Sunday, September 30, 2007

सत्यमेव जयते फिर न्यायपालिका को सच से परहेज क्यों है ?

मुंबई मिड-डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना के मामले में चार महीने की जेल की सजा सुनाई गई है। देश के कई मशहूर समाजसेवी व बुद्धिजीवी इन पत्रकारों के समर्थन में सर्वोच्च अदालत गए हैं। इन पत्रकारों की गलती यह है कि इन्होंने भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वाईके सब्बरवाल के पुत्रों को लेकर एक ऐसी रिपोर्ट छापी जिससे यह संकेत मिलते हैं कि न्यायमूर्ति सब्बरवाल द्वारा दिल्ली में करवाई गई सीलिंग व भारी तोड़फोड के पीछे उनके व्यावसायिक स्वार्थ थे। इस संदर्भ में ये पत्रकार किसी भी जांच एजेंसी के सामने सबूत प्रस्तुत करने को भी तैयार हैं। पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी बात अनसुनी कर उन्हें अदालत की अवमानना की सजा सुनाई है। सीलिंग के मामले में अदालत के रवैए से दिल्ली पहले ही भड़की हुई थी। अब ऐसी बात सामने आई है जिससे जनता का आक्रोश फूटना स्वाभाविक है। ऐसे संगीन आरोप सामने आने के बाद भी अगर अदालत उनकी जांच नहीं करवाती और दोषी न्यायधीश को सजा देने की बजाए सच्चाई उजागर करने वाले को ही अगर सजा देती हैं तो अदालत की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिंह खड़ा हो जाएगा। आजाद भारत ने उपनिषद् के मंत्र सत्यमेव जयतेको अपने शासन का आधार बनाया है जिसका अर्थ है कि हर हालत में सत्यकी ही विजय होगी। फिर अदालतों का ऐसा रवैया क्यों होगा है कि वे सच को भी डिफेंस नहीं मानती।



अदालत की अवमानना कानून में साफ लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति अदालती कार्यवाही में विघ्न पैदा करता है या उसको प्रभावित करने की कोशिश करता है या अदालत की गरिमा को हानी पहुंचाता है तो उस पर अदालत की अवमानना कानून के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है और उसे सजा दी जा सकती है। पर जब कोई न्यायधीश अनैतिक या भ्रष्ट आचरण करे और उसका खुलासा प्रमाण सहित कोई वकील या पत्रकार करे तो इसे अदालत की अवमानना कैसे माना जा सकता है ? लोकतंत्र में विधायिका की जवाबदेही मतदाताओं के प्रति होती है। कार्यपालिका की जवाबदेही अपने राजनैतिक आकाओं के प्रति होती है और मीडिया की जवादेही जनता के प्रति होती है। इस तरह लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की जवाबदेही सुनिश्चित की गई है। पर चैथे स्तंभ न्यायपालिका की जवाबदेही अभी तक किसी के प्रति नहीं है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने न्यायधीशों को भगवान के समान माना था। उनसे नापाक चाल-चलन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इसीलिए उन्हें अदालतों में मी लाॅर्ड’! कह कर संबोधित किया जाता है। पर सच्चाई यह है कि जो न्यायधीश बनते हैं वो किसी देव लोक से अवतरित नहीं होते। इसी लोक से हैं और उनके लिए समाज के प्रभाव से मुक्त रह पाना संभव नहीं है। इसलिए वे भी अक्सर वही गलतियां कर जाते हैं जो समाज के दूसरे वर्ग करते हैं। पर यहां यह भेद स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसी जज के अनैतिक आचरण को उजागर करने का अर्थ न्यायपालिका की अवमानना नहीं है। वह तो अधिक से अधिक संबंधित न्यायधीश की मानहानी मानी जाएगी। जिसके लिए वह न्यायधीश मौजूदा कानून के तहत मुकद्दमा चलाने को स्वतंत्र हैं। व्यक्तिगत दुराचरण को अदालत की अवमानना कानून से छिपाना न्यायपालिका की विश्वसनीयता को पूरी तरह से समाप्त कर सकता है। इसलिए अदालत की अवमानना कानून में वांछित संशोधन करके यह व्यवस्था बनानी चाहिए कि दोषी न्यायधीशों की जांच हो और उन्हें सजा भी मिले। वरना सत्य मेव जयते का क्या अर्थ रह जाएगा ? आश्चर्य की बात यह है कि आए दिन अदालत से फटकार खाने के बावजूद हमारे नेता व सांसद इस कानून में कोई सुधार करने को तैयार नहीं हैं। कुछ बड़े नेताओं ने तो साफ कहा कि वे इतने मामलों में फंसे हैं कि न्यायपालिका से भिड़ेंगे तो उसका बुरा परिणाम भोगेंगे।



यह पहली दफा नहीं है जब सर्वोच्च न्यापालिका पर उंगली उठी है। 1997 से 2001 तक मैंने भारत के तीन  मुख्य न्यायधीशों के घोटाले व अनैतिक कार्यों के प्रमाण उनके कार्यकाल में ही अपने टेबलाॅइड कालचक्रमें प्रकाशित किए थी। जिन पर देश में काफी विवाद हुआ और तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी को इस्तीफा भी देना पड़ा। मुझ पर अदालत की अवमानना का मुकद्दमा सर्वोच्च न्यायालय में नहीं बल्कि आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर की घाटी में चलाया गया। मुझे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में इस मुकद्दमें के दौरान श्रीनगर में ही रहने के आदेश दिए गए। जब मैं वहां नहीं गया तो मुझे भगोड़ा अपराधी घोषित कर दिया गया। जम्मू पुलिस मुझे रोज गिरफ्तार करने आने लगी। डेढ वर्ष तक मैंने देश में जगह-जगह भूमिगत रह कर अदालत की अवमानना कानून में संशोधन की मांग जनसभाओं में उठाई। इससे पहले की पुलिस वहां पहुंचती मैं दूसरे शहर निकल जाता था। पर न तो कोई बड़ा वकील मेरे समर्थन में खड़ा हुआ और न कोई नामी पत्रकार और न कोई बड़ा समाजसेवी। सबको लगा कि पदासीन मुख्य न्यायधीश के मामले में बोल कर कहीं उन्हें जेल न जाना पडे़। आखिर मुझे जान बचाने के लिए देश छोड कर भागना पड़ा। लंदन और न्यूयार्क में पूरी दुनिया के पत्रकार संगठनों का मुझे भरपूर समर्थन मिला। बीबीसी और सीएनएन जैसे बड़े टीवी चैनलों ने मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण उन देशों से किया। इस सबके बाद मेरी नैतिक विजय हुई। भारत के नए बने मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा की उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। जिससे निपटने में मौजूदा कानून नाकाफी है। प्रश्न उठता है कि अगर उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है तो भारत की सवा सौ करोड जनता को यह कैसे पता चलेगा कि उसकी किस्मत का फैसला करने वाला न्यायधीश ईमानदार है या भ्रष्ट ? एक भ्रष्ट न्यायधीश किसी दूसरे के आचरण का मूल्यांकन कैसे कर सकता है ?



