Sunday, August 12, 2007

एड्स पर आकडों में अचानक इतनी गिरावट क्यों आई ?

पिछले दिनों एड्स को लेकर देश में एक अति महत्वपूर्ण खबर को नजरंदाज कर दिया गया जबकि इस खबर ने एड्स के पूरे प्रचार अभियान पर अनेक सवाल खडे कर दिए हैं जिनका जवाब न तो नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन (नाको) के पास है और ना ही भारत सरकार के पास। नाको ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पाॅजिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है।

उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत मंे एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।’ इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है। 10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झूठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है और इनकी वेबसाइट है ूूूण्ंपकेउलजीण्बवउ। इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की। इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या ‘जानलेवा’ मानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ?

दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फर्रेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है। सवाल उठता है कि एड्स को महामारी बता कर विज्ञापनों और एड्स रोकथाम कार्यक्रमों पर जो रूपया पानी की तरह बहाया गया उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? वो स्वयंसेवी संगठन और फिल्मी सितारे भी कम गुनाहगार नहीं जो एड्स के प्रचार अभियान से जुड़ कर मोटी कमाई करते रहे और जनता के बीच भय और आतंक पैदा करते रहे। इस पूरे मामले की विस्तृत जांच होनी चाहिए ताकि इस अंतर्राष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो। नाको की इस घोषणा के गंभीर परिणाम निकलेंगे क्योंकि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि एड्स का भय दिखा कर नाको और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड किया है और जनता के कर के अरबों रूपयों को पानी की तरह बहाया है जिसके लिए नाको के निदेशक व यूएन एड्स के भारतीय निदेश टेनिस ब्राउस व भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को सवालों के घेरे में खड़ा किया जाना चाहिए और इनसे हर सवाल का स्पष्ट जवाब मांगा जाना चाहिए।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

Sunday, August 5, 2007

सांसदों और विधायकों की भी जरूरी है जवाबदेही

Rajasthan Patrika 05-08-2007
लोकसभाध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि संसद का बहिष्कार करने वाले सांसदों का दैनिक भत्ता काट लिया जाना चाहिए। आपको शायद ज्ञात हो कि लोक सभा सत्र के दौरान मात्र एक मिनट की लोकसभा कार्यवाही पर सदन का खर्चा 26,035 रूपए आता है। श्री चटर्जी का मानना है कि ऐसे कानूनी प्रावधान या नियम तय किया जाना चाहिए जिनसे सांसद सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से निभाएं। संसद के आगामी सत्र में इस मुद्दे को वे विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं के साथ उठाने का मन बना चुके हैं। निःसंदेह यह गंभीर समस्या है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे सांसद हो या विधायक अक्सर सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह गंभीरता से नहीं करते।



वैसे तो सांसदों के आचरण से क्षुब्ध हो कर तत्कालीन दिवंगत लोकसभाध्यक्ष श्री जीएमसी बालयोगी ने लगभग पांच साल पहले उठाई थी और कुछ शख्त कार्यवाही पर सहमति भी बनी थी पर उसे लागू करने में विभिन्न पार्टी नेताओं की आनाकानी से उसमें वे सफल नहीं हो पाए थे। परंतु इस बार अगर श्री सोमनाथ चटर्जी के पहल पर गंभीरता से सभी पार्टी नेता अपना अपना सहयोग संासदों के आचरण के सुधार की पहल में करते हैं तो कोई कारण नहीं जो लोक सभा की कार्यवाहियों के समय को जाया जाने से बचाया न जा सके। अगर ऐसा लोकसभा में हो जाता है तो इससे सीख लेकर प्रदेश सरकार अपने-अपने विधानसभाओं में विधायकों को सांसदों के आचरण का अनुशरण जैसी सीख देने में सफल हो सकते हैं वरना जनता के गाढे खून-पसीने की कमाई को यूं ही जनसेवक बर्बाद करते रहेंगे और जनता यूं ही देखती रह जाएगी।

सांसदों के आचरणों के कारण 13वीं लोक सभा सत्र के दौरान हो-हल्ला में 22.4 प्रतिशत समय नष्ट हुआ था और 14वीं लोक सभा सत्र के दौरान अभी तक 26 फीसदी समय नष्ट हो चुका है, अब आप समझ सकते हैं कि मात्र एक मिनट लोक सभा कार्यवाही का खर्चा जब 26,035 रूपए आता है तो 13वीं व 14वीं लोक सभा सत्र के दौरान इतने समय की कीमत से अगर विकास कार्य होता या किसानों के कर्ज को माफ किया गया होता तो आए दिन कर्ज के कारण देश जिस प्रकार किसान आत्म हत्या कर रहे हैं उनमें से कुछ को अवश्य ही बचाया जा सकता है। एक तरफ तो कर्ज और भुखमरी के कारण लोग असमय मर रहे हैं और दूसरी ओर समय की कीमत को न समझना यह समझदारी कतई नहीं हो सकती।  

कुछ वर्ष पहले मेरे मित्र श्री सूर्य प्रकाश ने सांसदों के व्यवहार पर एक शोध किया। अनेकों सांसदों से बातचीत के आधार पर उन्होंने अंग्रेजी में अपनी पुस्तक व्हाॅट एल्स इंडियन पाॅलियामेंट-एन एग्ज़क्टिव डाग्नोसिसछापी। जिसमें खुद सांसदों ने यह स्वीकारा था कि वे किस तरह का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार सदन में करते हैं।

