Sunday, August 26, 2007

मायावती के बदले तेवर

Rajasthan Patrika 26-08-2007
चैथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी सुश्री मायावती के प्रशासनिक निर्णयों की धमक प्रदेश के नगरों में सुनी जाने लगी है। गत दिनों पश्चिमी उ.प्र. के बुलंदशहर जिले में एक जैविक फार्म देखने जाते हुए हम कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध पिलखुआ में रूके तो वहां के कुछ उद्यमियों से बात हुई। सबका एक स्वर से कहना था कि नई सरकार के आते ही उनके इलाके से गqडों का आतंक समाप्त हो गया है। पहले ये उद्यमी दिन छिपते ही अपने कारखाने बंद करके घर भागते थे। वरना घर के रास्ते में लुट जाने या अपहरण हो जाने का खतरा था। पर अब रात के 12 बजे तक भी फैक्ट्री चला रहे हैं और बेखौफ घर जाते हैं। यह एक सुखद सूचना थी। ऐसी ही सूचनाएं प्रदेश के अन्य नगरों से भी मिल रही हैं। दरअसल सुश्री मायावती के तेवर इस बार काफी बदले हुए हैं। उ.प्र. में बहुत लंबे समय के बाद बहुमत की सरकार बनी है। वे सबकी अपेक्षाओं के विपरीत अपने दमखम पर सत्ता में आई हैं। इतना ही नहीं उनकी सोशल इंजीनियरिंग ने इंका व भाजपा के जनाधार को भी झकझोर दिया है। इससे इन दोनों बड़े दलों में घबड़ाहट है।

राजनैतिक विश्लेश्क यह मान रहे हैं कि अगर वे ऐसे ही चलती रहीं तो अगले लोक सभा चुनाव में देश की एक सशक्त नेता के रूप में उभरेंगी। शायद अपने इसी दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखकर वे अपनी सरकार चला रही हैं। जिससे देश के मतदाताओं को अपने कुशल और प्रभावशाली प्रशासक होने का संदेश दे सकें। सत्ता में आते ही अपने ही दल के सांसद को अपने घर पुलिस बुला कर गिरफ्तार करवाने का जो अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम उन्होंने किया उसका एक जोरदार संदेश पूरे प्रदेश में गया। ये सांसद गिरफ्तारी से बचते फिर रहे थे। सुश्री मायावती ने अपने दल के सभी सांसदों और विधायकों को कड़े निर्देश दिए हैं कि वे नेतागिरी के नाम कानून व्यवस्था से छेड़छाड न करें। प्रशासनिक अधिकारियों को सिफारिशों से परेशान न करें। उन्होंने दल के कार्यकर्ताओं को दलाली के लिए सरकारी दफ्तरों में चक्कर काटने से साफ मना किया है। प्रदेश में गुंड़ों, अपराधियांे, अपहर्णकर्ताओं के खिलाफ कड़े प्रशासनिक कदम उठा कर उन्होंने जनता को भयमुक्त प्रशासन देने का वायदा पूरा किया है। जिसका असर प्रदेश में साफ दिखाई दे रहा है। वैसे भी सुश्री मायावती की कार्यशैली से वाकिफ अफसरशाही उनके फरमानों की उपेक्षा करने की हिम्मत नहीं करती।

भारत के इतिहास में ये शायद पहली बार हुआ कि सुश्री मायावती ने प्रदेश के आईएएस अधिकारियों के उपर एक गैर आईएएस टेक्नोक्रेट श्री शशांक शेखर को कैबिनेट सचिव बना कर बैठा दिया। अभी तक कैबिनेट सचिव का पद केवल भारत सरकार में हुआ करता था। श्री शेखर एक अनुभवी और योग्य अधिकारी हैं। जिनपर सुश्री मायावती को पूरा भरोसा है और प्रदेश के आईएएस अधिकारी ये कह कर मन को तसल्ली दे रहे हैं कि श्री शेखर की नियुक्ति राजनैतिक है नाकि प्रशासनिक। सबसे बड़ी बात तो यह है कि, ‘तिलक तराजू और तलवार, इनकी मारो जूते चार’ का नारा देने वाली सुश्री मायावती आज सभी सर्वर्णों को साथ लेकर चल रहीं हैं और उनकी सत्ता में पूरी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं जिससे जनता में उनकी छवि एक सर्वमान्य नेता के रूप में बनने लगी है।

उधर उनके विरोधियों का कहना है कि यह सब केवल लोक सभा चुनाव तक ही चलेगा। उनके आलोचकों का यह भी कहना है कि इन प्रशासनिक कदमों से प्रदेश के आर्थिक विकास और प्रशासनिक कार्यकुशलता में कोई स्थायी सुधार नहीं होगा। यह केवल लोकप्रियता हासिल करने के हथकंडे हैं। पर लखनऊ स्थित राज्य सचिवालय का दौरा करने पर कुछ और ही माहौल नजर आता है। सभी आला अफसर अपने कमरों में मिले। हैरत यह देखकर हुई कि हर अफसर अपने विभाग के कामों को तेजी से निपटाने में जुटा है और आगंतुकों को संतुष्ट करके ही भेज रहा है। हर आगंतुक की समस्या के समाधान लिए प्रमुख सचिव भी अपने अधीनस्थ अधिकारियों को फौरी निर्देश देते जा रहे हैं। इतना ही नहीं स्वयं श्री शशांक शेखर प्रदेश के आर्थिक विकास में गति लाने के लिए काफी उत्साहित नजर आए।

