकते हैं। आर्थिक रूप से ब्लैकमेल कर सकते हैं। पर यह भी सही है कि पिछले तीन वर्षों में भारत के बाजारों में रौनक लौट आई है। जिसका श्रेय वित्तमंत्री जसवंत सिंह और प्रधानमंत्री को देना होगा। कई बार केवल माहौल अच्छा बन जाने से उद्ययमियों में उत्साह आ जाता है और वे जोखिम उठाने को तैयार हो जाते हैं जो एक अच्छी बात है। शायद इसीलिए प्रवासी भारतीयों ने भी भारत सरकार को चेतावनी दी कि भारत के गांवों की अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ किए बिना भारत में फील गुडका कोई मतलब नहीं रह जाता। 

जहां तक पाकिस्तान के मोर्चे पर ऐतिहासिक सफलता का दावा किया जा रहा है वहां भी कोई ठोस उपलब्धि नहीं है। अपनी जान पर मंडराते खतरे को देखकर और अमरीकी दबाव के चलते अगर जनरल परवेज मुशर्रफ आज बदले-बदले से नजर आते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि भारत में आतंकवाद और कश्मीर समस्या का हल ढूंढ लिया। जिनके खून में जेहाद की घुट्टी पिला दी गई हो वो मुशर्रफ के नियंत्रण में आने वाले नहीं हैं। इसीलिए भाजपा इस तथाकथित कामयाबी का ढिंढोरा पीटकर इसे जल्दी भुना लेना चाहती है। कहीं ऐसा न हो कि आतंकवादी और पाकिस्तानी फिर कुछ ऐसा कर बैठे कि लाहौर और आगरा की तरह टाॅय-टाॅय फिस हो जाए। वैसे भाजपा का भी जवाब नहीं। एक चुनाव कारगिल में सैकड़ों नौजवानों को शहीद करके और पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का माहौल बना कर जीत लिया तो दूसरा चुनाव पाकिस्तान से गले मिलने का नाटक करके जीतने की तैयारी है। पर इसमें भाजपा का क्या दोष ? जब विपक्ष बिखरा है, कोई साझी समझ नहीं है। निहित स्वार्थ और अहम ने विपक्ष को दर्जनों दलों में बांट दिया है। जनहित की चिंता किसी को नहीं है। तो फिर भाजपा फील गुडक्यों न माने। अपने विरोधियों की कमजोरी का फायदा उठाकर और अपनी कमजोरी को छिपा कर तथा उपलब्धियों को भुना कर ही तो लोकतंत्र में चुनाव जीते जाते हैं। कांग्रेस भी ऐसी करती आयी थी। दूसरे दल भी यही करते हैं और अब भाजपा ने भी वहीं सब सीख लिया और इसलिए सत्ता पर काबिज है और विपक्ष का यही आलम रहा तो शायद अगले पांच साल भी भाजपा-राजग सत्ता पर काबिज रहेंगे और फील गुडके मूड में रहेंगे। जनता गुड फीलकरे या बैड फीलकरे इसकी चिंता न तो भाजपा को है और नाही विपक्ष को।

Friday, December 19, 2003

जूदेव और जोगी कांड में खामियां


प्रधानमंत्री ने संसद में ठीक ही कहा कि दिलीप सिंह जूदेव के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता। इसलिए सीबीआई केस दर्ज नहीं कर रही है। यह ठीक इसलिए है कि जिस धमाके के साथ जूदेव कांड की वीसीडी जारी हुई थी, उतने ही सन्नाटे में खो गई इस कांड को उजागर करने वालों की पहचान। अंगे्रजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को छापा था। चुनावी माहौल में इससे खलबली मचना स्वाभाविक ही था। भाजपा को लगा कि छत्तीसगढ़ हाथ से गया। पर, चुनावी नतीजों ने जूदेव की मूंछ तो बचा ही ली, साथ ही भाजपा को भी आक्रामक बना दिया। ऐसा न भी होता तो भी जूदेव कांड कई सवाल खड़़े करता है। मीडिया और राजनीति से सरोकार रखने वाले सभी लोग जानते हैं कि भारत में छिपे कैमरे से खोजी पत्रकारिता की शुरुआत आज से चैदह वर्ष पहले हमने कालचक्र वीडियो मैग्जीन में की थी। तब इस विधा की जानकारी भारत में लोगों को नहीं थी। प्रसिद्ध मीडिया क्रिटिक श्रीमती अमिता मलिक ने हमारी इस खोजी पत्रकारिता पर इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था, ‘‘कालचक्र उन मुद्दों को उठाता है जिन्हें दूरदर्शन बांस भर की दूरी से भी नहीं छुएगा’’। टाइम्स आॅफ इंडिया ने लिखा, ‘‘कालचक्र में छिपे कैमरे का प्रयोग वह विधा है जिसे दूरदर्शन अभी नहीं सीख पाया है।’’ फिर भी हमारी इस खोजी पत्रकारिता पर देश की राजनीति में काफी बबाल मचा था। नेताओं में यह डर बैठ गया कि अब उनके कारनामों पर कालचक्र के कैमरे की नजर पड़ सकती है। 