मसलन, सांसदों ने ही बताया कि किस तरह बिना कोरम पूरे किए ही महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा की खानापूर्ति हो जाती है। उन्होंने यह भी बताया कि अक्सर सांसदों की रूचि संसद की कार्यवाही में नहीं होती और वे अपनी उपस्थित रजिस्टर पर दस्तखत करके सत्र के दौरान सदन से गायब रहते हैं, दस्तखत इसलिए करते हैं कि उन्हें भत्ते के रूप में मिलने वाली धनराशि 1000 मिल जाए। सांसदों ने यह भी बताया कि प्रश्न पूछने के लिए किस तरह के गैर-जिम्मेदाराना कार्य किए जाते हैं, जिनसे अपने क्षेत्र या देश का हित नहीं बल्कि निहित स्वार्थों का हित पूरा होता हैं। पिछले एक दशक में उजागर हुए अनेक किस्म के घोटालों से बहुत से सांसदों के चरित्र और कार्य शैली पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं, जिनका यहां खुलासा करने की आवश्यकता नहीं हंै। इस सब के बावजूद यह जरूरी है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे सांसद हो या विधायक सदन के प्रति जिम्मेवारी से व्यवहार करें और इसके लिए कानून और नियमों में आवश्यक सुधार किए जाएं। लोक सभा अध्यक्ष को यह पहल करनी ही चाहिए और हर दल के अध्यक्ष को इस प्रयास में सकारात्मक सहयोग देना चाहिए। इससे सदन की गरिमा बढ़ेगी और विधायिका के प्रति जनता में विश्वास बढेगा।

जब सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों और निजी क्षेत्र में लगे लोगों से अनुशासित आचरण की अपेक्षा की जाती हैं और जरा सी लापरवाही पर दण्डात्मक कार्यवाही की जाती है तो फिर सांसदों और विधायकों से ऐसे आचरण की अपेक्षा क्यों न की जाए। कहावत भी है कि यथा राजा तथा प्रजा। संासदों और विधायकों का आचरण अनुकरणीय होना चाहिए। निजी जीवन में न सही पर कम से कम सदन में तो उसकी मर्यादा के अनुरूप आचरण किया ही जाना चाहिए। जो भी सांसद या विधायक सदन की कार्यवाही के दौरान उपस्थित रजिस्टर पर दस्तखत करने के बाद भी उपस्थित न रहे उनका दैनिक भत्ता तो काटा ही जाए लगातार तीन बार ऐसा करने पर संसदीय समितियों से हटा दिया जाए और इसके बावजूद भी उनका व्यवहार न बदले तो दिल्ली में दी गई उन्हें आवास या अन्य सुविधाएं वापस लेने की कार्यवाही शुरू करनी चाहिए। कुल मिला कर प्रयास यही होना चाहिए कि सांसद और विधायक सदन के सत्र के दौरान जिम्मेदारी से व्यवहार करें जिससे जनता की आस्था उनमें बढे इस प्रयाय के लिए श्री सोमनाथ चटर्जी का मुक्त हृदय से समर्थन किया जाना चाहिए। पूरे देश के जागरूक नागरिकों विशेष कर युवाओं को इस  प्रयास के समर्थन में अध्यक्ष को पत्र लिखने चाहिए जिससे उनका मनोबल बढ़े।

Sunday, July 22, 2007

यूएनपीए ने गलत परंपरा डाली राष्ट्रपति चुनाव का बहिष्कार करने वाले जनता के प्रति जवाबदेह

राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हो गया। यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलाइन्स (यूएनपीए) ने इस चुनाव का बहिष्कार किया और साथ ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और कर्नाटक में सत्तारूढ श्री देवगौडा के दल ने भी इस चुनाव का बहिष्कार किया। हालांकि इस बहिष्कार से राष्ट्रपति के चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। श्रीमती प्रतिभा पाटील का राष्ट्रपति बनना तय था और वे बन गईं। पर इस बहिष्कार ने कई गंभीर सवाल खडे कर दिए। अब तक सांसद और विधायक संसद और विधानसभाओं का बहिष्कार करते थे। तब भी यह सवाल उठते थे कि क्या यह बहिष्कार नैतिक रूप से उचित है। इस देश के मतदाता इस तरह के बहिष्कार को कभी पसंद नहीं करते। उनके खून-पसीने की कमाई में से वसूले गए कर का करोडों रूपया संसद और विधानसभा के बहिष्कार में बर्बाद हो जाता है। पर यहां तो सवाल राष्ट्रपति के चुनाव का है जो सदनों के सत्र जैसी अक्सर होने वाली घटना नहीं है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर लोकतांत्रिक तरीके से होने वाले चुनाव का भी अगर जनता के चुने हुए नुमाइंदे बहिष्कार करते हैं तो मतदाताओं को उनसे यह पूछने का हक है कि ऐसा उन्होंने किस अधिकार से किया ? साफ जाहिर है कि जिन करोडों मतदाताओं के प्रतिनिधि इस बहिष्कार को करने वाले सांसद व विधायक हैं, उन करोडों मतदाताओं को लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर ही नहीं मिला। इस तरह इन सांसदों और विधायकों ने इन करोडों मतदाताआंे द्वारा प्रदत्त अधिकार का सही उपयोग नहीं किया। ये सांसद व विधायक यह तर्क दे सकते हैं कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय या चुनाव आयोग से ऐसा कोई निर्देश नहीं मिला कि यह मत देना उनके लिए अनिवार्य हो। 