कहते हैं कि हर नई सरकार का हनीमून छह महीने तक होता है फिर तलाक का माहौल बनने लगता है। यदि सुश्री मायावती की भी सरकार का यही होना है तो जनता को निराशा हाथ लगेगी। पर शायद ऐसा है नहीं। सुश्री मायावती की अल्पआयु, सामाजिक पृष्ठभूमि, संगठनात्मक सूझबूझ और नेतृत्व क्षमता ने उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ा दिया है। यहां तक कि वे स्वयं को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगी हैं। इसलिए उनके व्यक्तित्व में तेजी से बदलाव आ रहा है। वे देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, भौगालिक और राजनैतिक बहुलता के फायदों को और दबावों को भी समझने लगी हैं। वे स्वयं को उ.प्र. की सीमाओं के बाहर परखने लगी हैं। इस बात के पूरे संकेत हैं कि राजस्थान के आगामी विधानसभा चुनाव में वे ऐतिहासिक भूमिका निभाने जा रही हैं।

उपरोक्त परिवर्तन तो प्रशंसनीय हैं ही पर आम जनता तक सरकार की योजनाओं का लाभ पहुंचाना इतना आसान नहीं। प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था वही औपनिवेशिक मानसिकता वाली है। राज्य की आर्थिक मजबूरियां भी कम नहीं हुई हैं। योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में मौलिक सोच नहीं है और फिलहाल कोई क्रांतिकारी बदलाव भी नहीं आया है। जिसके बिना कुछ ठोस और स्थायी हो पाना संभव नहीं हैं। ऐसी हालत में उपलब्धियों का भी फाइलों में सिमटे रह जाने का खतरा बना हुआ है। यदि सुश्री मायावती वास्तव में भारत में इतिहास रचना चाहती हैं तो उन्हें तुर्की के मुस्तफा कमाल पाशा या सिंगापुर या कोरिया के पूर्व राष्ट्रपतियों की जीवनी पढ़नी चाहिए। कैसे इन नेताओं ने अपनी नेतृत्व क्षमता के बल पर ही अपने देशों की तकदीर बदल दी। सुश्री मायावती को चाहिए कि वे केवल डा.अम्बेडकर के प्रति आसक्त न रहे बल्कि श्री चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक देव, संत कबीर दास, संत तुका राम जैसे मध्ययुगीन संतों की वाणी की भी समझ पैदा करें। इन महान संतों ने सामाजिक विषमताओं से त्रस्त आम जन को बहुत राहत दी थी। उन्हें समाज के निम्न से निम्न वर्ग को उपर उठाया पर बिना द्वेष पैदा किए। आज फिर से देश में वैसी ही भावना की आवश्यकता है। जिससे सामाजिक सौहार्द स्वतः ही पैदा हो जाता है। किसी एक जाति और विचारधारा से बंध कर नहीं बल्कि सबको साथ लेकर चलने से ही किसी नेतृत्व का जनाधार व्यापक बनता है। सुश्री मायावती को चाहिए कि वे सम्राट अकबर की तरह अपने सलाहकारों के मंडल में हर क्षेत्र के योग्य व्यक्तियों को लेकर अपने नवरत्न तैयार करें जो उनकी भावी भूमिका के अनुरूप उन्हें सही सलाह, सही दृष्टि और सही शब्द देकर आगे बढ़ाएं। अगर वे ऐसा कर पाती हैं तो उनकी राजनैतिक उपलब्धियों को कोई शतरंज का खिलाडी शह नहीं दे पाएगा।

Sunday, August 19, 2007

परमाणु संधि पर इतना बवाल क्यों है ?

Rajasthan Patrika 26-08-2007
लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का राष्ट्र के नाम संबोधन इस बार कुछ फीका रहा। अमेरिका से भारत की परमाणु संधि को लेकर उठे विवाद की छाया में शायद प्रधानमंत्री तनाव ग्रस्त थे। यह बात दूसरी है कि उन्होंने इसका जिक्र अपने भाषण में नहीं किया। वामपंथी दल इस बात पर अड़े हैं कि इस पूरे मामले पर नियम 193 के तहत संसद में बहस कराई जाए। जाहिर है कि इस बहस से सरकार की काफी छीछालेदर होगी। इसलिए भी सरकार के लिए यह असहज स्थिति इसलिए भी होगी क्योंकि वामपंथी दल सरकार में उसके सहयोगी हैं। इसलिए सरकार यह बहस नहीं चाहती और यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने सूमोटोयानी अपने आप ही संसद में वक्तव्य देने का फैसला किया। पर उनके वक्तव्य पर सदन में खूब शोर मचा कर विरोध हुआ। जिसमें विपक्षी ही नहीं वामपंथी दल भी शामिल थे, जो सदन से बाहर निकल गए। राज्य सभा में तो प्रधानमंत्री को बोलने ही नहीं दिया गया और वे यह कह कर बैठ गए कि उनके वक्तव्य को पढ़ा हुआ मान लिया जाए। नियम 193 के तहत बहस में सरकार के लिए खतरा तो कोई नहीं है क्योंकि इसमें मतदान नहीं होता पर फजीहत तो होगी ही।