संसद दोषी न्यायधीश पर महा अभियोग प्रस्ताव लाएगी नहीं। न्यायपालिका अपने भ्रष्ट साथी को सजा नहीं देगी और सच छापने वाले पत्रकारों को जेल जाना पड़ेगा। अगर यही होना है तो भारत सकार को अपने सरकारी दस्तावेजों व संसद भवन की दीवारों से सत्यमेव जयतेहटा कर लिखना चाहिए असत्यमेव जयते।यह गंभीर मुद्दा है। न्यायपालिका को इस पर मंथन करना चाहिए। सर्वमान्य नियम बना कर न्यायधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। इससे न्यापालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी घटेगी नहीं।

Sunday, September 9, 2007

भ्रष्टाचार कैसे रूके ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग की मजबूरियां

सेवानिवृत्त होकर अब तक वही प्रशासनिक अधिकारी मजे मारते थे जो अपने सेवा काल में बड़े औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाते थे और बाद में उनके सलाहकार बन जाते थे। लेकिन अब जीवन भर ईमानदार रहे अधिकारियों की भी पूछ होगी। यह पहल करने जा रहा है केन्द्रीय सतर्कता आयोग। दरअसल भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं। पर हैरान है यह देख कर कि ये घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। लोग सोचते हैं कि सीबीआई है, केन्द्रीय सतर्कता आयोग है फिर भी इस पर अंकुश क्यों नहीं लगता ? सीबीआई केन्द्र की सरकारों के हाथ में अपने विरोधियों को परेशान करने का एक औजार मात्र बन कर रह गई थी। इसीलिए जैन हवाला कांड की सुनवाई के बाद सर्चोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के हाथ मजबूत करने का फैसला लिया और एक की बजाए तीन सदस्यों वाले आयोग का गठन कर दिया और सरकार को आदेश दिया कि इस आयोग को पूर्ण स्वायतत्ता प्रदान की जाए।



होता यह आया था कि बड़े अधिकारियों और मंत्रियों आदि के भ्रष्टाचार के मामलों में जांच शुरू करने से पहले सीबीआई को सरकार से अनुमति लेनी होती थी। सरकार वर्षों अनुमति नहीं देती थी। इस तरह भ्रष्ट अधिकारी और मंत्री सरकार के ही संरक्षण में फलते-फूलते रहते थे। विनीत नारायण बनाम भारत सरकारनाम से मशहूर इस मुकद्दमें में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए कि वह कानून में बदलाव करके इस तरह की अनुमति लेने की बाध्यता को समाप्त कर दे। उस समय इस फैसले को देश के मीडिया ने ऐतिहासिक बता कर प्रमुख खबर बनाया। लोेगों को भी लगा कि अब हालात बदलेंगे। पर जब यह मामला कानून बनाने के लिए संसदीय समिति के पास पहुंचा तो श्री शरद पवार की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का जनाजा निकाल दिया। इसके बाद जो केन्द्रीय सतर्कता आयोग कानूनबना उसमें आयोग की स्वायतत्ता दिखावा मात्र थी। असली नियंत्रण सरकार ने अपने पास ही रखा। जो भी हो आयोग का नया रूप सामने आया और अब इसमें तीन सदस्यों की नियुक्ति होने लगी। इन सदस्यों ने उत्साह से काम करना शुरू किया। जनता ने भी शिकायतों के ढेर लगा दिए। पर फिर जल्दी ही समझ में आया कि आयोग के पास भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए समुचित मात्रा में अनुभवी लोग ही नहीं हैं। मौजूदा मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री प्रत्यूष सिन्हा और उनके साथी सदस्य श्रीमती रंजना कुमार व श्री सुधीर कुमार ने इस समस्या का हल खोजा और तय किया कि क्यों न सेवानिवृत्त व ईमानदार छवि वाले वरिष्ठ अधिकारियों, बैंक प्रबंधकों व काॅरपोरेट मैंनेजमेंट के अनुभवी लोगों को बुला कर उनसे जांच करवाई जाए। ऐसा प्रस्ताव श्री सिन्हा ने सरकार को भेजा। सरकार कुछ फैसला ले पाती उससे पहले ही अदालत का एक आदेश आ गया कि आयोग को ऐसा करना चाहिए।



वैसे भी इस कानून के 8वें अनुच्छेद के तहत आयोग को अधिकार है कि आवश्यकता अनुसार वह सीधे जांच करवा सकता है। सामान्यतः आयोग यह जांच संबंधित विभाग के मुख्य सतर्कता अधिकारी व सीबीआई के अधिकारियों की मदद से करवाता है। पर यह प्रक्रिया काफी लंबी होती है और अपराधी को जल्दी सजा नहीं मिल पाती। भारत सरकार के विभाग, निगम और सार्वजनिक उपक्रम हर साल लगभग 1 लाख करोड रूपए की खरीदारी करते हैं। ये खरीदारी निविदाएं आमंत्रित करके की जाती हैं। अक्सर इनमें काफी घपले होते हैं। पर आयोग चाह कर भी इनकी जांच नहीं कर पाता। कारण आयोग के पास जांच करवाने के लिए अपने तीन सदस्यों के अलावा तीन सचिव, दो अतिरिक्त सचिव, 16 उप सचिव और लगभग 11 सीडीआई हैं। इनके अलावा मात्र दो चीफ इंजीनियर हैं। बाकी लगभग 250 कर्मचारी और हैं। यह अमला पूरी ताकत लगाने के बाद भी सरकारी खरीद के कुल मामलों में 5 फीसदी मामले भी पकड़ नहीं पाता। उनकी जांच करना तो दूर की बात है। इसलिए इन उपक्रमों में लगे भ्रष्ट लोगों के मन में आयोग का कोई खौफ नहीं। वे जानते हैं कि आयोग के पास इतने साधन ही नहीं कि वह उनके खिलाफ जांच कर सके। इसलिए बेखौफ हो कर काली कमाई में लगे रहते हैं।



