Friday, June 4, 2004

सोनिया का त्याग और भाजपा की नौटंकी


जब तक श्रीमती सोनिया गांधी एक विधवा के रूप में अपने घर की चारदीवारी में बंद रहीं, तब तक किसी को उनसे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ। पर कांग्रेस की दुर्गति देखकर 1998 में जब उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया तो भाजपा के नेता बौखला गए। तब सुश्री सुषमा स्वराज और कुछ दूसरे बड़े नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर करारा प्रहार किया। उस वक्त इसी काॅलम में मैंने वैदिक दर्शन के आधार पर तर्क देते हुए इस हमले के खोखलेपन को सिद्ध करने का प्रयास किया था। 21 फरवरी 1998 को देश भर के अनेक प्रांतीय अखबारों में मेरा यह लेख छपा, ‘सोनिया गांधी को विदेशी कहना कहां तक उचित है?’ इसके कुछ समय बाद जब श्री पी.ए. संगमा ने संविधान संशोधन समिति से इसी मुद्दे पर इस्तीफा दिया, तब भी मैंने अंग्रेजी में एक कड़ा पत्र लिखकर उन्हें कटघरे में खड़ा किया और इसको प्रेस को जारी किया। एक बार फिर जिस तरह से श्रीमती सुषमा स्वराज और सुश्री उमा भारती ने श्रीमती गांधी के चयन को लेकर नौटंकी की, उससे भाजपा की हिंदु धर्म की समझ पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। हवाला कांड से लेकर सर्वोच्च न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को उजागर करते समय मैंने भाजपा के कई बड़े नेताओं को इतने निकट से देखा है कि मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि जिसका जन्म इस देश में हुआ है, वही देशभक्त हो सकता है। जिसका जन्म यहां नहीं हुआ, वह नागरिक बन जाने के बाद भी देश भक्त नहीं हो सकता। भाजपा के साढ़े पांच साल के शासन में आतंकवाद, भ्रष्टाचार और न्यायपालिका की जवाबदेही को लेकर जितने गंभीर सवाल मैंने उठाए, उन सबके समर्थन में इतने प्रमाण मेरे पास थे और आज भी हैं कि पूरे देश का दिल दहलाने के लिए काफी होते। पर मुझे जानकारी मिली कि भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के प्रभाव के चलते इन तथ्यों को देश की जनता के सामने किसी टीवी चैनल के माध्यम से कभी नहीं आने दिया गया। दरअसल 5 फरवरी 2000 को एनडीटीवी के बिग फाइट शो में जिस तरह मैंने भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल को हवाला कांड की जांच को लेकर कटघरे में खड़ा किया था और 10 फरवरी 2000 को जी न्यूज के प्राइम टाइम शो में जिस तरह के तथ्य भाजपा के नेताओं के हवाला कांड में शामिल होने को लेकर सुश्री सुषमा स्वराज के सामने रखे थे, उससे इन दोनों ही शो को लेकर भाजपा के सांसदों ने संसद और मीडिया में काफी बवाल मचाया। सुषमा जी हवाला कांड में फंसे अपने वरिष्ठ नेताओं की रक्षा में असफल रहीं और बौखला कर अनर्गल तर्क देने लगीं। इसके बाद से ही एक मूक संदेश दे दिया गया कि किसी भी चैनल पर मेरे विचार जनता के सामने मत आने दें। अगर वो तथ्य जनता के सामने आज भी आ जाएं, तो बीजेपी का देश प्रेम और आतंकवाद को लेकर उसकी चिंता पर कई सवालिया निशान लग जाएंगे। फिर ये सवाल देश पूछेगा कि देश में ही जन्म लेने वालों ने ऐसा क्यों किया?
खैर श्रीमती सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के संदर्भ में वही किया जो उनसे अपेक्षित था। जब भी लोग पिछले छह बरसों में यह सवाल पूछते कि अगर श्रीमती सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनती हैं, तो आपको कैसा लगेगा? हमारा उत्तर यही होता कि वे कभी नहीं बनेंगी। पर वैदिक शास्त्रों में जीवात्मा को परमात्मा से मिलने या उनकी सेवा करने का निर्देश दिया गया है। यह नहीं कहा गया कि यह अधिकार केवल हिंदुओं तक सीमित है। जाति, धर्म और देश की पहचान व्यक्तियों ने बनाई है, भगवान ने नहीं। पर जो बात हम अपनी अंतप्र्रेरणा के आधार पर कहते थे, वो उस दिन सच हो गई, जब श्रीमती गांधी ने वाकई प्रधानमंत्री पद को लात मारकर डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। उन्होंने अपने ससुराल के देश की संस्कृति को न सिर्फ आत्मसात किया बल्कि एक अभूतपूर्व आदर्श की स्थापना की। दूसरी तरफ भाजपा की नेताओं सिर मुड़ाने जैसी बचकानी घोषणाएं करके पूरी दुनिया में अपना मजाक उड़वाया। शंकराचार्य तक ने कहा है कि सुश्री उमा भारती और श्रीमती सुषमा स्वराज का यह नाटक वैदिक परंपरा के प्रतिकूल था।
यह कोई पहली बार नहीं है जो भाजपा ने हिंदू धर्म का इस तरह मखौल उड़ाया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जिस तरह एक हाथ को मोड़कर ध्वज प्रणाम करते हैं, वो किस वैदिक या हिंदू परंपरा का हिस्सा है? हमारी परंपरा तो करबद्ध प्रणाम करने की या साष्टांग दंडवत प्रणाम करने की है। ये अधूरा प्रणाम तो हिटलर के दिमाग की उपज है, जिसे पता नहीं किस मानसिकता से संघ परिवार ने अपना लिया है। इसीलिए संघ के अनेक विचारों से सहमत होते हुए भी मैं उनके प्रणाम करने की इस मुद्रा को कभी स्वीकार नहीं कर पाता। अगर संघ साष्टांग दंडवत या करबद्ध प्रणाम को ही अपना लेता, तो उसकी वैचारिक यात्रा में कौन सा व्यवधान पड़ जाता? पर शायद वैदिक मान्यताओं को तोड़ मरोड़कर अपने तरीके से पेश करना और उसे जबरन हिंदू समाज पर थोपना ही संघ का हिंदूवाद है। इसी तरह खाकी निकर भी कहीं से कहीं तक हिंदू संस्कृति का हिस्सा नहीं