दरअसल, ये सारा बवाल तब मचा जब कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ ने प्रधानमंत्री का एक वक्तव्य छापा जिसमें उन्हें ये कहते हुए उदृत किया गया कि परमाणु संधि तो हो चुकी, इस पर अब कोई पुनर्विचार नहीं होगा और वामपंथी दलों को जो कदम उठाना है उठा लें। शुरू से ही इस संधि का विरोध कर रहे वामपंथी दलों को भड़काने के लिए यह वक्तव्य काफी था। वैसे भी उनका मानना है कि सरकार की विदेश नीति पर अमेरिका हावी है। इस संधि के प्रावधानों को देख कर वामपंथी दल सशंकित हैं। उन्हें डर है कि अमेरिका इस संधि के माध्यम से गंभीर परिस्थितियों में भारतीय विदेश नीति को अपने हित में मोड़ लेगा। राजग की सरकार के समय जब भारत ने परमाणु विस्फोट किया था तो अमेरिका ने भारत के खिलाफ इकतरफा प्रतिबंध लगा दिया और ये प्रतिबंध उन उपकरणों और सामानों पर लगाए गए जिनका दोहरा उपयोग संभव था। यानी शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भी और नाभकीय विघटन के लिए भी। ईरान के मामले में भी अमेरिका भारत पर लगातार दबाव डालता रहा है। जबकि भारत की ईरान नीति मित्रतापूर्ण रही है। वामपंथी दलों को शायद यह भी डर है कि ईरान से अफगानिस्तान और पाकिस्तान होकर भारत तक लाई जाने वाली गैस पाइप लाइन का अमेरिका विरोध करेंगा क्योंकि अमेरिका ने ईरान को आतंकवादी देशों की सूची में शुमार कर रखा है।

दूसरी तरफ भाजपा और समाजवादी पार्टी व यूएनपीए के बाकी घटक दल हैं जो सदन में नियम 184 के तहत बहस चाहते हैं। इस बहस से सरकार को बहुत बड़ा खतरा है। नियम 193 में मतदान नहीं होता लेकिन नियम 184 में बहस के बाद मतदान होगा और हालात ऐसे हैं कि अगर वामपंथी दलों ने भी विपक्षी दलों के साथ मिल कर मतदान कर दिया तो सरकार को अपने समझौते में परिवर्तन करने पर मजबूर होना पड़ेगा। दरअसल अमेरिका में यह नियम है कि हर अंतर्राष्ट्रीय संधि तभी वैध होती है जब उसके पक्ष में सीनेट में बहस के बाद बहुमत हो जाए। भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अलबत्ता वामपंथी दल यह अवश्य चाहते हैं कि हमारे संविधान में भी परिवर्तन किया जाए और यह व्यवस्था की जाए कि हर अंतर्राष्ट्रीय संधि संसद में बहस होने और बहुमत प्राप्त होने के बाद ही वैध मानी जाए। चूंकि लोक सभा के अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी भी वामपंथी दल से हैं इसलिए जाहिर है उनका व्यक्तिगत झुकाव सरकार की परमाणु संधि के खिलाफ होगा और वे इस संधि पर बहस करवाना भी चाहेंगे। वे  नियम 193 के तहत अनुमति देते हैं या नियम 184 के तहत ये फैसला तो वे अपने विवेक से और अपनी पद की अपेक्षाओं के अनुरूप ही करेंगे। पर अब लगता यही है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि पर जोरदार बहस होगी।

नतीजा जो भी हो सरकार पर करारा हमला होगा। रोचक तथ्य यह भी है कि इस मुद्दे पर भाजपा और वामपंथी दल एक साथ खड़े हैं जबकि राजग के शासनकाल में वामपंथी दलों का आरोप था कि वाजपेयी सरकार ने अमेरिका के आगे घुटने टेक दिए हैं। हर दल संसद की बहस से अपनी राजनैतिक पूंजी बढ़ाना चाहेगा लेकिन इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि अंतर्राष्ट्रीय संधियों को संसद की स्वीकृति मिलनी चाहिए। वरना कोई भी सरकार कभी भी निरंकुश होकर राष्ट्रहित को जाने-अनजाने में बलिदान कर सकती हैं। यह इसलिए भी जरूरी है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में निरंतरता की आवश्यकता होती है। जिस बात से आज विपक्ष सहमत नहीं, हो सकता कल सत्ता में आकर वह उसे पलटना करना चाहे। ऐसे में देश की साख पर बट्टा लगेगा। यदि अमेरिकी माॅडल के अनुसार ही अंतर्राष्ट्रीय संधियांे का भारत के संसद में भी अनुमोदन या संशोधन होने लगे तो उनमें निरंतरता बनी रहेगी। जहां तक भारत-अमेरिका परमाणु संधि की बात है, अमेरिका की शुरू से यही कोशिश रही है कि भारत परमाणु मामले में उसकी छत्रछाया में आ जाए। पिछली बार जब अमेरिका के राष्ट्रपति बुश भारत आए थे तब से इस मुद्दे पर हुई हर बैठक में चाहे वह प्रधानमंत्री स्तर की हो, विदेश मंत्री स्तर की हो या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की अमेरिका भारत पर अपनी शर्तें थोपने की पुरजोर कोशिश करता रहा है। प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया कि इस समझौते से हमारी सम्प्रभुता का बलिदान नहीं किया गया है। पर इंडियन एक्सप्रेस ने अमेरिकी शासन के एक उपसचिव के हवाले से खबर छापी है कि अमेरिका भारत के शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट को भी बर्दाश्त नहीं करेगा। इस खबर की भारत या अमेरिकी सरकार ने आधिकारिक पुष्टि नहीं की है। इसलिए भ्रम की स्थिति बनी हुई है। उधर वामपंथी दल अपनी पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद ही अपने अगले कदम का ऐलान करेंगे। सरकार से समर्थन वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है लेकिन इस मुद्दे पर वे चुप भी नहीं बैठंेगे। आने वाले दिन प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के लिए कठिन परीक्षा के होंगे।