श्री सिन्हा का कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह यह नियम बना दे कि सौ करोड रूपए सालाना से ज्यादा की खरीदारी करने वाले हर सौदे की जांच का अधिकार आयोग को होगा। फिर आयोग किसी भी सौदे की फाइलें मंगवा सकेगा। इससे निश्चित आयोग का डर बढ़ेगा। आज आयोग के पास गंभीर किस्म के लगभग 200 मामले विचाराधीन हैं पर उनको परखने वालों की कमी है। इसलिए अदालती आदेश के बाद आयोग ने फिलहाल 6 विशेषज्ञांे का पैनल बना लिया है। जिनमें से दो लोग प्रशासकीय अनुभव वाले हैं। दो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं और दो प्रबंधकीय क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। अब कोई शिकायत आने पर आयोग इन विशेषज्ञों की मौजूदगी में फैसला करता है कि उसे मामले की जांच करनी है या नहीं। पर इससे भी समस्या हल नहीं होती। इसलिए आयोग अपने सलाहकारों का पैनल बड़ा करना चाहता है। जिसमें ईमानदार, अनुभवी व बेदाग लोगों को रखा जाए और उनसे समय-समय पर शिकायतों की जांच करवाई जाए। ऐसे लोगों की सूची आयोग तैयार करना चाहता है जो पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता से हर मामले की जांच करें और इन्हंे सम्मानजनक मानदेय भी दिया जाए।



इसके साथ ही एक सुखद शुरूआत और हुई है। बर्लिन पैक्टनाम से मशहूर एक फैसले ने भ्रष्टाचार को रोकने का नया तरीका ईजाद कर लिया है। अब इसे भारत में भी लागू किया जाने लगा है। इसमें माल देने वाली फर्म और माल खरीदने वाली संस्था जैसे ओएनजीसी दोनों को एक साझे करार पर दस्तखत करने होते हैं। जिसमें दोनों पक्ष घूस न लेने और न देने की घोषणा करते हैं और ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनल यह ध्यान रखती है कि समझौते की शर्तों का उल्लंघन न हो। आयोग इस परंपरा को आगे बढाना चाहता है।



सरकार को चाहिए कि वह आयोग को बाहर से विशेषज्ञ बुला कर जांच करवाने की अनुमति प्रदान करें और आयोग को चाहिए कि वह ऐसे विशेषज्ञों के चयन की प्रक्रिया को इतना पारदर्शी बनाए कि देश भर से सच्चे, ईमानदार, अनुभवी व कार्यकुशल लोग आयोग की मदद के लिए सामने आ सके। उनके अनुभव का फायदा उठा कर आयोग बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की जांच इनसे करवा सकता है। यह एक अच्छी पहल होगी। फिर भी अगर सरकार आयोग को यह अनुमति नहीं देती है तो यही मानना पड़ेगा कि सरकार नहीं चाहती की भ्रष्टाचार पर अकुंश लगे। तब यह देश के लिए दुःखद स्थिति होगी।

Saturday, September 1, 2007

किसानों की किसे परवाह है ?

 Rajasthan Patrika 01-09-2007
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोंटेकसिंह अहलुवालिया और कांग्रेस के प्रखर नेता व पंचायतराज मंत्री श्री मणि शंकर अय्यर सभी एक स्वर से कहते हैं कि आजादी के बाद कृषि की और किसानों की उपेक्षा की गई है। वहीं दूसरी ओर योजना आयोग किसानों की भागीदारी को 54 प्रतिशत से घटा कर 6 प्रतिशत पर लाना चाहता है। यदि ऐसा हुआ तो 70 करोड़ किसान बेरोजगार हो जाएंगे। पहले से ही बेराजगारी की मार झेल रही सरकार इन करोड़ों बेरोजगार किसानों को कहाँ ले जाएगी, यह बात समझ से परे है। जब देश के लगभग एक लाख किसानांे ने आत्महत्या की तो प्रधानमंत्री ने उन्हें आर्थिक पैकेज दिया लेकिन इस पैकेज के बाद भी देश में किसानों की आत्महत्याएं कम नहीं हुई हैं। अब भी देश में प्रतिदिन औसतन 14 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

आश्चर्य है कि किसानों के वोटों के सहारे संसद में पहुंचने वाले सांसद या बड़े-बड़े राजनैतिक दल कोई भी किसानों की बर्बादी के खिलाफ जोर-शोर से आवाज नहीं उठा रहा है। सरकार के पास खेती, किसानी और किसान के साथ ही गांवों की जिंदगी को बचाने के लिए आखिर क्या दृष्टि है ? क्या सरकार ठेका खेती, निगमित खेती, जींन्स संशोधित बीजों के आधार पर ही खेती करवाना चाहती है ? ऐसी खेती से तो योजना आयोग, विश्व बैंक या डब्ल्यूटीओ सब में सामंजस्य हो जाएगा। सरकार भी खुश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी खुश। लेकिन किसान नहीं बचेगा। खेती नहीं बचेगी। कुल मिला कर भारत सरकार चाहती है कि यूरोप और अमेरिका की तरह खेती किसान नहीं मल्टीनेशनल कंपनियां करें। सरकार ये भूल जाती है कि भारत में किसानों के लिए खेती न केवल जीवकोपार्जन का साधन हैं बल्कि जीने का एक तरीका भी है। भारतीय कृषि व्यवस्था में खेती, किसान, उसका परिवार, उसके मवेशी, उसका समाज, उसका परिवेश व उसका पर्यावरण सभी आपस में गंुथे रहते हैं। सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। इतना ही नहीं देश के धार्मिक रीति-रिवाज, उत्सव और त्यौहार भी खेती के वार्षिक क्रम से ही जुड़े हैं।