है। पर संघ वाले इसे पहनकर ही स्वयं को भारत मां का सच्चा सपूत मानते हैं। जबकि इस्काॅन जैसी संस्था ने पूरे विश्व के देशों के भक्तों को धोती-कुर्ता पहनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि आधुनिक समाज में भी वैदिक परिधान पहना जा सकता है। मैं और मेरे जैसे तमाम लोग संघ और भाजपा की इस बात से सहमत हैं कि धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदुओं और मुसलमानों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। पर जिस तरह से हिंदुओं के हित के हर सवाल पर भाजपा ने बार-बार हिंदुओं की भावनाओं का मजाक उड़ाया है और उनसे लगातार खिलवाड़ किया है, उससे अब हिंदुओं को यह लगने लगा है कि दरअसल भाजपा के लिए हिंदुवाद सत्ता प्राप्ति का हथकंडा मात्र है।
दूसरी तरफ कांग्रेस को भी समझ लेना चाहिए कि हिंदुओं के पक्ष में बोलने से संकोच करने के  दिन लद गए। कांग्रेस का स्वरूप सर्वधर्म समभाव का रहा है और वही उसके व्यवहार में दिखना चाहिए। इस चुनाव में दिल्ली समेत जिन राज्यों में भी इंका को सफलता मिली है, उसमें बहुसंख्यक मतदाता हिंदु ही हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के हिंदूवादी व्यवहार से उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। असलियत तो यह है कि हिंदु धर्म में इंका के नेताओं की भाजपाइयों से कहीं ज्यादा आस्था है, पर वे उसका राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास नहीं करते। साढ़े पांच साल केंद्र में और इससे कहीं ज्यादा बरसों तक उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार रहीं, पर भाजपा बताए कि उसने अयोध्या, मथुरा और काशी के विकास के लिए क्या किया? केवल जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का ढोंग रचती रहीं। जबकि इंका के शासनकाल में सोमनाथ, तिरुपति और वैष्णो देवी जैसे तीर्थों का प्रशंसनीय विकास हुआ। दुख की बात ये है कि पिछले छह सालों में भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेताओं से मैं व्यक्तिगत रूप से मिलकर ब्रज के तीर्थस्थलों के विकास की मांग करता रहा। लेख लिखता रहा और पत्र भेजता रहा। पर सत्ता के मद में चूर इन नेताओं ने तीर्थों के लिए कुछ भी नहीं किया। दूसरी तरफ इंका के जिन राजनेताओं को हवाला कांड केि मेरे युद्ध को लेकर राजनैतिक वनवास झेलना पड़ा था, वे भी इतने स्नेह और उदारता से मिले और सहयोग किया कि लगा कि इंका नेता वाकई शासन करने के योग्य हैं और तंग दिल नहीं हैं। यह भी विश्वास दृढ़ हुआ कि सभी धर्मों के धर्मक्षेत्रों का जीर्णोद्धार भी केवल इंका के ही शासनकाल में हो सकता है।
अब जब श्रीमती सोनिया गांधी ने तपोभूमि भारत की सनातन संस्कृति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद को ठुकरा दिया, तो भाजपाइयों को तमाचा तो पड़ा ही, पर यह पचाना भी भारी पड़ गया। फौरन दिल्ली में सुगबुगाहट शुरू कर दी गई कि राष्ट्रपति ने श्रीमती गांधी से चुनाव में विजय के बाद हुई पहली मुलाकात में ही यह कह दिया था कि वे उनकी नागरिकता के सवाल को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बेंच को भेजेंगे और उसका निर्णय आने तक उन्हें शपथ नहीं दिलाएंगे। यह भी अफवाह फैलाई गई कि श्रीमती गांधी को संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री बनने का अधिकार नहीं है। मैंने तुरंत श्री कपिल सिब्बल से मोबाइल फोन पर स्पष्टीकरण मांगा तो उन्होंने इसे कोरी बकवास बताया। यह बात आगे न बढ़े इसलिए इसका स्पष्टीकरण जरूरी था। अतः मैंने उन्हें सलाह दी कि वे स्वयं या राष्ट्रपति भवन से इस अफवाह का खंडन जारी करवा दें। सौभाग्य से चार घंटे के भीतर ही राष्ट्रपति भवन से इसका खंडन जारी हो गया। पर भाजपा अभी भी संभली नहीं है। वो श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल को लेकर देश में अभियान चलाना चाहती है। यह जानते हुए भी कि श्रीमती गांधी के एक कड़े कदम ने उन्हें वास्तव में देश का सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया है। ऐसे माहौल में इंका को चाहिए कि वह भाजपा के ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप न लगाए। इससे उसका वोट बैंक मजबूत होता है। जरूरत इस बात की है कि भाजपा हिंदूवाद को लेकर दोहरी नैतिकता का त्याग करे और अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट करे। जिससे कि भविष्य में लोगों की धार्मिक भावनाओं से इस तरह का खिलवाड़ न हो। दूसरी तरफ इंका को देश के सभी धर्मस्थलों के विकास के लिए कुछ ठोस करना चाहिए। इससे उसकी लोकप्रियता भी बढ़ेगी और मतदाता के सामने यह तस्वीर साफ हो जाएगी कि भाजपा तो राम जन्मभूमि के नाम पर फील गुड करवाती रही और करा कुछ नहीं। जबकि इंका ने बिना भावनाएं भड़काए ही धर्म की ठोस सेवा की। इंका के इस कदम से हो सकता है कि भाजपा को नया चुनावी मुद्दा ढूंढना पड़े। उधर इंका विकास भी करे, गरीब की भी सुने और इस धर्म प्रधान देश की जनता की भावनाओं की कद्र भी करे, तो उसकी स्वीकार्यता बढ़ती जाएगी। जबकि भाजपा को बिना संकोच किए अपने हिंदूवादी एजेंडा पर ही डटना होगा। वर्ना वो अपनी पहचान खो देगी। हां यह हिंदूवाद आज परोसे जा रहे प्रदूषित हिंदूवाद जैसा न होकर वैदिक धर्म की सनातन मान्यताओं पर आधारित होना चाहिए।