Sunday, August 12, 2007

एड्स पर आकडों में अचानक इतनी गिरावट क्यों आई ?

पिछले दिनों एड्स को लेकर देश में एक अति महत्वपूर्ण खबर को नजरंदाज कर दिया गया जबकि इस खबर ने एड्स के पूरे प्रचार अभियान पर अनेक सवाल खडे कर दिए हैं जिनका जवाब न तो नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन (नाको) के पास है और ना ही भारत सरकार के पास। नाको ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पाॅजिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है।

उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत मंे एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।’ इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है। 10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झूठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है और इनकी वेबसाइट है ूूूण्ंपकेउलजीण्बवउ। इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की। इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या ‘जानलेवा’ मानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ?

दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फर्रेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है। सवाल उठता है कि एड्स को महामारी बता कर विज्ञापनों और एड्स रोकथाम कार्यक्रमों पर जो रूपया पानी की तरह बहाया गया उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? वो स्वयंसेवी संगठन और फिल्मी सितारे भी कम गुनाहगार नहीं जो एड्स के प्रचार अभियान से जुड़ कर मोटी कमाई करते रहे और जनता के बीच भय और आतंक पैदा करते रहे। इस पूरे मामले की विस्तृत जांच होनी चाहिए ताकि इस अंतर्राष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो। नाको की इस घोषणा के गंभीर परिणाम निकलेंगे क्योंकि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि एड्स का भय दिखा कर नाको और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड किया है और जनता के कर के अरबों रूपयों को पानी की तरह बहाया है जिसके लिए नाको के निदेशक व यूएन एड्स के भारतीय निदेश टेनिस ब्राउस व भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को सवालों के घेरे में खड़ा किया जाना चाहिए और इनसे हर सवाल का स्पष्ट जवाब मांगा जाना चाहिए।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

Sunday, August 5, 2007

सांसदों और विधायकों की भी जरूरी है जवाबदेही

Rajasthan Patrika 05-08-2007
लोकसभाध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि संसद का बहिष्कार करने वाले सांसदों का दैनिक भत्ता काट लिया जाना चाहिए। आपको शायद ज्ञात हो कि लोक सभा सत्र के दौरान मात्र एक मिनट की लोकसभा कार्यवाही पर सदन का खर्चा 26,035 रूपए आता है। श्री चटर्जी का मानना है कि ऐसे कानूनी प्रावधान या नियम तय किया जाना चाहिए जिनसे सांसद सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से निभाएं। संसद के आगामी सत्र में इस मुद्दे को वे विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं के साथ उठाने का मन बना चुके हैं। निःसंदेह यह गंभीर समस्या है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे सांसद हो या विधायक अक्सर सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह गंभीरता से नहीं करते।



वैसे तो सांसदों के आचरण से क्षुब्ध हो कर तत्कालीन दिवंगत लोकसभाध्यक्ष श्री जीएमसी बालयोगी ने लगभग पांच साल पहले उठाई थी और कुछ शख्त कार्यवाही पर सहमति भी बनी थी पर उसे लागू करने में विभिन्न पार्टी नेताओं की आनाकानी से उसमें वे सफल नहीं हो पाए थे। परंतु इस बार अगर श्री सोमनाथ चटर्जी के पहल पर गंभीरता से सभी पार्टी नेता अपना अपना सहयोग संासदों के आचरण के सुधार की पहल में करते हैं तो कोई कारण नहीं जो लोक सभा की कार्यवाहियों के समय को जाया जाने से बचाया न जा सके। अगर ऐसा लोकसभा में हो जाता है तो इससे सीख लेकर प्रदेश सरकार अपने-अपने विधानसभाओं में विधायकों को सांसदों के आचरण का अनुशरण जैसी सीख देने में सफल हो सकते हैं वरना जनता के गाढे खून-पसीने की कमाई को यूं ही जनसेवक बर्बाद करते रहेंगे और जनता यूं ही देखती रह जाएगी।

सांसदों के आचरणों के कारण 13वीं लोक सभा सत्र के दौरान हो-हल्ला में 22.4 प्रतिशत समय नष्ट हुआ था और 14वीं लोक सभा सत्र के दौरान अभी तक 26 फीसदी समय नष्ट हो चुका है, अब आप समझ सकते हैं कि मात्र एक मिनट लोक सभा कार्यवाही का खर्चा जब 26,035 रूपए आता है तो 13वीं व 14वीं लोक सभा सत्र के दौरान इतने समय की कीमत से अगर विकास कार्य होता या किसानों के कर्ज को माफ किया गया होता तो आए दिन कर्ज के कारण देश जिस प्रकार किसान आत्म हत्या कर रहे हैं उनमें से कुछ को अवश्य ही बचाया जा सकता है। एक तरफ तो कर्ज और भुखमरी के कारण लोग असमय मर रहे हैं और दूसरी ओर समय की कीमत को न समझना यह समझदारी कतई नहीं हो सकती।  