मल्टीनेशनल कंपनियों के हित को ध्यान में रख कर बनाई गई नीतियों से इन कंपनियों को मोटा लाभ तो दिया जा सकता है, लेकिन खेती को नहीं बचाया जा सकता। दुनियां में जींस संशोधित खेती के खतरों पर जो शोध हुआ है उससे यह स्पष्ट हैं कि पर्यावरण व स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ता है। यही वजह है कि रासायनिक उर्वरकों के निर्माता अमेरिका व यूरोप में भी जैविक उत्पाद, रसायन उत्पादों की तुलना में डेढ गुने महंगे बिक रहे हैं। लोग स्वस्थ्य रहने के लिए और आने वाली पीढियों को बचाने के लिए जैविक उत्पाद ही खरीदना पसंद करते हैं। भारत की खेती तो परंपरागत रूप से ही जैविक थी। कहा गया अधिक से अधिक रासायनिक खाद डालो, कीटनाशक डालो तो फायदा होगा। हुआ इसका उल्टा ही, अब यह स्थिति आ गई है कि अनाज और सब्जियों के माध्यम से धीरे-धीरे जो रासायनिक जहर हमारे शरीर में पहंुच रहा हैं वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों को बढा रहा है। शोध ने सब कुछ साबित कर दिया है लेकिन हुक्मरान थोड़े से लाभ के लालच में आंख मूंदे बैंठे है। कहावत है कि बिल्ली को देख कर कबूतर आंख बंद कर लेता है, पर क्या आंख बंद करने से देश का किसान व खेती बच सकती है ?

यह बड़े दुःख और चिंता की बात है कि भारत सरकार अपनी नीति से देश के करोडों किसानों की जिंदगी बर्बाद करने जा रही है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इसका मुखर विरोध नहीं कर रहा है। लगता है कि शहरी मानसिकता ने राजनैतिक नेतृत्व को गांवों के प्रति संवेदनाशून्य बना दिया है। गांव उजड़ें तो उजड़ जाएं, कृषि बर्बाद हो तो हो जाए पर हित दूसरों के साधे जाएंग,े अपनों के नहीं। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि चाहे पंजाब के किसान संगठन हों, भारतीय किसान यूनियन हो, कर्नाटक का रैयतबाड़ी संघ हो या महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन कोई भी किसानों के ऊपर मंडरा रहे खतरों के बादलों को देख नहीं पा रहा है। कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन नहीं खड़ा हो रहा है। मध्य प्रदेश की किसान संगठन समिति के संस्थापक अध्यक्ष डा. सुनीलम का आरोप है कि राजनेता और बुद्धिजीवी शहर केन्द्रित हो गए हैं और गांवों की सोचना भी नहीं चाहते। आज अमेरिका से परमाणु संधि पर तो देश में इतना शोर मच रहा है। पर देश के कृषि क्षेत्र में अमेरिकी घुसपैंठ से हम सब काफी अनजान हैं। देश के कृषि क्षेत्र पर कब्जा करके अमेरिका नव-साम्राज्यवाद का विस्तार करना चाहता है। ऐसा लगता है कि अमेरिका को जहां-जहां संसाधन दिखाई देते हैं वहीं-वहीं वह अपनी छुपी रणनीति के तहत काम कर रहा है।

भारत की पूरी खेती ‘इंडो यूएस नाॅलेज इनिशिएटिव’ के नाम पर शहीद की जा रही है। कृषि शोध संस्थानों, भारत के कृषि विश्वविद्यालयों और भारत की कृषि की दिशा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले छोड़े जाने की साजिश की जा रही है। इसी कार्यक्रम के तहत अमेरिका के साथ हो रहे कृषि समझौते की दिशा को तय करने के लिए बनें बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों को न रख कर कारगिल और मोनसेंटों जैसी दुर्दान्त कंपनियों के प्रतिनिधियों को रखा गया है। इस देश के कृषि वैज्ञानिकों के योगदान की यह अनोखी उपेक्षा किसी और विकासशील देश में शायद ही देखने को मिले। देश के कृषि वैज्ञानिकों ने देश को खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर बनाया था। पर जब कृषि योग्य भूमि व उससे जुड़े अनेक पहलुओं पर समझौते हो रहे हैं तो बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रखा जाना, देश के हुक्मरानों की कैसी नीति है ? जनता को भी यह सवाल करना चाहिए कि क्या भारत के कृषि वैज्ञानिकों पर भारत सरकार का भरोसा पूरी तरह से समाप्त हो गया है? सरकार यह कह सकती है कि पहली हरित क्रांति के पक्ष में तो आप थे तो अब दूसरी हरित क्रांति का विरोध क्यों कर रहे हैं ? दरअसल दोनों में अंतर है।

विरोध इसलिए कि तब कृषि वैज्ञानिकों ने भारत के किसानों को तकनीकी सांैपी थी। अब तकनीकी का पेंटेंट कंपनियों के पास हैं, जिससे वे अधिकतम मुनाफा कमाना चाहती हैं। अमेरिका के साथ हो रही परमाणु संधि की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन कृषि समझौता सुनियोजित तौर पर दबा दिया गया है। जबकि परमाणु संधि की तरह ही सरकार की यह पहल भी राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह ही खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। आखिरकार सरकार सब कुछ क्यों इन कंपनियों को सौपना चाहती हैं ? पहले पीने का पानी, फिर बीज और अब किसानों की जमीनें भी कंपनियांे को सौपी जा रही हैं। कृषि उपयोगी भूमि का कंपनियों को हस्तांतरण किसी भी हालत में रोका जाना चाहिए। किसानों की यदि 100 एकड़ जमीन कंपनी को दी जाती है तो उसमें से 25 एकड भी कंपनी वास्तविक उपयोग में नहीं लाती। यह पूरा रीयल स्टेट बिजनेस बन गया है। इसलिए किसान चिंतित और उत्तेजित हैं। सोचने वाली बात है कि देश का किसान अपनी कुर्बानी देकर भी एसईजेड का विरोध क्यों कर रहा है ? जिन देशों को हम आज विकसित राष्ट्र कहते हैं उनमें भी एसईजेड के माध्यम से तरक्की नहीं हुई। हमारी सरकार 2 लाख करोड़ रू. की सब्सिडी कंपनियों को दे रही है। पर खेती के लिए 50 हजार करोड सब्सिडी की बात आती है तो देश के वित्तमंत्री कहते हैं कि संसाधन कहां से आएगा। इच्छा शक्ति होने पर संसाधन जुटाए जाते हैं, जुटाए गए हैं लेकिन केन्द्र सरकारों की पूरी प्राथमिकता आजादी के बाद शहरों और उद्योगों के लिए रही। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का गांधी का रास्ता अगर अपनाया गया होता तो नतीजा आज किसानों की आत्म हत्या के रूप में नहीं बल्कि कुछ अलग ही होता। गांधी की विरासत का झंडा लेकर चलने वाली सरकार को तो इस पूरे मामले पर खुले दिमाग से फिर से सोचना चाहिए। कृषि सुधरे पर किसानों को बर्बाद करके नहीं, उन्हें खुशहाल बना कर, वरना गांव उजड़ेंगे, शहरों पर बोझ बढेगा, हिंसा बढेगी और देश में अराजकता फैलेगी।