दरअसल, जिस समय भारत के चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त अन्य सदस्यों के साथ इस विषय पर फैसला देकर निकले तब मैं चुनाव आयोग में ही था और उसके तुरंत बाद मेरी एक लंबी बैठक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ तय थी, जिसमें मैंने उनसे इस निर्णय को लेकर भी कुछ चर्चा की। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश भले ही न दिए हांे और सांसदांे व विधायकों को अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने के लिए छोड दिया हो। पर प्रश्न उठता है कि जब हमारे यहां राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष मतदान का प्रावधान है, यानी जनता सीधे राष्ट्रपति का चयन न करके अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से चुनाव करती है। तो इन प्रतिनिधियों को यह निर्णय अपने मतदाताओं से पूछ कर लेना चाहिए था। दरअसल, बहिष्कार करने का आधार अगर सैद्धान्तिक मतभेद है और विरोध करने के लिए इतना कड़ा कदम उठाना अनिवार्यता है तो उसके बेहतर तरीके अपनाए जा सकते थे। मसलन जापान में एक बार एक जूता कारखाने के कारीगरों को अपने प्रबंधन से नाराजगी थी तो उन्होंने हड़ताल पर जाने का फैसला किया। इसका मतलब यह नहीं कि वे काम पर न आए हों या उन्होंने जूते का उत्पादन न किया हो। उन्होंने यह तय किया कि वे केवल एक पैर का जूता बनाएंगे और अन्य दिनों से ज्यादा उत्पादन करेंगे। नतीजतन एक पैर के जूतों का ढेर लगता गया जिन्हंे कंपनी बेच नहीं सकती थी। हार कर उसे कर्मचारियों की मांग माननी पड़ी। 

सांसद और विधायक सदनों में अपने विरोध के नए तरीके इजाद कर सकते हंै क्योंकि वे कोई ट्रेड यूनियन वाले तो हैं नहीं जो उन्हें हड़ताल पर जाना पड़ता हो। वे तो इस देश के कानून के निर्माता हैं। जब कानून के निर्माता ही कानून तोडेंगे तो जनता से अनुशासित रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। एक बात यह भी है कि यूपीए की उम्मीदवार श्रीमती प्रतिभा पाटील का विरोध इन सांसदों और विधायकों ने इसलिए नहीं किया कि वे योग्य उम्मीदवार नहीं हैं बल्कि इसलिए किया कि उनकी निगाह अगले चुनावों पर है जिसमें वे स्वयं को कांगे्रस पार्टी या यूपीए के साथ खड़ा देखना नहीं चाहते। उधर श्री भैरो सिंह शेखावत, जोकि एक निर्दलीय उम्मीदवार थे, उनका बहिष्कार इसलिए नहीं किया कि वे उनकी योग्यता से संतुष्ट नहीं थे बल्कि इसलिए किया कि यूएनपीए अपने अल्पसंख्यक मतदाताओं को यह संदेश देना चाहता था कि वे संघ या भाजपा समर्थित उम्मीदवार के पक्ष में नहीं हैं। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि राष्ट्रपति के चुनाव में यूएनपीए ने मात्र अपने वोटों पर दृष्टि रख कर फैसला लिया, उनका राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया या उम्मीदवारों से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक गलत परंपरा की शुरूआत हुई है। 

बहुदलीय सरकारांे के इस दौर में जब हर छोटा-बड़ा दल मोल-तोल की राजनीति कर रहा है तो भविष्य में इस बात की पूरी संभावना हो सकती है कि राष्ट्रपति का चुनाव करवाना ही एक जटिल समस्या बन जाए, जब दर्जनों दल ऐसे बहिष्कार का फैसला कर बैठें। आम मतदाता को तो अच्छी, साफ, जिम्मेदार व टिकाऊ सरकार की अपेक्षा होती हैं। अनेकों घोटालों में अनेक दलांे के वरिष्ठ नेताओं के लिप्त होने के बाद आम जनता यह समझ गई है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर लड़ने वाला कोई भी दल भ्रष्टाचार से निपटना नहीं चाहता। सब एक दूसरे को बचाने की कोशिश करते हैं। चाहे कोई किसी दल का क्यों न हो। इसलिए मतदाता अब विचारधारों के आडंबर से प्रभावित नहीं हो रहा है। सुश्री मायावती की अप्रत्याशित जीत ने यह सिद्ध कर दिया कि बेहतर प्रशासन की उम्मीद में ब्राहम्ण, वैश्य और ठाकुर सुश्री मायावती के पीछे लामबंद हो चुके हंै और उन्हें अब यह याद भी नहीं कि सुश्री मायावती इन सवर्णो के प्रति कैसे उत्तेजक भाषण दिया करती थीं।

अपना मूल मुद्दा वही है कि इस ऐसे माहौल में राष्ट्रपति का चुनाव सतही राजनीति का शिकार न बन जाए। यदि हम ये मान बैठे हैं कि भारत में राष्ट्रपति का पद मात्र एक औपचारिता है तो फिर इस पद को समाप्त करने की बहस चलनी चाहिए और यदि हम ये मानते हैं कि मौजूदा संविधान के अनुसार लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रपति का पद अपने मौजूदा स्वरूप में बना रहना चाहिए। तो हमें इस बहिष्कार पर गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसा बहिष्कार देश के मतदाताओं को स्वीकार्य नहीं है। ऐसे संवैधानिक पदो ंके चुनाव में मत डालने की बाध्यतास सभी सांसदों व विधायकों पर लागू होनी चाहिए या फिर देश में एक बहस छिडे जैसी पहले छिडती रही है और संविधान मंे संशोधन किया जाए और राष्ट्रपति पद का चुनाव सीधे जनता ही करे, ऐसा कानून बना दिया जाए। खर्चा और आफत बचाने के लिए इस चुनाव को लोक सभा के आम चुनाव के साथ भी करवाया जा सकता है। तब कम से कम भारत के हर नागरिक को अपना राष्ट्रपति चुनने का हक तो मिलेगा। जो हक यूएनपीए व अन्य कुछ दलों ने बिना उनकी मर्जी के उनसे छीन लिया। इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के बहिष्कार के यूएनपीए के फैसले पर देश में गंभीर चिंतन की जरूरत है ताकि बहिष्कार की संस्कृति से पिण्ड छुडा कर हमारा लोकतंत्र सकारात्मक सोच से आगे बढ़ सके।