Friday, May 14, 2004

‘बेलगाम न्यायपालिका’ को कैसे कसें

सेवानिवृत्त होते-होते भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एन. खरे कह गए कि उच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्य बेलगाम हो गए हैं और उन्हें नियंत्रित करने के अधिकार उनके पास नहीं हैं। इस चैंकाने वाले वक्तव्य का बड़ा गहरा अर्थ है। इसका मतलब है कि उच्च न्यायपालिका में कुछ लोग न सिर्फ भ्रष्ट हो गए हैं बल्कि अनुशासनहीन भी हैं। इससे पहले भी भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस पी भरूचा ने कहा था कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। एक के बाद एक कई मुख्य न्यायाधीश निचली अदालतों को काफी हद तक भ्रष्ट बताते रहे हैं। इस सबका मतलब ये हुआ कि भारत की न्याय व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक भारी भ्रष्टाचार फैल चुका है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे आज से कुछ वर्ष पहले कोई कहने को तैयार नहीं था। 

जैन हवाला कांड में जिस तरह से राजनेताओं को तमाम सबूतों के बावजूद छोड़ा गया, उससे पूरा देश हतप्रभ था। सर्वोच्च न्यायालय के जिस मुख्य न्यायाधीश ने हवाला कांड की शुरूआत में कहा था कि इस कांड में इतने सबूत हैं कि अगर इस पर भी हम उच्च पदों पर बैठे लोगों को सजा नहीं दे पाते, तो हमें अदालतें बंद कर देनी चाहिए। बाद में उन्हीं मुख्य न्यायाधीश ने इस कांड को समय से पहले व बिना जांच हुए ही लपेटते हुए यह कहा कि इस कांड में नाकाफी सबूत हैं। बाद में इस केस को रफा-दफा करने में उन मुख्य न्यायाधीश के अनैतिक आचरण का पर्दाफाश भी कालचक्र समाचार के माध्यम से किया गया। तब से ही सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे। बाद में भी कुछ अन्य न्यायाधीशों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को हमने सप्रमाण छापकर देश के सामने रखा। हमारा मकसद सिर्फ यह बताना था कि न्यायपालिका के फैसले की आड़ लेकर जो राजनेता भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त हो जाते हैं, वे अक्सर पाक-साफ नहीं होते। बड़े-बड़े घोटाले करने के बाद राजनेताओं के अदालत से बरी हो जाने का नाटक इस देश की जनता बरसों से देख रही है।

इस देश में पांच सौ रुपये की रिश्वत लेने वाला एक सिपाही तो सजा भोगता है, पर पांच सौ करोड़ का घोटाला करने वाला मुख्यमंत्री बन जाता है। देश में साधनों की कमी नहीं है। पर उन साधनों का अनैतिक दोहन और सारी आर्थिक सत्ता का कुछ भ्रष्ट लोगों के हाथ में इकट्ठा हो जाना इस देश के आम आदमी की बदहाली, गरीबी और बेरोजगारी का कारण है। संविधान के निर्माताओं ने लोकतंत्र का प्रारूप अपनाते समय लोकतंत्र के चारों खंभों को इस तरह खड़ा किया था कि एक-दूसरे पर निगाह रखने का हक और दायित्व बना रहे। कार्यपालिका पर विधायिका की निगाह रहती है और विधायिका पर मतदाता की, पर न्यायपालिका ने अदालत की अवमानना कानून का गलत अर्थ निकालकर और उसका सरासर दुरुपयोग करके अपने लिए एक ढाल खड़ी कर ली है। इस ढाल के पीछे स्याह और सफेद सब ढक दिया जाता है। आवाज उठाने वाले को अदालत की अवमानना का दोषी करार देकर जलील किया जाता है और जेल भेज दिया जाता है। इस तरह लोकतंत्र का यह सबसे महत्वपूर्ण खंभा यानी न्यायपालिका भ्रष्टाचार की घुन से खोखला हो चुका है, फिर भी झूठे आडंबर से अपनी झूठी गरिमा को बचाए हुए है। जिसका खामियाजा इस देश की सौ करोड़ जनता को भुगतना पड़ रहा है।

सोचने वाली बात ये है कि न्यायपालिका का भ्रष्ट होना कोई सामान्य बात नहीं है, जिसकी उपेक्षा की जा सके। देश के सौ करोड़ लोगों को न्याय देने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है अगर वे बेलगामहैं, ‘उनमें बीस फीसदी भ्रष्ट हैंतो यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। जरा सोचिए कि किसी औद्योगिक घराने पर पांच सौ करोड़ रुपये के उत्पादन शुल्क की देनदारी है। वह औद्योगिक घराना उच्च न्यायपालिका के बीस फीसदी भ्रष्ट न्यायाधीशों में से किसी एक के सामने अपना मामला लगवा लेता है और ऐसे न्यायाधीश को उसके विदेशी खाते में पचास करोड़ रुपये की घूस दे देता है तो माननीय न्यायमूर्ति महोदय निर्णय देते हैं कि दरअसल उस घराने से पांच सौ करोड़ नहीं मात्र सौ करोड़ रुपये वसूल किए जाएं। इस तरह वह औद्योगिक घराना साढे़ तीन सौ करोड़ रुपये का उत्पादन शुल्क देने से बच जाता है। अगर माननीय न्यायमूर्ति भ्रष्ट न होते और उस औद्योगिक घराने को पांच करोड़ ही देना पड़ते, तो उससे मिले चार सौ करोड़ रुपये से इस देश के चार सौ गांवों में रोशनी आ जाती या सड़क बन जाती। पर एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जब देश के उच्च पदों पर बैठे राजनेताओं और अफसरों को उनके बड़े-बड़े घोटालों के बावजूद सर्वोच्च अदालत तक ने बाइज्जत बरी कर दिया। यही कारण है कि भारत में उच्च पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार शर्म की सारी सीमाएं लांघ चुका है, फिर भी पचास बरसों में आज तक किसी को सजा नहीं मिल पाई है। 