Sunday, August 26, 2007

मायावती के बदले तेवर

Rajasthan Patrika 26-08-2007
चैथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी सुश्री मायावती के प्रशासनिक निर्णयों की धमक प्रदेश के नगरों में सुनी जाने लगी है। गत दिनों पश्चिमी उ.प्र. के बुलंदशहर जिले में एक जैविक फार्म देखने जाते हुए हम कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध पिलखुआ में रूके तो वहां के कुछ उद्यमियों से बात हुई। सबका एक स्वर से कहना था कि नई सरकार के आते ही उनके इलाके से गqडों का आतंक समाप्त हो गया है। पहले ये उद्यमी दिन छिपते ही अपने कारखाने बंद करके घर भागते थे। वरना घर के रास्ते में लुट जाने या अपहरण हो जाने का खतरा था। पर अब रात के 12 बजे तक भी फैक्ट्री चला रहे हैं और बेखौफ घर जाते हैं। यह एक सुखद सूचना थी। ऐसी ही सूचनाएं प्रदेश के अन्य नगरों से भी मिल रही हैं। दरअसल सुश्री मायावती के तेवर इस बार काफी बदले हुए हैं। उ.प्र. में बहुत लंबे समय के बाद बहुमत की सरकार बनी है। वे सबकी अपेक्षाओं के विपरीत अपने दमखम पर सत्ता में आई हैं। इतना ही नहीं उनकी सोशल इंजीनियरिंग ने इंका व भाजपा के जनाधार को भी झकझोर दिया है। इससे इन दोनों बड़े दलों में घबड़ाहट है।

राजनैतिक विश्लेश्क यह मान रहे हैं कि अगर वे ऐसे ही चलती रहीं तो अगले लोक सभा चुनाव में देश की एक सशक्त नेता के रूप में उभरेंगी। शायद अपने इसी दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखकर वे अपनी सरकार चला रही हैं। जिससे देश के मतदाताओं को अपने कुशल और प्रभावशाली प्रशासक होने का संदेश दे सकें। सत्ता में आते ही अपने ही दल के सांसद को अपने घर पुलिस बुला कर गिरफ्तार करवाने का जो अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम उन्होंने किया उसका एक जोरदार संदेश पूरे प्रदेश में गया। ये सांसद गिरफ्तारी से बचते फिर रहे थे। सुश्री मायावती ने अपने दल के सभी सांसदों और विधायकों को कड़े निर्देश दिए हैं कि वे नेतागिरी के नाम कानून व्यवस्था से छेड़छाड न करें। प्रशासनिक अधिकारियों को सिफारिशों से परेशान न करें। उन्होंने दल के कार्यकर्ताओं को दलाली के लिए सरकारी दफ्तरों में चक्कर काटने से साफ मना किया है। प्रदेश में गुंड़ों, अपराधियांे, अपहर्णकर्ताओं के खिलाफ कड़े प्रशासनिक कदम उठा कर उन्होंने जनता को भयमुक्त प्रशासन देने का वायदा पूरा किया है। जिसका असर प्रदेश में साफ दिखाई दे रहा है। वैसे भी सुश्री मायावती की कार्यशैली से वाकिफ अफसरशाही उनके फरमानों की उपेक्षा करने की हिम्मत नहीं करती।

भारत के इतिहास में ये शायद पहली बार हुआ कि सुश्री मायावती ने प्रदेश के आईएएस अधिकारियों के उपर एक गैर आईएएस टेक्नोक्रेट श्री शशांक शेखर को कैबिनेट सचिव बना कर बैठा दिया। अभी तक कैबिनेट सचिव का पद केवल भारत सरकार में हुआ करता था। श्री शेखर एक अनुभवी और योग्य अधिकारी हैं। जिनपर सुश्री मायावती को पूरा भरोसा है और प्रदेश के आईएएस अधिकारी ये कह कर मन को तसल्ली दे रहे हैं कि श्री शेखर की नियुक्ति राजनैतिक है नाकि प्रशासनिक। सबसे बड़ी बात तो यह है कि, ‘तिलक तराजू और तलवार, इनकी मारो जूते चार’ का नारा देने वाली सुश्री मायावती आज सभी सर्वर्णों को साथ लेकर चल रहीं हैं और उनकी सत्ता में पूरी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं जिससे जनता में उनकी छवि एक सर्वमान्य नेता के रूप में बनने लगी है।

उधर उनके विरोधियों का कहना है कि यह सब केवल लोक सभा चुनाव तक ही चलेगा। उनके आलोचकों का यह भी कहना है कि इन प्रशासनिक कदमों से प्रदेश के आर्थिक विकास और प्रशासनिक कार्यकुशलता में कोई स्थायी सुधार नहीं होगा। यह केवल लोकप्रियता हासिल करने के हथकंडे हैं। पर लखनऊ स्थित राज्य सचिवालय का दौरा करने पर कुछ और ही माहौल नजर आता है। सभी आला अफसर अपने कमरों में मिले। हैरत यह देखकर हुई कि हर अफसर अपने विभाग के कामों को तेजी से निपटाने में जुटा है और आगंतुकों को संतुष्ट करके ही भेज रहा है। हर आगंतुक की समस्या के समाधान लिए प्रमुख सचिव भी अपने अधीनस्थ अधिकारियों को फौरी निर्देश देते जा रहे हैं। इतना ही नहीं स्वयं श्री शशांक शेखर प्रदेश के आर्थिक विकास में गति लाने के लिए काफी उत्साहित नजर आए।

कहते हैं कि हर नई सरकार का हनीमून छह महीने तक होता है फिर तलाक का माहौल बनने लगता है। यदि सुश्री मायावती की भी सरकार का यही होना है तो जनता को निराशा हाथ लगेगी। पर शायद ऐसा है नहीं। सुश्री मायावती की अल्पआयु, सामाजिक पृष्ठभूमि, संगठनात्मक सूझबूझ और नेतृत्व क्षमता ने उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ा दिया है। यहां तक कि वे स्वयं को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगी हैं। इसलिए उनके व्यक्तित्व में तेजी से बदलाव आ रहा है। वे देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, भौगालिक और राजनैतिक बहुलता के फायदों को और दबावों को भी समझने लगी हैं। वे स्वयं को उ.प्र. की सीमाओं के बाहर परखने लगी हैं। इस बात के पूरे संकेत हैं कि राजस्थान के आगामी विधानसभा चुनाव में वे ऐतिहासिक भूमिका निभाने जा रही हैं।