कुछ वर्ष पहले मेरे मित्र श्री सूर्य प्रकाश ने सांसदों के व्यवहार पर एक शोध किया। अनेकों सांसदों से बातचीत के आधार पर उन्होंने अंग्रेजी में अपनी पुस्तक व्हाॅट एल्स इंडियन पाॅलियामेंट-एन एग्ज़क्टिव डाग्नोसिसछापी। जिसमें खुद सांसदों ने यह स्वीकारा था कि वे किस तरह का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार सदन में करते हैं।

मसलन, सांसदों ने ही बताया कि किस तरह बिना कोरम पूरे किए ही महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा की खानापूर्ति हो जाती है। उन्होंने यह भी बताया कि अक्सर सांसदों की रूचि संसद की कार्यवाही में नहीं होती और वे अपनी उपस्थित रजिस्टर पर दस्तखत करके सत्र के दौरान सदन से गायब रहते हैं, दस्तखत इसलिए करते हैं कि उन्हें भत्ते के रूप में मिलने वाली धनराशि 1000 मिल जाए। सांसदों ने यह भी बताया कि प्रश्न पूछने के लिए किस तरह के गैर-जिम्मेदाराना कार्य किए जाते हैं, जिनसे अपने क्षेत्र या देश का हित नहीं बल्कि निहित स्वार्थों का हित पूरा होता हैं। पिछले एक दशक में उजागर हुए अनेक किस्म के घोटालों से बहुत से सांसदों के चरित्र और कार्य शैली पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं, जिनका यहां खुलासा करने की आवश्यकता नहीं हंै। इस सब के बावजूद यह जरूरी है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे सांसद हो या विधायक सदन के प्रति जिम्मेवारी से व्यवहार करें और इसके लिए कानून और नियमों में आवश्यक सुधार किए जाएं। लोक सभा अध्यक्ष को यह पहल करनी ही चाहिए और हर दल के अध्यक्ष को इस प्रयास में सकारात्मक सहयोग देना चाहिए। इससे सदन की गरिमा बढ़ेगी और विधायिका के प्रति जनता में विश्वास बढेगा।

जब सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों और निजी क्षेत्र में लगे लोगों से अनुशासित आचरण की अपेक्षा की जाती हैं और जरा सी लापरवाही पर दण्डात्मक कार्यवाही की जाती है तो फिर सांसदों और विधायकों से ऐसे आचरण की अपेक्षा क्यों न की जाए। कहावत भी है कि यथा राजा तथा प्रजा। संासदों और विधायकों का आचरण अनुकरणीय होना चाहिए। निजी जीवन में न सही पर कम से कम सदन में तो उसकी मर्यादा के अनुरूप आचरण किया ही जाना चाहिए। जो भी सांसद या विधायक सदन की कार्यवाही के दौरान उपस्थित रजिस्टर पर दस्तखत करने के बाद भी उपस्थित न रहे उनका दैनिक भत्ता तो काटा ही जाए लगातार तीन बार ऐसा करने पर संसदीय समितियों से हटा दिया जाए और इसके बावजूद भी उनका व्यवहार न बदले तो दिल्ली में दी गई उन्हें आवास या अन्य सुविधाएं वापस लेने की कार्यवाही शुरू करनी चाहिए। कुल मिला कर प्रयास यही होना चाहिए कि सांसद और विधायक सदन के सत्र के दौरान जिम्मेदारी से व्यवहार करें जिससे जनता की आस्था उनमें बढे इस प्रयाय के लिए श्री सोमनाथ चटर्जी का मुक्त हृदय से समर्थन किया जाना चाहिए। पूरे देश के जागरूक नागरिकों विशेष कर युवाओं को इस  प्रयास के समर्थन में अध्यक्ष को पत्र लिखने चाहिए जिससे उनका मनोबल बढ़े।

Sunday, July 22, 2007

यूएनपीए ने गलत परंपरा डाली राष्ट्रपति चुनाव का बहिष्कार करने वाले जनता के प्रति जवाबदेह

राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हो गया। यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलाइन्स (यूएनपीए) ने इस चुनाव का बहिष्कार किया और साथ ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और कर्नाटक में सत्तारूढ श्री देवगौडा के दल ने भी इस चुनाव का बहिष्कार किया। हालांकि इस बहिष्कार से राष्ट्रपति के चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। श्रीमती प्रतिभा पाटील का राष्ट्रपति बनना तय था और वे बन गईं। पर इस बहिष्कार ने कई गंभीर सवाल खडे कर दिए। अब तक सांसद और विधायक संसद और विधानसभाओं का बहिष्कार करते थे। तब भी यह सवाल उठते थे कि क्या यह बहिष्कार नैतिक रूप से उचित है। इस देश के मतदाता इस तरह के बहिष्कार को कभी पसंद नहीं करते। उनके खून-पसीने की कमाई में से वसूले गए कर का करोडों रूपया संसद और विधानसभा के बहिष्कार में बर्बाद हो जाता है। पर यहां तो सवाल राष्ट्रपति के चुनाव का है जो सदनों के सत्र जैसी अक्सर होने वाली घटना नहीं है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर लोकतांत्रिक तरीके से होने वाले चुनाव का भी अगर जनता के चुने हुए नुमाइंदे बहिष्कार करते हैं तो मतदाताओं को उनसे यह पूछने का हक है कि ऐसा उन्होंने किस अधिकार से किया ? साफ जाहिर है कि जिन करोडों मतदाताओं के प्रतिनिधि इस बहिष्कार को करने वाले सांसद व विधायक हैं, उन करोडों मतदाताओं को लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर ही नहीं मिला। इस तरह इन सांसदों और विधायकों ने इन करोडों मतदाताआंे द्वारा प्रदत्त अधिकार का सही उपयोग नहीं किया। ये सांसद व विधायक यह तर्क दे सकते हैं कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय या चुनाव आयोग से ऐसा कोई निर्देश नहीं मिला कि यह मत देना उनके लिए अनिवार्य हो। 

दरअसल, जिस समय भारत के चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त अन्य सदस्यों के साथ इस विषय पर फैसला देकर निकले तब मैं चुनाव आयोग में ही था और उसके तुरंत बाद मेरी एक लंबी बैठक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ तय थी, जिसमें मैंने उनसे इस निर्णय को लेकर भी कुछ चर्चा की। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश भले ही न दिए हांे और सांसदांे व विधायकों को अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने के लिए छोड दिया हो। पर प्रश्न उठता है कि जब हमारे यहां राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष मतदान का प्रावधान है, यानी जनता सीधे राष्ट्रपति का चयन न करके अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से चुनाव करती है। तो इन प्रतिनिधियों को यह निर्णय अपने मतदाताओं से पूछ कर लेना चाहिए था। दरअसल, बहिष्कार करने का आधार अगर सैद्धान्तिक मतभेद है और विरोध करने के लिए इतना कड़ा कदम उठाना अनिवार्यता है तो उसके बेहतर तरीके अपनाए जा सकते थे। मसलन जापान में एक बार एक जूता कारखाने के कारीगरों को अपने प्रबंधन से नाराजगी थी तो उन्होंने हड़ताल पर जाने का फैसला किया। इसका मतलब यह नहीं कि वे काम पर न आए हों या उन्होंने जूते का उत्पादन न किया हो। उन्होंने यह तय किया कि वे केवल एक पैर का जूता बनाएंगे और अन्य दिनों से ज्यादा उत्पादन करेंगे। नतीजतन एक पैर के जूतों का ढेर लगता गया जिन्हंे कंपनी बेच नहीं सकती थी। हार कर उसे कर्मचारियों की मांग माननी पड़ी। 

सांसद और विधायक सदनों में अपने विरोध के नए तरीके इजाद कर सकते हंै क्योंकि वे कोई ट्रेड यूनियन वाले तो हैं नहीं जो उन्हें हड़ताल पर जाना पड़ता हो। वे तो इस देश के कानून के निर्माता हैं। जब कानून के निर्माता ही कानून तोडेंगे तो जनता से अनुशासित रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। एक बात यह भी है कि यूपीए की उम्मीदवार श्रीमती प्रतिभा पाटील का विरोध इन सांसदों और विधायकों ने इसलिए नहीं किया कि वे योग्य उम्मीदवार नहीं हैं बल्कि इसलिए किया कि उनकी निगाह अगले चुनावों पर है जिसमें वे स्वयं को कांगे्रस पार्टी या यूपीए के साथ खड़ा देखना नहीं चाहते। उधर श्री भैरो सिंह शेखावत, जोकि एक निर्दलीय उम्मीदवार थे, उनका बहिष्कार इसलिए नहीं किया कि वे उनकी योग्यता से संतुष्ट नहीं थे बल्कि इसलिए किया कि यूएनपीए अपने अल्पसंख्यक मतदाताओं को यह संदेश देना चाहता था कि वे संघ या भाजपा समर्थित उम्मीदवार के पक्ष में नहीं हैं। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि राष्ट्रपति के चुनाव में यूएनपीए ने मात्र अपने वोटों पर दृष्टि रख कर फैसला लिया, उनका राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया या उम्मीदवारों से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक गलत परंपरा की शुरूआत हुई है। 

बहुदलीय सरकारांे के इस दौर में जब हर छोटा-बड़ा दल मोल-तोल की राजनीति कर रहा है तो भविष्य में इस बात की पूरी संभावना हो सकती है कि राष्ट्रपति का चुनाव करवाना ही एक जटिल समस्या बन जाए, जब दर्जनों दल ऐसे बहिष्कार का फैसला कर बैठें। आम मतदाता को तो अच्छी, साफ, जिम्मेदार व टिकाऊ सरकार की अपेक्षा होती हैं। अनेकों घोटालों में अनेक दलांे के वरिष्ठ नेताओं के लिप्त होने के बाद आम जनता यह समझ गई है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर लड़ने वाला कोई भी दल भ्रष्टाचार से निपटना नहीं चाहता। सब एक दूसरे को बचाने की कोशिश करते हैं। चाहे कोई किसी दल का क्यों न हो। इसलिए मतदाता अब विचारधारों के आडंबर से प्रभावित नहीं हो रहा है। सुश्री मायावती की अप्रत्याशित जीत ने यह सिद्ध कर दिया कि बेहतर प्रशासन की उम्मीद में ब्राहम्ण, वैश्य और ठाकुर सुश्री मायावती के पीछे लामबंद हो चुके हंै और उन्हें अब यह याद भी नहीं कि सुश्री मायावती इन सवर्णो के प्रति कैसे उत्तेजक भाषण दिया करती थीं।