अगर न्यायमूर्ति खरे को अपनी स्थिति पर इतनी असहायता महसूस हो रही थी तो उन्होंने उसे अपनी सेवानिवृत्ति के दिन तक के लिए बचाकर क्यों रखा ? जाहिर है उनका यह अनुभव सेवा के आखिरी चैबीस घंटों में तो हुआ नहीं होगा ? काफी पहले से वह ये दर्द महसूस करते रहे होंगे, फिर क्या वजह है कि उन्होंने अपने इस अनुभव को देश की जनता, मीडिया और हुक्मरानों से पहले नहीं बांटा ? इस देश का यही दुर्भाग्य है कि चाहे वो कैबिनेट सचिव हों, सेनाध्यक्ष हो या सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, पूरे सेवाकाल में सत्ता का सुख भोगते है। हर तरह के समझौते करते है और अपने नीचे और ऊपर वालों के काले कारनामों को अनदेखा करते है या खुद भी उनमें हिस्सा लेते है, पर जब उनका वानप्रस्थ आश्रम शुरू होता है तो अचानक उन पर नैतिकता का भूत सवार हो जाता है। इन घडि़याली आंसुओं से किसी का भला नहीं होने वाला। न न्यायपालिका का और ना ही इस देश की जनता का। 

चुनाव संपन्न हो चुके हैं। परिणाम भी आ ही रहे हैं। सरकार भी बन ही जाएगी। इस पूरे दौर में राजनेताओं ने एक-दूसरे पर जमकर कीचड़ उछाली। अपनी कमीज को दूसरों की कमीज से ज्यादा सफेद बताया। पर कौन नहीं जानता कि आज राजनीति समाजसेवा का नहीं, भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। इस चुनावी व्यवस्था से चुनकर संसद में आने वाले देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए कितने गंभीर हैं, यह बताने की जरूरत नहीं। अगर वास्तव में हमारे सांसद समाज को इस रोग से मुक्त करना चाहते हैं तो उनके पास वे सारे अधिकार और ताकत है जिससे वे कानून में वांछित संशोधन करके जनता के प्रति अपनी और न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित कर सकते हैं। अदालत की अवमानना कानून में अगर सिर्फ इतनी सी बात जोड़ दी जाए कि किसी न्यायाधीश के निजी आचरण पर सबूत के साथ भ्रष्टाचार या अनैतिकता का आरोप लगाना अदालत की अवमानना नहीं माना जाएगा, तो न्यायपालिका में सुधार की बहुत बड़ी शुरुआत हो जाएगी। पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण के सप्रमाण घोटाले उजागर करने के दौरान मैंने अनुभव किया कि सांसद ऐसी पहल नहीं करना चाहते। उस दौर में मैं देश में विभिन्न दलों के पचास से ज्यादा सांसदों से मिला जिनमें से ज्यादातर राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता थे। सबने इस दुत्साहस की सराहना तो की पर यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे न्यायपालिका को नाराज नहीं करना चाहते क्योंकि वे स्वयं या उनके कार्यकर्ता तमाम तरह के आपराधिक मामलों में फंसे हैं। नाराज न्यायपालिका उनके राजनैतिक कैरियर में घातक हो सकती है। नतीजतन कुछ नहीं बदला। फिर न्यायमूर्ति खरे का विलाप किस काम का? जनता की यही नियति है।

Friday, April 30, 2004

चुनाव बाद होगा अमर सिंह का जलवा


अब तक के मतदान के रुख से यह संकेत मिल रहे हैं कि एनडीए अपने बूते पर सरकार नहीं बना पाएगी। सभी राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि ऐसी हालत में उसे मायावती या मुलायम सिंह यादव की मदद लेनी होगी। बसपा नेता का भरोसा अब किसी को नहीं रहा। कोई नहीं जानता कि वो कब पलटी मार जाएं। उनके साथ कोई भी गठबंधन टिकाऊ नहीं रह सकता। बावजूद इसके अगर बड़े दलों के नेता मायावती को पूछते हैं तो इसका कारण उनकी मायावती के प्रति श्रद्धा नहीं बल्कि उनके वोट बैंक पर नजर है। मायावती यह बात अच्छी तरह समझती हैं। इसलिए किसी को हाथ नहीं धरने देतीं। उत्तर प्रदेश में भाजपा दो बार उनके साथ सरकार बनाकर धोखा खा चुकी है। ऐसे में केंद्रीय सरकार चलाने के लिए मायावती का सहयोग लेना आत्मघाती होगा। न जाने कब वह रूठ जाएं और सरकार को टंगड़ी मारकर गिरा दें। ऐसी स्थिति में राजग के पास केवल एक ही विकल्प होगा और वो ये कि वह मुलायम सिंह की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाए। मुलायम सिंह विश्वसनीय साथी हैं। जमीन से जुड़े नेता हैं और पिछले अनुभवों ने उन्हें काफी परिपक्व राजनेता बना दिया है। सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में उनकी वर्तमान सरकार भाजपा से जुगलबंदी के कारण ही चल रही है। भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखकर ही चुनाव पूर्व तालमेल नहीं किया। वे जानते हैं कि गठबंधन सरकारों के दौर में उनकी कितनी अहमियत है। हाल के दिनों में आए मुलायम सिंह व भाजपा नेताओं के बयानों का अगर बारीकी से विश्लेषण करें तो यह साफ हो जाता है कि दोनों और निकट आने का मन बना चुके हैं। 