उपरोक्त परिवर्तन तो प्रशंसनीय हैं ही पर आम जनता तक सरकार की योजनाओं का लाभ पहुंचाना इतना आसान नहीं। प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था वही औपनिवेशिक मानसिकता वाली है। राज्य की आर्थिक मजबूरियां भी कम नहीं हुई हैं। योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में मौलिक सोच नहीं है और फिलहाल कोई क्रांतिकारी बदलाव भी नहीं आया है। जिसके बिना कुछ ठोस और स्थायी हो पाना संभव नहीं हैं। ऐसी हालत में उपलब्धियों का भी फाइलों में सिमटे रह जाने का खतरा बना हुआ है। यदि सुश्री मायावती वास्तव में भारत में इतिहास रचना चाहती हैं तो उन्हें तुर्की के मुस्तफा कमाल पाशा या सिंगापुर या कोरिया के पूर्व राष्ट्रपतियों की जीवनी पढ़नी चाहिए। कैसे इन नेताओं ने अपनी नेतृत्व क्षमता के बल पर ही अपने देशों की तकदीर बदल दी। सुश्री मायावती को चाहिए कि वे केवल डा.अम्बेडकर के प्रति आसक्त न रहे बल्कि श्री चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक देव, संत कबीर दास, संत तुका राम जैसे मध्ययुगीन संतों की वाणी की भी समझ पैदा करें। इन महान संतों ने सामाजिक विषमताओं से त्रस्त आम जन को बहुत राहत दी थी। उन्हें समाज के निम्न से निम्न वर्ग को उपर उठाया पर बिना द्वेष पैदा किए। आज फिर से देश में वैसी ही भावना की आवश्यकता है। जिससे सामाजिक सौहार्द स्वतः ही पैदा हो जाता है। किसी एक जाति और विचारधारा से बंध कर नहीं बल्कि सबको साथ लेकर चलने से ही किसी नेतृत्व का जनाधार व्यापक बनता है। सुश्री मायावती को चाहिए कि वे सम्राट अकबर की तरह अपने सलाहकारों के मंडल में हर क्षेत्र के योग्य व्यक्तियों को लेकर अपने नवरत्न तैयार करें जो उनकी भावी भूमिका के अनुरूप उन्हें सही सलाह, सही दृष्टि और सही शब्द देकर आगे बढ़ाएं। अगर वे ऐसा कर पाती हैं तो उनकी राजनैतिक उपलब्धियों को कोई शतरंज का खिलाडी शह नहीं दे पाएगा।

Sunday, August 19, 2007

परमाणु संधि पर इतना बवाल क्यों है ?

Rajasthan Patrika 26-08-2007
लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का राष्ट्र के नाम संबोधन इस बार कुछ फीका रहा। अमेरिका से भारत की परमाणु संधि को लेकर उठे विवाद की छाया में शायद प्रधानमंत्री तनाव ग्रस्त थे। यह बात दूसरी है कि उन्होंने इसका जिक्र अपने भाषण में नहीं किया। वामपंथी दल इस बात पर अड़े हैं कि इस पूरे मामले पर नियम 193 के तहत संसद में बहस कराई जाए। जाहिर है कि इस बहस से सरकार की काफी छीछालेदर होगी। इसलिए भी सरकार के लिए यह असहज स्थिति इसलिए भी होगी क्योंकि वामपंथी दल सरकार में उसके सहयोगी हैं। इसलिए सरकार यह बहस नहीं चाहती और यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने सूमोटोयानी अपने आप ही संसद में वक्तव्य देने का फैसला किया। पर उनके वक्तव्य पर सदन में खूब शोर मचा कर विरोध हुआ। जिसमें विपक्षी ही नहीं वामपंथी दल भी शामिल थे, जो सदन से बाहर निकल गए। राज्य सभा में तो प्रधानमंत्री को बोलने ही नहीं दिया गया और वे यह कह कर बैठ गए कि उनके वक्तव्य को पढ़ा हुआ मान लिया जाए। नियम 193 के तहत बहस में सरकार के लिए खतरा तो कोई नहीं है क्योंकि इसमें मतदान नहीं होता पर फजीहत तो होगी ही।



दरअसल, ये सारा बवाल तब मचा जब कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ ने प्रधानमंत्री का एक वक्तव्य छापा जिसमें उन्हें ये कहते हुए उदृत किया गया कि परमाणु संधि तो हो चुकी, इस पर अब कोई पुनर्विचार नहीं होगा और वामपंथी दलों को जो कदम उठाना है उठा लें। शुरू से ही इस संधि का विरोध कर रहे वामपंथी दलों को भड़काने के लिए यह वक्तव्य काफी था। वैसे भी उनका मानना है कि सरकार की विदेश नीति पर अमेरिका हावी है। इस संधि के प्रावधानों को देख कर वामपंथी दल सशंकित हैं। उन्हें डर है कि अमेरिका इस संधि के माध्यम से गंभीर परिस्थितियों में भारतीय विदेश नीति को अपने हित में मोड़ लेगा। राजग की सरकार के समय जब भारत ने परमाणु विस्फोट किया था तो अमेरिका ने भारत के खिलाफ इकतरफा प्रतिबंध लगा दिया और ये प्रतिबंध उन उपकरणों और सामानों पर लगाए गए जिनका दोहरा उपयोग संभव था। यानी शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भी और नाभकीय विघटन के लिए भी। ईरान के मामले में भी अमेरिका भारत पर लगातार दबाव डालता रहा है। जबकि भारत की ईरान नीति मित्रतापूर्ण रही है। वामपंथी दलों को शायद यह भी डर है कि ईरान से अफगानिस्तान और पाकिस्तान होकर भारत तक लाई जाने वाली गैस पाइप लाइन का अमेरिका विरोध करेंगा क्योंकि अमेरिका ने ईरान को आतंकवादी देशों की सूची में शुमार कर रखा है।