पर, बारह वर्ष बाद जब तहलका ने यही विधा अपनाई तो उसे वाहवाही मिली। क्योंकि तब तक इलेक्ट्रानिक मीडिया और सैटेलाइट चैनल देश पर छा चुके थे और लोग छिपे कैमरे की संभावना से वाकिफ हो चुके थे। बहरहाल, यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि कालचक्र ने जब-जब इस तरह की खोजी टीवी पत्रकारिता की, तो उसे पत्रकारिता की मर्यादा के भीतर रहकर किया। कुछ ऐसे कदम उठाए, जिससे हमारी विश्वसनीयता पर उंगली न उठ सके। मसलन, छिपे कैमरे का इस्तेमाल करने से पहले हमने स्थानीय पुलिस को सूचना दी कि हम कहां और क्या रिपोर्ट करने जा रहे हैं ताकि कल अगर घटनास्थल पर रिकाॅर्डिंग के समय कोई बबाल खड़ा हो जाए तो हम पर किसी को धमकाने या ब्लैकमेल करने का आरोप न लगे। इसलिए हमने पुलिस वालों को साथ लेकर ऐसी रिकाॅर्डिंग की। इतना ही नहीं, मीडिया जगत की सहमति भी हमारे इस अनूठे काम में हो, इसके लिए हमने दो-तीन राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाताओं को भी ऐसी खोज के समय साथ रखा। यही कारण था कि जब हमारी रिपोर्ट पर देश भर में बबेला मचा, तो हम अपनी बात मजबूती से रख सके। हमें किसी तरह के कानूनी विवाद में नहीं फंसना पड़ा। सीबीआई जैसी संस्था को यह जानने की जहमत नहीं उठानी पड़ी कि यह रिकाॅर्डिंग किसने की? किस मकसद से की? कहां की? कब की? किसकी मौजूदगी में की? और किस उद्देश्य से की? इन सब सवालों के जवाब हमारी वीडियो कैसिट में पहले ही मौजूद रहते थे। पर जूदेव कांड में ऐसा कुछ सामने नहीं आया। इस कांड को खोजने वाला कौन था? क्या कोई पत्रकार था या किसी राजनेता का एजेंट? अगर पत्रकार था तो उसे अपनी पहचान बताने में संकोच क्यों? अगर पत्रकार नहीं था तो सवाल उठता है कि इस वीसीडी की विश्वसनीयता ही क्या है? इसकी कानूनी वैधता क्या है? किसने इस काम को करवाया? वो सामने क्यों नहीं आता? ऐसे तमाम सवालों के जवाब जूदेव कांड को उठाने वाले लोग नहीं दे पा रहे हैं। कारण साफ है कि वे परदे के पीछे छिपे हैं। फिर ये खोजी पत्रकारिता का नमूना कैसे हुआ? और जब ये पत्रकार के द्वारा की गई रिपोर्ट ही नहीं है तो इसे ऐन चुनाव के पहले उछालकर किसको क्या हासिल हुआ

वीडियो कैमरे से सच्चाई की खोज करना एक जोखिम भरा काम है। हमने ऐसे जोखिम बार-बार उठाए हैं। बड़े से बड़े लोगों के विरुद्ध खोज करने की हिम्मत की है। पर, हमारे कामकी विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठा। कारण साफ है, जब आप देश के प्रतिष्ठित और ताकतवर लोगों के खिलाफ संगीन आरोप लगाते हैं तो आपको सामान्य से ज्यादा सावधानी बरतनी होती है। ऐसी खबरें जल्दबाजी में या उत्साह के अतिरेक में प्रकाशित या प्रसारित नहीं की जा सकती। क्योंकि उनका दूरगामी प्रभाव पड़ता है।  किसी की साख को बट्टा लगाना  आसान है, पर बिगड़ी बात को संभालना बहुत मुश्किल। 