अगर ऐसा होता है कि एनडीए की अगली सरकार मुलायम सिंह यादव के समर्थन के बिना नहीं बन पाएगी तो इसका सबसे ज्यादा फायदा मुलायम सिंह के बाद अगर किसी को होगा तो वह हैं अमर सिंह। उन्हें मुलायम सिंह यादव का भाई कहा जाए, सलाहकार कहा जाए या मित्र कहा जाए, वे और मुलायम सिंह अब अलग नहीं किए जा सकते। वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसमें शक नहीं है कि सपा को जमाने में अमर सिंह ने भी जी-तोड़ मेहनत की है। अगर राजग गठबंधन को इस चुनाव के बाद नए दलों को अपने से जोड़ने की जरूरत पड़ी, जिसकी पूरी संभावना है तो वह सबसे पहले मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह की तरफ दौड़ेंगे। अमर सिंह की यह खासियत है कि वह दुश्मन कम और दोस्त ज्यादा बनाते हैं। इस समय भाजपा में उनके बहुत दोस्त हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि उन्हें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का पूर्ण विश्वास प्राप्त है। वे काफी लंबे अरसे से वाजपेयी जी के निकट मित्रों में रहे हैं। इसलिए राजग के लिए भी अमर सिंह की मार्फत सपा से तालमेल जोड़ने में सुविधा रहेगी। यूं तो ये सारा मंथन एक बड़े अगरपर टिका हुआ है पर लगता यही है कि चुनाव के बाद की स्थिति ऐसी ही आने वाली है। अगर ऐसा होता है तो मुलायम सिंह यादव अपनी शर्तों पर ही राजग में शामिल होंगे। वे प्रधानमंत्री पद की मांग रखेंगे और अंततः उपप्रधानमंत्री पद से संतुष्ट हो जाएंगे, ऐसी चर्चा है। जहां तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का सवाल है। सपा के लोगों के मानना है कि वह उनके लिए समस्या नहीं होगा क्योंकि उसका फैसला पहले ही कर लिया गया है। लोग कयास लगा रहे हैं कि ऐसी दशा में मुलायम सिंह यादव लखनऊ की गद्दी पर अमर सिंह को बिठाएंगे या अखिलेश यादव को। दूसरी तरफ केंद्र में महत्वपूर्ण पदों के लिए भी वे दावा करेंगे, जिनमें रक्षा

Friday, April 16, 2004

धन से बड़ी जनसेवा


एक तरफ तो सरकारी सेवाओं का दिवाला निकल चुका है, खासकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में। देश के देहातों में यूं तो प्राथमिक चिकित्सालयों का एक लंबा चैड़ा जाल बिछा हुआ है, पर न तो उनमें डाॅक्टर होता है और न ही दवाई। ऐसे ज्यादातर अस्पतालों के भवन खस्ताहाल में वीरान पड़े हैं। इसलिए झोलाछाप डाॅक्टर लंबी चैड़ी फर्जी डिगरियों का बोर्ड लगाकर गांव वालों को ठगते रहते हैं। दूसरी तरफ उदारीकरण के दौर में निजी चिकित्सा सेवा का तेजी से विस्तार हो रहा है। कस्बों में खुलने वाले छोटे नर्सिंग होम से लेकर शहरों में बन रहे पांच सितारा अस्पताल तक बहुत तेजी से देश में फैलते जा रहे हैं। जो संपन्न हैं उनके लिए यह अस्पताल वरदान सिद्ध हो रहे हैं। इलाज का इलाज और पूरे ठाठ बाट। मरीज के कमरे में एसी, टीवी, फ्रिज से लेकर हर सुविधा उपलब्ध है। इन दो विरोधी छोरों के बीच के लोग कहां जाएं। जो इतने गरीब भी नहीं कि चार पैसे इलाज पर खर्च न कर सकें और इतने संपन्न भी नहीं कि महंगा इलाज करवा सकें। ऐसी परिस्थितियों में मिशनरी अस्पतालों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर वो चाहे ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जाते हों या अन्य धर्मों और संप्रदायों  द्वारा, क्योंकि इन अस्पतालों में मरीज को कम कीमत पर अच्छी चिकित्सा सेवा उपलब्ध हो जाती है। पर ऐसे अस्पतालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। राजधानी दिल्ली में तो ऐसे कई बड़े अस्पताल हैं, जिन्होंने सरकार से सस्ती जमीन यह कहकर एलाॅट करवाई है कि वे अपनी व्यवस्था का लगभग आधा हिस्सा गरीबों की सेवा में लगाएंगे, पर हकीकत में यह अस्पताल ऐसा नहीं कर रहे हैं और पूरी तरह से व्यावसायिक दृष्टिकोण से चलाए जा रहे हैं। 