दूसरी तरफ भाजपा और समाजवादी पार्टी व यूएनपीए के बाकी घटक दल हैं जो सदन में नियम 184 के तहत बहस चाहते हैं। इस बहस से सरकार को बहुत बड़ा खतरा है। नियम 193 में मतदान नहीं होता लेकिन नियम 184 में बहस के बाद मतदान होगा और हालात ऐसे हैं कि अगर वामपंथी दलों ने भी विपक्षी दलों के साथ मिल कर मतदान कर दिया तो सरकार को अपने समझौते में परिवर्तन करने पर मजबूर होना पड़ेगा। दरअसल अमेरिका में यह नियम है कि हर अंतर्राष्ट्रीय संधि तभी वैध होती है जब उसके पक्ष में सीनेट में बहस के बाद बहुमत हो जाए। भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अलबत्ता वामपंथी दल यह अवश्य चाहते हैं कि हमारे संविधान में भी परिवर्तन किया जाए और यह व्यवस्था की जाए कि हर अंतर्राष्ट्रीय संधि संसद में बहस होने और बहुमत प्राप्त होने के बाद ही वैध मानी जाए। चूंकि लोक सभा के अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी भी वामपंथी दल से हैं इसलिए जाहिर है उनका व्यक्तिगत झुकाव सरकार की परमाणु संधि के खिलाफ होगा और वे इस संधि पर बहस करवाना भी चाहेंगे। वे  नियम 193 के तहत अनुमति देते हैं या नियम 184 के तहत ये फैसला तो वे अपने विवेक से और अपनी पद की अपेक्षाओं के अनुरूप ही करेंगे। पर अब लगता यही है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि पर जोरदार बहस होगी।

नतीजा जो भी हो सरकार पर करारा हमला होगा। रोचक तथ्य यह भी है कि इस मुद्दे पर भाजपा और वामपंथी दल एक साथ खड़े हैं जबकि राजग के शासनकाल में वामपंथी दलों का आरोप था कि वाजपेयी सरकार ने अमेरिका के आगे घुटने टेक दिए हैं। हर दल संसद की बहस से अपनी राजनैतिक पूंजी बढ़ाना चाहेगा लेकिन इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि अंतर्राष्ट्रीय संधियों को संसद की स्वीकृति मिलनी चाहिए। वरना कोई भी सरकार कभी भी निरंकुश होकर राष्ट्रहित को जाने-अनजाने में बलिदान कर सकती हैं। यह इसलिए भी जरूरी है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में निरंतरता की आवश्यकता होती है। जिस बात से आज विपक्ष सहमत नहीं, हो सकता कल सत्ता में आकर वह उसे पलटना करना चाहे। ऐसे में देश की साख पर बट्टा लगेगा। यदि अमेरिकी माॅडल के अनुसार ही अंतर्राष्ट्रीय संधियांे का भारत के संसद में भी अनुमोदन या संशोधन होने लगे तो उनमें निरंतरता बनी रहेगी। जहां तक भारत-अमेरिका परमाणु संधि की बात है, अमेरिका की शुरू से यही कोशिश रही है कि भारत परमाणु मामले में उसकी छत्रछाया में आ जाए। पिछली बार जब अमेरिका के राष्ट्रपति बुश भारत आए थे तब से इस मुद्दे पर हुई हर बैठक में चाहे वह प्रधानमंत्री स्तर की हो, विदेश मंत्री स्तर की हो या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की अमेरिका भारत पर अपनी शर्तें थोपने की पुरजोर कोशिश करता रहा है। प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया कि इस समझौते से हमारी सम्प्रभुता का बलिदान नहीं किया गया है। पर इंडियन एक्सप्रेस ने अमेरिकी शासन के एक उपसचिव के हवाले से खबर छापी है कि अमेरिका भारत के शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट को भी बर्दाश्त नहीं करेगा। इस खबर की भारत या अमेरिकी सरकार ने आधिकारिक पुष्टि नहीं की है। इसलिए भ्रम की स्थिति बनी हुई है। उधर वामपंथी दल अपनी पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद ही अपने अगले कदम का ऐलान करेंगे। सरकार से समर्थन वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है लेकिन इस मुद्दे पर वे चुप भी नहीं बैठंेगे। आने वाले दिन प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के लिए कठिन परीक्षा के होंगे।

Sunday, August 12, 2007

एड्स पर आकडों में अचानक इतनी गिरावट क्यों आई ?

पिछले दिनों एड्स को लेकर देश में एक अति महत्वपूर्ण खबर को नजरंदाज कर दिया गया जबकि इस खबर ने एड्स के पूरे प्रचार अभियान पर अनेक सवाल खडे कर दिए हैं जिनका जवाब न तो नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन (नाको) के पास है और ना ही भारत सरकार के पास। नाको ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पाॅजिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है।

उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत मंे एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।’ इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है। 10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झूठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है और इनकी वेबसाइट है ूूूण्ंपकेउलजीण्बवउ। इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की। इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या ‘जानलेवा’ मानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ?

दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फर्रेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है। सवाल उठता है कि एड्स को महामारी बता कर विज्ञापनों और एड्स रोकथाम कार्यक्रमों पर जो रूपया पानी की तरह बहाया गया उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? वो स्वयंसेवी संगठन और फिल्मी सितारे भी कम गुनाहगार नहीं जो एड्स के प्रचार अभियान से जुड़ कर मोटी कमाई करते रहे और जनता के बीच भय और आतंक पैदा करते रहे। इस पूरे मामले की विस्तृत जांच होनी चाहिए ताकि इस अंतर्राष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो। नाको की इस घोषणा के गंभीर परिणाम निकलेंगे क्योंकि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि एड्स का भय दिखा कर नाको और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड किया है और जनता के कर के अरबों रूपयों को पानी की तरह बहाया है जिसके लिए नाको के निदेशक व यूएन एड्स के भारतीय निदेश टेनिस ब्राउस व भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को सवालों के घेरे में खड़ा किया जाना चाहिए और इनसे हर सवाल का स्पष्ट जवाब मांगा जाना चाहिए।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

Sunday, August 5, 2007

सांसदों और विधायकों की भी जरूरी है जवाबदेही

Rajasthan Patrika 05-08-2007
लोकसभाध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि संसद का बहिष्कार करने वाले सांसदों का दैनिक भत्ता काट लिया जाना चाहिए। आपको शायद ज्ञात हो कि लोक सभा सत्र के दौरान मात्र एक मिनट की लोकसभा कार्यवाही पर सदन का खर्चा 26,035 रूपए आता है। श्री चटर्जी का मानना है कि ऐसे कानूनी प्रावधान या नियम तय किया जाना चाहिए जिनसे सांसद सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से निभाएं। संसद के आगामी सत्र में इस मुद्दे को वे विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं के साथ उठाने का मन बना चुके हैं। निःसंदेह यह गंभीर समस्या है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे सांसद हो या विधायक अक्सर सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह गंभीरता से नहीं करते।