अपना मूल मुद्दा वही है कि इस ऐसे माहौल में राष्ट्रपति का चुनाव सतही राजनीति का शिकार न बन जाए। यदि हम ये मान बैठे हैं कि भारत में राष्ट्रपति का पद मात्र एक औपचारिता है तो फिर इस पद को समाप्त करने की बहस चलनी चाहिए और यदि हम ये मानते हैं कि मौजूदा संविधान के अनुसार लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रपति का पद अपने मौजूदा स्वरूप में बना रहना चाहिए। तो हमें इस बहिष्कार पर गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसा बहिष्कार देश के मतदाताओं को स्वीकार्य नहीं है। ऐसे संवैधानिक पदो ंके चुनाव में मत डालने की बाध्यतास सभी सांसदों व विधायकों पर लागू होनी चाहिए या फिर देश में एक बहस छिडे जैसी पहले छिडती रही है और संविधान मंे संशोधन किया जाए और राष्ट्रपति पद का चुनाव सीधे जनता ही करे, ऐसा कानून बना दिया जाए। खर्चा और आफत बचाने के लिए इस चुनाव को लोक सभा के आम चुनाव के साथ भी करवाया जा सकता है। तब कम से कम भारत के हर नागरिक को अपना राष्ट्रपति चुनने का हक तो मिलेगा। जो हक यूएनपीए व अन्य कुछ दलों ने बिना उनकी मर्जी के उनसे छीन लिया। इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के बहिष्कार के यूएनपीए के फैसले पर देश में गंभीर चिंतन की जरूरत है ताकि बहिष्कार की संस्कृति से पिण्ड छुडा कर हमारा लोकतंत्र सकारात्मक सोच से आगे बढ़ सके।

Sunday, July 15, 2007

भारत सरकार कटघरे में -एड्स का झूठा आतंक फैलाया

नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन) ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पा¡जिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है। इस घोषणा के गंभीर परिणाम निकलेंगे क्योंकि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि एड्स का भय दिखा कर नाको और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड किया है और जनता के कर के अरबों रूपयों को पानी की तरह बहाया है जिसके लिए नाको के निदेशक व यूएन एड्स के भारतीय निदेश टेनिस ब्राउस व भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के खिलाफ कडी कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए और इन पर धोखाधड़ी, जालसाजी और सरकारी धन के दुरूपयोग के मुकद्दमें कायम करने चाहिए।



उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त देश का ज्यादातर मीडिया, अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है। 10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झुठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है। इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की।

इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या जानलेवामानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ? दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फर्रेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है।

सवाल उठता है कि एड्स को महामारी बता कर विज्ञापनों और एड्स रोकथाम कार्यक्रमों पर जो रूपया पानी की तरह बहाया गया उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? वो मीडिया वाले, स्वयंसेवी संगठन और फिल्मी सितारे भी कम गुनाहगार नहीं जो एड्स के प्रचार अभियान से जुड़ कर मोटी कमाई करते रहे और जनता के बीच भय और आतंक पैदा करते रहे। इस पूरे मामले की विस्तृत जांच होनी चाहिए ताकि इस अंतर्राष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