इस दिशा में 82 वर्षीय श्री अरविंद भाई मफतलाल जी का काम प्रशंसनीय भी है और अनुकरणीय भी। अरविंद जी का नाम भारत में अंजाना नही है। देश के तीन सबसे धनी उद्योगपतियों में टाटा, बिड़ला और मफतलाल माने जाते थे। मफतलाल परिवार की धर्म पारायणता, सादगी और दरिद्र नारायण की सेवा का भाव औद्योगिक जगत में चर्चा का विषय रहा है। 1968 में बिहार में अकाल के दौरान अरविंद भाई राहत की सामग्री लेकर बिहार पहंुचे। वहां उन्होंने रणछोड़ दास जी महाराज के दर्शन किए। भारत भर में जहां कहीं भी अकाल पड़ता था, रणछोड़ दास महाराज जी वहां जाकर महीनों तक निर्धनों के लिए भंडारे चलाते थे। उन्होंने अरविंद भाई को चित्रकूट जाकर दरिद्र नारायण की सेवा करने को कहा। इसके बाद अरविंद भाई ने अपनी काफी संपत्ति चित्रकूट, गुजरात और पूना के आसपास दरिद्र लोगों की सेवा में झोंक दी। उन्होंने लोगों के लिए सर्वोत्तम गुणवत्ता का आधुनिक अस्पताल चित्रकूट में बनवाया और साथ ही देहात की महिलाओं के लिए डेयरी और कुटीर उद्योगों का जाल फैलाया। अपना कारोबार छोड़कर हफ्तों चित्रकूट में रहकर अपने हाथों से  जनसेवा की। आज चित्रकूट का आम नागरिक हो या वहां बसने वाले साधु संत, सभी एक स्वर से अरविंद भाई की सेवाओं का गुणगान करने में कंजूसी नहीं करते। इतने वृद्ध होने पर भी अरविंद भाई अस्पताल की सीढि़यां और जंगलों में आदिवासियों के घरों में दौड़-दौड़कर चढ़ जाते हैं और हर सेवा कार्य को अपने निरीक्षण में करवाते हैं। उनके साथ काम करने वाले सैकड़ों डाॅक्टर व अन्य कर्मचारी भी इसी तरह समर्पित भाव से दरिद्र नारायण की सेवा को पूजा मानकर वहां कार्य कर रहे हैं। इस टीम ने पिछले कुछ सालों में साढ़े पांच लाख लोगों के आंख के आॅपरेशन किए। किसी मरीज से एक पैसा फीस लेना तो दूर, उलटा उसका रहना, खाना और इलाज सब मुफ्त किया जाता है।

आज के युग में जब औद्योगिक घराने वनवासी लोगों के पर्यावरण की चिंता किए बगैर उनकी प्राकृतिक संपदा को लूटने में लगे हैं। उनकी नदियों को प्रदूषित करने में लगे हैं। उनके जीने के अधिकार छीन रहे हैं। ऐसे में एक बड़े उद्योगपति का वनवासी लोगों के प्रति इतना प्यार और समर्पण अनुकरणीय है। देश में फील गुड की हवा बह रही है। मध्यम वर्गीय परिवारों को फील गुड का नशा चढ़ा हुआ है, जबकि देश का बहुसंख्यक युवा बेरोजगार खड़ा है। ऐसे में देश के उद्योगपतियों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे अरविंद भाई मफतलाल से प्रेरणा लेकर देश के विभिन्न पिछड़े इलाकों में इसी तरह की स्वास्थ्य व अन्य सेवाओं का विस्तार करें।
धन की दो ही गति हैं, या तो भोग या दान। दान किया धन बेकार नहीं जाता। अरविंद भाई ने पेट्रोलियम उत्पादों के अपने बड़े व्यवसाय के साझीदार के रूप में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ दशकों पहले व्यापार अनुबंध किया था। वह कंपनी उन्हें 300 करोड़ रुपये का चूना लगाकर भाग गई, ऐसा वे स्वयं बताते हैं। जाहिर है इस अप्रत्याशित हमले ने मफतलाल परिवार के कारोबार को काफी झकझोर दिया। आर्थिक चुनौतियों के ऐसे दौर में प्रायः धनी और सक्षम लोग सेवा कार्य को छोड़कर अपनी निजी समस्या सुलझाने में लगे रहते हैं। पर मफतलाल परिवार ने ऐसा नहीं किया। दरिद्र नारायण की सेवा यथावत जारी रखी। वह भी पूर्ण निष्काम भाव से।

नतीजा ये हुआ कि आज उनकी सेवा के फलस्वरूप उनका कारोबार फिर तेजी से ऊपर उठ गया है। वे मानते हैं कि दरिद्र नारायण की सेवा के लिए साधन की कमी नहीं रहती। केवल भावना की जरूरत होती है। भावना है तो साधन स्वयं जुट जाते हैं। हां, ऐसे साधक को अकिंचन बनने का प्रयास करना चाहिए। जब सभी प्रांतों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई हो, डाॅक्टर गांव में रहने को तैयार न हों तो ऐसे में इस देश की बहुसंख्यक आबादी का इलाज कौन करेगा? क्या उन्हें उनके हाल पर मरने को छोड़ दें या कोई विकल्प तलाशें? विकल्प यही है कि शुद्ध पेयजल और उनके इलाज के लिए निजी घराने सामने आएं और अरविंद भाई की तरह देश के विभिन्न इलाकों में अपने कीर्तिमान स्थापित करें।

बड़े शहरों में सेवा के नाटक तो बहुत किए जाते हैं, पर उनमें अखबार वालों के सामने फोटो खिंचवाने के शौकीन ज्यादा होते हैं, सेवा के कम। असली सेवा तो वनों और देहातों में होती है, जिन्हें भगवान ने असीमित दौलत दी है, वे इसका थोड़ा सा हिस्सा खर्च करके देहात के लोगों का स्वास्थ्य सुधार सकते हैं। अच्छे स्वास्थ्य के भारतीय नागरिक ज्यादा ऊर्जा से उत्पादन करेंगे। इससे उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी और अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा। हर धर्म में दरिद्र नारायण की सेवा को सबसे महत्वपूर्ण कार्य बताया गया है। फील गुड खाली टीवी पर बयान देने से नहीं आएगा, उसके लिए संवेदनशीलता की जरूरत है। चाहे नेता हो, उद्योगपति हो या अखबार मालिक, सबको संवेदनशील होकर आम जनता की भावनाओं को समझना चाहिए और वादों और नारों से ज्यादा ठोस काम करके दिखाने चाहिए। ऐसा काम करने वाले न तो पद्मभूषण और भारत रत्न के पीछे भागते हैं और न ही किसी सरकारी फायदे के पीछे। वे तो चुपचाप अपने काम में लगे रहते हैं। मफतलाल जी को भी पद्मभूषण का प्रस्ताव दिया गया था, पर उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। जो भगवत भक्ति को आधार बनाकर समाज या राष्ट्र की सेवा करता है और किसी यश या पद की कामना नहीं करता, उसे इस लोक में भी पुण्य और सुख मिलता है और परलोक भी सुधर जाता है, ऐसा संत बताते हैं। शर्त है सेवा निष्काम होनी चाहिए। जिसकी जितनी सामथ्र्य हो, आगे बढ़कर अपनी सेवा ले ले, तो सारा देश चित्रकूट बन जाएगा। प्रायः सामाजिक चिंतन करने वालों के मन में उद्योगपतियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रहती है। जबकि अरविंद भाई पूरे समाज से सम्मानित होकर पिछले 38 साल से जनसेवा कर रहे हैं। इसलिए उनका उल्लेख करना और उनसे प्रेरणा लेना सभी सद् विचारवालों के लिए एक सुखद अनुभूति होगी।