वैसे तो सांसदों के आचरण से क्षुब्ध हो कर तत्कालीन दिवंगत लोकसभाध्यक्ष श्री जीएमसी बालयोगी ने लगभग पांच साल पहले उठाई थी और कुछ शख्त कार्यवाही पर सहमति भी बनी थी पर उसे लागू करने में विभिन्न पार्टी नेताओं की आनाकानी से उसमें वे सफल नहीं हो पाए थे। परंतु इस बार अगर श्री सोमनाथ चटर्जी के पहल पर गंभीरता से सभी पार्टी नेता अपना अपना सहयोग संासदों के आचरण के सुधार की पहल में करते हैं तो कोई कारण नहीं जो लोक सभा की कार्यवाहियों के समय को जाया जाने से बचाया न जा सके। अगर ऐसा लोकसभा में हो जाता है तो इससे सीख लेकर प्रदेश सरकार अपने-अपने विधानसभाओं में विधायकों को सांसदों के आचरण का अनुशरण जैसी सीख देने में सफल हो सकते हैं वरना जनता के गाढे खून-पसीने की कमाई को यूं ही जनसेवक बर्बाद करते रहेंगे और जनता यूं ही देखती रह जाएगी।

सांसदों के आचरणों के कारण 13वीं लोक सभा सत्र के दौरान हो-हल्ला में 22.4 प्रतिशत समय नष्ट हुआ था और 14वीं लोक सभा सत्र के दौरान अभी तक 26 फीसदी समय नष्ट हो चुका है, अब आप समझ सकते हैं कि मात्र एक मिनट लोक सभा कार्यवाही का खर्चा जब 26,035 रूपए आता है तो 13वीं व 14वीं लोक सभा सत्र के दौरान इतने समय की कीमत से अगर विकास कार्य होता या किसानों के कर्ज को माफ किया गया होता तो आए दिन कर्ज के कारण देश जिस प्रकार किसान आत्म हत्या कर रहे हैं उनमें से कुछ को अवश्य ही बचाया जा सकता है। एक तरफ तो कर्ज और भुखमरी के कारण लोग असमय मर रहे हैं और दूसरी ओर समय की कीमत को न समझना यह समझदारी कतई नहीं हो सकती।  

कुछ वर्ष पहले मेरे मित्र श्री सूर्य प्रकाश ने सांसदों के व्यवहार पर एक शोध किया। अनेकों सांसदों से बातचीत के आधार पर उन्होंने अंग्रेजी में अपनी पुस्तक व्हाॅट एल्स इंडियन पाॅलियामेंट-एन एग्ज़क्टिव डाग्नोसिसछापी। जिसमें खुद सांसदों ने यह स्वीकारा था कि वे किस तरह का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार सदन में करते हैं।

मसलन, सांसदों ने ही बताया कि किस तरह बिना कोरम पूरे किए ही महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा की खानापूर्ति हो जाती है। उन्होंने यह भी बताया कि अक्सर सांसदों की रूचि संसद की कार्यवाही में नहीं होती और वे अपनी उपस्थित रजिस्टर पर दस्तखत करके सत्र के दौरान सदन से गायब रहते हैं, दस्तखत इसलिए करते हैं कि उन्हें भत्ते के रूप में मिलने वाली धनराशि 1000 मिल जाए। सांसदों ने यह भी बताया कि प्रश्न पूछने के लिए किस तरह के गैर-जिम्मेदाराना कार्य किए जाते हैं, जिनसे अपने क्षेत्र या देश का हित नहीं बल्कि निहित स्वार्थों का हित पूरा होता हैं। पिछले एक दशक में उजागर हुए अनेक किस्म के घोटालों से बहुत से सांसदों के चरित्र और कार्य शैली पर प्रश्नचिन्ह लग गए हैं, जिनका यहां खुलासा करने की आवश्यकता नहीं हंै। इस सब के बावजूद यह जरूरी है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहे वे सांसद हो या विधायक सदन के प्रति जिम्मेवारी से व्यवहार करें और इसके लिए कानून और नियमों में आवश्यक सुधार किए जाएं। लोक सभा अध्यक्ष को यह पहल करनी ही चाहिए और हर दल के अध्यक्ष को इस प्रयास में सकारात्मक सहयोग देना चाहिए। इससे सदन की गरिमा बढ़ेगी और विधायिका के प्रति जनता में विश्वास बढेगा।

जब सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों और निजी क्षेत्र में लगे लोगों से अनुशासित आचरण की अपेक्षा की जाती हैं और जरा सी लापरवाही पर दण्डात्मक कार्यवाही की जाती है तो फिर सांसदों और विधायकों से ऐसे आचरण की अपेक्षा क्यों न की जाए। कहावत भी है कि यथा राजा तथा प्रजा। संासदों और विधायकों का आचरण अनुकरणीय होना चाहिए। निजी जीवन में न सही पर कम से कम सदन में तो उसकी मर्यादा के अनुरूप आचरण किया ही जाना चाहिए। जो भी सांसद या विधायक सदन की कार्यवाही के दौरान उपस्थित रजिस्टर पर दस्तखत करने के बाद भी उपस्थित न रहे उनका दैनिक भत्ता तो काटा ही जाए लगातार तीन बार ऐसा करने पर संसदीय समितियों से हटा दिया जाए और इसके बावजूद भी उनका व्यवहार न बदले तो दिल्ली में दी गई उन्हें आवास या अन्य सुविधाएं वापस लेने की कार्यवाही शुरू करनी चाहिए। कुल मिला कर प्रयास यही होना चाहिए कि सांसद और विधायक सदन के सत्र के दौरान जिम्मेदारी से व्यवहार करें जिससे जनता की आस्था उनमें बढे इस प्रयाय के लिए श्री सोमनाथ चटर्जी का मुक्त हृदय से समर्थन किया जाना चाहिए। पूरे देश के जागरूक नागरिकों विशेष कर युवाओं को इस  प्रयास के समर्थन में अध्यक्ष को पत्र लिखने चाहिए जिससे उनका मनोबल बढ़े।