Sunday, July 15, 2007

भारत सरकार कटघरे में -एड्स का झूठा आतंक फैलाया

नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन) ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पा¡जिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है। इस घोषणा के गंभीर परिणाम निकलेंगे क्योंकि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि एड्स का भय दिखा कर नाको और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड किया है और जनता के कर के अरबों रूपयों को पानी की तरह बहाया है जिसके लिए नाको के निदेशक व यूएन एड्स के भारतीय निदेश टेनिस ब्राउस व भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के खिलाफ कडी कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए और इन पर धोखाधड़ी, जालसाजी और सरकारी धन के दुरूपयोग के मुकद्दमें कायम करने चाहिए।



उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त देश का ज्यादातर मीडिया, अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है। 10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झुठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है। इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की।

इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या जानलेवामानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ? दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फर्रेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है।

सवाल उठता है कि एड्स को महामारी बता कर विज्ञापनों और एड्स रोकथाम कार्यक्रमों पर जो रूपया पानी की तरह बहाया गया उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? वो मीडिया वाले, स्वयंसेवी संगठन और फिल्मी सितारे भी कम गुनाहगार नहीं जो एड्स के प्रचार अभियान से जुड़ कर मोटी कमाई करते रहे और जनता के बीच भय और आतंक पैदा करते रहे। इस पूरे मामले की विस्तृत जांच होनी चाहिए ताकि इस अंतर्राष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

Sunday, July 1, 2007

राष्ट्रपति के चुनाव में ये छीछालेदर सही नहीं

Rajasthan Patrika 01-07-2007
गत 10 वर्षों में जितने घोटाले देश के सामने आए हैं उतने आजादी के बाद पहले कभी नहीं आए थे। राजनेताआंे की छवि जनता के मन में गिरी हैं, इससे कोई भी राजनेता असहमत नहीं होगा। भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या राजनीति के अपराधिकरण का, कोई दल इससे अछूता नहीं हैं। फिर भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी का राष्ट्रपति के उम्मीदवार श्रीमती विमला पाटील को दागी कहना गले नहीं उतरता। हकीकत तो यह है कि कोई भी राजनेता जो राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचता है वो सत्यवादी राजा हरिशचन्द के पद्चिन्हों पर चल कर नहीं बल्कि उन सब हथकंडों को अपना कर आगे बढता है जिन्हें कानून की निगाह में अपराध कहा जा सकता है। सभी बड़े नेता यह बात वखूबी जानते हैं और वे ये भी जानते हैं कि हर दल जब सत्ता में आता है तो अपने दागी नेताओं का बचाव करने में चुकता नहीं। इतना ही नहीं श्रीमती विमला पाटील पर जिन दो आरोपों को भाजपा प्रमुखता से लगा रही है वे हैं बैंक के ऋण भुगतान से संबंधित व दूसरा हत्या के मामले में अपने भाई को बचाना। अगर इन आरोपो में सच्चाई है तो क्या वजह है कि भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने इन सवालों को पहले नहीं उठाया  जब वे राजस्थान की राज्यपाल बनी थीं? इस मामले को ही क्यों आजादी के बाद जितने भी घोटाले सामने आए उनमें से कितने घोटाले ऐसे हैं जिनमें आरोपियों को सजा दिलाने के लिए भाजपा ने कमर कसी हो ? शोर मचाना, मीडिया का ध्यान आकर्षित करना और राजनैतिक लाभ को दृष्टि में रखकर जनता के बीच जाना ये हर दल की फितरत होती हैं। भाजपा भी किसी से कम नहीं। क्या वजह है कि 6 वर्ष के राजग के शासनकाल में भी किसी भी बड़े राजनेता या वरिष्ठ अधिकारी को सजा नहीं मिली। दरअसल कोई भी दल नहीं चाहता कि उसके नेताओं को सजा मिले। सब लीपापोती करते हैं। अब इस माहौल में कोई पूरी तरह बेदाग हो तो सामने आए।
 संतोष की बात यह है कि उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने अपनी उम्र और पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार पर कोई भी व्यक्तिगत आरोप लगाने से मना किया है। वे इस चुनाव को अंतर्रात्मा की आवाज पर लड़ना चाहते हैं। उन्हें विश्वास है कि पिछले 6 दशकों से भारतीय राजनीति में उनके अभिन्न मित्र रहे दर्जनों नेता दलगत भावना से ऊपर उठकर उनका समर्थन करेंगे और वे वैसे ही जीत जाएंगे जैसे डा. नीलम संजीवा रेड्डी को हरा कर श्री वी.वी. गिरी जीते थे। राष्ट्रपति पद के लिए कुल वोट 10,98,882 हैं और 4,896 सांसद और विधायक नए राष्ट्रपति का चुनाव करेंगे। किक्रेट के खेल की तरह राजनीति कब पलटा खा जाए यह कोई नहीं कह सकता। आज वोटों का गणित भैरो सिंह जी के विरूद्ध दिख रहा हैं और विमला पाटील जी की विजय सुनिश्चित मानी जा रही है। पर क्या कांग्रेस आलाकमान इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हैं कि उनकी टीम के सभी सांसद और विधायक एकजुट होकर श्रीमती विमला पाटील के पक्ष में मतदान करेंगे ? क्योंकि इस चुनाव में पार्टी का व्हिप जारी नहीं होता इसलिए हर सांसद और विधायक अपना वोट देने के लिए स्वतंत्र है। ऐसे में अगर श्री भैरो सिंह शेखावत यूपीए के किले में सेंध लगा देते हैं तो कौन जाने क्या परिणाम सामने आएं? पर यदि राष्ट्रपति के चुनावों में व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इससे राष्ट्रपति पद की प्रतिष्ठा गिरेगी जिसका लाभ किसी को नहीं मिलेगा, न जीतने वाले को न हारने वाले को। वेैसे भी भारत में राष्ट्रपति का पद केवल एक अलंकरण हैं, राष्ट्रपति नीति निर्धारण को प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसलिए राष्ट्रपति किसी भी दल का क्यों न हो संविधान के दायरे से बाहर जा कर कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठा सकता। 