Friday, April 9, 2004

लोकतंत्र या राजतंत्र


राजनेताओं के साहेबजादे और साहेबजादियां बड़ी तादाद में चुनावी जंग में कूद पड़ें हैं। इनके नामांकन पत्र युवराजों के शाही सवारियों की तरह भरे जा रहे हैं। कोई दल इसमें पीछे नहीं हैं। लोकतंत्र के नाम पर हर राजनेता अपनी संतान को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। कार्यकर्ता तो सिर्फ नारे लगाने और भीड़ जुटाने के लिए होते हैं और विचारधारा केवल बयानबाजी करने के लिए।

दरअसल राजनीति इस देश में आज सबसे बड़ा उद्योग बन गई है। समय, धन, संसाधन और अक्ल का जितना विनियोग इस उद्योग में किया जाता है। उससे कई हजार गुना मुनाफा थोड़े ही समय में होता है। इसलिए राजनेता अपनी राजनैतिक कमाई अपने वारिसों को ही सौंपना चाहते हैं। वे ये सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि जिस तरह उन्होंने राजनीति में रह कर जनसेवा के नाम पर राजसी ठाट-बाट भोगे वैसे ही ठाट उनकी संतति के भी होने चाहिए। चाहे उसमें समाज को नेतृत्व देने का गुण हो या न हो। चाहे उसे इस देश की जमीनी हकीकत का पता हो या न हो। चाहे उसकी रूचि राजनीति में हो या न हो। बस इतना ही काफी है कि वह एक स्थापित राजनेता का पुत्र या पुत्री है। इस एक चीज के आगे सारे दुर्बलताएं छिप जाती हैं। मजे की बात ये हैं कि जो दल विचारधारा की दुहाई देकर वंशवाद के लिए नेहरू खानदान को गाली दिया करते थे वे ही आज वंशवाद के सबसे बड़े पोशक बने बैठे हैं। यह प्रवृत्ति घटने की बजाए बढ़ती जा रही है। यही हाल रहा तो अगले चुनावों में राजनैतिक दलों के मुख्यालयों पर से टिकटार्थियों की भीड़ गायब हो जाएगी। क्योंकि उन्हें  भी पता चल चुका होगा कि टिकट किसी राजकुमार या राजकुमारी के लिए पहले से ही आरक्षित हैं।

इस तरह हर संसदीय क्षेत्र पर राजनेताओं का वंशानुगत आधिपत्य हो जाएगा और तब ये संसदीय क्षेत्र  ठीक वैसे ही काम करेंगे जैसे भारतगण राज्य में विलय होने से पहले देश की सैकड़ों रियासतें चल रहीं थीं।  इस बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर मतदाताओं के मन में ये प्रश्न आना स्वभाविक है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने महाराजाओं के प्रीवि पर्स क्यों समाप्ति किए ? उन बिचारों का क्या दोष था ? वे अपना राज खोने के बाद केवल पेंशन ही तो ले रहे थे। अगर इसी तरह राजनेताओं के साहिबज़ादों को राजनीति में स्थापित करने को ही लोकतंत्र कहते हैं तो फिर देशी रियासतों को ही फिर से जीवित क्यों न कर दिया जाए और उनके वर्तमान वंशजों को संसद के चुनाव में जीताकर राजाओं की संसद का गठन कर लिया जाए। तब कम से कम चुनाव का खर्चा और सैकड़ों राजनैतिक दलों की जहमत तो बच जाएगी। आम आदमी की चिंता न तो पहले के राजाओं को थी और ना ही आज के राजनेताओं को है।