ऐसा नहीं है कि सभी राजनेता दूध के धुले हैं और उनके विरुद्ध कुछ कहा ही नहीं जा सकता। पर, गलत आरोप लगाने पर आरोप लगाने वाला भारी मुश्किल में पड़ सकता है। ये भी सही है कि आज राजनेताओं की जो छवि जनता के बीच बन चुकी है, उसे इस तरह की खोजी रिपोर्ट पुष्ट ही करती हैं। इसलिए जनता इन रिपोर्टों पर फौरन विश्वास कर लेती है। टीवी माध्यम की इस ताकत और इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखकर तो और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कि सब सावधानियां पहले ही बरती जाएं। मसलन, जिस रिपोर्ट की खोज की जा रही है, उसे कैमरे पर उतारना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उससे संबंधित अन्य प्रमाणों को जुटाना। इसके साथ ही परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी हमें जुटाने होते हैं।

मसलन, जैन हवाला कांड में हमने एक पूर्व केंद्रीय मंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने जैन बंधुओं से मोटी रकम ली। इसके प्रमाण स्वरूप हमने उन ठेकों का हवाला दिया, जिन्हें इस मंत्री ने जैन बंधुओं को अपने कार्यकाल में दिया था। इसी तरह अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी जुटा लेने के बाद ही कैमरे के लैन्स से निकली रिपोर्ट को बंदूक की गोली बनाकर दागा जा सकता है। क्योंकि तब आरोपित व्यक्ति यह कहकर नहीं बच पाएगा कि यह वीडियो टेप फर्जी हैं। परिस्थितिजन्य व अन्य साक्ष्य इसकी पुष्टि कर देंगे कि उसने कब, किसकी मौजूदगी में, किससे, किस काम के लिए, कितने रुपये की रिश्वत ली। जब यह सिद्ध ही हो जाएगा तो फिर जांच की और जरूरत ही कहां बचेगी। फिर तो पैसा लेने और देने वालों पर भारतीय कानून के तहत केस दर्ज किया जाएगा। जूदेव कांड में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस वीसीडी का प्राकट्य अंधकार में से हुआ है और इसीलिए यह कांड लोकतंत्र के अंधेरे को दूर करने में नाकाम रहा है। 

दूसरी तरफ जोगी कांड में खोजकर्ताओं ने अनेक परिस्थितिजन्य साक्ष्य पहले ही जुटा लिए। इसलिए श्री अजित जोगी रंगे हाथों पकड़े गए। सीबीआई ने उन पर मुकदमा कायम किया और अब उन्हें अपने बचाव के लिए लड़ना होगा। यहां एक बात महत्वपूर्ण है और वो यह कि श्री अजीत जोगी के विरुद्ध इस खोज को करने वाले भी कोई पत्रकार नहीं थे, बल्कि भाजपा से जुड़े कुछ लोग थे जिन्होंने श्री अजीत जोगी को अपने जाल में फंसाया और जोगी कुर्सी खोने की बेचैनी और उसे दोबारा हासिल करने के लालच में फिसल गए और अपनी मिट्टी पलीद करवा बैठे। वरना ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों को खरीदने-बेचने का यह काम पहली बार हुआ हो। प्रांतों की सरकारों से लेकर केंद की सरकारें तक ऐसे तमाम प्रयास करती हैं, जिनमें ऐसी खरीद का खुला बाजार लगता है। ज्यादा बोली लगाने वाला सौदा मार लेता है। ऐसा न होता तो दलबदल कानून को दोबारा बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। पर यह खोज पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। भाजपा ने यह खुफिया अभियान चलाकर नैतिकता का सवाल खड़ा कर दिया है। आज भाजपा ने ये किया है, कल उसके विरोधी करेंगे। 

उधर, पत्रकारों को भी अपनी मर्यादा और सीमाओं का ध्यान रखना होगा। काॅलगर्ल का इस्तेमाल करके और नकली कहानी बनाकर तहलका ने जिसे रक्षा घोटाला कहा, उसमें भी ऐसे तमाम सवाल उठे थे। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में जिस पर आरोप लगाया गया उससे सफाई तक नहीं मांगी गई। टीवी पत्रकारिता अब देश से जाने वाली नहीं है। जब आ ही गई है तो इसे परिपक्व और जिम्मेदार होना पड़ेगा। बिना समुचित प्रमाणों के सनसनी फैलाना पत्रकारिता के दायरे में नहीं आता। राजनेता कितने भी भ्रष्ट क्यों न हो चुके हों, उन्हें पकड़ने का एक सलीका तो होना ही चाहिए। वरना ऐसी पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तमाम सवाल खड़े जा जाएंगे, जो आज हो रहे हैं। पत्रकारिता के लिए यह स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है।