संविधान के निर्माताओं ने पहले ही इस बात के काफी प्राविधान रख दिए कि कोई राष्ट्रपति अपने पद का दुरूपयोग न कर सकें। हां जहां तक संविधान में प्रदत्त राष्ट्रपति के विवेक पर आधारित निर्णय का प्रश्न हैं तो वहां जरूर कभी गम्भीर स्थिति पैदा हो सकती है, जैसी 1984 में 31 अक्टूबर को तब पैदा हुई थी जब ज्ञानी जैल सिंह ने श्री राजीव गांधी को बिना संवैधानिक प्रक्रिया के पूरे हुए ही प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। चूंकि परिस्थितियां श्री राजीव गांधी के पक्ष में थी इसलिए यह मामला तुरंत ही संभाल लिया गया। ऐसी परिस्थितियां कभी-कभार ही आती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि जब राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की घोषणा हो गई है तो इस चुनाव को संजीदगी से और सम्माननीय तरीके से लड़ा जाए। बेहतर तो यही होगा यूपीए भैरो सिंह जी को उपराष्ट्रपति पद का एक और कार्यकाल देने पर राजी हो जाए और एनडीए श्रीमती विमला पाटील को अपना समर्थन दे दे। इससे पद की गरिमा भी बनी रहेगी और देश को दो विभिन्न दलों के योग्य, अनुभवी और सम्माननीय नेताआं का राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद से मार्ग निर्देशन मिलता रहेेगा। दोनों ही पक्षों को गंभीरता से इस बात पर विचार करना चाहिए। होगा क्या यह तो भविष्य बताएगा पर अगर आडवाणी जी, वाजपेयी जी, चन्द्रबाबू नायडु जी, मुलायम सिंह जी, जयललिता जी व सोनिया गांधी जी आदि एक बार बैठ कर इस स्थिति को यहीं संभाल लें और बिगड़ने न दें वरना भविष्य में राष्ट्रपति  और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव उसी तरह लड़े जएंगे जैसे अपराधग्रस्त प्रांतों में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लडे़ जाते हैं। यह पूरे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

Friday, December 17, 2004

धरोहरों का विध्वंस क्यों ?


ताजमहल की दो मीनारें झुक रही हैं। इसकी चिन्ता भारत सरकार के पुरातत्व विभाग को अभी से सताने लगी है। मीडिया भी चैकन्ना हो गया है। ताज काॅरीडोर के निर्माण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह शुभ लक्षण है कि हम अपनी 500 वर्ष पुरानी धरोहर के लिए कितने सतर्क हैं। पर क्या किसी को पता है कि हमारी 5000 वर्ष पुरानी धरोहर को डायनामाइट लगाकर तोड़ा जा रहा है और कोई कुछ नहीं कर रहा है। भगवान श्री राधा-कृष्ण की लीला स्थली ब्रज प्रदेश के कामां इलाके में खाट शिला अब नहीं रही। पिछले वर्ष तक लाखों दर्शनार्थी इसके दर्शन करने यहां आते थे। पर्वत श्रॅखला के मध्य में स्थित यह खाट शिला 5000 वर्षों से सभी हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र थी। यह मान्यता थी कि गोचारण के समय भगवान श्रीकृष्ण गायों को चरने के लिए छोड़ कर इस बिस्तरनुमा शिला पर विश्राम करते थे। पर इसी वर्ष खान माफिया ने डायनामाइट लगाकर इसको उड़ा दिया। अब आने वाली पीढि़यां इस दिव्यस्थली के दर्शन कभी नहीं कर पायेंगी।