इन परिस्थितियों में सबसे बड़ी भूमिका देश के नौजवानों की है। आज देश की आबादी का 40 फीसदी नौजवान हैं। जिनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं। फिर क्या वजह हैं कि ये ऊर्जावान बेरोजगार युवा संगठित होकर अपना हक नहीं मांगते ? इन युवाओं में भी बहुसंख्यक देहात में रहते हैं। जो देहात में रहते हैं वे जानते हैं कि उनके परिवेश की आर्थिक हालत कैसी है और क्यों है ? आज रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं ने किसान की कमर तोड़कर रख दी हैं। हरित क्रांति के दौर में उपज बढ़ाने के लालच में देश के किसानों ने इन्हें आंख मीच कर अपना लिया। अब हालत ये है कि हर साल इनकी खपत बढ़ती जाती हैं और जमीन की उर्वरकता कम होती जा रही हैं। ज्यादा खाद डालने का मतलब ज्यादा लागत। किसान विषम चक्र में फंस चुका है। इस चक्र से निकलने का एक ही रास्ता है कि अपनी खेती को जैविक खाद की तरफ मोड़ा जाए। गाय और बैल के गोबर की खाद सर्वोत्तम सिद्ध हो चुकी है। विडंबना यह है कि आम आदमी को रासायनिक खादों में उलझा कर इस देश का सत्ताधीश और धनी वर्ग खुद गाय की तरफ मुड़ चुका हैं। ऐसी खाद की उपज का गेंहू, दाल, चावल आदि रासायनिक खादों की तुलना में चैगुने दामों पर बिक रहा है। इसे मुनाफे का सौदा मान कर अनेक संपन्न मारवाड़ी परिवारों ने गाय के गोबर पर आधारित खेती को बहुत बड़े स्तर पर करना शुरू कर दिया हैै। कई-कई सौ एकड़ जमीन पर यह खेती की जा रही है और इसकी उपज महानगरों और विदेशों में बेची जा रही हैं। पर कोई नेता या उसका साहिबज़ादा ये बात देहात के नौजवानों को नहीं बताएगा। ना टीवी चैनल ऐसे कार्यक्रम दिखाएंगे। अगर गाय के गोबर की खाद का प्रचलन फिर से हो गया तो टीवी वालों को विज्ञापन देने गाय तो आएंगी नहीं। करोड़ों रूपए का विज्ञापन तो रासायनिक खादों के निर्माता ही दे सकते हैं क्योंकि वे किसानों को मूर्ख बना कर हजारों करोड़ रूपए सालाना कमा भी रहे हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि जैविक खाद की उपज खाने से और देशी गाय का दूध पीने से काया निरोगी होती है और बुद्धि तेज होती है। इस तरह अंग्रेजी दवाओं का बाजार समाप्त होता है। अब भला कौन सी दवा कंपनी ये विज्ञापन देगी कि गाय का दूध पीने से आदमी सेहतमंद होता है। यह सब जानकारी गांव के नौजवानों को ही आगे बढ़कर इकट्ठी करनी होगी। आज के युग में ज्ञान सबसे बड़ी शक्ति होता है। सही ज्ञान से देहात के नौजवान अपनी सेहत और अपनी आर्थिक स्थिति दोनों सुधार सकते हैं।

लोकतंत्र का जो स्वरूप आज हमारे सामने विकसित हो गया है उसमें कोई सच्चा ईमानदार और वास्तव में जनसेवी व्यक्ति तो चुनाव जीत ही नहीं सकता। चुनाव तो काले धन और डंडे के जोर पर ही जीते जाते हैं। चुनाव लड़ने और जीतने वालों का भी एक माफिया बन चुका है। कोई दल इसकी गिरफ्त के बाहर नहीं है। इसलिए एक भी सच्चा और ईमानदार आदमी इस चुनाव व्यवस्था में चुनाव नहीं जीत सकता। तो क्या करें ? लुटते रहे ? पिटते रहें ? बर्बाद होते रहें ? अपनी दुर्भाग्य को कोसते रहें या नक्सलवादियों की तरह शस्त्र उठा कर खूनी क्रांति की ओर बढ़ चलें ? नहीं, दूसरा रास्ता भी है। आर्थिक स्वावलंबन का रास्ता। देशी जीवन पद्धति का रास्ता। गांव के नौजवानों को इतना भर करना है कि अपनी दृष्टि साफ कर लेनी है। पारंपरिक और देशी जीवनपद्धती को अपना कर जहां तक संभव हो शहरी शक्तियों को अपने इलाके से उखाड़ फेंकना है। आजादी की लड़ाई में भी गांधी जी के आर्थिक आंदोलन ने अंग्रेज सरकार की कमर तोड़ दी थी। देश के देहाती नौजवान भी अगर अपने आर्थिक स्वावलंबन के लिए संगठित होकर ऐसा आंदोलन छेड़ दें तो सुख और संपन्नता उनके चरण चूमेंगे। इस आंदोलन के लिए अपना काम छोड़कर शहर की सड़कों पर नारे लगाने नहीं जाना पड़ेगा। पुलिस की लाठी भी नहीं खानी होगी। जेल भी नहीं भरनी होगी। केवल अपने घर और खेत पर नई सोच लागू करनी होगी। हमारे लोकतंत्र का चाहे कितना ही पतन क्यों न हो गया हो पर इतनी आजादी तो हर इंसान को है कि वो अपनी मर्जी का जीवन जी सके।

देश के क्रांतिकारियों और समाजसुधारकों को भी मीडिया का आकर्षण छोड़कर और विदेशी सेमिनारों का लालच छोड़कर पूरी तनमयता से इस काम में जुटना होगा और गांव में जाकर रहना होगा। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो न सिर्फ हम अपने देश की नीतियों को प्रभावित कर सकेंगे बल्कि राजनीतिज्ञों को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनने के लिए मजबूर कर देंगे।

पर जरूरत इस बात की है कि जो देशी पद्धति हम अपनाएं, उसमें हमारी पूर्ण निष्ठा और उस पर हमारा पूर्ण विश्वास हो तभी कामयाब हो पाएंगे। अधकचरे ज्ञान और अधमने मन से किए गए बदलाव वांछित फल नहीं दे पाएंगे। लोकतंत्र के इस महापर्व पर जब हर राजनैतिक दल बेसिरपैर के मुद्दे उछालने में लगा है तब देश के हर गांव के नौजवानों को ऐसे गंभीर और बहुजन कल्याणकारी विचारों पर ध्यान देना चाहिए। अगर यह विचार गांव में अपना लिया जाता है तो फिर न सिर्फ गांव की अर्थ व्यवस्था मजबूत होगी बल्कि देश की राजनैतिक सत्ता का भी विकेन्द्रीकरण होगा। फसल कटने के बाद का समय और चुनाव का ये दौर युवाओं के लिए नया सोचने का अवसर है। जो जाग गया वो सुख की नींद सोएगा और जो सो रहा है या चुनाव के हुड़दंग में बेगानी शादी का अब्दुल्ला बना जा रहा है वो जीवन भर रोएगा। चुनाव किसी गांव का नक्शा बदलने नहीं जा रहे हैं। ये काम तो देश के देहाती नौजवानों को ही करना होगा।