Sunday, July 1, 2007

राष्ट्रपति के चुनाव में ये छीछालेदर सही नहीं

Rajasthan Patrika 01-07-2007
गत 10 वर्षों में जितने घोटाले देश के सामने आए हैं उतने आजादी के बाद पहले कभी नहीं आए थे। राजनेताआंे की छवि जनता के मन में गिरी हैं, इससे कोई भी राजनेता असहमत नहीं होगा। भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या राजनीति के अपराधिकरण का, कोई दल इससे अछूता नहीं हैं। फिर भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी का राष्ट्रपति के उम्मीदवार श्रीमती विमला पाटील को दागी कहना गले नहीं उतरता। हकीकत तो यह है कि कोई भी राजनेता जो राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचता है वो सत्यवादी राजा हरिशचन्द के पद्चिन्हों पर चल कर नहीं बल्कि उन सब हथकंडों को अपना कर आगे बढता है जिन्हें कानून की निगाह में अपराध कहा जा सकता है। सभी बड़े नेता यह बात वखूबी जानते हैं और वे ये भी जानते हैं कि हर दल जब सत्ता में आता है तो अपने दागी नेताओं का बचाव करने में चुकता नहीं। इतना ही नहीं श्रीमती विमला पाटील पर जिन दो आरोपों को भाजपा प्रमुखता से लगा रही है वे हैं बैंक के ऋण भुगतान से संबंधित व दूसरा हत्या के मामले में अपने भाई को बचाना। अगर इन आरोपो में सच्चाई है तो क्या वजह है कि भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने इन सवालों को पहले नहीं उठाया  जब वे राजस्थान की राज्यपाल बनी थीं? इस मामले को ही क्यों आजादी के बाद जितने भी घोटाले सामने आए उनमें से कितने घोटाले ऐसे हैं जिनमें आरोपियों को सजा दिलाने के लिए भाजपा ने कमर कसी हो ? शोर मचाना, मीडिया का ध्यान आकर्षित करना और राजनैतिक लाभ को दृष्टि में रखकर जनता के बीच जाना ये हर दल की फितरत होती हैं। भाजपा भी किसी से कम नहीं। क्या वजह है कि 6 वर्ष के राजग के शासनकाल में भी किसी भी बड़े राजनेता या वरिष्ठ अधिकारी को सजा नहीं मिली। दरअसल कोई भी दल नहीं चाहता कि उसके नेताओं को सजा मिले। सब लीपापोती करते हैं। अब इस माहौल में कोई पूरी तरह बेदाग हो तो सामने आए।
 संतोष की बात यह है कि उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने अपनी उम्र और पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार पर कोई भी व्यक्तिगत आरोप लगाने से मना किया है। वे इस चुनाव को अंतर्रात्मा की आवाज पर लड़ना चाहते हैं। उन्हें विश्वास है कि पिछले 6 दशकों से भारतीय राजनीति में उनके अभिन्न मित्र रहे दर्जनों नेता दलगत भावना से ऊपर उठकर उनका समर्थन करेंगे और वे वैसे ही जीत जाएंगे जैसे डा. नीलम संजीवा रेड्डी को हरा कर श्री वी.वी. गिरी जीते थे। राष्ट्रपति पद के लिए कुल वोट 10,98,882 हैं और 4,896 सांसद और विधायक नए राष्ट्रपति का चुनाव करेंगे। किक्रेट के खेल की तरह राजनीति कब पलटा खा जाए यह कोई नहीं कह सकता। आज वोटों का गणित भैरो सिंह जी के विरूद्ध दिख रहा हैं और विमला पाटील जी की विजय सुनिश्चित मानी जा रही है। पर क्या कांग्रेस आलाकमान इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हैं कि उनकी टीम के सभी सांसद और विधायक एकजुट होकर श्रीमती विमला पाटील के पक्ष में मतदान करेंगे ? क्योंकि इस चुनाव में पार्टी का व्हिप जारी नहीं होता इसलिए हर सांसद और विधायक अपना वोट देने के लिए स्वतंत्र है। ऐसे में अगर श्री भैरो सिंह शेखावत यूपीए के किले में सेंध लगा देते हैं तो कौन जाने क्या परिणाम सामने आएं? पर यदि राष्ट्रपति के चुनावों में व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इससे राष्ट्रपति पद की प्रतिष्ठा गिरेगी जिसका लाभ किसी को नहीं मिलेगा, न जीतने वाले को न हारने वाले को। वेैसे भी भारत में राष्ट्रपति का पद केवल एक अलंकरण हैं, राष्ट्रपति नीति निर्धारण को प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसलिए राष्ट्रपति किसी भी दल का क्यों न हो संविधान के दायरे से बाहर जा कर कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठा सकता। 

संविधान के निर्माताओं ने पहले ही इस बात के काफी प्राविधान रख दिए कि कोई राष्ट्रपति अपने पद का दुरूपयोग न कर सकें। हां जहां तक संविधान में प्रदत्त राष्ट्रपति के विवेक पर आधारित निर्णय का प्रश्न हैं तो वहां जरूर कभी गम्भीर स्थिति पैदा हो सकती है, जैसी 1984 में 31 अक्टूबर को तब पैदा हुई थी जब ज्ञानी जैल सिंह ने श्री राजीव गांधी को बिना संवैधानिक प्रक्रिया के पूरे हुए ही प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। चूंकि परिस्थितियां श्री राजीव गांधी के पक्ष में थी इसलिए यह मामला तुरंत ही संभाल लिया गया। ऐसी परिस्थितियां कभी-कभार ही आती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि जब राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की घोषणा हो गई है तो इस चुनाव को संजीदगी से और सम्माननीय तरीके से लड़ा जाए। बेहतर तो यही होगा यूपीए भैरो सिंह जी को उपराष्ट्रपति पद का एक और कार्यकाल देने पर राजी हो जाए और एनडीए श्रीमती विमला पाटील को अपना समर्थन दे दे। इससे पद की गरिमा भी बनी रहेगी और देश को दो विभिन्न दलों के योग्य, अनुभवी और सम्माननीय नेताआं का राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद से मार्ग निर्देशन मिलता रहेेगा। दोनों ही पक्षों को गंभीरता से इस बात पर विचार करना चाहिए। होगा क्या यह तो भविष्य बताएगा पर अगर आडवाणी जी, वाजपेयी जी, चन्द्रबाबू नायडु जी, मुलायम सिंह जी, जयललिता जी व सोनिया गांधी जी आदि एक बार बैठ कर इस स्थिति को यहीं संभाल लें और बिगड़ने न दें वरना भविष्य में राष्ट्रपति  और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव उसी तरह लड़े जएंगे जैसे अपराधग्रस्त प्रांतों में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लडे़ जाते हैं। यह पूरे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।