इस पहाड़ी के दूसरी तरफ एक फिसलनी शिला है। जिसका स्वरूप किसी भी पार्क में लगे स्लाइडर जैसा है। जिसपर एक तरफ से ऊंचा चढ़कर दूसरी तरफ से फिसलते हुए बच्चे नीचे आते हैं। यह वही शिला है जिसपर भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं के संग फिसला करते थे। अभी कुछ महीनों पहले तक यह शिला चमचमाती यथावत थी। ब्रज 84 कोस की यात्रा को आने वाले लाखों तीर्थयात्री पिछले 5000 वर्षों से इस शिला पर फिसलने का आनन्द लेते थे। अनेक महान संत और आचार्य भी शिला पर फिसलकर भगवत् लीला का स्मरण करते थे। पर पड़ोस के पहाड़ पर होने वाले डायनामाइट के धमाकों से यह शिला कई जगह से फट गई है। इसका रहा-सहा स्वरूप भी कुछ दिनों में नष्ट हो जायेगा। हमारे शास्त्रों में कृष्ण लीला की जिन हजारों स्थलियों का जिक्र है वे सब ब्रज में यथावत मौजूद हैं। इन स्थलियों के दर्शन करने हर वर्ष हजारों तीर्थयात्री पूरी दुनिया से ब्रज में आते हैं। पर संरक्षण के अभाव और खान-माफियों की कुदृष्टि के कारण तेजी से इन दर्शन स्थलियों का लोप होता जा रहा है। कायदे से इन लीलास्थलियों को समेटे ब्रज को पहले ही संरक्षित धरोहर क्षेत्र घोषित कर देना चाहिए था। पर किसी सरकार ने इसकी चिन्ता नहीं की। ब्रज का जो हिस्सा राजस्थान में आता है वहीं ये दिव्य पहाडि़यां हैं, जिन पर रात-दिन    अवैध खनन जारी है। खनन के पट्टे कांग्रेस के शासनकाल में दिए गए थे। पर अब हिन्दूवादी भाजपा सरकार भी इन्हें रद्द नहीं कर रही है। नतीजतन हर दिन एक-एक करके सभी लीलास्थलियों के चिन्ह नष्ट होते जा रहे हैं। हम मुसलमानों पर हिन्दू मन्दिर तोड़ने का दोष मढ़ते आए हैं पर दुःख की बात है कि ब्रज में आज जो विनाश का तांडव हो रहा है उसे हिन्दू सेठ और नेता ही कर रहे हैं। ये वही लोग हैं जो बड़े-बड़े भण्डारे और जागरण करवाते हैं और रात-दिन ठाकुरजी की नित्य विहार स्थली को नष्ट करने पर तुले हैं।
राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश पर 2 वरिष्ठ अधिवक्ताओं की एक समिति ने कामां में जांच करने पर हृदय विदारक सच्चाई का पता लगाया। इस समिति के एक सदस्य श्री अजय रस्तोगी  जी तो अब राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बन चुके हैं और दूसरे जगमोहन सक्सेना अभी  भी ब्रज बचाने की लड़ाई में जुटे हैं। इन दोनों की रिपोर्ट बताती है कि भरतपुर के इलाके में 24 अधिकृत खानें हैं जिन्हें 20 वर्ष की लीज दी गई है। इन्हें औसतन 5 हेक्टेयर भूमि दी गई है।
20 मार्च 2004 को अचानक किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि इन्हें पहले ही सूचना भिजवा दी गई थी, सो वे स्वागत के लिए तैयार थे। पर फिर भी टीम ने जांच की और पाया कि कोई भी खान पर्यावरण के हितों को ध्यान में रखकर काम नहीं कर रही थी जबकि ऐसा करना उनकी शर्तों में शामिल था। खानवालों द्वारा अपेक्षित वृक्षारोपण बिलकुल नहीं किया गया था। नियम विरुद्ध होने के बावजूद भूजल स्तर तक खनन किया जा रहा था। जिससे भूजल प्रदूषित हो रहा था। किसी भी खानवाले ने अपनी खान की सीमा पर अपेक्षित खम्भे या दीवार नहीं चिनी थी। साफ जाहिर था कि अधिकार से कहीं ज्यादा बड़े क्षेत्र में अवैध खनन जारी थी और खान विभाग के अधिकारी आंख मींचे बैठे थे। इस खनन से आसपास के पशुधन व कृषि को भारी नुकसान हो रहा था। सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा था।
इस तरह लूट का नंगा नाच हो रहा था। राजस्थान सरकार का खान विभाग अपनी जेब गर्म होने के कारण इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर रहा था। यह सभी हिन्दुओं के लिए शर्म की बात है कि उनके आराध्य भगवान श्रीकृष्ण की नित्य विहार स्थली ब्रज प्रदेश का ऐसा खुला विध्वंस किया जा रहा हो और हम भगवत् सप्ताह करवाने और छप्पन भोग करवाने में गौरवान्वित हो रहे हों। भजन संध्या में झूमने से क्या लाभ जब भजन के नायक ठाकुरजी की लीलास्थलियों को हम बचा नहीं पा रहे।
ब्रज के कुछ सन्त, अमरीका सेे आई कुछ हिन्दू महिलाएं और हम लोग 8 दिसम्बर 2004 को राजस्थान के खान मंत्री, सचिव व अतिरिक्त मुख्य सचिव से मिले। उनका कहना था कि हम एकदम से खान बन्द नहीं करवा सकते। यानी इस लूट को रोक नहीं सकते। जिनकी लीज 2010 में खत्म होगी उन्हें अभी से कैसे रद्द किया जा सकता है। फिर 5 करोड़ रूपये सालाना की राजस्व की भी क्षति होगी। हमारा उत्तर था कि 2010 तक तो कामां के पहाड़ बचेंगे ही नहीं। जहां तक राजस्व की बात है तो इस पूरे क्षेत्र को गोचर भूमि बना कर गाय, भेड़, बकरी से जुड़े उद्योगों को विकसित किया जा सकता है। इसके साथ ही तीर्थाटन का ताना-बाना बेहतर बनाकर काफी आमदनी की जा सकती है। इंग्लैड में शेक्सपियर के बाल को कांच के डिब्बे में बन्द करके रखा है। उसे दिखाने की टिकट 350 रूपये की लगती है फिर भी मीलों कतार लगी रहती है। ब्रज में 5000 साल की संस्कृति के हजारों अद्भत् चिन्ह मौजूद हैं जिन पर सूर और मीरा जैसे सन्तों ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। 
इतनी महान सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना आत्महत्या जैसा होगा। फिर भाजपा शासित राज्य में ऐसा हो यह तो बड़े शर्म की बात है। जबकि ताजमहल को बचाने के लिए आसपास के सारे उद्योग बन्द करवा दिए गए थे। दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिए सारी फैक्टरियां भी बन्द करवा दी गईं। तब संकोच नहीं हुआ। फिर गीता का ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण की लीलास्थलियों की ऐसी उपेक्षा क्यों ? हर हिन्दू और भारत के पे्रमी को एक-एक पत्र भारत के प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व राजस्थान की मुख्यमंत्री को लिखना चाहिए। ब्रज क्षेत्र में खनन कार्य तुरन्त रुकना चाहिए वर्ना भविष्य में कुछ नहीं बचेगा। हम भविष्य में 500 करोड़ रूपया खर्च करके नए मन्दिर तो बनवा सकते हैं पर क्या भगवान के पदचिन्हों को संजोए हुए इन पर्वतों को दुबारा बनवा पायेंगे ? हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं उठ खड़े होकर विरोध करने का समय है। वर्ना केवल पछताना ही पड़ेगा।

Friday, December 3, 2004

दाल हो तो खेसारी


हर जो चीज़ चमकती है उसको सोना नहीं कहते। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक-दमक और प्रचार के पीछे यही सच्चाई छिपी है। कभी बच्चों के लिए पाउडर का दूध बढि़या खुराक है, कह कर मूर्ख बनाते हैं। कभी कहते हें रासायनिक उर्वरक अच्छे हैं। कभी इन्हें खराब बनाते हैं। हम मूर्ख बनकर लुटते रहते हैं। यही किस्सा खेसारी दाल की भी है। देश में मिलने वाले ज्यादातर नमकीन इसी दाल से बनते हैं जो बेसन के बने जैसे लगते हैं पर ज्यादा खस्ता होते हैं।

खेसारी, विज्ञान के अनुसार एक दाल की फसल है परन्तु सामान्य लोगों का सूखा एवं आकाल के समय इसका उपयोग करके असंख्य लोगों ने अपना अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखा एवं प्राणों की रक्षा भी की है। अन्य प्रचलित दालों से इसमें सबसे ज्यादा मात्रा में अर्थात 32 से 34 प्रतिशत आसानी से पचने वाला उच्च कोटि के प्रोटीन होते हैं तथा सबसे कम कीमत पर मिलने तथा स्वादिष्ट एवं कुरकुरे पदार्थोंं के बनने से यह बहुसंख्यक लोगों की पहली पसंद की दाल है। दुधारू जानवरों का दूध एवं बैलों की शारीरिक स्फूर्ति एवं कार्यक्षमता को बढ़ाने तथा कम कीमत में मिलने वाला उत्तम क्वालिटी का राशन एवं चारे का काम करती है। जमीन में नाइट्रोजन जमा कर उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में मदद करने से धान का उत्पादन भी ज्यादा होता है।
खेसारी के पौष्टिक एवं औद्योगिक गुण, शून्य उत्पादन खर्च व आकाल के समय में भी खेतों में लहराते हुए ज्यादा उत्पादन देने तथा संकट के समय खाद्यानों की तरह मनुष्यों एवं जानवरों के प्राणों की रक्षा करने की क्षमता से प्रभावित होकर, ’’फसलों पर आधिपत्य जमाने वाले विकसित राष्ट्रों के वैज्ञानिकों’’ ने सूखे एवं आकाल के समय पर अन्य कारणों से इक्का-दुक्का पाए जाने वाले लेथारिज्म के रोगियों को मनगढ़ंत तरीकों से इसके रोगी बताकर उपयोगिता के प्रति गुमराह किया एवं लक्ष्य प्राप्त नहीं होने से आज भी कर रहे हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने भी बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन, शोधकार्यों के नतीजों अथवा लोगों के अनुभवों को देख, 1961 में राज्य सरकारों को बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की सलाह दे दी। ज्यादा उत्पादन करने वाले राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल इत्यादि ने अपने किसानों के अनुभवों के आधार पर प्रतिबंध लगाने से इन्कार कर दिया।
खेसारी दाल की बिक्री पर प्रतिंबध लगा देने तथा पाठ्य पुस्तकों में जहरीली दाल बताकर पढ़ाने से संपूर्ण देश की युवा पीढ़ी एवं शिक्षित नागरिक उपयोग के प्रति गुमराह हो गए। अन्य दालों का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं होने से देश दालों का आयात करने के लिए बाध्य हुआ। किसान लाभदायक फसल का उत्पादन नहीं कर पाने से आर्थिक रूप से पिछड़ा  एवं आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुआ। सामान्य जनता में खेसारी जैसी कम कीमत (क्रय शक्ति) पर आसानी से पचने एवं ज्यादा प्रोटीन वाली दाल के नहीं मिलने से कुपोषण बढ़ा एवं माताओं, बच्चों एवं युवाओं में तो उसने उग्र रूप धारण कर लिया। इस तरह राज्य सरकारों द्वारा बंदी लगाने से आम जनता एवं किसानों में असंतोष पनपा एवं फैला।
खेसारी दाल पर आधिपत्य जमाने वाले अमेरिका एवं इंग्लैन्ड के वैज्ञानिकों तथा वहां की सामाजिक संगठनों ने 1984 में ‘‘थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाऊंडेशन’’ की स्थापना न्यूयार्क एवं लन्दन में कर के ‘‘लाईक माईन्डेड वैज्ञानिकों’’ की गोष्ठियों का आयोजन करने लगे। इन गोष्ठियों में भारत, बंगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान, इन्डोनेशिया, इथोपिया, इत्यादि राष्ट्रों के साथ कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, फ्रांस, स्पेन इत्यादि राष्ट्रों के वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया जाने लगा। गोष्ठियों में सबने यह मान लिय कि खेसारी के टाॅक्सीन रहीत अथवा कम टाॅक्सीन के बीजों से उत्पादित खेसारी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हैं तथा एशिया एवं अफ्रीका के लोगों के लिए यह उत्तम खाद्यान तथा पशुओं के उत्तम चारे की फसल है।
कम टाॅक्सीन के बीजों के खोज कार्यों को गति देने की दृष्टि से थर्ड वर्लड मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन ने 1985 में ‘‘इन्टरनेशनल नेटवर्क फाॅर दी इम्पु्रव्हमेंट आॅफ लेथाइज्म सेटाईवस एवं इरेडीकेशन आॅफ लेथारिज्म’’ नामक संस्थ की न्यूयार्क में स्थापना की कृषि अनुसंधान संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में कम टाॅक्सीन के बीजों को खोजने का शोध कार्य प्रारंभ करने वालों को आथर््िाक मदद दी। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है की इन ‘‘लाईक माइन्डेड वैज्ञानिकों’’ ने कम टाॅक्सीन के मतलब को समझने एवं बीजों के गुणों की आर्थात उससे उत्पादित होने वाली दाल के गुणों की पहचान करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित एवं लाभदायक बताया, इससे शोध कार्यों को प्राथमिकता के उद्देश्यों के प्रति शंका निर्माण होना स्वभाविक है। खेसारी दाल में बी.ओ.ए.ए. नामक टाॅक्सीन होता है तथा उससे ही लेथारिज्म रोग होता है, यह बात सिद्ध हो जाने के पूर्व ही दुष्प्रचार प्रारंभ कर देना एवं प्रतिबंध लगा देना गलत है। खेसारी दाल में कितना टाॅक्सीन होने पर तथा उस दाल का कितनी मात्रा में कितने दिन तक उपयोग करने से लेथारिज्म रोग होता है, यह तथ्य वैज्ञानिक धरातल पर आज तक सिद्ध नहीं हुआ है। इसी तरह ‘‘कम टाॅक्सीन वाले बीजों’’ के उत्पादन की आवश्यकता को प्रतिपादित करना एवं जन्म के पूर्व गुणों बाबत् शोर मचाकर गुमराह करने का यह दूसरा उदाहारण है। इसे विज्ञान की खोज समाज के उत्थान के लिए बतलाना गलत है। टाॅक्सीन की मात्रा कितनी होने पर बीज कम टाॅक्सीन का कहलाएगा, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। किसी भी देश में अथवा प्रान्त में कम टाॅक्सीन के बीजों से खेसारी का उत्पादन एवं उपयोग नहीं हो रहा है। लम्बे समय तक खेतों में उत्पादन एवं खाद्यानों अथवा पशु खाद्य के रूप में उपयोग करने के पूर्व ही स्वास्थ्य के लिए लाभदायक, खाने से लेथारिज्म रोग नहीं होगा एवं किसानों के लिए लाभदायक मतलब उत्पादन शुल्क, अकाल व सुखे के समय भी शून्य होने का दावा व्यापारिक विज्ञान ही कर सकता है, विज्ञान नहीं। क्योंकि ऐसा दावा करना सरासर धोखा एवं छल है। सामान्यतः बीजों की खोज करने के बाद 20 से 30 साल के उत्पादन एवं उपयोग के अनुभवों के आधार पर गुणों की व्याख्या करना सही माना जाता है।
संयोग की बात ही कही जाएगी कि जब अमेरिका एवं इंग्लैंड के वैज्ञानिक खेसारी फसल पर अपना आधिपत्य जमाने के उद्देश्य से देश के ‘‘लाईक माईंडेड’’ आयुर्विज्ञान एवं कृषि क्षेत्र के वैज्ञानिकों से संबंध स्थापित कर रहे थे उस समय अकेडमी आॅफ न्यूट्रीशन इम्प्रुव्हमेंट, नागपुर के वैज्ञानिक अपने अध्ययनों से जनता के बीच सिद्ध कर रहे थे कि खेसारी दाल सब दालों से ज्यादा पौष्टिक, सस्ती एवं छोटे किसानों (जिनकी खेती वर्षा पर ही निर्भर करती है) के लिए सबसे लाभ दायक फसल है। आकाल व सूखे के समय ज्यादा उत्पादन देने से मनुष्य जाति का उत्तम खाद्यान तथा पशुओं का उत्तम चारे का काम करके इसने उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता को बनाए रखा तथा प्राणों की रक्षा भी की है। अकेडमी ने अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों द्वारा कम टाॅक्सीन के बीजों से उत्पादित होने वाली दाल के उपयोग को उसके जन्म के पूर्व ही स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित बतलाने एवं दुष्प्रचार को षड़यंत्र का भाग बताकर किसानों को बचने के लिए आगाह किया।
अकेडमी की मांग को वैज्ञानिक धरातल पर सही पाने तथा राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा गठित कमेटियों के सामने लेथारिज्म रोग का एक भी रोगी अथवा खेसारी एवं लेथारिज्म रोग में संबंध स्थाापित करने वाला शोध पत्र सामने नहीं आने के बाद भी, आधिपत्य जमाने वाले अंर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दबाव के कारण हमारे वैज्ञानिक ऊंचे पदों पर बैठे वैज्ञानिकों, राजनेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को बनावटी अथवा जल्दबाजी में किए गए सर्वेक्षणों के तथाकथित नतीजों से भविष्य में, लेथारिज्म रोग हो जाने पर उनकी ही बदनामी होगी का डर तथा अधिक शोध की आवश्यकता को अपनी रोज़ी-रोटी के लिए प्रतिपादित कर निर्णय लेने से रोक देते थे।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की गई यह स्वीकारोक्ति इस बात की पुष्टि करती है कि अकेडमी ने 18 सालों के अपने संघर्ष और अध्ययन से उस षंड़यंत्र को पूरी तरह विफल कर दिया जिसमें इस बहुउपयोगी खाद्यान की पारंपरिक फसल को समाप्त कर अपना बीज-फसल थोपने का प्रयास किया जा रहा था। इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि खेसारी एक अच्छा खाद्यान तथा पशु-खाद्य है। अब जब महाराष्ट्र में प्रतिबंध समाप्ति का निर्णय किया जा चुका है तो एक बार फिर अपना बीज फसल थोपने के प्रयास में यह वैज्ञानिक समूह सम्मेलन का आयोजन कर रहा है, वहां तीसरी दुनिया के उनके पक्षधर वैज्ञानिकों को अपने ओर से खर्च देकर आमंत्रित किया गया है। इन षड़यंत्रकारियों को यह पता है कि महाराष्ट्र में लगे प्रतिबंध को हटा देने से किसान खेती करने एवं बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे। इससे अकेडमी के प्रयास की सफलता पर मोहर लग जाएगी और वे अपने बीजों को तीसरी दुनिया के किसानों पर थोपने में सफल नहीं हो पाएंगे। साथ ही इस दाल के संबंध में अनेक वर्षों से जो हो-हल्ला मचा रखा था तथा डर पैदा किया गया था, उसकी पोल भी खुल जाएगी।